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Saturday, May 19, 2012

देंवता-धामी

टांगीनाथ

जैसे लोगों ने टांगीनाथ-टांगीनाथ कहते है, उसमें एक जन्दगनी मुनी का आसरम था, उसका एक लड़का परशुराम था। जन्‍दगनी मुनी ने पूरे बिस्‍वा का राजा लोगों को या प्रजा तन्त्र को पार्टी में बुलाया और राजा महाराजा लोग एवं प्रजा तन्त्र को भोजन खिलाया पिलाया। उस समय राजा महाराजा लोग सोचने लगे कि इस छोटी सी कुटिया में कहां से इतना भोजन पानी की बेओस्था कि इतना आदमी को कहां से खिलाया पिलाया। हम लोगों से नहीं होने पाता। ऐसा सोचने लगे। उसके बाद जन्दगनी मुनी से पूछने लगे। मुनी ने बताया कि मेरे पास एक यही साधन है कि मेरे पास एक कामधेनु गाय है। उसी के जरिये से ए सब बेओस्था हुआ है, ऐसा कहा। उस समय राजा महाराजा लोग जन्दगनी मुनी से उस गाय को मांगने लगे तो जन्दगनी मुनी ने उस गाय को देने में इन्कार कर दिया। उस समय राजा महाराजा लोग जन्दगनी मुनी से युद्ध करके गाय को ले गये। लेकिन राजाओं के पास गाय नहीं रहा। गाय सिधे स्वर्ग चला गया। इस के पश्चात मुनी ने गाय के शोक से 21 बार जमीन और छाती को छु कर अपना प्राण को त्याग दिया। इसके पश्चात उनके पुत्र परशुराम जी ने तपस्या से घर लौट कर आया। घर आकर अपनी मां से पूछा कि मां पिता जी कहां है। मां बोली- पुत्र, पिताजी स्वर्ग सिधार गये, तो फिर से दुबारा पूछा तो मां बोली 21 बार जमीन एवं छाती को छूकर प्रणाम किया, उसके बाद प्राण त्याग दिया, ऐसा उत्तर दी। उस समय परशुराम जी ने सोचने लगा की ए छत्रियों का काम है। तब परशुराम जी ने अपना फरसा द्वारा राजाओं का संघार किया। जिसमें सामंत राजा भी सम्मलित था। सामंत राजा का छती ग्रस्त हो गया। उस समय उनके रानियां बावड़ी में डूब कर प्राण त्याग कर दिये।
प्राचीन रानी बावड़ी, डीपाडीह, सरगुजा 

गुरूमंत्र

1. सात मोर, मैं धरती, ग्रबधारी, परस पखारी। शेष नाग, बासु नाग। दियारानी, भुकू रानी। जलईर फुलइर, जलयांजइन, जल चितावइर, परस्साआंजइन। भले भूकूर मान। गुरू के दोहाई। अकाश पताल, नौ खण्ड, नौ दिन। पावन पानी, ब्रम्हा बिशनु, मुड़ महेशर। भाभी भगवान, हलुमान सिंग के हलके लागे, भिमसिंग के बल लागे, तन जागे, मन जागे। गुरू के दोहाई ।
2. डेगन गुरू, माधो मंत्री, भंइफर गुरू, सोखा गुरू, ढिंठा गुरू, भोजा गुरू, बाप गुरू, बाघु गुरू, धन्नु गुरू, मंगरा गुरू, डेगन गुरू, डेगन गुरूवाईन। पंडा गुरू, नउंरा गुरू, कोतका गुरू, लाउर गुरू, भाउर गुरू, जगत गुरू, भगत गुरू। तन जागे, मन जागे, गुरू जागे, गुरूवाइन जागे, जल जागे, थल जागे, जागे जागे, चेला का पिड़ जागे।
3. गुरू-गुरू, कोन गुरू। गुंगा गुरू, करेरा, घुमेरा, दस गुरू बाजल गुरू। मनोझा, भुत लंडी के मनाइदे, सिखाइदे, पढाई दे। दिन के घोंख, राईत के सापन दे।

हाकनी मंत्र

1. सामंत राजा, सामंत रानी। गढ़ राजा, गढ़ रानी। कोठी मंजगांव, टांगीनाथ, कारू सुन्दर, गाजीसींग करिया, दानो दइता। मरगा के भइसासुर, खटंगा के खटांगी दरहा, सिरकोट के भलवारी चंडी, रांची के रंजीत दरहा, मायन पाठ के जोड़ा दरहा, ससरवा के गेन्दा दरहा, जमुरा के जमदरहा, कुसमी के जोंजों दरहा। भुलसी के जन्ता पाठ, बकसपुर के गढ़वा पाठ, हर्री के गर्दन पाठ। चैनपुर के अंधारी देवता, मंगाजी के चांवर चंडी, सिधमा चंडी, पाठ चंडी, पलयारिन चंडी। केंवटा गुरू, सिता बंदुरवा, डिल्ली गोरया। लंका के हलुमाबिर, कोठली के दुवरिया देंवता, छोटे पवई के सतबहीनी, बोड़ो के घोड़ा देंवता, करासी के सुपढाका, भलुत के कोही खोह। सराइडीह के घिरयालता, साधु सनयासी, गम्हारडीह के बेनवाआरख, बेनवा देवता।
2. उदरापुर, जनकपुर, रामगढ़ के बहियां ठेंगाबन, बिजलीबन, लोहेकबान चक्रे मारे, खपरे डाले। लागे बन, भागे भुत। हमर बान ना लागे। राजा दशरथ का बान, संख बाजे काल भागे, लोहे के तारी बाजे।
3. मना गड़ा, मनाजित हिरी, तोरा बीरी, तोरा पितरमा, सुरमख चंडी। सेसे टुटे, भंइसी फुटे, टुइट परबा, गोहाइर परबा। छांई देबा, छत्र देबा, बल देबा, सहाय देबा।
4. महरी के तातापानी, मुरघुट्टा कांटू के मचंगा। बिरदांचल भवानी। आई तोला, काईला कोरवा। अनमाझी, धाइनमाझी, उसंगमाझी, हाटी माझी। धावलागढ़ के नौमन का टंगा भंजइया, सोरोमन के पृथवी छुवइया, देवतन के हंकार होथय।
5. पलामु के इराईचंडी, बादनचंडी, शेंसचंडी, पाइल झाईल, ईजंलचंडी। कुइलीसारी, कुइली माता, घांट चंडी, घुमर चंडी, रोस्दाग चंडी, डोल चंडी, दिल्ली चंडी, पटना के चोरहा चंडी। जैसे गुन बान चोराले, तइसे गुन बान चोराई के, भंजाइके लानले, तइसे चेला के, चौरीया के, पढ़ाई ले, सिखाइ ले।
6. बरवे के छोरी पाठ, भोज पाठ, छत्तर पाठ। डामे-डमुवा, लोहाडा पियांगुर। दस भौजी, महामाई, पांउरा पंवरी, पंउरा दरहा। गांगपुर गंगलाही, रतनपुर रतनाही, केसलपुर केसलाही, हेगलाजमुती, फुलमुती, सदा भवानी के जोहाइर।
7. सुरगुजा के नाथलदेवी, परतापपुर के गादे गिरदा, पाटनपुर के पाटन देवी, रूसदाग के बाउरा, टिम्पु के बछड़ा।
8. उचमोर, चान्द माई, गोवालीन, उगेडाइन, छपित होय। चलेराम के बेरा, धरम के घेरा। बाग छला, डासल है, आसन माई बईठल है। धरी धरा, लगन धरा, लगन बछा। आइज-बाइज लागल है। तावन के लाई निकास करा।
9. सांगिन धरा। सिंगितोरा, गांव साजा, बनफोरा। दिल्लीसाजा, परवत साजा। अनरानी धनरानी, हिरारानी, काजररानी, बाजरानी, काजररानी, अनराजा, धनराजा, हिराराजा।
10. पईलकोट, पाईलपानी, कोड़ाहाक, डांड़राजा। छतिसो, राम लक्ष्मण के छड़ीधर, धरती को सेवकदार, सेवा बरदारी, कईर के, ठोंईक ठठाई के, निकास करा। बापा धारा, पुतर न छोड़ाबे।
11. चलगली के लोंगा पोखईर, घांठ दरदा, घुम्मर दरहा, रोको दरहा, पोको दरहा, झांपी दरहा, पिटी दरहा, गुंगा बीर, डोंगा दरहा, अंधाइर सिकर दरहा। सन्मुट के जोड़ा दरहा, बोखा तला के हिरा दरहा, कवांई के जमदरहा, चलिमां के मना दरहा, कुसमी के जोंजो दरहा, जमुरा के जाम दरहा।
12. चलगली के बेसरा पाठ, रानी छोड़ी जनता पाठ, अयारी के धनुक पाठ। बिरया के सालो भवानी, सरिमा के सागर, पटना के जादो बिर, काउडूमाकड़। जोरी के जारंग पाठ, अनाबिरी, हर्रइया पाठ, भिंजपुर के छत्र पाठ, लोहाडांक, पियांगुर। दस भावजी, महामाई। पांउरा-पांउरी, पांउरा दरहा। गांगपुर गंगलाही, निर पांगुर, परियादेव। नेयाय करे, पत्थल फारे, करा पत्थर। बहींया केसरगढ़ बहींया, भंइसी नागपुर, पांचो बीर, पांचो बहान। कल्यक के राकस पाठ, मैनी के अरगर पाठ, डेमसुला मुटकी के धोवा पाईन। झगराखण्ड, खंड़ो के भलुवारी। देवड़ी के जोड़ा सराई, जशपुर के गाजीसिंग करिया, दिल्ली के गोरया, लंका के हलिमानबिर, मदगुरी के गोरेया। महादानी, छोटे महादान, बडे़ महादान। चेंग-बेंग, डमगोड़ी, डंगाही, नपरगढ़ चन्दागढ़, झिली-मिली। डोंगा दरहा, डोंगादाई, चौंराभांवरा, टुइट परबा। छांई देबा, छत्तरदेबा, बलदेबा, सहायदेबा।
13. कोरम के माछिन्दर नाग। तेज नाग, भोज नाग, कमल नाग, बिशेसर नाग, टांगी नाग। जय-जय भवानी, सिंग सवारी। धानी मुण्डा, जागरित करो, अन्याय। आईद भवानी, करस कलयानी, तीनोंमाता, दुखा डन्डा, काटाहीं, जबकी फन्दा बैठाहीं। गढ़हे राजा, जोपरानी। गढ़हे परी, सुमरते सुमरते, सकल छकल पड़ी। पोक सारती, बिजकपुरी, रमाईन, पहालाद गुरू के सुमरते सुमरते, अपर भवानी, जापर भवानी। टकटकी मलमली, बथाबाई, पिराबाई, लंगड़ी देवी, ठोठी देवी, चपका माता, खुरहा माता।
14. पुर्ब के शोखा, पछिम के भगत, नौलक देवी, नौलक भवानी, अबरी भवानी, छबरी भवानी, चान्द भवानी, सुरज भवानी, हस्सामुखी भवानी, पंड़वा भवानी। सियादम्मा, खिखी माता, लोकखण्डी, जगती भवानी। कलकत्ता के काली मांई, बनारस के बुढ़ी भवानी, उदरगढ़ के उदरगढ़नी माता, सारंगगढ़ के सारंगगढ़नी माता, चलगली के महामइया, डिपाडीह के समलाई देवी, चम्मुण्डा देवी।

गुरूवट

1. गुरू गुरू हंकारालो। गुरू नाहीं सुने रे। गुरू मोरे कहां चली गेल। माये गुरवाईन मोर, गुरू मोरे कहां चाली गेल।
2. तोय नाहीं जानले। चेला ना बेटा मोर। तोरे गुरू बन्खंडा सेवे के गेल। चेला ना बेटा मोर तोरे गुरू बन्खंडा सेवे के गेल।
3. बारो बारिसा गुरू बन्खंडा सेवाय रे। तेरो बारिसा गुरू घर फिरी आय। गुरू गोसाइया मोर तेरो बारिसा गुरू, घर फिरी आय।
4. धरमा का बिदिया के हेरदय समाय रे। पापी का बिदिया के गंगा धंसाय। चेला ना बेटा मोर, पापी का बिदिया के गंगा धंसाय।
5. गुना कारणने बेटा गेलो हरादीपुर, तबो बेटा गुन नाहीं पालो। चेला ना बेटा मोर। ताबो बेटा गुन नाहीं पालो।

टीप

टांगीनाथ, किस्‍सा सरगुजा के कुसमी-झारखंड सीमा में प्रचलित, यहां यथासंभव उन्हीं शब्दों में प्रस्तुत है।
गुरू मंत्र और हांकनी मंत्र, ओझाई काम के लिए मन में पढ़े-दुहराए जाते हैं।
गुरूवट, गीत हैं, जिसे सूप में चावल लेकर, उससे ताल देते हुए गुरू गाता है और शिष्‍य दुहराते हैं, इसका प्रभाव रोमांचक, सम्‍मोहक होता है।

सन 1988 से 1990 के बीच मेरा काफी समय सरगुजा में बीता, इसी से जुड़ी मेरी पिछली तीन पोस्‍ट डीपाडीह, टांगीनाथ और देवारी मंत्र की यह एक और कड़ी है इसलिए वहां आ चुके संदर्भों को यहां नहीं दुहरा रहा हूं। इसमें कुछ याद से, कुछ नोट्स से और कुछ फिर से पुष्टि करते हुए दुरुस्‍त किया है। वर्तनी और भाषा, यथासंभव वैसा ही रखने का प्रयास है, जिस तरह यहां प्रयोग में आती है। इस क्रम में सब देवों, गुरुओं के साथ कुछ अन्‍य स्‍मृति-उल्‍लेख आवश्‍यक हैं- डीपाडीह के पड़ोसी गांव करमी के सुखनराम भगत, पिता श्री सरदारराम, दादा श्री ठाकुरराम की व्‍यापक युग-दृष्टि से मुझे प्रेरणा मिलती रही, तब उनकी आयु 100 वर्ष से अधिक बताई जाती थी और वे विधान सभा के प्रथम आम चुनाव के अपने चिह्न के कारण सीढ़ी छाप वाले के रूप में भी जाने जाते थे। यहां आई सामग्री का अधिकांश, उरांव टोली, डीपाडीह के मनीजर राम से प्राप्‍त हुआ। यहीं के निरमल, पल्टन, कलमसाय जैसे कई सहयोगी मेरी इस रुचि के पोषक बने। तेजूराम और जगदीश ने इसे दुरुस्‍त करने में मदद की है। सभी के प्रति आदर-सम्‍मान।

Friday, December 23, 2011

देवारी मंत्र

मंत्रः अवलोकन-विवरण

सरगुजा जिले के कुसमी अंचल में देवारी (ओझा, बइगा, गुनिया, सिरहा) यानि इलाज, झाड़-फूंक सिखाने के पारम्परिक केन्द्र हैं। इन केन्द्रों के प्रति आस्था और सम्मान किसी वेदपाठशाला जैसा ही होता है। ऐसा एक केन्द्र डीपाडीह ग्राम के उरांव टोली में संचालित था, जिससे जुड़े लोग बताते कि प्रशिक्षण लगभग छः माह में पूरा किया जा सकता है, किन्तु आमतौर पर एक वर्ष का समय लगता है। मंत्रों को अच्छी तरह समझ लेने, फिर ध्यान लगा कर सीखने में प्रशिक्षण का प्रारंभिक ज्ञान कम समय में भी कराया जा सकता है।

प्रशिक्षण पूरा होने पर नागपंचमी/अमावस्‍या को दीक्षान्त होता है और फिर गुरु की अनुमति पाकर ही मंत्रों का उपयोग किया जा सकता है। जर-बुखार ठीक करने के लिए किसी का बुलावा आने पर प्रशिक्षित व्यक्ति को अनिवार्यतः फूंकने जाना होता है, और इसलिए बुलावा देने के पहले पास-पड़ोस से पता कर लिया जाता है कि देवार को/उसके घर कोई अड़चन-समस्‍या तो नहीं है। दूसरी तरफ, पहल पीडि़त पक्ष की ओर से होना चाहिए, यानि बिना औपचारिक बुलावा के पहुंचकर मंत्रों का प्रयोग असरदार नहीं होता। गुरुओं की सहमति से उनके शिष्यों ने प्रशिक्षण और मंत्रों के बारे में बताया, उन्होंने सचेत किया कि बिना गुरु के इन मंत्रों का अभ्यास, गंभीर परेशानी में डाल सकता है (आगे पढ़ने वाले भी इस बात का ध्यान रखें)-

प्रशिक्षण का आरंभ धाम बांधने से होता है। इसके लिए बेंत की छड़ी, लोहड़गी यानि लोहे की छड़ी, आंकुस यानि अंकुश, त्रिशूल, शंख, कुल्हाड़ी, लोहे का हथियार- गुरुद, सिंगी आदि की जरुरत होती है। प्रशिक्षण के दौरान बगई का कोड़ा बनाया जाता है, जिससे गुरु प्रतिदिन चेले को एक-एक कोड़ा मारते हैं और धाम बांधने के मंत्रों से अभ्यास आरंभ कराते हैं।

धाम बांधनी का मंत्र-
पूरब के पूरब बांधौं, पच्छिम के पच्छिम बांधौं, उत्तर के उत्तर बांधौं, दक्खिन के दक्खिन बांधौं, पिरथी चलै पिरथी बांधौं, अकास चलै अकास बांधौं, पताल चलै पताल बांधौं, दाहिना चलै दाहिना बांधौं, बायां चलै बायां बांधौं, आगे चलै आगे बांधौं, पीछे चलै पीछे बांधौं, माये धीये डाइन चलै, डाइन बांधौं, बाप बेटा ओझा चलै, ओझा बांधौं, हमर बांधल गुरु क बचन, हमर बांधल, बारहों बरस, तेरहो जुग रहि जाय।

बांधनी के बाद गुरु मंत्र का अभ्यास किया जाता है-
गुरु मंत्र- गुरु गुरु बूढ़ा गुरु, जन्तर गुरु, माधो गुरु, दइगन गुरु, सीधा गुरु, अंधा गुरु, आइद गुरु, बइद गुरु, औलाद गुरु, मवलाद गुरु, केंवटा गुरु, महला गुरु, डोमा गुरु, बछरवा गुरु, चनरमा, सुरुज नराएन के लागे दुहाई।
गुरु क मान, गुरु क तान, गुरु क पांव, पंयरी, जहां बइठे, गुरु-गुरुआइन, तार-तरवाईर, छांई करे, गुरु देयाल, उदुरमा, पान-फूल, पगास, नया पाठ, करो मसान, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ, जतन के लगे दोहाई।

इसके पश्चात्‌ मुख्‍यतः दो प्रकार के मंत्रों का अभ्यास किया जाता है। मंत्रविद्ध करने के अर्थ में बांधनी के मंत्र और बुरी शक्तियों को दूर करने के लिए हांकनी के मंत्र। इन दोनों प्रकार के मंत्रों के उदाहरण निम्न हैं-

बांधनी मंत्र- घोट-घोट, बज्जर घोट, फुलकारी, लागे तारी, ससान लय, मसान गेलय, देखे गेलय, भैरव पाठ, नाइनी काठ, दूर भैल, लई इवों, बज्जर खेलों। भाज-भाज, भाजत पुर, दूत-भूत करो कपास, साइठ सरसों, सोरों धान, हथे गुन, मसान छई, देखे गेलें, भैरो पाठ, नाइनी काठ, दूर भयल।
बज्जर बज्जर, बज्जर बांधौं, रिंगी-चिंगी, सात क्यारी, चंडी चेला, सेकर पीछे लाप लीता, देखाल भूत, बंधाल हावै, कौन-कौन बैमान, चकरल, लिलोरी, ठिठौरी, मानुस देवा, बाल पुकरिया, पोको दरहा, करो मसान, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई।
छोट मोट भेरवा, जमीन जाय, जगहा जाय, असामुनी जाय, इन्द्रन बेटी, गोहारी जाय, इन्द्रन बेटी, मयर पूत, फोरो गाल, ढउरा ढेड़ी, उड़ि जाबे डैना तोड़ों, रिंग जाबे गोड़ तोड़ों, उलट देखबे आइंख फोरों, पलट देखबे कपार फोरों, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई। पुरुब के पुरुबइया, पच्छिम के सोंखा, नौ सौ कोरवा, दस सौ बिरहर के लागे हांक।

हांकनी मंत्र- कलकत्ता के काली मांई, लोहरदग्गा के लोहरा-लोहराइन, बदला के मुड़ा-मुड़ाइन, कसमार के घींरू टांगर, पांच पूत, पांचो पंडा के लागे दोहाई।
ठुनुक-ठुनुक करे बीर, हथ कटारी हाथे काटी, टूटे एरंडी, बादी भूत के टूटे हाड़, जै मुठ मारौं तोर गुरु लवा-तीतर, मोर गुरु छेरछा बादी, उड़ि जाबे डैना तोड़ों, बइठ जाबे डांडा तोड़ों, रिंग जाबे गोड़ तोड़ों, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई।
ओटोम दरहा, पोटोम दरहा, ठूठा दरहा, लंगडा दरहा, अंधा दरहा, खोरा दरहा, रूप दरहा के लागे परनाम।
उसुम तुसुम, भास मुद्‌दुम, तोन झोन तोर नोन, गरहाई लागल ठाढ़, चैंतिस बांधे के बन्धे, गुरु बन्धे, गुरु क बचन हम बांधे, बारहों चेला, हमर बांधल, बारों बीस, तेरों जुग रहि जाय, कभी हमर बचन न छूटे, भगत गुरु के लागे दोहाई।

गुन काटौं, काटौं गुन के रेखा, चढ़ल खाटी, उतरल जाय, पानी पथ बिलास करै, धर लाएं, लुटु-पुटु, धर लाएं, अपन कान, छड़न बादी, उड़लही बान, सायगुन बान, खैरा अपन गुन बान, राइख के का करै, तार काटे, तरगुन काटे, राम काटे, लखन काटे, धरम काटे, धरमात काटे, बानी चक्कर बान काटे।
झम-झम झमलई, सात समुंदर, सोरो धार, हाड़ खाए, मांस गलाए, नहीं माने, पाप-दोख, भूत-बैताल, धारा झौंटा, पीठ में लाठी, डंडे रस्सी, गल्ला फांसी, गोड़ में बेड़ी, हाथ में जंजीर, मुंह में तब्बा लगाइके, मनाइ के, समझाइ के, बुझाइ के, सुझाइ के, ए भूत के लइ बाहर कर, संकर गुरु के लागे परनाम।

परा-परा ठुठी पीपर, आवथीक, जाथीक, जम जाल, हिरा जाल, रेंगा जाल, केंवटा बीरा, जाले मारी, ले चली, ओकासी, ढेंकासी, आलो सुनी, पालो सुनी, डगर भुला, कंपनी, जंपनी, दे तो हरदी गुन्डा, धोआ चाउर, हमर चिन्ता, आवथीक, जाथीक, ठाढ़ कर देथव, सिद्ध गुरु के लागे परनाम।
जाय फार दादी बाजे, जाग डुमुर बाजथीक, लीली घुरी कारी नाचै, आप को बंडा ठेठेर, बिरजा धर लोचनी सम्पताल गेलाएं, डाकिन डुबाइतो, भंवरा बतास, नगफिन्नी, मछिन्दर गुरु के लागे परनाम।
उल्टा सरसों, पंदरों राई, मारौं सरसों टूटे बान, काली देबी कलकल करे, रकत मांस भोजन करे, नहीं माने पाप-दोख धारा झौंटा, पीठे लाठी, डंडे रस्सी, गल्ला फांसी, गोड़ में बेड़ी हाथ में धारा जंजीर लगाई के ए भूत बाहर कर।
छोट काली, बड़ काली हांक जाय, डांक जाय, कंवरू जाय, पटना जाय, असाम जाय, नहीं माने पाप-दोख, मनइ के, बुझइ के, लइ बाहर कर। पेराउ के झलक डाइर, मलक डाइर, सेन्धो रानी, बेन्धो रानी, दिया रानी, भुकु रानी, कजर रानी, चरक रानी, डिंडा रानी लागे परनाम।

इसी प्रकार के ढेरों मंत्रों के साथ सुमरनी गीत भी होते हैं। वाचिक परम्परा के मंत्र ज्यादातर साफ उचारे नहीं जाते, मन में दुहराए जाते हैं या बुदबुदाए जाते हैं, इन्हें शब्दशः लिखने के प्रयास में उच्चारण फर्क के कारण अशुद्धि स्वाभाविक है, इसलिए सब देव-गुरुओं से माफी-बिनती, दोहाई-परनाम।

देवारी बिद्‌या के गुरु जिरकू बबा, नगमतिया गुरु घन्नू बबा और बइदकी बिद्‌या वाले बइजनाथ बबा, इन तीनों का संरक्षण हम सबको 1988 से 1990 के दौरान सरगुजा प्रवास में मिलता रहा। डीपाडीह के ही लाली सेठ, कासी-दुधनाथ साव, रामबिरिछ, प्रेमसाय, करमी के सुखन पटेल, जसवंतपुर के जगत मुन्नी भगत मुन्नी (यानि स्वयं को भक्त और मुनि कहने वाले जगतराम कंवर) और इसी गांव के निवासी सांसद, प्रखर नेता लरंग साय जी, अंबिकापुर के टीएस बाबा जी,... सब के सब न सिर्फ हमारे काम में दिलचस्पी लेते, बल्कि संबल होते। उरांव टोली और बस्ती तो पूरी लगभग साथ ही होती दिन भर। पुराने टीलों में सांपों का डेरा होता, दिन में हाथियों का, शाम ढलने पर भालुओं का आतंक अक्सर बना रहता और इस देवस्थान के चारों ओर भटकती दृश्य-अदृश्य शक्तियां (जैसा लोग बताते) हमें सदा घेरे रहतीं, लेकिन हम इस पर्यावरण से लाभान्वित, स्वस्थ्य और बेहतर (निसंदेह सुरक्षित) वापस लौटते।

टीलों को खोदते हुए पुराने मंदिर अनावृत्त हुए, मूर्तियां जैसी हजार-हजार साल पहले तब रही होंगी हमें वैसी की वैसी भी मिलीं। मुझे हमेशा लगता है कि उन मंदिर-मूर्तियों की तरह ही ऊपर लिए नाम और कई चेहरे जो अब गड्‌ड-मड्‌ड हैं, आज भी वैसे ही होंगे, काल-निरपेक्ष। ज्यादातर चेहरे अब साफ याद नहीं, इसलिए जानता हूं कि मेरे विश्वास की रक्षा हो जाएगी और सारे लोग मुझे जस के तस मिलेंगे, हमलोगों के लिए अपना अकारण स्नेह-संरक्षण यथावत्‌ परोसते।

मंत्रः विश्‍लेषण-व्‍याख्‍या

तथ्य, आंकड़े और सूचना जुटाना, वैज्ञानिक अध्ययन प्रक्रिया की आरंभिक आवश्यकता होती है, जिन्हें छांट कर, वर्गीकृत कर, क्रमवार जमाने के प्रयास में निष्कर्ष स्वतः उभरने लगते हैं। गणित जैसे प्राकृतिक विज्ञानों में भी निष्कर्षों में संशोधन-परिवर्धन संभव होता है, अपवाद भी निष्कर्ष-नियम का हिस्सा बन जाता है बल्कि यह तक कहा जाता है कि अपवाद ही नियमों को पुष्ट करते हैं। सामाजिक विज्ञानों में प्राथमिक निष्कर्षों के साथ अन्य कारक/दृष्टिकोण से और कभी समय के साथ, नई जानकारियों से यानि निवेश, और प्रक्रिया में फर्क आने से निर्गत परिमार्जित होता रहता है और कई बार फैसले उलट भी जाते हैं।

यह जानकारी इसी दृष्टि से संकलित और यहां प्रस्तुत है। प्राथमिक निष्कर्ष बस इतना कि वैदिक ऋचाओं जैसे ही प्रतिष्ठित इन मंत्रों में प्रकृति, परिवेश, आस्था के आलंबन और केन्द्र व्यापक रूप में शामिल हैं। स्वाभाविक ही ऐसा प्रयोग मात्र अनुकरण कर किया जाना, जोखिम का हो सकता है। इनके पाठ-अभ्यास-प्रयोग में शायद इसीलिए वैदिक मंत्रों की तरह निषेध भी हैं। यह उस परिवेश की जीवन पद्धति का अनिवार्य हिस्सा माना जा सकता है और अपने अंचल की परम्पराओं को जानने और उनमें संस्कारित होने के लिए उक्त मंत्रों के साथ प्रशिक्षित-दीक्षित होना उपयोगी जान पड़ता है।

पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्र से जादू-टोना, तंत्र-मंत्र से जुड़ी आकस्मिक घटनाओं की खबरें मिलती हैं, लेकिन कथित उन्‍नत-सभ्‍य समाज में व्याप्त कर्मकाण्ड और दुर्घटनाओं की तुलना में, गंभीरता और संख्‍या दोनों दृष्टि से यह नगण्य है। समाज को गायत्री मंत्र, हनुमान चालीसा, सुंदरकांड का पाठ, सत्‍यनारायण की कथा और महामृत्‍युंजय जाप से जैसा संबल मिलता है, दूरस्थ और अंदरूनी हिस्सों में संभवतः इन आदिम मंत्रों का वैसा ही प्रयोग दैनंदिन समस्याओं की उपचार विधि (काउंसिलिंग-हीलिंग सिस्टम) के रूप में होता है, जिसमें सार्वजनिक स्तर पर अव्याख्‍यायित तौर-तरीकों के अनुभव-सिद्ध परामर्श और जड़ी-बूटी, औषधियां भी हैं। स्वाभाविक है कि दीर्घ संचित इस ज्ञान को बिना समझे अंधविश्वास मान कर, संदिग्ध/खारिज करना स्वयं एक तरह का अंधविश्वास होगा। इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल और केरल इंस्टीट्‌यूट फार रिसर्च, ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट आफ शेड्‌यूल्ड कास्ट्‌स एंड शेड्‌यूल्ड ट्राइब्स, कोझीकोड़ (कालीकट) जैसी संस्थाएं, इसे उपयुक्त सम्मान दिया जाना आवश्यक मान कर, इस दिशा में सक्रिय हैं।

पांच-एक साल पहले कहीं सुना- ''नम म्‍योहो रेन्‍गे क्‍यो''। साल भर से यह रायपुर में भी सुनाई पड़ने लगा है। इस बीच सुपर माडल मिरांडा केर, निचिरेन बौद्ध धर्म अपना कर खबर बनीं। पता चला कि यह बौद्ध धर्म के जापानी गुरु निचिरेन दैशोनिन द्वारा प्रवर्तित स्‍वरूप वाली प्रार्थना है और अब सोका गक्‍कई या सोका गाकी संगठन के माध्‍यम से क्रियाशील है। यह मंत्र मूल भारतीय बौद्ध धर्म के सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र (अंग्रेजी में प्रचलित लोटस सूत्र) से आया कहा जाता है। संभवतः मूल प्राकृत भाषा (मागधी-पाली प्रभावयुक्‍त) के संस्‍कृत रूप को चीनी में अनुवाद किया गया, जो बरास्‍ते जापान वापस यहां आया है। इतनी भाषाओं, लिपियों, लोगों और समय से गुजरने के बाद भी यह मंत्र असर दिखा रहा है, जबकि इसके ठीक उच्‍चारण के लिए भी पर्याप्‍त अभ्‍यास जरूरी है और मंत्र का अर्थ पूछने पर तो मंत्र-साधकों की परीक्षा ही हो जाती है।

मैं सोच में पड़ा कि असरदार-प्रभावी क्‍या होता है? शब्‍द, शब्‍दों के अर्थ और उनसे बनने वाले भाव? उनका उच्‍चारण, उच्‍चारण से उत्‍पन्‍न होने वाली ध्‍वनि? मंत्र-द्रष्‍टा और साधक की परस्‍परता, समूह/समष्टि-बोध या और कुछ?... असर होता भी है या नहीं? यदि नहीं तो ऐसे मंत्र कायम क्‍यों हैं? क्‍या प्रभावी, मंत्र नहीं हमारी आस्‍था है? 'अनमिल आखर अरथ न जापू...', शायद अपरा से परा हो जाने की प्‍लुति में छुपा है यह रहस्‍य? ऐसे प्रश्‍नों का उत्‍तर बारम्‍बार तलाशा गया होगा, लेकिन यह ऐसी राह है जिसकी तलाश ''मंत्रः व्‍याख्‍या/निष्‍कर्ष'' स्‍वयं के जिम्‍मे ही संभव हो सकती है।

उदय प्रकाश की पंक्तियां याद आती हैं-
इतिहास जिस तरह विलीन हो जाता है किसी समुदाय की मिथक-गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य रोगों से हार कर अंत में
जैसे लौट जाती हैं किसी आदिम-स्पर्श या मंत्र में।

संबंधित पोस्‍ट - डीपाडीह और टांगीनाथ

Sunday, December 11, 2011

योग-सम्मोहन एकत्व

सम्मोहन- शक्तिशाली, मोहक और भेदक संकेत है। सम्मोहन- दृढ़ता, अधिकार और विश्वास से की गई प्रार्थना है। सम्मोहन- आश्चर्यजनक, जादुई क्षमता वाला मंत्र है और सम्मोहन- दृढ़ संकल्प और आज्ञा के साथ दिया हुआ आशीर्वाद है। बिलासपुर निवासी ओ.के. श्रीधरन की पिछले दिनों प्रकाशित पुस्तक- ''योग और सम्मोहन'', एकत्व की राह'' का उपरोक्त उद्धरण अनायास सम्मोहन के प्रति सात्विक आकर्षण पैदा करता है और वह भी विशेषकर इसलिए कि इसमें सम्मोहन के साथ योग के एकत्व की राह निरूपित है।

भारतीय धर्मशास्त्र के तंत्र, मंत्र, वामाचार जैसे शब्दों में सम्मोहन भी एक ऐसा शब्द है, जिसके प्रति सामान्यतः भय, आतंक और संदेह अधिक किन्तु आस्था और अध्यात्म की प्रतिक्रिया कम होती है और सम्मोहन को गफलत पैदा करने वाला जादू, वह भी काला जादू मान लिया जाता है। इस परिवेश और संदर्भ में पुस्तक का विशेष महत्व है।

अंगरेजी में लिखी मूल पुस्तक का यह हिन्दी अनुवाद सुप्रिया भारतीयन ने किया है, जिसे भारतीय विद्याओं की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित संस्था 'भारतीय विद्या भवन' ने सु. रामकृष्णन् के प्रधान संपादकत्व में भवन्स बुक युनिवर्सिटी के अंतर्गत प्रकाशित किया है। पुस्तक के मुख्यतः दो खंड हैं- पहला, 'योग' सर्वांगीण विकास के लिए और दूसरा, योग और सम्मोहन, दोनों खंडों की विषय-वस्तु, खंडों के शीर्षक से स्पष्ट है। पुस्तक के तीसरे खंड, 'दर्पण' के अंतर्गत परिशिष्ट दो हिस्सों में संक्षिप्त गद्य और कविताएं हैं, जो निःसंदेह गहन चिंतन के दौरान लब्ध भावदशा के विचार-स्फुलिंग हैं।

प्रथम खंड में योग-दर्शन और उद्देश्य की सारगर्भित प्रस्तुति के साथ सभी प्रमुख आसनों, बन्ध, प्राणायाम और ध्यान का सचित्र निरूपण किया गया है। इस स्वरूप के कारण यह खंड योग में सामान्य रुचि और जिज्ञासा रखने वालों के साथ-साथ, वैचारिक पृष्ठभूमि को समझ कर आसनों का अभ्यास करने वालों और योग के गंभीर साधकों के लिए एक समान रुचिकर और उपयोगी है।

द्वितीय खंड के आरंभ में ही लेखक ने योग और सम्मोहन को स्पष्ट किया है- ''गहन एकाग्रता की चरम स्थिति अर्थात् 'ध्यान' और सम्मोहन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि दोनों में ही एकाग्रता की गहन स्थिति प्राप्त कर वाह्य जगत से ध्यान हटाकर चेतना की एक विशेष परिवर्तित स्थिति प्राप्त की जाती है।'' संस्मरणात्मक शैली में लेखक ने अपने बचपन, अपनी साधना, अनुभव और अविश्वसनीय लगने वाली घटनाओं का विवरण दिया है। कुन्ञकुट्टी का फिर से जीवित हो जाना, पोन्नम्मा की मूर्छा, भारती कुट्टी का सदमा और सम्मोहन के रोचक प्रयोगों जैसी स्थानीय और केरल में घटित घटनाओं में पात्र, स्थान आदि की स्पष्ट जानकारी होने से विश्वसनीयता में संदेह की संभावना नहीं रह जाती, किन्तु घटनाओं की वस्तुस्थिति और विवरण लेखक स्वयं के दृष्टिकोण से हैं। इस दृष्टि से अविश्वसनीय चमत्कारों का एक पक्ष यदि मानवता के लिए किसी विद्या या विधा-विशेष का कल्याणकारी पक्ष है तो इसके दूसरे नाजुक पक्ष, अंधविश्वास से पैदा होने वाले खतरों और सामाजिक बुराइयों को नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता।

'दर्पण' खंड के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरणों का उल्लेख यहां समीचीन होगा। माया और भ्रम का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा गया है- 'सत्य का अस्तित्व केवल हमारी कल्पना और विचारों में है क्योंकि यह तथ्यों के अनुरूप होने की एक विशेषता मात्र है।' 'मानवीय बनो' शीर्षक के अंतर्गत समग्रता और एकत्व के लिए 'मानव को एकाग्रता की उस चरम स्थिति को प्राप्त करना पड़ता है-जहां वह प्रकृति से एकाकार करता है।' कथन प्रभावशाली है।

इसी खंड के परिशिष्ट - 2 की सात कविताएं, काव्य गुणों से पूर्ण और गहन होते हुए भी सहज निःसृत लगती हैं, अनुमान होता है कि ये रचनाएं श्रीधरन की प्रौढ़ साधना के दौरान उपलब्ध अनुभूतियां हैं, जहां उनका साधक मन, सृजनशील कवि मन से स्वाभाविक एकत्व में अक्सर ही कविता की लय पा लेता है।

अनूदित होने के बावजूद भी, पूरी पुस्तक में विषय अथवा भाषा प्रवाह में व्यवधान नहीं खटकता, जो अनुवादिका के दोनों भाषाओं पर अधिकार और विवेच्य क्षेत्र में उसकी पकड़ का परिचायक है, लेखक की पुत्री होने के नाते लेखक-मन को समझना भी उनके लिए आसान हुआ होगा। पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण और विषय तथा प्रकाशक की प्रतिष्ठा के अनुकूल है। मेरी जानकारी में भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित बिलासपुर निवासी किसी व्यक्ति की यह प्रथम पुस्तक है। आशा है हिन्दी पाठक जगत इस कृति का स्वागत करेगा और लाभान्वित होगा।

सन 2002 में प्रकाशित इस पुस्‍तक पर मेरी संभवतः अप्रकाशित टिप्‍पणी, संकलित कर रखने की दृष्टि से यहां लगाई गई है, इसलिए टिप्‍पणियां अपेक्षित नहीं हैं।