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Wednesday, February 2, 2022

छत्तीसगढ़ी - अनेकता में एकता के सूत्र

डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा
‘रचना‘ द्विमासिक पत्रिका का अंक-27, नवंबर-दिसंबर 2000 में प्रकाशित हुआ। छत्तीसगढ़ राज्य गठन काल के इस अंक के अतिथि संपादक डॉ. राजेन्द्र मिश्र थे। अंक में प्रख्यात भाषाविज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा का ‘छत्तीसगढ़ी बोली‘ शीर्षक लेख है। इस लेख के चयनित अंश यहां प्रस्तुत हैं- 

छत्तीसगढ़ी पर ग्रियर्सन के सर्वेक्षण (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, 1904, 1968) का ऐतिहासिक महत्व तो है, पर उन के सहायकों की सीमाओं के कारण उस की प्रामाणिकता पर प्रायः उँगलियाँ उठती रही हैं। यों भी उस कार्य को इस दिशा में पर्याप्त विस्तृत शोधपरक आयाम जुड़ जाने के कारण बासी कहना कोई अपराध नहीं होगा। विस्तृत कार्य-सूची अगले पैरों में दी जाएगी; पहले छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत बोली-रूपों के वर्ग-बंधन की दृष्टि से केवल दो कार्यों की तुलना द्रष्टव्य है। भालचंद्र राव तैलंग ने सन् 1966 ई. के अपने ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन‘ में ग्रियर्सन का ही अनुसरण किया है, जो इस प्रकार है - (1) छत्तीसगढ़ी (अथवा खलटाही अथवा लरिया), (2) सरगुजिया, (3) सदरी-कोरबा, (4) बैगानी, (5) बिंझवारी, (6) कलंगा, (7) भूलिया, परंतु नरेंद्रदेव वर्मा ने इस में संशोधन कर के सन् 1979 ई. में अपने ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘ में विश्लेषण को आगे बढ़ाया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत दो भाषिक-भेद रायपुरी और बिलासपुरी (पार्थक्य की भौगोलिक विभाजक रेखा शिवनाथ नदी को स्वीकार करने के साथ) स्थापित करते हुए खलटाही और लरिया की अलग-अलग निजता सिद्ध की है तथा हलबी (या बस्तरी) को सूची में बढ़ा दिया है। उन्होंने सन् 1961 ई. के जनगणना-प्रतिवेदन में छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत दी गई सोलह मातृभाषाओं का वर्ग-बंधन अपने द्वारा प्रदत्त बोली-रूपों के साथ निम्नानुसार किया है - खलटाही, लरिया, सरगुजिया, बैगानी, बिंझवारी और भूलिया पृथक-पृथक; बिलासपुरी का अंतर्भाव छत्तीसगढ़ी में; काँकेरी का समाहार हलबी (या बस्तरी) में; एवं देवार बोली, सतनामी, गोरो, गौरिया, नागवंशी, पंडो, पनकी और धमदी जातिनामाधारित और स्थाननामाधारित मातृभाषाओं का समावेश अपने-अपने क्षेत्र में प्रचलित प्रमुख बोली-रूपों में। 

छत्तीसगढ़ी पर प्रकाशित भाषिक कार्यों में से आगे की पंक्तियों में केवल समूची पुस्तकों या उन के खंडों में प्रस्तुत कार्यों का कालानुक्रमशः उल्लेख किया जा रहा है - 

‘छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण‘, हीरालाल काव्योपाध्याय (अनु.) ‘ए ग्रामर ऑफ छत्तीसगढ़ी डायलॅक्ट‘, जीए ग्रियर्सन (1890) (मूल ग्रंथ अनुपलब्ध)। 
‘ए ग्रामर ऑफ छत्तीसगढ़ी डायलॅक्ट ऑफ हिंदी‘, लोचन प्रसाद पांडेय (1921)। 
‘लिस्ट ऑफ मोस्ट कॉमन छत्तीसगढ़ी वर्ड्स एण्ड डिक्शनरी‘, ई डब्ल्यू मेनजेल (1939)। 
‘छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, भालचंद्र राव तैलंग (1966)। 
‘छत्तीसगढ़ी बोली, व्याकरण और कोश‘, कांति कुमार (1969)। 
‘छत्तीसगढ़ी का भाषाशास्त्रीय अध्ययन‘, शंकर शेष (1973)। 
‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘, नरेंद्रदेव वर्मा (1979)। 
‘छत्तीसगढ़ी-लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, मन्नूलाल यदु (1979)। 
‘छत्तीसगढ़ी शब्दकोश‘, (सं.) रमेश चंद्र महरोत्रा एवं अन्य (1982)। 
‘छत्तीसगढ़ी और खड़ी बोली के व्याकरणों का तुलनात्मक अध्ययन‘, साधना जैन (1986)। 
‘छत्तीसगढ़ी-मुहावरा-कोश‘, (सं.) रमेश चंद्र मेहरोत्रा एवं अन्य (1991)। 
‘छत्तीसगढ़ी की व्याकरणिक कोटियाँ‘, (सं.) चित्त रंजन कर (1993)। 
‘संकल्प: छत्तीसगढ़ी भाषा विशेषांक‘ (अतिथि सं.) विनय कुमार पाठक (1994)। 
‘छत्तीसगढ़ी में उपसर्ग‘, नरेंद्र कुमार सौदर्शन (1996)। 
‘हिंदी की पूर्वी बोलियाँ‘ (‘छत्तीसगढ़ी‘, रमेश चंद्र मेहरोत्रा) हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़ (प्रकाश्य)। 

छत्तीसगढ़ी के वर्णनात्मक-संरचनात्मक, संवहनात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, व्यतिरेकी, शब्दवैज्ञानिक, नामवैज्ञानिक, बोलीभौगोलिक, समाज-भाषावैज्ञानिक, अर्थवैज्ञानिक और लोकभाषिक आदि विविध पक्षों पर हुए पी-एच.डी. तथा डी.लिट्. स्तरीय शोधकार्यों की अल्पाधिक प्रकाशित-अप्रकाशित सामग्री का संकेतात्मक विवरण इस प्रकार है-
 
‘रायपुर जिले की जनभाषा रायपुरी‘, शीतला प्रसाद वाजपेयी (1968) 
‘छत्तीसगढ़ी-स्वनों और रूपों का उद्विकास‘, नरेंद्रदेव वर्मा (1973)। 
‘छत्तीसगढ़ी-लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, मन्नूलाल यदु (1973); 
‘छत्तीसगढ़ के कृषक-जीवन की शब्दावली‘, पालेश्वर प्रसाद शर्मा (1973)। 
‘मध्यप्रदेश में आर्यभाषा-परिवार की बोलियाँ‘, प्रेम नारायण दुबे (1974)। 
‘द लिंग्विस्टिक स्टडी और नेम्स इन दी डिस्ट्रक्टस ऑफ रायपुर एंड दुर्ग‘, एन.एस. साहू (1975)। 
‘छत्तीसगढ़ी-प्रहेलिकाएँ एवं तदाघृत संस्कृति‘, बिहारी लाल साहू (1975)। 
मुरिया और उस पर छत्तीसगढ़ी का प्रभाव‘, तारा शुक्ला (1976)। 
‘छत्तीसगढ़ी-मुहावरों और कहावतों का सांस्कृतिक अनुशीलन‘, चंद्रवली मिश्र (1976)। 
‘छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिंदी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ-परिवर्तन‘, विनय कुमार पाठक (1978)। 
‘छत्तीसगढ़ी और उड़िया में साम्य और वैषम्य तथा छत्तीसगढ़ी में उड़िया-तत्व‘, ध्रुव कुमार वर्मा (1978)। ‘छत्तीसगढ़ी के अभिलेखों का नामवैज्ञानिक अनुशीलन‘, चित्त रंजन कर (1982)। 
‘छत्तीसगढ़ी में व्यवहृत रिश्ते-नातों से संबंधित शब्दावली का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, सतीश जैन (1983)। 
‘छत्तीसगढ़ी के क्षेत्रीय एवं वर्गगत प्रभेदों के वाचकों की भाषावैज्ञानिक प्रतिष्ठापना‘, व्यास नारायण दुबे (1983)। 
‘छत्तीसगढ़ी-व्यक्तिनामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘ (डी.लिट.), विनय कुमार पाठक (1985)। 
‘मानक हिंदी और छत्तीसगढ़ी के समान शब्दों का अर्थवैज्ञानिक अध्ययन‘, शैल शर्मा (1988)। 
‘छत्तीसगढ़ी-क्रियाओं की व्याकरणिकता‘, रामानुज शर्मा (1994)। 
‘मानक हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी के भेदक तत्वों का अर्थपरक अध्ययन‘, नरेंद्र कुमार सौदर्शन (1995)। 
‘मानक छत्तीसगढ़ी का अर्थपरक अध्ययन‘, पूनम वर्मा (1995)। 
‘अकाउस्टिक डिस्टिंक्टिव फीचर्स ऑफ छत्तीसगढ़ी सॅगमैंटल्स‘ (डी.लिट्.), ए.एस. झाडगाँवकर (1996)। 

छत्तीसगढ़ी की भौगोलिक व्यापकता और प्रयोक्तागत बहुलता के साथ इस के अंतर्गत बहुत-से नाम-रूप सम्मिलित होते गए हैं, जो अलग-अलग उपक्षेत्रों (प्रयोग के स्थानों) के नाम अथवा उन्हें प्रयुक्त करने वाली जातियों के नाम पर आधारित हैं। जनगणना प्रतिवेदनों में छत्तीसगढ़ी के साथ परिगणित मातृभाषाओं की संख्या का और क्षेत्र में प्रचलित अन्य विविध अभिधानों की संख्या का छत्तीसगढ़ी बोली की भाषा विज्ञान-सम्मत उपबोलियों की संख्या के साथ सीधा-टेढ़ा कोई ताल-मेल नहीं बैठता। प्राप्त हुए कुल ‘नामरूप‘ अधिकांश के संक्षिप्त परिचय के साथ इस प्रकार हैं (इन्हें ‘उपबोलियों‘ में निबद्ध बाद में प्रस्तुत किया जाएगा) - 

1. (केंद्रीय-क्षेत्रीय) छत्तीसगढ़ी - इस का प्रयोग पूर्वी सीमांत को छोड़ कर रायपुर और महासमुंद ज़िलों, बिलासपुर और जांजगीर-चांपा ज़िलों के दक्षिणी भाग, दुर्ग और धमतरी ज़िलों, राजनांदगाँव और कवर्धा ज़िलों के पूर्वी भाग, रायगढ़ जिले के पश्चिमी भाग, तथा काँकेर जिले में होता है। ग्रियर्सन ने छत्तीसगढ़ी, खलटाही और खरिया को एक ही माना था। 
2. खलटाही या खलताही या खलवाटी - इस का प्रयोग बिलासपुर, कवर्धा और राजनांदगाँव जिलों के पश्चिमी भागों, मंडला के पूर्वी सीमांत तथा बालाघाट के पूर्वी भाग में होता है। बालाघाट जिले और मैकल पर्वत के लोग छत्तीसगढ़ी को खलौटी या खुलौटी और यहाँ की बोली को खलवाटी बोलते रहे हैं। यह नाम जनगणना-प्रतिवेदन में नहीं है। संभवतः मातृभाषियों ने अपने को सीधे छत्तीसगढ़ी-भाषी बताया होगा। 
3. लरिया या लड़िया - इस रूप का प्रयोग रायपुर और महासमुंद जिलों के उड़िया प्रदेश में प्रविष्ट हुए और होते हुए भागों और संबलपुर के आस-पास होता है। उड़िया-क्षेत्र के लोग छत्तीसगढ़ी को लरिया-प्रदेश और यहाँ की बोली को लरिया नाम से संबोधित करते हैं। 
4. कलंगा - उड़िया से प्रभावित यह रूप रायपुर जिले के पूर्वी सीमांत पर और उड़िसा की सीमा पर पटना में कुछ कबीलों द्वारा व्यवहत किया जाता रहा है। ग्रियर्सन ने इसे छत्तीसगढ़ी की उपबोली कहा था, पर सेंसस में इस का नाम नहीं आया है। कुछ लोग इसे उड़िया के अंतर्गत रखते हैं। 
5. कलंजिया - इस की स्थिति कलंगा के समान है। 
6. कवर्धाई - कुछ लोगों के लिए कवर्धा जिले में बोली जानेवाली छत्तीसगढ़ी कवर्धाई है। 
7. काँकेरी - इस का प्रयोग काँकेर जिले में होता है। छत्तीसगढ़ी का यह रूप हलबी से तथा उड़िया की बोली भतरी से संपर्कित है। 
8. खैरागढ़ी - खैरागढ़ की छत्तीसगढ़ी को कुछ लोग खैरागढ़ी कहते हैं। 
9. गोरो - छत्तीसगढ़ी का यह रूप असम पहुँचे हुए छत्तीसगढ़ी लोगों के द्वारा प्रयुक्त होता है। सेंसस-अधिकारियों ने इसे बोलने वालों की स्लिपों की छान-बीन में यह पाया कि इस के प्रयोक्ता बैगा थे। इस दृष्टि से यह छत्तीसगढ़ी के बैगानी कहे जानेवाले रूप के निकट हुआ। इस पर असमिया का थोड़ा-मोड़ा प्रभाव पड़ जाना स्वाभाविक है। 
10. गौरिया - यह रूप पश्चिम बंगाल में मिला। सेंसस के समय इस के प्रयोक्ताओं में से कुछ ने कोष्ठकों में स्वयं को छत्तीसगढ़ी-भाषी लिखा था। 
11.जशपुरी - यह नाम छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व में स्थित जशपुर जिले की छत्तीसगढ़ी के लिए प्रयुक्त मिलता है। 
12. डंगचगहा या डंगचगही या नटी - यह छत्तीसगढ़ी बोलने वाले मध्यक्षेत्र के यायावर नटों की मातृभाषा का नाम है। 
13. देवार बोली या देवरिया - इस का प्रयोग प्रमुखतः रायपुर, महासमुंद और धमतरी जिलों में देवार जाति द्वारा होता है।
14. धमदी या धमधी - धमदा नामक स्थान दुर्ग जिले में है। धमदी नाम के प्रयोक्ता महाराष्ट्र में बसे हुए वे छत्तीसगढ़ी-भाषी हैं, जिन्हें स्थानीय सूचनाओं के आधार पर सेंसस वालों ने छत्तीसगढ़ीभाषी सिद्ध किया है। 
15. नांदगाही - ‘कहने वाले लोग‘ राजनांदगाँव ज़िले की छत्तीसगढ़ी को नाँदगाही कहने में खुशी महसूस करते हैं। 
16. नागवंशी - इस के बहुत ही कम मातृभाषी हैं, जो सरगुजा ज़िले और रायगढ़ जिले में रहते हुए स्थानीय पूछताछ के उत्तर में स्वयं को छत्तीसगढ़ी-भाषी स्वीकार करते हैं। 
17. पंडो - यह रूप भी मुख्यतः सरगुजा और रायगढ़ में प्रयुक्त होता है। इस के कुछ प्रयोक्ता उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ कर सतना में बस गए हैं।
18. पनकी - इस का प्रयोग-स्थल बस्तर है। 
19. पारधी - इस नाम के साथ छत्तीसगढ़ी के प्रयोक्ता छत्तीसगढ़ के केंद्रीय क्षेत्र में मिलते हैं। 
20. बहेलिया - दुर्ग, राजनांदगाँव, रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा और कोरबा में इधर-उधर छितरी हुई बहेलिया जाति द्वारा व्यवहृत छत्तीसगढ़ी का नाम बहेलिया चलता है। 
21. बिंझवारी या बिंझवाली - इस नाम-रूप का प्रयोग मुख्यतः रायपुर, महासमुंद और रायगढ़ ज़िलों के पूर्वी भागों में तथा उड़ीसा के पटना में बिंझवार, भूमियाँ और भुजिया जातियों द्वारा व्यवहृत छत्तीसगढ़ी के लिए होता है। 
22. बिलासपुरी - इस के भाषी मध्यप्रदेश के बाहर असम, पश्चिम बंगाल और बिहार में भी रहते हैं (देखिए ऊपर क्रमांक 9. गोरो और क्रमांक 10. गौरिया), जो कभी बिलासपुर जिले से वहाँ गए थे।) 
23. बैगानी - छत्तीसगढ़ी की प्राचीन बैगा जनजाति के लोगों के द्वारा प्रयुक्त इस रूप पर गोंडी-शब्दावली तथा बुंदेली के व्याकरण का प्रभाव है। इस के प्रयोक्ता रायपुर और बिलासपुर जिलों से पश्चिम की ओर बढ़ते हुए कवर्धा जिले और बालाघाट तक फैले हैं। 
24. भूलिया उड़िया से प्रभावित इस रूप का प्रयोग रायगढ़ जिले के दक्षिण (सारंगढ़) से उड़ीसा के पटना और आगे सोनपुर तक के जुलाहों द्वारा होता है। इसे कुछ लोग उड़िया के साथ रखते हैं (देखिए ऊपर क्रमांक 4. कलंगा)। सरईपाली इन भाषाओं के लिए प्रमुख प्रवेशद्वार है। 
25. मरारी - यह पश्चिम में बालाघाट की ओर मरार जाति के साथ जुड़ी है। इसे सेंसस में दक्षिणी बघेलखंडी माना गया है। 
26. रतनपुरी - यह बिलासपुर जिले की ऐतिहासिक नगरी रतनपुर के नाम पर संबोधित है। 
27. रायपुरी - रायपुर जिले में व्यवहत छत्तीसगढ़ी के लिए यह नाम कुछ लोगों के द्वारा बिलासपुरी के सादृश्य रख लिया (ऊपर संकेतित पी-एच.डी. शोधग्रंथ ‘रायपुर जिले की जनभाषा रायपुरी‘ द्रष्टव्य)। इस शब्द का प्रयोग सेंसस में नहीं हुआ है। 
28. शिकारी - इस की स्थिति बहेलिया के समान है (देखिए ऊपर क्रमांक 21.) 
29. सतनामी - यह रूप बिलासपुर, जांजगीर-चाँपा, कोरबा, रायपुर, महासमुंद, धमतरी और दुर्ग जिलों में छितरी हुई, स्वयं को उच्च सामाजिक वर्ग का माननेवाली, सतनामी जाति के द्वारा प्रयुक्त होता है। 
30. सदरी-कोरबा - ग्रियर्सन द्वारा छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत मान्य यह रूप जशपुर जिले की कोरबा जाति के द्वारा व्यवहत होता है और यह सरगुजिया के पर्याप्त समान है। इस के भाषी कोरबा जिले में और रायगढ़ जिले के उत्तरी भाग में भी हैं। सेंसस में यह नाम नहीं मिलता, पर अन्य अर्थों में (अन्य भाषा-रूपों के संदर्भ में) सदरी भी मिलता है और अलग कोरबा भी। उस में सदरी का नाम सदान भी देते हुए, उसे बिहारी की एक मातृभाषा स्वीकार किया गया है सदान लोग बिहार और मध्यप्रदेश के छोटा नागपुर पठार के निवासी हैं। सदरी या सद्री या साद्री या सदान या सदानी या टिक्कूबाज़ी को कुछ लोग भोजपुरी के अंतर्गत रखते हैं तथा इस के दक्षिणी रूप को नागपुरी या नगपुरिया कहते हैं। पुस्तकों में यह लिखा मिलता है कि सदरी या नगपुरिया भोजपुरी और छत्तीरसगढ़ी का मिश्रित रूप है (अवधी के छुटपुट प्रभाव के साथ)। सेंसस में अलबत्ता कोरवा है (कोरबा नहीं), जो एकदम भिन्न खेरवारी के साथ है। 
31. सरगुजिया या सुरगुजिया या सुरगुजिहा - छत्तीसगढ़ी के इस रूप पर भोजपुरी के अलावा बघेली का और आग्नेय-परिवार की उराँव का भी कुछ प्रभाव है। ऊपर क्रमांक 30. में संकेत किया गया है कि सदरी-कोरबा इस से पर्याप्त समानता रखती है। इस का प्रयोग सरगुजा कोरिया, जशपुर ज़िलों में और रायगढ़ जिले के उत्तरी भाग में होता है। 
32. हलबी - कुछ लोग इस नाम का प्रयोग बस्तर के संभ्रांत कुल की छत्तीसगढ़ी के लिए करते हैं। कुछ लोग इसे काँकेरी के पर्याय के रूप में प्रयुक्त करते हैं। बस्तर जिले में प्रयुक्त होने वाला यह भाषा-रूप नीचे लिखे गए इस के उपरूपों सहित सेंसस और कुछ लोगों द्वारा मराठी के अंतर्गत रखा गया है। इस के लगभग सब भाषी केंद्रीय छत्तीसगढ़ी या मानक हिंदी या गोंडी की किसी बोली पर अतिरिक्त अधिकार रखते हैं। आगे हलबी से संबद्ध उपरूपों के नामों की सूची और यथा-आवश्यक टिप्पणियाँ दी गई हैं। 
33. अदकुरी या अडकुरी। 
34. चंदारी या चंडारी। 
35. जोगी - संख्या समाप्त प्राय है। 
36. धाकड़ - (सेंसस में नहीं है) 
37. नाहरी। 
38. महरी या मेहरी या मुहारी। 
39. मिरगानी। 
40. बस्तरी या बस्तरिया - कुछ लोग इसे हलबी का एक उपरूप न मान कर पूरी हलबी के लिए प्रयुक्त करते हैं। 
41. कमारी - इसे रसेल और हीरालाल ने छत्तीसगढ़ी में माना है। 

उपर्युक्त बोली-रूपों में से स्थान के आधार पर नामकरण के उदाहरण काँकेरी, जशपुरी, नांदगाही, बिलासपुरी, रायपुरी, बस्तरी और स्वयं छत्तीसगढ़ी आदि हैं तथा जाति के आधार पर नामकरण के उदाहरण कमारी, नटी, बहेलिया, बिंझवारी, बैगानी, मरारी, सतनामी और हलबी आदि हैं। 

यदि छत्तीसगढ़ी से जुड़े सभी स्थान-नामों और जाति-नामों को रद्द करके विविध मतों को मथने के बाद छत्तीसगढ़ी बोली के भाषिक प्रमुख रूप गिनाए जाएँ, तो उस के केवल ये पाँच रूप ठहरते हैं - केंद्रीय, पश्चिमी, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी। छोटे-मोटे भीतरी भेदों के बावजूद ये पाँच आधार-उपबोलियाँ पर्याप्त हैं। भले ही इन्हें स्थान-विशेष या जाति-विशेष के साथ आत्मीय भाव से जोड़ना सुखद और व्यवहारोपयोगी कार्यान्वयन है। लेख में संकेतित कुल 41 नाम-रूपों की उपबोलियों से संलग्नता इस प्रकार है- 

1. केंद्रीय छत्तीसगढ़ी (मानक हिन्दी से इतर बाह्य प्रभावों की सघनता से मुक्त) - कवर्धाई, काँकेरी, खैरागढ़ी, गोरो, गौरिया, केंद्र-क्षेत्रीय छत्तीसगढ़ी (ऊपर क्रमांक 1. में उल्लिखित रूप), डंगचगहा, देवार बोली, धमदी, नांदगाही, पारधी, बहेलिया, बिलासपुरी, बैगानी, रतनपुरी, रायपुरी, शिकारी, सतनामी। (कुल 18; इन में अगुआ - केंद्र-क्षेत्रीय छत्तीसगढ़ी।) 
2. पश्चिमी छत्तीसगढ़ी (बुंदेली और मराठी के तत्वों से संवलित) - कमारी, खलटाही, पनकी, मरारी। (कुल 4; इन में अगुआ - खलटाही।) 
3. उत्तरी छत्तीसगढ़ी (बघेली, भोजपुरी और उराँव के तत्वों से संवलित) - पंडो, सदरी, कोरबा, जशपुरी, सरगुजिया, नागवंशी। (कुल 5; इन में अगुआ - सरगुजिया।) 
4. पूर्वी छत्तीसगढ़ी (उड़िया के तत्वों से संवलित) - कलंगा, कलंजिया, बिंझवारी, भूलिया, लरिया। (कुल 6; इन में अगुआ - लरिया) 
5. दक्षिणी छत्तीसगढ़ी (पश्चिम से मराठी, पूर्व से उड़िया और दक्षिण से गोंडी के तत्वों से संवलित) - अदकुरी, चंदारी, जोगी, धाकड़, नाहरी, बस्तरी, महरी, मिरगानी, हलबी। (कुल 9; इन में अगुआ - हलबी।)

Sunday, January 30, 2022

छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली

छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली संबंधी भाषावैज्ञानिक अध्ययन होता रहा है, अब शब्दकोश और मानकीकरण पर भी जोर दिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 21 जनवरी 2022 को आदेश जारी कर ‘मानक छत्तीसगढ़ी व्याकरण अउ छत्तीसगढ़ी शब्दकोश‘ निर्माण समिति के गठन हेतु सदस्य नामांकित किए गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भाषाविज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा के कुछ महत्वपूर्ण संदर्भों का स्मरण कर लेना आवश्यक है। इनमें से एक ‘छत्तीसगढ़ी बोली‘ शीर्षक लेख है। यह लेख द्विमासिक पत्रिका ‘रचना‘ के अंक-27, नवंबर-दिसंबर 2000 में प्रकाशित हुआ था। इसके साथ ‘देशबंधु‘ से साभार पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी-लेखन का मानकीकरण‘ का प्रकाशन 2002 में हुआ था, सहयोग में डॉ. चित्त रंजन कर, डॉ. केसरी लाल वर्मा तथा डॉ. सुधीर शर्मा का नाम है। अन्य भाषाविद्, साहित्यकारों के साथ यह तीनों ही नाम उक्त समिति के सदस्य नामांकित हैं।

यह उल्लेख समीचीन होगा कि इस बीच डॉ. चित्त रंजन कर ने भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण श्रृंखला में सन 2015 में प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़ की भाषाएं‘ खंड का संपादन किया है। डॉ. केसरी लाल वर्मा भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक जैसे अन्य कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे तथा वर्तमान में पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति हैं। डॉ. सुधीर शर्मा ने भाषाविज्ञान के साथ आयोजन और प्रकाशन के क्षेत्र में भी ख्याति अर्जित की है। समिति में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व सचिव भी सदस्य हैं। साथ ही हल्बी, गोंड़ी और जशपुर के भाषाविदों का भी नाम होना उल्लेखनीय है, जिससे अनुमान होता है कि इस क्रम में छत्तीसगढ़ की अन्य भाषा-बोली के समावेश पर भी विचार किया जाएगा।

छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली और मानकीकरण पर कुछ विचारणीय बातें-

मेहरोत्रा जी के ‘रचना‘ पत्रिका वाले लेख का आरंभ था- ‘छत्तीसगढ़ी‘ को अधिकतर छत्तीसगढ़ी-भाषी ‘भाषा‘ कहना-कहलवाना पसंद करते हैं, पर इस लेख के शीर्षक में इसे ‘बोली‘ लिखा गया है - जान-बूझकर, जिसके अनेक तकनीकी कारण हैं। इसी लेख में आगे है- ‘भाषा बनने के लिए छत्तीसगढ़ी को अपना स्वतंत्र अस्तित्व और भारी-भरकम व्यक्तित्व बनाना पड़ेगा, जैसे हिंदी से अलग हो कर पंजाबी ने बनाया।‘ तथा ‘जिस प्रकार पहले की असमिया बोली बंगला भाषा से अलग हो कर पृथक भाषा बन चुकी है। इस के लिए हमें और हमारी आगामी पीढ़ियों को छत्तीसगढ़ी और मानक हिंदी के आज के रिश्ते को देखते हुए कितना लंबा इंतजार करना पड़ेगा, इसका जवाब कोई नहीं दे सकता। ... अपनी मातृभाषा, अपने परिवार, अपनी जाति, अपने क्षेत्र से लगाव होना बिल्कुल गलत नहीं है। लेकिन ‘लगाव‘ का अर्थ ‘लगाव‘ से अधिक नहीं होना चाहिए। ... छत्तीसगढ़ी आदि को हिंदी से पृथक भाषा मानने का अर्थ है मानक हिंदी के आच्छादक रूप से छत्तीसगढ़ी आदि के अंतरंग संबंधों को नकारना।‘

राज्य गठन के साथ छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी की भावना तीव्र थी इसके चलते मेहरोत्रा जी के इस तकनीकी आधार के विरुद्ध भावनात्मक प्रतिक्रियाएं आईं। संभवतः इसी का परिणाम था कि पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी-लेखन का मानकीकरण‘-2002 के आरंभ में उन्होंने स्पष्ट किया कि हिंदी में भले ही संस्कृत के बहुत-से भाषापारिवारिक तथ्य और लक्षण विद्यमान हैं, पर जिस प्रकार वह ‘संस्कृत नहीं है‘, उसी प्रकार छत्तीसगढ़ी भी अब अपने रास्ते पर इतना आगे बढ़ चुकी है कि यह आज ‘हिंदी नहीं है।‘ तथा आगे लिखते हैं- ‘किसी ऐसे विषय पर अपनी विद्वत्ता नहीं दिखानी चाहिए, जिस में हमारी विशेषज्ञता न हो। ... देवनागरी लिपि को बहुत बड़े विशेषज्ञों ने बनाया/विकसित किया था/है। इस में भाषा-विकास के साथ वर्तनी-संबंधी आवश्यक सुधार भी विशेषज्ञ लोग और उनकी समितियां ही यथासमय किया करती हैं। लेकिन बाहरी नीम-हकीमों की संसार में कमी नहीं है, जिन्हें समझ लेना चाहिए कि सही हकीम बनने के लिए विषय-विशेष के गंभीर अध्ययन और अच्छे अनुभव की आवश्यकता होती है।‘ 

छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा, ‘‘एक विचार यात्रा ... छत्तीसगढ़ ‘जनभाषा से राजभाषा तक‘‘ का प्रकाशन सन 2003 में हुआ। इस पुस्तिका में डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी विभाषा से भाषा की यात्रा‘ शीर्षक लेख में कहते हैं- ‘भाषा विज्ञान के मूर्धन्य विद्वान डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा के तर्क से मैं सहमत हूं कि छत्तीसगढ़ की पुस्तकें, शब्दकोष, तकनीकी शब्दावली, विज्ञान तथा वाणिज्य के ग्रंथों का अभाव है। छतीसगढ़ी का मानक शब्दकोश अभी तक नहीं बन पाया है, जो उपलब्ध है, वह संपूर्ण नहीं है। मानक या परिनिष्ठित छतीसगढ़ी में सृजन के लिए नयी पीढ़ी को तत्पर होना पड़ेगा अन्यथा चिल्लाने या नारे लगाने से भाषा या राजभाषा की क्षमता नहीं बढेगी।‘ इसके बाद आगे लिखते हैं कि ‘वास्तव में अभी छत्तीसगढ़ी लोकभाषा या जनभाषा है, उसे भाषा के रूप में समृद्ध होने के लिए हिंदी से अलग अपना अस्तित्व कम से कम पचास प्रतिशत बनाना होगा। भाषा विज्ञान के अनुसार अभी छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिन्दी परिवार के अंतर्गत ही आती है। वह एक ओर अर्धमागधी की दुहिता, तो दूसरी ओर अवधी, वघेली की सहोदरा है। उसे संस्कृत की लाड़ली दौहित्री कहना अधिक उपयुक्त है- उसे समृद्ध और हिन्दी से अलग अस्तित्व प्रदान करने के लिए हमने क्या और कितना श्रम किया?‘ 

पुनः सन 2001 में रमेश चंद्र मेहरोत्रा की पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी को शासकीय मान्यता?‘ प्रकाशित हुई। इसमें उनके विचार इस प्रकार हैं- ‘छत्तीसगढ़ी को भाषा के रूप में विकसित करने की व्यग्रता का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है, ... बोली की सीमाओं को लाँघ कर भाषा के रूप में दावा कर चुकी छत्तीसगढ़ी को राजकीय कामकाज की भाषा की मान्यता दी जाने की दिशा में प्रयत्न शुरू हो चुके हैं। मेहरोत्रा जी की इसी पुस्तिका में ‘छत्तीसगढ़ी के लिए ‘दिल‘ और ‘दिमाग‘ शीर्षक के साथ उल्लेख है कि ‘यदि हलके-फुलके ढंग से बात करें, तो भाषा और बोली में अंतर करना बच्चों का खेल है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता, जो स्वयं को इस विषय का विशेषज्ञ मान कर इस बारे में अपना निर्णय झपट कर न दे देता हो।‘ इसके आगे उल्लेख है कि ‘भाषा/बोली और राजभाषा‘ शीर्षक के अंतर्गत विभिन्न कोशों का उद्धरण, जिनमें भाषा और बोली को समानार्थी बताया गया है, देते हुए स्पष्ट करते हैं- ‘अब निकालिए सिर खुजला-खुजला कर इन आद्योपांत पराच्छादित अर्थों में से पहले ‘भाषा‘ और ‘बोली‘ का अंतर और उस के बाद जमाइए ‘छत्तीसगढ़ी भाषा‘ और ‘छत्तीसगढ़ी बोली‘ का अपना ‘वाद‘! तात्पर्य कि भाषा और बोली में ठीक-ठीक अंतर नहीं किया जा सकता। इसी पुस्तिका में निष्कर्षतः कहते हैं- ‘इस समय ‘छत्तीसगढ़ी भाषा‘ का मतलब है ‘छत्तीसगढ़ी के केंद्रीय पश्चिमी-उत्तरी-पूर्वी-दक्षिणी सारे रूपों का पारिवारिक संकुल‘ और ‘मानक छत्तीसगढ़ी‘ का मतलब है ‘केंद्रीय छत्तीसगढ़ी का वह मानकीकृत (आदर्शाेन्मुख) रूप, जो छत्तीसगढ़ी भाषा के सर्वक्षेत्रीय बोली-रूपों को संपर्क-बद्ध किए हुए है।‘ 

भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के अध्यक्ष गणेश एन. देवी कहते हैं कि ‘पूर्व औपनिवेशिक काल में भाषा से संबंधित ज्ञान-मीमांसाओं में ‘मानक भाषा‘ तथा ‘बोली‘ के संबंध में किसी भी प्रकार की उच्च-नीचता (पदानुक्रम) नहीं थी। ... उस भाषा को निम्न कोटि कर माना जाने लगा जो मुद्रित स्वरूप में उपलब्ध नहीं थी। वहीं डॉ. चित्त रंजन कर के अनुसार यहां वर्तमान में तिरानवे भाषाएं/बोलियां बोली जाती हैं। 

‘द मारिया गोंड्स ऑफ बस्तर‘ डबलू.वी. ग्रिग्सन 1938, ने गोंडी और उसके व्याकरण अध्येता अंग्रेज अधिकारियों के अलावा, हल्बी को लिंगुआ फ्रैंका- संपर्क भाषा के साथ बस्तर की भाषाई विविधता के लिए बताया है कि सर्किल इंस्पेक्टर चेतन सिंह बस्तर की सभी ‘36‘ भाषाएं जानते थे। 

डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ में लिखा है- ‘सरगुजा जिले के कोरवा और बस्तर जिले के हलबा के साथ कवर्धा के किसी बैगा और सारंगगढ़ के किसी कोलता को बैठा दीजिए फिर इन चारों की बोली-बानी, रहन-सहन, रीति-नीति पर विचार करते हुए छत्तीसगढ़ीयता का स्वरूप अपने मन में अंकित करने का प्रयत्न कीजिये। देखिये आपको कैसा मजा आयेगा!‘ 

ए.ए. मैक्डॉनल की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट्रेचर‘ के हिंदी अनुवाद की भूमिका में भाषा के मानकीकरण के संबंध में ग्रंथ के अनुवादक डॉ. रामसागर त्रिपाठी के विचार महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं कि ‘परिवर्तनशीलता भाषाओं की एक सामान्य प्रकृति है। पिता और पुत्र की भाषा सर्वांश में एक रूप नहीं होती, उच्चारण में कुछ न कुछ अन्तर पड़ जाता है। यह अन्तर पीढ़ियों के व्यवधान से १००-२०० वर्ष में इतना अधिक बढ़ जाता है भाषा का स्वरूप ही बदल जाता है और तब पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों भाषाओं को एक मानना असंगत प्रतीत होने लगता है। जो कालकृत व्यवधान के विषय में कही जाती हैं वही बात स्थानकृत दूरी के विषय में भी कही जा सकती है। एक ही भाषा थोड़ी-थोड़ी दूर में बदलती जाती है और पर्याप्त दूरी तक बढ़ कर अपना नाम रूप खो देती है। ... ... ... यह सारा कार्य भाषा संस्कार के द्वारा सम्पन्न हुआ था, अतः इस भाषा का नाम संस्कृत भाषा पड़ गया। यह समझना भारी भूल होगी कि संस्कृत कभी भी जन साधारण की भाषा थी। जन साधारण की भाषा वही भाषा हो सकती है जिसमें बोलने वालों को अपने ढंग से परिवर्तन कर लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। ... ... ... इस भाषा (संस्कृत) का प्रवर्तन स्थायी साहित्य लिखने के मन्तव्य से ही हुआ था। ... ... ... साहित्य सर्जना की दृष्टि से विचार मरने पर यही एक भाषा अमर भाषा कही जाने की अधिकारिणी है। ... ... ... हजारों वर्ष पहले लिखी वाल्मीकि रामायण को हम आज उसी सरलता से समझ सकते हैं जैसे तत्कालीन विद्वान उसे पढ़ते और समझते रहे होंगे। 

सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया‘ का हिन्दी अनुवाद उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) द्वारा प्रकाशित है। इस सर्वेक्षण में 179 भाषाएं और 544 बोलियां, इस प्रकार कुल संख्या 723 है। इसमें भाषा और बोली के लिए कहा गया है कि ‘साधारण रूप से हम यह कह सकते हैं कि एक भाषा की विभिन्न बोलियों में समानता होती है और उस भाषा को बोलनेवाले उसे समझ जाते हैं किन्तु अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा को ग्रहण करने के लिए विशेष परिश्रम और अध्ययन की आवश्यकता होती है।‘ 

इस भाषा सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ी की चर्चा ‘छत्तीसगढ़ी, लरिआ या खल्टाही‘ शीर्षक अंतर्गत है, जिसके नाम के परिचय में कहा गया है- ‘यह बोली ऊपर दिये हुए तीन नामों में से आमतौर से पहले, छत्तीसगढ़ी अर्थात् छत्तीसगढ़ की भाषा, के नाम से जानी जाती है। बिलासपुर जिला इस क्षेत्र का एक हिस्सा है और यह पड़ोसी बालाघाट जिले में ‘खलोटी‘ के नाम से प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ी, इस परवर्ती जिले के एक हिस्से में भी बोली जाती है और वहाँ यह (छत्तीसगढ़ी) ‘खलोटी‘ क्षेत्र की भाषा, अर्थात् ‘खल्टाही‘ के नाम से जानी जाती है। छत्तीसगढ़-मैदान के पूरब की ओर पूर्वी सम्बलपुर का उड़िया प्रान्त तथा उड़िया की सामन्तीय रियासतें पड़ती हैं। उन क्षेत्रों में रहने वालों के बीच, उनके पश्चिम में स्थित छत्तीसगढ़ प्रदेश ‘लरिया प्रदेश‘ के नाम से प्रसिद्ध है; और इसीलिए उनके यहाँ छत्तीसगढ़ी को ‘लरिआ‘ कहा जाता है।

रमेश चंद्र मेहरोत्रा जी का यह उद्धरण भी प्रासंगिक है- अब देखिए छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ से संबंधित अन्य बोलियों पर चुने हुए पीएचडी और डीलिट् स्तरीय शोधकार्य (इनमें से कई पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं)। छत्तीसगढ़ी रचनाओं और रूपों का उद्विकास (नरेंद्रदेव वर्मा 1973), छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन (मन्नूलाल यदु 1973), छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली (पालेश्वर प्रसाद शर्मा 1973), मध्यप्रदेश में आर्यभाषा परिवार की बोलियां (प्रेमनारायण दुबे 1974), मुरिया और उस पर छत्तीसगढ़ी का प्रभाव (श्रीमती तारा शुक्ला 1976), छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिंदी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ परिवर्तन (विनय कुमार पाठक 1978), छत्तीसगढ़ी और उड़िया में साम्य और वैषम्य तथा छत्तीसगढ़ी में उड़िया तत्व (ध्रुव कुमार वर्मा 1978), छत्तीसगढ़ी में व्यवहृत रिश्ते-नातों से संबंधित शब्दावली का भाषावैज्ञानिक अध्ययन (सतीश जैन 1983), छत्तीसगढ़ी के क्षेत्रीय एवं वर्गगत प्रभेदों के वाचकों की भाषा वैज्ञानिक प्रतिस्थापना (व्यास नारायण दुबे 1983), छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन ( विनय कुमार पाठक, 1985, डिलिट्), मानक हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी के भेदक तत्वों का अध्ययन (नरेंद्र कुमार सौदर्शन 1995), अकाउस्टिक डिस्टिंक्टिव फिचर्स ऑफ छत्तीसगढ़ी सग्मैंटल्स (ए.एस. साड़गांवकर, 1996, डिलिट्)।

ये भी- छत्तीसगढ़ के दोरली लोक साहित्य का भाषापरक अध्ययन (राम जनम पांडे 1971), छत्तीसगढ़ की तेलंगी पर ए डस्क्रिप्टिव अनालिसिस ऑफ द तेलंगी डायलक्ट ऑफ बस्तर (जे. श्रीहरि राव, 1975), छत्तीसगढ़ की दंडामी माड़िया पर ए ग्रामर ऑफ दंडामी माड़िया (केशीनाथ पांडेय 1980), बस्तर के आदिवासियों के नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (शिरीन लाखे 1987), राजनांदगांव के विभिन्न धर्मावलंबियों की धर्म-संबंधी शब्दावली का अर्थवैज्ञानिक अध्ययन (श्रीमती उषा मिश्रा, 1992)।

संभवतः उपर्युक्त कार्यों में किसी सीमा तक परिचित (मुझ से व्यक्तिगत रूप से अपरिचित) आयुक्त जे.आर.सोनी ने संकल्प-रथ (भोपाल) के जुलाई 1999 अंक (छत्तीसगढ़ के साहित्यिक अवदान पर केंद्रित विशेषांक) में लिखा है- डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ अंचल को भाषा विज्ञान से परिचित कराने वाले तथा छत्तीसगढ़ी पर महत्वपूर्ण शोध कार्य करने व करवाने वाले एकमेव प्रणम्य आचार्य हैं।

अब मुझे आगे आने वाले वाक्यों की पृष्ठभूमि के रूप में स्वयं भी यह विनित भाव से लिख देना चाहिए कि ऊपर दी गई सूची का सारा कार्य मैंने ही किया और करवाया है। लेकिन फिर भी यदि कोई दूरदर्शी मुझे छत्तीसगढ़ी का हितैषी नहीं मानता है, तो वह कृताचेता अधिकाधिक स्थूलकाय होने के लिए स्वतंत्र है। उस की चाह है कि छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की राजभाषा अभी बना दिया जाए, क्योंकि उसने छत्तीसगढ़ी की बहुत सेवा की है- वह अपने घर में बीवी-बच्चों से हमेशा छत्तीसगढ़ी में बात किया करता है, बस।

आइए समापन करें। हिंदी की मानक आकृति छत्तीसगढ़ी की विरोधी कतई नहीं है, यह तो अपने ही घर की बड़ी है, यह वृहत्तर समाज में सारे रिश्ते बनाए रखने के लिए यूनिफाइंग फोर्स है, यह कई प्रकार का बोझ अपने कंधों पर लेकर चलने वाली सहयोग सिद्ध गतिशीला है। जिस दिन छत्तीसगढ़ी के कंधे सब प्रकार की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए मजबूत हो जाएंगे, उस दिन यह स्वयं राजभाषा का पद पारंपरिक रूप से संभाल लेगी। वर्तमान पीढ़ियों के लिए पृथक राज्य बहुत बड़ी उपलब्धि और खुशी है, हम भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी कुछ करने और पाने के लिए छोड़ दें।

(छत्तीसगढ़ बोली है, भाषा है या विभाषा है, यह बहस राज्य निर्माण के पहले और दौरान भी जारी थी। 22 अगस्त 2000 को भाषाविद् रमेशचंद्र मेहरोत्रा जी का एक आलेख देशबन्धु में प्रकाशित हुआ था। शीर्षक था- छत्तीसगढ़ी के पक्ष और विपक्ष में।)

कुछ अपनी बात- 
आमजन में यह बहुत प्रचलित, भ्रामक धारणा है कि भाषा के लिए व्याकरण और लिपि आवश्यक है और छत्तीसगढ़ी के साथ यह कमी है। वस्तुतः यह बात ऐसे लोगों के बीच प्रचलित और मानी जाती है, जिन्हें छत्तीसगढ़ी के व्याकरण होने की जानकारी नहीं है साथ ही यह भी कि कोई भी अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति का शब्द-व्यापार व्याकरण के बिना संभव नहीं है। व्याकरण से ही किसी जबान के माध्यम से विचार विनिमय संभव है, जो वक्ता और श्रोता के लिए समान अर्थ देता हो। लिपि, भाषा के लिए आवश्यक नहीं, न ही अनिवार्यता है, ऐसा मानते हुए कुछ प्रयास छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ में प्रचलित अन्य भाषाओं की लिपि बनाने के हुए हैं। किंतु लिपि बनाने के संबंध में विशेषज्ञों की राय उपरोल्लिखित है। यह भी स्मरणीय है कि निजी प्रयासों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग द्वारा भी शब्दकोश तैयार कर, प्रकाशित कराया गया है।

भाषा और बोली के बीच के अंतर को भी विभिन्न प्रकार से विशेषज्ञों ने समझा-समझाया स्पष्ट किया है। किंतु सामान्यतः बोली को हेय, और भाषा को उच्च मान लिया जाता हैै, जैसा छत्तीसगढ़ी के साथ भी हुआ है। ऊपर इसके पर्याप्त उदाहरण आए हैं, जबकि भाषा बनने के क्रम में बोली का लोच चला जाता है। खड़ी बोली के खड़ेपन यानि कम लोच-मधुर होने के कारण ही उसका भाषा बन जाना आसान हुआ। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मानक हो जाने के साथ व्याकरण नियम जितने कठोर होंगे, शब्दार्थ जितने दृढ़ और स्थिर होंगे, अभिव्यक्ति की आयु उतनी बढ़ जाएगी। इसलिए श्रेयस्कर यही होगा कि छत्तीसगढ़ी का मानक स्वरूप ऊपर आए विशेषज्ञों की मार्गदर्शी राय के अनुरूप हो, जो लिखने और व्यापक, तकनीकी इस्तेमाल के लिए हो किंतु बोलचाल की छत्तीसगढ़ी में उसका बोलीपन सुरक्षित रहे।

छत्तीसगढ़ी मानकीकरण पर सोचते हुए एक उदाहरण ‘कर‘ पर ध्यान जाता है। ‘ओ कर‘ का अर्थ हुआ उस का। ‘ओ करऽ‘ यानि वहां पर। ‘ओ कर करऽ‘ यानि उस के पास और ‘ओ कर के‘ यानि वह कर के। यह भी विचारणीय है कि छत्तीसगढ़ी के भाषा-बोली और मानकीकरण की बात जितनी जोर पकड़ती जा रही है, घरों में आपसी बोलचाल से उतनी तेजी से बाहर हो रही है जबकि लिखने तथा माइक पर इसका आग्रह तीव्र हो जाता है, तो भविष्य का अनुमान चिंतित करता है। फिर भी आशा की जा सकती है कि वर्तमान में गठित समिति पूर्व निर्धारित मार्गदर्शी को कार्यरूप में परिणित करेगी साथ ही यह छत्तीसगढ़ी के भाषा व्यवहार को समृद्ध करने में सहायक होगा।