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Saturday, August 20, 2022

संविधान सभा में छत्तीसगढ़ के सदस्य

यहां प्रस्तुत जानकारी, मुख्यतः इंटरनेट पर उपलब्ध अधिकृत या विश्वसनीय स्रोतों से ली गई है। साथ ही अल्पज्ञात प्रकाशित सामग्री तथा स्वयं द्वारा एकत्र जानकारियों का समन्वय किया गया है। यथासंभव तथ्यों का परीक्षण स्वयं किया गया है। भारत शासन द्वारा सन 2000 में पुनर्मुद्रित कराई गई भारतीय संविधान की प्रति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के पं. सुन्दरलाल शर्मा ग्रंथागार में उपलब्ध है, सदस्यों के हस्ताक्षर के लिए स्वयं अवलोकन कर इसे आधार बनाया गया है। अन्य जानकारी किसी अधिकृत स्रोत से उपलब्ध होने पर, यहां प्रस्तुत जानकारी में संशोधन/परिवर्धन कर दिया जावेगा।

इंटरनेट पर उपलब्ध कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया - वाल्युम 1 में सोमवार, 9 दिसंबर 1946 की पहली बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में मद्रास 43, बाम्बे से 19, बंगाल से 26, युनाइटेड प्राविंस से 42, पंजाब से 12, बिहार से 30, सी.पी. एंड बरार के 14, असम के 7, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस से 2, उड़ीसा से 9, सिंध से 1, दिल्ली से 1, अजमेर-मेरवारा से 1, कुर्ग से 1, इस प्रकार कुल 208 नामों का उल्लेख है, जिसमें सी.पी. एंड बरार के 14 नामों में सरल क्रमांक 1 पर पं. रवि शंकर शुक्ल, 6 पर ठाकुर छेदीलाल, एम.एल.ए., 10 पर गुरु अगमदास अगरमनदास, एम.एल.ए. का नाम छत्तीसगढ़ के सदस्यों का आया है। कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया - वाल्युम 4 में सोमवार, 14 जुलाई 1947 की बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में इस्टर्न स्टेट्स से राय साहब रघुराज सिंह का नाम आया है।

विकिपीडिया के ‘भारतीय संविधान सभा‘ पेज पर मध्यप्रांत और बरार [संपादित करें] के अंतर्गत दर्ज सदस्य नामों में से छत्तीसगढ़ के नाम, गुरु अगमदास, बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, पं किशोरी मोहन त्रिपाठी, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल, रामप्रसाद पोटाई, इस प्रकार कुल छह नाम हैं।

विकिपीडिया के कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया पेज पर सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 19 नाम हैं, जिनमें ठाकुर छेदीलाल, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल के अतिरिक्त अंबिका चरण शुक्ल (क्रम 1 पर) तथा गनपतराव दानी (क्रम 19 पर) नाम मिलता है, जो छत्तीसगढ़ से संबंधित हैं, उक्त दोनों नामों की पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं हुई है।

जानकारी मिलती है कि पुनर्गठित संविधान सभा के 299 सदस्यों की बैठक 31 दिसंबर 1947 को हुई, जिन सदस्यों की 2 वर्ष 11 माह, 18 दिन में कुल 114 दिन बैठक के बाद 24 जनवरी 1950 को हस्ताक्षर कर संविधान को मान्यता दी गई। संविधान सभा के सदस्यों के हस्ताक्षर संविधान की प्रति में पेज 222 पर आठवीं अनुसूची के बाद पेज 231 तक दस पृष्ठों पर हैं। पेज 222 पर 17, 223 पर 30, 224 पर 34, 225 पर 34, 226 पर 34, 227 पर 32, 228 पर 30, 229 पर 34, 230 पर 34, 231 पर 5, इस प्रकार कुल 284? हस्ताक्षर हैं। हस्ताक्षरों के संबंध में ध्यान देने योग्य-

0 कुछ सदस्यों ने दो लिपियों में हस्ताक्षर किए हैं।
0 हस्ताक्षर के साथ कोष्ठक में नाम भी लिखा है।
0 मैसूर के एच.आर. गुरुवरेड्डी का हस्ताक्षर पेज 226 पर तथा पेज 229 पर, इस प्रकार एक ही व्यक्ति का एक जैसा ही दो हस्ताक्षर, कोष्ठक में नाम सहित आया है।
0 पेज 229 पर दो हस्ताक्षर के नीचे दिनांक 24.1.1950 भी अंकित है।
0 राजेन्द्र प्रसाद का हस्ताक्षर जिस स्थान पर है, उसे देख कर लगता है कि अंतिम प्रारूप हस्ताक्षर के लिए सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू को प्रस्तुत किया गया और जैसा कायदा है, लेख और हस्ताक्षर के बीच खाली स्थान न छोड़ते हुए, उन्होंने अपने हस्ताक्षर किए हैं। अतएव राजेन्द्र प्रसाद द्वारा जगह बनाते जवाहरलाल नेहरू के उपर तिरछे हस्ताक्षर किया गया।
0 संविधान सभा की बैठकों के प्रतिवेदन से जानकारी मिलती है कि 24 जनवरी 1950 को संविधान की प्रति पर हस्ताक्षर के लिए अध्यक्ष द्वारा सदस्यों से आग्रह किया जाता है कि वे एक-एक कर आएं और प्रतियों पर हस्ताक्षर करें। सदस्यगण जिस क्रम में बैठे हैं, उसी क्रम में उन्हें पुकारा जाएगा प्रधानमंत्री को पब्लिक ड्यूटी में जाना है इसलिए हस्ताक्षर के लिए उनसे पहले आग्रह किया गया।
0 ग्रंथागार वाली जिस प्रति का मैंने अवलोकन किया है उसमें कुल 231 पेज में, पेज 228 तथा पेज 229 दो-दो बार हैं, इससे संभव है कि इस संस्करण में मुद्रित किसी प्रति में उक्त दो पेज कम हों।

छत्तीसगढ़ के सदस्यों में, पेज 227 पर रविशंकर शुक्ल और ठाकुर छेदीलाल के हस्ताक्षर 228 पर घनश्याम सिंह गुप्त के हस्ताक्षर (नागरी में), 229 पर रामप्रसाद पोटाई और 230 पर के.एम. त्रिपाठी के हस्ताक्षर (रोमन में) हैं, इस प्रकार कुल पांच व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं। लोक सभा की साइट पर नवंबर 1949 की स्थिति में संविधान सभा के सदस्यों की प्रदेशवार सूची में सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 17 नामों में छत्तीसगढ़ के ठाकुर छेदीलाल (क्रम 5 पर), घनश्याम सिंह गुप्त (क्रम 10 पर), रवि शंकर शुक्ल (क्रम 13 पर) तथा सेंट्रल प्राविंसेस स्टेट्स के तीन नामों में छत्तीसगढ़ के किशोरीमोहन त्रिपाठी (क्रम 2 पर) तथा रामप्रसाद पोटई (क्रम 3 पर) हैं। इस प्रकार पुष्टि होती है कि उक्त पांच संविधान सभा के नियमित तथा हस्ताक्षर की तिथि तक सदस्य रहे।


उक्त संविधान पुरुषों के यों अन्य फोटो भी उपलब्ध होते हैं, किंतु यहां उनकी फोटो आगे आए समूह चित्र से निकाली गई है। उक्त समूह चित्र में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान मेरे द्वारा निश्चित नहीं कर पाने के कारण उनकी अन्य तस्वीर ली गई है। फोटो के नीचे हस्ताक्षर संविधान की प्रति में किए गए हस्ताक्षर से लिए गए हैं।

यहां आए छत्तीसगढ़ के नामों में मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल, अकलतरा के बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्त, कांकेर के रामप्रसाद पोटई, रायगढ़ के के.एम. त्रिपाठी यानि किशोरी मोहन त्रिपाठी और सतनामी गुरु अगमदास अगरमनदास, उनका परिवार सामान्यतः जाना जाता है। रघुराज सिंह (Ragho Raj Singh), सरगुजा स्टेट के दीवान रहे तथा बाद में राजकुमार कॉलेज, रायपुर में प्रिंसिपल रहे, उनका परिवार अब रायपुर निवासी है।

सामने से पहली की पंक्ति-59 सदस्य, दूसरी पंक्ति-59, तीसरी पंक्ति-58, चौथी पंक्ति-54 तथा सबसे पीछे पांचवीं पंक्ति में 48, इस प्रकार कुल 278 व्यक्ति हैं। चित्र में पं. रविशंकर शुक्ल पहली पंक्ति में बायें से दाएं गणना में क्रम 39 पर, इसी तरह ठाकुर छेदीलाल दूसरी पंक्ति में क्रम 40 पर, किशोरी मोहन त्रिपाठी तीसरी पंक्ति में क्रम 7 पर और रामप्रसाद पोटई इसी तीसरी पंक्ति में क्रम 34 पर हैं। जैसा कि उपर उल्लेख है इस तस्वीर में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान निश्चित नहीं हो सकी है।

संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत का संविधान पारित किए जाने के अवसर पर अपने भाषण में अनुवादकों का उल्लेख करते हुए कहा था माननीय श्री जी.एस. गुप्त की अध्यक्षता वाली अनुवाद समिति के द्वारा संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी के समानार्थी हिंदी शब्द तलाशने का कठिन कार्य किया गया है।

संबंधित अन्य जानकारी की प्रस्तुति ‘हमारे संविधान पुरुष और हिंदी‘ शीर्षक से अगली पोस्ट पर।

दैनिक सांध्य छत्तीसगढ़ में प्रकाशित


Saturday, April 28, 2012

अकलतरा के सितारे

आजादी के बाद का दौर। मध्‍यप्रांत यानि सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार में छत्‍तीसगढ़ का कस्‍बा- अकलतरा। अब आजादी के दीवानों, सेनानियों की उर्जा नवनिर्माण में लग रही थी। छत्‍तीसगढ़ के गौरव और अस्मिता के साथ अपने देश, काल, पात्र-प्रासंगिक रचनाओं से पहचान गढ़ रहे थे पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'। यहां संक्षिप्‍त परिचय के साथ प्रस्‍तुत है उनकी काव्‍य रचना स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह और ठा. छेदीलाल-
बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म-07 अगस्‍त 1891, निधन-18 सितम्‍बर 1956
पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'
जन्‍म-06 जुलाई 1908, निधन-02 जनवरी 1982
लाल साहब डॉ. इन्द्रजीतसिंह
जन्‍म-28 अप्रैल 1906 (पासपोर्ट पर अन्यथा 05 फरवरी 1906), निधन-26 जनवरी 1952

अकलतरा में सन 1949 में सहकारी बैंक की स्‍थापना हुई, बैंक के पहले प्रबंधक का नाम लोग बासिन बाबू याद करते हैं। डा. इन्द्रजीतसिंह द्वारा भेंट-स्‍वरूप दी गई भूमि पर बैंक का अपना भवन, तार्किक अनुमान है कि 1953 में बना, इस बीच उनका निधन हो गया। उनकी स्‍मृति में भवन का नामकरण हुआ और उनकी तस्‍वीर लगाई गई। लाल साहब के चित्र का अनावरण उनके अभिन्‍न मित्र सक्‍ती के राजा श्री लीलाधर सिंह जी ने किया। इस अवसर के लिए 'विप्र' जी ने यह कविता रची थी।
स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह
(1)
जिसके जीवन के ही समस्त हो गये विफल मनसूबे हैं।
जिस स्नेही के उठ जाने से हम शोक सिंधु में डूबे हैं॥
हम गर्व उन्हें पा करते थे - पर आज अधीर दिखाते हैं।
हम हंसकर उनसे मिलते थे अब नयन नीर बरसाते हैं॥
वह धन जन विद्या पूर्ण रहा फिर भी न कभी अभिमान किया।
है दुःख विप्र बस यही- कि ऐसा लाल सौ बरस नहीं जिया॥

(2)
सबको समता से माने वे- शुचि स्नेह सदा सरसाते थे।
छोटा हो या हो बड़ा व्यक्ति- सबको समान अपनाते थे॥
वे किसी समय भी कहीं मिलें- हंस करके हाथ मिलाते थे।
वे अपनी सदाचारिता से - हर का उल्लास बढ़ाते थे॥
वह कुटिल काल की करनी से - पार्थिव शरीर से हीन हुआ।
वह इन्द्रजीत सिंह सा मानव- क्यों ''विप्र'' सौ बरस नहीं जिया॥

(3)
राजा का वह था लाल और, राजा समान रख चाल ढाल।
राजसी भोग सब किया और था राज कृपा से भी निहाल॥
जीते जी ऐसी शान रही- मर कर भी देखो वही शान।
हम सभी स्वजन के बीच ''विप्र'' सम्मानित वह राजा समान॥
तस्वीर भी जिसकी राजा का संसर्ग देख हरषाती है।
श्री लीलाधर सिंह राजा के ही हाथों खोली जाती है॥

थोड़े बरस बाद ही डा. इन्द्रजीतसिंह के निधन का शोक फिर ताजा, बल्कि दुहरा हो गया। स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी, युग-नायक बैरिस्‍टर छेदीलाल नहीं रहे, तब 'विप्र' जी ने कविता रची-
ठा. छेदीलाल
अकलतरा के दो जगमग सितारे थे-
दोनों ने अमर नाम स्वर्ग जाके कर लिया।
विद्या के सागर शीलता में ये उजागर थे -
दोनों का अस्त होना सबको अखर गया॥
काल क्रूर कपटी कुचाली किया घात ऐसा-
छत्तीसगढ़ को तू वैभव हीन ही कर दिया-
एक लाल इन्द्रजीत सिंह को तू छीना ही था-
बालिस्टर छेदीलाल को भी तू हर लिया॥
छेदी लाल छत्तीसगढ़ क्षेत्र के स्तम्भ रहे-
महा गुणवान धर्म नीति के जनैया थे।
राजनीति के वो प्रकाण्ड पंडित ही रहे-
छोटे और बड़े के समान रूप भैया थे।
राम कथा कृष्ण लीला दर्शन साहित्य आदि-
सब में पारंगत विप्र आदर करैया थे।
गांव में, जिला में और प्रान्त में प्रतिष्ठित क्या-
भारत की मुक्ति में भी हाथ बटवैया थे॥
छिड़ा था स्वतंत्रता का विकट संग्राम -
छोड़कर बालिस्टरी फिकर किये स्वराज की।
आन्दोलनकारी बन जेल गये कई बार -
चिन्ता नहीं किये रंच मात्र निज काज की।
अगुहा बने जो नेता हुए महाकौशल के -
भारत माता भी ऐसे पुत्र पाके नाज की।
ऐसा नर रत्न आज हमसे अलगाया 'विप्र'-
गति नहिं जानी जात बिधना के राज की॥

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल जी पर एक पोस्‍ट पूर्व में लगा चुका हूं, उन पर लिखी पुस्‍तक की समीक्षा डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद ने की है। अंचल के प्रथम मानवशास्‍त्री डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह जी का शोध पुस्‍तककार सन 1944 में प्रकाशित हुआ, उनसे संबंधित कुछ जानकारियां आरंभ पर हैं इस पोस्‍ट की तैयारी में तथ्‍यों की तलाश में पुष्टि के लिए उनका पासपोर्ट (जन्‍म स्‍थान, जन्‍म तिथि के अलावा कद 6 फुट 2 इंच उल्‍लेख सहित) और विजिटिंग कार्ड मिला गया, वह भी यहां लगा रहा हूं-

ऐसे अतीत का स्‍मरण हम अकलतरावासियों के लिए प्रेरणा है।

बैरिस्‍टर साहब का जन्‍मदिन, हिन्‍दी तिथि (तीज-श्रावण शुक्‍ल तृतीया) के आधार पर पं. लक्ष्‍मीकांत जी शर्मा के ''देव पंचांग'' कार्यालय, रायपुर द्वारा परिगणित है।

Thursday, December 1, 2011

स्‍वाधीनता

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म 1891     निधन 1956

सन 1919 में प्रकाशित पुस्‍तक का अंश

हालैंड की स्वाधीनता का इतिहास

ठाकुर छेदीलाल एम.ए. (आक्सफोर्ड)
बैरिस्टर-एट-ला 
(परमात्‍मने नमः)

बीसवीं सदी स्वतंत्रता की सदी है। संसार के जिस हिस्से पर ध्यान दिया जाये, चारों ओर से स्वतंत्रता ही की आवाज आती है। यहां तक कि वर्तमान विश्वव्यापी समर भी स्वतंत्रता ही के नाम पर प्रत्येक देश में मान पा रहा है। भारत वर्ष भी स्वतंत्रता के इस भारी नाद में अपना क्षीण स्वर अलाप रहा है। यद्यपि इस विश्व में भिन्न-भिन्न जातियां, भिन्न भिन्न राष्ट्र निर्माण कर, अपने ही स्वार्थ साधन मे सदैव तत्पर रहती हैं, तथापि ईश्वर ने इस संसार का निर्माण इस ढंग से किया है कि एक का प्रभाव दूसरे पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। इस वर्तमान समर में कई राष्ट्र सम्मिलित नही हैं, तिस पर भी उन्हें इसके बुरे परिणामों को अवश्य भोगना पड़ता है। इसी तरह प्रत्येक राष्ट्र में होने वाले राजनैतिक आंदोलन से तथा साहित्य की उन्नति से दूसरे राष्ट्र लाभ उठा सकते हैं। यथार्थ में पूछा जाये तो इतिहास के पढ़ने से यही लाभ है। बीते हुए युग का हाल पढ़ने से हम अतीत युग में अपना प्रवेश कराते हैं, जिससे हमारा ज्ञान-क्षेत्र विस्तीर्ण होता है और भविष्य में हमें किस तरह कार्य करना चाहिए, इसकी शिक्षा मिलती है। भारतवर्ष में यह जो स्वराज्य का आंदोलन चल रहा है, इस देश के लिए बिल्कुल नई बात है। इसमें संदेह नही कि प्राचीन भारत में प्रजातंत्र राज्य भी थे। परंतु प्रधानता अनियंत्रित शासन-पद्धति की ही थी। इस कारण केवल भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के ही अध्ययन से इस नये मार्ग के पथिक को कुछ सहायता नहीं मिलती, जिससे उसे पश्चिम की ओर सहायता के लिए झांकना अनिवार्य हो जाता है। यूरोप में कई राष्ट्रों ने कई प्रकार से आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य प्राप्त किया है। किंतु हिन्दी साहित्य में इनका वर्णन न होने से इस भाषा भाषी को इससे कोई लाभ नहीं होता।

आजकल हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न चारों ओर से किया जा रहा है, जिनके प्रधान नेता श्रद्धास्पद, स्वनामधन्य कर्मवीर महात्मा गांधी हैं। इतने बड़े सेवक को पाकर हिंदी सचमुच कृतार्थ हो गई है, और आशा है कि अब इसके वेग को कोई रोकने में समर्थ न होगा और यह अपने लक्ष्य सिद्धि में शीघ्र ही सफलीभूत होगी। यद्यपि कई क्षुद्र व्यक्तियों ने जिनका नाम लिखना अनावश्‍यक है, हिंदी भाषा की निंदा करते-करते गांधी महात्मा पर भी संकीर्णता तथा पक्षपात का दोष आरोपण किया है, तथापि इनका प्रयत्न इस आंदोलन को रोकने में असमर्थ है। इनमें से कई महात्माओं ने अंग्रेजी की इतनी प्रशंसा की है कि उसे करीब-करीब यूरोप के सब भाषाओं से बढ़कर बना दिया है, उदाहरणार्थ एक महाशय लिखते हैं-
“English is of special value as being the key to a vast field of knowledge and as being the means of likewise of communicating to the whole of the civilised world anything of intellectual value that India may have to communicate.”

इन महात्मा को शायद यह मालूम नहीं है कि यूरोप में सिवाय इंग्लैंड के और किसी देश में सैकड़ा पीछे एक आदमी भी अंग्रेजी नहीं जानता। वहां पर फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं ही की प्रधानता है। इनसे पूछा जाय क्या मेटरलिंक ने अपने विख्यात नाटकों को अंग्रेजी में लिखा था? क्या कान्ट ने अपना तत्व विज्ञान, डास्टोएवेस्की ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास, गोगोल तथा टर्जनीव ने अपने उपन्यास, टालस्टाय ने अपनी तत्व विज्ञान संबंधी पुस्तकें, शापेनहार, हीगेल तथा स्पिनोजा ने अपने विचार अंग्रेजी में व्यक्त किये थे? क्या विक्टर ह्यूगो, ब्रू, इब्सेन ने अपनी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित कराई थी? हां, हम भारतवासियों को जो संसार में अंग्रेजी ही को अपनी अज्ञानतावश सर्वश्रेष्ठ तथा विश्‍वव्यापी मान बैठे हैं, उपरोक्त प्रतिभाशाली लेखकों को ज्ञान अंग्रेजी ही द्वारा हुआ। किंतु इतना स्मरण रखना चाहिए कि इन सब महात्माओं की पुस्तकों की उत्तमता को देखकर अंग्रेजी ने अपनी साहित्य की कमी पूरा करने के लिए इनको अपनी भाषा में अनुवाद किया। किंतु अंग्रेजी में अनुवाद होने के पूर्व ही इन्होंने संसार में ख्याति पा ली थी। क्या रविन्द्र बाबू की गीतांजलि, बंगाली भाषा से फ्रेंच में अनुवादित की जाती तो संसार में प्रसिद्ध न होती? यदि अंग्रेजों को यह मालूम हो जाये कि भारतवासी अपने उत्कर्ष विचार अपनी ही भाषा में व्यक्त करेंगे, तो निश्‍चय ही वे हमारी भाषा को पढ़ेंगे और उत्तम ग्रंथों का अनुवाद अपनी भाषा में स्वयं करेंगे। क्या जगदीश बाबू के प्रसिद्ध अविष्कार, अपनी भाषा में लिखे जाने पर दूसरे लोग ग्रहण न करते? क्या फ्रेंच में इनके सिद्धांतों का अनुवाद नहीं हुआ होगा? अस्तु।

हिंदी का मुखोज्वल करना हमारे हाथ है, और यदि हम चाहें तो अपने मौलिक लेखों द्वारा इस भाषा को इतने ऊंचे पद पर चढ़ा सकते हैं, कि पश्चिमी विद्वान इसे अवश्‍य अध्ययन करें। तुलसीदास की रोचकता ने, कबीर की सार-गर्भिता ने तथा सूरदास के पद-लालित्य ने कई विदेशियों को हिन्दी पढ़ने पर विवश किया। इसी तरह यदि केवल हम इधर-उधर की पुस्तकों का अनुवाद करने ही को अपना इति कर्तव्य न समझें, और अपने ऊंचे विचार इसी भाषा में व्यक्त करें तो क्या नहीं हो सकता। हिन्दी में यूरोपीय इतिहास संबंधी कोई पुस्तक नहीं है। हां, इंडियन प्रेस ने इतिहास-माला निकालना प्रारंभ किया है, जिसमें पांच छः पुस्तकें निकल चुकी है। निस्संदेह यह प्रयत्न अच्छा है। किंतु इन पुस्तकों को, कोई इतिहास नहीं कह सकता। यदि हम इनको सन् संवत की सूचियां कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। इस कमी को पूर्ण करने के लिए हम लोगों ने यह 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' निकालना निश्चय किया है। इसमें केवल उन्हीं देशों के इतिहासों का समावेश रहेगा, जिन्होंने राष्ट्रीय तथा आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य प्राप्त की है और इनमें केवल उन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख रहेगा, जिनका संबंध एतद्देशीय राष्ट्रीय स्वाधीनता से रहा हो।

विषय बड़ा गहन है और हमारी योग्यता बहुत कम है। आश्‍चर्य नहीं कि पग-पग पर हम लोग चूकेंगे। किंतु वर्तमान काल में ऐसी पुस्तकों की उपयोगिता का विचार कर, और हिंदी में उनका अभाव देखकर हम लोग अपनी अयोग्यता को जानते हुए भी इस कार्य में बद्ध-परिकर हुए हैं। इस सोपान सीरीज में निम्नलिखित देशों की स्वाधीनता प्राप्त करने की विधि का वर्णन रहेगा।
अर्थात्
(१) हालैंड, (२) इंग्लैंड, (३) अमेरिका, (४) फ्रांस, (५) इटली, (६) टर्की, (७) ईरान, (८) पोर्तगाल और, (९) रूस।
भाषा संबंधी त्रुटियों का होना तो हमारी अयोग्यता-वश अनिवार्य ही है। फिर भी सहृदय पाठकों से हमारा निवेदन है कि इन त्रुटियों का विचार न करके, इस सीरीज को अपनाकर, हमें उत्साहित करेंगे। उदार पाठकों से प्रार्थना है कि जो त्रुटियां, भाषा तथा विषय-संबंधी उन्हें इस 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' में मिले, उनसे हमें सूचित करें, जिसे हम सहर्ष और धन्यवाद सहित स्वीकार करेंगे।
- संपादक

भूमिका

यूरोप के इतिहास में सोलहवीं सदी तथा सत्रहवीं सदी धार्मिक मारकाट के लिए प्रसिद्ध है। एक भारतीय को जिसका ध्येय सदा से धार्मिक स्वतंत्रता ही रहा है, धार्मिक विषय में मारकाट बड़ा विचित्र मालूम होता है। हिंदू धर्म के छत्र-छाया में बौद्ध, जैन, चार्वक, नास्तिक आदि सब मतों ने एक सा मान पाया है और किसी को धार्मिक विश्वास के कारण किसी तरह का कष्ट नहीं उठाना पड़ा। धार्मिक विषय में स्वाधीनता एक हिंदू को बहुत आवश्यक तथा साधारण ज्ञात होती है। इसलिए यूरोप के इतिहास में, धर्म के नाम से मनुष्यों पर पाशविक अत्याचार का किया जाना, उसके मन को डांवाडोल कर देता है। यूरोप की सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के इतिहास में यदि कोई रत्न चमकता हुआ उसे दिखता है तो वह छोटे हालैंड का अपने बलिष्ठ शत्रु स्पेन के साथ अपनी स्वतंत्रता लाभार्थ अस्सी साल की लड़ाई है। स्पेन का यूरोप में उस समय बड़ा दबदबा था। धन, जन आदि सब बातों में दूसरे यूरोपीय देश स्पेन का महत्व स्वीकार करते थे। इंग्लैंड, फ्रांस प्रभृति देश भी स्पेन के आगे सिर झुकाते थे। ऐसे स्पेन से एक तुच्छ हालैंड का, जिसकी जनसंख्या हिन्दुस्तान के किसी छोटे प्रांत के चौथाई से भी कम है, अस्सी साल तक अपूर्व पराक्रम से लड़ना तथा अंत में स्पेन ही द्वारा अपनी स्वतंत्रता कबूल करा लेना, एक भारतीय को थर्रा देता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो अधिकारी वर्ग को सदैव सब कुछ मानता आया है, जिसके हृदय में स्वाधीनता का लेशमात्र भी भास नहीं है, वह स्‍वतंत्रता के लिए हालैंड के इस आत्मोत्सर्ग का क्या आदर कर सकता है? यद्यपि उसका हृदय अंधकार से पूर्ण है तथापि डच लोगों का अपूर्व साहस उसके हृदय में ऐसी ज्योति उत्पन्न कर देता है कि स्वयं गिरे हुए होने पर भी हालैंड के उन वीरों के कार्य को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपने धन, प्राण सब सहर्ष अर्पण कर दिए, प्रेम और आदर दृष्टि से देखता है। स्पेन के घोर अत्याचार तथा उद्दण्डता, मौनी विलियम के असीम देशप्रेम, साहस तथा आत्म त्याग, वार्नवेल्ट की राजनैतिक कुशलता, नासो के विलियम का रण पांडित्य, जान डी विट् का यूरोपीय राष्ट्र संगठन में अपूर्व ज्ञान तथा प्रत्येक डच का स्वाधीनता के लिए सहर्ष प्राण अर्पण करना, यही प्रथम सोपान के मुख्य विषय है। किस प्रकार इस छोटे से हालैंड ने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह भारतवर्ष सरीखे आलसी तथा लकीर के फकीर देश के लिए अनुकरणीय है।

इस पुस्तक का मुख्य अभिप्राय उन्हीं बातों से हैं, जिनसे डच लोगों को स्वाधीनता दिलाने में सहायता मिली। इस कारण सोलहवीं सदी से हमारा प्रकरण प्रारंभ होगा। यथार्थ में डच लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई स्पेन के द्वितीय फिलिप के राज्य काल से आरंभ की। इस कारण हमारा इतिहास द्वितीय फिलिप के समय से ही आरंभ किया जायेगा। जिन महाशयों को इसके पूर्व का हाल जानने की उत्सुकता है उन्हें केम्ब्रिज मिडिवियल हिस्ट्री, हिस्टोरियन्स हिस्ट्री आफ दी वर्ल्‍ड और माटले की डच रिपब्लिक प्रथम भाग की प्रस्तावना देखना चाहिए।

इस पुस्तक में हमने समकालीन लेखों तथा पत्रों से कुछ अवतरण दिया है। हिंदी में इनका अच्छा अनुवाद न हो सकने के कारण अंगेरजी अनुवाद दे दिए गए हैं।
- ठाकुर छेदीलाल

स्‍वाधीनता संग्राम के दौरान वैचारिक स्‍तर पर अस्मिता और स्‍वतंत्रता की भावना जागृत करने वाले उपाय भी किए जाते रहे। गणेशोत्‍सव, धार्मिक प्रवचन, यज्ञ-अनुष्‍ठान, लीला-नाटक मंचन, इतिहास लेखन-प्रकाशन, भाषाई आग्रह जैसे अहिंसक तौर-तरीके अपनाए जाते। अकलतरा के ठाकुर छेदीलाल बैरिस्‍टर ने ऐसे सभी अस्‍त्र आजमाए। बैरिस्‍टरी की पढ़ाई के बाद, वकालत और शिक्षण के साथ 1919 से 1933 के बीच (उनके जेल जाने से व्‍यवधान भी होता रहा) दो-ढाई हजार की आबादी वाले कस्‍बे अकलतरा में रामलीला का आयोजन करते रहे। उनके साथ इस काम में अकलतरा के दो और विलायत-पलट, लोगों को निःशुल्‍क चिकित्‍सा सेवा देते एफआरसीएस, उनके अनुज डा. चन्‍द्रभान सिंह और रायल इकानामिक सोसायटी से जुड़े, पूरी गोंडवाना पट्टी और बस्‍तर के बीहड़ सुदूर अंचल में शोध-सक्रिय, जनजातीय समुदाय में अलख जगाते, उनके भतीजे डा. इन्‍द्रजीत सिंह अनुगामी होते।