बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल जन्म 1891 निधन 1956 |
सन 1919 में प्रकाशित पुस्तक का अंश
हालैंड की स्वाधीनता का इतिहास
ठाकुर छेदीलाल एम.ए. (आक्सफोर्ड)
बैरिस्टर-एट-ला
ॐ
(परमात्मने नमः)
बीसवीं सदी स्वतंत्रता की सदी है। संसार के जिस हिस्से पर ध्यान दिया जाये, चारों ओर से स्वतंत्रता ही की आवाज आती है। यहां तक कि वर्तमान विश्वव्यापी समर भी स्वतंत्रता ही के नाम पर प्रत्येक देश में मान पा रहा है। भारत वर्ष भी स्वतंत्रता के इस भारी नाद में अपना क्षीण स्वर अलाप रहा है। यद्यपि इस विश्व में भिन्न-भिन्न जातियां, भिन्न भिन्न राष्ट्र निर्माण कर, अपने ही स्वार्थ साधन मे सदैव तत्पर रहती हैं, तथापि ईश्वर ने इस संसार का निर्माण इस ढंग से किया है कि एक का प्रभाव दूसरे पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। इस वर्तमान समर में कई राष्ट्र सम्मिलित नही हैं, तिस पर भी उन्हें इसके बुरे परिणामों को अवश्य भोगना पड़ता है। इसी तरह प्रत्येक राष्ट्र में होने वाले राजनैतिक आंदोलन से तथा साहित्य की उन्नति से दूसरे राष्ट्र लाभ उठा सकते हैं। यथार्थ में पूछा जाये तो इतिहास के पढ़ने से यही लाभ है। बीते हुए युग का हाल पढ़ने से हम अतीत युग में अपना प्रवेश कराते हैं, जिससे हमारा ज्ञान-क्षेत्र विस्तीर्ण होता है और भविष्य में हमें किस तरह कार्य करना चाहिए, इसकी शिक्षा मिलती है। भारतवर्ष में यह जो स्वराज्य का आंदोलन चल रहा है, इस देश के लिए बिल्कुल नई बात है। इसमें संदेह नही कि प्राचीन भारत में प्रजातंत्र राज्य भी थे। परंतु प्रधानता अनियंत्रित शासन-पद्धति की ही थी। इस कारण केवल भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के ही अध्ययन से इस नये मार्ग के पथिक को कुछ सहायता नहीं मिलती, जिससे उसे पश्चिम की ओर सहायता के लिए झांकना अनिवार्य हो जाता है। यूरोप में कई राष्ट्रों ने कई प्रकार से आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य प्राप्त किया है। किंतु हिन्दी साहित्य में इनका वर्णन न होने से इस भाषा भाषी को इससे कोई लाभ नहीं होता।
आजकल हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न चारों ओर से किया जा रहा है, जिनके प्रधान नेता श्रद्धास्पद, स्वनामधन्य कर्मवीर महात्मा गांधी हैं। इतने बड़े सेवक को पाकर हिंदी सचमुच कृतार्थ हो गई है, और आशा है कि अब इसके वेग को कोई रोकने में समर्थ न होगा और यह अपने लक्ष्य सिद्धि में शीघ्र ही सफलीभूत होगी। यद्यपि कई क्षुद्र व्यक्तियों ने जिनका नाम लिखना अनावश्यक है, हिंदी भाषा की निंदा करते-करते गांधी महात्मा पर भी संकीर्णता तथा पक्षपात का दोष आरोपण किया है, तथापि इनका प्रयत्न इस आंदोलन को रोकने में असमर्थ है। इनमें से कई महात्माओं ने अंग्रेजी की इतनी प्रशंसा की है कि उसे करीब-करीब यूरोप के सब भाषाओं से बढ़कर बना दिया है, उदाहरणार्थ एक महाशय लिखते हैं-
“English is of special value as being the key to a vast field of knowledge and as being the means of likewise of communicating to the whole of the civilised world anything of intellectual value that India may have to communicate.”
इन महात्मा को शायद यह मालूम नहीं है कि यूरोप में सिवाय इंग्लैंड के और किसी देश में सैकड़ा पीछे एक आदमी भी अंग्रेजी नहीं जानता। वहां पर फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं ही की प्रधानता है। इनसे पूछा जाय क्या मेटरलिंक ने अपने विख्यात नाटकों को अंग्रेजी में लिखा था? क्या कान्ट ने अपना तत्व विज्ञान, डास्टोएवेस्की ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास, गोगोल तथा टर्जनीव ने अपने उपन्यास, टालस्टाय ने अपनी तत्व विज्ञान संबंधी पुस्तकें, शापेनहार, हीगेल तथा स्पिनोजा ने अपने विचार अंग्रेजी में व्यक्त किये थे? क्या विक्टर ह्यूगो, ब्रू, इब्सेन ने अपनी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित कराई थी? हां, हम भारतवासियों को जो संसार में अंग्रेजी ही को अपनी अज्ञानतावश सर्वश्रेष्ठ तथा विश्वव्यापी मान बैठे हैं, उपरोक्त प्रतिभाशाली लेखकों को ज्ञान अंग्रेजी ही द्वारा हुआ। किंतु इतना स्मरण रखना चाहिए कि इन सब महात्माओं की पुस्तकों की उत्तमता को देखकर अंग्रेजी ने अपनी साहित्य की कमी पूरा करने के लिए इनको अपनी भाषा में अनुवाद किया। किंतु अंग्रेजी में अनुवाद होने के पूर्व ही इन्होंने संसार में ख्याति पा ली थी। क्या रविन्द्र बाबू की गीतांजलि, बंगाली भाषा से फ्रेंच में अनुवादित की जाती तो संसार में प्रसिद्ध न होती? यदि अंग्रेजों को यह मालूम हो जाये कि भारतवासी अपने उत्कर्ष विचार अपनी ही भाषा में व्यक्त करेंगे, तो निश्चय ही वे हमारी भाषा को पढ़ेंगे और उत्तम ग्रंथों का अनुवाद अपनी भाषा में स्वयं करेंगे। क्या जगदीश बाबू के प्रसिद्ध अविष्कार, अपनी भाषा में लिखे जाने पर दूसरे लोग ग्रहण न करते? क्या फ्रेंच में इनके सिद्धांतों का अनुवाद नहीं हुआ होगा? अस्तु।
हिंदी का मुखोज्वल करना हमारे हाथ है, और यदि हम चाहें तो अपने मौलिक लेखों द्वारा इस भाषा को इतने ऊंचे पद पर चढ़ा सकते हैं, कि पश्चिमी विद्वान इसे अवश्य अध्ययन करें। तुलसीदास की रोचकता ने, कबीर की सार-गर्भिता ने तथा सूरदास के पद-लालित्य ने कई विदेशियों को हिन्दी पढ़ने पर विवश किया। इसी तरह यदि केवल हम इधर-उधर की पुस्तकों का अनुवाद करने ही को अपना इति कर्तव्य न समझें, और अपने ऊंचे विचार इसी भाषा में व्यक्त करें तो क्या नहीं हो सकता। हिन्दी में यूरोपीय इतिहास संबंधी कोई पुस्तक नहीं है। हां, इंडियन प्रेस ने इतिहास-माला निकालना प्रारंभ किया है, जिसमें पांच छः पुस्तकें निकल चुकी है। निस्संदेह यह प्रयत्न अच्छा है। किंतु इन पुस्तकों को, कोई इतिहास नहीं कह सकता। यदि हम इनको सन् संवत की सूचियां कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। इस कमी को पूर्ण करने के लिए हम लोगों ने यह 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' निकालना निश्चय किया है। इसमें केवल उन्हीं देशों के इतिहासों का समावेश रहेगा, जिन्होंने राष्ट्रीय तथा आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य प्राप्त की है और इनमें केवल उन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख रहेगा, जिनका संबंध एतद्देशीय राष्ट्रीय स्वाधीनता से रहा हो।
विषय बड़ा गहन है और हमारी योग्यता बहुत कम है। आश्चर्य नहीं कि पग-पग पर हम लोग चूकेंगे। किंतु वर्तमान काल में ऐसी पुस्तकों की उपयोगिता का विचार कर, और हिंदी में उनका अभाव देखकर हम लोग अपनी अयोग्यता को जानते हुए भी इस कार्य में बद्ध-परिकर हुए हैं। इस सोपान सीरीज में निम्नलिखित देशों की स्वाधीनता प्राप्त करने की विधि का वर्णन रहेगा।
अर्थात्(१) हालैंड, (२) इंग्लैंड, (३) अमेरिका, (४) फ्रांस, (५) इटली, (६) टर्की, (७) ईरान, (८) पोर्तगाल और, (९) रूस।
भाषा संबंधी त्रुटियों का होना तो हमारी अयोग्यता-वश अनिवार्य ही है। फिर भी सहृदय पाठकों से हमारा निवेदन है कि इन त्रुटियों का विचार न करके, इस सीरीज को अपनाकर, हमें उत्साहित करेंगे। उदार पाठकों से प्रार्थना है कि जो त्रुटियां, भाषा तथा विषय-संबंधी उन्हें इस 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' में मिले, उनसे हमें सूचित करें, जिसे हम सहर्ष और धन्यवाद सहित स्वीकार करेंगे।
- संपादक
भूमिका
यूरोप के इतिहास में सोलहवीं सदी तथा सत्रहवीं सदी धार्मिक मारकाट के लिए प्रसिद्ध है। एक भारतीय को जिसका ध्येय सदा से धार्मिक स्वतंत्रता ही रहा है, धार्मिक विषय में मारकाट बड़ा विचित्र मालूम होता है। हिंदू धर्म के छत्र-छाया में बौद्ध, जैन, चार्वक, नास्तिक आदि सब मतों ने एक सा मान पाया है और किसी को धार्मिक विश्वास के कारण किसी तरह का कष्ट नहीं उठाना पड़ा। धार्मिक विषय में स्वाधीनता एक हिंदू को बहुत आवश्यक तथा साधारण ज्ञात होती है। इसलिए यूरोप के इतिहास में, धर्म के नाम से मनुष्यों पर पाशविक अत्याचार का किया जाना, उसके मन को डांवाडोल कर देता है। यूरोप की सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के इतिहास में यदि कोई रत्न चमकता हुआ उसे दिखता है तो वह छोटे हालैंड का अपने बलिष्ठ शत्रु स्पेन के साथ अपनी स्वतंत्रता लाभार्थ अस्सी साल की लड़ाई है। स्पेन का यूरोप में उस समय बड़ा दबदबा था। धन, जन आदि सब बातों में दूसरे यूरोपीय देश स्पेन का महत्व स्वीकार करते थे। इंग्लैंड, फ्रांस प्रभृति देश भी स्पेन के आगे सिर झुकाते थे। ऐसे स्पेन से एक तुच्छ हालैंड का, जिसकी जनसंख्या हिन्दुस्तान के किसी छोटे प्रांत के चौथाई से भी कम है, अस्सी साल तक अपूर्व पराक्रम से लड़ना तथा अंत में स्पेन ही द्वारा अपनी स्वतंत्रता कबूल करा लेना, एक भारतीय को थर्रा देता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो अधिकारी वर्ग को सदैव सब कुछ मानता आया है, जिसके हृदय में स्वाधीनता का लेशमात्र भी भास नहीं है, वह स्वतंत्रता के लिए हालैंड के इस आत्मोत्सर्ग का क्या आदर कर सकता है? यद्यपि उसका हृदय अंधकार से पूर्ण है तथापि डच लोगों का अपूर्व साहस उसके हृदय में ऐसी ज्योति उत्पन्न कर देता है कि स्वयं गिरे हुए होने पर भी हालैंड के उन वीरों के कार्य को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपने धन, प्राण सब सहर्ष अर्पण कर दिए, प्रेम और आदर दृष्टि से देखता है। स्पेन के घोर अत्याचार तथा उद्दण्डता, मौनी विलियम के असीम देशप्रेम, साहस तथा आत्म त्याग, वार्नवेल्ट की राजनैतिक कुशलता, नासो के विलियम का रण पांडित्य, जान डी विट् का यूरोपीय राष्ट्र संगठन में अपूर्व ज्ञान तथा प्रत्येक डच का स्वाधीनता के लिए सहर्ष प्राण अर्पण करना, यही प्रथम सोपान के मुख्य विषय है। किस प्रकार इस छोटे से हालैंड ने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह भारतवर्ष सरीखे आलसी तथा लकीर के फकीर देश के लिए अनुकरणीय है।
इस पुस्तक का मुख्य अभिप्राय उन्हीं बातों से हैं, जिनसे डच लोगों को स्वाधीनता दिलाने में सहायता मिली। इस कारण सोलहवीं सदी से हमारा प्रकरण प्रारंभ होगा। यथार्थ में डच लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई स्पेन के द्वितीय फिलिप के राज्य काल से आरंभ की। इस कारण हमारा इतिहास द्वितीय फिलिप के समय से ही आरंभ किया जायेगा। जिन महाशयों को इसके पूर्व का हाल जानने की उत्सुकता है उन्हें केम्ब्रिज मिडिवियल हिस्ट्री, हिस्टोरियन्स हिस्ट्री आफ दी वर्ल्ड और माटले की डच रिपब्लिक प्रथम भाग की प्रस्तावना देखना चाहिए।
इस पुस्तक में हमने समकालीन लेखों तथा पत्रों से कुछ अवतरण दिया है। हिंदी में इनका अच्छा अनुवाद न हो सकने के कारण अंगेरजी अनुवाद दे दिए गए हैं।
- ठाकुर छेदीलाल
स्वाधीनता संग्राम के दौरान वैचारिक स्तर पर अस्मिता और स्वतंत्रता की भावना जागृत करने वाले उपाय भी किए जाते रहे। गणेशोत्सव, धार्मिक प्रवचन, यज्ञ-अनुष्ठान, लीला-नाटक मंचन, इतिहास लेखन-प्रकाशन, भाषाई आग्रह जैसे अहिंसक तौर-तरीके अपनाए जाते। अकलतरा के ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर ने ऐसे सभी अस्त्र आजमाए। बैरिस्टरी की पढ़ाई के बाद, वकालत और शिक्षण के साथ 1919 से 1933 के बीच (उनके जेल जाने से व्यवधान भी होता रहा) दो-ढाई हजार की आबादी वाले कस्बे अकलतरा में रामलीला का आयोजन करते रहे। उनके साथ इस काम में अकलतरा के दो और विलायत-पलट, लोगों को निःशुल्क चिकित्सा सेवा देते एफआरसीएस, उनके अनुज डा. चन्द्रभान सिंह और रायल इकानामिक सोसायटी से जुड़े, पूरी गोंडवाना पट्टी और बस्तर के बीहड़ सुदूर अंचल में शोध-सक्रिय, जनजातीय समुदाय में अलख जगाते, उनके भतीजे डा. इन्द्रजीत सिंह अनुगामी होते।
अकलतरा की मिट्टी में कुछ तो खास है !
ReplyDeleteइतिहास के इन पन्नों को उजागर करने के लिये आपका आभार! अकलतरा वाकई खास है।
ReplyDeleteअकलतरा के 28 वर्षीय युवा द्वारा रचित सन 1919 में प्रकाशित पुस्तक का अंश ।
ReplyDelete*
राहुल जी ऊपर की यह पंक्ति पढ़ने में कुछ अटपटी लग रही है। बहरहाल आपकी प्रस्तुति एक बार फिर यह बताती है कि आप गहराई में जाकर मोती लाते हैं।
बेरिस्टर छेदीलाल जी महान ही थे. हम तो सोचते थे की वे बिलासपुर के हैं क्योंकि उनका एक पुराना सा बंगला दयालबंद के पुराने स्कूल के पास था.
ReplyDeleteसंशोधन किया है, सुझाव के लिए आभार, राजेश जी.
ReplyDeleteइतिहास के एक अध्याय से परिचित कराने के लिए साधुवाद
ReplyDeleteअद्दुत..!!!!!
ReplyDeleteआपको कोटी कोटी धन्यवाद छत्तीसगढ़ के एक महान व्यक्तित्व और उनकी सोच से आपने परिचित कराया।
ReplyDeleteएक महत्वपूर्ण लेख और कालखंड की दुश्चिंताओं जो आज भी वैसी की वैसी ही बनी हुयी हैं से साझा करने का आभार
ReplyDeleteग्यानवर्द्धक जानकारी। धन्यवाद।
ReplyDeleteबंगला और मराठी में इस किताब से पहले कुछ देशों का इतिहास उपलब्ध है। आयरलैंड का इतिहास 1918 में 360 पृष्ठ के आस-पास मराठी से अनुवाद कर छापा गया था। …अधिकांश बातें सही लग रही हैं लेखक की। हिन्दी क्षेत्र में यह काम राहुल सांकृत्यायन जैसा व्यक्ति अच्छे से शुरू करता है। आयरलैंड की स्वाधीनता के संग्राम पर एक किताब का हिन्दी अनुवाद भगतसिंह भी पेश करते हैं। हिन्दी तो मात्र 100-120 सालों की महत्वपूर्ण भाषा है। …छेदीलाल जी बैरिस्टर पर इतिहास और अपना समय पर पढा था। …और ये चन्द्रभान जी भी आपकी ही तरह दिखते हैं। …छत्तीसगढ पर ही काम होता रहेगा?
ReplyDeleteप्रस्तुति इक सुन्दर दिखी, ले आया इस मंच |
ReplyDeleteबाँच टिप्पणी कीजिये, प्यारे पाठक पञ्च ||
cahrchamanch.blogspot.com
बैरिस्टर छेदी लाल के बारे में जानकार अच्छा लगा ....
ReplyDeleteशुभकामनायें !
बहुत अच्छी पोस्ट! यह किताब लॉग टर्म मेमोरी में रहेगी और बैरिस्टर छेदीलाल भी।
ReplyDeleteआपको धन्यवाद।
जब इस पुस्तक के बारे में सुना तो पहलेपहल लगा कि उबाऊ होगी क्योंकि हमारे जैसे लोग जो इंग्लैंड का इतिहास अच्छे से नहीं जानते, हालैंड के इतिहास में दिलचस्पी क्यों लेंगे, लेकिन इतनी अच्छी भाषा में उन्होंने अपना कथ्य रखा। आक्सफोर्ड से पढ़े होने के बावजूद अहंकार ठाकुर साहब को छू तक नहीं गया और बार-बार उन्होंने हिंदी की भाषिक गरिमा को स्थापित किया, इतनी पुरानी इस पुस्तक की भाषा और लेखन का तरीका ऐसा है जैसे किसी लेखक ने ताजा-ताजा इतिहास लिख दिया हो और लेखन के अगले चरणों को भी पूर्व में ही अपनी लेखनी में आत्मसात कर लिया हो। हृदय से आभार
ReplyDeleteJaankaaree se paripoorn aalekh...aapkee khud kee bhasha shaili bahut hee achhee hai.
ReplyDeleteएक और स्वर्णिम पृष्ठ इतिहास का आपके सौजन्य से!!
ReplyDeleteअलकतरा और छेदीलाल जी के बारे में सार-गर्भित जानकारी !
ReplyDeleteआपकी हर पोस्ट एक दस्तावेज की तरह होती है,आभार !
हिन्दी का भविष्य हमारे लेखों में छिपा है, यह उसी दिशा में एक कड़ी है।
ReplyDeleteबढिया जानकारी।
ReplyDeleteहिंदी का गौरव इसके साहित्य व लेखों में ही है।अपनी भाषा के उपयोग से ही हमारा स्वयं के प्रति व स्वयं की क्षमता में आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।इतने महान व्यक्तित्व से परिचय कराने का आभार।
ReplyDeleteयह तो अद्भुत है। अंग्रेजी के प्रति लोकमानस में व्याप्त धारणाओं के बारे में इतनी सारी आधारभूत जानकारियॉं! मेरे लिए तो आपकी यह पोस्ट बहुत ही प्रभावी औजार है। अंग्रेजी के क्रीतदासों की बोलती बन्द करने के लिए इसमें काफी कुछ है।
ReplyDeleteभगवान आपका भला करे।
इस दुर्लभ सामग्री को हम तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteसुखद है हमेशा यहाँ आना, और आभार व्यक्त करना आवश्यक।
ReplyDeleteबिलकुल नयी जानकारी रही यह मेरे लिए...
ReplyDeleteकोटि कोटि आभार ज्ञानवर्धन के लिए, हिन्दी के प्रति आस्था को और सुदृढ़ता देने के लिए...
ऐतिहासिक... तथ्यपरक...
ReplyDeleteज्ञानवर्धक प्रस्तुति...
सादर...
Durlabh aitihasik gyanvardhak jaankari prastutikarna ke liya aabhar!
ReplyDeleteMere blog post ka title sujhane ke liye dhanyavaad... kya karu kabhijaldi mein jo sujhta hai likh deti hun...
सुन्दर प्रस्तुति |मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वगत है । कृपया निमंत्रण स्वीकार करें । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी रही।
ReplyDeleteराहुल जी एक और सुनहले पन्ने को स्मृति में स्थान दिलाने के लिए आभार।
ReplyDeleteइतिहास के इन पन्नों को उजागर करने के लिये आपका धन्यवाद|
ReplyDeleteआपके सारे पोस्ट में ज्ञान का अद्भुत खजाना मिलता है.
ReplyDeleteछेदी लाल जी के बारे में जानकार अच्छा लगा ....
ReplyDeleteशुभकामनायें !
परिचित कराने के लिए आपका धन्यवाद राहुल जी