Sunday, May 24, 2020

त्रिमूर्ति से त्रिपुरी-1939

बिलासा केंवटिन वाले बिलासपुर से अनाम शबरी वाले शिवरीनारायण के रास्ते में है, त्रिमूर्ति तिराहा या शायद चौराहा। पहले यह मस्ताना चौक के नाम से जाना जाता था। यह नाम क्यों रहा होगा, खुद सोचें, बता कर आपके मन की गुदगुदी कम नहीं करना चाहता। इतना जान लें कि मान-शान में मुकाबला हजरतगंज और लोकनाथ से। कितनी दूर और कितना समय लगेगा? सवाल पूछने वालों से यही कहा जा सकता है कि फिर तो आप न ही जाएं वहां। हिसाब-किताब से मुक्त जाएं, तभी आप उस त्रिमूर्ति तक पहुंच पाएंगे। फिर भी क्लू दिया जा सकता है, रिस्दा के बाद लीलागर नदी का पुल, कुटीघाट, मंगल मवेशी बजार का भांठा, शरणार्थी कैम्प और अब प्लांटेशन वाला, फिर दाहिनी ओर कोनार का गढ़ दिखने लगेगा और बाईं ओर दूर वाली चिमनी, बनाहिल पावर प्लांट की और पास वाली रेमंड, लाफार्ज, निरमा वालों का न्यूवोको, नाम बदलता रहा इस सीमेंट फैक्ट्री का। बस, अब तब है त्रिमूर्ति।

यह कहानी इसी त्रिमूर्ति के आसपास गढ़ी-बुनी गई है, रचयिता है समय, लोग और यह भू-खंड। वैसे भी दस्तावेजों के आधार पर तैयार इतिहास अधिकतर प्रयोजनमूलक होता है, जबकि सच्चा सांस्कृतिक इतिहास लोक स्मृतियों में ही जीवन्त रहता है, जो समूह-अस्मिता को गढ़ता है। तू कहता कागज की लेखी ..., लेकिन यह तो ठीक-ठीक आंखन देखी भी नहीं, कानन सुनी और कुछ मन में गुनी हुई है।

नरियरा-बनाहिल-झलमला, आरसमेटा-कोनार-कोसा, सोनसरी-रिस्दा-डोंडकी, मुड़पार-मलार, भैंसो-नंदेली-व्यासनगर और मुलमुला, जिस गांव में यह त्रिमूर्ति है। आसपास वीरान गांव मस्तुरीडीह, गोंदाडीह, रोझनडीह, तावनडीह, बोहारडीह और इन सब के बीच आबाद है यह गांव मुलमुला। इस इलाके पर कभी रीझ गई थीं अमृता प्रीतम और इनमें से कुछ गांवों का उल्लेख उनकी कहानी ‘लटिया की छोकरी‘, ‘गांजे की कली‘ में आता है। माना जाता है कि जिस अंदाज की छत्तीसगढ़ी इस आसपास बोली जाती है, वैसी मिठास और सौंदर्य और कहीं नहीं। यह खास तौर पर उल्लेखनीय इसलिए कि ऐसा इन गांवों के लोगों को कहते कभी नहीं सुना, मगर ऐसा ज्यादातर वे मानते हैं, जो इस क्षेत्र से दूर-दराज हैं, अड़ोसी-पड़ोसी कहते ही हैं, जिनमें एक अकलतरा निवासी मैं स्वयं भी हूं।

कुछ बातें त्रिमूर्ति की। तय किया गया कि इस मार्ग संगम पर आसपास की विभूतियों की मूर्ति लगेगी। सबसे पहले तीन निर्विवाद नाम आ गए, लेकिन पूरा अंचल प्रतिभाओं की खान है, इसलिए तय करने में देर होने लगी, किसी ने सुझाया कि दो-तीन मंजिला बना दिया जाए, जिससे हर जाति, वर्ग, दल के महापुरुष एकोमोडेट किए जा सकें। इस तरह तीन का तेरह होने लगा। बहरहाल, हल निकला समय के साथ। इन कुछ गांवों लिए कहा जाता है- नार-फांस नरियरा बसै, फंकट बसै कोनार, काट-कूट कोसा बसै, देवता बसै मलार। आज के कवि अधिकतर बिना तुक की कविताएं रचते हैं, बेतुकी? वे अपने शब्दों पर संदेह करते दिखते हैं और अपनी कविता पर खुद ही भरोसा नहीं कर पाते। सहज विश्वासी लोकमन पर पद्य में कही गई बात का भरोसा जल्दी बैठता है और यदि उसमें तुकबंदी भी हो, जो आमतौर पर बिठाई ही गई होती है तो फिर कहने क्या। इस तरह की पद्य-पंक्ति मानो पत्थर की लकीर। इन गांवों के लिए कही गई ये बातें, परिहास-उपहास का आधार बनती हैं तो इन्हीं से महिमामंडन भी किया जाता है। लोकमन अपनी सुविधा से शब्द और पंक्ति जोड़-घटा, बदल लेता है और व्याख्या भी प्रसंगानुकूल कर लेता है।

इन गांवों में से नरियरा, रिस्दा, कोनार और मुलमुला के क्रमशः ‘भैरो, भोला, भुसउ, भान, ते कर मरम न जानय आन‘ अर्थात् इन चार महानुभावों के मर्म को अन्य कोई नहीं जान सकता। कुछ लोग आन के बजाय भगवान जोड़ते हैं, यानि भगवान ही इनका मर्म जान सकता है ’मरम जानय भगवान‘ या वह भी इनका मर्म नहीं जान सकता ‘न जानय भगवान‘। कभी इरादा होता है, चार खंडों का ग्रंथ बना डालूं, लेकिन वह इन महापुरुषों की महिमा का अनुमान लगाने को भी पर्याप्त न होगा, सोच कर रुक जाता हूं। फिलहाल इनमें से भानसिंह जी का एक प्रसंग, ‘मामूली-सा‘। उन्होंने अपनी संतानों का जैसा विवाह संबंध संभव किया था, वह पूरे विश्व में ज्ञात एकमात्र उदाहरण है। उन्होंने अपनी छह संतानों का ऐसा रिश्ता तय किया कि पिता-पुत्र उनके समधी बने। छह विवाह की तीन पिता-पुत्र समधी जोड़ियां। भानसिंह की पुत्री गुलापी देवी और पुत्र जीतसिंह, जिनका विवाह क्रमशः सिंउढ के चिंता सिंह के पुत्र बोधन सिंह (पत्नी गुलापी देवी) से तथा चिंता सिंह के पुत्र गोलन सिंह की पुत्री कुमारी देवी (पति जीत सिंह) से हुआ। इसी तरह भानसिंह के पुत्र रूप सिंह और पुत्र धीर सिंह, जिनका विवाह क्रमशः हरप्रसाद सिंह की पुत्री कनकलता (पति रूपसिंह) से और हरप्रसाद सिंह के पुत्र केशव कुमार सिंह की पुत्री रंजना देवी (पति धीर सिंह) से हुआ। पुनः भानसिंह की पुत्री शकुंतला देवी और पुत्री करुणा देवी, जिनका विवाह क्रमशः कौशल सिंह के पुत्र हरिहर सिंह (पत्नी शकुंतला देवी) से तथा कौशल सिंह के पुत्र विशेसर सिंह के पुत्र बृजराज शरण सिंह (पत्नी करुणा देवी) से हुआ। इस तरह भान सिंह के समधी बने सिंउढ़ ग्राम के पिता-पुत्र चिंता सिंह और गोलन सिंह, अकलतरा के पिता-पुत्र हरप्रसाद सिंह और केशव कुमार सिंह तथा नरियरा के कौशल सिंह और विशेसर सिंह।

इस अंचल की प्रसिद्धि लीला-नाटक और संगीत के लिए भी रही है। नरियरा में गउद वाले रासधारी दादू सिंह, रायगढ़ घराने के कत्थक गुरू कार्तिकराम का डेरा रहता था। अब सन 1939 का ऐतिहासिक 52 वां कांग्रेस अधिवेशन का प्रसंग, जिसमें गांधीजी समर्थित पट्टाभि सीतारमैय्या को हरा कर सुभाषचंद्र बोस दूसरी बार अध्यक्ष चुने गए थे। इस अधिवेशन के लिए स्थान चयन में छत्तीसगढ़ की भी दावेदारी थी, किंतु अंततः त्रिपुरी (जबलपुर) का चयन किया गया, किन्तु कर्ता-धर्ता महाकोशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सभापति और सेनापति, जीओसी यानि जनरल आफिसर कमांडिंग, छत्तीसगढ़ के ठाकुर छेदीलाल यानि अकलतरा वाले बैरिस्टर साहब थे।

इस अधिवेशन में याद किया गया कि इसके पहले 1926 के गोहाटी अधिवेशन में हाथियों की शोभायात्रा निकाली गई थी, लेकिन यह हाथी बहुल असम में हुआ था। बैरिस्टर साहब ने इस बावनवें अधिवेशन को भव्य और यादगार बनाने के लिए 52 हाथियों की शोभायात्रा का कठिन संकल्प ले लिया, जिसकी पूर्ति के लिए शोभायात्रा उपसमिति के प्रभारी बैरिस्टर साहब के छोटे भाई कुंवर भुवन भास्कर सिंह ने जी-तोड़ प्रयास कर, इसे संभव बनाया। शोभायात्रा के लिए 25 हाथी महाराजा सरगुजा ने स्वयं के खर्च पर भेजे थे। इसके अतिरिक्त रीवां महाराज और उनके माध्यम से विभिन्न रजवाड़ों और जमींदारियों से हाथी आए थे। इसमें बघेलखंड कांग्रेस कमेटी का योगदान भी उल्लेखनीय था। प्रसंगवश, सुश्री डॉ. कुन्तल गोयल ने मध्यप्रदेश सन्देश में ‘इतिहास के पृष्ठों को समेटे सरगुजा की वनश्री‘ शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया है- ‘स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दिनों में महाराजा रामानुजशरण सिंह देव ने अपनी सेना से 100 हाथी महात्मा गांधी के आयोजन को सफल बनाने के लिए रांची भिजवाए थे।‘ संभवतः यह जानकारी 1940 के रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन से संबंधित है, इससे लगता है कि कांग्रेस अधिवेशनों में हाथियों की शोभायात्रा का चलन हो गया था। 

इस शोभायात्रा में सबसे आगे, पहले हाथी पर गांधी जी और अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर ले कर कुंवर भुवन भास्कर सिंह के जुड़वा कुंवर भुवन भूषण सिंह उर्फ नक्की बाबू बैठे थे। नंदेली के पचकौड़ प्रसाद (इन हारमोनियम वादक को बाजा मास्टर नाम दिया था बैरिस्टर साहब ने, क्योंकि उनके पिता का नाम भी यही ‘पचकौड़‘ था।) संगीत उपसमिति के प्रमुख थे, जिनके नेतृत्व में वंदेमातरम गीत और पं. लोचन प्रसाद पांडेय द्वारा रचित स्वागत गान जैसी सांगीतिक प्रस्तुतियां हुई थीं। चर्चा होती है कि इस दल में भिखारी ठाकुर भी थे, लेकिन बोलबाला इस अंचल के संगीतकारों तबला वादक भान सिंह, इसराज वादक सुखसागर सिंह, वायलिन-सितार वादक हजारी सिंह का था।
हाथियों वाली शोभायात्रा

पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने स्वागत गान की रचना तथा त्रिपुरी कांग्रेस के संस्मरण को अपनी आत्मकथा में कुछ इस तरह दर्ज किया है-

एक दिन प्रातः मैं ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर (बार एट-ला) से मिलने उनके बिलासपुर स्थित निवास पर गया। उन दिनों वे प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने सस्नेह मेरा स्वागत करते हुए छत्तीसगढ़ी में कहा- ‘महराज मैं आज चिट्ठी भेजवैया रहें।‘ त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन के लिए एक स्वागतगान की आवश्यकता थी। उन्होंने कहा- ‘इस कार्य को आपके अतिरिक्त और कौन अच्छी तरह कर सकता है।‘ थोड़ी देर मौन रह कर मैंने उत्तर दिया- ‘बैरिस्टर साहब, मैं तो अब हिन्दी पद्य रचना बन्द कर दिये हेंव‘ इस पर उन्होंने कहा कि - मैं अपने प्रांत की ओर से आपसे इस कार्य का भार ग्रहण करने का अनुरोध करता हूं। मैंने प्रत्युत्तर में कहा कि चूँकि यह आदेश प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष का है अतः मैं इसका पालन करूंगा; लेकिन मुझे भय है कि कहीं मेरी कविता उच्च कोटि की न बन सके।‘ इस पर वे हँस पड़े और मैंने उनसे विदा ली।

घर लौट कर मैंने बैरिस्टर साहब की इच्छानुसार हिन्दी में कुछ पंक्तियां लिखीं पर वे मुझे उच्चकोटि की प्रतीत नहीं हुई। उचित समय पर मैंने इन पंक्तियों को बैरिस्टर साहब के पास उनका अभिमत जानने के लिए भेज दिया।... ... ...त्रिपुरी में मेरी भेंट श्री छेदीलाल जी, शुक्ल जी, महंत जी, मिश्र जी सेठ गोविंद दास तथा अन्य कांग्रेस जनों से हुई। ये सभी महानुभाव अधिवेशन के प्रबंध एवं स्वागत कार्यों में जुटे हुए थे। महंत जी ने मुझे बताया कि स्वागत समिति ने कांग्रेस के खुले अधिवेशन में गाए जाने के लिए मेरा स्वागत गान स्वीकृत कर लिया है। यह खबर सुन मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर का भी मैं आभारी था क्योंकि उन्होंने ही तो स्वागत गान लिखने के लिए मुझे आदेशित किया था।... ... ...महात्मा जी उस समय तक नहीं पधारे थे। अध्यक्ष गंभीर रूप से अस्वस्थ्य होने के कारण कलकत्ते में रोग-शैय्या पर पड़े थे। अध्यक्ष के स्वागत तथा जुलूस के लिए 56 से अधिक हाथी पहुंच चुके थे।... ... ...जब हम रौशनियों से जगमगाती दुकानों और पुस्तक विक्रेताओं के स्टालों का निरीक्षण कर रहे थे तभी यह शोर उठा कि एक हाथी अनियंत्रित हो गया है तथा दुकानों को तोड़ रहा है। हम लोग असमंजस में पड़ गये। लेकिन तुरंत ही खबर आई कि हाथी नियंत्रण में आ गया है तथा किसी प्रकार घबड़ाने की जरुरत नहीं है । इस सूचना से हमें राहत मिली।... ... ...ऐसा ज्ञात हुआ था कि त्रिपुरी कांग्रेस के प्रथम दिन के सभी कार्यक्रमों को न केवल अभिलिखित किया गया था बल्कि उनका चलचित्र भी उतारा गया था।

त्रिपुरी कांग्रेस के खुले अधिवेशन (1939) में गाया गया स्वागत गान

त्रिपुरी आज मुदित महान
महाकोशल चेदि मेकल हुए गौरववान
राष्ट्रपति भारत हृदय मणि विश्वबंधु प्रधान
सत्य समता अहिंसा के दिव्य दूत महान
यहां पधारे साथ लेकर भारत-भू भगवान
बुद्ध-ईसा-कृष्ण के तप-योग-बल बलवान
पुण्य आश्रम शर्मदा शुभ नर्मदा वरदान
युद्ध ज्वाला से लहे संसार अपना त्राण
पधारो भारत के यश चंद
तव सुभाष की सुधा लाभ कर कटे जाति दुख द्वन्द
वसुधा-हो वसु-पूर्ण प्रेम मय, मानवता स्वच्छंद
दुर्गावती-वीरता-केतन त्रिपुरी-शौर्य-अमन्द
रेवा जल से चरण पखारे ले सेवा आनंद

गान

त्रिपुरी करत स्वागत गान
जयति भारत विश्व हित रत जयति हिन्दुस्तान
अंग, बंग, कलिंग स्वागत शौर्य शक्ति निधान
सिन्धु-गुर्जर द्रविड़ उत्कल कला-कौशलवान
हस्तिना, काशी, अयोध्या, द्वारका गुण खान
समुद्र स्वागत पंचनद-भू कामरूप महान
हृदय सिंहासन बिछे हैं कर रहे आह्वान
नर्मदा तट महाकोशल बने गौरव-वान
वीर नन्द-आर्य ललना शक्ति केतन प्रधान
भूमि यह दुर्गावती की धन्य आज महान
कलचुरी हैहय महीपों का सुराज विधान
लखे नव ऋषि राज का नव-युग ‘स्वराज‘ विहान

पं. लोचनप्रसाद जी ने इंडियन हिस्टारिकल रिकार्ड कमीशन के कलकत्ता अधिवेशन 1938 के संस्मरण में ‘त्रिपुरी‘ से संबंधित एक अनूठा अविश्वसनीय प्रसंग का उल्लेख किया है कि हिस्ट्री कांग्रेस अधिवेशन के प्रतिनिधियों के लिए आयोजित स्टीमर विहार में ‘जगत विख्यात जादूगर पी.सी. सरकार हमारे मनोरंजनार्थ स्टीमर पर उपस्थित थे। उन्हांेने जादू के अद्भुत और आश्चर्यजनक खेलों का प्रदर्शन किया। हममें से कोई भी व्यक्ति ब्लैक बोर्ड पर अपनी इच्छा से कुछ भी लिखता था और श्री सरकार जो कि न केवल ब्लैकबोर्ड की ओर पीठ किये हुए थे बल्कि अपनी आंखों पर पट्टी भी बांधे हुए थे, उसे पढ़ते और उसका अर्थ बताते थे। यह हमारे लिए विस्मयकारी था। मैंने ब्लैकबोर्ड पर 300 ईसापूर्व की ब्राह्मी लिपि में ‘त्रिपुरी‘ लिखा। श्री सरकार से तुरंत उत्तर आया- “पिछले वर्ष के कांग्रेस अधिवेशन का स्थल, जिसके जुलूस में 56 हाथी थे“ वहां उपस्थित सभी विद्वान श्री सरकार की योग शक्ति पर चकित हो गये। (यहां तिथि के उल्लेख में चूक दिखती है, क्योंकि त्रिपुरी कांग्रेस का वर्ष 1939, इस अधिवेशन के साल 1938 के बाद का है!)
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आगे कुछ बातें सीधे मुलमुला की माटी यानि आदरणीय भाई साहब रमाकांत सिंह जी उर्फ बाबू साहब वल्द जीत सिंह वल्द भान सिंह की ओर से, नाममात्र को कतर-ब्योंत कर, उनकी अनुमति से प्रस्तुत-

मोर गुरु गटारन

हर युग में छला जाता है शिष्य यदि गुरु द्रोण हो। द्वापर में छला गया एकलव्य और कलियुग में सुखसागर। गुरु रामलखन दास जी वैष्णव, बनारस घराना। कण्ठे महाराज के परम और प्रिय शिष्य। वैष्णव जी का शायद प्रेम, झुकाव ज्यादा भान सिंह की ओर। सुखसागर ददा विनोदी स्वभाव संग स्मरण-कुशाग्र थे। वैष्णव जी के कलादान, ज्ञान के अंतिम वर्षों में मुलमुला में भान सिंह को एक शाम कुंआ के पाट पर बैठ तबला वादन की एक अतिरिक्त कला का गुप्त ज्ञान दे रहे थे। गुरु-शिष्य डूब गए थे, गोधूलि बेला में लय-सुर-ताल में।

ढाबों की पंक्तियां, जामुन, बिही, केला, सीताफल और बंधवा तालाब के पार पर अटी पड़ी गटारन झाड़ियां। जैसे-तैसे रात बीती, सुबह रियाज में भिड़ गये। भानसिंह गुनगुनाते हुए तबले पर चलाने लगे उंगलियां। अचानक इसराज पर वही लय-सुर-ताल झंकृत हो उठे। इधर भान सिंह की उंगलियां तबले पर नाचे, उधर इसराज के तार डोल उठे बोल पर बोल।

रामलखन दास जी मगन थे अपनी सिखाई विद्या पर, किन्तु अचानक बिजली सी कौंधी, माथा सन्न सन्न कर गया। अरे सुखसागर! ए धुन ल तैं कहाँ पाये रे? तो ला कोन सिखोइस?, तोर गुरु कोन? सुखसागर ददा बोले- मोर गुरु गटारन। ‘मोर गुरु गटारन‘, बन गई पहेली। वैष्णव जी बोले मैं समझा नहीं, जरा खुलकर बताओ तो। ये धुन, ये ताल मुलमुला में आखिर तुम्हें किसने सिखाया। सुखसागर ददा ने कहा, गुरुदेव आप भान भैया को ये ताल सिखला रहे थे। हां तो, तब मैं गटारन झाड़ी के नीचे दिशा-मैदान में बैठा था। क्या बोले, अरे भाई मैं दिशा फड़ाका में बैठा था। वैष्णव जी बोले मैं तो बहुत देर तक समझाता रहा ये ताल। तो क्या हुआ, मैं भी आखिरी तक सुनता रहा। मैं भूल गया कि मैं नित्य कर्म के लिए बैठा हूँ। धुन और ताल में इतना खो गया कि सब भूल गया। मुझे याद रहे तो बस वो ताल और धुन संग बोल। बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई। और मुझे गटारन के नीचे आपके गुप्त ज्ञान की। अनायास सुखसागर ददा का विनोदी चंचल मन बोल उठा, मोर गुरु गटारन। ये कोई किस्सा नही जीवन के जीवंत पल साक्ष्य सहित। उनके हाथों लिखी पांडुलिपि, सुखसागर ददा के छोटे सुपुत्र भूलन सिंह के पास सुरक्षित है।

एक और संस्मरण। भैया क्रान्तिकुमार सिंह की जुबानी। बनारस घराने की सुप्रसिद्ध नर्तकी विद्याधरी, इसने जीवन पर्यन्त पूज्य कण्ठे महाराज की आराधना की। कण्ठे महाराज की मीरा थी विद्याधरी। घुंघरू बंधे तो बस कण्ठे महाराज के तबले की थाप पर और खुल गये तो फिर कभी बंधे ही नहीं। मोह, मौन और संकल्प भंग होता है। कण्ठे महाराज के शिष्य रहे श्री रामलखन दास वैष्णव जी। रामलखन दास जी के शिष्य रहे मुलमुला परिवार में भानसिंह ’तबला‘ और सुखसागर सिंह ’इसराज‘।

बनारस घराना ने बरसों कूटा और मांजा दोनों भाइयों को। रामलखन दास जी जब आश्वस्त हो गए, तब इन्होंने अपने शिष्यों से कहा बबुआ अब गंगा स्नान करेंगे। एक सुघर दिन गंगा स्नान कर गुरु कण्ठे जी को प्रणाम किया। एक संजोग इंतजार में बैठा था। विद्याधरी अपने घुंघरू उतार गुरु कण्ठे जी के पास बैठी थी। गुरु शिष्य का मिलन और वार्ता रहा होगा अलौकिक। रामलखन दास जी ने कण्ठे महाराज से मिलवाया, ये रहे मेरे शिष्य भान सिंह और सुखसागर सिंह। वैष्णव जी अपनी साधना, अपने गुरु को दिखाना चाहते थे। हठी बैरागी वैष्णव अपने शिष्यों को अँखिया चुका था, चूकना मत ये अवसर, आज नहीं तो कभी नहीं। रामलखन दास जी के मन रही होगी गांठ। विद्याधरी नाचे उसके शिष्यों की ताल और थाप पर। कारण भी ईश्वरीय महिमा ही कहें, विद्याधरी ने जब से होश सम्हाला था तो थिरकी थी गुरु कण्ठे जी की थाप पर, घुंघरू खुले तो उसकी थाप पर।

रामलखन दास जी का आदेश और उबलता खून दौड़ पड़ा। वैष्णव जी का आदेश हुआ, घुँघरु बंधे तो गुरु दक्षिणा पूरी हुई समझो, अन्यथा मेरी गंगा समाधि, मेरा हठ या भाग्य मानो। शुरू करो आठ गुना से, फिर करो सोलह गुना। सोलह गुना पर थोड़ा दौड़ाओ और बत्तीस गुना पर नचाओ। ताल और थाप का ऐसा संगम हुआ कि विद्याधरी के हाथ पड़े हर थाप पर, जांघ पर। पैरों में न जाने कब घुंघरू बंधे। कौन जाने कब पैरों ने थिरकना शुरू किया और कब किसके ताल-लय पर, कौन थिरका, थमा। उस संस्मरण की गूंज आज भी थिरकती है कानों में। कण्ठे महाराज को गुरु दक्षिणा मिली वैष्णव जी से। और वैष्णव जी भर पाए गुरु दक्षिणा मुलमुला से। रामलखन दास जी बोले कण्ठे महाराज जी से महाराज जी! ये ससुर हमको मलमल का धोती आउ कुर्ता दिए थे। फिन भुछि दक्षिना नहीं दिए थे न, आज मन गदगदा गया, मिल गया सब्बे कुछउ।


Wednesday, May 20, 2020

अमृत नदी


‘तीरे तीरे नर्मदा‘ में सौन्दर्य है और अमृत भी। यानि अमृतलाल वेगड़ की शब्द-कृतियां, ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा‘, ‘अमृतस्य नर्मदा‘ और ‘तीरे-तीरे नर्मदा‘, और साथ में भूयसी भी। ऋतचक्र, सृष्टि और जीवन के वृहत्तर से सूक्ष्मतर में सतत है, शायद यही मानव में परिक्रमा-वृत्ति बन कर विद्यमान है। लेखक की नर्मदा परिक्रमा, जल-रेखा के समानांतर प्रवाहित निष्ठा और समर्पण की जीवन-धारा ही है। परिक्रमा का यह विवरण ऐसा स्वाभाविक, इतना सहज कि लगे, विषय नदी-परिक्रमा जैसा हो तो बस लिख लेना पर्याप्त है। आस्था भी संक्रामक होती है, इतनी आस्था से लिखा गया कि आप लाख ‘तटस्थ‘ रहना चाहें, डुबकी लग ही जाती है। नर्मदा, पास बुलाती है, अपनी ओर खींचने लगती है। यों भी छत्तीसगढ़ी में ‘तीर‘ शब्द निकट के अलावा, तीरना बन कर खींचना अर्थ भी देता है।

कैसी उलटबांसी कि नर्मदा उल्टी बहती है, उसकी तो वैसी चाल, जैसी ढाल। वह ‘उल्टी‘ बहती ही शायद इसलिए, कि नदियों के बहने का भी उल्टा-सीधा तय किया जाने लगा। परिक्रमा, रेखा को वृत्त-मंडल बना देती है, जितनी भी दूरी नाप लें, भौतिक विस्थापन शून्य रहेगा। नर्मदा परकम्मा, परिक्रमा है, उसमें खंड परिक्रमा है और जिलहरी परिक्रमा यानि समुद्र संगम को लांघे बिना दुहरी परिक्रमा भी। पुस्तक में ‘नर्मदा‘ नाम को रह जाती है, उद्दीपक, अन्यथा बस नदी और जीवन प्रवाह। यों तो धर्मशालाएं हैं और निरंतर सदावर्त भी, लेकिन एक ऐसे संन्यासी का उल्लेख है, जिसे कुछ न मिले ‘‘तो माँ का दूध।‘‘ यानि नर्मदा का पानी। नदी-तट की ऐसी यात्रा पराक्रम से कम नहीं, लेकिन परकम्मावासी की आस्था-दृष्टि सफर की अड़चनों को जिस तरह देखती है, उसका एक नमूना- ‘‘मैंने ढिबरी और मोमबत्ती के काकभगौड़े खड़े करके जाड़े को भगा दिया था!‘‘ लेकिन इनमें शायद सबसे सुंदर वह जिसमें किसी ने परकम्मा अमरकंटक से उठाई, बछिया साथ लेकर। गाय बनी और रेवा-सागर संगम पर बछिया को जन्म दिया। गाय का नाम नर्मदा, बछिया रेवा। बताता है- ‘‘सच तो यह है कि परकम्मावासी तो गाय है। मैं तो उसके साथ-साथ चल रहा हूँ। मालिक वो है, मैं उसका नौकर हूँ। हाँ उसकी ओर से संकल्प मैंने किया था।‘‘

लेखक, चित्रकार हैं और उनके कोलाज रेखाचित्रों के साथ इस मुखर चितेरे की यह शब्द-कृति पुस्तक बनी। परिचय में कहा भी गया है कि ‘‘अमृतलाल के शब्दचित्र और रेखाचित्र बहुत घनिष्ठ सजातीय हैं। स्वाभाविक ही इस चितेरे के मन में बार-बार उभरते बिंब, शब्दों में, कहीं कविता की तरह भी ढलते जाते हैं। वे कहते हैं- ‘‘सरसों के पीले खेत देखकर मुझे बार-बार बसोहली शैली के चित्र याद आ जाते।‘‘ या ‘‘अमूर्त शिल्पों की विशाल कला-वीथी है यहाँ।‘‘ और ‘‘सुन्दर घाट इस तट से और भी सुंदर लग रहे थे। मानो किसी बड़े तैलचित्र की तरह अंकित हों।‘‘ जोशीपुर से होशंगाबाद होते बान्दराभान पहुंच कर ‘‘बान्दराभान में सूर्योदय‘‘ का गंभीर काव्यात्मक चित्रण यह कहते हुए किया है कि पत्रकार होता तो रिपोर्टिंग कुछ इस तरह करता, फिर मजे-मजे में सम्पादक, अखबार की खबर लेते, खुद पर हंसने का मौका भी बना लेते हैं।

पुस्तक में सोन का उद्गम अमरकंटक कहा गया है, यह मान्यता है, लेकिन तथ्य नहीं। यहां लेखक न सिर्फ मान्यताओं के साथ है, बल्कि तथ्य का उल्लेख भी नहीं करता। इसी तरह बात आती है- ‘‘गरीबा ने कहा कि वह धामन साँप था जो बहुत जहरीला होता है।‘‘ धामन जहरीला कतई नहीं, बल्कि वह तो बेहद घरु किस्म का प्यारा, दुलारा मित्र-सर्प है। छत्तीसगढ़ी कहावत है- ‘कहां जाबे रे धमना, किन्दर बूल के एही अंगना‘। धामन, किसान के घरों में धान की कोठी में रहता है, कहीं जाता नहीं, घूम-फिर कर वहीं बना रहता है, मनुष्य को देखकर तेजी से भागता है और चूहों को आहार बना कर किसान की नुकसानी कम करता है। उजियारा और अंधियारा पाख की चर्चा करते लेखक ‘‘अँधियारा पाख व्यर्थ बदनाम है‘‘ कहता है, वहां लगता है कि उसने मानस की पंक्ति ‘सम प्रकास तम पाख दुहुँ ...‘ को आत्मसात किया है। इसके अलावा चांद के लिए कुछ और बेहतरीन बयान हैं, जैसे- ‘‘चाँद सर्जक नहीं, अनुवादक है। वह धूप का चाँदनी में अनुवाद करता है।‘‘ या ‘‘राहु एक चंचल बिलौटा है और पूनम का चाँद खीर का कटोरा।‘‘

यात्रा के बहुतेरे स्फुट प्रसंग हैं, यहां उनमें कुछ का उल्लेख। बैगा रोते हुए भूखे बच्चे को चुप नहीं कराता, खाना नहीं है, देने को तैयार भी नहीं, कहता है ‘‘उसे भूखा रहना सीखना होगा। उसे भूखा रहने की आदत डालनी होगी।‘‘ यहां बैगा का कथन दीन-हीन बेचारगी का नहीं है, बल्कि बच्चे को भूखा रखना वैसा ही है जैसा व्रत-उपवास। जनजातीय समुदाय में ऐसी कई परंपराएं हैं, जो प्रकृति और जीवन की विषम परिस्थितियों को बरदाश्त करने के अभ्यास की तरह होती हैं। वैसे आधुनिक शिशु-पोषण विज्ञानी भी अब सलाह देते हैं कि छोटे बच्चों को निश्चित समय पर आहार देने से उन्हें भूख का वैसा अहसास नहीं हो पाता, इसलिए थोड़ी अनियमितता, कुछ समय के लिए भूखा रखना जरुरी है। नवजात की सिंकाई की जाती है, उसे मालिश कर थकाया जाता है, यह किसी न किसी रूप में हर जगह प्रचलित है। कुसमी-सरगुजा अंचल के कुछ जनजातीय समुदाय में मानव-नवजात को अधपका माना जाता है और उसे ‘पकाने‘ के लिए धूप मिट्टी में खुले बदन छोड़ दिया जाता है। यह रूढ़ नासमझी नहीं, वस्तुतः सिंकाई, मालिश-एक्यूप्रेशर और मृदा-स्नान का आदिम-वैज्ञानिक तरीका है। एक अन्य जनजातीय परंपरा का उल्लेख आया है, जिसमें कहा गया है कि- ‘‘कन्यादान लड़की का पिता करता है, दाता वह है। दाता की शोभा इसी में है कि वह खुद जाकर दान करे, किसी को माँगने के लिए उसके घर न आना पड़े। इसीलिए वह बेटी की बारात लेकर लड़के वालों के घर जाता था। यह ब्रह्मर्षि विवाह है। जिसमें लड़का बारात लेकर लड़की के घर जाता है, यह राजर्षि विवाह है। लेकिन अब इसी का रिवाज है।‘‘

कलम का जादू है या जलधारा का, लेखक के ललित गद्य और कविता में अंतर नहीं रह जाता, लेकिन वे स्वयं अपने लेखन और कविताई की मौज लेते हैं। अपने तईं कविता करते हुए लिखते हैं- ‘‘बादल उड़ती नदी है, नदी बहता बादल है।‘‘ और बताते हैं कि नोटबुक में लिखी पंक्तियाँ, उनके कवि मित्र द्वारा इसे कविता न मानते हुए रद्द कर दी गई। यहां मुझ जैसा पाठक तो उनके कवि मित्र को ही रद्द कर देना चाहेगा। ऐसी ही एक सुरमयी पंक्ति है- ‘‘अगर चट्टानें न हों, तो नदी से गाते ही न बने।‘‘ या नर्मदा के साथ उसकी सहायक नदियों से अपना नाता जोड़ते हुए कहना कि ‘‘मौसी का प्रेम माँ के प्रेम से कम नहीं होता‘‘, (प्रसंगवश राही मासूम रजा ने कहा था- ‘मैं तीन माओं का बेटा हूँ। नफीसा बेगम, अलीगढ़ युनिवर्सिटी और गंगा।‘ इसी तरह ‘दर दर गंगे‘ पुस्तक का पात्र अयाज़ इससे भी एक कदम आगे की बात कहता है- ‘‘गंगा मैया, तेरे आगे मां भी मौसी लगती है।‘‘) न ही नर्मदा-महिमा गाते उनका मन भरता, ढाई-एक सौ पेज के यात्रा-संस्मरण को कहते हैं ‘‘चिड़ी का चोंच भर पानी‘‘ और नर्मदा की सहायक बुढ़नेर, बंजर, शक्कर नदियों की परिक्रमा कर उसका भी लेखा यहां जोड़ लेते हैं।

लेखक, नदी के साथ उसकी संस्कृति का दर्शन, सहज कराता चलता है- ‘‘पर्वत की देवी हैं- पार्वती, हिमालय की बेटी। मैदान की देवी हैं सीता जो राजा जनक को हल चलाते समय खेत में मिली थीं। और समुद्र की देवी हैं लक्ष्मी जो समुद्र मन्थन में से निकली थीं। मजे की बात यह है कि तीनों के ही भाई नहीं हैं। इनमें से किसी के भी माता-पिता ने बेटे के लिए मनौती मानने की आवश्यकता नहीं समझी।‘‘ नर्मदा महिमा-मंडन में संस्कृति-संगम का भाव आता है, इस तरह- ‘‘कहते हैं गंगा सप्तमी के दिन गंगा नर्मदा में स्नान करने आती है।‘‘ और इसी तरह के कहन को याद करते हैं- ‘‘नर्मदा की नहायी छोरी है, संस्कार अच्छे कैसे नहीं होंगे!‘‘ पुस्तक में यह भी अच्छी तरह रेखांकित हुआ है कि नदियां, यहां नर्मदा, भाषा-संस्कृति की टूट को, भेद को जोड़ती है। ‘‘मेहंदी ते बाबू मालवे नेनो रंग गयो गुजरात रे!‘‘ यानि मेंहदी तो मालवे में लगायी, पर उसका रंग गुजरात जा पहुँचा। लेखक, स्वयं के उदाहरण सहित अन्य निवासियों के प्रदेश अदला-बदली का भी उल्लेख करते हैं। छत्तीसगढ़ का उल्लेख आता है और सहयात्री बने हैं- रायपुरवासी (अब बैकुण्ठवासी) आचार्य सरयूकान्त झा। आचार्य झा नर्मदा यात्रा और इस यात्रा संस्मरण में ऐसे रमे कि छत्तीसगढ़ी अनुवाद ‘सुन्दरता के नदी नरबदा‘ और ‘अमृत के नरबदा‘ उनके जीवन की अंतिम इच्छा बन गई थी (अंतिम मुलाकात में जैसा उन्होंने मुझसे कहा था), जो अब प्रकाशित भी हो गई है।

पुस्तक के अंतिम पृष्ठों पर श्रीमती कान्ता वेगड़ का ‘मेरे पति‘ है, जिसे पढ़ते हुए लगता है कि यह भी अमृतलाल जी ने ही लिखा है, यहां वाक्य है- ‘‘उनके साथ रहते-रहते मैं भी उनके रंग में कितना रंग गयी हूँ ...‘‘, इसलिए ऐसा लगना स्वाभाविक ही है, साथ ही पुस्तक के अंत में प्रकाशित चित्र, दम्पती कितने एकरूप हो गए हैं, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
गति-स्थिति का दर्शन है यह पूरा यात्रा-वृत्तांत। लेखक महसूस करता है कि ‘‘अमरकंटक से चलते समय उसमें प्रस्थान का जैसा उत्साह था, यहाँ मंजिल पर पहुँचने का वैसा ही संतोष है।‘‘ मगर नदी-यात्रा के प्रति लेखक का ‘अतृप्त‘ मन भी कुछ इस तरह है- ‘‘एक जीवने रे लाखो उपाधि, केम जीवे जीवनार रे! जीवन एक है और परेशानियाँ लाख-लाख, जीने वाला जीये तो कैसे जीये! और शायद इसीलिए वे कहते है- ‘‘अगर पचास या सौ साल बाद किसी को एक दम्पती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे ... तो समझ लीजिएगा कि वे हमीं हैं- कान्ता और मैं।‘‘ हर नर्मदे!