''मोर मन बसि गइल
चल चली सरगुजा के राजि हो''
उड़ान भरने वाले बताते हैं कि सरगुजा का हिस्सा, मध्य भारत का सुंदरतम हवाई दृश्य है और आरंभिक परिचय में ही कहावत सुनने मिल जाती है- ''मत मरो मत माहुर खाओ, चले चलो सरगुजा जाओ'' यानि हालात मरने जैसे बदतर हैं, जहर खाने की नौबत आ गई है, तो सरगुजा चले जाओ। आशय यह कि जहर खाने और मरने की बात क्यों, सरगुजा जा कर जीवन मिल जाएगा, लेकिन इसकी अन्य व्याख्या है कि मरना हो तो जहर खाने की जरूरत नहीं, सरगुजा चले जाओ काम तमाम हो जाएगा, ''जहर खाय न माहुर खाय, मरे के होय तो सरगुजा जाये।''
चल चली सरगुजा के राजि हो''
उड़ान भरने वाले बताते हैं कि सरगुजा का हिस्सा, मध्य भारत का सुंदरतम हवाई दृश्य है और आरंभिक परिचय में ही कहावत सुनने मिल जाती है- ''मत मरो मत माहुर खाओ, चले चलो सरगुजा जाओ'' यानि हालात मरने जैसे बदतर हैं, जहर खाने की नौबत आ गई है, तो सरगुजा चले जाओ। आशय यह कि जहर खाने और मरने की बात क्यों, सरगुजा जा कर जीवन मिल जाएगा, लेकिन इसकी अन्य व्याख्या है कि मरना हो तो जहर खाने की जरूरत नहीं, सरगुजा चले जाओ काम तमाम हो जाएगा, ''जहर खाय न माहुर खाय, मरे के होय तो सरगुजा जाये।''
खिड़की के शीशे से पार आसमान और क्षितिज देखते, टेलीविजन से होते हुए मोबाइल फोन की स्क्रीन पर सिमटती दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का दौर है, तब इस जमीनी हकीकत का अनुमान मुश्किल हो सकता है कि अंबिकापुर से राजपुर-रामानुजगंज की ओर बढ़ते ही जैसे नजारे होते हैं उनके लिए आंखों के 180 अंश का फैलाव भी कम पड़े, अकल्पनीय दृश्य विस्तार, व्यापक अबाधित क्षितिज रेखा से दृष्टि-सीमा का अनूठा रोमांच होने लगता है। मौसम खरीफ का हो तो जटगी और उसके बाद राई-सरसों के पीले फूल के साथ अमारी-लकरा भाजी के पौधों की लाली से बनी रंगत शब्दों-चित्रों से बयां नहीं हो सकती और फिर बीच-बीच में पवित्र शाल-कुंज, सरना की घनी हरियाली...
प्राकृतिक-भौगोलिक दृष्टि से सरगुजा, मोटे तौर पर पूर्व रियासतों कोरिया-बैकुण्ठपुर, चांगभखार-भरतपुर, सरगुजा-अम्बिकापुर और जशपुर या वर्तमान संभाग सरगुजा का क्षेत्र है। यह अंचल पठारी भौगोलिक विशिष्टता पाटों- मुख्यतः सामरीपाट, जोंकापाट, जमीरापाट, लहसुनपाट, मैनपाट, पंडरापाट, जरंगपाट, और कुछ अन्य तेंदूपाट, छुरीपाट, बलादरपाट, अखरापाट, सोनपाट, लंगड़ापाट, गरदनपाट, महनईपाट, सुलेसापाट, मरगीपाट, बनगांवपाट, बैगुनपाट, लाटापाट, हरीपाट से भी जाना जाता है। ढोढ़ी जलस्रोत और खासकर कोरिया जिले में धरातल तक छलकता भूमिगत प्रचुर जल है तो तातापानी जैसा गरम पानी का स्रोत और सामरी पाट का उल्टा पानी जैसा दृष्टि भ्रम है। कोयला और बाक्साइट जैसे खनिज और वन्य जीवन-वन्य उत्पादों से भी यह भूभाग जाना गया है।
जनजातीय समाज, जिसमें सभ्यता के विकासक्रम की आखेटजीवी, खाद्य-संग्राहक, कृषक, गो-पालक से लेकर सभ्य होते समूहों में प्रभुत्व के लिए टकराव की स्मृति और झलक एक साथ यहां स्पष्ट है। रियासती दौर, 'टाना बाबा टाना, टाना, टोन, टाना' वाले ताना भगत, इसाई मिशनरी, कबीरपंथी, तिब्बती, गहिरा गुरू, राजमोहिनी देवी और एमसीसी जैसी धाराओं के समानान्तर सरगुजा में हाथियों की आमद-रफ्त व प्रकृति के असमंजस को माइक पांडे ने 'द लास्ट माइग्रेशन' ग्रीन आस्कर पुरस्कृत फिल्म में, मिशनरी गतिविधियों को तेजिन्दर ने 'काला पादरी' उपन्यास में, अकाल और जीवन विसंगतियों को पी साईंनाथ ने 'एव्रीबडी लव्स अ गुड ड्राउट' रपटों के संग्रह पुस्तक में तो याज्ञवल्क्य जी ने एक रपट में यहां और समग्र रूप में समर बहादुर सिंह जी, डा. कुंतल गोयल, डा. बजरंग बहादुर सिंह ने लेख/पुस्तकों में दर्ज किया है।
इस अंचल की सांस्कृतिक अस्मिता, समष्टि में सोच और घटनाओं को स्मृति में संजोए, झीने आवरण की पहली तह के नीचे अब भी वैसी की वैसी महसूस की जा सकती है, मानों उसमें हजारों साल घनीभूत हों। बस जरूरत होती है खुले गहरे कानों की, फिर आसानी से आस-पास के कथा-स्रोत सक्रिय हो कर उन्मुख हो जाते हैं, सहज बह कर उसी ओर आने लगते हैं।
उत्तर दिशा में बहता बर्फ से ठंडे पानी वाला पुल्लिंग नद कन्हर, बायें पाट से आ कर मिलती गुनगुनी-सी सूर्या (सुरिया) और कुछ आगे चल कर गम्हारडीह में बायें ही डोंड़की नाला और दायें पाट पर गलफुला (माना जाता है कि इस नदी का पानी लगातार पीते रहने वालों का 'घेंघा' रोग से गला फूल जाता है) का संगम। इनके बीच कन्हर के दायें तट पर शंकरगढ़-कुसमी के बीच बसा डीपाडीह।
सन 1988 में यहीं, ठंड में अलाव पर जुटे, जसवंतपुर निवासी कोरवा समाज के मंत्री श्री जगदीशराम, तथा श्री थौलाराम, कोषाध्यक्ष, दिहारी द्वारा देर रात तक सुनाई गई कहानी, जिसमें बताया गया कि कोल्हिन सोती में बारह रुप वाला देवी का पुत्र पछिमहा देव, बैल का रूप धरकर, जशपुर की उरांव लड़की को छिपा दिया फिर लखनपुर जाकर 700 तालाब खुदवाया फिर ब्राह्मणी पुत्र टांगीनाथ ने उसका पीछा किया तो वह भागकर सक्ती होकर कुदरगढ़ पहुंचा, वहां बूढ़ी माई ने उसकी रक्षा की। पछिमहा देव ने दियागढ़, अर्जुनगढ़, रामगढ़ आदि देव स्थानों को सांवत राजा सहित आना-जाना किया, लेकिन कन्हर से पूर्व न जाने की कसम के कारण रुक गया।
पछिमहा देव और टांगीनाथ की कथा कुसमी क्षेत्र, छत्तीसगढ़ सहित महुआडांड-नेतरहाट क्षेत्र, झारखंड में तीन-चार प्रकार से सुनाई जाती है, जिनमें पछिमहा देव को टांगीनाथ का पीछा करते हुए जशपुर या सक्ती की सीमा तक पहुंचने का जिक्र आता है। पछिमहा देव को इसी क्षेत्र में विवाहित या यहां की स्त्री से संबंधित किया जाता है। पछिमहा देव और टांगीनाथ की पहले मित्रता बाद में अनबन बताई जाती है। पछिमहा देव को सांवत राजा द्वारा सहयोग देना और फलस्वरूप टांगीनाथ द्वारा सांवत राजा को नष्ट करना तब पछिमहा देव का विभिन्न देवी-देवताओं की शरण में जाकर सहयोग की याचना और अंततः नदी के किनारे लखनपुर में पछिमहा देव का प्रवास तथा नदी (रेन?) पार न करने की कसम दिये जाने से कथा समाप्त होती है।
सांवत राजा या सम्मत राजा छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व सरगुजा अंचल में स्थित ग्राम डीपाडीह के प्राचीन स्मारक-स्थल का नाम है। यह पारम्परिक पवित्र शाल वृक्ष-कुंज, सामत-सरना कहा जाता है। सांवत राजा के रूप में परशुधर शिव की प्रतिमा दिखाई जाती है, प्रतिमा में वस्तुतः शिव, परशु पर दाहिना पैर रखकर खड़े प्रदर्शित थे, किन्तु वर्तमान में दाहिने पैर का निचला भाग टूटा होने से माना जाता है कि टांगीनाथ ने इस सांवत राजा के पैर काट दिए हैं और टांगी यहीं छूट गई है।
परशु-टांगी धारण की सामान्य मुद्रा, उसे कंधे पर वहन किया जाना है, आज भी सरगुजा और बस्तर के अन्दरूनी हिस्सों में प्रचलन है। लेकिन यहां परशु आयुध, विजयी मुद्रा शिव की इस भंगिमा में 'फुट-रेस्ट' है (हिंस्र शक्तियों पर विजय का प्रतीक?) सामत राजा के सेनापति- सतमहला का मोती बरहियां कंवर और झगराखांड़ बरगाह ने टांगीनाथ से बदला लेने का प्रयास किया। (सतमहला के पुजारी रवतिया जाति के हैं) रेन पार न करने की कसम, किसी संधि-प्रस्ताव का परिणाम है?
टांगीनाथ (परशुराम या शिव का कोई रूप, किसी स्थानीय प्राचीन शासक या जनजाति समूह के नायक की स्मृति?) नामक ईंटों के प्राचीन शैव मंदिर युक्त पहाड़ी पर स्थित स्थल, ग्राम-मंझगांव, थाना-डुमरी, तहसील-चैनपुर, जिला-गुमला, झारखण्ड में हैं। यहां के श्री विश्वनाथ बैगा ने भी इसी तरह की कहानी बताई। इस कहानी में त्रिपुरी कलचुरियों के किसी आक्रमण की स्मृति है? त्रिपुरी (जबलपुर) जो डीपाडीह से सीधी रेखा में पश्चिम में है (पछिमहा देव) या परवर्ती काल के सामन्त शासकों, अंगरेजों, जनजातीय कबीलों या सामंत और कोरवाओं से संघर्ष की स्मृति है? ऐतिहासिक विवरणों के आधार पर कथा-क्षेत्र के पूर्व-पश्चिम, पलामू-छोटा नागपुर और बघेलखंड की 18-19 वीं सदी की घटनाओं का स्मृति-प्रभाव भी संभव जान पड़ता है।
धनुष-बाण, कोरवाओं की जाति-उत्पत्ति कथा के साथ उनसे सम्बद्ध है। अंगरेज दस्तावेजों से पता चलता है कि टंगियाधारी कोरवा और कोरकू जनजाति का अहीर गो-पालकों के साथ तनाव बना रहता। ताना भगत आंदोलन में कुसमी क्षेत्र के जन-नायक भाइयों लांगुल-बिंगुल के लिए भी बस्तर के आदिवासियों की तरह प्रसिद्ध है कि वे बंदूक पर मंत्र मारते देते थे, जिससे नली से गोली की जगह पानी निकलता था (क्या यह पानी लाल होता, यानि लहू के धार के लिए कहा जाता होगा?) इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडी, शिमला में टांगीनाथ पर हुई केस स्टडी पुस्तकाकार प्रकाशित है।
इसी बातचीत में प्रसंग आ जाने पर, मैं अकेला श्रोता रह गया हूं, टांगीनाथ के साथ सामत राजा से मिलते-जुलते नाम समती और सामथ याद आ रहे हैं, जनजातीय वर्गों के एक्का, दुग्गा, तिग्गा और बारा उपनामों में अटक-भटक रहा हूं। किस्सा सुन रहे लोग बिना अटके-ठिठके इस अंचल के देवी-देवताओं का नाम कथावाचक के साथ उचारने लगते हैं-
डीपाडीह में सामत राजा रानी, काटेसर पाठ, चैनपुर में अंधारी जोड़ा नगेरा, हर्री में गरदन पाठ, चलगली में महामईया, सरमा में सागर, अयारी में धनुक पाठ, रानी छोड़ी, खुड़िया रानी में मावली माता, कुसमी में जोन्जो दरहा, सिरकोट में भलुवारी चण्डी, बरवये, मझगांव में टांगीनाथ, जशपुर में गाजीसिंग करिया, मरगा में भैंसासुर, कलकत्ता में काली माई, कुदरगढ़ में सारासोरो, सनमुठ में दरहा दरहाईन, गम्हारडीह में घिरिया पाठ, साधु सन्यासी, जोरी में जारंग पाठ और ''गांवन-गांवन करे पयान, चहुं दिस करे रे सथान, भले हो घमसान'' वाले दाऊ घमसान या घमसेन देव। जबकि पहाड़ी कोरवाओं के देवकुल में खुड़िया रानी, सतबहिनी, चरदेवा-धन चुराने वाला देव, खुंटदेव, परम डाकिनी, दानोमारी, दाहा डाकिन, दरहा-दुष्ट शक्तियों से बचाव करने वाला, हरसंघारिन, धनदनियां, अन्नदनियां, महदनिया, सुइआ बइमत, धरती माई, रक्सेल, डीहवा, सोखा चांदी गौरेया, बालकुंवर आदि नाम गिनाए जाते हैं।
अलग-थलग अपने को बेगाना महसूस करता मैं, मन ही मन तैंतीस कोटि का सुमिरन करते, सबके साथ शामिल रहने की योजना बना लेता हूं, सूची पूरी होते ही जोड़ता हूं..., अब इसमें हम सब का स्वर समवेत है, ''... की जै हो।''
संबंधित पोस्ट - डीपाडीह और देवारी मंत्र
सरगुजा में रुचि हो तो वी. बाल, ए. कनिंघम, जे. फारसिथ, एमएम दादीमास्टर की रिपोर्ट्स और देवकुमार मिश्र की पुस्तक 'सोन के पानी का रंग' देखना उपयोगी होगा।
Kamaal kee maaloomaat haasil hai aapko!Wah!
ReplyDeleteसच है, यहाँ पर जीने के बहाने हर क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं।
ReplyDeleteaapaki lekan shaili ke karan mujh jaise padhane me ruchi n rakhne walo se bhi pura padhe bina nahi raha gaya.........kuchh janakari badhi ..aabhar ..
ReplyDeleteसरगुजा और टांगीनाथ की लौकिकता की अलौकिक गाथा
ReplyDelete'एवेरीवन लव्स अ गुड ड्राउट' पढ़ा था करीब पांच साल पहले. इस पुस्तक के नाम के अलावा बाकी जो भी है वो सब तो पहली बार ही सुना सा लगा. ऐसी बातें इंटरनेट पर सहेजने का काम... आदरणीय है.
ReplyDeleteआधा पढते-पढते ऊबन होने लगी लेकिन एक चीज याद आ गया। मेरे यहाँ एक दुकान पर लिखा था (शायद है भी) श्री श्री 108 टंगारी बाबा की जय।
ReplyDeleteहाँ, बिफल से मिल चुका हूँ आपके जरिये ही।
ReplyDeleteसरगुजा से एक बेहद रोचक परिचय कराया आपने. पुराने मंदिर मूर्तियों में से कहानी ढूँढ निकालने की जो अद्भुत क्षमता है आप में उसका लाभ मेरे जैसे पाठकों को मिल जाता है. कन्हर नद की जानकारी भी मेरे लिए नयी रही. ब्रह्मपुत्र को ही मैं अब तक नद के रूप में जानता था.
ReplyDeleteमेरा भी जशपुर दो बार जाना हुआ, प्रकृति और वहाँ के जनजातीय समाज को देखकर अच्छा लगा था।
ReplyDeleteसरगुजा के बारे में बहुत अच्छी जानकारी आपने दिया. यह क्षेत्र मै अभी घुमा नहीं हूँ मगर आपकी इस पोस्ट ने उत्सुकता बढ़ा दी है. बैकुंठपुर नवोदय में मेरे भाई है कई बार आग्रह कर चुके है आने के लिए, अब जल्द विजिट मारना पड़ेगा....
ReplyDeleteसुन्दर जानकारी देती पोस्ट सर...
ReplyDeleteहफ्ते भर पहले ही वहाँ की यात्रा से लौटा हूँ... वहाँ के नयनाभिराम दृश्य पुनरपस्थित हो गए नजरों में...
लेकिन सड़क मार्ग से आना जाना बड़ा दुष्कर है...
सादर...
पछिमहा देव और टांगीनाथ के मध्य मित्रता युद्ध और संधि की व्याख्या अपील कर रही है चूंकि टांगीनाथ को ब्राह्मणी पुत्र कहा गया है इसलिए मेरा वोट आपके संकेतों में से परशुराम को !
ReplyDeleteमूर्ति के फुटरेस्ट बतौर टांगी के अलावा एक और कोई चिन्ह मौजूद है आपने उसका जिक्र नहीं किया कि वह क्या है ? आदिम जीवन में टांगी (बस्तर में टंगिया) की उपयोगिता बहुआयामी है एक ओर वह दैनिक जीवन का उपकरण है तो दूसरी ओर युद्धास्त्र भी और कांधे में ढोते हुए एक शानदार शौर्य प्रतीक !
कथा में टांग काट डालने वाली व्याख्या के जगह मुझे भी हिंसक शक्तियों पर विजय और फुटरेस्ट सम्बन्धी व्याख्या ज्यादा भा रही है !
गोली के लाल पानी हो जाने वाली समझ रास आई :)
पाटों का उल्लेख क्या नदी /तालाबों के किनारे बसे होने के कारण है या फिर पाट का कोई और अर्थ हुआ ?
सरकारी कर्मचारियों के लिए सरगुजा संभवतः आपके आलेख के पहले पैरे की अंतिम लाइन्स जैसा हो :)
चित्र शानदार है घूमने की इच्छा जगाता हुआ क्या इसे १९८८ में खींचा गया था ?
राहुल जी, फूलों वाली फोटो तो बहुत ही अच्छी लगी. बिलकुल जन्नत सरीखी. कहावत का पता नहीं, कि आज भी सच है या फिर बदल चुका है समय.
ReplyDeleteलेखन बहुत अच्छा लगता है. कई बार ढेर सारे रेफेरेंसस के चलते दिमाग थोडा बाहर भागता है लेकिन फिर उस पर काबू हो जाता है.
आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपकी प्रतिक्रियायों की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसरगुजा और टांगीनाथ घूम तो चुके थे - अंबिकापुर नियमित जाना होता था किन्तु जानकारी आज मिली इतनी विस्तार से.
ReplyDelete@ भारतीय नागरिक जी,
ReplyDeleteसंदर्भ और उल्लेखों के लिए मुझे भी लगता है कि छोटी सी जान इस पोस्ट की, उस पर ज्यादती हो रही है, लेकिन और कोई सहज तरीका नहीं सूझता. टांगीनाथ का नाम आते ही जितने न्यूनतम संदर्भ, संक्षिप्ततम संभव थे मुझसे, प्रयास किया है, आप सुधिजन का मान इसे मिल जा रहा है, आभार.
@ अली जी,
ReplyDeleteचित्र 1988 का तो नहीं, कुछ आगे-पीछे का है, लेकिन वर्तमान दृश्य भी कम नहीं होते, आप जाएं तो बेहतर ही पाएंगे, भरोसा है.
दायां पैर टांगी पर है और बायें पैर के पास शिव गण है, वैसे इसे प्रतिमा विज्ञान से बचाए रखने के लिए और किसी लक्षण की चर्चा नहीं की है, वरना शास्त्र-बद्धता हावी होने लगती.
पाट, सपाट जैसा ही है, समतल पटा हुआ, पठारी समतल, फ्लैट टेबल लैंड, भूगोल के लोग शायद बेहतर स्पष्ट कर सकें.
सूक्ष्म विश्लेषणात्मक दृष्टि का सम्मान आपसे पोस्ट को मिला, आभार.
टांगीनाथ से जुड़ी एक जानकारी यह मिली-
ReplyDeleteस्थानीय जनश्रुति के अनुसार डीपाडीह के द्रविड़ शासक सामनी सिंह को उसके समकालीन टांगीनाथ ने एक युद्ध में मार डाला।
लेकिन एक जगह यह भी लिखा है-
विक्रम संवत 251 के लगभग एक चंद्रवंशी राजपूत राजा विष्णु प्रताप सिंह ने डीपाडीह के द्रविड़ शासक सामनी सिंह को परास्त किया।
अब यह खोज का विषय है कि क्या विष्णु प्रताप सिंह और टांगीनाथ एक ही हैं ?
@ महेन्द्र वर्मा जी,
ReplyDeleteऐसी ढेर सारी बातें गड्ड-मड्ड हो कर ही कहानी, दंतकथा के रूप में विकसित हुई हैं शायद, हमें अनुमान कर सकने में मदद देती हैं, सोचने का अवसर देती हैं, अन्वेषण और उपलब्धियों को व्याख्या के लिए दिशा देती हैं.
वाह ...बहुत सुन्दर ,कभी उधर जाने का मौका मिला हम भी इन सुन्दर नजारों का आनंद उठाएँगे......आभार
ReplyDeleteलोक-संस्कृति ,आंचलिक दृष्य संयोजन ,और लोक-मान्यताओं के साथ पुरा-कथाओं का संयोजन आपके वर्णन को जीवंत किये दे रहा है -मन पर स्थाय़ी प्रभाव छोड़ते हुये :
ReplyDeleteइतनी सुन्दर जानकारी के लिये आभार !
विस्तृत जानकारी के लिए धन्यवाद , काफी सालों से दक्षिण भारत में हूँ लेकिन पूर्वी और मध्य भारत में
ReplyDeleteजाने की इच्छा काफी दिनों से है.
वाकई सरगुजा बेहद ही खुबसुरत है खासकर पथाल्गाव और जशपुर के बीच काजू और आम के जगल (बाग़ के बजाय जंगल कहना जादा ठीक है ) बहुत सुन्दर है और जंगली हाथियों से भी हाटी के पास रोमांचक मुलाकात भी अकथनीय थी रही बात टागिनाथ की तो आप की किस्शागोई आदुतीय है फिर क्या टागिनाथ क्या कुछ और सब चलेगा अगर आप सुनोगे तो मजेदार हो ही जायेगा .
ReplyDeleteवाह! आपके ब्लॉग से हमेशा कुछ पाकर ही लौटती हूं. कभी पातालकोट के बारे में भी लिखिए...
ReplyDeleteअली जी से इत्तेफाक.मेरी हाजिरी समझी जाय !
ReplyDeleteसातवीं आठवीं कक्षा में हिन्दी साहित्य के अंतर्गत यात्रा-वृत्तान्त की एक पुस्तक थी.. उस पुस्तक में सरगुजा क्षेत्र का वर्णन था... अब कुछ भी याद नहीं सिवा इसके कि वर्णन बड़ा रोचक था... आज इतने दिनों बाद आपसे वहाँ का वर्णन सुनकर बहुत अच्छा लगा...
ReplyDeleteदन्त-कथाएं, इतिहास से जन्मती हैं या दन्त कथाओं को व्यवस्थित करके इतिहास लिखा/कहा जाता है पता नहीं..किन्तु इन्हें पढ़ना/सुनना हर हाल में रोचक होता है.. टांगीनाथ का चित्र देखते ही (शीर्षक और चित्र पर पहले नज़र जाती है) लगा कि ये परशुराम जैसे व्यक्ति होंगे.. टांगी लिए हुए..
यदि महेंद्र वर्मा साहब के द्वारा डी गयी दोनो कहानियों को मिलाकर देखा जाए तो जैसा कि आपने कहा गड्ड मदद हो जाता है..मुझे लगता है स्पष्ट हो जाता है सब कुछ..
मेरा तो बस अनुमान है, आप बेहतर स्पष्ट कर पायेंगे.. कहीं ऐसा तो नहीं कि वे ही चंद्रवंशी राजा विश्नुप्रताप हों और टांगी से सामने सिंह का वध किये जाने के कारण उनका नाम टांगीनाथ प्रसिद्द हो गया..
बस एक अनुमान या संशय है.. निदान करने की कोशिस करेंगे.. इतिहास में रूचि न होने पर भी आपके आलेख आकर्षित करते हैं और बाँध कर रखते हैं..
सलिल जी,
ReplyDelete@ चला बिहारी...
कई मामलों में, जैसा कि यहां भी मेरी मंशा परिणाम तक पहुंचने की होती नहीं, स्वतः कुछ उभर कर आ जाए, तो बात अलग है.
मेरी इस तरह की बातों पर दसेक साल पहले कुछ शुद्धतावादी लोगों ने आपत्ति की थी कि मैं इतिहास से छेड़-छाड़ करता हूं, जबकि मैं तो यह किस्से कहानी बतौर ही मानता-सुनता-गुनता हूं, इतिहास के किसी काम की हो तो ठीक, खारिज भी हो जाय तो क्या, कौन सा इतिहास में इनका नाम लिखाने, दर्ज कराने के लिए आवेदन लगाया गया है.
तब रहे होंगे आप एकाकी श्रोता, अब हम सब सुन पढ़ रहे हैं आपके माध्यम से।
ReplyDeleteसलिल भैया को स्भोधित आपकी टिप्पणी के परिपेक्ष्य में आपकी छेड़छाड़ में हमें भी नैतिक रूप से सहयोगी माना जाये क्योंकि ऐसी छेड़छाड़ से आनंद लेकर हम भी इसके सहभागी बन रहे हैं।
छेड़छाडिंग जारी रखने का आवेदन समझा जाये:)
आपके हर ब्लॉग पोस्ट में विस्तृत जानकारी होती है.इसे भी पढ़ कर यही लगता है. अच्छी जानकारी और उतनी ही अच्छी प्रस्तुति.
ReplyDeleteआपके हर ब्लॉग पोस्ट में विस्तृत जानकारी होती है.इसे भी पढ़ कर यही लगता है. अच्छी जानकारी और उतनी ही अच्छी प्रस्तुति.
ReplyDeleteकभी इस अंचल में जाना ना हुआ सरगुजा के बारे में यहां लोह अयस्क से लोहा बनाने की पुरानी विधी के संदर्भ में पढा था । सक्ती में हमारी एक मौसी (माँ की ममेरी बहन ) इतना ही पता है । आप के इस जानकारी से भरपूर लेख ने थोडा तो (यह मेरी क्षमता के कारण ) ज्ञानवर्धन किया ही है ।
ReplyDeleteआपके यह लेख संस्कृतिक विरासत साबित होंगे, मेरे लिए इस क्षेत्र की जानकारी नयी है ! आभार एवं शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteराहुल जी आज छत्तीसगढ़ में तीसरी कसम पर एक लेख पढ़ा। उसमें लेखक ने लिखा था कि बासु भट्टाचार्य की कहानी में कजरी महुआ का दर्द है पूरी फिल्म एक लोककथा पर चलती है। हर बार जिंदगी इसी लोककथा को दोहराती है, उसके बाद आपका लेख पढ़कर लोककथा के इस सुखद संयोग को महसूस कर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteupayogi evam vichaarottejak.
ReplyDeleteसंस्कृति का बिखराव यत्र तत्र हो रखा है सहेजना ही कठिन है.
ReplyDeleteइतने शोधपरक, ज्ञानपरक व सुंदर लेख के लिये बधाई।सरगुजा मेरे मूलनिवास राबर्ट्सगंज व सोन-घाटी क्षेत्र का पड़ोसी होने के नाते व हमारी वहाँ ले पुरानी नाते-रिश्तेदारी के कारण वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, साथ ही साथ वहाँ के गहन वन व नदीघाटियों से भरे दुर्गम रास्तों के बारे में मैंने भी बहुत सुना है,किंतु अभी तक उन्हें देखने का सौभाग्य नहीं मिल पाया। मन में कामना है एक बार आपके द्वारा चर्चा किये स्थानों के स्वयं देखने का मौका मिले।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. यथार्थ है की पुराने जमाने में सरगुजा को बस्तर वाले भी नरक ही मानते थे. ... कोच्ची से...
ReplyDeleteपोस्ट पढ कर खुद पर ही झुंझला रहा हूँ कि जिस दिन आपसे बात हुई थी, उसी दिन यह सब क्यों नहीं पढ लिया?
ReplyDeleteपहली बार (सम्भवत: 1979-80 में) अम्बिकापुर जाने पर समझ पडा था कि 'सरगुजा' किसी एक जगह का नहीं, 'मालवा' की तरह ही एक अंचल का नाम है। मनेन्द्रगढ्, अम्बिकापुर, रायगढ्, बिलासपुर, रायपुर, दुर्ग, राजनॉंदगॉंव आना-जना (इसी 'रूट' से) तो कई बार हुआ किन्तु पहचान तो आपकी इस पोस्ट के जरिए ही हुई। आपने तो पूरे अंचल की सैर ही करा दी।
पूरी पोस्ट ने भरपूर आनन्द दिया। इसमें कथा का 'तत्व' भी है, लोककथा का 'कहन' भी है और दोनों कारकों को पूर्णता देनेवाले नयनाभिराम चित्र भी हैं। और (जैसा कि आपके सन्दर्भ में पहले भी कह चुका हूँ और कहता रहा हूँ) आंचलिकता के अभिलेखीकरण का सबसे महत्वपूर्ण तत्व इस पोस्ट को 'मूल्यवान' नहीं, 'अमूल्य' बनाता है।
अपनी मिट्टी के प्रति आपका यह 'ममत्व', 'समर्पण' और 'कृतज्ञाता भाव' आपको अनायास ही प्रणम्य बना देता है।
मैं आप जैसा क्यों कर न हुआ?
जब इतिहास लिखा जा रहा था तब इतना सहज क्यों नहीं लिखा गया.... लगता है जो इतिहास या भूगोल पढ़ा सब अधूरा था.. सरगुजा की सैर करके अच्छा लगा.... पहले एक बार गया हूं इस क्षेत्रमे लेकिन इस तरह नहीं जैसे आपने यात्रा कराइ है... अदभुद...
ReplyDeleteदुबारा आना पड़ा क्योंकि पहली बार समयाभाव रहा. टांगीनाथ की व्याख्या बड़ी दिलचस्प लगी और यह भी की शास्त्र-बद्धता को दर किनार कर दिया.
ReplyDeleteअत्यंत मनोहारी और रुचिकर।
ReplyDeleteथोडा बहुत टूटा-फूटा पढ़ रखा था मैंने भी, आज और जान सका।
आपका बहुत बहुत आभार की आप ऐसे विषय संजोते हैं, साझा करते हैं, हमेशा समृद्ध होता रहा हूँ यहाँ आ कर।
टांगीनाथ का परशु राम युति समझ गया हूँ पर बन्दुक गोली पानी पर फिर आकर लिखता हूँ ...
ReplyDeleteMy name is Ashok Kumar from gumla karmtoli I had by book Hindu Shrines of chotanagpur and read it carefully.I want to meet with you .my email is ashokcmkumar6@gmail.com
ReplyDeletePz replay me