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Monday, December 5, 2022

डीपाडीह - वेदप्रकाश

वेदप्रकाश नगायच
1988 से 1990 सरगुजा में पुरातत्वीय गतिविधियों के उल्लेखनीय वर्ष हैं। इस दौरान डीपाडीह के स्मारक, पुरावशेष अनावृत्त हुए। इस कार्य में जी.एल. रायकवार जी के साथ, लगभग पूरे समय मेरी सहभागिता रही। आरंभिक चरण में बारी-बारी शामिल विभाग के अन्य अधिकारी में वेदप्रकाश नगायच जी की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। काम के साथ, विभिन्न प्राप्तियों पर विस्तार से विचार-विनिमय होता। नगायच जी ने इन अधपकी चर्चाओं को करीने और सलीके से अपने अनुभव का आधार दे कर लेख का स्वरूप दिया, जो ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 25 फरवरी 1989 अंक में प्रकाशित हुआ, यहां प्रस्तुत-

डीपाडीह
मंदिरों का नगर

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में स्थित सरगुजा जिला प्राचीन इतिहास की अनेक श्रृंखलाओं को अपने में समाहित किये हुये है। सरगुजा का संपूर्ण क्षेत्र अलौकिक सौंदर्य से ओत प्रोत है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने वनों, पर्वतों, नदियों एवं सरोवरों की नैसर्गिक छटा यहां बिखेर दी हो। संभवतः इसी से इसे ‘स्वर्गजा‘ की संज्ञा से विभूषित किया गया एवं पश्चातवर्ती काल में अपभ्रंश होते हुये इसका नाम सरगुजा हो गया।

इस जिले के पुरातत्वीय महत्व के स्थलों में रामगढ़ स्थित जोगीमारा एवं सीतावेंगा की गुफायें तथा पहाड़ पर ही स्थित विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला है जो तीसरी दूसरी शती ईसा पूर्व की है। जिसका अभिलेखीय साक्ष्य भी है। इसके अतिरिक्त मुख्य पुरातत्वीय स्थलों में महेशपुर, लक्ष्मणगढ़, सतमहला, देवगढ़, सीतामढ़ी, हरचौका, बेलसर, एवं डीपाडीह है। परंतु ये सभी स्थल पुरातत्वीय संपदा से सम्पन्न होते हुये भी रामगढ़ की विश्व विख्यात कीर्ति के समक्ष अपनी पहचान व महत्व के लिये उपेक्षित ही बने रहे।

हाल ही में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आयुक्त श्री के. के. चक्रवर्ती ने इन उपेक्षित स्थलों का निरीक्षण करते हुये प्रथम दृष्टया डीपाडीह को पुरातत्वीय अन्वेषण का केंद्र बनाया। यहां के टीलों में दबे पड़े मंदिरों, मूर्तियों, परावशेषों को अनावृत्त करने हेतु राज्य पुरातत्व विभाग के अधिकारियों द्वारा मलवा सफाई का कार्य उनके निर्देशन में जारी है।

ग्राम डीपाडीह जिला मुख्यालय अंबिकापुर से ७३ कि.मी. उत्तर की ओर स्थित है जो कुसमी तहसील के अंतर्गत आता है। डीपाडीह की स्थिति अत्यन्त मनोरम है. चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा कन्हर, सूर्या तथा गलफुल्ला नदियों के संगम के किनारे बसा है। जहां सूर्या नदी का पानी गर्म है वहीं कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों का पानी ठंडा है। समुद्रतल से डीपाडीह की ऊंचाई लगभग २९०० फीट है जिस से यहां का मौसम काफी सुहावना रहता है।

ग्राम डीपाडीह से करीब २ कि.मी. पर शाल वृक्षों के घने झुंडों के मध्य मुख्य रूप से शिव मंदिरों के करीब २० टीले एवं एक बावली है। इस स्थल को यहां के लोग सामत सरना कहते हैं। यहां की प्रचलित लोक-कथा के अनुसार बिहार प्रांत के टांगीनाथ से यहां के सामत या सम्मत राजा का युद्ध हुआ था जिसमें टांगीनाथ ने अपनी कुल्हाड़ी फेंककर सामत राजा पर वार किया और वह यहीं वीरगति को प्राप्त हुये थे, जिनकी यहां स्थित विशाल प्रतिमा को लोग पूजते हैं। वस्तुतः यह परशुधर शिव की प्रतिमा है जो कालक्रम में कई भागों में भग्न हो गई जिसे ग्रामवासियों द्वारा इस स्थल के विविध टीलों (मंदिरों के) से अलंकृत प्रस्तर खंड व प्रतिमाएं लाकर घेरकर एक लघु मढ़िया का रूप दे दिया है तथा सामत राजा के नाम से इन्हें पूजते हैं व आदिवासी लोग यहां अपने समाज की बैठकें किया करते हैं।

सामत सरना में टीलों के ऊपर भी प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी है जिनमें गणेश, भैरव, वीरभद्र, शिवगण, नदी-देवी, महिषासुरमर्दिनी, चामुण्डा व विविध शिल्पखंड प्रमुख हैं।

सामत सरना से थोड़ा आगे उरांवटोली (उरांव लोगों की बस्ती) स्थित है। सामत सरना एवं उरांव टोली के मध्य करीब ७-८ टीले तथा एक पक्का रानी तालाब भी है। सामत सरना से करीब १ कि.मी. पश्चिम की ओर कन्हर नदी के किनारे भी दो मंदिरों के भग्नावशेष हैं जिस में मंदिरों की द्वार चौखटें तथा अलंकृत शिल्पखंड यत्र तत्र बिखरे हुये हैं।

इस प्रकार डीपाडीह के ४-५ कि. मी. के क्षेत्रफल में करीब ३० मंदिरों के टीले हैं जो स्पष्टतया डीपाडीह के मंदिरों का नगर होना प्रमाणित करते हैं। अभी तक डीपाडीह के उरांवटोली स्थित एक विशाल टीले तथा सामत सरना के ३ टीलों की मलवा सफाई कार्य संपन्न हुये हैं जिनसे मंदिर के वास्तु एवं प्रतिमा विधान के नये आयाम स्थापित हुये हैं।

उरांवटोली जो कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों संगम के समीप स्थित है, के विशाल टीले की मलवा सफाई में शिवमंदिर के ध्वंसावशेष प्रकाश में आये हैं। मंदिर का शिखर एवं मंडप भाग पूर्णतः धराशायी हो चुके हैं मंदिर की जगती एवं अधिष्ठान अपने मूलरूप में अनावृत्त हुये हैं।

मंदिर निर्माण योजनानुसार एक विशाल चबूतरे पर जिसमें मंडप, अंतराल एवं गर्भगृह तीनों अंग स्पष्ट हुये हैं। पूर्वाभिमुख इस मंदिर के मंडप में तीन सीढ़ी चढ़कर पहुंचते हैं। मंडप १६ स्तंभों पर आधारित रहा होगा। चार स्तंभों की तीन पंक्तियां हैं जिनकी कुंभियां अपने मूल स्थान पर हैं तथा उत्तर व दक्षिण दिशा में दो दो दीवाल स्तंभ हैं।

अंतराल खंड में एक एक शार्दूल प्रतिमा शार्दूल मंडप में स्थापित थी जिसमें एक शार्दूल मंडप में रखा पाया गया है। अंतराल की उत्तरी दिशा में नदी देवी गंगा तथा दक्षिणी दिशा में यमुना की प्रतिमायें प्रदर्शित थी जो वर्तमान में मूल स्थान से हटकर पायी गयी हैं। मात्र गंगा की प्रतिमा का निचला खंड भाग मूल स्थान पर है।

मंदिर की द्वार चौखट में मात्र दो द्वार शाखायें हैं जिनमें विद्याधरों का पुष्पहार लिये अंकन है। इस प्रकार का अंकन राजिम (रायपुर) एवं मल्हार (बिलासपुर) के मंदिरों में भी पाया गया है। 

मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है तथा बीच में स्लेटी प्रस्तर का विशाल शिवलिंग गोलाकार जलहरी सहित मूल स्थान पर भग्नावस्था में स्थापित है। 

मंदिर की बाह्य भित्ति पर खुरभाग में गोधा, सर्प, विच्छू, केला खाते बंदर, सर्प, मयूर, युद्ध, कमंडलु, व दंड को एक ओर रखे उपासक की लेटे हुये तथा मुक्तालड़ी युक्त मयूरों आदि का अंकन है। सामान्यतया छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इस प्रकार का अंकन नगण्य है। मालवा की परमार कला में ही ऐसा अंकन पाते हैं। मंदिर के जंघा भाग पर कमलफुल्लों, पुरुष शीर्ष, चैत्यगवाक्ष में उमा महेश्वर युगल आदि का अंकन है। 

इस मंदिर की मलवा सफाई में प्राप्त प्रतिमाओं में दंडधारिणी कीचक, नदी देवी गंगा, एक सिर दो धड़ युक्त सिंह, मिथुन युगल, अर्ध उत्कटासन में बैठा पुरुष, चैत्य गवाक्ष में सूर्य, कुत्ते पर सवार त्रिशूल लिये भैरव तथा नक्काशीदार शिल्पावशेष प्रमुख हैं। 

यह मंदिर मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य के आधार पर लगभग ८वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में निर्मित प्रतीत होता है। 

सामत सरना स्थित विशाल टीले की मलवा सफाई के पश्चात् इसका वर्गाकार गर्भगृह, द्वारचौखट, वर्गाकार मंडप, विशाल एवं अद्वितीय प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। इसी के सामने ध्वस्त आयताकार नंदी मंडप मिला है जिसमें अतिसुंदर एवं विशाल नदी का भक्तिभाव से अपने आराध्य एवं स्वामी शिव की ओर निहारते हुये रखा है। मलवा सफाई में निकले इस शिव मंदिर की जगती दोहरे चबूतरे युक्त है तथा ऊंचे चबूतरे पर मंडप की दीवार बनी है।


यह पूर्वाभिमुख सप्तरथयुक्त मंदिर विशाल वर्गाकार मंडप, अन्तराल तथा गर्भगृह इन तीन अंगों वाला है। वर्गाकार मंडप आठ स्तंभों पर आधारित रहा है जिसके दो स्तंभों की कुंभियां अपने मूल स्थान पर है। मंडप से प्राप्त दो स्तंभों पर जो गोलाकार है, नीचे से ऊपर तक चारों ओर मान्मथ अंकन है। मंडप के उत्तरी एवं दक्षिणी भित्ति से लगी प्रतिमाओं के ४-४ पादमूल (पेडेस्टल) पाये गये हैं जिनमें उत्तरी भित्ति के केवल दो पादमूलों पर १० भुजी महिषासुर मर्दिनी, १० भुजी भैरव, प्रतिमा प्रदर्शित पायी गयी तथा दक्षिणी भित्ति के एक पदमूल पर गौरी की (दो भागों में विभक्त) प्रतिमा है। पूर्वी भित्ति के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भी एक- एक पादमूल पर क्रमशः नृवराह तथा कल्याण सुंदर मूर्ति (शिव विवाह दृश्य का आधा खंड भाग ही) प्रदर्शित है। इस प्रतिमा में ब्रम्हा को पुरोहित का कार्य करते एवं अग्नि द्वारा भी मानव रूप में विवाह दृश्य देखने का लोभसंवरण न कर पाना स्पष्टतः अंकित है। गणेश एवं कार्तिकेय भी विवाह में उपस्थित हैं व नंदी भी प्रसन्न होकर निहार रहा है। 

मंदिर के अंतराल एवं गर्भगृह में प्रविष्ट होने हेतु प्रस्तर निर्मित विशाल द्वार चौखट है जिसका उदुम्बर अपने मूल स्थान पर है जिसमें मध्य में चंद्रशिला अर्धपद्माकृति में है तथा दोनों ओर ढाल तलवार लिये योद्धा एवं गज पर पीछे से हमला करते हुये सिंह का अंकन है। प्रवेशद्वार की द्वार शाखायें त्रिशाल हैं। दायीं ओर की द्वारशाखा में वाहन मकर पर सवार नदी देवी गंगा का अनुचरों सहित अंकन है बीच में वानर एवं ऊपर वीणाधारिणी बनी है तथा लता पत्रावली का सुरुचिपूर्ण अंकन है। ऐसा ही अंकन बायीं ओर की द्वारशाखा नदी देवी यमुना वाहन कच्छप के अंकन सहित है। सिरदल भी त्रिशाख है मध्य में गजलक्ष्मी का अंकन है तथा दोनों ओर माला लिये विद्याधरों का अंकन है। दायें किनारे पर नंदी पर आरूढ़ चतुर्भुजी नृत्य शिव तथा बायीं ओर चर्तुभुजी परशुधर शिव अंकित है। ऊपर व नीचे के शाख पर लता-पत्रावली का अंकन है।

वर्गाकार गर्भगृह के बीच में चौकोर जलहरी के मध्य विशाल सिलेटी प्रस्तर का भग्न शिवलिंग है। मलवा सफाई में मंदिर के मंडप की बाहय भित्तियों के पास नृत्यगणेश, कार्तिकेय, विराट स्वरूप विष्णु, ब्रम्हा की अतिसुंदर एवं विशालकाय प्रतिमायें पायी गयी हैं जो समानुपातिक एवं कलात्मक हैं तथा गर्भगृह की बाह्य भित्तियों के मलवे में गौरी प्लेक एवं विविध देव सिर, अर्धनारीश्वर, भैरव, शिव, विष्णु उमा-महेश्वर, शिवगण, सूर्य, शार्दूल, गणेश आदि की प्रतिमायें व प्रतिमा खंड मिले हैं।

इस शिव मंदिर का चबूतरा जगती एवं अधिष्ठान मलवा सफाई में प्रकाश में आये हैं। अधिष्ठान में पद्मपत्र अलंकरण युक्त अधिष्ठान बंध है। अधिष्ठान बंध के ऊपर जंघाभाग में लघु स्तंभों पर आधारित मंडपिकाओं का अंकन है जिनके छाद्य में कमल पत्रों पर लघु कलशों का अंकन है। इनके ऊपर मध्य रथिका में चैत्य गवाक्ष का क्रमिक अंकन है। अधिष्ठान बंध के ऊपर कुड्य स्तंभों से बनी मंडपिकाओं पर बीच में बने पद्म अलंकरण युक्त दो घंटों के दोनों ओर सिंह (शार्दूल) अंकन है। यह अंकन मंदिर की तीनों ओर की बाह्य भित्ति पर हुआ है उत्तरी दिशा में अधिष्ठान बंध में कीर्तिमुख अंकन युक्त जलहरी बनी है।

इस मंदिर का शिखर एवं मंडप पूर्णतः धराशायी हो चुका है जिनके भग्नावशेष एवं शिल्पखंड चारों ओर पाये गये हैं। प्रतिमाओं एवं स्थापत्य विधा को देखते हुये इस मंदिर का काल लगभग ९वीं शती ई. का निर्धारित होता है। इस मंदिर के दक्षिणी पार्श्व में ५-६ लघु मंदिर, लघु शिवलिंग की स्थापना सहित चबूतरे पर स्थापित हैं।


सामत सारना स्थित मुख्य शिव मंदिर के उत्तरी पार्श्व में तीन गर्भगृह वाला मंदिर समूह मलवा सफाई में निकला है जो पूर्वाभिमुख हैं तथा एक दीवाल से दो भागों में विभक्त है जिस से एक मंडप व एक गर्भगृह का एक मंदिर तथा एक मंडप दो गर्भगृह के दो मंदिर के रूप में यह दीवाल विभक्त करती है। ये मंदिर समूह मात्र अधिष्ठान तक ही चारों ओर है शेष भाग पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है।

दक्षिणी ओर के एक गर्भगृह वाले मंदिर का प्रवेश सादा सिल पर है, जिस पर पूर्व में द्वारशाखा रही होगी। मंडप वर्गाकार है जिसमें ४ कुंभियां अपने मूल स्थान पर है पर स्तंभ नहीं, तथा दीवारों के किनारे दो प्रतिमाओं के पादमूल है पर प्रतिमायें नहीं हैं। मंडप के दोनों ओर दीवारें मात्र एक मीटर तक ही ऊंची हैं। आयताकार अंतराल भाग में दक्षिणी ओर शिव एवं उत्तरी ओर चतुर्भुजी शिव की स्थानक भग्नसिर प्रतिमायें पादमूल पर स्थापित हैं।

इस शिव मंदिर के गर्भगृह की द्वारशाखा में दायीं ओर कूर्मवाहना नदी देवी यमुना एवं बायीं ओर नदी देवी गंगा है जिसके वाहन का अंकन पादमूल पर नहीं हुआ है दोनों को घट एवं छत्र सहित अंकित नहीं किया गया है, पर दोनों हाथ में माला लिये सौम्य मुख मुद्रा एवं अलंकरण युक्त हैं। गंगा एक कान में चक्र कंडल एवं दूसरे में पोंगी पहने हुये हैं। यहां की काफी प्रतिमाओं के कानों में पोंगी का अंकन प्रभूत मात्रा में हुआ है। आज भी उरांव जनजाति की स्त्रियों के कानों में पोंगी पहनने का प्रचलन पाते हैं।

गर्भगृह छोटा वर्गाकार है जिसकी जलहरी ३-४ भागों में भग्न मंडप में शिवलिंग प्रतिमा सहित पायी गयी। गर्भगृह भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त है व करीब २ मीटर ऊंचा ही शेष है। 

इस मंदिर के बाह्य दक्षिणी पश्चिमी किनारे पर चतुर्भुजी परशुधर शिव की अद्वितीय प्रतिमा लगी है जो हाथों में नागपाश, त्रिशूल, अक्षमाला तथा परशु लिये हैं तथा उनका दायां पैर परशु पर रखा है। पीछे पर्वत का अंकन है तथा शिव की जटायें लहराते हुये. अंकन है। यह प्रतिभा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण मूर्ति है।

मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर व प्रतिमायें ८ वीं शती ई. की निर्धारित की गयी है। 

इस मंदिर के उत्तरी पार्श्व में दो गर्भगृह एवं एक मंडप युक्त शिव मंदिर मलवा सफाई में निकाला गया है। पहले मंदिर की तरह इन दोनों के गर्भगृह भी एक ही सीध में हैं। ये दोनों भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त हैं। इसका मंडप आयताकार हैं जिसमें ४ स्तंभों की कंुभियां मंडप के मध्य हैं पर स्तंभ प्राप्त नहीं हुये हैं। मध्य मंडप का धरातल कुछ ऊंचा है मंडप के दोनों ओर की दीवालें मात्र १ मीटर ही ऊंची हैं मंडप की उत्तरी दीवारों एवं दक्षिणी से लगी ४ प्रतिमाओं में से तीन ही पायी गयी हैं। जो ठीक आमने सामने हैं। दक्षिणी दीवाल से लगी चतुर्भुजी नृत्यगणेश एवं समपाद स्थानक विष्णु की प्रतिमायें हैं इन दोनों के सिर भग्न हैं। उत्तरी दीवाल से लगी नृत्य गणेश प्रतिमा के ठीक सामने सूर्य प्रतिमा का निचला भाग है जिस में गमबूट पहने पैरों व नीचे सप्त अश्वों का अंकन मात्र ही है। चौथी प्रतिमा का मात्र पाद्मूल ही शेष है। 

पहले गर्भगृह की दायीं द्वार शाखा में नदी देवी यमुना को वाहन कूर्म पर सवार एवं हाथ में माला लिये अंकन है। यमुना बांयें कान में पोंगी व दांयें में चक्र कुंडल पहने हैं तथा केयूर, कंकण, हार, पाजेब आदि अलंकरण भी धारण किये हैं। बायीं द्वारशाखा की नदी देवी गंगा मूल स्थान पर नहीं है। मात्र सादा पादमूल ही है। सादा गर्भगृह लघु एवं वर्गाकार है पर ध्वस्तावस्था में है। इसके पार्श्व के दूसरे गर्भगृह का उत्तरी भाग ध्वस्त है जिसकी दायीं ओर की सादा द्वारशाखा ही शेष है।

केवल एक शिवलिंग एवं जलहरी (भग्न) ही इस मंडप में मलवा सफाई में प्राप्त हुई है।

पूर्व मंदिर की तरह यह भी कालक्रम में ८वीं शती ई. का है।

मंदिर समूह के ठीक पीछे पश्चिम में स्थित टीले की मलवा सफाई में चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर अवशेष अनावृत्त हुये हैं जिनमें छोटे छोटे खंडों में शिवलिंग स्थापित है। मध्य टीले से मुख्य मंदिर एवं उसके चारों ओर पक्के फर्श का प्रदक्षिणा पथ प्रकाश में आया है जिसके मध्य में मंडप रहा है तथा यह मंदिर उत्तराभिमुख है। गर्भगृह के मध्य चामुंडा प्रतिमा तीन भागों में भग्न प्राप्त हुई है। इसका पादमूल सादा आयताकार प्रणालिका युक्त पाया गया है जबकि प्रणालिका शिवलिंग वाले मंदिरों में ही पायी जाती हैं। 

चबूतरे पर चारों ओर निर्मित लघु मंदिर एवं मध्य में प्रमुख मंदिर युक्त यह पंचायतन मंदिर भी ८वीं शती ई. का है। 

यहां के शेष टीलों का मलवा सफाई कार्य जारी है।

डीपाडीह के पूर्वाेत्तर में करीब २ कि. मी. पर चैला पहाड़ है जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यहां पर प्राचीन शिल्पकारों ने पहाड़ से चट्टान काटकर शिल्पाकृतियां तैयार की थी तथा यहीं से ले जाकर डीपाडीह के सामत सरना व उरांव टोली के मंदिरों का निर्माण एवं मूर्तियां स्थापित की गयी।

इस पहाड़ को तीन स्तरों में काटकर शिल्पियों ने समतल स्थान तैयार किये व शिल्पांकन किया। इनका नीचे से ऊपर की ओर क्रमिक स्तरीकरण पाते हैं निचले स्तर पर शिल्पांकन चिन्ह, मध्य स्तर पर एक स्थल पर ‘ॐ नमः विश्वकर्मायः‘ अभिलेख तथा बालि सुग्रीव युद्ध, हाथी, पुरुष, वज्र आदि का अंकन तथा ऊपर के स्तर पर अनगढ़ कुबेर, नंदी आदि की प्रतिमायें व शिल्पांकन चिन्ह पाये गये हैं। इन तीनों स्तरों पर चट्टानों, पत्थरों की छीलन व सादा सपाट कार्य करने के चबूतरे ऐसी झलक देते हैं कि शिल्पी कार्य करके अभी ही गये हों।

- वेद प्रकाश नगायच

Sunday, September 26, 2021

छत्तीसगढ़ में पुरातत्व प्रगति - 1986

1986 में प्रकाशित पत्रक की प्रस्तुति

छत्तीसगढ़ में पुरातत्व की प्रगति के तीन दशक

छत्तीसगढ़ भौगोलिक दृष्टि से मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा क्षेत्र है। जिसके अन्तर्गत बस्तर, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायगढ़, अम्बिकापुर जिले आते हैं। यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यन्त सम्पन्न है। यहां प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान समय तक के इतिहास और संस्कृति की निरन्तर श्रृंखला मिलती है।

१ नवम्बर १९५६ को नये मध्य प्रदेश राज्य का गठन हुआ। उस समय से अब तक पुरातत्व के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियां हुई हैं जो क्षेत्रीय इतिहास के उन्नयन में महत्वपूर्ण सिद्ध हुई हैं। इस क्षेत्र में पुरातत्व की दृष्टि से हुई प्रगति का विवरण निम्नानुसार है-

नवीन उपलब्धियां
(अ) स्मारक एवं प्रतिमाएं-
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अनेक प्रागैतिहासिक चित्रित शैलाश्रय, मंदिर, प्रतिमाएं, अभिलेख एवं मुद्राएं विगत ३० वर्षों में प्राप्त हुई हैं।
(१) चित्रित शैलाश्रय- रायगढ़ जिले में सिंघनपुर एवं कबरा पहाड़ के शैलचित्र अत्यन्त प्रसिद्ध एवं सर्वज्ञात हैं। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व-विभाग के सर्वेक्षण के परिणाम स्वरूप इसी जिले में ओंगना, करमागढ़, लेखामाड़ा तथा दुर्ग जिले में चितवा डोंगरी के चित्रित शैलाश्रय प्रकाश में आये हैं।
(2) मंदिर स्थापत्य- मंदिर स्थापत्य की सुस्पष्ट परम्परा इस क्षेत्र में रही है। अभी हाल के वर्षों में बिलासपुर जिले के ताला नामक स्थान से ५वीं-६वीं शती ई. के देवरानी जेठानी नामक दो मंदिर प्राप्त हुए हैं। राजनांदगांव जिले में बिरखा-घटियारी नामक स्थान में शिवमंदिर, रायपुर जिले में धोबनी ग्राम में ईंटों का बना चितावरी मंदिर, दुर्ग जिले में सरदा नामक स्थान का शिवमंदिर, अम्बिकापुर जिले में देवगढ़, सतमहला, महेशपुर एवं डीपाडीह के मंदिर उल्लेखनीय हैं।
(3) मूर्तियां- छत्तीसगढ़ क्षेत्र में विगत ३० वर्षों में अनेक प्रतिमाएं मिली हैं। मूर्ति शिल्प की दृष्टि से बिरखा-घटियारी ग्राम से मंदिर की सफाई में प्राप्त त्रिपुरान्तक शिव की दो, अंधकासुर वध एवं नटराज की एक-एक प्रतिमा मिली (रायपुर संग्रहालय में रखी है) मठपुरेना (रायपुर) में ब्रह्मा, वज्रपाणि की मूर्तियां, गंगरेल बांध के डूब क्षेत्र में पायी अनन्तशेषशायी विष्णु की प्रतिमा, बस्तर जिले मे इन्द्रावती डूब क्षेत्र में चित्रकूट के समीपवर्ती ग्रामों में विष्णु, उमामहेश्वर, लज्जागौरी, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मा, पार्श्वनाथ आदि की प्रतिमाएं उल्लेखनीय हैं। दुर्ग जिले में नर्राटोला में अनेक गोंडकालीन प्रतिमाएं मिली हैं। ताला (बिलासपुर) में कार्तिकेय, शिवलीला के दृश्य, कीर्तिमुख, मल्हार में अभिलिखित विष्णु, स्कन्दमाता, कुबेर, अड़भार में महिषासुर मर्दिनी, अष्टभुजी शिव आदि की प्रतिमाएं मिली हैं।
(४) अभिलेख- छत्तीसगढ़ क्षेत्र में मौर्यकाल से लेकर १७वीं शती तक के अभिलेख मिले हैं। इस श्रृंखला में विगत तीस वर्षों में प्राप्त अभिलेखों में शरभपुरीय वंश के शासकों में नरेन्द्र का कुरुद और रीवां से प्राप्त ताम्रपत्र, मल्हार से प्राप्त प्रवरराज का एक तथा जयराज के दो तथा व्याघ्रराज का एक ताम्रपत्र, सुदेवराज का महासमुंद ताम्रपत्र, पाण्डुवंशीय शासकों में तीवरदेव एवं महाशिवगुप्त के बोंडा ताम्रपत्र तथा महाशिवगुप्त के ही महासमुन्द तथा मल्हार से प्राप्त ताम्रपत्र उल्लेखनीय हैं। कलचुरि शासकों में पृथ्वीदेव द्वितीय तथा रत्नदेव तृतीय का पासिद ताम्रपत्र तथा प्रतापमल्ल का कोनारीग्राम ताम्रपत्र महत्वपूर्ण है। बिलासपुर जिले में लेंहगाभांठा से प्राप्त शिलालेख तथा मल्हार से पांडववंशीय राजा शूरबल का ताम्रपत्र भी उल्लेखनीय है।
(५) मुद्राएं- महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय में आहत मुद्राओं से लेकर ब्रिटिशकाल तक की मुद्राओं का सुन्दर संग्रह है। विगत तीस वर्षों में इस क्षेत्र से अनेक मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। इनमें बानबरद (जिला दुर्ग) से प्राप्त गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही उभारदार (repousse) स्वर्ण मुद्राओं की एक लम्बी श्रृंखला विगत वर्षों से मिली है, जिसमें पितईबंध, रीवां तथा कुलिया से प्राप्त मुद्राएं महत्वपूर्ण हैं। पूर्व में प्रसन्नमात्र, महेन्द्रादित्य, वराहराज, भवदत्त तथा अर्थपति नामक राजा उभारदार मुद्राओं द्वारा ज्ञात थे पर इन स्थानों से क्रमादित्य, नन्दनराज और स्तम्भ नामक नए राजाओं का ज्ञान हुआ है। हाल ही में प्रसन्नमात्र के ताला से चांदी तथा मल्हार से ताम्र सिक्के भी मिले हैं। धरसींवा के निकट सोंड्रा ग्राम में सतीमदेव नामक राजा की एक स्वर्ण मुद्रा मिली हैं। इन महत्वपूर्ण मुद्राओं के अतिरिका पूर्व में ज्ञात शासकों की मुद्राएं भी बड़ी मात्रा में मिली हैं। सहसपुर लोहारा (राजनांदगांव) से ३४ स्वर्ण मुद्राएं कलचुरि शासक जाजल्लदेव, पृथ्वीदेव एवं ३ पद्मटंका हाल ही में प्राप्त हुए हैं।

(ब) उत्खनन- इस क्षेत्र में इस अवधि में उत्खनन कार्य अत्यन्त सीमित रूप से हुआ है। सिरपुर में १९५३-५४ में सागर विश्वविद्यालय तथा १९५४-५५ एवं ५५-५६ में तत्कालीन शासन द्वारा कराया गया उत्खनन महत्वपूर्ण है।

जिसमें स्वस्तिक विहार एवं आनन्दप्रभकुटी विहार नामक दो बौद्ध विहार प्रकाश में आए तथा अनेक सिक्के, अभिलेख, सील, मिट्टी के पात्र, मृणमूर्तियां, पाषाण प्रतिमाएं प्राप्त हुयी हैं। 

वर्ष १९५६-५७ में धनोरा नामक स्थान का सीमित उत्खनन कराया गया है, जिसमें हड्डियों के टुकड़े, मनके, कांच की चूड़ियों के टुकड़े तथा ताम्बे के पात्र के खंडित अंश प्राप्त हुए। इसके पश्चात सागर वि. वि. द्वारा मल्हार में १९७५ से ७८ तक उत्खनन कार्य किया गया जिसमें अनेक प्रतिमाएं, सिक्के, मुहरें तथा स्मारकों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

मलबा सफाई एवं अनुरक्षण कार्य- वर्ष १९७७ में राजनांदगांव जिले के बिरखा घटियारी ग्राम में विभाग द्वारा शिवमंदिर का मलबा सफाई कराया गया जिसमें मंदिर के ध्वंसावशेष, विशाल स्तम्भ, चंद्र-शिला, प्रतिमाएं आदि प्राप्त हुईं तथा मंदिर का मंडप, गर्भ-गृह आदि प्रकाश में आए । वर्ष १९७८ में बिलासपुर जिलान्तर्गत ताला (ग्राम-अमेरीकांपा) के मलबा सफाई में देवरानी मंदिर की भू-योजना स्पष्ट हुई। वर्ष १९८५-८६ में यहीं टीले के रूप में जेठानी मंदिर की मलबा सफाई होने से अधिष्ठान, गर्भगृह, मंडप स्पष्ट हुए तथा विशाल स्तम्भ, सिक्के, मनके, पाषाणास्त्र, मृदभाण्ड तथा पंचधातु के आभूषण एवं पाषाण प्रतिमाएं प्राप्त हुई।

इस क्षेत्र के स्मारकों में स्वस्तिक विहार, आनन्दप्रभकुटी विहार, सिरपुर, भोरमदेव, मंडवामहल, चितावरी देवी मंदिर, घोबनी आदि में फेन्सिग कार्य तथा शेड आदि बनवाए गये एवं राजिम, ताला, पलारी, घटियारी आदि में प्रस्तावित है।

सर्वेक्षण- इन तीस वर्षों में यहां की पैरी, सोंढूर, महानदी, इन्द्रावती आदि नदियों पर विविध बांध परियोजनाओं का पुरातत्वीय सर्वेक्षण हुआ है। ये परियोजनाएं हैं- महानदी-गंगरेल बांध, सोंढूर बांध, कोडार बांध, मोगरा बांध, बोधघाट जल विद्युत परियोजना, इन्चमपल्ली, चित्रकूट, कुटरु प्रथम, मटनार जल विद्युत परियोजनाएं आदि। परियोजनाओं में गंगरेल बांध में कई स्थलों पर प्रतिमाएं डूब क्षेत्र के ग्रामों में मिली हैं। इन्चमपल्ली, चित्रकूट, कुटरु प्रथम जल विद्युत परियोजनाओं में १०वीं से लेकर १६-१७वीं शती तक की प्रतिमाएं मिली हैं, जिसका संग्रह किया जाने वाला है। इन्द्रावती नदी पर बनने वाले चित्रकूट जल-विद्युत परियोजना में छिदगांव में छिदक नागवंशीय शासकों का शिवमंदिर वर्ष १९८५-८६ के सर्वेक्षण की नवीन उपलब्धि है। इसी के साथ आदिवासी संस्कृति के स्मारक एवं स्थलों का समुचित रिकार्ड व जानकारी भी संग्रहित की गई है।

संरक्षित स्मारक- इस अवधि में इस क्षेत्र के निम्न १७ स्मारक स्थल संरक्षित किए गये -

रायपुर जिला - १ स्वस्तिक विहार, सिरपुर। २ आनन्दप्रभकुटी विहार, सिरपुर। ३ कुलेश्वर महादेव मंदिर, नवापारा राजिम। ४ सिद्धेश्वर मंदिर, पलारी। ५ चितावरी देवी मंदिर, धोबनी। ६ शिवमंदिर, चंदखुरी।
बिलासपुर जिला - १ देवरानी-जेठानी मंदिर, ताला । २ लक्ष्मणेश्वर मंदिर, खरौद। ३ डिडिनदाई मंदिर, मल्हार। ४ धूमनाथ मंदिर, सरगांव। ५ देव मंदिर, किरारी गोढी। ६ महामाया मंदिर, रतनपुर। ७ कबीर पंथियों की मजार, कुदुरमाल।
राजनांदगांव जिला - १ शिव मंदिर, बिरखा-घटियारी। २ भोरमदेव मंदिर, चौरा। ३ मंडवा-महल एवं छेरकी महल, छपरी।
रायगढ़ जिला - १ चित्रित शैलाश्रय, सिंघनपुर।

इनके अतिरिक्त निम्नलिखित ५ स्मारकों को संरक्षण किए जाने हेतु प्रथम अधिसूचना शासन द्वारा जारी हो चुकी है-
१ गन्धेश्वर मंदिर, सिरपुर (रायपुर), २ रहस्यमय सुरंग, करियादामा (रायपुर) ३ प्राचीन संग्रहालय भवन, रायपुर ४ प्राचीन शिव मंदिर, गनियारी (बिलासपुर) ५ गोपाल मंदिर, बोरासेमी मंदिर, एवं केवटिन मंदिर, पुजारीपाली (रायगढ़)।

इनके अतिरिक्त इस क्षेत्र के करीब १० स्मारक एवं स्थलों के संरक्षित किए जाने के प्रस्ताव शासन के विचाराधीन है। संग्रहालय- इस क्षेत्र के पुरातत्वीय संग्रहालयों में भारत के प्राचीन संग्रहालयों में १०वां स्थान रायपुर स्थित महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय का है। जिसकी स्थापना वर्ष १८७५ है। इसके अतिरिक्त वर्ष १९८२-८३ में जिला संग्रहालय बिलासपुर की स्थापना हुई है। तीसरा संग्रहालय इन्दिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ (राजनांदगांव) में खोला गया है। एक नृतत्वशास्त्रीय संग्रहालय जगदलपुर में हाल के वर्षों में बना है, जिसमें आदिवासी संस्कृति को सुरूचिपूर्ण ढंग से प्रदर्शित किया गया है। 

महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय रायपुर में पाषाण प्रतिमाएं, कांस्य प्रतिमाएं, सिक्के, प्रस्तर अभिलेख, ताम्रपत्र, हस्तलिखित ग्रंथ, मृण्मय मूर्तियां, सील, मनके, पाषाणास्त्र, ताम्रास्त्र आदि का सुन्दर एवं सुरुचिपूर्ण संग्रह है। यह सामग्री छत्तीसगढ़ के ही विविध स्थलों से संग्रहीत की गई है। इनके अतिरिक्त यहां के संग्रहालय में प्राकृतिक इतिहास एवं मानवशास्त्रीय सामग्री भी प्रचुर मात्रा में प्रदर्शित है। यह सारी सामाग्री छत्तीसगढ़ की कला एवं संस्कृति का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है तथा इतिहास की कड़ियों का श्रृंखलाबद्ध क्रम यहां पाते हैं। 

जिला संग्रहालय, बिलासपुर का संग्रह अपनी प्रारंभिक अवस्था में है। यहां करीब ८० पुरावशेष संग्रहीत है जिनमें ६० पाषाण प्रतिमाएं रतनपुर, पंडरिया, खैरासेतगंगा, ताला, मदनपुरगढ़, गनियारी, दारसागर, मल्हार आदि से संग्रहीत की गई है। इसके साथ ही करीब १५ सिक्के, एक ताम्रपत्र तथा ३ शिलालेख प्रदर्शित है। 

इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के प्राचीन भारतीय कला इतिहास विभाग के अन्तर्गत छोटा सा संग्रहालय है, जिसमें प्रमुख रूप से राजनांदगांव एवं दुर्ग जिले की गोंडकालीन प्रतिमाओं का संग्रह है। 

पंजीयन- छत्तीसगढ़ क्षेत्र के तीन संभागों के अंतगंत रजिस्ट्रीकरण अधिकारी के दो कार्यालय हैं, जिनमें अप्रैल १९७६ से अक्टूबर १९८६ तक जिलेवार पुरावशेषों के पंजीयन की स्थिति निम्नानुसार है- 
(घ) अन्य गतिविधियां- वर्ष १९८४ में दशहरे के पर्व पर जगदलपुर में विभाग द्वारा प्रदर्शनी लगायी गयी। वर्ष १९८५ में खैरागढ़ में नृत्य एवं संगीत विषय के अन्तर्गत एक प्रदर्शनी का सुंदर आयोजन किया गया। बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर वर्ष १९८५ में ही सिरपुर उत्सव मनाया गया जिसमें प्रदर्शनी, सिरपुर यात्रा एवं लोक संगीत के कार्यक्रम हुए। 

रायपुर संग्रहालय में संग्रहीत सिरपुर की धातु प्रतिमाओं का प्रदर्शन जापान, जर्मनी, इंग्लैंड, अमेरिका एवं फ्रांस में हाल के वर्षों में हो चुका है। 

रायपुर संग्रहालय से संबद्ध महंत सर्वेश्वरदास ग्रंथालय है, जिसमें करीब १५ हजार पुस्तकों का सुन्दर संग्रह है जो ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन आदि पर हैं तथा देश की सभी प्रमुख पत्रिकाएं एंव समाचार पत्र आते हैं जिससे स्थानीय जन लाभान्वित होते हैं । 

(य) प्रकाशन- इन तीस वर्षों में छत्तीसगढ़ से संबंधित विभागीय प्रकाशन निम्नानुसार है-
१. महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में सुरक्षित उत्कीर्ण लेखों की विवरणात्मक सूची लेखक- बालचन्द्र जैन, मूल्य ००-३१
२. लिस्ट ऑफ क्वाइन्स डिपोजिटेड इन दि एम. जी. एम. म्यूजियम रायपुर (अंग्रेजी में) लेखक- बालचन्द्र जैन, मूल्य - ००-३०
३. महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय (उद्भव इतिहास और प्रवृत्तियां)लेखक- बालचन्द्र जैन, निःशुल्क
४. मानवशास्त्रीय उप विभाग प्रदर्शिका लेखक- बालचन्द्र जैन, मूल्य -१-००
५. प्रकृति इतिहास उप विभाग प्रदर्शिका लेखक- बालचन्द्र जैन मूल्य १-२५
६. पुरातत्व उप विभाग प्रदर्शिका लेखक- बालचन्द्र जैन मूल्य १-५०
७. पुरातत्व विभाग का सूचीपत्र भाग २ पाषाण प्रतिमाएं लेखक- बालचन्द्र जैन मूल्य -१-५०
८. पुरातत्व उप विभाग का सूची पत्र भाग ३ धातु प्रतिमाएं लेखक-बालचन्द्र जैन मूल्य १-००
९. पुरातत्व उपविभाग का सूचीपत्र भाग ६, उत्कीर्ण लेख लेखक- बालचन्द्र जैन मूल्य १३-००
१०. पिक्चर पोस्टकार्ड (म. पा. स्मा. सं.) लेखक-बालचन्द्र जैन मूल्य प्रतिसेट ००-४०
११. भोरमदेव मंदिर प्रदर्शिका लेखक- डा. जी.के. चन्द्रौल, मूल्य ५-४०
१२. सिरपुर लेखक एस.एस. यादव मूल्य ५-००

कार्यालयः
१. संग्रहाध्यक्ष, एम. जी. एम. म्यूजियम रायपुर फोन 26976
२. रजिस्ट्रीकरण अधिकारी, पुरातत्व एवं संग्रहालय, सुभाष स्टेडियम के पीछे, रायपुर (म. प्र.) फोन 27058 
३. पुरातत्ववेत्ता, पुरातत्व एवं संग्रहालय, (रायपुर वृत्त) सुभाष स्टेडियम के पीछे, रायपुर (म.प्र.) फोन 27058
४. रजिस्ट्रीकरण अधिकारी, पुरातत्व एवं संग्रहालय, राजेंद्रनगर, हेड पोस्ट आफिस के पास, बिलासपुर, फोन 4249
५. संग्रहाध्यक्ष, जिला संग्रहालय, टाऊन हाल, बिलासपुर (म. प्र.)
६. उप संचालक, पुरातत्व एवं संग्रहालय का कार्यालय रायपुर में प्रारम्भ किये जाने की वित्तीय स्वीकृति शासन द्वारा प्राप्त हो गई है यह कार्यालय शीघ्र खोला जाना प्रस्तावित है।

पुरातत्व एव संग्रहालय, मध्यप्रदेश रायपुर द्वारा प्रकाशित तथा कृष्णसखा प्रेस द्वारा मुद्रित आलेख- वेदप्रकाश नगायच 1000/... 1986

Sunday, September 12, 2021

बस्तर - वेदप्रकाश

बस्तर के पुरातत्व संबंधी सूचनाएं, शासकीय अभिलेखों में सन 1975 से नियमित दर्ज होने लगीं और कई अल्पज्ञात स्थलों, पुरावशेषों की जानकारियां क्रमशः सार्वजनिक होने लगीं। 1987 से 1992 तक का दौर सर्वेक्षण, खुदाई आदि कार्यों की दृष्टि से उल्लेखनीय है। इसी दौरान गढ़धनोरा, भोंगापाल स्थलों पर कार्य हुए, जिसमें मुझे भी शामिल होने का अवसर मिला। 1988 में जगदलपुर के ऐतिहासिक परलकोट बाड़ा में संग्रहालय स्थापित हुआ।

मध्यप्रदेश शासन का पाक्षिक ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 10 जून 1988 के अंक में बस्तर पर विशेष सामग्री प्रकाशित हुई, जिसमें पुरातत्व पर रायपुर में पदस्थ तत्कालीन अधिकारी वेदप्रकाश नगायच जी का यह लेख सम्मिलित था, उनकी अनुमति से यहां प्रस्तुत-

बस्तर जिले का पुरातत्वीय वैभव

अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण दण्डाकारण्य यानि प्राचीन बस्तर अपने सीमावर्ती क्षेत्रों यथा दक्षिण कोशल, विदर्भ, आंध्र, उड़ीसा से प्रायः अलग रहा है, जिसके फलस्वरूप यह क्षेत्र आधुनिक सभ्यता के सम्पर्क में कम ही आ पाया।

मध्यप्रदेश के दक्षिणी किनारे पर स्थित बस्तर जिला आज भी सामान्य लोगों के लिए कौतुहल का विषय बना हुआ है। बस्तर क्षेत्रफल में केरल राज्य से भी बड़ा है, तथा आदिम जनजातियों तथा घने जंगलों के लिए प्रसिद्ध है। घने जंगलों तथा आवागमन के सीमित साधनों के कारण यह क्षेत्र आज भी पुरातत्वीय सर्वेक्षण से अछूता रहा है।

बस्तर में चारों पाषाणकालों के अवशेष इस क्षेत्र की मुख्य नदियों इन्द्रावती, शबरी एवं नारंगी के तटों से प्राप्त हुए हैं।

इस क्षेत्र से पुरापाषाणकाल के अनगढ़े मूठदार छुरे तथा गढ़े हुए अधिक सुघड़ तथा त्रिकोणाकार छुरे प्राप्त हुए हैं। इन्द्रावती के तट पर बसे कालीपुर ग्राम से कर्तन उपकरण भी हाल ही में मिले हैं।

इन्द्रावती के तट पर स्थित देउरगांव, गढ़चंदेला, बिन्ता, घाटलोहंगा तथा नारंगी नदी के तट पर स्थित राजपुर एवं गढ़बोधरा नामक स्थानों से मध्य पाषाण युग के उपकरण खुर्चन यंत्र, अण्डाकार मूठ-छुरा तथा छेदक अस्त्र पाए गए हैं। उत्तर पाषाण युगीन उपकरण चित्रकूट, घाटलोहंगा तथा गढ़चंदेला से मिले हैं। ये उपकरण ब्लेड, स्क्रेपर आदि बहुतायत में मिले हैं। दक्षिण बस्तर से नुकीले बटवाली कुल्हाड़ी भी मिली है।

बस्तर में महापाषाणीय स्मारकों तथा शवाधान काष्ठ स्तम्भ (अलंकरणयुक्त) प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। काष्ठ स्तम्भ का प्रचलन तो आज भी माड़िया जनजाति में पाते हैं जिनके द्वारा शवाधान के समय काष्ठ स्तम्भ गाड़े जाते हैं, जिन पर काफी नक्काशी होती है।

बस्तर जिले की वैदिक कालीन स्थिति का स्वरूप अस्पष्ट है परन्तु महाकाव्यकाल की जो भी थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वह मात्र अनुश्रुतियों एवं पौराणिक कथाओं के माध्यम से पाते हैं। राजा दण्डक के इस क्षेत्र पर राज्य होने से यह क्षेत्र दण्डकारण्य कहलाया ऐसा मानना है कि जिस पर इतिहासज्ञों में मतान्तर भी है।

इसके ठीक काफी अंतराल के पश्चात 5-6 वीं शती के अवशेष इस क्षेत्र में पाते हैं। वैसे भी समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिणपथ विजय में महाकान्तार का सम्बन्ध वर्तमान बस्तर सम्भाग से ही है। कुछ इतिहासकारों ने महाकान्तार के व्याघ्रराज को नलवंशी शासक माना है। वैसे भी नलवंश का प्रमुख केन्द्र उड़ीसा प्रान्त एवं बस्तर का क्षेत्र रहा है। निष्कंटक क्षेत्र होने से सम्भवतः लम्बी अवधि तक इस क्षेत्र पर नलवंशी शासकों ने शासन किया हो। ये शैव धर्मावलम्बी थे जिसकी पुष्टि सिक्कों में नन्दी के अंकन से भी होती है। इस वंश के शासक वराहराज, भवदत्त तथा अर्थपति की 32 स्वर्णमुद्राएं बस्तर के एडेंगा नाम स्थान से मिली हैं, तथा चार अभिलेखों में एक महाराष्ट्र के ऋद्धिपुर, दो उड़ीसा के पोड़ागढ़ तथा केसरीबेड़ा से तथा एक राजिम (रायपुर) से मिला है।

नल राजवंश की सत्ता के पराभव के बाद 11 वीं शती से नागवंश के उत्थान को बस्तर क्षेत्र में पाते हैं ये रतनपुर के कलचुरियों के प्रतिद्वंद्वी थे। ये शासक अपने को छिदक कुल तथा कश्यप गोत्र का मानते थे जिससे इन्हें छिदक नाग भी कहा जाता है। इनकी दो शाखाएं थीं जिनमें एक शैव तथा दूसरी वैष्णव मतावलम्बी थी।

1023 ई.के एर्राकोट स्थान से प्राप्त शिलालेख से इस राजवंश का प्रथम शासक नृपतिभूषण का उल्लेख मिलता है। इन छिंदकनाग शासकों की राजधानी बारसूर थी, जो इनके कला एवं स्थापत्य का भी प्रमुख केन्द्र रही। कुछ वर्ष पहले भैरमगढ़ से छिदकनाग शासक जगदेव भूषण के 6 ताम्रपत्र प्राप्त हुए थे, जिसमें संवत 985 अर्थात 1063 ई. का उल्लेख है। राजपुर ग्राम से भी 1065 ई. का ताम्रपत्र मिला है जिसमें शासक मधुरान्तकदेव का उल्लेख है।

नागवंशी शासकों की इस क्षेत्र पर राजसत्ता 11 से 14 वीं शती तक रही जिसमें धर्म, कला, स्थापत्य की उन्नति हुई। नारायणपाल, बस्तर एवं बारसूर के मन्दिर इसके प्रमाण हैं।

बस्तर से उत्तर दिशा में करीब 125 किलोमीटर स्थित कांकेर (काकरण) राज्य था जो सोमवंशीय शासकों की राजधानी थी। इस राजवंश का प्रथम शासक सिंहराज था फिर व्याघ्रराज, वोपदेव, कृष्ण, जैतराज आदि हुए। इस राजवंश के अभिलेख कांकेर, तहनकापार, दुर्ग जिले के गुरूर एवं रायपुर जिले के देवकूट व सिहावा से मिले हैं। यद्यपि प्रारम्भ में यह राज्य कलचुरियों के अधीन रहा है। इनका काल भी 11 से 14 वीं शती तक रहा है।

लगभग 14 वीं शती के समीप बस्तर क्षेत्र में काकतीय राजवंश का उदय हुआ। इनकी अल्पकालीन राजधानी मधोता नामक स्थान पर थी। अन्नमदेव, हमीरदेव, मयराजदेव आदि कई शासकों ने 19 वीं शती तक यहां राज्य किया।

इस प्रकार बस्तर क्षेत्र के राजवंशों के इतिहास की क्रमबद्ध श्रृंखला पाते हैं। सिक्को, ताम्रपत्रों, शिलालेखों से उनके कार्यों तथा राज्य विस्तार का स्पष्ट अभिज्ञान होता है। कला एवं स्थापत्य में भी उनका योगदान अप्रतिम है। जिनका विवरण निम्नानुसार है-

भोंगापाल
जगदलपुर से 60 कि.मी. उत्तर कोण्डागांव स्थित है, जहां से 51 कि.मी. नारायणपुर तहसील के अन्तर्गत 25 कि.मी. जंगल में ग्राम भोंगापाल के पास एक टीला विद्यमान है जो ईंट निर्मित है। यहां से बुद्ध की आसनस्थ प्रभामण्डल युक्त प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो 5-6 वीं शती ई. की है तथा इसी के समीप नाले के दूसरी तरफ सप्तमातृका प्रतिमा प्राप्त हुई है।

इस स्थल की मलबा सफाई के पश्चात ही वस्तुस्थिति स्पष्ट होगी। परन्तु अभी ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थल पर सिरपुर की तरह बौद्ध बिहार रहा होगा। 

गढ़धनौरा
यह स्थल केशकाल से लगभग 12 कि.मी. दूर गढ़धनौरा स्थित है। यहां किले के ध्वंसावशेष मिले हैं तथा ईंटों के बने शिव मन्दिर के अवशेष शिवलिंग सहित तथा पास ही में चतुर्भुजी विष्णु प्रतिमा मिली है। यहां जगह-जगह ईंटों के टीले हैं। मलबा सफाई के पश्चात् ही सम्पूर्ण वस्तुस्थिति स्पष्ट होगी। अनुमानतः यह शिव मन्दिर व मूर्तियां 8-9 वीं शती ई. की होगी।

बस्तर 
बस्तर ग्राम में प्राचीन शिव मन्दिर है जो ऊंची जगती पर निर्मित है जिसका अधिष्ठान कई मोल्डिंगों में विभाजित है। मण्डप भग्नप्राय स्थिति में तथा मन्दिर के शिखर का आमलक खण्डित अवस्था में है। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। यह मन्दिर 10-11 वीं शती ई. का है।

नारायणपाल
जगदलपुर से करीब 40 कि.मी. दूर इन्द्रावती नदी के तट पर नारायणपाल ग्राम स्थित है। वस्तुतः यह शिव मन्दिर है जो पूर्वाभिमुख है जिसकी जलहरी से निकास हेतु सिंहमुख परिखा बनी है। परन्तु परवर्तीकाल में इसमें विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई गई है। मन्दिर का द्वार अलंकृत, बेसर शैली का उच्च शिखर वाला, ऊंची जगती पर बना है। मन्दिर में प्रवेश द्वार, मण्डप एवं गर्भगृह है प्रदक्षिणापथ नहीं है। मन्दिर का ऊपरी भाग खण्डित है। इस मन्दिर में दो शिलालेख भी लगे हुए हैं। यह मन्दिर 11 वीं शती ई. का वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण इस क्षेत्र में है।

बारसूर
जगदलपुर से 80 कि.मी. दूर बारसूर इन्द्रावती नदी के किनारे स्थित है। इसे मन्दिरों का नगर कहना अतिश्योक्ति न होगी। यहां देवरली मन्दिर जिसका शिखर ढह गया है, चन्द्रादित्य मन्दिर, मामा-भांजा मन्दिर (मूलतः शिवमन्दिर) बत्तीस स्तम्भों पर आधारित खुले मण्डपयुक्त बत्तीसा मन्दिर, गणेश की विशालकाय प्रतिमा तथा ग्राम के दूसरे किनारे एक कक्ष में प्रतिमाएं रखी हैं जिसे दन्तेश्वरी मन्दिर कहते हैं। ये सभी मन्दिर 11-12 वीं शती के हैं।

समलूर
गीदम से समलूर लगभग 12 कि.मी. दूर स्थित है जो दन्तेवाड़ा तहसील के अन्तर्गत आता है यहां प्राचीन शिव मन्दिर है जो स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्रवेशद्वार पर अलंकृत नन्दी व गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर उड़ीसा के मन्दिरों की शैली का बना है।

भैरमगढ़
बीजापुर तहसील से करीब 40 कि.मी. जगदलपुर मार्ग पर भैरमगढ़ स्थित है। यहां एक प्राचीन किले का द्वार तथा अनेक तालाब एवं प्राचीन मन्दिरों के खण्डहर पाए गए हैं। गुमना तालाब के किनारे पेड़ के नीचे गणेश प्रतिमा रखी है। भैरमगढ़ के जंगल में ही लखौरी तालाब के किनारे ध्वस्त मन्दिर के अवशेष मिले हैं जिनमें चन्द्रशिला, भग्न-स्तम्भ तथा प्रतिमाएं हैं जिनमें विष्णु, सूर्य, गणेश, शिव, पार्वती, नन्दी आदि की प्रतिमाएं मुख्य हैं। ये सभी काले पत्थर की निर्मित हैं। यह समस्त प्रतिमाएं चारों ओर बिखरी हैं तथा काफी कुछ भग्नप्राय स्थिति में है। 

भैरमगढ़ में शिवमन्दिर में दो भैरव प्रतिमाएं एक विशालकाय दूसरी छोटी स्थापित है।

माता मन्दिर के पास खेत में एक पंक्ति में करीब 20 प्रतिमाएं रखी हैं ये सभी सैनिक प्रतिमाएं हैं। 

छिंदगांव
यह ग्राम जगदलपुर-चित्रकूट मार्ग पर बण्डाजी से 6-7 कि.मी. अन्दर इन्द्रावती नदी के किनारे स्थित है जहां एक प्राचीन पूर्वाभिमुख शिवमन्दिर भग्नावस्था में स्थित है। तल विन्यास में प्रवेशद्वार अर्धमण्डप, मण्डप एवं गर्भगृह हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है, शिखरविहीन मन्दिर ऊंची जगती पर बना है। मन्दिर की द्वार शाखाएं सादी, ललाटबिम्ब में गणेश का अंकन है। मन्दिर के स्तम्भ चतुष्कोणीय व अष्टकोणीय है। मन्दिर-स्थापत्य की दृष्टि से यह लगभग 12 वीं शती ई. का नागवंशीय शासकों द्वारा निर्मित है। इसके पास ही नवीन मन्दिर में गणेश, नटराज, चामुण्डा एवं नृसिंह हिरण्यकश्यप का वध करते आदि प्रतिमाएं स्थापित हैं।

दन्तेवाड़ा
गीदम से 15 कि.मी. दूर प्रसिद्ध दंतेश्वरी देवी का मंदिर है जो इस क्षेत्र का सर्वाधिक पूजनीय स्थल है। यद्यपि मंदिर के स्थान पर आधुनिक भवन में लकड़ी का जालीयुक्त यह मंदिर है। मां दंतेश्वरी देवी की गर्भगृह में प्रतिष्ठित प्रतिमायुक्त तथा नागवंशी शासकों के शिलालेखों एवं विविध कालों की प्रतिमाओं को इस भवन में प्रदर्शित किया गया है। मंदिर के द्वार पर मानवाकार गरूड़-स्तम्भ अद्वितीय है।

चित्रकूट
जगदलपुर से 40 कि.मी. दूर स्थित चित्रकूट जलप्रपात के पास घुमरकुंडपारा स्थल पर एक भग्नशिव मंदिर को पाते हैं, जिसका केवल गर्भगृह है जिसमें एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। द्वारशाखाओं में नदी देवियों को पाते हैं, जो मंदिरा से अलग है। मंदिर अधूरा है यानि छत का शिखर विहीन है, जिसके अवशेष यत्र-तत्र बिखरे हैं। इनमें एक गणेश प्रतिमा भी है। यह 14-15वीं शती का नलवंशीय शासकों द्वारा निर्मित प्रतीत होता है। चित्रकूट ग्राम के पास खालेपारा में एक नवीन मढ़िया में उमामहेश्वर, हनुमान, स्कन्दमाता, महिषासुर-मर्दिनी, भैरव, योद्धा आदि प्रतिमाएं लगी एवं रखी हैं जो 13 से लेकर 17 वीं शती की हैं।

कुरूसपाल
यह ग्राम भानपुरी से 15 कि.मी. नारायणपाल के समीप है। यहां पूर्व में प्राचीन मन्दिर रहा होगा जिसकी कुछ प्रतिमाएं एक नवीन मढ़िया की दीवालों, अन्दर एवं मढ़िया के परिसर में लगी है। इनमें तीर्थकर, उमा महेश्वर, गणेश, विष्णु, चामुण्डा, सरस्वती, योद्धा, महिषासुर मर्दिनी, कुबेर, नवग्रह पगड़ीधारी राजा आदि प्रतिमाएं प्रमुख हैं, जो 12 वीं से लेकर 18 वीं शती ई. तक की है।

छोटे डोंगर 
नारायणपुर से लगभग 50 कि.मी. बारसूर मार्ग पर छोटे डोंगर नामक ग्राम स्थित है जहां एक प्राचीन मन्दिर के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं तथा सती प्रतिमा एवं देवी प्रतिमाएं मिली हैं। मन्दिर 12-13 वीं शती ई. का प्रतीत होता है।

केशरपाल 
जगदलपुर से करीब 40 कि.मी. दूर भानपुरी से 10 कि.मी. पश्चिम में मारकण्डेय नदी के किनारे केशरपाल ग्राम स्थित है। जहां प्राचीन मन्दिर रहा होगा अब मात्र प्रतिमाएं ही शेष हैं जिन्हें एक नवीन मढ़िया बनाकर उसकी दीवालों में लगा दिया गया है। इन प्रतिमाओं में उमा महेश्वर, कुबेर, महिषासुर मर्दिनी, गणेश, नन्दी, नदी देवी, सैनिक प्रतिमा प्रमुख हैं ये सभी 12-14वीं शती ई. की हैं।

पोषणपल्ली
भोपालपटनम तहसील मुख्यालय से करीब 20 कि.मी. पोषणपल्ली ग्राम है जो चिन्ताबागू नदी के किनारे अवस्थित है। इस स्थल को सकल नारायण नाम से जाना जाता है। यहां नवीन चौकोर मढ़िया में करीब 16-17 प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। जिनकी स्थानीय लोगों द्वारा पूजा की जाती है। इनमें उमा महेश्वर, विष्णु, गणेश, नन्दी, कृष्ण, महिषासुर मर्दिनी मुख्य हैं। जो 10 से 14 वीं शती ई. की हैं। प्रतिवर्ष मार्च माह में यहां एक विशाल मेला लगता है।

इस प्रकार बस्तर जिला प्रागैतिहासिक काल से ऐतिहासिक काल तक विविध रूपों में पुरातत्वीय धरोहरों से प्रभूत सम्पन्न है।

वेदप्रकाश नगायच