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Sunday, July 3, 2011

स्वामी विवेकानन्द

4 जुलाई की तारीख इस तरह कम याद की जाती है कि सन 1902 में स्वामी विवेकानन्द का निधन इसी दिन हुआ, यह और भी कम कि 12 जनवरी 1863 को जन्‍म लिए इस महामानव के डेढ़ साल रायपुर में बीते, जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्‍थान में उनका बिताया सबसे अधिक समय है। रायपुर से कलकत्ता लौटकर उन्‍होंने 1879 में 16 वर्ष की आयु में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।

रायपुर का बुढ़ा तालाब/विवेकानंद सरोवर, जिसके पास उन्‍होंने निवास किया

छानबीन करते हुए स्वामी आत्मानंद जी का लेख मिल गया, जिसका कुछ हिस्सा मैंने उनसे प्रत्यक्ष चर्चा में और उनके उद्‌बोधन में भी सुना है। 'स्वामी विवेकानन्द और मध्यप्रदेश' शीर्षक से अबुझमाड़ ग्रामीण विकास प्रकल्प की स्मारिका 1987 में प्रकाशित इस लेख का रायपुर प्रवास से संबंधित अंश-

विवेकानन्द, जो नरेन्द्र नाथ दत्त के रूप में सन्‌ 1877 ई. में रायपुर आये। तब उनकी वय 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने पेशे के काम से रायपुर में रह रहे थे। जब उन्होंने देखा कि रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा, तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर में बुला लिया। नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहिन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए। तब रायपुर कलकत्ते से रेललाइन के द्वारा नहीं जुड़ा था। उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जानेवाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। अतः बहुत सम्भव है, नरेन्द्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो। उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्र एवं उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये, पर नरेन्द्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वनवृक्ष होते। भले ही नरेन्द्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि, उनके ही शब्दों में, ''वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात्‌ परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।'' उन्होंने बताया था, ''वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुई, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपनी मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते-सोचते मन तीनों जगत्‌ के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्‌य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुनः होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका।''14 (14- स्वामी सारदानन्दः'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग', तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर, पृ. 67-68) नरेन्द्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।

रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था। इसलिए नरेन्द्र नाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र नाथ बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी प्रकाशित कर देते। उनकी बुद्धिमता तथा ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते, इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्‍यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े, ''बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी- वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र नाथ बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये।

बालक नरेन्द्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे तथा दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेन्द्र सोचने लगे, ''यह कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसा समझते हैं।'' अतएव आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा, ''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं और वे उसके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। कठोपनिषद्‌ में बालक नचिकेता में भी ऐसी ही आत्मश्रद्धा दिखाई देती है। उसने कहा था, ''बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी का, पर मैं अधम कदापि नहीं हूं।''

नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने तथा उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया तथा अच्छे खिलाड़ियों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे।15 (15- स्वामी गम्भीरानन्दः'युगनायक विवेकानन्द' (बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 (आगे युगनायक नाम से अभिहित)) फिर, रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ। 16 (16- 'दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द', अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवां संस्करण, पृ. 42-43 (आगे 'दि लाइफ' नाम से अभिहित))

डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत। उनमें आत्मविश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढ़ने के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।

रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्र नाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे, ''आपने मेरे लिए क्या किया है?'' तुरन्त उत्तर मिला, ''जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!'' पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।

एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा था कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, ''कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!'' क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।17 (17- वही, पृ. 44)

उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का क्या योगदान रहा है।

बताया जाता है कि नरेन्‍द्र, पिता विश्‍वनाथ दत्‍त के साथ रायबहादुर भुतनाथ दे (1850-1903) के इसी ''दे भवन'' में रहे थे। भवन की वर्तमान तस्‍वीर, जिसमें भुतनाथ जी के पुत्र हरिनाथ दे का शिलालेख है कि उन्‍होंने अपने जीवन के 34 वर्षों में 36 भाषाएं सीखीं।


इस भवन में नरेन्‍द्र-विवेकानन्‍द के निवास का संदर्भ यहां लगे एक अन्‍य शिलालेख में था, जिसके सहित इस भवन की तस्‍वीर सन 2003 में स्‍वामी जी के रायपुर आगमन के 125 वर्ष पर छत्‍तीसगढ़ शासन, संस्‍कृति विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी। पता चला कि यह शिलालेख अब वहां नहीं है।


बूढ़ापारा का डे भवन, जिसमें स्वामी विवेकानंद के निवास 
की जानकारी का शिलालेख होता था।
सन 1995 का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिसका आशय स्वयं स्पष्ट है।


स्‍वामी विवेकानन्‍द की 150 जयंती के आयोजन आरंभ हो रहे हैं। समय की पर्त कभी इतनी मोटी होती है कि कम समय में ही बड़ी घटना पर भी ओझल कर देने वाला परदा पड़ सकता है। इस अवसर पर उनके रायपुर आगमन व निवास के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति बनती देखकर यह प्रस्‍तुत करना जरूरी लगा।

Thursday, December 2, 2010

दिनेश नाग


'फॅंस गए रे ओबामा' सुनकर एकबारगी लगता है कि अमरीकी राष्‍ट्रपति की पिछले दिनों भारत यात्रा का कोई संदर्भ है, लेकिन ऐसा कतई नहीं। फिल्‍म की कहानी है आर्थिक मंदी की, जिसे अपहरण के साथ लपेट कर, मजेदार ढंग से दिखाया गया है।


फिल्‍म में एक तरफ भारत लौटे अमरीकावासी एनआरआइ ओम शास्‍त्री (नायक रजत कपूर) हैं तो दूसरी तरफ मुम्‍बई अंडरवर्ल्‍ड की रानी फिमेल गब्‍बर सिंह (नायिका नेहा धूपिया) और इन दोनों के बीच है, ओम शास्‍त्री का भांजा कन्‍हैया लाल, यानि हमारा हीरो, छत्‍तीसगढ़ का दिनेश नाग। दिनेश ऐसा अभिनेता है, जिसकी आंखें तो क्‍या चेहरा भी बोलता है।


छत्‍तीसगढ़ को आदिम संस्‍कृति के चर्चित (जनजाति और उनके घोटुल) केन्‍द्र, बस्‍तर और अबुझमाड़ के कारण भी जाना जाता है। अबुझमाड़-ओरछा का मुहाना है अब का जिला मुख्‍यालय नारायणपुर। इसीसे लगा गांव है गढ़ बेंगाल, जो सन 1957 में पूरी दुनिया में जाना गया था दस वर्षीय बालक चेन्‍दरू के साथ। चेन्‍दरू नायक था, अर्न सक्‍सडॉर्फ की स्‍वीडिश फिल्‍म 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') का। फिल्‍म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। सन 1998 में अधेड़ हुए चेन्‍दरू और इस पूरे सिलसिले को नीलिमा और प्रमोद माथुर ने अपनी फिल्‍म 'जंगल ड्रीम्‍स' का विषय बनाया। चेन्‍दरू, इन दिनों अपने गांव में 'गैर-फिल्‍मी' दिनचर्या बसर कर रहा है, किन्‍तु फिल्‍मों का पहला छत्‍तीसगढ़ी सुपर स्‍टार वही है।

नारायणपुर से लगे गांव माहका का निवासी है दिनेश नाग। स्‍कूली शिक्षा रामकृष्ण मिशन, विवेकानन्द विद्यापीठ, नारायणपुर से 2001 में पूरी हुई, आगे की पढ़ाई के लिए दिनेश भिलाई आ गए लेकिन उनका मन रमने लगा नाटकों में। 2004 में रायपुर में राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय की कार्यशाला हुई। दिनेश की मानों मुराद पूरी हुई। कार्यशाला में उनकी अभिनय प्रतिभा को अमिताभ श्रीवास्तव, विनोद चोपड़ा और विभा मिश्रा ने पहचाना। इसी क्रम में दिनेश को अपनी प्रतिभा निखारने का मौका मिला, भोपाल की कार्यशाला में, जहां उन्‍हें देवेन्द्र राज अंकुर, राजेन्द्र गुप्ता, भानु भारती और रतन थियम जैसे गुरु मिल गए। इसके बाद 2005 में दिनेश ने मुंबई की राह पकड़ ली।


बॉलीवुड के खट्टे (-मीठे की शुरुआत शायद अब हो) अनुभवों के साथ दिनेश इडियट बॉक्स, रन भोला रन और स्‍ट्राइकर फिल्‍मों से जुड़े रहे, लेकिन इनसे उनकी पहचान न बनी।

दिनेश बताते हैं 8 नवम्‍बर को फिल्‍म के म्‍यूजिक रिलीज के अवसर पर उन्‍हें कन्‍हैया लाल के रूप में पहचाना गया इससे उन्‍हें भरोसा है कि 3 दिसम्‍बर को फिल्‍म रिलीज के साथ उनकी पहचान बनने लगेगी, हमारी भी यही कामना है। उनकी आने वाली फिल्‍म कॉल सेंटर पर आधारित 'तीस टका' होगी।

दिनेश नाग का फोन नं. +919867745061 है। इस पोस्‍ट के लिए जानकारी और फोटो का सहयोग अभिषेक झा (फोन नं.- +919424287102) और सोमेश (फोन नं.- +919993294086) से मिला है।



परिशिष्‍टः

रामकृष्‍ण मिशन, विवेकानंद आश्रम, रायपुर के संस्‍थापक प्रातः स्‍मरणीय स्‍वामी आत्‍मानंद जी ने बिलासपुर व अमरकंटक आश्रम सहित नारायणपुर आश्रम, विवेकानंद विद्यापीठ की नींव रखी, जिसके माध्‍यम से अबुझमाड़ इलाके में मुख्‍यतः चिकित्‍सा और शिक्षा की नई अलख जगी। इस यज्ञ में उनके सहयोगी संतोष भैया, देवेन्‍द्र भैया, राजा भैया, शत्रुघ्‍न भैया, सतीश भैया, चटर्जी सर याद आ रहे हैं।

गढ़ बेंगाल, चेन्‍दरू के साथ बेलगुर, पंडी, जैराम द्वय, शंकर द्वय, बुधसिंह, रूपसिंह, सोबराय, मनीराम, पिसाड़ू कचलाम जैसे अनेकों कलाकार-शिल्‍पकारों का सभ्‍य-सुसंस्‍कृत गांव है और यहां किसी सियान को ढुसीर बजाकर घोटुल पाटा और लिंगोपेन की महान गाथा गाते देख-सुन सकते हैं।

नारायणपुर के पास कोई 40 साल पहले सोनपुर के अपने प्रवास के बाद वहां से 30 किलो मीटर दूर कोई 20 साल पहले, घनघोर अंदरूनी इलाके का डेढ़ हजार साल पुराना बौद्ध अवशेषों सहित प्राचीन स्‍थल भोंगापाल का उत्‍खनन कैम्‍प, वहीं बांसडीह, बलिया के सिंह गुरुजी का संग व मार्गदर्शन, खुदाई के साथी चेलिक और मोटियारी के साथ घोटुल संस्‍था को पहली बार करीब से देखने-समझने का अवसर बना।

याद कर रहा हूं, भोंगापाल में स्विस युवा पर्यटक से मुलाकात हुई और फिर सन 1990-91 में रेनॉल्‍ड पेन नया-नया था, जिसके साथ बहुतों की बालपेन से लिखने की आदत बनी और फाउन्‍टेन पेन छूटा। लेकिन पहली खेप के बाद रायपुर के बाजार में इसकी कमी हो गई। नारायणपुर के इतवार बाजार से कैम्‍प के सौदा-सुलुफ के बाद बस स्‍टैंड पर पान की दुकान में रेनॉल्‍ड पेन दिख गया और एक साथ पेन की जोड़ी खरीद लिया।

अब सोचता हूं ''नारायणपुर में रेनॉल्‍ड पेन और भोंगापाल में स्विस युवा'' शीर्षक से उदारीकरण और वैश्‍वीकरण पर महसूस किए, याद रहे, पहले-पहल अनुभवों पर एक पोस्‍ट लिखूं, गल्‍फ-वार के चलते कैम्‍प के लिए किरोसीन और सफर के लिए डीजल संकट से मुकाबले को जोड़कर, जो समाप्‍त हो अंकल सैम के नारे के साथ।

इन सबका साक्षी और कुछ हद तक सहभागी रहने के चलते गौरव अनुभव कर रहा हूं और नक्‍सलवाद की याद अब आई, लेकिन 'बाबू ले बहुरिया गरू झन हो जाय' इसलिए फिलहाल बस इतना ही।

पुनश्‍चः 5 दिसंबर को ''आज की जनधारा'' समाचार पत्र ने स्‍तंभ 'ब्‍लॉग कोना' में इस पोस्‍ट को साभार प्रकाशित किया है।