Sunday, May 4, 2025

महाभारत, भारत और भरत

श्रीमद्भगवतगीता (गीता) और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर‘ में शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री जी ने इसे ‘हमारी सनातन बुद्धिमत्ता और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता‘ कहा है। इस खबर पर कहा जा सकता है कि किसी भी सूची की विश्वसनीयता और महत्व, उसकी प्रविष्टियों से होता है और इन दो प्रविष्टियों से ‘रजिस्टर‘ की दर्ज संख्या के साथ विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। रामचरितमानस, पंचतंत्र और आचार्य आनंदवर्धन कृत सहृदयालोक जैसी प्रविष्टियां इस रजिस्टर में पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं। 1992 में स्थापित इस रजिस्टर का मुख्य उद्देश्य दस्तावेजी धरोहरों का संरक्षण है। गीता के साथ विशेष उल्लेखनीय कि वह हमारी परंपरा में भी ‘स्मृति प्रस्थान‘ है। 

तीन प्रस्थानों- श्रुति, स्मृृति और न्याय में दूसरा, यानि स्मृति प्रस्थान, गीता है। श्रुति, उपनिषद हैं, जो वेद-समष्टि के भाव-बोध को, स्थायी मूल्यों को, शब्दों में लाने का उद्यम, अवधारणा हैं। इसलिए सर्वकालिक हैं। स्मृति, व्यक्ति के द्वारा समष्टि के लिए की गई श्रुति-अवधारणा की व्याख्या है, समयानुकूल, प्रसंगानुकूल आकृति-विन्यास है और ‘ब्रह्मसूत्र‘ न्याय अवधारणाओं का विश्लेषण, मीमांसा। श्रुति की अभिव्यक्ति- भाषा, चित्र, गीत में हो सकती है, अविच्छिन्न का ऐसा अंश, जिसमें प्रकृतिगत पूर्णता है, संस्कार की परतें उसे एकांगी बनाती हैं, उनसे उबर कर बोध की अपनी मूल प्रवृत्तियों को पहचाना जा सकता है। 

महाभारत के छठवें- भीष्म पर्व से जय (महाभारत) युद्ध आरंभ होता है। दसवें दिन के युद्ध में भीष्म के शर-शैया पर आ जाने के बाद संजय कुरुक्षेत्र से लौटे हैं। व्यास के धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान करने के प्रस्ताव पर धृतराष्ट्र कुटुम्बीजनों का वध न देखना पड़े, मगर युद्ध का सारा वृतांत जानें, ऐसी इच्छा व्यक्त करते हैं। इस पर सूत गवल्गण पुत्र संजय को स्वयं व्यास दिव्य दृष्टि संपन्न हो कर सर्वज्ञ होने का वर देते हैं कि वह युद्धभूमि की सारी बातें, जो उसके प्रत्यक्ष न हो अथवा वह मन में ही क्यों न सोची गई हो, जान लेगा। संजय स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवाद को सुना। धृतराष्ट्र प्रश्न करते हैं संजय उनका समाधान करते हैं, इसलिए ‘गीता‘ लाइव, रीयल टाइम नहीं, बल्कि संजय द्वारा देखा-जाना-बूझा, सुनाया गया स्मृति-प्रतिवेदन है। 

स्मृति का एक रिफ्रेशर स्वयं महाभारत, आश्वमेधिक पर्व में अनुगीता पर्व है, जिसमें गीता के 700 श्लोक से लगभग ड्योढ़ी, 1027 श्लोक की अनुगीता है। अनुगीता में अर्जुन को कृष्ण गले लगाते, मगर फटकारते हैं कि उसने गीता का उपदेश याद नहीं रखा। साथ-साथ कृष्ण यह भी स्वीकार करते हैं कि वह पूरा स्मरण न हो पाने के कारण उसे उसी रूप में दुहरा देना अब उनके वश में भी नहीं है। ध्यातव्य कि अनुगीता, स्मृति प्रस्थान गीता की प्रसंगानुकूल व्याख्या है, इसलिए दुहराई नहीं गई, (दुहराने का औचित्य भी न होता) और आकार बढ़ गया है। 

गांधी, हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) से, खासकर उनकी पुस्तक ‘सिविल डिसओबिडिएन्स‘ से प्रभावित थे वहीं थोरो भारतीय दर्शन और चिंतन के समर्थक, उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वॉल्डन‘ में कहा है- ‘प्राचीन खंडहरों की तुलना में भगवद्गीता कितनी अधिक महिमामयी है।‘ गीता पर बाल गंगाधर तिलक जैसे विद्वानों की टीका के अलावा गांधी की ‘अनासक्ति योग‘ प्रसिद्ध है। गांधी का संदर्भ लें तो उनके ‘हिन्द स्वराज‘ श्रुतित्व, आत्मकथा स्मृतित्व, पत्रादि अन्य लेखन में न्यायत्व है। गांधी, हिन्द स्वराज में कोई परिवर्तन नहीं करते बल्कि वर्षों बाद के भी किए गए सवालों का जवाब देते हैं कि ऐसी बात वे पहले ही हिन्द स्वराज में कह चुके हैं। जैसा कहा जाता है कि आवश्यक होने पर संविधान की व्याख्या में उसकी ‘श्रुतिगत‘, प्रस्तावना-आधार मददगार होगी। 

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नाट्यशास्त्र को पंचम वेद भी कहा गया है। नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के बारे में कथा बताई जाती है देवताओं के अनुरोध पर ब्रह्मा ने ऋग्वेद के पाठ्य, सामवेद के गीत, यजुर्वेद के अभिनय तथा अथर्ववेद के रस तत्त्व से इस पंचम वेद को रचा, कथा का आशय नाटक परंपरा का मूल चारों वेद ही हैं। चार उपवेदों अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और आयुर्वेद से संबद्ध नाट्यवेद, सर्वश्राव्य, अर्थात जो सभी वर्णों के लिए हो, इस पांचवे वेद की सृष्टि हुई। 

नाट्यशास्त्र का रचयिता मुनि भरत को माना जाता है। यहां भरत, भारत और भारती इन तीन शब्दों पर विचार कर लें। भारत का एक अर्थ अभिनेता भी है और भरत को भी व्यास की तरह व्यक्ति-विशेष नहीं जातिवाचक माना जाता है। कुबेरनाथ राय भरत को कल्पित या कुल-नाम मानते हुए, भरतों को कला-रसिक, साहित्य, कथा, और अभिनयपटु बताते हैं और इस तरह कला, संगीत, साहित्य की ‘वाग्देवी‘ सरस्वती का नाम भारती सटीक बैठता है। नाट्यशास्त्र के पैंतीसवें अध्याय के एक श्लोक का संदर्भ भी प्रासंगिक होगा, जिसमें भरतों (नटों) के प्रकार बताते हुए कहा गया है- ‘जो नाटक के अभिनय में अकेला धुरी की तरह हो, अनेक भूमिकाएं करके नाटक का उद्धार करने वाला हो, भाण्ड और उपकरण भी संभालता हो, वह भरत है। 

स्मरणीय कि नाट्यशास्त्र का पाठ बहुत बाद में प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ का उल्लेख तो मिलता था, लेकिन ग्रंथ उपलब्ध नहीं था। 1789 में सर विलियम जोन्स ने मूल संस्कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‘ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कराया, तब उसकी भूमिका में नाट्यशास्त्र के उपलब्ध न होने का अफसोस भी जताया। होरैस हेमैन विल्सन ने मूल संस्कृत नाटकों के आधार पर दो खंड तैयार किए, जिसका प्रकाशन 1827 में हुआ। विल्सन, जोन्स के शकुंतला नाटक के क्रम में एच.टी. कोलब्रुक 1808 के शोध लेख और जे. टेलर द्वारा अनूदित नाटक प्रबोध चंद्रोदय 1811 की चर्चा करते हुए विभिन्न टीकाकारों द्वारा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का संदर्भ लिए जाने एवं उक्त के उपलब्ध न होने का उल्लेख करते हैं। अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर नाट्यकला के तीन प्रकारं- नाट्य, नृत्य और नृत्त को स्पष्ट करते हुए उल्लेख करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इनमें अभिनय और भाषा के साथ किया जाने वाला ‘नाट्य‘ ही वास्तविक नाटक है, ‘नृत्य‘, भाषा (संवाद) के बिना, मूकाभिनय का हाव-भाव है और ‘नृत्त‘, नर्तन-मात्र है। तथा देवताओं के सामने प्रदर्शन के लिए गंधर्व और अप्सराओं को भरत ने प्रशिक्षित किया। 

विल्सन के बाद नाट्यशास्त्र के कुछ फुटकर अंश प्रकाश में आए, मगर समग्र रूप 1894 में पहली बार प्रकाशित हुआ। इसने न सिर्फ भारतीय रंगमंच, बल्कि पूरी दुनिया के रंगकर्म को प्रभावित किया। नाट्यशास्त्र का प्रामाणिक संस्करण अभिनवगुप्त की टीका अभिनवभारती सहित चार खंडों में 1926 से 1964 के बीच प्रकाशित हुआ। अब 2024 में पहली बार अधिकारी विद्वान आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा किया गया इसका संपूर्ण हिंदी अनुवाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है। आचार्य त्रिपाठी, साहित्य के पांच ग्रंथों में ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र के साथ नाट्यशास्त्र की गणना करते हैं। 

नाट्यशास्त्र के लिए कहा जाता है कि संसार का ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग, कर्म नहीं जो इस नाट्य में गुंफित न हो जाता हो। 37 अध्याय वाले इस नाट्यशास्त्र के आरंभिक अध्याय में नाट्योत्पत्ति और मंडपविधान विवरण है। अगले अध्यायों में रस सिद्धांत- मुद्राएं, अभिनय, भाव और रस, वाणी, छंद, काव्यशास्त्र, वाद्य-संगीत, नृत्य आदि की विशद व्याख्या है। अंत में यह भी कहा गया है- ‘नाट्यवेद में शिक्षित प्रहसनों का अभिनय करने लगे ... उन्होंने मिलकर ग्राम्य धर्म से युक्त शिल्पक का प्रयोग किया, जिसमें ऋषियों पर सामूहिक रूप से व्यंग्य था। ... और शास्त्रकार की उदारता, कि कहता है- ‘जो यहां नहीं कहा गया, उसे लोक की अनुकृति करके जान लेना चाहिए।‘

Tuesday, April 22, 2025

पंच-कथा

पचीसवां साल लगते इस सदी में पढ़ी पसंद आई कहानियां, जिनकी याद सबसे पहले आए, अब तक पांच मिलीं, जिन्हें बार-बार कभी-भी दुहरा लेना चाहता हूं, इसलिए यहां सहेज रहा हूं। (प्रेमचंद, रेणु, देथा से ले कर चेखव, ओ. हेनरी, पिछली सदी के पढ़े, इसलिए सूची में नहीं हैं।) यहां वे पांच-

1 - कैलाश में प्रतिदिन संध्या समय शिवजी साधु-संतों और देवताओं को प्रवचन सुनाते थे। एक दिन पार्वती ने कहा कि इन साधु-संतो को ठंडी हवा और ओस से बचाने के लिए एक हाल का निर्माण किया जावे। किंतु शिव का यह संकल्प नहीं था फिर भी पार्वती का आग्रह बना रहा। अतः ज्योतिषियों को बुलाकर मंडप निर्माण के लिए उनकी सलाह ली गई। उन्होंने कहा कि ग्रहों के अनुसार शनि की प्रतिकूलता के कारण यह भवन अग्नि के द्वारा भस्म हो जायगा। फिर भी मंडप का निर्माण किया गया। अब शिव-पार्वती के लिये यह एक समस्या थी। शिव ने विचार किया कि शनि से अपना कोप शांत करने की प्रार्थना की जाय, यद्यपि इसकी उन्हें आशा नहीं थी क्योंकि शनि का कोप प्रसिद्ध था। इससे पार्वती को बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने निश्चय किया कि उस नन्हें से दुष्ट ग्रह को वे अपने द्वारा निर्मित मंडप के नाश का कारण नहीं बनने देंगी। उन्होंने यह तय किया कि यदि शनि न माने और मंडप को नष्ट ही करना चाहे तो इससे पूर्व वे स्वयं ही उसे नष्ट कर देंगी। शिव ने शनि से की गई प्रार्थना का उत्तर पाने तक रुकने को कहा। शनि के पास वे स्वयं जाने को तैयार हुए और कहा कि यदि शनि मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं तो मैं वापस आकर ही यह शुभ समाचार तुम्हें दूँगा। किन्तु यदि वे न मानें तो मैं यह डंका (डमरू?) बजाऊंगा। तब तुम उसे सुनकर इस मंडप को आग लगा देना ताकि शनि को इसे जलाने का श्रेय न मिल सके। पार्वती मशाल जलाकर तत्पर थी कि डंका बजे तो वे तत्काल अपना कार्य करें। और उस दुष्ट ग्रह को अपनी दुष्ट योजना सफल बनाने का क्षणमात्र भी अवसर न दें। वहाँ शिव की प्रार्थना को शनि ने स्वीकार कर लिया। अतः जब शनि ने शिव से प्रार्थना की कि वे उसे अपने प्रसिद्ध तांडव नृत्य को दिखावें तो शिव इन्कार न कर सके। उसकी प्रार्थना के अनुसार शिव डंका बजाकर तांडव नृत्य करने लगे। इस डंके का शब्द सुनकर यहाँ पार्वती ने मंडप में आग लगा दी और वह शिव संकल्प के अनुसार जलकर राख हो गया। चाहे जो हो दैवी संकल्प पूरा होना ही चाहिये। शनि तो दैवी योजना में निमित्त मात्र था। 
-श्री सत्य सांई वचनामृत 17-10-61 

2 - शिकारी का सिर था या नहीं? 
तीन शिकारियों को यह पता चला कि गांव से थोड़ी ही दूर दर में एक भेड़िया छिपा हुआ है। उन्होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया। कैसे उन्होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात सुनाते हैं। मुझे तो बचपन से यह क्रिस्ता इस तरह याद है। शिकारियों से बचने के लिये भेड़िया गुफा में जा छिपा। उसमें जाते का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्ता था-सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं। शिकारी पत्थरों के पीछे छिप गये, अपनी बन्दूक्ते उन्होंने गुफा के मुंह की तरफ़ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इन्तजार करने लगे। मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था। वह आराम से वहां बैठा रहा। मतलब यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इन्तजार करते-करते पहले ऊब जायेगा। एक शिकारी ऊब गया। उसने किसी न किसी तरह गुफा में घुसने और वहां से भेड़िये को निकालने का फ़ैसला किया। गुफा के मुंह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया। बाक़ी दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ़ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्यों नहीं करता। आखिर वे भी इन्तजार करते-करते तंग आ गये। उन्होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि उसका सिर नहीं है। अब वे यह सोचने लगे गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं था। सिर के बिना धड़ को वे गांव में लाये, लोगों को घटना सुनायी। एक बुजुर्ग ने कहा- इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शिकारी भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहां तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था। बात को साफ़ करने के लिये वे उसकी विधवा हो गयी बीवी के पास गये। ‘‘मैं क्या जानूं कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिये नयी टोपी का आर्डर देता था।‘‘ 
-रसूल हमज़ातोव - मेरा दाग़िस्तान पेज-42 

3 - शक्करपारे 

रोज़ की तरह, सात साल का गुट्टू मुन्ना अपनी हमउम्र पड़ोसिन चुनमुन के पास खेलने पहुँचा। चुनमुन उसे अपने मकान के दालान में खड़ी मिली। वह बड़े चाव से कुटुर-कुटुर शक्करपारे खा रही थी। गुट्टू मुन्ना उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया, मगर न जाने क्यों चुनमुन ऐसी बन गई, जैसे उसने उसे देखा ही न हो। गुट्टू मुन्ना फिर ठीक चुनमुन के सामने आकर खड़ा हो गया, मगर चुनमुन ने तब भी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। 

‘यह चुनमुन बड़ी शान ही में मरी जा रही है!‘ गुट्टू मुन्ना ने सोचा और कहा, मत बोलो तो मत बोलो, हम भी नहीं बोलेंगे। 

फिर उसका ध्यान शक्करपारों की ओर गया। नरम पड़ते हुए वह बोला, चुनमुन! ओ चुनमुन! 

मुझसे क्यों बोल रहा है? चुनमुन बोली, याद नहीं. कल शाम तेरी-मेरी कुट्टी हो गई थी। 

गुट्टू मुन्ना को याद आया, कल शाम उसका और चुनमुन का झगड़ा हो गया था। उस झगड़े में सारा दोष चुनमुन ही का था। हाँ, घोड़ा-घोड़ा खेलने में गिर ही जाते हैं, उसने चुनमुन को जानकर थोड़े ही गिराया था। और फिर स्वयं वह भी तो गिरा था, उसके भी तो घुटने छिल गए थे। अब चुनमुन बेकार में अगर इस झगड़े को बढ़ाए तो चुनमुन की ग़लती है। कुट्टी तो फिर कुट्टी ही सही! 

लेकिन इस तर्क से चुनमुन को पराजित करने के बजाय, गुट्टू मुन्ना ने शक्करपारों पर दृष्टि जमाकर प्रस्ताव रखा, अच्छा चुनमुन, अब तेरा-मेरा सल्ला, हैं भाई? चुनमुन कुछ नहीं बोली। उसके दाँत कुटुर-कुटुर करते रहे। गुट्टू मुन्ना ने उसकी चुप्पी को खामोशी-ए-नीम-रज़ा समझकर उत्साह से कहा, अच्छा, अब तेरा-मेरा सल्ला हो गया; है ना चुनमुन ? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई; है ना चुनमुन? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई। 

गुट्टू मुन्ना चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। 

कुटुर-कुटुर-कुटुर! चुनमुन ने उत्तर दिया। 

गुट्टू मुन्ना घोर आशावादी था, इस उत्तर से तनिक भी निराश न हो, उसने बड़े ही प्रसन्न स्वर में कहा, अब मेरा-तेरा सल्ला हो गया, है ना? 

अब मैं और तू खूब मिलकर खेलेंगे, है ना? संग बाज़ार घूमने जाएँगे, है ना? खूब चीजें खाएँगे, है ना? तू मुझे शक्करपारे खिलाएगी, है ना? 

मगर इन शांति-घोषणाओं का चुनमुन पर कोई असर न हुआ। वह मज़े से एक शक्करपारे को अँगुलियों में थामकर चूसती रही। उसके चेहरे का हर हिस्सा बतलाता रहा कि शक्करपारे गुट्टू मुन्ना के वायदों से कहीं ज़्यादा मीठे हैं। हारकर गुट्टू मुन्ना दालान की सीढ़ियों पर बैठ गया। उसे विचार आया कि क्यों न वह चुनमुन के शक्करपारे छीन ले। और उन्हें छीनना उसके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। वह चुनमुन से तगड़ा जो था। लेकिन चुनमुन से शक्करपारे छीनने का अर्थ था, चुनमुन का रोना और उसकी माँ का भीतर से निकलकर आना। और गुट्टू मुन्ना अगर किसी से डरता था तो चुनमुन की माँ से। संक्षेप में यह कि छीनकर शक्करपारे मिल तो सकते थे, पर बड़े ही महँगे दामों में। कुछ समझ में न आता देख गुट्टू मुन्ना ने चुनमुन की ओर देखा, इस आशा से कि शायद उसकी मनःस्थिति में इस बीच कोई परिवर्तन आ गया हो। लेकिन स्थिति पूर्ववत् थी। चुनमुन की जेब से एक के बाद एक निकलकर शक्करपारे उसके मुँह में गायब होते जा रहे थे। 

गुट्टू मुन्ना ने देखा कि मौक़ा कुछ कर दिखाने का है, खाली बैठने से काम नहीं चलेगा। 

बादशाह फ़ोट्टी थ्री फ़ोर फ़ोट्टी फोर। मुहल्ले के शराबी की नक़ल करते हुए वह ज़ोर से चीखा। 

चुनमुन ने पलटकर उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और उसे लगा जैसे शक्करपारे उसके मुँह में आ गए हों। फ़ोटी फ़ोटीरी फ़ोर काला आदमी! उसने अपना अभिनय जारी रखा। 

चुनमुन ने एक शक्करपारा अपने होंठों में दबा लिया और उसे होंठों से ऊपर-नीचे हिलाती रही। गुट्टू मुन्ना के अभिनय पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। गुट्टू मुन्ना के मुँह में आए हुए शक्करपारे गायब हो गए, वहाँ केवल लार बची रही। 

गुट्टू मुन्ना फिर यूँ ही बेमतलब ज़ोर से हँसा। लेकिन इस हँसी का चुनमुन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा। मगर गुट्टू मुन्ना चुनमुन की जिज्ञासा प्रबल होने पर आस लगाए रहा और अपनी हँसी को तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए कोई मज़ेदार बात सोचने लगा। परंतु उसका ज़रखेज दिमाग भी आज कोई मज़ेदार बात न उपजा सका। इस मज़ेदार बात की कमी से तनिक भी हतोत्साह न हो गुट्टू मुन्ना पुनः जी खोलकर हँसा। 

काफ़ी हँस चुकने के बाद उसने हँसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ओहो, बड़े मज़े की बात, ओ हो हो हो! और वह फिर हँसने लगा। 

चुनमुन उसकी ओर से मुँह फेरती हुई बोली, कोई भी बात नहीं है। 

बात है। गुट्टू मुन्ना ने तैश में आकर कहा, लेकिन चुनमुन ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की और बात वहीं रह गई। 

गुट्टू मुन्ना की इच्छा हुई कि जाकर चुनमुन की चोटी खींच दे। शक्करपारे के मामले में वह सरासर बेईमानी कर रही थी। चोटी खींचने से तो शक्करपारे मिल नहीं सकते थे। गुट्टू मुन्ना ने खींचकर एक कंकड़ उठाया और पास ही सोए हुए पिल्ले को दे मारा। पिल्ला किकियाता हुआ उठकर भागा। गुट्टू मुन्ना की आँखें भागते हुए पिल्ले को संतोष-भरी नज़र से देखती रहीं। पिल्ला एक फलवाले के खोंचे के क़रीब टाँगों में दुम दबाए खड़ा हो गया। 

फलवाला आवाज़ लगा रहा था, आम लो, लँगड़े आम ! 

गुट्टू मुन्ना को एक मज़ाक सूझा, उसने ज़ोर से पुकारा, ए लँगड़े! 

चुनमुन उसकी इस बात पर हँस दी। गुट्टू मुन्ना तुनककर बोला, मेरी बात पर क्यों हँस रही है? 

चुनमुन चबाया हुआ शक्करपारा निगलती हुई बोली, कोई भी नहीं हँस रहा। गुट्टू मुन्ना कुछ देर चुप रहा, फिर उसने एलान किया, मुझे और भी बहुत-सी बातें आती हैं। और चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन चुनमुन ने उसकी हँसी की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इधर गणितज्ञ गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क ने उसे बताया, जिस रफ़्तार से ये शक्करपारे खाए जा रहे हैं, उससे वे शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। अगर उसने अभी कुछ नहीं किया तो फिर उसकी शक्करपारे खाने की आशाएँ मात्र आशाएँ ही रह जाएँगी। 

फिर गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क के भीतर कहीं एक लाल बत्ती जली और उसके विचारों ने आश्चर्यप्रद फुर्ती से काम करना शुरू किया। इतनी फुर्ती से कि पलक मारते ही उनका कार्य समाप्त भी हो गया। गुट्टू मुन्ना को अपनी सबसे ज़बर्दस्त तरक़ीब सूझ गई। वह छलाँगें भरता हुआ अहाते के दरवाज़े पर जा पहुँचा। 

अब मेरा हवाई जहाज़ चलेगा! उसने बुलंद स्वर में घोषणा की और लपककर दरवाज़े पर चढ़ गया। उसके भार से दरवाज़ा चरमराता हुआ आगे-पीछे घूमने लगा। 

घर घर घर ढर्र ढर्र ढर्र ऊँ ऊँ ऊँ! गुट्टू मुन्ना का हवाई जहाज़ चल पड़ा। धीरे-धीरे, जैसे बिना किसी विशेष मतलब के, टहलते हुए चुनमुन हवाई जहाज़ के पास आकर खड़ी हो गई। 

जो हवाई जहाज़ पर चढ़ना चाहे चढ़ सकता है, लेकिन उसे सल्ला करना होगा और शक्करपारे खिलाने होंगे। 

चालक ने आकाश में उड़ते-उड़ते ही एलान किया। 

चुनमुन चुप रही। हवाई जहाज़ फौरन ज़मीन पर उतर आया और चालक ने एक बार फिर से एलान किया, हवाई जहाज़ पर जिसे चढ़ना हो, आ जाए! 

घर्र घर्र घर्र। हवाई जहाज़ स्टार्ट हो चुकने पर काफी देर यात्री की प्रतीक्षा करता रहा। फिर यात्री न आता देख चालक ने हवाई जहाज़ बिना यात्री के उड़ा दिया। 

ऊँ ऊँ ऊँ ऽऽऽ हवाई जहाज़ वायु को चीरता हुआ तेज़ी से उड़ने लगा और चालक ने एक बार फिर एलान किया, जिसे हवाई जहाज़ में आना हो, आ जाए! फिर विज्ञापन के हथकडे प्रयोग करता हुआ बोला, बड़ा ही मज़ा आ रहा है हवाई जहाज़ में। ओ हो! ओ हो! अहा! ओ हो! अहा! ओ हो! जिसे आना हो, आ जाए! 

लेकिन शायद उस दिन गुट्ट मुन्ना बिल्ली का मुँह देखकर उठा था, वरना क्यों हवाई जहाज़ की बेहद शौकीन चुनमुन ने अपनी कल्पनाप्रियता को ताक पर रख एक रूखा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, बड़ा हो रहा है यह हवाई जहाज़ ऐसे हवाई जहाज़ में कौन बैठे? ये हवाई जहाज़ थोड़े है, यह तो दरवाज़ा है! 

हवाई जहाज़ की रफ्तार धीमी पड़ने लगी, फिर सहसा वह तेज़ चलने लगा और चालक चीखने लगा, ओ हो! बड़ा मज़ा! ‘ओ हो! बड़ा मज़ा! ओ हो‘ 

चुनमुन कुछ देर हवाई जहाज़ को देखती रही और फिर, दरवाज़ा टूट जाएगा! कहकर सीढ़ियों पर बैठ गई। 

उसके सीढ़ियों पर बैठते ही हवाई जहाज़ ज़मीन पर उतर आया। चालक उसमें से कूदकर उतरा और चुनमुन के पास आकर खड़ा हो गया। 

उसने चुनमुन को ‘देती है या नहीं‘ वाली खूँख्वार नज़र से देखा। चुनमुन ने झट से जेब से चार शक्करपारे निकाल मुँह में एक साथ ठूँस लिए और हथेलियाँ झाड़ती हुई बोली, अब हैं ही नहीं, खतम! अब हैं ही नहीं, खतम! 

इस बात ने जैसे गुट्टू मुन्ना के गालों पर दो करारे चाँटे जड़ दिए। 

गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठा और उसका मुँह निराशा की कड़वाहट से भर आया। उसने फिर आव देखा न ताव, धड़ाधड़ चुनमुन के दो-तीन घूँसे जड़ दिए। चुनमुन रोने लगी। उसके रोते ही गुट्टू मुन्ना को ध्यान आया कि वह कितनी बड़ी भूल कर बैठा। मत रो चुनमुन! उसने कहा, मत रो! फिर कुछ रुककर, मत रो! 

मगर चुनमुन थी कि ‘पैं-पैं‘ लगाती ही रही और फिर हुआ वही जो होना था। चुनमुन की माँ घर से निकलकर आई और अपनी पिसे मसाले से सनी हथेलियाँ गुट्टू मुन्ना और चुनमुन के गालों पर जमा गई। फिर उसने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया और चुनमुन को संबोधित कर चीखी, अब देख, कौन तुझे भीतर आने देता है। 

मार खाकर दोनों बच्चे सीढ़ियों पर बैठे रोते रहे, फिर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों ने एक-दूसरे के चेहरे देखे। डबडबाती हुई सूजी-सूजी आँखें, मसाले से पुते हुए गाल, बिखरे हुए बाल, फड़फड़ाती हुई नाक की नोकें। चेहरे देखकर हँसी रोकी नहीं जा सकती है। 

तो पहले चुनमुन हँसी। फिर गुट्टू मुन्ना हँसा। 

गुट्टू मुन्ना ने पूछा, क्यों हँस रही है? 

चुनमुन बोली, तू क्यों हँस रहा है? 

गुट्टू मुन्ना ने जवाब दिया, मैं तो तेरी शक्ल देखकर हँस रहा हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

चुनमुन बोली, मैं भी तेरी शक्ल देखकर हँस रही हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

गुट्टू मुन्ना ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया और फिर सहसा प्रेरणा पाकर बोला, हम दोनों की शक्ल बंदर-जैसी लग रही है। चल, पनवाड़ी के ऐने में जाकर देखें! 
-मनोहर श्याम जोशी 

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Wednesday, March 26, 2025

परीक्षक गुरु

परीक्षक रहे गुरुओं की याद, जिन्होंने परीक्षा में नंबर दिए, उससे अधिक अपने व्यवहार से सिखाया, किसी विद्यार्थी के लिए दुर्लभ, वह सम्मान मुझे इनसे मिला। ऐसे तीन- रमानाथ मिश्र जी, रहमान अली जी और बालचंद्र जैन जी। 

डॉ. रमानाथ मिश्र 1980-81, स्नातकोत्तर अंतिम की परीक्षा के वैकल्पिक प्रश्न-पत्र के वाह्य परीक्षक। लघु शोध-निबंध विकल्प के लिए डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम मार्गदर्शन थे। विषय था- ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर: एक अध्ययन‘ था। जांजगीर का भीमा या नकटा कहा जाने वाला यह मंदिर बार-बार देखा हुआ था, गृह-ग्राम अकलतरा के करीब था, कई कथाएं चलती थीं, छमासी रात, मंदिर के दो हिस्से, भीम बली और उसकी छेनी-हथौड़ी। इन सबको समझने-बूझने का मन होता। इसके बावजूद इस पर काम करने के लिए हिचक थी, निगम सर से मैंने कारण बताया कि ‘मैटर नहीं मिलता‘, इस पर उन्होंने कहा, फिर तो इसी पर काम करो, यह बात मैंने हमेशा के लिए गांठ बांध ली। निबंध लिखने की तैयारी के दौरान मार्गदर्शन के लिए वे स्वयं भी जांजगीर आए। जहां कहीं अटका, स्नातक कक्षाओं के गुरु डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर इसके लिए मार्गदर्शन देते रहे। निगम सर मेरे लिखे को बार-बार जांचते रहे, इसके लिए ऐसा भी अवसर आया कि वे कॉलेज के बाद साथ लगे हॉस्टल के मेरे कमरे में आ गए।  

परीक्षा का परिणाम आया। शोध-निबंध में मुझे आशा से अधिक नंबर मिले थे। निगम सर ने बताया कि वाह्य परीक्षक भारतीय और कलचुरि कला-स्थापत्य के बड़े विद्वान थे, उन्होंने इसे बहुत पसंद किया। कुछ साल बाद निगम सर ने किताब दिखाई, जिसमें मेरे शोध-निबंध से लिया गया जांजगीर के इस विष्णु मंदिर की भू-योजना का रेखांकन उल्लेख सहित शामिल था, मेरे लिए इससे बढ़कर और क्या हो सकता था कि रमानाथ मिश्र जैसे विद्वान की पुस्तक में इसे स्थान मिला है। 


तब तक मैं मिश्र सर से कभी नहीं मिला था। उनकी यह पुस्तक आने के कुछ साल बाद एक सेमिनार में मैं उनसे मुलाकात हुई, उन्हें बस अपना नाम बता पाया कि उन्होंने तुरंत याद किया, ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर‘। मैं उनका आभार व्यक्त करूं इसके पहले ही उन्होंने खेद व्यक्त किया कि आपके शोध-निबंध के रेखांकन का उपयोग मैंने किया था, इसका उल्लेख करते हुए आपका नाम नहीं दे पाया था। फिर उन्होंने पूछा कि आपको इसमें अंक तो ठीक मिले थे न, मैंने जवाब दिया मेरी आशा से भी अधिक सर- 86/100। 

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डॉ. रहमान अली 1981, एम.ए. अंतिम के स्थापत्य प्रश्न-पत्र के परीक्षक थे। रायपुर से एम.ए. की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए प्राच्य निकेतन में प्रवेश लेने भोपाल गया। भोपाल पहली बार जा रहा था, वहां डेरा-डंडा था और जान-पहचान के नाम पर ’प्राच्य निकेतन‘ के प्राचार्य डॉ. राजकुमार शर्मा। (जबलपुर हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील सतीशचंद्र दत्त, मेरे पिता और चाचा के करीबी थे, जिनकी बहन डॉ. शर्मा की पत्नी थीं।) डॉ. शर्मा से मिला, उनके निर्देशानुसार एडमिशन फार्म भरकर जमा कर दिया। तब प्राच्य निकेतन, बिरला मंदिर के पीछे होता था। ग्राउंड फ्लोर पर म्यूजियम और पहली मंजिल पर संस्थान-कक्षाएं, जिसमें बीच का हॉल लाइब्रेरी-रीडिंग रूम। लाइब्रेरी में इंतजार करने को कहा गया, वहां पहले-पहल लाइब्रेरियन पंडित मैडम से परिचय हुआ। 

प्रश्न-पत्र, जिसमें क्र. 7 पर
खजुराहो के मंदिर पर प्रश्न है।
कुछ देर में प्रवेश-प्रभारी डॉ. रहमान अली के सामने उपस्थित होने का बुलावा हुआ। अली सर ने बैठने का इशारा किया, नजर फार्म पर, मुख-मुद्रा गंभीर। पूछा, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से? परीक्षा में ‘स्थापत्य‘ आप्शन था? खजुराहो के मंदिर वाले प्रश्न के उत्तर में कंदरिया महादेव की भूयोजना का रेखांकन था? जवाब में जी हां, जी हां के साथ थोड़ी घबराहट के साथ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। तब उन्होंने मेरे प्राप्तांक बताते हुए कहा- ‘आपका यह पेपर मैंने जांचा था। आपकी हैण्डराइटिंग मुझे ध्यान थी, एडमिशन फार्म पर वैसा ही देखा तब स्थापत्य वाला पेपर और कंदरिया रेखांकन याद आया। वह पेपर जांचते हुए मैंने सोचा था, इस विद्यार्थी से कभी मुलाकात होगी। डिप्लोमा पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी अली सर का विशेष अनुग्रह मुझ पर बना रहा। उस पेपर में मिले अंक से मुझे भी ऐसा लगा था कि कभी इन उदार परीक्षक को जान पाता, उनसे मिल पाता- मुझे अंक मिले थे 69/100। 

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श्री बालचंद्र जैन, 1981-82, संग्रहालय विज्ञान स्नातकोत्तर पत्रोपाधि परीक्षा के प्रैक्टिकल में वाह्य परीक्षक थे, तब इन उद्भट विद्वान को न के बराबर समझ पाया था। 1984 से शासकीय सेवा में आया, बिलासपुर कार्यालय था और नियंत्रक उपसंचालक कार्यालय, जबलपुर होता था। जैन साहब तब तक सेवा-निवृत्त हो चुके थे, निवास जबलपुर में था। विभागीय बैठकों के लिए जबलपुर जाना होता था। अब तक उनकी विद्वत्ता और साथ ही विशिष्ट प्रशासनिक कौशल के बारे में कई बातें जानने-समझने लगा था। 

1986 में बैठक के लिए जबलपुर गए और विभागीय वरिष्ठ सहयोगी अधिकारी रायकवार जी के साथ जैन साहब के निवास उनसे मिलने गया। गंभीर-रिजर्व और कड़क माने जाने वाले जैन साहब का मेरे प्रति व्यवहार सहज, बल्कि आत्मीय था। विदा लेते हुए उन्होंने धीरे से ध्यान कराया, जिसे मैं पूरी तरह भूल वुका था, प्राच्य निकेतन में तुमने मेरे सारे सवालों का जवाब बहुत अच्छी तरह दिया, अब विभाग में आ गए हो, काम करने का मौका है, खूब काम करो, कहते हुए अपने ‘उत्कीर्ण लेख‘ वाले काम को आगे बढ़ाने का आशीर्वाद रायकवार जी के साथ मुझे दिया। हमें संतोष है कि वह काम यथामति तैयार कर विभाग से प्रकाशित करा सके। 


जैन साहब का 12/11/86 को मेरे नाम लिखा पत्र, जिसमें दीपावली और नववर्ष की शुभकामनाएं के साथ श्री रायकवार जी व अन्यों को सादर नमस्कार लिखा है। दूसरा पत्र 1/6/87 का श्री रायकवार के नाम है, जिसमें उन्होंने कृपापूर्वक लिखा- ‘श्री राहुल के प्रति मुझे भारी स्नेह हो गया है। उनसे बहुत आशाएं हैं। जैन साहब के निधन पर मैंने उन पर श्रद्धांजलि लेख लिखा था, जो तब 1995 के जून दूसरे सप्ताह में ‘हरिभूमि‘ समाचार पत्र के संपादकीय पेज पर पूरे आठवें कॉलम में छपा था, जिसकी कतरन सुरक्षित नहीं रख पाया। महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में उन्होंने अपनी सेवा के महत्वपूर्ण वर्ष बिताए थे, नवंबर 2024 में यहीं उनकी जन्मशती के आयोजन में उन्हें प्रति अपनी भाव-श्रद्धांजलि समर्पित करने का अवसर आया। 

इन तीन परीक्षक गुरुओं के अलावा तीन ऐसे गुरु हैं, जिन्होंने कक्षाओं में नहीं पढ़ाया, मगर अनमोल सिखाया- डॉ. प्रमोदचंद्र, श्री कृष्ण देव और श्री मधुसूदन ए. ढाकी, इन पर फिर कभी, फिलहाल सारे गुरुजन का पुण्य स्मरण।