Showing posts with label समडील. Show all posts
Showing posts with label समडील. Show all posts

Wednesday, June 4, 2025

संग्रहालय और कथा-कथन

इस वर्ष 2025 में अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर संचालनालय पुरातत्व, अभिलेखागार और संग्रहालय, रायपुर में 16 से 18 मई को संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसके लिए निर्धारित विषयों में से The Importance of Storytelling in Future Museum Experiences पर मुझे कुछ बातें कहना था, साथ ही आयोजकों द्वारा लिख्ति परचे की अपेक्षा थी। निजी कारणवश आयोजन में उपस्थित न हो सका, मगर परचा तैयार कर चुका था। इस अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका में मेरे परचे को परिचय सहित शामिल किया गया है- 

राहुल कुमार सिंह 
# जन्म- 1958, अकलतरा, छत्तीसगढ़ निवासी। पुरातत्व की उच्च शिक्षा प्राप्त, स्वर्ण पदक सहित। राज्य सरकार में 36 वर्षों तक सेवा। फेलो, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज। 500 से अधिक स्थलों का पुरातत्वीय-सांस्कृतिक सर्वेक्षण किया, जिनमें ताला, डीपाडीह, गढ़धनोरा, भोंगापाल, डमरू आदि उत्खनन तथा लालबाग, इंदौर, गूजरी महल, ग्वालियर, ओरछा अनुरक्षण-विकास परियोजनाओं में महती भूमिका।
# मौलिक कृतियाँ: ‘एक थे फूफा‘ उपन्यासिका, ‘सिंहावलोकन‘ तथा ‘छत्तीसगढ़ का लोक-पुराण (समग्र शिक्षा के लिए चयनित) निबंध संग्रह, ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘, ‘ताला का पुरा-वैभव‘ (सहलेखन)। हंस, इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी आदि प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानी, निबंध प्रकाशित। 
# राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत बच्चों के लिए द्विभाषी संस्करण की सात पुस्तकों का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद। नाटक ‘जसमा ओड़न‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद (अप्रकाशित)। प्रामाणिक अभिलेखीय ग्रंथ ‘उत्कीर्ण लेख‘ का परिवर्धन। शोध-पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक सदस्य। 
# पुरस्कार/सम्मान: बिलासा सम्मान 2008, श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक 2011, पुरी पीठाधीश्वर द्वारा 2013 में ‘धरती-पुत्र‘ सम्मान तथा 2019 में इंडिया टुडे संस्कृति सम्मान। 
# संप्रति: प्रमुख, धरोहर परियोजना, बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर। शैक्षणिक, प्रशासनिक संस्थानों में प्रशिक्षण-विशेषज्ञ। संस्कृति विषयक स्वाध्याय और वेब-अभिलेखन। 

भविष्य के संग्रहालय अनुभव में कथा-कथन 

इस कहानी में पहले 2011 के अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस की याद, जिसका विषय था ‘संग्रहालय और स्मृति: चीजें कहें तुम्हारी कहानी। आज उस दिवस का भविष्य है, जब यह कहानी कही जा रही है, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को समृद्ध और रोचक बनाने में सहायक हो सकेगी। यों हमारी परंपरा रही है, वैदिक संवाद-प्रसंग कथा का रूप ले लेते हैं, उपनिषद और महाकाव्य होते पौराणिक कथाओं का विशाल भंडार है, वहीं बृहत्कथा, कथासरित्सागर और जातक कथाओं के साथ पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियां हैं। दरअसल अधिकतर किस्से, ऐतिहासिक तथ्यों में सिमटने से बची रह गई घटना-स्थितियों को रोचक बनाकर याद रखने में मददगार होते हैं, ज्यों तुक छंदोबद्ध कविता और गीत। 

यहां कहानी, संग्रहालयों की और इस महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर की। सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के एक नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। 

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार का कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है। 

सन 1936 के प्रतिवेदन, (द म्यूजियम्स आफ इंडिया- एसएफ मरखम एंड एच हारग्रीव्स) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से कम?) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है। 

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता। 

सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है। 

संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है। 

रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंदकृष्ण रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए। 

इस संस्था से जुड़कर विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने 1955-57 के दौर में सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। इस संग्रहालय से जुड़े कई अल्प वेतन भोगी सदस्यों की निष्ठा और योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता, जिनमें से कुछ नाम- जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश आदि हैं। 

एक कहानी महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय के अनूठे काष्ठस्तंभ लेख की। वर्तमान सक्ती जिले में महानदी और मांद के संगम पर स्थित चन्दरपुर के निकट ग्राम किरारी की इस कहानी में कोई दो हजार साल पुरानी यादें हैं, जिस काल की लिपि इस काष्ठस्तंभ पर उत्कीर्ण है। वह पन्ना फिर खुला सन 1921 में, जब गांव के हीराबंध तालाब सूखने पर, खाद के लिए तालाब की मिट्टी निकालते हुए यह काष्ठस्तंभ मिला। धूप और नमी पाकर लकड़ी चिटकने से खुदे हुए अक्षर टूटने लगे, मगर गनीमत कि इस लिपि से अनजान होने के बावजूद स्थानीय पं. लक्ष्मीप्रसाद उपाध्याय ने इसकी यथादृष्टि नकल उतार ली। नकल उतारने वाले का लिपि से अनजान होना ही उस नकल की विश्वसनीयता का आधार बना और लकड़ी के दरकने से बिगड़ गए अक्षरों के बावजूद भी पं. लक्ष्मीप्रसाद द्वारा बनाई लगभग 349 अक्षरों की नकल के आधार पर इस अभिलेख का पाठ डा. हीरानंद शास्त्री ने तैयार किया (Epigraphia Indica Vol. XVIII, 1925-26, Page- 152-157), जो साहित्य-प्रेमियों में पुत्र सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ के पिता के रुप में जाने जाते हैं। इस लकड़ी को तब जानकारों ने बीजासाल बताया। कहानी आगे बढ़ी।

1947 में पुरातत्व के महानिदेशक डा. एन.पी. चक्रवर्ती ने इस लकड़ी के परीक्षण के लिए वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून भेजा। वहां इसका परीक्षण एस.एस. घोष ने किया और अपने अध्ययन का परिणाम Ancient India No. 6, January 1950, Page- 17-20 में प्रकाशित किया, जिसमें पाया गया कि यह लकड़ी बीजासाल नहीं बल्कि महुआ ‘मधुका लैटीफोलिआ‘ है। वनस्पति विज्ञान के साथ पुराने शास्त्रीय ग्रंथों के संदर्भों की दृष्टि से इस स्तंभ को समझने का प्रयास करते हुए, घोष का यह शोध-लेख भी विशिष्ट महत्व का है। उन्होंने इस स्तंभ के यज्ञ-यूप, वाजपेय-अनुष्ठान, तालाब-स्तंभ, जय-स्तंभ और ध्वज-स्तंभ होने की संभावना की ओर ध्यान दिलाया है। यह अध्ययन इस स्तंभ पर खुदे अक्षरों और तालाब से प्राप्ति के आधार पर प्रयोजन निर्धारण की दृष्टि से पुराविदों के लिए महत्वपूर्ण था ही, अध्ययनकर्ता घोष ने टिप्पणी की कि यह काष्ठ-तकनीशियनों के लिए भी रोचक है, क्योंकि लकड़ी, महुआ मिट्टी-पानी को सहन कर सकने वाला, मजबूत स्तंभ और अक्षर उकेरने के लिए भी उपयुक्त होता है।

इस अनूठे पुरावशेष की जानकारी पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने सर जान मार्शल को भेजी। फलस्वरूप इसे तब मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर के शासकीय संग्रहालय ले जाया गया, जिसका सुरक्षित रह गया अंश अब इस संग्रहालय की अभिलेख दीर्घा में प्रदर्शित है। 

कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, लेकिन हकीकत का बयान इन कहानियों के बिना कैसे संभव हो!

एक और हकीकत का अफसाना- कोई 30 साल पहले किसी दिन बिलासपुर, गोंड़पारा यानि राजेंद्रनगर वाले अपने दफ्तर में मेज पर के कागज-पुरजों की छंटाई करते हुए एक परची मिली, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, जिज्ञासा हुई कि अजनबी सी यह किसकी लिखावट है। पूछने पर बताया गया कि कुछ दिन पहले एक किशोर आया था, उसने यह छोड़ा था, बताना भूल गए थे। मेरी पूछताछ का कारण था कि पुरजे पर की लिखावट, पुरानी नागरी लिपि की नकल है, साफ तौर पर पहचानी जा सकती थी। तुरंत हरकत जरूरी हो गया। कार्यालय के सहयोगियों ने याद कर बताया कि रमेश जायसवाल नाम था, सिंधी कालोनी में कहीं रहता था। उसकी खोज में निकले, ज्यादा मशक्कत नहीं हुई, रमेश मिल गए। बताया कि मामा के यहां समडील गए थे, तांबे के स्लेट पर लिखावट की जानकारी मिली, देखने गए और कुछ हिस्से की नकल बना ली थी, वही पुरजा छोड़ कर आए थे। 

अगले ही दिन सुबह रमेश को साथ ले कर समडील जा कर गांव के देव-स्थलों, खेत-खार देखते लखन पटेल के घर पहुंचे। लखन ने ताम्रपत्र सहजता से दिखा दिया, फोटो और नाप-जोख भी करने दिया। बातें होने लगी। इस पर उसने बताया कि उसके कोई आल-औलाद नहीं थी। कुछ बरस पहले खेत जोतते यह मिला, उसे वह घर ले आया, पूजा-पाठ की जगह पर रख दिया। इसके बाद संतान प्राप्ति हुई, तब से इस ताम्रपत्र की पूजा-प्रतिष्ठा और बढ़ गई। ताम्रपत्र को संग्रहालय के लिए प्राप्त करना था, लेकिन लगा कि मामला संवेदनशील है, नियम-कानून के लिए बेसब्री करना ठीक नहीं होगा और करना भी हो तो, अभी वह अवसर नहीं है। 

वापस बिलासपुर लौटकर इस ताम्रपत्र के मजमून पर मशक्कत शुरू हुई। कार्यालय के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री पैकरा साथ नहीं जा पाए थे, अफसोस करने लगे और जा कर स्थल और ताम्रपत्र देखने की इच्छा व्यक्त की। लोक-व्यवहार वाले कामों में श्री पैकरा की कार्य-कुशलता को मैंने अधिकतर अपने से बेहतर पाया है। मैंने उन्हें काम सौपा कि वहां जाएं तो स्वयं भी ग्राम और स्थल निरीक्षण का एक नोट बनाएं (उद्देश्य था कि पहले गांव और लोगों से मिलते-जुलते स्वयं वहां से आत्मीयता महसूस करें) और लौटने के पहले ताम्रपत्र देखने लखनलाल से मिलने जाएं। साथ ही यों मुश्किल है, लेकिन प्रयास करें (ऐसी चुनौती से उनका उत्साहवर्धन होता है) कि बिना किसी दबाव के ताम्रपत्र संग्रहालय के लिए प्राप्त हो जाए। 

पैकरा जी तालाब, डीह, खेत-खार करते गांव में घूम-फिर कर लखनलाल के पास पहुंचे। लखनलाल ने ताम्रपत्र दिखाया और उसके साथ का किस्सा पूरे विस्तार से सुनाया। ताम्रपत्र मिले हैं तब से जमीन खरीद ली, लंबे समय बाद संतान हुआ। कुछ गांव वाले भी आ गए। उन्हें लगा कि इस ‘बीजक‘ में जरूर किसी खजाने का पता है, जिसके चक्कर में आया कोई फरेबी है। उत्तेजित गांव वालों को श्री पैकरा ने समझाइश और थोड़ी अमलदारी का रुतबा बताया। बातचीत होने लगी। पैकरा जी ने अपना पूरा नाम बताया अमृतलाल, संयोग कि लखनलाल के पिता का नाम भी अमृतलाल ही था। लखनलाल को फैसला करते देर न लगी। पुरखों का आशीर्वाद, वंश चलाने अब बाल-बच्चे, लोग-लइका तो आ ही गए हैं और पिता-पुरखा के सहिनांव पिता-तुल्य अमृतलाल इस ताम-सिलेट को लेने आ गए हैं। सहर्ष ताम्रपत्र पैकरा जी को सौंप दिया। 

ताम्रपत्र, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। रमेश जायसवाल, बिलासपुर निगम के पार्षद बने, जन-सेवा में लगे हैं। श्री पैकरा अब मुख्यालय रायपुर में उपसंचालक पद का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। समडील के तत्कालीन सरपंच विष्णु जायसवाल जी के पुत्र हेमंत जी से पता लगा, लखनलाल जी घर-परिवार सहित राजी-खुशी हैं। जैसे उनके दिन फिरे, सबके फिरें। 

तो किस्सा कोताह यह कि संग्रहालय में वस्तु-प्रादर्शों के साथ ऐसी कहानियां भी संजोई जाती रहें, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को और भी जीवंत रखे।

Wednesday, November 24, 2021

समडील ताम्रपत्र

इस ताम्रपत्र की जानकारी समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, शोध-जर्नल तथा ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक के परिवर्धित संस्करण, 2005 में प्रकाशित है।

जाजल्लदेव द्वितीय का समडील से प्राप्त ताम्रपत्र लेख कलचुरि संवत्: 913
- राहुल कुमार सिंह, बिलासपुर
तब कागज-पेन का अभ्यास था, अपने लिखे का,
टाइप से अधिक साफ और त्रुटिरहित का भरोसा होता था।

दो ताम्रपत्रों का यह सेट सन 1992 के जुलाई माह में जिला मुख्यालय बिलासपुर से 25 किलोमीटर दूर समडील नामक ग्राम (गनियारी के निकट) में स्थानीय कृषक श्री लखनलाल पटेल आत्मज श्री अमृतलाल पटेल को कृषि कार्य के दौरान प्राप्त हुआ था1 जिसे जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, बिलासपुर के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री ए.एल. पैकरा ने 27 दिसम्बर 1994 को स्थल से संकलित किया2। ये ताम्रपत्र वर्तमान में जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, बिलासपुर के संग्रह में सुरक्षित हैं, जिनका सम्पादन मूल ताम्रपत्रों के आधार पर प्रथमतः यहाँ किया जा रहा है3

उक्त दोनों ताम्रपत्रों का समानान्तर अधिकतम आकार 30.5X20.5 सेंटीमीटर तथा वजन कुल 3 किलोग्राम है। दोनों पत्रों को आपस में सम्बद्ध करने के लिए प्रथम पत्र के निचले एवं द्वितीय पत्र के ऊपरी हिस्से में छेद है, किन्तु ताम्रपत्रों के साथ राजमुद्रा-छल्ला प्राप्त नहीं हुआ है। दोनों पत्रों के अन्तःपृष्ठ उत्कीर्ण तथा वाह्य पृष्ठ सपाट हैं। प्रत्येक पत्र का किनारा, अक्षरों को घिसने से बचाने के लिए उठा हुआ है। ताम्रपत्र लेख संतोषजनक संरक्षित स्थिति में है। 

ताम्रपत्रलेख के प्रथम पत्र पर 18 पंक्तियाँ तथा द्वितीय पत्र पर 17 पंक्तियाँ, इस प्रकार कुल 35 पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। लेख की लिपि नागरी तथा भाषा संस्कृत है। तत्कालीन अन्य कलचुरि लेखो4 की भांति इस लेख में भी ‘श‘ के स्थान पर ‘स‘ तथा ‘ब‘ के स्थान पर ‘व‘ जैसी भूलें हुई हैं। आरंभ व अंतिम भाग के अतिरिक्त पूरा लेख 22 श्लोकों में छन्दोबद्ध है। 

लेख के आरंभ में5 ब्रह्म का नमन है। प्रारंभिक 12 श्लोकों में, तत्कालीन अन्य कलचुरि लेखों की भाँति शिव स्तुति तथा रत्नपुर शाखा के कलचुरियों की वंशावली है। इसके पश्चात के 3 श्लोकों में लेख का उद्देश्य निहित है, जिसके अनुसार अत्रि कुल में उत्पन्न जास्त के पौत्र तथा राणि के पुत्र राजसिंह को सूर्यग्रहण के अवसर पर एवडी मंडल में स्थित खूडाघट नामक ग्राम, जाजल्लदेव (द्वितीय) द्वारा दान दिया गया। बाइसवें अंतिम श्लोक में लेख के रचयिता वास्तव्य वंश में उत्पन्न वत्सराज के पुत्र नयतत्त्ववेत्ता धर्मसिंह का नामोल्लेख है। अंत में तिथि, कलचुरि संवत् 913 के माघ मास का सूर्यग्रहण तथा लेख उत्कीर्ण करने वाले का नाम चंद्रक आया है।

पूर्व लेखों में6 रचयिता का नाम धर्मराज तथा जंडेर ग्राम का उल्लेख मिलता है। इस लेख में जंडेर ग्राम का उल्लेख नहीं है तथा लेख रचयिता का नाम धर्मसिंह आया है, उसे पूर्व लेखों के रचयिता से अभिन्न मानना चाहिए। इसी प्रकार इस लेख को उत्कीर्ण करने वाले का नाम चंद्रक को पूर्व लेखों7 के चंद्रक से अभिन्न माना जा सकता है। लेख में आये स्थान नामों में एवडी मंडल पूर्व ज्ञात है8 यह क्षेत्र बिलासपुर-मुंगेली तहसील का पूर्वाेत्तर हिस्सा होना चाहिए9। दान में दिए गए ग्राम खूडाघट नाम का समीकरण रतनपुर के पास स्थित बांध स्थल खुंटाघाट या ग्राम खुटाडीह से किया जा सकता है10

लेख का काल, कलचुरि संवत 913 (ईस्वी सन् 1161-62) विशेष महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके पूर्व अमोरा ताम्रपत्र11 से जाजल्लदेव द्वितीय की तिथि कलचुरि संवत 912 मानी गई थी, किन्तु बाद में ब्रह्मदेव के रत्नपुर शिलालेख12, कलचुरि संवत् 915 को जाजल्लदेव द्वितीय के पिता पृथ्वीदेव द्वितीय के राजत्वकाल का माना गया और मुख्यतः इसी आधार पर अमोदा ताम्रपत्र की तिथि कलचुरि संवत 919 मान ली गई13। पूर्व प्राप्त अभिलेखों से14 पृथ्वीदेव द्वितीय के राज्यकाल की अंतिम सुनिश्चित तिथि कलचुरि संवत 910 है। ब्रह्मदेव के रत्नपुर शिलालेख, कलचुरि संवत 915 का कुछ हिस्सा पूरी तरह घिसा हुआ है और इसके संपादन के अवसर पर भी मूल शिला के धैर्यपूर्वक परीक्षण से ही पूरे लेख का सामान्य अनुमान कर पाना संभव हो सका था15। इस लेख में पृथ्वीदेव (द्वितीय) का नामोल्लेख अवश्य है, इसीलिए अन्य प्रमाणों के अभाव में इसे, उसके काल का मान लिया गया होगा, किन्तु लेख के घिसे हिस्से में जाजल्लदेव द्वितीय के राजत्व काल होने का उल्लेख अवश्य रहा होगा।

इस प्रकार इस ताम्रपत्र लेख की प्राप्ति से कलचुरियों की रत्नपुर शाखा के इतिहास में जाजल्लदेव द्वितीय के राजत्वकाल की तिथि सुनिश्चित होती है, जिसके आधार पर अन्य उपरोल्लिखित अभिलेखों की तिथि व शासक-राजत्वकाल का निर्धारण सुगमतापूर्वक संशोधित हो जाता है।

टिप्पणियाँ
1. ग्राम के पूर्वी हिस्से में शिवसागर तालाब के किनारे आधुनिक मंदिर में कलचुरि कालीन शिवलिंग स्थापित व पूजित है तथा ग्राम से अन्य स्फुट पुरावशेष व ई. 3-4 सदी के ताँबे के चौकोर गज-देवी प्रकार के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं, जो स्थल की प्राचीनता प्रमाणित करने में पर्याप्त हैं। 
2. संकलन में स्थानीय सरपंच श्री विष्णु जायसवाल एवं बिलासपुर के श्री रमेश प्रसाद जायसवाल का सहयोग प्राप्त हुआ था।
3. ताम्रपत्र संबंधी आरंभिक जानकारी स्थानीय समाचार पत्रों में तथा ‘कलचुरि राजवंश और उनका युग‘- 1998 में लक्ष्मीशंकर निगम के लेख ‘दक्षिण कोसल के कलचुरि‘ पृ.- 126 पर दी गई है।
4. कार्पस इन्सक्रिप्शनम इण्डिकेरम - 1955, खंड-IV , भाग-II के लेख।
5. यथोक्त - अन्य लेखों की भांति सिद्धि चिह्न नहीं है।
6. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 99 तथा प्राच्य प्रतिभा V (I) जनवरी ‘77 पृ. 105-111।
7. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 92 तथा 94।
8. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 89।
9. एवडी मंडल के ग्राम पंडरतलाई की पहचान, वर्तमान के मुंगेली अनुविभाग के ग्राम पांडातराई से होती है।
10. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 95 में पर्वत (तल) को बांधकर सरोवर निर्मित कराये जाने का उल्लेख है।
11. एपिग्राफिया इंडिका, भाग-XIX, पृष्ठ 209-214।
12. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 96।
13. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 99।
14. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 95।
15. का.इ.इ. IV (II) लेख क्र.- 96।
राइस पेपर पर बॉल पेन से
पांच प्रतियां बन जाती थीं, इस तरह।

• कलचुरियों की राजधानी रतनपुर के पास, खारंग नदी पर बांधा गया खारंग जलाशय, ‘खूंटाघाट बांध‘ नाम से जाना जाता है। बांध के बाद खारंग नदी, अपना नाम-पहचान खोई सी बिलासपुर की ओर बढ़ती है और लाल खदान के आगे अरपा नदी में मिल जाती है। दो धाराओं के इस संगम स्थल के गांव का नाम ही दुमुंहानी है। कहा जाता है इस जलाशय में कुछ गांव, डूब में आए और झाड़-झरोखे भी। पानी में डूबे पेड़ ठूंठ बन गए, खूंटों की तरह और नाम पड़ा खूंटाघाट। इससे लगता है कि यह नाम 'खूंटाघाट', बांध बनने के समय का, सिर्फ सौ साल पुराना है। जबकि इस ताम्रपत्र और अन्य अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि रतनपुर में सात-आठ सौ साल पहले कोई बांध था, खूडाघट नामक गांव भी था और उसी की स्मृति-छाया, वर्तमान खूंटाघाट बांध और खूटाडीह ग्राम है। शासकीय अभिलेखों के अनुसार इस खारंग जलाशय (संजय गांधी) बहुउद्देशीय वृहद परियोजना का प्रारंभ 1920-21 और पूर्णता 1930-31 है। डुबान क्षेत्र के कुल 28 ग्रामों में 7 पूर्ण, 21 आंशिक प्रभावित हुए।

हकीकत का अफसाना- कोई 30 साल पहले किसी दिन बिलासपुर, गोंड़पारा यानि राजेंद्रनगर वाले अपने दफ्तर में मेज पर के कागज-पुरजों की छंटाई करते हुए एक परची मिली, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, जिज्ञासा हुई कि अजनबी सी यह किसकी लिखावट है। पूछने पर बताया गया कि कुछ दिन पहले एक किशोर आया था, उसने यह छोड़ा था, बताना भूल गए थे। मेरी पूछताछ का कारण था कि पुरजे पर की लिखावट, पुरानी नागरी लिपि की नकल है, साफ तौर पर पहचानी जा सकती थी। तुरंत हरकत जरूरी हो गया। कार्यालय के सहयोगियों ने याद कर बताया कि रमेश जायसवाल नाम था, सिंधी कालोनी में कहीं रहता था। उसकी खोज में निकले, ज्यादा मशक्कत नहीं हुई, रमेश मिल गए। बताया कि मामा के यहां समडील गए थे, तांबे के स्लेट पर लिखावट की जानकारी मिली, देखने गए और कुछ हिस्से की नकल बना ली थी, वही पुरजा छोड़ कर आए थे।

अगले ही दिन सुबह रमेश को साथ ले कर समडील जा कर गांव के देव-स्थलों, खेत-खार देखते लखन पटेल के घर पहुंचे। लखन ने ताम्रपत्र सहजता से दिखा दिया, फोटो और नाप-जोख भी करने दिया। बातें होने लगी। इस पर उसने बताया कि उसके कोई आल-औलाद नहीं थी। कुछ बरस पहले खेत जोतते यह मिला, उसे वह घर ले आया, पूजा-पाठ की जगह पर रख दिया। इसके बाद संतान प्राप्ति हुई, तब से इस ताम्रपत्र की पूजा-प्रतिष्ठा और बढ़ गई। ताम्रपत्र को संग्रहालय के लिए प्राप्त करना था, लेकिन लगा कि मामला संवेदनशील है, नियम-कानून के लिए बेसब्री करना ठीक नहीं होगा और करना भी हो तो, अभी वह अवसर नहीं है।

वापस बिलासपुर लौटकर इस ताम्रपत्र के मजमून पर मशक्कत शुरू हुई। कार्यालय के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री पैकरा साथ नहीं जा पाए थे, अफसोस करने लगे और जा कर स्थल और ताम्रपत्र देखने की इच्छा व्यक्त की। लोक-व्यवहार वाले कामों में श्री पैकरा की कार्य-कुशलता को मैंने अधिकतर अपने से बेहतर पाया है। मैंने उन्हें काम सौपा कि वहां जाएं तो स्वयं भी ग्राम और स्थल निरीक्षण का एक नोट बनाएं (उद्देश्य था कि पहले गांव और लोगों से मिलते-जुलते स्वयं वहां से आत्मीयता महसूस करें) और लौटने के पहले ताम्रपत्र देखने लखनलाल से मिलने जाएं। साथ ही यों मुश्किल है, लेकिन प्रयास करें (ऐसी चुनौती से उनका उत्साहवर्धन होता है) कि बिना किसी दबाव के ताम्रपत्र संग्रहालय के लिए प्राप्त हो जाए।

पैकरा जी तालाब, डीह, खेत-खार करते गांव में घूम-फिर कर लखनलाल के पास पहुंचे। लखनलाल ने ताम्रपत्र दिखाया और उसके साथ का किस्सा पूरे विस्तार से सुनाया। ताम्रपत्र मिले हैं तब से जमीन खरीद ली, लंबे समय बाद संतान हुआ। कुछ गांव वाले भी आ गए। उन्हें लगा कि इस ‘बीजक‘ में जरूर किसी खजाने का पता है, जिसके चक्कर में आया कोई फरेबी है। उत्तेजित गांव वालों को श्री पैकरा ने समझाइश और थोड़ी अमलदारी का रुतबा बताया। बातचीत होने लगी। पैकरा जी ने अपना पूरा नाम बताया अमृतलाल, संयोग कि लखनलाल के पिता का नाम भी अमृतलाल ही था। लखनलाल को फैसला करते देर न लगी। पुरखों का आशीर्वाद, वंश चलाने अब बाल-बच्चे, लोग-लइका तो आ ही गए हैं और पिता-पुरखा के सहिनांव पिता-तुल्य अमृतलाल इस ताम-सिलेट को लेने आ गए हैं। सहर्ष ताम्रपत्र पैकरा जी को सौंप दिया।

ताम्रपत्र, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। रमेश जायसवाल, बिलासपुर निगम के पार्षद बने, जन-सेवा में लगे हैं। श्री पैकरा अब मुख्यालय रायपुर में उपसंचालक पद का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। समडील के तत्कालीन सरपंच विष्णु जायसवाल जी के पुत्र हेमंत जी से पता लगा, लखनलाल जी घर-परिवार सहित राजी-खुशी हैं। मैंने ताम्रपत्र पर तब शोध-पत्र लिखा और अब आपके लिए ‘पेशे-खिदमत‘ यह किस्सा कह रहा हूं।