प्रियंवद की कोई कहानी बहुत पहले पढ़ी थी, बस इतना ध्यान रह गया कि इस लेखक को आगे कभी पढ़ा जा सकता है। अब ‘आईनाघर‘ के दोनों भाग हाथ में हैं। इस पर ‘कथा समग्र‘, प्रियंवद की संपूर्ण कहानियां (रचनाकाल 1980 से 2007) भाग: 1 तथा भाग: 2 अंकित है। भाग: 1 के आरंभ में लेखक की ‘भूमिका‘ तथा भाग: 2 के परिशिष्ट में लेखक का वक्तव्य- ‘मैं औैर मेरा समय‘ (कथादेश-मार्च 1999) शामिल है। भाग: 1 की भूमिका में लेखक ने 1980 की अपनी पहली कहानी ‘बोसीदनी‘ का उल्लेख किया है, मगर वह इस भाग की 20 कहानियों में नहीं है। कहानियों का प्रकाशन संदर्भ- वर्ष सहित पत्र-पत्रिका की जानकारी, जाने क्यों कहानियों के साथ नहीं है। यह सूची भाग: 2 के अंत में परिशिष्ट-4 में है।
इस ‘कथा-समग्र‘ के दोनों भाग पर फरवरी, 2008 पहला संस्करण अंकित है, इससे पता लगता है कि यह टुकड़ों में नहीं, योजनाबद्ध और एक साथ प्रकाशित हुई है इसलिए पहले भाग में भूमिका के साथ इसकी योजना, रूपरेखा और साथ ही प्रत्येक कहानी के साथ अंत में प्रकाशन वर्ष सहित संदर्भ दिया जा सकता था। यह भी कि कहानियां लिखे जाने/प्रकाशित होने के क्रम में नहीं हैं और ऐसा नहीं है तो चालीस कहानियों में से कौन सी बीस, पहले भाग में और कौन सी बीस दूसरे में, इसके पीछे कोई सोच थी? यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है। ऐसा न होने का कारण जो भी हो, इसे चूक ही माना जावेगा, और फिर यह संग्रह है ‘संगमन‘ और ‘अकार‘ वाले प्रियंवद का, जो केवल कहानीकार नहीं, आयोजक-संपादक भी हैं, इसलिए यह चूक अधिक गंभीर मानी जाएगी।
‘आईनाघर‘ शीर्षक से कोई कहानी ‘कथा-समग्र‘ में नहीं है, जैसा नामकरण आमतौर पर किया जाता है, तो माना जा सकता है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है‘ के समर्थन में यह एक शब्द तय कर इसे समग्र का शीर्षक बनाया गया है। इस तर्ज पर प्रियंवद पूरा आईनाघर रचते हैं, जिसमें मानों समाज के साथ, अपना अक्स तो निहारते ही हैं, पाठक को आमंत्रित करते हैं, खुद को कुछ घड़ी ठहर कर देखते, महसूस करते, अपना खुद का सामना करने के लिए।
इस भूमिका के साथ कुछ और बातें। किसी प्रतिष्ठित-स्थापित साहित्यकार के लेखन पर टिप्पणी करते हुए ध्यान में रहता है कि इस तरह अपने पाठकीय अनुभव लिखते हुए मेरी साहित्यिक समझ पर संदेह किया जा सकता है, मगर इस दबाव से मुक्त रहना जरूरी मानता हूं। साहित्य को अधिकतर शौकिया पढ़ता हूं। पूरी जिम्मेदारी रचनाकार और उसके लिखे है कि वह मुझे पकड़े। कोर्स की किताब नहीं है, न पेशे जैसा कोई दबाव, इसलिए खुद को रट्टा-घिस्सा की तरह पढ़ने से मुक्त रखता हूं। फिर पढ़े हुए को जुगाली की तरह याद करते हुए, मन ही मन दुहराता हूं। जो और जितना याद आता है, मानता हूं कि वही मेरी रुचि का था, ठहर गया। इस याद रह गए पर सोचते हुए लगता है कि उसमें कुछ और भी बात रही होगी, परतें थीं, इसलिए वह दुबारा धीर धर कर पढ़ता हूं। अक्सर ऐसा होता है कि अब उसमें से रस निथरने लगता है, पहली बार कुछ-कुछ, फिर और-और।
इसके पहले ऐसा अवसर बना था, जब लगभग महीने भर में प्रेमचंद की कहानियां, ‘मानसरोवर‘ के सात खंडों में पढ़ गया था, माना था कि उन्हें बड़ा कहानीकार माना जाता है, वह अनुचित नहीं है। देथा की प्रसिद्ध और उपलब्ध में से अधिकतर पढ़ कर पाया कि ‘दुविधा‘ का कोई मुकाबला नहीं। इसके अलावा भी कहना हो तो उनकी कुछ अन्य कहानियों में से याद रहा शीर्षक ‘रिजक की मर्यादा‘ है। फिर इसी तरह उदय प्रकाश को पढ़ा। ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड‘, उनकी पहचान के लिए एक-अकेले काफी है। इससे आगे बढ़ना हो तो ‘छप्पन तोले का करधन‘ और ‘मैंगोसिल‘। उनकी कविताओं में निसंदेह ‘मैं लौट जाऊंगा‘। प्रियंवद जैसे लेखक के लिखे में से कुछ भी को मामूली ठहराना मुश्किल होता है, मगर यह तब आसान हो जाता है जब उसी एक लेखक की दर्जनों कहानियां एक साथ हों, जैसा यहां हुआ है।
कथा-सत्र के आयोजनों में कहानी-पाठ भी होता है। वाचन अच्छा होने पर भी कहानी का पाठ ‘लाइव परफारमेंस‘ सुनते हुए अक्सर लगता है कि कहानी सुनने वाली नहीं, पढ़ने वाली थी और बाद में कहानी पढ़ने पर इसकी पुष्टि भी होती है। (निबंध-लेख और व्याख्यान के साथ ऐसा नहीं होता और कविताओं में अक्सर कवि द्वारा प्रत्यक्ष पढ़ी गई कविता, कवि सम्मेलनों से इतर को भी सुनना, अधिक प्रभावी होता है।) यों लिखे को पढ़ते हुए बोलने की कुछ सीमा भी होती हैं, जैसे दोनों हाथों की दो-दो उंगलियां उठाकर ‘कोट-अनकोट‘ बताना। एक जिल्द में आ जाने वाली कहानियों के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है। अब फिर से कहानी प्रत्यक्ष न सही, मगर सुनने के ही दिन वापस लौट रहें हैं, संभव है नये लेखन में इस बात का ध्यान रखा जा रहा हो।
यों हर कहानी अपने तईं पूरी, स्वतंत्र और एकल होती हैं, मगर संग्रह में शामिल हो कर अपने साथ की कहानियों के असर से मुक्त नहीं हो सकती। जिस तरह किस्सागो वाली आजादी, लेखक को नहीं होती, इसी तरह की एक दूसरी स्थिति कहानियों के एक साथ संग्रह में आ जाने पर लेखक के लिए एक सीमा यह भी हो जाती है कि उसकी एकाकी रची गई कहानी निरपेक्ष नहीं रह जाती और अन्य लेखकों के साथ नहीं, खुद उसी की कहानियों के सापेक्ष पढ़ी जाती है। रचनाकार की सफलता है कि उसकी किसी रचना की पहचान और महत्व, एकल या संग्रह, दोनों स्थितियों में एक समान हो।
प्रियंवद की इन चालीस कहानियों में से तीन ऐसी हैं, जिन्हें दुबारा पढ़ा और जिनमें वैसा रस भी निथरा, मानता हूं कि अन्य कहानियों का भी अपना महत्व और खासियत है, मगर मेरे लिए लेखक इन तीन के आगे नहीं निकल पाया है, ये तीनों ही भाग: 1 में हैं- ‘बहुरूपिया‘ (वागर्थ, नवंबर 1997), ‘बूढ़ा काकुन फिर उदास है‘ (सारिका, दिसंबर 1985) और ‘बच्चे‘ (सारिका, संभवतः 1985), मेरे लिए इस पूरे समग्र का हासिल यही हैं।
1980 में उनकी पहली कहानी ‘बोसीदनी‘ (सारिका, जनवरी 1980) आई, जो उस दौर के लेखन का अनुकरण करती जान पड़ती है। छायावाद पर अस्तित्ववाद छा गया था और मनोवैज्ञानिक ‘नई कहानी‘ के नाम पर उत्तर-आधुनिकता और जादुई यथार्थवाद, साहित्य का मानक हो गया। 1980 की पहली कहानी के बाद इस लेखक को अपनी स्वाभाविक लय पाते 1985 आ गया, जिस वर्ष की ‘बच्चे‘ और ‘बूढ़ा काकुन ...‘, प्रकाशन क्रम में नवीं, दसवीं कहानी हैं। ऐसा लगता है कि इसके बाद की कहानियां सधे कलम से नियमित अभ्यास की तरह आती गई हैं, लेकिन 12 साल बाद उन्तीसवीं कहानी ‘बहुरूपिया‘ में लेखक ने एक बार फिर अपनी असल पहचान याद दिलाई है। यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि किसी कथा-रचना में रूपक-बिंब-प्रतीकों में कही गई बात परतदार हो सकती है, होती है, मगर एक आम पाठक के लिए वह सतह पर भी खुलनी चाहिए। वह सतह पर अपना भेद आसानी से न खोले, चौंकाए, अजीब जान पड़े और पाठक वहीं उलझा रह जाए तो रचना उसके लिए बेरस, बेमजा है। पाठक की क्षमता और पसंद पर निर्भर हो कि वह रचना की गहराई में जा सके/जाना चाहे, तो उसके लिए रचना परत-दर-परत खुलती जाए। ‘बोसीदनी‘ को कमतर और अन्य तीन को बेहतर ठहराने में मेरा मूल्यांकन इसी दृष्टि से है।
बहरहाल, अन्य में खब्ती, जो मृत्यु-लेख लिखता है, बांधे रखने वाली मगर असहज कर देने वाली कहानी ‘बूढ़े का उत्सव‘ है। ‘बोधिवृक्ष‘ सतह पर सतही प्रतिवेदन या संस्मरण की तरह, कहीं लिजलिजी-सी, मगर आहिस्ता खुलने वाली इसकी परतें अनूठी हैं। ‘कहो रिपुदमन‘ और ‘आर्तनाद‘ में आदर्श और यथार्थ का द्वंद्व, नग्न सचाई के सामने सिद्धांत और विचारधारा की रक्षा का जज्बा- आक्रोश, कहानी के पात्रों से रचा वितान, देश-काल की सीमा लांघ जाता है। ‘मायागाथा‘ एक खास मांसल प्रेम कहानी है। ‘बदचलन लड़की‘ की अंधी मछली बस्तर के कुटुमसर गुफा की याद दिलाती है, वहीं निस्तब्ध क्रांति का रूपक रचती है।
‘कैक्टस की नाव देह‘ और ‘ये खंडहर नहीं हैं‘ मां-बेटी और वह के साथ वार्धक्य के अतृप्त आत्म वाली दो कहानियां हैं। ‘युवा वधिक का गीत‘, दरअसल कहानी नहीं गद्य-कविता ही है। कहानी ‘एक पीली धूप‘ के वाक्य- ‘सब सड़-गल गया है... सारा समाज...संस्कारहीन और जड़ है।‘ एक अन्य वाक्य ‘इस समाज, इस व्यवस्था से अपना बदला चुकाने, इसकी छाती पर अपनी नफ़रत उगलने के लिए यह आखिरी युद्ध है मेरा।‘ एक और- ‘एक हिस्से को पार करके दूसरे हिस्से में पांव रख रहा हूं जहां व्यवस्था... समाज... तंत्र से युद्ध एक हताशा है, जहां सिर्फ बहते रहना जीवन है। ‘दो बूढ़े‘ और ‘धूर्त‘ अलग तरह की कहानी - इस कहानी? में खुद कहानी बन चुके एकाकी से दो बूढ़े पात्रों को शामिल कर जीवन को समझने का चिंतन है। ‘धूर्त‘ भी बूढ़े कहानीकार की कहानी के लपेट में बनाई गई कहानी है। ‘सूखे पत्ते’ संतान खो देने के बाद के बुढ़ापे का अकेलापन और कैसी बेबस उम्मीदें!
‘ये खंडहर नहीं‘ का पात्र, लेखक के निजी जीवन के करीब जान पड़ता है, जब वह कहता है- ‘अभी पढ़ता हूं और कविताएं, कहानियां लिखता हूं। सिर्फ शौक के लिए दो घंटे फैक्ट्री जाता हूं या कहिए रुपयों के लालच में‘। इस कहानी में आया है- ‘खजुराहो के गर्भगृहों में नृत्य करती नर्तकी...‘, आशय स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि किसी भी मंदिर के गर्भगृह में तो नृत्य होता नहीं। कहानी में फिल्म गाइड की याद बरबस आती है। चालीसवीं कहानी ‘बूटीबाई की नथ‘ में अनाड़ी-से वाक्य पर कहानी खत्म होती है।
प्रियंवद की कई कहानियों के पात्र बूढ़े हैं, उनकी उम्र भी बताई जाती है, इनमें से कुछ- ‘कलन्दर‘ के बदरी की उमर 55 साल, ‘चूहे‘ की बुढ़िया श्रीमती पलुस्कर 72 साल की, ‘बहुरूपिया‘ का लाइब्रेरियन 60 साल का, ‘इतिवृत्त‘ के मुख्य पात्र नंबर सत्रह की उमर लगभग 60 साल है। ‘एक पीली धूप’ के पात्र के लिए कहा गया है- ‘निरीह बूढ़ा सा था वह।‘ ‘कैक्टस की नाव देह‘ कहानी का पहला वाक्य हैै- ‘मैं बूढ़ा हो गया हूं।‘ ‘रेत‘ का मुख्य पात्र ‘रिटायर होने के बाद... दस सालों से...‘। ‘दो बूढ़े‘ में तो बूढ़े हैं ही, ‘धूर्त‘ भी बूढ़े कहानीकार की कहानी है।
प्रियंवद की पसंद, बूढ़े पात्रों को देख कर लगता है कि उन्हें जो स्थिति उभारनी होती है, उसके लिए पात्रों का बूढ़ा होना सटीक बैठता है। उनके बूढ़े पात्र परिस्थितियों के सामने असहाय, लाचार, बेबस, नाकाम, कहीं खब्ती है, फिर भी जद्दोजहद करता, हालात से जूझता बुढ़ापा, आम आदमी का ही रूपक बन जाता है। ‘बहुरूपिया‘ का लाइब्रेरियन दीमक से तो श्रीमती पलुस्कर चूहों से परेशान हैं। दीमक और चूहे, समाज की गलित-पलित व्यवस्था और पात्रों का उनके प्रति रवैया, उससे निजात के उद्यम की तरह आए हैं।
मनुष्य और जीवन के लिए कठपुतली, रंगमंच वाला रूपक आम है। इसी तरह एक रूपक बहुरूपिया है, जिसे विजयदान देथा ने ‘रिजक की मर्यादा‘ में आधार बनाया है, प्रियंवद का ‘बहुरूपिया‘ इससे अलग है। उनके पात्र लाइब्रेरियन और बूढ़ा काकून, विसंगतियों को उभारने के लिए निर्धारित ऐसे ही पात्र हैं, जिनके साथ परिस्थितियां अधिक संजीदा दिखती हैं। यों भी बूढ़ा, जीवन को जीते हुए उसे बूझता होता है। कहानी बूढ़े पात्र के साथ जुड़ी हो तो, रचना रची जा रही है, लिखी जा रही है के बजाय सहज-सवाभाविक घटित हो रही लगती है।
प्रियंवद, अपनी कहानियों में रूढ़ संस्कारों सामाजिक मान्यताओं, वर्जनाओं के विरुद्ध खड़े होने का अवसर बनाते हैं, जिसकी ऊपर भी चर्चा है। ‘दावा‘ का पात्र कहता है- ‘मेरे अंदर अपने जीवन को समस्त वर्जनाओं से मुक्त करने का उत्साह था।‘ लेखक बूढ़ों की तरह गीत, संगीत-प्रेमी पात्र भी अक्सर गढ़ता है। ‘वसंत-सा‘ कहानी का पात्र कंकाल बेचने का काम करता है। पात्र से कहलाया गया है- ‘तुम्हारी ये धर्म, समाज और राज्य-व्यवस्थाएं, सब, जीवन को जहरीले दांतों से धीरे-धीरे कुतरती रहती हैं...‘ कहानी ‘आक्रांत‘ में समाज की वीभत्स विसंगत स्थितियों के साथ फिर दुहराया गया है- ‘कंकालों को बेच कर पैसा कमाते लोग।‘
बात पूरी करते हुए वे तीन कहानियां- पहली ‘बच्चे‘, जिसमें पतंगबाजी में उलझी, आसमानी प्रेम-पतंग, जुड़ी-कटी जीवन की डोर है, प्रेम कहानी तो है ही, वहीं वे ऐसे लाचार पात्र गढ़ते हैं, जो पाठक को बेचैन कर दे। इन तीन में से दूसरी ‘बूढ़ा काकुन फिर उदास है‘ का नायक घरों से निकलने वाले कचरे-रद्दी में से किस तरह उन घरों में रहने वालों की कहानी निकाल लेता है, की कहानी है। कहानीकार भी तो इसी तरह समाज के अपशिष्ट, अवांछित, वर्ज्य, गलित-पलित, इस्तेमाल हुए, अनुपयोगी, तिरस्कृत, बहिष्कृत, निष्कासित, रद्द (वस्तु, व्यक्ति, विचार, व्यवहार) में से ‘अच्छे‘, अपने काम के कचरे के फिराक में रहता है, जिससे समाज की प्रवृत्तियों की पहचान-पकड़ और काम के कचरे को छांट कर उससे कहानी बनाता है। जिक्र होता है कि विश्वविजेता मुक्केबाज कैसियस क्ले यानि मोहम्मद अली के घर से निकलने वाले कचरों पर लंबे समय नजर रखते किसी ने उनके खान-पान और जीवनचर्या का विवरण तैयार किया था, संभव है कि यह कहानी इससे प्रभावित हो। बहरहाल, यह संरचना अपने आप में अनूठी है, दूसरी तरफ इस कहानी में अनदेखा वात्सल्य कितना प्रबल हो सकता है, देखना रोमांचक है।
अंत में ‘बहुरूपिया‘, इस कहानी में भी सीधे स्पष्ट नहीं होता कि कहानी का शीर्षक ‘बहुरूपिया‘ क्यों है। मगर इसका एक स्पष्ट संकेत आता है जहां कहानी के प्रमुख पात्र लाइब्रेरियन के लिए बताया गया है कि ‘जिस दिन (लाइब्रेरी वाली) इमारत की नींव खुदी, उस दिन वह मां के गर्भ में आया था।‘ यानि माना जा सकता है कि इमारत और पात्र, एक दूसरे के रूप हैं। इसी तरह दीमक, व्यवस्था का रूप लेता दिखता है, डी.एम. प्रशासनिक व्यवहार-कुशलता और सीमाओं के प्रतिनिधि की तरह, जिसके लिए कहा गया है कि- ‘डी.एम. ने नींद में बंद होती आंखों से उसे (लाइब्रेरियन को) देखा... कैसे तकलीफ की।‘ लाइब्रेरियन विश्व प्रसिद्ध लाइब्रेरियों का उल्लेख से, प्रभाव डालने का प्रयास करते अपनी अर्जी पर कार्यवाही की अपेक्षा रखता है, डी.एम. बात तो सुन लेते हैं, चाय भी पिलाते हैं, मगर उनका निष्कर्ष वाक्य आता है- ‘मैं आपकी अर्जी ऊपर भेजता हूं। मैं आपकी भावना समझ रहा हूं... उसका सम्मान करता हूं।‘ अगला पात्र एम.एल.ए. है, जो आम राजनीतिक रवैये का ‘रूप‘ है। कहानी के अन्य पात्रों में भी, प्रतीक और रूपक देखे जा सकते हैं। इस कहानी को प्रियंवद की ‘मास्टर पीस‘ कहा जा सकता है।
प्रियंवद की कहानियों का घुला-मिला असर रह जाता है कि अधिकतर अगल-बगल घटती जिंदगियों और परिवेश पर बात-बेबात नजर हो तभी ऐसी भरोसेमंद किस्सागोई संभव होती है। फिर वे जिस तरह से कहानी ‘लिखते‘ हैं, उसमें कहानी ‘कहने‘ का ऐसा रोचक ठहराव है, जो ‘पढ़ते‘ हुए प्रवाह में बाधक नहीं, सहायक होता है। मोटे तौर पर प्रियंवद, धर्म-संप्रदाय, विचारधारा और नजरिए के द्वंद्व को और लोक-विश्वास, मान्यता, रूढ़ियों और आदिम स्मृतियों के साथ समाज-संस्कार के बरअक्स, निर्मम होने से भी नहीं चूकते, मगर कहानी बुनने में नज़ाकत बरतते हैं, इससे कहानी के पात्र एकल से बहुल और अंशतः सर्व में बदलने लगते हैं।
बेहतरीन टीप।
ReplyDeleteउन मामूली, रुखे - सूखे, लोग जिन्हें हम पलट कर देखने का जहमत नहीं उठाते उनमें भी संवेदनाओं की खोज कर लेना प्रियंवद की लेखनी का एक विशिष्ट आयाम आयाम
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