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Tuesday, July 31, 2012

ब्‍लागजीन

ये कैसे अपने कि अब तक रू-ब-रू भी न हुए, लेकिन अब तो बहुतेरे अपने जाने-पहचाने नाम, लिखे-उचारे शब्‍दों और चित्र के परोक्ष-यथार्थ से ही 'मूर्तमान' होते हैं। ''ब्‍लागर्स पार्क'' के अंक, ऐसे ही एक परिचित, इस पत्रिका से जुड़े, अश्‍फ़ाक अहमद जी के माध्‍यम से देखने को मिले। भोपाल-नोएडा से प्रकाशित पत्रिका का पहला अंक अगस्‍त 2009 में आया था, जिसमें मुख्‍य संपादक की टीप है कि इस पत्रिका को मैगज़ीन के बजाय ब्‍लागज़ीन कहना संगत होगा।
ब्‍लागर्स पार्क के प्रवेशांक का संपादकीय - ताजे अंक का मुखपृष्‍ठ
इस नये शब्‍द 'ब्‍लाग-जीन' का 'ब्‍लाग' भी तो नया शब्‍द ही है। सन 1997 के अंत तक वेब-लॉग web-log बन गया we-blog फिर we छूटा तो बच रहा blog-'ब्‍लॉग' या 'ब्‍लाग'। 'मैगज़ीन' शब्‍द मूलतः संग्रह या भंडार अर्थ देता है सो किताबों को ज्ञान का भंडार मान कर मैगज़ीन कहा जाने लगा, लेकिन वर्तमान मैगज़ीन, उन्‍नीसवीं सदी से सीमित हो कर मात्र पत्रिकाओं के लिए रूढ़ है। इस तरह ब्‍लाग-blog और मैगज़ीन-magzine के मेल से बना, ब्‍लागज़ीन-blogazine। अब ब्‍लागर्स पार्क पत्रिका के मुखपृष्‍ठ पर सबसे ऊपर World's First Blogazine अंकित होता है। सोचना है, ब्‍लागजीन शब्‍द पहले अस्तित्‍व में आया होगा या यह पत्रिका, मुर्गी-अंडा में पहले कौन, जैसा सवाल है।

कुछ और छान-बीन करते ब्‍लाग-जीन के पहले अंश blog शब्‍दार्थ के लिए यहां 56 प्रविष्टियां मिलीं, इसमें से पहली पर गौर फरमाएं- ''Short for weblog. A meandering, blatantly uninteresting online diary that gives the author the illusion that people are interested in their stupid, pathetic life. Consists of such riveting entries as "homework sucks" and "I slept until noon today." और यहीं blog से मिल कर बनने वाले कोई 431 शब्‍द मिले यानि इस पर चर्चा की जाए तो पूरा लेख क्‍या, शास्‍त्र तैयार हो सकता है। इनमें एक Bloggerhood भी है, लगा कि ब्‍लाग संबंधी अन्‍य शब्‍दों सहित 'ब्‍लागबंधु' या 'ब्‍लागबंधुत्‍व' जैसा मिठास भरा शब्‍द हिन्‍दी ब्‍लागिंग में कितना कम प्रचलित है।

ब्‍लागर्स पार्क पत्रिका के ताजे जुलाई 2012 के अंक-28 में कुछ लेखकों के परिचय के साथ 'ब्‍लागर' उल्‍लेख भी है और एक लेखक कुणाल मेहता के परिचय में उनके शहर का नाम और 'ब्‍लागर' मात्र है। नाम के साथ अपनी ब्‍लागर पहचान अपनाए हिन्‍दी ब्‍लागिंग में गिनती के, एक हैं 'ब्‍लॉ.' उपाधिधारी ललित शर्मा और दूसरी बिना लाग लपेट के ब्‍लॉग वाली, ''ब्‍लागर रचना''। ब्‍लागर्स पार्क में www.scratchmysoul.com पर किए गए पोस्‍ट में से चयनित सामग्री विषयवार, सुरुचिपूर्ण, स्‍तरीय और सुंदर चित्रों सहित शामिल की जाती है। अश्‍फ़ाक जी से चर्चा में मैंने छत्‍तीसगढ़ से प्रकाशित दैनिक ''भास्‍कर भूमि'' समाचार पत्र और साप्‍ताहिक पत्रिका ''इतवारी अखबार'' का उल्‍लेख किया, जिनमें नियमित रूप से ब्‍लाग की रचनाएं छापी जाती हैं। छत्‍तीसगढ़ की तीन उत्‍कृष्‍ट वेब पत्रिकाएं ''उदंती डाट काम'', ''रविवार'', ''सृजनगाथा डाट काम'' सहित छत्‍तीसगढ़ के ब्‍लाग एग्रिगेटर ''छत्‍तीसगढ़ ब्‍लागर्स चौपाल'', ''ब्‍लॉगोदय'' और गंभीर हिन्‍दी ब्‍लागरों पर भी बातें हुईं, इन चर्चाओं का सुखद निष्‍कर्ष रहा, उन्‍होंने बताया है कि ब्‍लागर्स पार्क, छत्‍तीसगढ़ की ब्‍लाग गतिविधियों पर खास सामग्री जुटाने, प्रकाशित करने की तैयारी में है।

प्रसंगवश-

अंगरेजी में भी संस्‍कृत की तरह शब्‍दों के लिए, वस्‍तु-व्‍यक्तियों के नामकरण, शब्‍द बनाने-गढ़ने-बरतने का शास्‍त्रीय और कोशीय चरित्र है लेकिन इस दृष्टि से हिन्‍दी कृपण भाषा साबित होती है। मुझे लगता है हम हिन्‍दीभाषी शब्‍द गढ़ने में देर करते हैं, बन गए शब्‍द को जल्‍दी अपनाते नहीं, कई बार अपने-पराये का ज्‍यादा ही मीन-मेख करने लगते हैं या शब्‍द वापरने के बजाय अविष्‍कारक होने के महत्‍वाकांक्षी बन जाते हैं, और शायद इसीलिए शब्‍द को अपना भी लिया तो मानक का सवाल उलझ जाता है।

दैनंदिन लेखा या नियमित अद्यतन किया जाने वाला लेखा 'ब्‍लाग', इस शब्‍दशः अर्थ में मेरी जानकारी में एकमात्र ब्‍लाग ''BACHCHAN BOL'' की जुलाई 30, 2012 की पोस्‍ट ''DAY 1564'' शीर्षक हमेशा की तरह तिथि संख्‍यावार है।

Wednesday, March 28, 2012

भूल-गलती

स्वदेश-परिचय माला में प्रकाशित ग्यारह पुस्तकों में एक, ''भारत की नदियों की कहानी'', आइएसबीएन : 978-81-7028-410-9 है। हिन्दी के प्रतिष्ठित राजपाल एण्ड सन्ज़ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तकमाला के लेखक हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास और कला के मर्मज्ञ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय। यह भी बताया गया है कि- ''प्रत्येक पृष्ठ पर दो रंग में कलापूर्ण चित्र, सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्य।'' पुस्तक देखते-पढ़ते यह अजीब लगा कि पुस्‍तक में कुछ रेखांकन जरूर हैं, लेकिन चित्र प्रत्येक पृष्ठ पर नहीं।
सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्यों वाली बात के परीक्षण के लिए पुस्तक के अंश उद्धृत हैं-

''नर्मदा
मैं अमरकण्टक की पहाड़ी गाँठ से निकलती हूँ और भारत के इस सुन्दर प्रदेश को ठीक बीच से बाँट देती हूँ। मेरे एक ओर विन्ध्याचल है, दूसरी ओर सतपुड़ा और दोनों के बीच चट्‌टानें तोड़ती तेज़ी से मैं पश्चिमी सागर तक दौड़ती चली जाती हूँ। अनेक बार मैं पहाड़ की चोटी से गिरती भयानक प्रपात बनाती हूँ, अनेक बार पहाड़ी भूमि की गहराइयों में खो जाती हूँ, अनेक बार जामुन के पेड़ों के बीच फैली हुई बहती हूँ। मेरा इतिहास पुराना है, मेरी घाटी में सभ्यताओं ने समाधि ली है।''

पुस्‍तक के उपरोक्‍त अंश में पहाड़ी गाँठ शब्द का प्रयोग सुगम-सहज नहीं लगा। सुन्दर प्रदेश को बांटने वाली बात जमती नहीं, ऐसा लगता है कि इस प्रदेश को बांटने के लिए नदी प्रवाहित हुई है। भयानक शब्द का प्रयोग भी खटकता है (याद करें, वेगड़ जी की नर्मदा पर लिखी पुस्तकें- सौंदर्य की नदी नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा, और अमृतस्‍य नर्मदा) और ''सभ्यताओं ने समाधि'' जैसा प्रयोग भी अखरता है।

एक और अंश देखें-

''सोन
मैं भी ब्रह्मपुत्र की तरह नद की संज्ञा से ही विभूषित हूँ।... बरसाती दिनों में बड़ा भयंकर स्वरूप होता है मेरा। ... मेरी बालुका-राशि अति शक्तिशालिनी होती है, इसीलिए भवन-निर्माण आदि में सोन की रेत सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। ... प्रसिद्ध तीर्थस्थल अमरकंटक मेरा उद्‌गम है। ... एक छोटे-से चहबच्चे से 'पेंसिल' के आकार में निकलती हूँ मैं।
... मुझे गर्व है कि अमरकंटक के सदृश पुनीत पर्वत से मेरा प्राकट्‌य हुआ। ... ज्ञात ही है कि नर्मदा का उद्‌गम-स्थल भी यही है, अतः नर्मदा मेरी बड़ी बहन है। ... नर्मदा और अमरकंटक का वर्णन विस्तार से इसलिए करना पड़ा क्योंकि जहाँ से मेरी प्यारी सखी निकलती है, वहीं से थोड़ी दूर उत्तर में मेरी एक सहायिका नदी भी निकलती है, जिसे ज्योतिरथ्या का नाम प्राप्त है। ... ज्योतिरथ्या को अपभ्रंश में जोहिला भी कहते हैं। ... ज्योतिरथ्या या जोहिला के जल को ग्रहण करने के पश्चात्‌ ही मैं नदी से नद बनती हूँ। ... एक दूसरी महत्वपूर्ण नदी जो मेरे उदर के आकार को बढ़ाती है, वह है महानदी।''

यहां नद कहते हुए संज्ञा के बजाय लिंग (स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग) की बात उचित होती, वैसे आत्मकथन शैली में लिखे होने पर भी कहीं मेरी रेत के बजाय 'सोन की रेत' लिखा गया है साथ ही सोन और ब्रह्मपुत्र दोनों के लिए लिंग का ध्यान नहीं रखा गया है। भयंकर (विशाल, विकराल का प्रयोग उपयुक्त होता) शब्द के प्रति लेखक की आसक्ति यहां भी बनी हुई है। ... भवन-निर्माण के लिए क्या शक्तिशालिनी बालू होती है? ... पेंसिल के आकार से आशय स्पष्ट नहीं होता। नद-नदी के आकार के लिए प्रचलित 'काया' के बजाय उदर शब्द का प्रयोग अजीब लगता है। महानदी के जिक्र में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह छत्तीसगढ़ वाली प्रसिद्ध महानदी (हीराकुंड बांध वाली) नहीं, बल्कि इससे इतर छोटी महानदी है। गोपद नदी को ही शायद यहां गोमत कह दिया गया है इसी तरह ओंकारेश्‍वर को बार-बार ओंकालेश्‍वर कहा गया है।

सोन के लिए एक बार अमरकंटक 'मेरा उद्गम' और दूसरी बार अमरकंटक से 'मेरा प्राकट्‌य' बताया गया है, इससे लगता है कि लेखक के मन में सोन के उद्‌गम को लेकर संदेह रहा है या वे जान-बूझ कर पाठक को भ्रमित करना चाहते हैं ऐसा तो संभव नहीं कि इन दोनों से अलग उन्हें यह पता ही न रहा हो। इसी तारतम्य में सोन उद्‌गम के लिए मध्यप्रदेश राज्य पर्यटन विकास निगम लिमिटेड द्वारा एक तरफ अमरकंटक से 3 किलोमीटर पर सोनमुड़ा को ''The source of river Sone'' बताया जाता है वहीं अपने अमरकंटक फोल्डर में 'निगम' ने (सोनमुड़ा को प्रूफ की भूल से? सोन मुंग लिख कर) ''उद्‌गम है'' के बजाय ''उद्‌गम माना जाता है'' छापा है।
सोन, नर्मदा और जोहिला के उद्‌गम अंचल में राजकुमार सोन, राजकुमारी नर्मदा की उसके प्रति आसक्ति, दोनों का विवाह तय होना, जोहिला नाइन का छलपूर्वक सोन से संगम और नर्मदा का रूठकर कुंवारी रह जाने की कथा व गीत प्रचलित है- ''माई नरबदा सोन बहादुर जुहिला ल लेइ जाय बिहाय'' और ''मइया कंच कुंवारी रे, सोन बहादुर मुकुट बांध के जुहिला ल लाने बिहाय।'' संबंधित प्रकाशनों में भी आसानी से यह कथा छपी मिल जाती है, फिर जोहिला को सहायिका कहने तक तो ठीक है, लेकिन नर्मदा को सोन की बड़ी बहन कहने की बात एकदम नहीं जमती।

सोन का वास्‍तविक उद्‌गम, छत्‍तीसगढ़ के पेन्‍ड्रा के पास सोन बचरवार में मौके पर स्पष्ट है ही, स्‍तरीय अध्ययनों तथा सर्वे आफ इण्डिया के प्रामाणिक नक्शे में भी इसका तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है। इस तरह ''भारत की नदियों की कहानी'' पुस्‍तक में अमरकंटक को सोन का उद्‌गम बताया जाना भारी भूल है। अपनी पसंदीदा पुस्‍तकों में से एक 'पुरातत्‍व का रोमांस' के लेखक के रूप में, भगवतशरण उपाध्‍याय जी के प्रति मेरे मन में बहुत सम्‍मान है लेकिन उनकी पुस्‍तक 'सवेरा-संघर्ष-गर्जन' वाले (राहुल सांकृत्‍यायन की 'वोल्‍गा से गंगा' की तुलना का) विवाद के कारण उनकी छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा, वह इस प्रकाशन से गंभीर हो जाता है। याद करें, छपाई की श्रमसाध्‍य, समयसाध्‍य और जटिल प्रक्रिया के दौर में अधिकतर अच्‍छे प्रकाशनों में शुद्धि पत्र का पृष्‍ठ होता था। ऐसा भी उदाहरण मैंने देखा है, जिसमें पुस्‍तक की मुद्रित प्रतियों में लेखक स्‍वयं द्वारा कलम से प्रूफ की गलती का सुधार किया गया है।

प्रसंगवश, ब्‍लागिंग का प्रभाव, उसकी ताकत, सार्थकता मात्र ब्‍लाग और पोस्‍ट की संख्‍या के आधार पर या टिप्‍पणियों के आदान-प्रदान से तो संभव नहीं है। कविताओं पर सुंदर, नादान-कामुक वाली 'हॉट एन सॉर' या 'स्‍वीट-सॉर', बेमेल तस्‍वीरें लगाना जैसी प्रवृत्ति भी तेजी से फैलती है। संभव है यह जल्‍दी ही बहुमत बन जाए, तब तो असहमति के बावजूद जन-भावना का सम्‍मान करते हुए जनता-जनार्दन का निर्णय शिरोधार्य करना पड़ सकता है, सो इसकी आलोचना में देर करना ठीक न होगा। ऐसे ब्‍लागर अच्‍छी तरह समझते होंगे कि उनकी रचना कितनी प्रभावी है। यह भी अंदाजा होता है कि वे अपने अपेक्षित पाठक का क्‍या मूल्‍यांकन करते हैं।

इसका खास प्रयोजन यह कि हिन्‍दी ब्‍लागिंग में जिम्‍मेदारी और गंभीरता का सामूहिक भाव, उसे मजबूती देने में सहायक हो सकता है इस दृष्टि से विचार है कि एक जन-मंच (फोरम) हो, जिसमें खास कर प्रतिष्ठित-स्‍तरीय प्रकाशक-लेखकों की ऐसी पुस्‍तकों की चर्चा हो, जिसमें गंभीर तथ्‍यात्‍मक चूक होती है। ऐसी लापरवाही सामान्‍य ज्ञान की पुस्‍तकों में भी मिल जाती है। ऐसा फोरम यदि अच्‍छे संपादन सहित काम करने लगे तो शायद इस प्रवृत्ति पर अंकुश हो, यह लोक-नियंत्रण (पब्लिक सेंसर) जैसा काम होगा। यानि 'भूल-गलती उदासीनता का फायदा लेते, जिरह-बख्‍तर पहन कर न बैठ जाए।' ऐसा फोरम वांछित गति और स्‍तर पा ले तो प्रकाशक और लेखक भी अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करने यहां आएंगे। उपभोक्‍ता और बौद्धिक जागरूकता, प्रतियोगी परीक्षाओं के वस्‍तुनिष्‍ठ प्रश्‍नों के उत्‍तर, कानूनी संदर्भ-अड़चन जैसे अन्‍य पक्ष इसके विस्‍तार में शामिल होंगे। अधिक गंभीर गलतियों वाले प्रकाशन पर रोक भी लग सकती है।

यहां ऐसी टिप्‍पणियां अपेक्षित हैं, जिनसे पता लग सके कि क्‍या आपके पास इस तरह के कुछ ठोस उदाहरण हैं? ऐसे फोरम में आपकी कितनी भागीदारी, कैसा योगदान हो सकता है? यह पोस्‍ट वस्‍तुतः ऐसे फोरम के लिए उदाहरण सहित विचार-प्रस्‍ताव है। तकनीक-सक्षम, ब्‍लागिंग पर निगरानी रखने वाले सक्रिय ब्‍लागर चाहें तो इस योजना पर काम कर सकते हैं।

Monday, August 8, 2011

अपोस्‍ट

मेरी शतकीय पोस्‍ट, मेरे सैकड़ा फालोअर, सौ पार टिप्‍पणियां, ऐसा कुछ भी नहीं है इस पोस्‍ट के साथ, इसलिए यह क्‍या खाक पोस्‍ट, यह तो अपोस्‍ट है, लेकिन अपनी है इसलिए मान लिया कि 'अ' जुड़कर, पोस्‍ट से एक कदम आगे है, सो आगे बढ़ें। पोस्‍ट, फालोअर, फीड बर्नर पाठक, टिप्‍पणी के शतक और विजिट संख्‍या पर पोस्‍ट लगाने का चलन रहा है। हिंदी ब्‍लागिंग के उज्‍ज्‍वल भविष्‍य को देखते हुए आशा की जा सकती है कि आने वाले समय में अर्द्धशतक पर और दशक पर भी पोस्‍ट लगा करेगी। गहन चिंतन कर रहा हूं मैं। सिर खुजाने की मुद्रा से आगे, ठुड्ढी पर हाथ देने की नौबत आने लगी है।
मुझ चिंतित-भ्रमित जिज्ञासु की मुलाकात ब्‍लागाचार्य पं. चतुरानन शास्‍त्री 'दशरूप' जी से हो गई। उन्‍होंने समझाया कि जमाना क्रिकेट का है, देखते हो क्रिकेट का क्रेज, हर रन पर रिकार्ड और रन न बने तो भी रिकार्ड। इसी तरह हर पोस्‍ट रिकार्ड और पोस्‍ट न लिखो तो भी पोस्‍ट। आगे आने वाले कुछ दिनों में कोई पोस्‍ट न लिखनी हो तो उसकी पोस्‍ट। कुछ दिनों का अंतराल रहा तो उस पर पोस्‍ट, लौटे तब तो पोस्‍ट की बनती ही है, उसकी गिनती भी ब्‍लाग पेज पर और चर्चा-वार्ता, संकलक मंच पर भी। क्‍यों न रहे रिकार्ड इनका। रिकार्ड न रखने के कारण ही हम पिछड़ जाते हैं। आंकड़े तो जरूरी हैं, जनगणना से मतगणना तक। इसी के दम पर चलती है देश-दुनिया। चांदनी की ठंडक और उजास, नदी की धारा, फूलों का रंग और खुशबू, बच्‍चे की खिलखिलाहट, मुंह में घुलता स्‍वाद सब डिजिटलाइज हो रहा है और अब तो तुम्‍हारा अस्तित्‍व ही यूआइडी का अंक होगा। लगता है अपनी परम्‍परा का ढाई आखर का प्रेम भी याद नहीं तुम्‍हें।

निजी आक्षेप होता देख, हम भी उतारू हो गए और बात का रूख मोड़ना चाहा। पूछा- लेकिन ब्‍लाग पर रोज-ब-रोज पोस्‍ट, सार्थकता..., औचित्‍य..., स्‍तर..., विषय कहां से आएंगे। थोड़ा चिढ़ाया भी, तुकबंदी नमूना बात कह कर कि-
यहां अखबारी खबरों की तरह रोज इतिहास बन रहा है,
और महीना बीतते-बीतते हर महान रद्दी में बिक रहा है।

वे पहले तो उखड़े, नश्‍वरता का सिद्धांत निरूपित किया, फिर धारा-प्रवाह शुरू हो गए। ब्‍लागर के लिए हर दिन नया दिन, हर रात नई रात होनी चाहिए। अंतःदृष्टि, चर्म-चक्षु और मोबाइल कैमरे की आंख, बस, अगर प्रतिभा हो तो दिन भर में एक पोस्‍ट तो बनती ही है। ब्‍लागरी का सार्थक जीवन व्‍यतीत करते, दृष्टि-संपन्‍न ब्‍लागर के लिए ऐसा दिन हो ही नहीं सकता, जो पोस्‍ट-संभावनायुक्‍त न हो। घर से बाहर निकलो तो पोस्‍ट, घर में ही बने रहो तो पोस्‍ट। जिस तरह मछली अपने तेल में ही पक सकती है वैसे ही कुछ न हो तो ब्‍लाग, ब्‍लागर, ब्‍लागरी, ब्‍लागर सम्‍मेलन, ब्‍लागर मिलन या टिप्‍पणियों और पोस्‍ट पर भी तो पोस्‍ट बनती है। फिर भी कसर रहे तो जयंती, जन्‍मतिथि, पुण्‍यतिथि, श्रद्धांजलि, बधाई, शुभकामनाएं, और कुछ नहीं तो पता कर लो साल के 365 में 465 नमूने के डे होने लगे हैं आजकल...। निरर्थक प्रश्‍नों में मत उलझो, वृथा ही दिग्‍भ्रमित होते हो। बस, अंतर्जालीय महाजाल के असीम को असीम से पूर्ण करते चलो। ब्‍लाग साहित्‍य का भंडार समृद्ध करो, तथास्‍तु।

हम तो यों ही अपना ब्‍लाग पेज बना कर कभी-कभार, नया-पुराना कुछ डालते रहे हैं। लगा कि ब्‍लागरी के ऐसे संस्‍कार नहीं मिल पाए हमें, क्‍या करें। लेकिन यह समझ में आया कि ऐसे ब्‍लाग, जिसके फालोअर या फीड बर्नर पाठकों की संख्‍या चार-पांच शतक पार हो, ऐसी पोस्‍ट, जिस पर टिप्‍पणियां सैकड़ा पार करती हों, अथवा पेज विजिट हजार से अधिक हों, (चाहे जितने आरोप लगते रहें लेन-देन, खुजाल-खुजाई के) इससे हिंदी ब्‍लॉगिंग के भविष्‍य का संकेत मिल सकता है और इतिहास की तस्‍वीर साफ हो सकेगी। ब्‍लागाचार्य जी के इस 'पोस्‍टमार्टम' का असर है, अपोस्‍ट जैसी यह ब्‍लागरी पोस्‍ट, उन्‍हीं को समर्पित..., तेरा तुझको सौंपता...।

पुनश्‍च- विशेषज्ञों ने टिप्‍पणियों का परीक्षण 'दाढ़ी में तिनका' तर्ज पर करने का आश्‍वासन दिया है।

Tuesday, February 8, 2011

एग्रिगेटर

वैसे तो सोचा था कि शीर्षक रखूं 'माई ड्रीम एग्रिगेटर' फिर लगा कि छोटे शीर्षक का हिमायती बने रह कर एक शब्द से भी काम चल सकता है। शीर्षक, प्रस्थान बिंदु ही तो है। यह भी ध्यान आया कि नाम में क्या रखा है, बख्‍शी जी ने अपने प्रसिद्ध निबंध का शीर्षक दिया 'क्या लिखूं' और क्या खूब लिखा। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के लिए किसी ने रेखांकित किया है कि उनकी कृतियां हैं- चारुचंद्र का लेखा, बाणभट्‌ट की आत्मकथा और अनामदास का पोथा, मानों उनका लिखा कुछ नहीं। अज्ञेय याद आ रहे हैं- 'लिखि कागद कोरे' पुस्तक की 'सांचि कहउं ?' भूमिका में लिखा है कि ''असल में शीर्षक देना चाहिए था 'अध सांचि कहउं मैं टांकि-टांकि कागद अध-कोरे' पर'' ... और फिर विनोद कुमार शुक्ल की 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह'। शीर्षक कैसे-कैसे, लंबे-छोटे।

बात पटरी पर लाने के लिए बस एक और शीर्षक याद करें, 'नवनीत'। हिन्दी डाइजेस्ट कही गई अपने दौर की श्रेष्ठ पत्रिका। इसके एक पेज पर 'अपने लेखकों से' छपता था। मैं इसे प्रत्येक अंक में पढ़ना चाहता था। देखें कि इस पत्रिका को कैसी सामग्री से परहेज था और ब्लॉग पर उपलब्ध होने वाली सामग्री से इसकी तुलना करें।



अब आएं एग्रिगेटर पर। 'माई ड्रीम एग्रिगेटर' में जिन ब्लॉग्स को शामिल करना चाहूंगा उनमें दस में एक पोस्ट को अपवाद मान कर छूट सहित, वे ऐसी न हो-

• कविता, खासकर प्रेम, पर्यावरण, इन्सानियत की नसीहत या उलाहना भरी, भ्रष्टाचार, नेता आदि वाली पोस्ट, जो लगे कि पहले पढ़ी हुई है। (वैसे भी कविता के प्रति रुचि और समझ की सीमा के बावजूद, मुझे कविता का पाठक मानते हुए, कविता पोस्टों की सूचना मेल/चैट से मिल ही जाती है)

• जिसका कहीं और दिखना संभव न हो ऐसे स्‍तर वाला घनघोर 'दुर्लभ साहित्य'।

• मैं (और मेरी पोस्ट), मेरी पत्नी, मेरे आल-औलाद, मेरा वंश-खानदान आदि चर्चा या फोटो की भरमार वाली पोस्ट।

• अखबारी समाचारों वाली, श्रद्धांजलि, बधाई, शुभकामनाएं, रायशुमारी वाली पोस्ट।

• ब्लॉग, ब्लॉगिंग, ब्लॉगर, ब्लॉगर सम्मेलन, टिप्पणी पर केन्द्रित पोस्ट।

• लिंक से दी जा सकने वाली सामग्री-जानकारी वाली और पाठ्‌य पुस्तक या सामान्य ज्ञान की पुस्तक के पन्नों जैसी पोस्ट।

• नारी, दलित, शांति-सद्‌भाव-भाईचारा आदि विमर्शवादी और 'क्या जमाना आ गया', 'कितना बदल गया इंसान' टाइप पोस्ट।

कल एक एसएमएस मिला- ''सोमवार से शुक्रवार ..... पर 11 पीएम से 01 एएम तक सुनिए अश्‍लील प्रोग्राम जो आप परिवार के साथ नहीं सुन सकते '' ..... '' सुनेंगे तभी न जागेंगे''। यदि भेजने वाले को नहीं जानता होता तो लगता कि यह चेतावनी नहीं, विज्ञापन संदेश है। अश्‍लीलता की सूचना, बालसुलभ हो या कामुक, जिज्ञासा तो पैदा करती है। ऐसी सूचना देती, चिंता प्रगट करती पोस्‍ट से भी एग्रिगेटर को मुक्‍त रखना चाहूंगा।

इस 'माई ड्रीम एग्रिगेटर' की हकीकत पर सोचना शुरू किया तो उलझ गया कि इसमें 'माई' (सिंहावलोकन ब्लॉग शामिल) होगा या नहीं, बस फिर क्या, छत्तीसगढ़ी में कहूं तो 'अया-बया भुला गे'। मन में एक क्रांतिकारी विचार आया कि एग्रिगेटर में शामिल करने की शर्तें ही ऐसी रखी जाएं, कि उसमें 'माई' जरूर हो। खुद माई-बाप हों तो कौन रोक सकता है आपको। 'अपना हाथ, जगन्नाथ'। आजमाया हुआ नुस्खा, 'रिजर्व आइडिया'।

लेकिन अभी इन्‍हीं शर्तों के साथ एग्रिगेटर के लिए लक्ष्य 50 ब्लॉग का है। अपनी एक पिछली पोस्ट पर 'सामान्यतः टिप्पणी अपेक्षित नहीं' उल्लेख किया था, किंतु यहां इसके विपरीत सभी पधारने वालों से बे-टका सवालनुमा टिप्पणी अपेक्षित है कि क्या ऐसे एग्रिगेटर के 50 का लक्ष्य-

1.पूरा होगा    2.नहीं होगा   3.नो कमेंट   4.'अन्य'

उक्त में से पहले तीन, टिप्पणी के लिए कॉपी-पेस्ट सुविधा उपलब्ध कराने की दृष्टि से है, लेकिन इसके अलावा कुछ 'अन्य' कहना चाहें, तो थोड़ी उंगलियां चलानी होंगी।

अब ऐसा एग्रिगेटर बन जाए तो हकीकत, न बने तो सपना - 'माई ड्रीम'। गोया, लगे तो तीर, न लगे तो तुक्का और एग्रिगेटर बने न बने, अपनी बला से, पोस्ट तो तैयार हो ही गई, हमारी बला से।

Monday, December 6, 2010

खबर-असर

खबरदार, आपके आस-पास खबरी हैं तो आप, आपकी हरकत या ना-हरकत भी खबर बन सकती है, क्योंकि खबरें वहां बनती हैं जहां खबरी हों जैसे पोस्ट वहां बन सकती है जहां ब्लॉगर हो। खबरों के लिए घटना से अधिक जरूरी खबरी हैं और कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्लॉगर की तो पोस्ट अच्छी बनती ही तब है जब कोई मुद्‌दा न हो, वरना 'मीनमेखी' (सुविधानुसार इसे 'गंभीर टिप्पणीकार' पढ़ सकते हैं) पोस्ट को पूर्वग्रह से ग्रस्त अथवा बासी मान लेते हैं।

यह सूक्ति या थम्ब रूल बनाने का प्रयास नहीं, एक सचित्र खबर को पढ़ते हुए लगा कि कोई ब्लॉग पेज तो नहीं देख रहा हूं फिर इसका कैप्‍शन सोचते-सोचते इसकी लंबाई बढ़ गई, बस। पहले यह देखें-

अब सीधे विकल्प पर आइए-

1/ खबर पर ब्लॉग का असर है,
2/ किसी ब्लॉगर की लिखी खबर है,
3/ यह खबर कम ब्लॉग पोस्ट अधिक है,
4/ ब्लॉग पोस्ट और खबर के बीच का फर्क कम हो रहा है।

असमंजस है कि क्या चारों सही या सभी गलत का विकल्प भी दिया जाना चाहिए। अपनी भूमिका भी आप ही चुनें- बिग बी, हॉट सीट या क्विज मास्टर। हां! लेकिन किसी ईनाम-इकराम की गुंजाइश नहीं है, यहां।

यहां किसी ब्लॉगर सम्मेलन के लिए टॉपिक तय करने की कवायद भी नहीं है, यह तो यूं ही, कुछ भी, कहीं भी टाइप है, लेकिन खबरों पर नजर रखने वाले और खबरों की खबर लेने वालों के साथ सभी पहेली-बुझौवलियों को विशेष आमंत्रण।