छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग द्वारा राज्य की संस्कृति, परंपरा, भाषा-साहित्य तथा लोक-जीवन के विविध आयामों को उजागर करने के लिए ‘छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति-2004’ राज्य स्तरीय संगोष्ठी का आयोजन 23 एवं 24 मार्च को रायपुर में किया गया। यह संगोष्ठी छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता, छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत, व्यंजन एवं छत्तीसगढ़ की संत परंपरा पर केन्द्रित थी। आयोजन में राज्य के सभी जिलों से संस्कृति और भाषा के विशेषज्ञों, अध्येताओं को आमंत्रित किया गया।
23 मार्च, मंगलवार को उद्घाटन सत्र में कार्यक्रम का परिचय देते हुए संचालक, संस्कृति, श्री प्रदीप पंत ने बताया कि यह संगोष्ठी छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता, छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत, व्यंजन एवं छत्तीसगढ़ की संत परंपरा पर केन्द्रित है। इस संगोष्ठी के माध्यम से राज्य की समृद्ध परंपरा का संवर्धन करने की दिशा में एक प्रयास किया जा रहा है तथा प्रत्येक जिले में ‘छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति’ संगोष्ठियां जिला प्रशासन के माध्यम से विभाग द्वारा सम्पन्न की जा रही है। संगोष्ठी में श्री श्यामलाल चतुर्वेदी, श्री स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने अपने विचार रखे।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि, डॉ. इंदिरा मिश्र, अपर मुख्य सचिव, संस्कृति ने अपने उद्बोधन में छत्तीसगढ़ी की भाषायी समृद्धि और अभिव्यक्ति सामर्थ्य पर प्रकाश डालते हुए एक पत्रिका का प्रकाशन करने की योजना बतायी, जिसका स्वरूप छत्तीसगढ़ी के विद्वानों से परामर्श कर निर्धारित किया जाएगा।
शुभारंभ सत्र के पश्चात् ‘छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता’ सत्र की अध्यक्षता डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने की और आधार लेख डॉ. बिहारीलाल साहू ने पढ़ा। आधार लेख में डॉ. साहू ने कहा कि छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़ की जनभाषा है। यह हिन्दी भाषा समुच्चय की सशक्त सदस्या है। इसकी उत्पत्ति अर्धमागधी अपभ्रंश से मानी गयी है तथा यह पूर्वी हिन्दी की पुरोगामी भाषा है। इसकी संरचना में एक ओर शौरसेनी अपभ्रंश के भाषिक तत्वों का समावेश है तो दूसरी ओर इसमें मागधी वर्ग की हिन्दी और अहिन्दी भाषा-रूपों का समाहार है। यद्यपि छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़ अंचल की जनभाषा है तथापि यहॉं विविध भाषा-बोलियों का संगम समाहार देखा जा सकता है। यहॉ आर्य भाषा परिवार की छत्तीसगढ़ी के साथ आग्नेय अथवा निषाद वर्ग की कोरकू, खरिया, खैरवारी, गदबा, शबर आदि बोलियॉं तथा द्राविड़ वर्ग की कुड़ुख, गोंड़ी, दोरली और परजी आदि भाषा रूप पारिवारिक एवं जातीय परिसर में प्रचलित हैं। इधर मंगोल अथवा किरात भाषा परिवार की बोली तिब्बती शरणार्थियों के साथ सरगुजांचल के मैनपाट में आ पहुची है। वस्तुतः छत्तीसगढ़ का भाषिक परिदृश्य वैविध्यपूर्ण है किंतु छत्तीसगढ़ी उसकी ‘लिंग्वा फ्रेंका’ है, जन प्रचलन की सर्वाधिक समर्थ भाषा है।
उन्होंने आगे कहा कि छत्तीसगढ़ी लोकभाषा है और लोकाभिव्यंजता उसकी मूल प्रकृति है। छत्तीसगढ़ी भाषा का लोक जीवन के पालने में लालन-पालन हुआ है, उसका वाचिक परम्परा में उन्मेष हुआ है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ी भाषा का वाचिक या मौखिक साहित्य जितना समृद्व और अभिव्यंजक है उतना उसका अभिजात्य या शिष्ट साहित्य नहीं। छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकोक्ति, मुहावरे और पहेलियां इस धारा की प्रयुक्त भाषा को अधिक प्रांजल बना देती है। छत्तीसगढ़ी भाषा की अभिव्यंजकता, वाचिक साहित्य के तथ्य और शिल्प दोनों पर दिखलायी देती है। उन्होंने ददरिया, देवार गीत, लोक सुभाषितों, पहेलियों, मुहावरों के उदाहरण भी दिए।
सत्राध्यक्ष डा. शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा- अभिधा तथा लक्षणा अपने अर्थ का बोध कराने के बाद जब विरत हो जाती है, तब जिस शब्द शक्ति द्वारा व्यंग्यार्थ ज्ञात होता है, उसे व्यंजना शक्ति अथवा व्यापार कहते हैं। व्यंग्यार्थ के लिए ध्वन्यार्थ, सूच्यार्थ, आक्षेपार्थ, प्रतीयमानार्थ आदि शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। अभिधा शब्द का साक्षात सांकेतिक अर्थ बतलाती है, और लक्षणा मुख्यार्थ के असिद्ध होने पर रूढ़ि के कारण अथवा किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए मुख्यार्थ से संबंधित किसी अन्य अर्थ को लक्षित कराती है, किन्तु जब अभिधा और लक्षणा अभीष्ट अर्थ को स्पष्ट करने में असमर्थ रहती है, तो व्यंजना शक्ति का सहारा लेना पड़ता है। अभिधा और लक्षणा का संबंध केवल शब्द से होता है, किन्तु व्यंजना शब्द पर ही नहीं, वरन अर्थ पर भी आधारित रहती है।
व्यंजना शक्ति के दो प्रधान भेद हैं- 1. शाब्दी व्यंजना तथा 2. आर्थी व्यंजना। शब्द पर आधारित व्यंजना अभिधामूला तथा लक्षणामूला होती है। जैसे-
‘आमा ल टोरे रे खाहौं कहिके। दगा म डारे बइहा आहौं कहिके।।‘
उन्होंने छत्तीसगढ़ी के पारम्परिक काव्य और गद्य में व्यंजकता को सोदाहरण स्पष्ट किया और बताया कि छत्तीसगढ़ लोकोक्ति या कहावतें या छत्तीसगढ़ी मुहावरों में व्यंजना शक्ति निहित है। छत्तीसगढ़ी भाषा में हाना, तुक और विशेष ध्वनि-ध्वन्यात्मकता के साथ चमत्कार पैदा करते हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों के प्रयोग से सहज ही चमत्कार आ जाता है।
इस सत्र में डॉ. विनय कुमार पाठक, डॉ. चितरंजन कर, डॉ. मन्नूलाल यदु, डॉ. व्यास नारायण दुबे ने भी अपने महत्वपूर्ण आलेख पढ़े और सत्र की चर्चा में डॉ. नलिनी श्रीवास्तव, डॉ. के.के. झा, श्री अनिरूद्ध नीरव, डॉ. रामनारायण शुक्ल की सहभागिता उल्लेखनीय रही।
अपराह्न सत्र ‘छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत एवं व्यंजन’ पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता श्री श्यामलाल चतुर्वेदी ने की और छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत पर आधार लेख श्री प्रताप ठाकुर का था।
श्री ठाकुर ने अपने आलेख में कहा है कि छत्तीसगढ़ के खेलों में भी एक तरह का विभाजन है कुछ खेल पुरूष एवं बालक ही खेलते हैं तो कुछ खेलों पर बालिकाओं एवं महिलाओं का एकाधिकार है, परन्तु अधिकांश खेल ऐसे हैं जिन्हे बालक-बालिकाएं मिलजुलकर खेल सकते हैं। अधिकांश खेल वैसे तो नियमबद्ध हैं, परन्तु खेलों में संख्या की कोई बाध्यता नहीं है। कबड्डी एवं खो-खो में संख्या निर्धारित है, ये खेल ग्रामीण अंचल से उठकर राज्य एवं राष्ट्र की सीमा पार कर चुके हैं, इन खेलों को एशियाई खेलों मे शामिल किया गया है, गांवों में कबड्डी अभी भी डुडुआ के ग्रामीण नाम से खेला जाता है, अंतर केवल यह होता है कि एक तरफ का खिलाड़ी जब दूसरी ओर जाता है वह कबड्डी-कबड्डी के स्थान पर ‘‘चल डुडुआ डू-डू-डू-डू’’ कहता है।
श्री ठाकुर के आलेख में छत्तीसगढ़ के गांवों में खेले जाने वाले खेल- डुडुआ या कबड्डी, खो-खो, चौपड़ या पासा, पचीसा, नौगोंटी-चालगोंटी या भटकौला, छेरी बाघ (शतरंज, चौपड़ की तरह का एक खेल), गिल्ली-डंडा, डंडा-पचरंगा-झाड़ बेंदरा, गेंड़ी, छुआ-छुऔव्वल भुर्री, चर्रा-चर्रा, टीप-रेस, चोर सिपाही, टामरस-धम्मक धुम्मक, सत्तुल, बिस-अमृत, नदी पहाड़, बांटी (बदाबुदी), भौंरा, कुढ़ील या आकुल-चाकुल या चिखौव्वल, नरियर फेंकऊला (हरेली पर्व के समय), सांट लुकऊला या घोड़ा बदाय छाई, पीछे देखो मार खाई, धंसऊला या गड़उला (बरसात के आसपास), खीला ठोंकउला, धम्मक-धुम्मक या धामर-धूसर, पतंग उड़ाना, खिस्सुल, चिमटुल, चेथुल, डंडा को लाउल (खरतोल), हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की- झुल्ला झूल-कदम के फूल, चूड़ी जीत-गोबर जीत, फुगड़ी-कदम्मा, पंचवा, घरगुंदिया, जतुलिया, ठेंकुलिया-धानी मुंदी, पुतरी बिहाव (अक्ती के समय), चकर बिल्लस, रस्सी कूद आदि के साथ खेल-बाल गीतों का परिचय दिया।
छत्तीसगढ़ के व्यंजन पर आधारित लेख में डॉ. रत्नावली सिंह ने बताया कि अनेक प्रकार के उत्कृष्ट प्रजाति के धान छत्तीसगढ़ के ‘धान के कटोरा’ नाम को सार्थक करते हैं, यद्यपि गेहूं, दालें और तिलहनों का भी उत्पादन होता है, तथापि मुख्य उपज धान है। लोगों का मुख्य भोजन चावल है, यद्यपि चावल की अपेक्षा सस्ता होने के कारण आजकल गेहूं भी यहां के निवासियों के भोजन का हिस्सा बन गया है। सामान्य तथा दोनों समय भात, मिले तो दाल और कई प्रकार के शाक यहां के लोगों का मुख्य भोजन है। पहले रात के समय बचे भात में पानी डालकर, सबेरे बासी खाने का रिवाज था। खमनीकरण के कारण बासी में ऐसे तत्वों का समावेश होता था, जिससे लोग बहुत काम कर सकते थे पर अब बासी का स्थान धीरे-धीरे चाय ने ले लिया है। सबेरे नाश्ते में धुसका एवं अंगाकर खाया जाता है। धुसका, चांवल के आटे से बनता है, जिसे घी एवं चटनी, आचार के साथ खाते हैं। अंगाकर बहुत ही कम बनता है क्योंकि इसे बनाने के लिये कंडे की आग की आवश्यकता होती है। गांव में भी चूल्हे का प्रयोग तो होता है, पर जिस ‘गोरसी’ (मिट्टी से बना आग रखने का पात्र) में परंपरागत अंगाकर बनता था, वह अब बहुत कम देखने में आता है।
छत्तीसगढ़ के अधिकांश त्यौहार कृषि आधारित होते हैं। सावन की अमावस्या, हरेली से त्यौहारों का सिलसिला शुरू होता है। फिर तो राखी-भोजली, तीजा-पोरा, पितर-नेवरात जैसे पर्व आते हैं। गॉंव की रक्षा और खुशहाली के लिये बैगा हूंम धूप देते हैं, गाय कोठा में नीम की डाल खोंचते हैं। घरों में बरा चौंसेला बनता है जिसे परिवार एवं कमिया तथा कृषि सहायकों को प्रेम से खिलाया जाता है। श्रीमती डॉ. सिंह ने छत्तीसगढ़ के व्यंजनों- चीला (सादा चीला, नूनहा चीला तथा गुरहा चीला), बबरा, बिनसा, चौंसेला, फरा, अइरसा, देहरौरी, खुरमी, पपची, कुसली, ठेठरी, करी, बूंदी, सोंहारी, बरा, भजिया, तसमई आदि पकवानों और उनसे सम्बद्ध पर्व, त्यौहारों पर प्रकाश डाला।
छत्तीसगढ़ के व्यंजनों पर चर्चा में श्री रसिक बिहारी अवधिया व डॉ. निरूपमा शर्मा की मुख्य सहभागिता रही और खेल एवं बाल-गीत में श्री नंदकिशोर तिवारी, डॉ. निरुपमा शर्मा, श्रीमती शान्ति यदु, श्री बद्रीसिंह कटहरिया, श्रीमती मृणालिका ओझा, डॉ. अनसूया अग्रवाल, श्रीमती शकुन्तला तरार, श्री चंद्रशेखर चकोर, श्री रामकुमार वर्मा, डॉ. राजेन्द्र सोनी आदि सहभागी रहे। सत्र के पश्चात छत्तीसगढ़ी व्यंजन परोसा गया, साथ ही छत्तीसगढ़ के खेल और बाल-गीतों पर आधारित लोक-पारम्परिक शैली के सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति हुई।
24 मार्च, बुधवार को छत्तीसगढ़ की संत परंपरा पर केन्द्रित सत्र की अध्यक्षता श्री स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी ने की और आधार लेख डॉ. सत्यभामा आडिल ने पढ़ा। डॉ. आडिल ने कहा कि छत्तीसगढ़ की जनपदीय संस्कृति में ‘संत-भावना’, मानवता और लोक-कल्याण के उच्च सोपानों को स्पर्श करती है। छत्तीसगढ़ का भौगोलिक परिसीमन अपनी सांस्कृृतिक और धार्मिक विरासत के लिए, अलग पहचान बनाता है। एक ओर यहां ‘कबीर पंथ’ की धर्मदासी शाखा की ‘पीठ’ है, तो ‘सतनाम पंथ’ का उद्गम स्थल भी है। इसी माटी में रामभक्त ‘रामनामी पंथ’ का वृहद् समाज है। छत्तीसगढ़ की समूची संस्कृति मानों इन्हीं तीनों पंथों की सद्वाणी से जीवन्त बनी हुई है। यह संतों की धरती है। छत्तीसगढ़ में प्रवर्तित व स्थापित कबीरपंथ का योगदान छत्तीसगढ़ी साहित्य के संदर्भ में इसलिए भी अतिशय महत्वपूर्ण हो जाता है, कि इसी के माध्यम से हम छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रथम लिपिबद्ध स्वरूप प्राप्त करते हैं। उन्होंने विभिन्न पंथों- कबीर पंथ (कबिरहा), सतनाम पंथ (सतनामी), फकीरा पंथ (फकिरहा) बनजारा पंथ (बनजरहा), बैरागी पंथ, निर्गुनिया, भजनहा, रामनामी (रामनमिहा) का विवरण भी दिया।
सत्र में सहभागी वक्ताओं श्री देवीप्रसाद वर्मा, डॉ. रमेन्द्र मिश्र, श्री परदेशीराम वर्मा, श्री विमल पाठक, श्री जागेश्वर प्रसाद, डॉ. बलदेव, डॉ. केशरीलाल वर्मा, डॉ. गंगाप्रसाद डडसेना, डॉ. रामकुमार बेहार, श्री हरिहर वैष्णव ने पौराणिक ऋषियों के उल्लेख और ऐतिहासिक सन्दर्भों के साथ महाप्रभु वल्लभाचार्य, दूधाधारी महाराज बलभद्रदास, संत सेनानी यति यतनलाल, महंत लक्ष्मीनारायण दास, गहिरा गुरू, तपस्वी संत रूक्खड़नाथ, संत प्रियादास, स्वामी आत्मानंद की चर्चा की।
सत्रों में राज्य के विभिन्न जिलों से 200 से अधिक प्रतिभागी उपस्थित हुए, जिसमंे उल्लेखनीय हैं- डॉ. सुरेन्द्र दुबे, डॉ. कुंजबिहारी शर्मा, गिरीश पंकज, सुशील यदु, बसंत दीवान, सतीश जायसवाल, शरद वर्मा, डॉ. सोनउराम निर्मलकर, डॉ. इलीना सेन, रूपेश तिवारी, वीरेन्द्र बहादुर सिंह, डॉ. पीसीलाल यादव, काविश हैदरी, युक्ता राजश्री झा, डॉ. शिखा बेहेरा, संज्ञा टण्डन, उमा महरोत्रा, डॉ. देवेशदत्त मिश्र, खुमान साव, डॉ. पंचराम सोनी, डॉ. सुधीर शर्मा, नारायण सिंह चन्द्राकर, डॉ. शैल शर्मा, सुखनवर हुसैन, मुकुंद कौशल, अशोक सिंघई, विनोद मिश्र, डॉ. महादेव प्रसाद पाण्डेय, आलोक देव, मृगेन्द्र सिंह, कमलाकांत शुक्ला, महेश निर्मलकर, श्याम कश्यप, सुशील भोले, डॉ. सुरेश कुमार शर्मा, शीतल शर्मा, लाल रामकुमार सिंह, मंगत रवीन्द्र, सनत तिवारी, डॉ. नरेश वर्मा, दलेश्वर साहू, लक्ष्मण पाल, डॉ. ऋषिराज पाण्डेय, डॉ, रेनु सक्सेना, महेश वर्मा, नीलू मेघ, अंबर शुक्ल, सुरेन्द्र मिश्र, नरेन्द्र यादव, महावीर अग्रवाल, जमुना प्रसाद कसार, आत्माराम कोशा, डॉ. प्रभंजन शास्त्री आदि।
संगोष्ठी के लिए प्राप्त लेखों की सूची निम्नानुसार है -
0 डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ी भाषा में व्यंजना
0 डॉ. बिहारीलाल साहू, रायगढ़ - छत्तीसगढ़ी भाषा की लोकाभिव्यंजकत
0 डॉ. विनयकुमार पाठक, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ी भाषा की व्यंजकता
0 डॉ. चितरंजन कर, रायपुर - छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता
0 श्री चंद्रशेखर चकोर, कांदुल, रायपुर - छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खेल
0 श्री प्रताप ठाकुर, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ के खेल एवं बाल-गीत
0 श्री रामकुमार वर्मा, भिलाई - मनोरंजन और अभिव्यक्ति का प्रतीक छत्तीसगढ़ी ग्रामीण व बाल खेल
0 श्रीमती शान्ति यदु, रायपुर - छत्तीसगढ़ के खेल-बाल गीत
0 श्रीमती मृणालिका ओझा, रायपुर - सामाजिक जीवन के सांस्कृतिक झरोखे ‘बाल खेल’
0 डॉ. अनसूया अग्रवाल, महासमुन्द - छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक दर्शनः खेलगीत ‘फुगड़ी’
0 श्रीमती शकुन्तला तरार, रायपुर - लोक खेलों का संवर्धन आवश्यक
0 श्रीमती निरूपमा शर्मा, रायपुर - छत्तीसगढ़ के व्यंजन
0 डॉ. रत्नावली सिंह, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ के पकवान
0 श्री रसिक बिहारी अवधिया, रायपुर - छत्तीसगढ़ के पारंपरिक व्यंजन
0 डॉ. सत्यभामा आड़िल, रायपुर - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 डॉ. देवीप्रसाद वर्मा, रायपुर - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र, रायपुर - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 श्री परदेशीराम वर्मा, भिलाई - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 डॉ. रामकुमार बेहार, रायपुर - संत परम्परा- स्वामी बलभद्र दास के विशेष संदर्भ में
0 डॉ. विमल कुमार पाठक, भिलाई - संत परम्परा- गुरू घासीदास का योगदान
इस अवसर पर पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति - 2004’ का प्रकाशन भी किया गया।