Wednesday, September 11, 2024

स्वदेश दीपक

स्वदेश दीपक के ‘मैंने माण्डू नहीं देखा‘ के पचासेक पेज पलटने के बाद काफी दिनों से छोड़ रखा है। यों संस्मरण-आत्मकथा पढ़ना सुहाता है, मगर कभी अपराध-बोध सा होने लगता है कि किसी की निजी जिंदगी, चाहे खुली किताब हो, ताक-झांक ठीक नहीं। दूसरी तरफ देखा (सुना-पढ़ा शामिल) जा रहा है, देखा जाएगा, ध्यान आते ही लेखक-व्यक्ति के प्रदर्शनकारी हो जाने की संभावना बलवती हो जाती है। अब सर्विलांस, मोबाइल, लोकेशन, रिकार्डिंग की संभावना-आशंका लगभग अनजाने सावधान-व्यवहार की आदत में आ गई हैै, ज्यों जन-नायकों का मुस्कुराना। दुनिया और जिंदगियां पहले से कहीं अधिक रंगमंच हो गई है। अब जब हम सब, लगभग पूरे समय किसी न किसी मशीनी निगाह में हैं, तब व्यवहार भी कुछ-कुछ उन जन-नायकों जैसा होने लगा है। आश्वस्त होते ही कि, ऐसा कुछ नहीं है, हम शायद अधिक स्वाभाविक हो जाते हैं और कई बार उच्छृंखल। कुंठाएं सतह पर आ जाती हैं, ज्यों सिनेमा हॉल के अंधेरे की हरकतें या गुसलखाना-गायकी। 

‘मैंने माण्डू...‘ के अलावा ‘कोर्ट मार्शल‘, स्वदेश दीपक के नाम के साथ सबसे ज्यादा जुड़ी हैं। इसलिए ‘प्रतिनिधि कहानियाँ‘ को हाथ में लेने और कुछ टिप्पणी करने के पहले ‘कोर्ट मार्शल‘ पढ़ लिया। दो अंकों वाले नाटक के पहले अंक में कानूनी दांव-पेंच वाली जिरह का वाक्चातुर्य है, मगर आगे की कहानी का भेद बना रहता है। दूसरे अंक में बात खुलती है कि नाटक जाति-भेद के अपमान और मानवतापूर्ण प्रतिरोध पर है, साथ ही शराबी फौजी पति द्वारा पत्नी पर हिंसा और स्त्री के प्रतिरोध को भी जोड़ा गया है। मौका निकाल कर नक्सली, हिंदी की तरफदारी या कहें वकालत, नियम-कानून और अनुशासन की दुहाई वाले फौज में भ्रष्टाचार, पात्र ‘भिखारीदास‘ कुलीन है और ‘रामचंदर‘ नीची मानी वाली जाति का, यानि नाटक को पसंद किए जा सकने वाले, भावुक आदर्श के कई लोकप्रिय तत्व एक साथ हैं। नाटक के इस अंश को सार की तरह देखा जा सकता है- ‘जब छोटे-छोटे विरोध लगातार दबा दिए जाएँ, अनसुने-अनदेखे कर दिए जाएँ तो हमेशा एक भयंकर विस्फोट होता है। प्राणघातक विस्फोट।‘ 

एक स्थान पर सैल्यूट के जवाब में सैल्यूट वाला, सौ सैल्यूट का प्रसंग है, यह संभवतः जनरल मानेकशॉ के साथ जुड़ी बताई जाने वाली घटना से लिया गया है। अदालती बहसों में अपनी नाटकीयता होती है, ‘शांतात कोर्ट चालू आहे‘ की सफलता के पीछे भी एक कारण यही था। यहां नाटक का एक मुख्य पात्र, कड़क प्रीज़ाइडिंग ऑफिसर कर्नल सूरत सिंह कहता है- ‘मैंने बहुत लोगों की जान ली है, मौत के घाट उतारा है। युद्ध में भी और कोर्ट मार्शल में भी। लेकिन न कभी मेरा खून जमा और न कभी उसमें आग लगी।‘ इसी पात्र के अप्रत्याशित नाटकीय व्यवहार से कहानी पूरी होती है। निसंदेह मुद्दों को प्रभावी ढंग से उभारा गया, बांधे रखने वाला नाटक है। पूरी कहानी की बुनावट में पाठक-दर्शक के लिए सहजता बनाए रखने के साथ, जरूरी रोचकता का बढ़िया संतुलन है। नाटक में लोकप्रियता के तत्व हैं ही, इसका लगातार सफल मंचन, रचना की प्रतिष्ठा-वृद्धि में सहायक हुआ। 

रचनाकार की पहचान करने के लिए प्रतिनिधि संग्रह देख लेना सुगम उपाय है, इस दृष्टि से अब स्वदेश दीपक की ‘प्रतिनिधि कहानियाँ‘ की जो प्रति देख रहा हूं उसके अंदर के कुछ पेज, जिनमें आरंभिक पेज, भूमिका का पहला पेज और पहली कहानी ‘मरा हुआ पक्षी‘ पेज-11, 14 और 15 इतने धुंधले छपे हैं कि पढ़ पाना संभव नहीं है। इस लेखक के साथ रहस्य जैसी बातें पता लगती रही हैं। धुंधले पेज, लेखक के व्यक्तित्व-रहस्य को गहरा कर देते हैं। समझ नहीं पा रहा हूं कि यहां यह छपाई की चूक है या लेखक की विशिष्ट प्रस्तुति के लिए किया गया प्रयोग। 

अगली कहानियां भी रहस्यात्मकता से उबरने नहीं देतीं, बल्कि मानों पुष्टि करती हैं। ‘तमाशा‘ मजमेबाज, उसकी पत्नी और उनका बेटे की कहानी में घरेलू हिंसा के संकेत हैं, पेज 37 से आरंभ इस कहानी के पात्र, पेज-48 तक के बाद लापता हैं। इसके बाद पेज-49 से अचानक मास्टर जी, उनकी पत्नी और बेटा जवाहरलाल आ जाते हैं। कुछ बातें, यथा सरकारी राशन दुकान और लड़कों का ‘शायद‘ मरना, दोनों हिस्सों में है। पात्र जवाहरलाल कहता है- ‘‘मेरी थोड़ी-सी राख गंगा में गिरायी जाये...‘ इसके अलावा नेहरू जी फोटो में है। कहानी पेज-56 पर पूरी होती है। मगर किताब के ‘अनुक्रम‘ की नौ कहानियों में से तीसरी पेज-50 पर दर्शाई गई है और इस नौ में ‘प्रतिद्वन्द्वी‘ नहीं है, जिस शीर्षक वाली कहानी पुस्तक में अंदर पेज-57 से 63 तक है। 

‘प्रतिद्वन्द्वी‘ फौजी, मुक्केबाजी की कहानी है, यहां भी घरेलू हिंसा का चित्रण है। पिता के प्रति पुत्र के मारक भाव को एक स्मृति, एक हकीकत और एक कल्पना जान पड़ने वाली स्थिति की आपसी समानता के साथ रचा गया है, जिसमें लगता है कि कुछ अंश भूल से दुबारा तो नहीं छप गए हैं। शायद यही सब कुछ लाचार पाठक के सामने पैदा किया गया जादुई यथार्थवाद है। 

आगे ‘अनुक्रम बनाम किताब के अंदर शीर्षक‘ की यह गड़बड़ पेज-74 तक चलती है, जिसमें अनुक्रम की कहानी, शीर्षक ‘महामारी‘ बनाम किताब के अंदर की ‘क्योंकि मैं उसे जानता नहीं‘ शामिल है। ‘क्योंकि मैं... के पहले पेज-64 और अगला पेज गिनती में तो ठीक है, मगर बात ‘मैं, होटल और वेटर‘ से बदल कर बुजुर्ग दंपति उनका बेटा, बहू और उनकी बच्ची पर आ जाती है। लगभग बेआवाज स्वाभाविक बिखरते परिवार, मां-पिता से बेटे के बदलते रिश्तों की सामान्य-सी कहानी है। यह किसी प्रतिष्ठित कहानीकार की प्रतिनिधि कहानी के रूप में शामिल है, बात जमती नहीं और ऐसा ही कहानी ‘जयहिन्द‘ के साथ है। इन कहानियों में पुरुष-पिता का पत्नी-बच्चों पर हाथ उठाना आता रहा है। 

इस बीच अकहानी जैसी रचना ‘क्या कोई यहाँ है?‘ सतह पर अजीब सी है, संभव है कि इसमें गंभीर बातें हों, मगर मुझ जैसे पाठक को गहराई में जाने के लिए प्रेरित नहीं कर पाती। बहरहाल, इसका अजीबपन, रचनाकार की पहचान या प्रतिनिधि कहानी में इसे रखने के लिए उपयुक्त हो। 

ऊपर की चार कहानियों के इस अनुक्रम व्यतिक्रम के बाद आखिरकार किताब में पेज-75 से शेष पांच कहानियां पटरी पर आ जाती है। 

कहानी ‘अश्वारोही‘ का श्वेत घोड़ा और अश्वारोही, सफेद चीता, जलपाँखी, सुनहली मछलियाँ और सात मोमबत्तियाँ आदि से लेखक जो कहना चाह रहा है, वह एक सनसनी-सी बुन पाता है, मगर यह ‘पहेली‘ बूझना किसी आम पाठक के लिए आसान नहीं। ‘शब्द! शब्द! शब्द!‘ कहानी दर्दनाक फिर भी प्यारी सी है, जिसमें दर्द और प्यार, दोनों निःशब्द, मगर मुखर हैं। ‘मुस्कान‘ पेज-3 वाली ग्लैमर की व्यावसायिक दुनिया में मानवीय संवेगों और समझौतों की मजेदार विश्वसनीय दास्तान है। 

छपाई की इस गड़बड़ी की ओर प्रकाशन संस्थान का ध्यान गया होगा, या ‘सुकत दीपक‘, जिनका नाम कॉपीराइट पर है या अन्य किसी हितैषी द्वारा ध्यान दिलाया गया होगा और संभव है कि इसके लिए कहीं खेद प्रकट किया गया हो, मगर मेरी जानकारी में अब तक ऐसा कुछ नहीं आया। प्रूफ की भूल और छपाई में, वाक्य के अंतिम शब्दों के टूटे होने की तो शायद ही कोई परवाह करता हो। स्वदेश दीपक का और कुछ पढ़ने का बहुत उत्साह नहीं रह गया है। 

अवसर होने पर ‘मैंने माण्डू ...‘ में आगे बढ़ने का प्रयास कर सकता हूं, इसलिए कि वे पाठक के पास संचित सूचना-संदर्भों की जमा पूंजी को ट्रिगर कर और भी कुछ सोचने को प्रेरित करते हैं, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा जैसे नहीं, जो सोचने-कहने का सारा जिम्मा (जब उन्हें पढ़ा जा रहा हो) अपने ऊपर लिए जान पड़ते हैं, पाठक के लिए ना के बराबर गुंजाइश-स्पेस छोड़ते हैं।

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