बाबू रेवाराम से गौरवान्वित लहुरी काशी रतनपुर के काशीराम साहू (लहुरे) के माध्यम से यहां की पूरी सांस्कृतिक परम्परा सम्मानित हुई, जब इसी माह 9 तारीख को छत्तीसगढ़ के लोक नाट्य के लिए उन्हें संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार-2011 मिला।
आठ सौ साल तक दक्षिण कोसल यानि प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी का गौरव रतनपुर के नाम रहा। इस दौरान राजवंशों की वंशावली के साथ यहां कला-स्थापत्य के नमूनों ने आकार लिया। अब यह कस्बा महामाया सिद्ध शक्तिपीठ के लिए जाना जाता है। कभी इसकी प्रतिष्ठा लहुरी काशी की थी।
तासु मध्य छत्तिसगढ़ पावन। पुण्य भूमि सुर मुनि मन भावन॥
रत्नपुरी तिनमें है नायक। कांसी सम सब विधि सुखदायक॥
जोजन पांच तासु ते छाजै। अमर कंठ रेवा तहं राजै॥
राजधानी वैभव के अंतिम चरण में उपरोक्त पंक्तियों के रचयिता और सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक बाबू रेवाराम का जन्म अनुमानतः संवत 1870, यानि उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में हुआ। लगभग 60 वर्षों के जीवन काल में उनके रचित 13 ग्रंथों में एक 'कृष्ण लीला के गीत' है। इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियों पर श्री कृष्ण लीला भजनावली, रत्नपुरी चाल (संग्रहीत) और रासलीला गुटका भी लिखा गया है। गुटके की प्रतियों में उल्लेख मिलता है- 'कृष्ण चरित यह मह है जोई। भाषित रेवाराम की सोई॥' वैसे तो छत्तीसगढ़ में प्रचलित रहंस या रास और नाचा-गम्मत, इस गुटका से अलग अलग दो अन्य विधाएं हैं, लेकिन रतनपुर में कहीं घुल-मिल सी जाती हैं। बोलचाल में रतनपुरिया भजन, भादों गम्मत या सिर्फ गुटका कह दिये जाने का आशय सामान्यतः बाबू रेवाराम की उक्त परम्परा से संबंधित होता है, जो रहंस और नाचा-गम्मत से कहीं अलग है।
बाबू रेवाराम की परम्परा वाले गुटका यानि कृष्ण लीला भजनावली में वंदना, आरती, ब्यारी, गारी, जन्म लीला, पालना लीला, पूतना वध, श्रीधर लीला, गर्ग लीला, कागासुर लीला, विप्र लीला, मृत्तिका लीला, मथन लीला, दधि चोरी लीला, यमलार्जुन लीला, वच्छ चरावन लीला, वच्छ हरण लीला, गेंदलीला नागलीला, जल+पनघट+गगरी लीला, जादू लीला, वस्त्र हरण लीला, वंशी लीला, दधि-दान लीला, ओरहन लीला, मान लीला, महारास, अन्तर्ध्यान, विरह-भजन, कृष्ण मिलन, मंगल आरती जैसे तीस भागों में ढाई सौ पद-श्लोक हैं। रतनपुर में अब भी गणेश चतुर्थी और शरद पूर्णिमा के अवसर पर गम्मत आयोजित होते है, बाबूहाट, करैहापारा में 2007 में भादों गम्मत आयोजन का 127 वां वर्ष था।
रतनपुर में लीला संस्कारित पीढ़ी अभी भी जीवंत है। नवरात्रि पर देवी भजन गुटका के माता सेवा के गीत और होली के दौर में फागुन गुटका का फाग भजन-गीत होता है। यहां परम्परा का असर दिनचर्या में, आचरण-व्यवहार में, पूजा-पाठ, पीताम्बर धारण करना, यों कहें- पूरी जीवनचर्या की अन्तर्धारा में लीला आज भी विद्यमान है। आसपास मदनपुर, खैरा, रानीगांव, भरारी, मेलनाडीह, पोंड़ी, बापापूती, चपोरा, सरवन देवरी और कर्रा जैसे कई गांवों में यह धारा प्रवाहित है। रतनपुरिया भजन से संबंधित कुछ ऐसे लोगों के चित्र, जिनमें निहित लीला-विस्तार को सुन-देख कर समझने का प्रयास करता रहा-
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भंगीलाल तिवारी - काशीराम साहू (लहुरे) - दाऊ लक्ष्मीनारायण |
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दुर्गाशंकर कश्यप - दाऊ बद्री विशाल - बलदेव प्रसाद मिश्र |
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शिव प्रसाद तंबोली - ईश्वरगिर गोस्वामी - रामकुमार तिवारी |
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हरिराम साहू - रामकृष्ण पांडेय - काशीराम साहू (जेठे) |
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रामकिशोर देवांगन - रामप्रसाद साहू - किशन तंबोली |
रहंस में पूरा गांव लीला-भूमि और लीला के आयोजन में गांव का गांव कैसे इसका अभिन्न हिस्सा हो जाता है यह कुछ हद तक कैमरा ही देख सकता है, व्यक्ति के लिए सिर्फ दर्शक बना रहना संभव नहीं हो पाता, दृश्य घुल कर कैसे रस बन जाते हैं, तभी पता लगता है, जब लीला पूरी हो जाती है। ''श्रीधरं माधवं गोपिका वल्लभं, जानकी नायकं रामचंद्रं भजे। बोलो श्री राधाकृष्ण की जै। श्री वृन्दावन बिहारी की जै।'' इन अंतिम पंक्तियों के बाद लेकिन, असर बच जाता है- लीला अपरम्पार।