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Friday, February 1, 2013

बिग बॉस

अच्छा! आप नहीं देखते बिग बॉस। तब तो हम साथी हुए, मैं भी नहीं देखता यह शो। मत कहिएगा कि नाम भी नहीं सुना, पता नहीं क्या है ये, यदि आपने ऐसा कहा तो हम साथी नहीं रहेंगे। मैंने नाम सुना है और थोड़ा अंदाजा भी है कि इसमें एक घर होता है 'बिग बॉस' का, जिसमें रहने वालों की हरकत पर निगाह होती है, कैमरे लगे होते हैं और बहुत कुछ होता रहता है इसमें। मुझे लगता है कि ताक-झांक पसंद लोग इस शो से आकर्षित होते हैं फिर धीरे-धीरे पात्रों और उनके आपसी संबंधों में रुचि लेने लगते हैं। भारतीय और फ्रांसीसी इस मामले में एक जैसे माने जाते हैं कि वे सड़क पर हो रहे झगड़े के, अपना जरूरी काम छोड़ कर भी, न सिर्फ दर्शक बन जाते हैं, बल्कि मन ही मन पक्ष लेने लगते हैं और कई बार झगड़े में खुद शामिल हो जाते हैं। यह शायद मूल मानवीय स्वभाव है, मनुष्य सामाजिक प्राणी जो है।

बात थोड़ी पुरानी है, इतिहास जितनी महत्वपूर्ण नहीं, लेकिन बासी हो कर फीकी-बेस्वाद भी नहीं, बस सादा संस्मरण। पुरातत्वीय खुदाई के सिलसिले में कैम्प करना था। बस्तर का धुर अंदरूनी जंगली इलाका। मुख्‍यालय, जो गाइड लाइन के लिए तत्पर रहता है, से यह भी बताया गया था कि हिंस्र पशुओं से अधिक वहां इंसानों से खतरा है। मौके पर पहुंच कर पता लगा कि एक सरकारी इमारत स्कूल है और इसी स्कूल के गुरुजी हैं यहां अकेले कर्ता-धर्ता, गांव के हाकिम-हुक्काम, सब कुछ। गुरुजी निकले बांसडीह, बलिया वाले। ये कहीं भी मिल सकते हैं, दूर-दराज देश के किसी कोने में। पूरा परिवार देस में, प्राइमरी के विद्यार्थी अपने एक पुत्र को साथ ले कर खुद यहां, क्या करें, नौकरी जो है। छत्तीसगढ़ का कोई मिले, कहीं, जम्मू, असम या लद्दाख में, दम्पति साथ होंगे, खैर...

गुरुजी ने सीख दी, आपलोग यहां पूरे समय दिखते रहें, किसी न किसी की नजर में रहें। कहीं जाएं तो गांव के एक-दो लोगों को, जो आपके साथ टीले पर काम करने वाले हैं, जरूर साथ रखें, अनावश्यक किसी से बात न करें। किसी की नजर आप पर हो न हो आप ओझल न रहें, एक मिनट को भी। रात बसर करनी थी खुले खिड़की दरवाजे वाले कमरे या बरामदे में, नहाना था कुएं पर, लेकिन हाजत-फरागत का क्या होगा, कुछ समय के लिए सही, यहां तो ओट चाहिए ही। गुरुजी को मानों मन पढ़ना भी आता था। कहा कि नित्यकर्म के लिए खेतों की ओर जाएं, किसी गांववासी को साथ ले कर और खेत के मेढ़ के पीछे इस तरह बैठें कि आपका सिर दिखता रहे। गुरुजी, फिर आश्रयदाता, उनकी बात तो माननी ही थी।

गुरुजी प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाते थे, उनके सामने हम भी प्राइमरी के छात्र बन गए, तब कोई सवाल नहीं किया, शब्दशः निर्देश अनुरूप आचरण करते रहे, लेकिन कैम्प से वापस लौटते हुए, गुरुजी को धन्यवाद देने, विदा लेने पहुंचे और जैसे ही कहा कि जाते-जाते एक बात पूछनी है आप से, उन्होंने फिर मन पढ़ लिया और सवाल सुने बिना जवाब दिया, आपलोग यहां आए थे जिस टीले की खुदाई के लिए, माना जाता था कि टीले पर जाते ही लोगों की तबियत बिगड़ने लगती है तो बस्ती में खबर फैल गई कि साहब लोग अपनी जान तो गवाएंगे नहीं, किसी की बलि चढाएंगे, काम शुरू करने में, नहीं तो बाद में। इसलिए ओझल रहना या ऐसी कोई हरकत, आपलोगों के प्रति संदेह को बल देता।

इस पूरे अहवाल का सार कि गुरुजी से हमने सीखा कि दिखना जरूरी वाला फार्मूला सिर्फ 'जो दिखता है, वो बिकता है' के लिए नहीं, बल्कि दिखना, दिखते रहना पारदर्शिता, विश्वसनीयता बढ़ाती है, नई जगह पर आपका संदिग्‍ध होना कम कर सकती है। यों आसान सी लगने वाली बात, लेकिन साधना है, हमने इसे निभाया 24×7, हफ्ते के सभी सातों दिन और दिन के पूरे 24 घंटों में यहां। फिर बाद में ऐसे प्रवासों के दौरान बार-बार। अवसर बने तो कभी आप भी आजमाएं और इस प्रयोग का रोमांच महसूसें।

दुनिया रंगमंच, जिंदगी नाटक और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हम पात्र। ऊपर वाले (बिग बॉस) के हाथों की कठपुतलियां। नेपथ्‍य कुछ भी नहीं, मंच भी नहीं, लेकिन नाटक निरंतर। बंद लिफाफे का मजमून नहीं बल्कि सब पर जाहिर पोस्‍टकार्ड की इबारत। ऐसा कभी हुआ कि आपने किसी की निजी डायरी पढ़ ली हो या कोई आपकी डायरी पढ़ ले, आप किसी की आत्‍मकथा के अंतरंग प्रसंगों को पढ़, उसमें डूबते-तिरते सोचें कि अगर आपके जीवन की कहानी लिखी जाए। रील, रियल, रियलिटी। मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु कुरु स्वाहा' याद कीजिए, उन्होंने जिक्र किया है कि ऋत्विक घटक कभी-कभी सिनेमा को बायस्कोप कहते थे। बहुविध प्रयोग वाले इस उपन्यास में लेखक ने 'जिंदगी के किस्से पर कैमरे की नजर' जैसी शैली का प्रभावी और अनूठा इस्तेमाल किया है। उपन्यास को दृश्य और संवाद प्रधान गप्प-बायस्कोप कहते आग्रह किया है कि इसे पढ़ते हुए देखा-सुना जाए। आत्‍मकथा सी लगने वाली इस रचना के लिए लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते हैं- ''सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''

क्लोज सर्किट टीवी-कैमरों का चलन शुरू ही हुआ था, बैंक के परिचित अधिकारी ने बताया था कि फिलहाल सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है, लेकिन हमने सूचना लगा दी है कि ''सावधान! आप पर कैमरे की नजर है'' और तब से छिनैती की एक भी घटना नहीं हुई। दीवारों के भी कान का जमाना गया अब तो लिफ्ट में भी कैमरे की आंख होती है। कैमरे की आंखें हमारे व्‍यवहार को प्रभावित कर अनजाने ही हमें प्रदर्शनकारी बना देती हैं। सम्‍मान/पुरस्‍कार देने-लेने वाले हों या वरमाला डालते वर-वधू, दौर था जब पात्र एक-दूसरे के सम्‍मुख होते थे, लेकिन अब उनकी निगाहें कैमरे पर होती हैं, जो उन पर निगाह रखता है। कैमरे ने क्रिकेट को तो प्रदर्शकारी बनाया ही है, संसद और विधानसभा में जन-प्रतिनिधियों के छोटे परदे पर सार्वजनिक होने का कुछ असर उनके व्‍यवहार पर भी जरूर आया होगा। मशीनी आंखों ने खेल, राजनीति और फिल्मी सितारों के साथ खेल किया है, उनके सितारे बदले हैं और ट्रायल रूम में फिट कैमरों के प्रति सावधान रहने के टिप्स संदेश भी मिलते हैं। कभी तस्‍वीर पर या पुतला बना कर जादू-टोना करने की बात कही जाती थी और अब एमएमएस का जमाना है और धमकी होती है फेसबुक पर तस्‍वीर लगाने की। बस जान लें कि आप न जाने कहां-कहां कैमरे की जद में हैं। बहरहाल, ताक-झांक की आदत कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन शायद है यह आम प्रवृत्ति। दूसरी ओर लगातार नजर में बने रहना, ऐसी सोच, इसका अभ्यास, आचरण की शुचिता के लिए मददगार हो सकता है।
कभी एक पंक्ति सूझी थी- ''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'' बस यह वाक्य कहां से, कैसे, क्‍यों आया होगा, की छानबीन में अब तक काम में न आए चुटके-पुर्जियों और यादों के फुटेज खंगाल कर उनकी एडिटिंग से यानी 'कबाड़ से जुगाड़' तकनीक वाली पोस्‍ट।

पुछल्‍ला - वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्‍सर 'संदेह' होता है फिर संदेह से बचना क्‍यों? ऐतराज क्‍या? स्‍थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या फिर संदेह और अपवाद से।
'जनसत्‍ता' 11 मार्च 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट

Friday, December 30, 2011

व्‍यक्तित्‍व रहस्‍य

बीसेक साल पहले मेरे इर्द-गिर्द जिन पुस्तकों की चर्चा होती, वे थीं- 
# Dr. Eric Berne की Transactional Analysis in Psychotherapy, Games People Play और What Do You Say After You Say Hello?
# Muriel James, Dorothy Jongeward की Born To Win 
# Thomas A Harris की I'm OK, You're OK और 
# AB Harris, TA Harris की Staying OK 
# Claude Steiner की Scripts People Live आदि। 
इनमें से कुछ सुनी, देखी, उल्टी-पल्टी, कुछ पढ़ी भी, इससे जो नई बात समझ में आई, तब लिख लिया, यह वही निजी नोट है, इसलिए इसमें प्रवाह और स्पष्टता का अभाव हो सकता है, लेकिन इस विषय से परिचितों के लिए सहज पठनीय होगा और अन्‍य को यह पढ़ कर, इस क्षेत्र में रुचि हो सकती है।

व्‍यक्तित्‍व के रहस्‍य को समझने और उसे सुलझाने का वैज्ञानिक तरीका, टीए-ट्रान्‍जैक्‍शनल एनालिसिस या संव्‍यवहार विश्‍लेषण, मानव के जन्म से उसकी विकासशील आयु को आधार बनाकर व्यवहार को पढ़ने का प्रयास करता है। व्‍यक्ति के आयुगत विकास वर्गीकरण में 1. उसका स्वाभाविक निश्छल बचपन, 2. अनन्य शैतानी भरा बचपन, फिर 3. पारिवारिक अनुशासन में अभिभावकों के निर्देशों का पालन करता हुआ बचपन होता है। इस क्रम में पुनः 4. तर्कशील, व्‍यावहारिक, समझदार वयस्क और फिर 5. अभिभावकों के अनुकरण से सीखा उन्हीं जैसा अनुभवजन्‍य व्यवहार तथा अंततः 6. दयाशील पालनकर्ता अभिभावक, देखी जाती हैं।

1. Natural Child (NC) - प्‍यारा, स्‍नेहमय, मनोवेगशील, इंद्रियलोलुप, सुखभोगी, अ-गोपन, जिज्ञासु, भीरु, आत्‍म-केन्द्रित, आत्‍म-आसक्‍त, असंयमी, आक्रामक, विद्रोही।
2. Little Professor (LP) - अन्‍तर्दृष्टि-सहजबुद्धिवान, मौलिक, रचनाशील, चतुर-चालाक।
3. Adapted Child (AC) - आज्ञापालक, प्रत्‍याहारी, विलंबकारी-टालू।
4. Adult (A) - यथार्थवादी, वस्‍तुनिष्‍ठ, तर्क-युक्ति-विवेकपूर्ण, हिसाबी, व्‍यवस्थित, संयत, स्‍वावलम्‍बी।
5. Prejudicial Parent (PP) - अनुभवी, नियंत्रक, संस्कार-आग्रही।
6. Nurturing Parent (NP) - हमदर्द, दयावान, संरक्षक, पालक-पोषक।

डॉ. एरिक बर्न द्वारा विकसित इस ढांचे के प्राथमिक संरचनात्‍मक विश्‍लेषण में व्‍यक्तित्‍व का 1, 2 व 3 Child (C)- शिशु // 4 Adult (A)- वयस्‍क // 5 व 6 Parent (P)- पालक होता है, जिनकी व्‍यवहार-शैली संक्षेप में शिशु- महसूसा-felt // वयस्‍क- सोचा-thought // पालक- सीखा-taught कही जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण सहायक हो सकता है- शिशु का कथन होगा- ''मुझे भूख/नींद लगी है'', वयस्‍क का ''मेरे/हमारे खाने का/सोने का समय हो गया'', तो पालक कुछ इस तरह कहेगा- ''हमें खाना खा लेना/सो जाना चाहिए।'' चाहें तो कभी बैठे-ठाले स्‍वयं पर आजमाएं, घटाकर देखें।

उक्त सभी व्यवहार, जन्म से नहीं तो लगभग बोलना सीखने से लेकर जीवन्त-पर्यन्त, प्रत्येक आयु दशाओं में देखे जा सकते हैं, यानि बच्‍चे में वयस्‍क और पालक भाव तो बुढ़ापे के साथ बाल-भाव का व्‍यवहार सहज संभव हुआ करता है। इन्हीं भावों की कमी-अधिकता और संतुलन से मानव का व्यवहार, उसकी अस्मिता-स्‍व निर्धारित करता है। मानव व्‍यवहार का इनमें से कोई गुण अच्‍छा या बुरा नहीं, बल्कि इनका संतुलन अच्‍छा और असंतुलन बुरा होता है इसलिए व्यवहार के माध्‍यम से व्यक्तित्व की असंतुलित स्थिति की पहचान कर, उसका विश्लेषण टीए है, जो विश्लेषण के पश्चात्‌ संतुलन का दिग्दर्शन करने तक, पृष्ठभूमि व प्रक्रिया में विज्ञान सम्मत और सुलझा होने के साथ-साथ संवेदनशील और सकारात्मक भी है। जैसा कि इसमें स्‍पष्‍ट किया जाता है- ''समय होता है आक्रामक होने का, समय होता है निष्क्रिय होने का, साथ रहने का/अकेले रहने का, झगड़ने का/प्रेम करने का, काम का/खेलने का/आराम का, रोने का/हंसने का, मुकाबला करने का/पीछे हटने का, बोलने का/शांत रहने का, शीघ्रता का/रुकने का।''

फ्रायडवादी मनोविज्ञान का इड, इगो, सुपर इगो (अहम्, इदम्, परम अहम्) तथा डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन से शिव खेड़ा तक, व्यवहार विज्ञानियों के बीच (यहां मनोविज्ञान की पाठ्‌य पुस्तकें हैं और मनोहर श्याम जोशी का उपन्‍यास कुरु कुरु स्वाहा भी) विकसित टीए इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करते हुए इन्हें सैद्धांतिक स्पष्टता प्रदान कर, इसके व्यावहारिक, अनुप्रयुक्त और क्रियात्मक पक्ष के विकास से अपनी उपयोगिता के क्षेत्र में असीमित विस्तार पा लेता है। वह क्षेत्र जहां हम हैं, हमारा समाज है और जिसमें पागलखाने हैं, इसमें एक ओर से मनोचिकित्सकों की कड़ी जुड़ी तो दूसरी ओर समाजसुधारक जैसे वर्ग के लोग सक्रिय हुए, इन्हें अभिन्न करने के लिए, या इसे एक ही श्रृंखला की कड़ियां दिखाने के लिए मानव जाति को परामर्शदाता-Counselors की जरूरत थी, इस महती उत्तरदायित्व को पूरा करने हेतु व्यापक और गहन टीए की वैज्ञानिक अवधारणा का स्वरूप बना है।

ऐसा नहीं कि परामर्शदाता की जरूरत, बीच की कड़ी की आवश्यकता का आभास पहले नहीं था। व्‍यक्ति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्‍ध के निरूपण का प्रयास सदैव किया जाता रहा है। आदिम समाज से आज तक, मनुष्य ने जादू-टोना, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, षोडशोपचार-कर्मकाण्‍ड, ज्योतिष-सामुद्रिक, मुखाकृति-हस्तलिपि और बॉडी लैंग्‍वेज जैसे कितने रास्ते खोजे, जो कमोबेश परामर्शदाता की आवश्यकता पूर्ति का माध्यम बने हैं। इन्‍हें प्रश्‍नातीत प्रभावी और लाभकारी मानें तो भी इनकी विधि या प्रक्रिया में तार्किक व्‍याख्‍यापूर्ण वैज्ञानिक स्‍पष्‍टता का अभाव ही रहा। इन उपयोगी किन्‍तु उलझे/अस्‍पष्‍ट तरीकों की व्याख्‍या बदल-बदल कर आवश्यकतानुसार कर ली जाती रही। ऐसा नहीं कि टीए में उलझाव नहीं है, पर वह उलझाव अज्ञान, अंधविश्वास या कमसमझी का नतीजा नहीं, बल्कि मानव प्रकृति और व्यवहार की जटिलता के कारण है, यानि मानव व्यवहार को दो-दूनी चार जैसा स्पष्ट न तो समझा जा सकता और न ही समझाया जा सकता, किन्तु इसे टीए की मदद से इतना स्पष्ट किया जा सकता है जो एक-दूसरे को लगभग एक जैसा समझ में आ सके।

यूं तो टीए की उपयोगिता और अनुप्रयोग का क्षेत्र अधिकतर कल-कारखाने, कार्यालय अथवा सार्वजनिक संस्थानों के प्रबंधन से जुड़ा है, क्योंकि मानव-संसाधनों को विकसित करने का तीव्र आग्रह यहीं होता है, किन्तु परामर्शदाता के रूप में टीए की आवश्यकता पूरे समाज और समाज की प्रत्येक इकाई को है, और टीए की पृष्ठभूमि में वह विस्तार और गहराई एक साथ महसूस की जा सकती है जो ऐसे धार्मिक ग्रंथों में, जिनमें मानव के जीवन-मूल्यों, नीति और सिद्धांतों को लगभग काल-निरपेक्ष स्थितियों में व्याख्‍यायित कर धर्म के व्यावहारिक पक्षों का प्रणयन होता है, फलस्वरूप टीए में वैज्ञानिक तटस्थता के साथ नैतिक और संवेदनशील मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं होता।

कहा जाता है कि जो टीए की थोड़ी-बहुत भाषा सीख लेते हैं वे कभी बच्‍चों को मिल गए नए खिलौने की तरह इसका खिलवाड़ करने लगते हैं तो कभी अपना ज्ञान बघारते हुए अपने आसपास के लोगों का विश्‍लेषण शुरू कर देते हैं और कई बार दूसरों से इसकी भाषा का उपयोग कर, परोक्षतः उनकी कमियों का अहसास कराते हुए नीचा दिखाने और प्रभावित करने का भी प्रयास करते हैं, जो उचित नहीं है (मंत्रों के नौसिखुआ के लिए निषेध की तरह?)। टीए की भाषा और जानकारी का सकारात्‍मक उपयोग स्‍वयं की जागरूकता और परिवर्तन तथा दूसरों की ऐसी ही मदद के लिए किया जा सकता है। सचेत प्रयास रहा कि इस नोट को पोस्‍ट बनाते हुए उक्‍त नैतिकता का पालन हो।

ऊपर, ''कुरु कुरु स्वाहा'' का जिक्र है, इसके नायक में इड, इगो, सुपर इगो या शिशु, वयस्‍क, पालक संयोग का मजेदार चित्रण है, जिन्‍होंने न पढ़ा हो उन्‍हें स्‍पष्‍ट करने के लिए और जो पढ़ चुके हों उन्‍हें स्‍मरण कराने के लिए यह अंश-
''मैं साहब, मैं ही नहीं हूं। इस काया में, जिसे मनोहर श्‍याम जोशी वल्‍द प्रेमवल्‍लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्‍ली अल्‍मोड़ा, हाल मुकाम दिल्‍ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए है। एक हैं जोशी जी। ... इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर।'' फिर यह भी कहा गया है- ''इसमें वर्णित सभी स्थितियां, सभी पात्र सर्वथा कपोल-कल्पित हैं। और सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्‍याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''