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माधवराव सप्रे 19.06.1871-23.04.1926 |
'एक टोकरी भर मिट्टी' हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मान्य किए जाने से हिन्दी साहित्य में पं. माधवराव सप्रे का विशिष्ट स्थान बन गया, लेकिन इसके चलते वर्तमान पीढ़ी में सप्रे जी की पहचान 'हिन्दी की पहली कहानी वाले' के रूप में सीमित हो गई, इसके लिए यह पीढ़ी नहीं, परिस्थितियां जिम्मेदार हैं, क्योंकि सप्रे जी की रचनाएं कुछ शोधार्थियों और खास लोगों की पहुंच तक सिमट गई थी।
पिछले दिनों देवी प्रसाद वर्मा 'बच्चू जांजगीरी' (फोन-07715060769) द्वारा संपादित, 'माधवराव सप्रे, चुनी हुई रचनाएं' प्रकाशित हुई, इसलिए यह उपयुक्त अवसर है कि सप्रे जी की रचनाओं के माध्यम से उस व्यक्ति का पुनरावलोकन हो, ताकि आजादी के दीवाने इस कलमकार की जाने-अनजाने सीमित हो गई पहचान से अलग, उनकी वृहत्तर प्रतिभा का आकलन कर, उससे प्रेरणा ली जा सके।

द्वितीय खंड में जीवन संग्राम...., आत्म विकास और चरित्र निर्माण की प्रेरक पुस्तक है। पुस्तक का निहित लक्ष्य, स्वतंत्रता संग्राम में विजय प्राप्ति के लिए पूरी पीढ़ी को तैयार करने का झलकता है। प्रथम तीन अध्यायों के बाद, स्वावलंबन अध्याय का आरंभ, मानस की प्रसिद्ध पंक्ति 'पराधीन सपनेहुं सुख नाही' से किया गया है। पूरी पुस्तक में आदर्श, सच्चरित्रता, नैतिकता, राष्ट्रीयता और विनम्र दृढ़ता की सीख, सप्रे जी के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित कर उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता को भी उजागर करती है। एक अन्य उल्लेख - उन्होंने फरवरी 1901 में 'ढोरों का इलाज' पुस्तक के लिए लिखा कि ''जो कुछ हमने इस पुस्तक के विषय में लिखा है, सो क्या है! महाशय, वह ठीक समालोचना नहीं है। आप चाहें तो उसे एक प्रकार का विज्ञापन कह सकते हैं।'' ऐसी पारदर्शी साहसिकता का नमूना पत्रकारिता में मिल सकता है, विश्वास नहीं होता।
ग्रंथ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण खंड 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' है। लगभग पूरी सदी के बाद भी इस पुस्तक की प्रासंगिकता और प्रभाव कम नहीं है, किसी समाज के प्रति उपनिवेशवादी दुरभिसंधिपूर्ण महिमामंडन और खोखले नारे प्रचारित कर किस प्रकार उसे दमन का साधन बनाया जाता है, यह सप्रे जी ने 'भारत एक कृषि प्रधान देश है' नारे में देखा है, जिस महिमामंडन को धीरे से फतवे जैसा इस्तेमाल कर इस देश के परम्परागत शिल्प, तकनीक, कला और व्यवसाय को नष्ट किया गया (आज भी छत्तीसगढ़ को 'धान का कटोरा' स्थापित कर दिए जाने जैसी स्थितियों से यह खतरा बना हुआ है) यही स्थिति जुलाहे-बुनकरों के साथ है, जिनकी तत्कालीन समस्याओं से निर्मित स्थिति के कारण यह 'बायकॉट' लिखी गई, लेखन का अद्भुत कौशल भी इस रचना में दिखता है, आज भी रोमांच पैदा कर देने वाली शैली की एक विशेषता यह भी है, कि स्वदेशी और बायकॉट को लेकर लिखे पचास पृष्ठों में दुहराव की वजह से नीरस एकरसता नहीं बल्कि उद्देश्य के प्रति दृढ़ता बढ़ती जाती है। सप्रे जी की इस रचना में उनके व्यक्तित्व में गांधीवादी संयत जिद, आत्म अनुशासन की कठोरता के साथ संतुलित उत्तेजना कितनी तीक्ष्ण हो सकती है, महसूस किया जा सकता है।
सप्रे जी के व्यक्तित्व का सामाजिक सरोकार इतना गहरा है कि वे घोषणा करते हैं ''मुझे मोक्ष प्यारा नहीं, मैं फिर से जन्म लूंगा'' पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सप्रे जी के जीवन्त और उष्म स्पन्दन का एहसास होने लगता है। ऐसी प्रासंगिक कृति का लगातार प्रचलन में न रहने का अफसोस है, तो इस स्वागतेय प्रकाशन की उपलब्धता ही स्वयं में रोमांचकारी है।
टीप :
मार्च 1999 में श्री रमेश नैयर जी (फोन-9425202336) दैनिक भास्कर, रायपुर के अपने कार्यालय में बता रहे थे- जनवरी 1900 में छत्तीसगढ़ के पेन्ड्रारोड से प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के बारे में। पं. माधवराव सप्रे जी की इस पत्रिका के अप्रैल 1901 के अंक में 'एक टोकरी भर मिट्टी' छपी थी, पत्रिका का मुद्रण रायपुर के कय्यूमी प्रेस, जो आज भी कायम है, से आरंभ हुआ। इस पत्रिका और कहानी के साथ नैयर जी ने बायकॉट की चर्चा की। मैंने कहा कि बायकॉट का नाम ही सुनने-पढ़ने को मिलता है, पुस्तक तो मिलती नहीं, इस पर उन्होंने तपाक से यह किताब निकाल कर न सिर्फ दिखाई, पढ़ने को भी दे दी। वापस लौटाते हुए छोटा सा नोट उन्हें सौंपा, जो उस दौरान दैनिक भास्कर और नवभारत समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। लगभग जस का तस यहां पोस्ट बना कर बिना दिन-वार का ध्यान किए लगा रहा हूं। यह मान कर कि नित्य स्मरणीय सप्रे जी की चर्चा के लिए तिथि-प्रसंग आवश्यक नहीं।
इस बीच पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केन्द्र, रायपुर (फोन-9329102086 / 9826458234) के प्रयासों से सप्रे साहित्य पुनः प्रकाशित हो रहा है, लेकिन इसमें कितनों की रुचि है, कौन पढ़ रहा है, मालूम नहीं ? कभी लगता है कि 'दांत हे त चना नइ, चना हे त दांत नइ।