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Tuesday, December 21, 2010

अक्षर छत्तीसगढ़

सुतनुका का प्रेम संदेश
'ओड़ा-मासी-ढम', अजीब से लगने वाले ये छत्तीसगढ़ी शब्द, विद्यारंभ संस्कार के समय लिखाए जाने वाले 'ओम्‌ नमः सिद्धम्‌' का अपभ्रंश हैं, यानि ककहरा (वर्णमाला) 'क ख ग घ' या 'ग म भ झ' का अभ्यास, इस मंत्र से आरंभ होता था। अब भी कहीं-कहीं पाटी-पूजा के रिवाज में यह प्रचलित है। इस मंत्र का उपयोग विनम्रतापूर्वक अपनी अपढ़-अज्ञानता की स्वीकारोक्ति के लिए भी किया जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ में पुराने जमाने के सबूत कम उजले नहीं हैं।

पहले कुछ बातें, लिखावट की। सभ्यता के क्रम में विचारशील मानव ने अपने भावों को भाषा में और फिर भाषा को लिपि में ढालकर, दूरी और काल की सीमाओं को लांघने का साधन विकसित किया है। हड़प्पा सभ्यता की ठीक-ठीक पढ़ी न जा सकी लिपि और मौर्यकाल के प्रमाणों के बीच, लगभग 2500 साल पुराने बौद्ध ग्रंथ 'ललित विस्तर' में 64 तथा जैन सूत्रों में 18 लिपियों की सूची मिलती है। इन्हीं सूचियों की ब्राह्मी लिपि से विकसित (भारत की लगभग सभी लिपियां और) हमारी आज की देवनागरी लिपि, सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि मानी गई है। यही नहीं, भले ही कागज का अविष्कार लगभग 2000 साल पहले चीन में हुआ माना जाता है, लेकिन 2400 साल पहले निआर्कस ने लिखा है कि हिन्दू (भारतीय) लोग कुंदी किए हुए कपास पट (कपड़े जैसे कागज) पर पत्र लिखते हैं।

छेनी, लौह-शलाका, बांस, नरकुल और खड़िया लेखनी बनती थी और मसि या स्याही सामान्य प्रयोजन के लिए कोयले को पानी, गोंद, चीनी या अन्य चिपचिपा पदार्थ मिलाकर बनाई जाती थी। स्थायी स्याही लाख का पानी, सोहागा, लोध्रपुष्प, तिल के तेल का काजल आदि को मिलाकर खौलाने से बनती थी। भूर्जपत्रों पर लिखावट के लिए उपयोगी, बादाम से बनाई गई स्याही तथा रंगीन स्याही का उल्लेख व तैयार करने का विवरण भी पुरानी पोथियों में प्राप्त होता है।

लिखना, लिपि, ग्रंथ जैसे शब्दों के मूल में लेखन की क्रिया-प्रक्रिया ही है। 'लिख' धातु का अर्थ कुरेदना है। 'लिपि' स्याही के लेप के कारण प्रचलित हुआ। 'पत्र' या 'पत्ता' भूर्जपत्र और तालपत्र के इस्तेमाल से आया। पत्रों के बीच छेद में धागा पिरोना 'सूत्र मिलाना' है और सूत्र ग्रंथित होने के कारण पुस्तक 'ग्रंथ' है, जबकि 'पुस्त' शब्द का अर्थ पलस्तर या लेप करना अथवा रेखाचित्र बनाना है। यानि ग्रंथ बनने की प्रक्रिया में पहले पत्रों पर लोहे की कलम अथवा सींक से अक्षर कुरेदे जाते थे, स्याही का लेप कर अक्षरों को उभारा जाता था, छेद बना कर उसमें धागा पिरोया जाता था तब वह ग्रंथ बनता था।

 किरारी काष्‍ठ स्‍तंभ
छत्तीसगढ़ में सभ्यता ने लिखावट के पहले-पहल जो प्रमाण उकेरे उनमें उड़ीसा की सीमा पर स्थित विक्रमखोल का चट्टान लेख है, जो हड़प्पा और ब्राह्मी लिपि के संधिकाल का माना गया है। आगे बढ़ते ही साक्षर छत्तीसगढ़ की तस्वीर साफ होती है, सरगुजा के रामगढ़ में, जहां पत्थर पर उकेरा, दुनिया का सबसे पुराना प्रेम का पाठ सुरक्षित है- 'सुतनुका देवदासी और देवदीन रूपदक्ष' का उत्कीर्ण लेख। किरारी से मिले लकड़ी पर खुदे दुनिया के सबसे पुराने कुछ अक्षर आज भी महंत घासीदास संग्रहालय, रायपुर में सुरक्षित हैं, जिसमें तत्कालीन राज व्यवस्था के अधिकारियों के पदनाम हैं और यहीं कुरुद का वह ताम्रपत्र भी है, जिसमें राजकीय अभिलेखागार के अस्तित्व और ताम्रपत्रों के चलन में आने की पृष्ठभूमि पता लगती है। महाभारत में उल्लिखित छत्तीसगढ़ के ऋषभतीर्थ-गुंजी में एक-एक हजार गौ के दान का हवाला है वहीं छत्तीसगढ़ी का सबसे पुराना नमूना, दन्तेवाड़ा के दुभाषिया शिलालेख में पढ़ने को मिलता है।

मत्स्यपुराण का उल्लेख है - ''शीर्षोपेतान्‌ सुसम्पूर्णान्‌ समश्रेणिगतान्‌ समान। आन्तरान्‌ वै लिखेद्यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः॥'' अर्थात्‌ उपर की शिरोरेखा से युक्त, सभी प्रकार से पूर्ण, समानान्तर तथा सीधी रेखा में लिखे गए और आकृति में बराबर अक्षरों को जो लिखता है वही श्रेष्ठ लेखक कहा जाता है। यह कोटगढ़ (अकलतरा) के शिलालेख के इस हिस्‍से में घटा कर देखें।

वृहस्पति का कथन है - ''षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्‍यतः पुरा॥'' अर्थात्‌, किसी घटना के छः माह बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है। किन्तु भ्रम से बचने के लिए ब्रह्मा द्वारा बनाई अक्षरों की लिपि 'ब्राह्मी' पढ़ना ही भुला दी गई और जब 1837-38 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी की पूरी वर्णमाला उद्‌घाटित की, तब देवताओं का लेखा, बीजक या गुप्त खजाने का भेद समझे जाने वाले लेख, इतिहास की रोमांचक जानकारियों का भंडार बन गए और भारतीय संस्कृति की समृद्ध सूचनाओं का खजाना साबित हुए। पत्थरों पर खुदी इबारत में तनु भावों की कविता पढ़ ली गई और तांबे पर उकेरे गए अक्षर, सुनहरे-रुपहले इतिहास के पन्ने बने तब अक्षरों में हमारा गौरवशाली अतीत उजागर हुआ।

ये सब तो पुरानी बातें हैं। आज का समय 'बायनरी' के दो संकेत-अक्षरों का है, लेकिन इसमें संवेदना का अदृश्य आधा अक्षर जुड़कर 'ढाई आखर' प्रेम के बनते हैं, जो छत्तीसगढ़ में रामगढ़ की पहाड़ी में उकेरे गए और आज भी कायम हैं। छत्तीसगढ़ी अक्षर-ब्रह्म नमन सहित पढ़ाई-लिखाई की आरंभिक लोक-उच्चारण स्तुति 'ओड़ा-मासी-ढम' अनगढ़ और बाल-सुलभ तोतली सी हो कर भी, सार्थक और शुभ है।

आपस की बात :

इसके साथ कुछ पुराने गोरखधंधों का स्मरण। गुरुजी ने कभी कहा कि पुराने अभिलेख पढ़ना सीखना है तो उसी तरह से खुद लिखा करो, बस फिर क्या था, छेनी तो नहीं पकड़ी, लेकिन कागज कलम से नरकुल तक आजमा ही लिया। यानि गुरुओं की प्रेरणा से, मत्स्य पुराण के निर्देश अनुरूप, 'श्रेष्ठ लेखक' बनने की धुन में कम कलम-घिसाई नहीं की है हमने भी, इसका एक नमूना, कोई बारह सौ साल पुरानी ब्राह्‌मी के कोसलीय विशिष्टता वाली पेटिकाशीर्ष लिपि में ताम्रपत्र पर ग्रामदान प्रयोजन से उकेरे गए अक्षरों की नकल, जिसके पहले चिह्‌न को 'ओम्‌' या 'सिद्धम्‌' पढ़ा जाता है। मूल लिपि की नकल के साथ नागरी पाठ भी है, इसके सहारे थोड़े अभ्‍यास से आप भी खजानों का भेद पा सकते हैं।

सभी गुरुजनों का सादर स्मरण, विशेषकर, जिन्होंने अक्षरों की नकल उतारने की बजाय उन्हें लिखना, लिखे को पढ़ना और पढ़े को समझने की, आत्मसात करने की शिक्षा दी। सिखाया कि जो पढ़ो, पसंद आए, वह मुखाग्र और कंठस्थ रहे न रहे, हृदयंगम और आत्मसात हो।

डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर और डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम गुरु-द्वय की उदारता अबाध रही, अपनी संकीर्णता के लिए स्वयं जिम्मेदार हूं, लेकिन गुरुओं के कर्ज (ऋषि-ऋण) का बोझ सदैव ढोना चाहता हूं।

(गुरुओं की मर्यादा का ध्यान हो तो देखिए, अपने ही ब्लॉग पर अपनी एक फोटो, वह भी गुरुओं की आड़ में, चिपकाने के लिए कितनी मशक्कत करनी होती है, वरना पोस्‍ट तो यूं चुटकियों में और फोटो एलबम क्‍या पूरी गैलरी बना दें, अपनी खेती जो ठहरी।)