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Thursday, September 30, 2010

राम के नाम पर

'विष्णु की पाती राम के नाम' की शुरूआत में ही विष्‍णु, राम के साथ बैठे हैं और कह रहे हैं 'काफी ले आना हनुमान'। यह कोई गड़बड़ रामायण नहीं, अच्छी खासी पुस्तक का जिक्र है, जिसका विमोचन 15 सितंबर को मारीशस में वहां के संस्कृति मंत्री श्री मुखेश्वर ने किया।


पुस्तक, विष्णु प्रभाकर जी द्वारा राम पटवा जी को लिखे पत्रों का संकलन है और हनुमान, काफी हाउस के बैरे का नाम। इसका संपादन सृजन गाथा वाले जयप्रकाश मानस जी ने किया है। फ्लैप पर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर के अध्यक्ष विश्वरंजन जी ने लिखा है- 'इन पत्रों को मैं उस रूप में देखता हूं जिस रूप में शेक्सपीयर द्वारा युवा आलोचक एलेन स्टवर्ट को लगातार लिखे गए पत्र (शैक्सपीयर लैटर्स एडीटर-एलेन स्टूवर्ट) को देखा करता हूं।' उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि 'राम पटवा ऐसे सौभाग्यशाली साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्हें विष्णुजी सदैव और सर्वत्र अपने व्याख्‍यानों में याद करते थे।'

विष्णु जी जगह-जगह, राम पटवा जी की लघु कथा 'अतिथि कबूतर' सुनाते हुए कहते कि 'शब्द मेरे हैं पर कथा श्री राम पटवा की है और वह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं है।' आइये देखें उस लघु कथा को-

रोज सुबह एक छत पर दो कबूतर मिला करते थे। दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। एक दिन दूर खेत में दोनों कबूतर दाना चुग रहे थे, उसी समय एक तीसरा कबूतर उनके पास आया और बोला, ''मैं अपने साथियों से बिछड़ गया हूं। कृपया आप मेरी मदद करें।''
दोनों कबूतरों ने आपस में गुटर-गूं किया, ''भटका हुआ अतिथि है.. अतिथि देवो भवः,'' लेकिन प्रश्न खड़ा हुआ कि यह अतिथि रूकेगा किसके यहां? दोनों कबूतर अलग-अलग जगह रहते थे, एक मस्जिद की मीनार पर तो दूसरा मंदिर के कंगूरे पर।
अंततः यह तय हुआ कि अतिथि कबूतर को दोनों कबूतरों के साथ एक-एक दिन रूकना पड़ेगा।
तीसरे दिन 'अतिथि' की भावभीनी विदाई हुई। दोनों मित्र अतिथि कबूतर को दूर तक छोड़ने गए। शाम को जब वे लौटे तो देखा - मंदिर और मस्जिद के कबूतरों में 'अकल्पनीय' लड़ाई हो रही है। इस दृश्‍य से दोनों स्तब्ध रह गए। बाद में पता चला कि अतिथि कबूतर संसद की गुंबद से आया था।

इस पुस्तक पर थोड़ी बात। संग्रह के पृष्ठ 31 पर पोस्ट कार्ड का मजमून कुछ इस तरह है-

आपके लेख की प्रतिलिपि मिली। राम की कथा को हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा है। मैने नवभारत टाइम्स में एक छोटा-सा लेख लिखा था और उसमें कितने ही राम गिनाए थे। वास्तव में राम ऐतिहासिक नहीं, पौराणिक पुरुष हैं और उस युग के मूल्यों के प्रतीक हैं जब आर्य लोग पशु चराना छोड़कर खेती करने लगे थे और नदियों के किनारे बस्तियां बसाई थीं। ऐसे समय ही वर्ण-व्यवस्था और आदर्श मूल्यों का निर्माण हुआ था उसी को किसी कवि ने कथा का रूप दिया। अगर यह भी मान लें कि राम कभी हुए थे तो भी वह कुछ मूल्यों के प्रतीक थे; सत्ता का त्‍याग, अन्याय का प्रतिकार, साधुजनों की रक्षा और जितने भी पिछड़े वर्ग है उनको समान स्तर पर लाना। आज जो राम का नाम लेते हैं उनमें से कोई भी इन मूल्यों को नहीं मानता। बौद्ध दर्शन में तो यह आता है कि साकेत कभी किसी राजा की नगरी रही ही नहीं वह तो व्यापार नगरी थी। दशरथ बनारस के राजा थे। बौद्ध जातक में यह कथा दी हुई है सीता किसी के गर्भ में पैदा नहीं हुई थी सीता का अर्थ है जुती हुई जमीन। वाल्‍मीकि स्वयं शुद्र जाति के थे क्रौंचवध के बाद उनके मन में स्वतः ही कविता फूट पड़ी वह बदल गए और उन्होंने एक आदर्श पुरुष की कल्पना करके रामकथा लिखी। वह केवल अयोध्या काण्ड ही लिख पाए थे। ऐसे ही अनके कथानक हैं। लोकगीत में तो और भी विचित्र बातें बताई गई हैं। आज तो राजनीतिज्ञों ने वोट मांगने का साधन बनाया हुआ है। राम के मूल्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं।

पुस्तक के पृष्ठ 32 पर विष्णु जी की कविता प्रकाशित है। सर्वनाम संबोधन 'प्रिय आत्मन्‌' से ऐसा लगता है कि यह नया साल 1993 के लिए प्राप्त हुई शुभकामनाओं के जवाब में उनके द्वारा सभी को प्रेषित किया गया होगा, अन्य संदर्भ तो साफ है, लेकिन ध्‍यातव्‍य कि यह तेवर, 80 बरस पार कर चुके 'इन्सान' के उद्वेलित हो कर खीझे, व्यथित मन की अभिव्यक्ति है, जिसमें (सर्वेश्‍वर जी वाले?) 'भेड़िये' भी हैं -


धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम
लो आ गया एक और नया वर्ष
ढोल बजाता, रक्त बहाता
हिंसक भेड़ियों के साथ.
ये वे ही भेड़िये हैं
डर कर जिनसे
की थी गुहार आदिमानव ने
अपने प्रभु से -
'दूर रखो हमे हिंसक भेड़ियों से'
हां, ये वे ही भेड़िए हैं
जो चबा रहे है इन्‍सानियत इन्‍सान की
और पहना रहे हैं पोशाकें उन्हें
सत्ता की, शैतान की, धर्म की, धर्मान्धता की.
और पहनकर उन्हें मर गया आदमी
सचमुच
जी उठी वर्दियां और कुर्सियां
जो खेलती हैं नाटक
सद्‌भावना का, समानता का
निकालकर रैलियां लाशों की.
मुबारक हो, मुबारक हो
नयी रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो.
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम ...

इस ताजी पुस्तक में शामिल चिटि्‌ठयां, पुरानी और निजी किस्‍म की भी हैं फिर छपी क्योंकर है? किसी ने बौद्धिक मासूमियत से खुद को कहीं 'मोतिया' कहने वाले से पूछा है- 'कबीर! तुम कब अप्रासंगिक होओगे?' दिल-दिमाग दुरुस्‍ती से भरोसा रखें कि 'होइहि सोइ जो राम रचि राखा' तो 'न्याय-मंदिर' की प्रार्थना-इबादत भी 'सर्वजन हिताय रघुनाथ गाथा' साबित होगी।

मंदिर की जोड़-तोड़ः

किसी ने 'जोड़-तोड़' नामक एक सुरक्षा फार्मूला सुझाया है। यह विशेष उपयोगी होता है, दर्शनार्थ मंदिर जाने में, पादुकाएं बचाने के लिए। करना बस यह होता है कि मंदिर में प्रवेश के समय पादुकाएं उतारते हुए, जोड़ी तोड़ दें, एक साथ न रखें यानि एक पादुका एक तरफ और दूसरा परली बाजू में। बस इतने जोड़-तोड़ से आपकी पादुकाएं सुरक्षित रहेंगी। वैसे यह दर्ज करना सुझाने वाले की इस बात का उल्‍लंघन है कि 'जूता चोरों के हित में इसे जारी न किया जाए' लेकिन यह पेज तो हितग्राही और भुक्‍तभोगी सहित, सभी के लाभार्थ, लोक हित में है। इस तरकीब की अनुप्रयुक्‍तता कहां-कहां संभव है, गुणीजन विचार कर सकते हैं।

श्री राम पटवा जी (+919827179294) ने पुस्तक विमोचन की मेरी सहज जिज्ञासा के जवाब में तुरंत पुस्तक सहित मूल दस्तावेज और फोटो उपलब्ध करा दिए। उनकी उदारता से कई परिचित अक्सर लाभान्वित होते हैं।