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Friday, January 19, 2024

चंदखुरी

भरोसे पर संदेह हो और भरोसा सच्चा हो तो उस पर किया गया हर संदेह अंततः उसे मजबूती देता है, कमजोर नहीं करता इसलिए अपने संदेहों पर भरोसा रहे कि वे सत्य का मार्ग प्रशस्त करेंगे। सत्य, तथ्यों की तरह जड़ नहीं होता, जीवंत होता है और वह 'सच्चा-सच' है तो उस पर किया गया हर विचार, आपत्ति, उसके सारे पक्ष-कारक, अंततः उसकी चमक बनाए रखने में सहायक साबित होते हैं।

परलोक में भरोसा करने वाले जन-मानस के लिए इहलोक में प्रत्यक्ष और प्रचलित का महत्व कम नहीं होता। कोसल, कौशल्या, भांचा राम, सुषेण पर इसी तरह संदेह-भरोसे से विचार करने का प्रयास है, रहेगा। ध्यान रहे कि रामकथा के ग्रंथों में उसका लोकप्रिय पाठ तुलसीकृत रामचरित मानस है तो शास्त्रीय मान्यता वाल्मीकि रामायण की है, किंतु पाठालोचन के विद्वान इसके कम से कम तीन भिन्न पाठों को मान्यता देते हैं, इन पाठों में भी आंशिक भेद है। माना जाता है कि इसका कारण आरंभ में रामकथा का मौखिक रूप ही प्रचलित रहा, बाद में अलग-अलग लिखित रूप दिया गया। इसके साथ रामकथा और उसकी आस्था के लोक-प्रचलन की बहुलता और विविधता को, उस पर विचार-चिंतन के अवसर की तरह सम्मान करना समीचीन है।

रामलला, अयोध्या के साथ छत्तीसगढ़ में ननिहाल, भांचा राम और इससे संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा फिर से हो रही है। इस क्रम में कुछ आवश्यक संदर्भों की ओर ध्यान दिया जाना प्रासंगिक होगा, इनमें मेरी जानकारी में चंदखुरी में कौशल्या मंदिर के सर्वप्रथम उल्लेख का संदर्भ इस प्रकार है-

The Indian Antiqury, VOL- LVI,-1927 में (राय बहादुर) हीरालाल का शोध लेख 'The Birth Place of the Physician Sushena' प्रकाशित हुआ था। 9 फरवरी 1913 को चंदखुरी में ग्रामवासियों ने उन्हें जलसेना (जल-शयन) तरई के बीच टापू पर रखे कुछ पत्थर बताए, जिन्हें वे बैद सुखेन मान कर पूजते हैं। हीरालाल ने यह भी उल्लेख किया है कि समान नाम के अन्य ग्रामों से इसकी भिन्न पहचान के लिए इसे ‘बैद चंदखुरी‘ कहा जाता है। (एक अन्य चंदखुरी रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर है, जिसमें अब बैतलपुर ग्राम नाम से लुथेरन चर्च के अमेरिकन इवेंजेलिकल मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ-आश्रम है।) इस विषयक मुख्य लेख की पाद टिप्पणी में कौशल्या के मंदिर का नामोल्लेख है।

प्रसंगवश, पुरातात्विक स्थलों के आरंभिक उल्लेख के लिए अलेक्जेंडर कनिंघम के सर्वे रिपोर्ट को खंगालना आवश्यक होता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक कनिंघम ने प्राचीन स्थलों के सर्वेक्षण के लिए 1881-82 में इस अंचल का दौरा किया था, जिसका प्रतिवेदन पुस्तक रूप में वाल्युम-17 में प्रकाशित है। इसमें देवबलौदा, राजिम, आरंग, सिरपुर आदि स्थलों के अलावा आरंग और रायपुर के बीच नवागांव का उल्लेख मिलता है, किंतु चंदखुरी का उल्लेख नहीं है। 1909 के रायपुर गजेटियर में तुरतुरिया के साथ लव-कुश और कोसल का उल्लेख है, किंतु चंदखुरी का नहीं। इसी प्रकार 1973 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर में चंदखुरी का उल्लेख वहां के डेयरी फार्म के संदर्भ में हुआ है, न कि सुषेण या कौशल्या माता के लिए। स्थानीय स्रोतों द्वारा बताया जाता है- ‘तालाब के बीच टापू पर स्थित मंदिर अत्यंत प्राचीन है, जिसके गर्भगृह में रामलला को गोद में लिए माता कौशल्या की मूर्ति है। इस मंदिर का पुनरुद्धार सन 1973 में कराया गया।‘

चंदखुरी स्थित ‘शिव मंदिर‘ को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित करने की अधिसूचना तिथि 5.3.1986 दर्ज है। संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ के प्रकाशन में इस स्मारक का उल्लेख इस प्रकार है-

'राष्ट्रीय मार्ग क्रमांक 06 नागपुर-सम्बलपुर रोड पर 16 कि. मी. पर स्थित मंदिर हसौद से 12 किलोमीटर दूर चंदखुरी गांव में बायें किनारे पर यह स्मारक अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण 10-11 वीं शती ईसवी में हुआ था किन्तु इस मंदिर का अलंकृत द्वार तोरण किसी दूसरे विनष्ट हुए सोमवंशी मंदिर (काल- 8वीं शती ईस्वी) का है। इसकी द्वार शाखाओं पर गंगा एवं यमुना नदी देवियों का अंकन है। सिरदल पर ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी बैठी हुई हैं जिसके एक ओर बालि-सुग्रीव के मल्लयुद्ध एवं मृत बालि का सिर गोद पर रखकर विलाप करती हुई तारा का करुण दृश्य प्रदर्शित है। नागर शैली में निर्मित यह पंचरथ मंदिर है। इसमें मण्डप नहीं है। कुल मिलाकर यह क्षेत्रीय मंदिर का अच्छा उदाहरण है।'

इस विभागीय संरक्षित स्मारक का निरीक्षण 1993 में तत्कालीन प्र. उपसंचालक श्री जी. एल. रायकवार द्वारा किया गया था। श्री रायकवार ने इस स्मारक और स्थल के संबंध में जानकारी दी है कि- 

यह मंदिर मूल रूप से परवर्ती सोमवंशी शासकों के काल में निर्मित है, जिसका कलचुरि शासकों ने करवाया। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। प्रवेश द्वार पर गंगा तथा यमुना का अंकन है। सिरदल पर गजलक्ष्मी तथा धनुष बाण सहित राम लक्ष्मण, बालि सुग्रीव युद्ध, विलाप करती तारा, मिथुन आकृति एवं अंत में अस्पष्ट आकृति है। मंदिर के प्रांगण में पीपल के पेड़ के नीचे अस्पष्ट देव प्रतिमाएं, नंदी, अस्पष्ट देवी प्रतिमा, नागयुग्म, शैवाचार्य, भारवाहकगण तथा स्तंभ पर अंकित भारवाहक आदि की खंडित प्रतिमाएं तथा स्थापत्यखंड रखे हैं।

श्री रायकवार ने यह भी उल्लेख किया है कि इस ग्राम में अनेक प्राचीन सरोवर हैं। मंदिर के निकट के एक सरोवर के मेड़ पर पीपल के पेड़ के जड़ के बीच प्राचीन जलहरी लम्बी प्रणालिका सहित तथा एक आदमकद पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग, फंसी हुई रखी है। खंडित पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग संकलन योग्य है। ग्राम में एक स्थान पर परवर्ती काल के 11 वीं 12 वीं सदी ईसवी के भग्न मंदिर का अवशेष विमान है। इस भग्न मंदिर का अधिष्ठान क्षत-विक्षत होने पर भी आंशिक रूप से बच रहा है। यहाँ पर एक शिवलिंग तथा खंडित नंदी रखा हुआ है। ग्राम के एक घर में खंडित तीर्थंकर की प्रतिमा तथा अत्याधिक क्षरित प्रतिमा रखी हुई है जिसकी ये पूजा करते हैं। चन्दखुरी नाम संभवतः चन्द्रपुरी का अपभ्रंश है। सोमवंशी अथवा कलचुरियों के काल में निःसंदेह यह महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल रहा होगा।
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यहां उपरोक्त जानकारियों की प्रस्तुति का उद्देश्य, कि मूल स्रोत, प्राथमिकी-आरंभिक उल्लेख का विशेष महत्व होता है। साथ ही किसी स्थल विशेष पर विचार करते हुए, वहां से संबंधित दस्तावेज, अभिलेख आदि के साथ उस स्थान की प्रचलित परंपरा, नाम-शब्द, लोकोक्तियां, दंतकथाएं, आस्था का भी न सिर्फ ध्यान रखना आवश्यक होता, बल्कि उनके संकेतों से खुलने वाली संभावनाओं को भी देखना-परखना होता है।

इस दृष्टि से विचारणीय कि छत्तीसगढ़ में ग्राम देवताओं के रूप में सुखेन जैसे नामों में देगन गुरु और परउ बइगा, बहुव्यवहृत और प्रतिष्ठित-सम्मानित है। देगन या दइगन, मूलतः देवगण गुरु अर्थात् वृहस्पति हो सकते हैं। परउ के अलावा अन्य- सुनहर, बोधी, तिजउ, लतेल बइगा जैसे कई नाम लोक में प्रचलित हैं। ऐसा माना जा सकता है कि इन नामों के प्रभावी बइगा, गुनिया, देवार, सिरहा, ओझा हुए, जिनकी स्मृति में थान-चौंरा बना दिया गया, जिसके साथ मान्यता जुड़ गई कि उनका स्मरण-पूजन, उस स्थान की मिट्टी या आसपास की वनस्पति, औषधि का काम करती है।

पारंपरिक-आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र में माधव और वाग्भट्ट का नाम कम प्रचलित है, किंतु चरक, सुश्रुत नाम बहुश्रुत हैं। महाभारत में अश्विनीकुमार-द्वय से उत्पन्न वैद्य-चिकित्सक के रूप में जुड़वा नकुल-सहदेव का नाम आता है, उसी तरह रामकथा के संदर्भ में योद्धा, धर्म नामक वानर के पुत्र और वालि (बालि) के श्वसुर सुषेण की प्रतिष्ठा है, जिसने अमोघ शक्ति प्रहार से मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी (के साथ विशल्यकरिणी, सावर्ण्यकरिणी जैसे नाम भी मिलते हैं।) के लिए हनुमान को भेजा था। इस आधार पर संभव है कि चंदखुरी में कोई प्रसिद्ध वैद्य हुआ हो, वहां रामकथा-प्रसंग का शिल्पांकन है ही तो उस वैद्य को सम्मान सहित याद करने के लिए उसे रामकथा के वैद्य सुषेण जैसा मानते याद किया जाने लगा हो।

इस प्रकार प्राचीन शिव मंदिर के शिल्पांकन में रामकथा के प्रसंगों के साथ एक अन्य स्थिति पर विचार भी आवश्यक है। कौशल्या के प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण सामान्यतः प्राप्त नहीं होते और कहीं हों तो सुस्थापित नहीं हैं। इसी तरह की स्थिति रामलला के साथ है। राम शिल्प में सामान्यतः द्विभुजी, धनुर्धारी दिखाए जाते हैं, मगर उनके बालरुप के लिए विशिष्ट प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण का अभाव है। अतएव किसी नारी प्रतिमा के साथ शिशु रुप की प्रतिमा की पहचान कौशल्या और राम के रूप में की जा सकती है, विशेषकर तब यदि वह शिशु लिए हो और अंबिका का रूप न हो साथ ही तब विशेषकर, जब ऐसा शिल्पांकन रामकथा के अन्य प्रसंगों के साथ उपलब्ध हो।

इसी तरह चंदखुरी स्थल के प्राचीन शिव मंदिर के सिरदल पर रामकथा का बालि-सुग्रीव प्रसंग संबंधी शिल्पांकन, राम की सेना के वानर योद्धा सुषेण, जो बालि के श्वसुर भी हैं और वैद्य भी, इसलिए मूर्तिशिल्प में वानरमुख आकृति की पहचान बालि, सुग्रीव, हनुमान की तरह सुषेण के रूप में की जा सकती है। तो इस स्थान को कौशल्या माता और वैद्य सुषेण से संबद्ध करने का मूर्त आधार इस तरह भी संभव है।

नाम साम्य की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के अन्य ग्रामों कोसला, कोसलनार, केसला, कोसिर, कोसा और मल्हार से प्राप्त ‘गामस कोसलिय‘ अंकित मृण-मुद्रांक और मल्हार से ही प्राप्त महाशिवगुप्त बालार्जुन के ताम्रपत्र में आए नाम कोसलनगर की चर्चा भी अप्रासंगिक न होगी। साथ ही चंदखुरी नाम पर विचार करते हुए, मरवाही के पड़खुरी, पथरिया के बेलखुरी, बसना के भैंसाखुरी के साथ इसी नाम के अन्य ग्रामों को भी संदर्भ में रखना होगा तथा यह भी उल्लेखनीय है कि जनगणना रिपोट में इस गांव का नाम Chandkhuri नहीं बल्कि Chandkhurai (चंदखुरई?) इस तरह दर्ज है। स्मरणीय कि महाभारत के वनपर्व में उल्लिखित (दक्षिण) कोसल के ऋषभतीर्थ की पहचान सक्ती के निकट स्थित स्थल गुंजी-दमउदहरा से निसंदेह की जाती है। इसी तरह वायु पुराण के मघ-मेघवंशी कोसल नरेशों के नाम वाले प्राचीन सिक्के मल्हार से प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध, प्रयाग-प्रशस्ति में दक्षिणापथ विजय क्रम में पहले जिन दो राज्यों का नाम आता है, वे कोसल और महाकांतार हैं।
मल्हार से प्राप्त आरंभिक इस्वी सदी का
ब्राह्मी ‘गामस कोसलिया‘ अभिलिखित मृण-मुद्रांक

इन कथा-मान्यताओं का आधार यहां शिल्प में तलाशने का प्रयास है, उसी तरह यहां ऐसे शिल्प की रचना किए जाने के आधार में, इस स्थल का रामकथाभूमि होने की संभावना को बल मिलता है। स्थानीय अन्य जानकारियों और पार्श्व-परिप्रेक्ष्य की संबंधित कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर आस्था सम्मत इतिहास की छवि के समग्र रूप को निखार सकने की प्रबल और व्यापक संभावना यहां है।