इस दौर में मेरे पढ़े रचनाकारों में ‘उपासना‘, अपने अनुभव और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में उल्लेखनीय सहज-स्वाभाविक हैं। उनके लेखन में पढ़े-लिखे का असर कम जान पड़ता है, सब कुछ देखा-सुना, जिया हुआ, रचा-पचा दिखता है। यह निष्कर्ष उनके कहानी संग्रह ‘एक ज़िन्दगी ... एक स्क्रिप्ट भर!‘ के आधार पर है। मगर इस संग्रह की कहानियों में ‘कार्तिक का पहला फूल‘ एकरस हो गई है और ‘एगही सजनवा...‘ में जान फूंकने का प्रयास इतना सघन कि बेजान-भारी सी, बिखरने लगती है, यद्यपि कहानीकार ने अपने तईं, पूरी तसल्ली से लिखने-रचने का आनंद लेते हुए, दृश्य बनाने का सारा उपाय किया है। ‘एगही सजनवा...‘ के कुछ रोचक वाक्य देखिए- ‘जीवन को उसकी नंगई के साथ स्वीकार करते जाना दुरूह कार्य था, बेशक उसकी नंगई पर कोई सा भी झीना आवरण लगाकर जिया जा सकता था कम अज़ कम!‘ एक अन्य ‘निरगुन गाने से कुछ नहीं मिलता था। पिपिहिरी बजाने से पिपिहिरी बिक जाती है...‘ या ‘दुनिया की हर आवाज बिना किसी सुर लिपि के भी स्वयमेव एक भाषा होती है।‘ यहां नायक सिलिंडर भइया के नाम के पीछे का खुलासा नहीं है, जो शायद इसके गुब्बारों में गैस भरने वाला सिलेंडर रखने के कारण पड़ा। वे पाठक की समझ पर छोड़ती हैं या आश्वस्त हैं कि वह समझ लेगा।
कहानी ‘नाथ बाबा की जय‘- आम आदमी के जीवन में घटित होते रोजमर्रा पर लेखक की नजर पड़े तो उसका कोई भी टुकड़ा कहानी, दर्द भरी दास्तान सा होता है। जिस पर वह सब गुजरता या जो इस सबसे गुजरता होता है, वह ऐसी किसी व्यथाकारी स्थिति को क्षणिक निभाकर उसके बाद अविचलित होता है तभी उसका जीवन संभव हो पाता है। कहानी में घटनाओं के बजाय स्थितियों, दृश्यों, मनोभाव जैसे विवरण को काव्यात्मक बनाने का प्रयास, कई बार भटकाव-सा हो कर रोचक नहीं रह जाता। कुछ-कुछ ऐसा ही ‘टूटी परिधि का वृत्त‘ के साथ भी हुआ है। कहानी में ‘घर‘ को फंतासी ‘‘चम्पा सोया है...शतदल जगा है।‘‘ के आगोश में समेटा गया है। इसमें वाक्य है- ‘आँगन के नन्हे गड्ढों में यहाँ-वहाँ पानी जम रहा था।‘ इसे चहबच्चा नहीं कहा गया है, यह शब्द अन्यत्र, कुछ अलग उच्चारण में ‘चौहबच्चा‘ आया है, उस पर टिप्पणी आगे।
यों तो हर प्रेम कहानी अनूठी ही होती है, मगर ऐसी कहानियां चारों ओर फैली, मारी-मारी सी फिरती है कि उसकी कद्र नहीं रह जाती। यही साहित्य में भी है, तब ‘प्रेम कहानी‘, लिखने की चुनौती जैसा है, पुस्तक का शीर्षक वाली ‘एक ज़िन्दगी ... एक स्क्रिप्ट भर!‘ प्रेम कहानी है, इसलिए प्लाट तो अनूठा नहीं, मगर कहन निराला और रोचक, बांधे रखने वाला है। निर्माेही हो कर दिये जा रहे विवरण की तरह होते हुए भी बेहद संवेदनापूर्ण। आमतौर पर लेखकों का वक्तव्य होता है कि एक सीमा के बाद पात्र, रचनाकार से मुक्त हो कर, स्वयं उसे रास्ता दिखाने लगते हैं। यहां ठीक इसके विपरीत है, कहानी के अंदर लेखकीय वक्तव्य में कहानी की नायिका गीता के लिए कहा गया है- ‘ये जो स्क्रिप्ट आरंभ हुई है, उसकी लेखिका गीता हैं।‘ यहां सारे पात्र कठपुतली की तरह, लेखक के इशारे पर नाचते दिखते हैं, मगर उनकी डोर अखरती नहीं, पाठक को पात्रों के अधिक करीब ले आती है, आत्मीय बनाती है। यह परिपक्व-प्रौढ़ संतुलन उल्लेखनीय है। पूरी तरह सधी और मंजी कहानी।
कहानी में स्थितियों को आम ढंग से कस्बाई कहने के बजाय, अधिक बारीकी से स्पष्ट करते ‘चितरंजन नामक इस शहर के एक गँवई एरिया‘ कहती हैं। स्थान का नाम और रजिस्टर पर ‘सी.एल.डब्ल्यू.‘ बताती हैं, यह बताने की जरूरत नहीं समझतीं कि यह ‘चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स‘ है। कुछ फिल्मी नामों-मुहावरों का तड़का के बावजूद अपनी संवेदना और भाषा के सम्यक इस्तेमाल से, जेनुइन होने का भरोसा दिलाते चलती हैं। बहती नाक ‘नेटा‘, या कहीं नकटी, अपान वायु को किसी भी नाजुक प्रसंग के बीच में ला सकती है। सचेत, यह कहते हुए कि- ‘जो हमारे भदेस से प्रेम करता है, वो हमें हर रूप में प्रेम करता है।
संग्रह की अंतिम कहानी ‘अनभ्यास का नियम‘ में बात को कहने का अपना खास अंदाज है, कुछ अंश- ‘आदमी गंजी और पायजामा पहने तकरीबन नींद में ही सोता था।‘ या बारीक खास कस्बाई अभिव्यक्ति ‘... काला जेंट्स छाता ...‘ (इस पर मेरी टिप्पणी- छप्पेदार प्रिंट वाला छाता लेडीज माना जाता था, फोल्डिंग को फैशनेबल, जबकि काला मनकप्पड़ यानी मोमी कपड़े वाला, जिस पर पानी की बूंदें फिसल जाएं, सोलह आम और एकल-प्रयोजनीय या फुल साइज चौबीस तीलियों वाला, जिसमें एक से अधिक भी समा सकें।) इसी कहानी में औरत के लिए कही गई बात- ‘बच्ची की किसी सखी, सहेली, बन्धु-बान्धवी का नाम सपना नहीं था और इसलिए इस शब्द से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हुए ही बच्ची, औरत हो गई थी।‘ और इसी तरह ‘औरत के पास बहुत छोटा-सा पासपोर्ट साइज आईना था इसलिए औरत कभी अपनी पूरी देह नहीं देख पाई थी।‘
इस तरह ‘अनभ्यास का नियम‘ आते आते, पाठक को इस लेखन का अभ्यास हो जाता है फिर सहज तारतम्य न बने फिर भी टुकडों-टुकड़ों में रस लेते पढ़ता-बढ़ता जाता है। ‘अब औरत अकेली पड़ गई थी, इसलिए डर भी गई थी। ... औरत पिस्टल ढूँढती थी। ... उसे अन्दर कमरे की रैक के अँधेरे कोने में चूहे मारने वाली दवा मिल भी गई थी। ... भाज्य में भाजक से भाग देते हुए एक दशमलव भर बिठाया था, और बेशक खू़ब बड़ा भागफल मिलते हुए भी शेष शून्य हो जाता था।‘ जैसे ये चार लगातार वाक्य असंबद्ध हो कर भी, अभ्यस्त-विन्यस्त लगते हैं।
उनकी कहानियों पर उन्हीं का वाक्य लागू हो सकता है- कई सारी चीज़ें बेकार थीं जो बेकार, बेमतलब, बेशऊर थीं। कई सारे बिम्ब थे जो अनायास थे, पर साले ज़िन्दगी को उघाड़कर रख देते थे।
पुनश्च-
पुस्तक में आए शब्दों पर कुछ बातें। मुझे ध्यान आता है कि ‘चहबच्चा‘ शब्द का प्रयोग निर्मल वर्मा करते थे और उनके बाद इस शब्द का प्रयोग कईयों के लेखन में आने लगा। इस किताब में शब्द आता है, ‘चौहबच्चा‘, यह आंचलिक उच्चारण है, और मेरी समझ में अपने अधिक मूल आशय में प्रयुक्त हुआ है, इसलिए यह प्रयोग अनुकरण नहीं, सच्चा लगा।
उकाच, पलानी/पलानि, टाँठ, निचाट, बिछ्कुतिया, बुरकन्नी, भकऊँवा, ढकचल, मरघेवल, चिमोर-मिमोर, छगरी-छगरियन, बनेच्चर, लजकोकड़, भांज, कनैल- इस पुस्तक में आए कुछ शब्द हैं, जिन्हें मोटे तौर पर ‘पुरबिया‘ पहचाना जा सकता है। निसंदेह, ये आंचलिक शब्द अच्छी तरह सधे हैं। ऐसे शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग, एक तरफ लेखक की खासियत, विशिष्ट पहचान माना जा सकता है, वहीं गैर-इलाके के पाठक के लिए व्यवधान हो सकता है। यद्यपि इनमें कुछ शब्द जरूर ऐसे हैं जिनके लिए करीबी उच्चारण, तत्सम रूप और वाक्य में जहां प्रयोग हुआ है, उसके आधार पर अनुमान संभव है।
यहां विचार करना चाहिए कि ऐसी स्थिति में क्या बेहतर हो, जिससे रचनाकार को अपनी मौलिक शैली में स्वाभाविक अभिव्यक्ति से समझौता न करना पड़े, आंचलिकता का सोंधापन बना रहे, शब्द सहेजे जाते रहें, हिंदी समृद्ध होती रहे, वहीं सभी पाठकों के लिए ग्राह्य हो। प्रसंगवश पहली बात ध्यान में आती है, इस दिशा में तैयार की गई विद्यानिवास मिश्र की पुस्तक- ‘हिन्दी की शब्द-सम्पदा‘। यह तो इसी उद्देश्य से बनाई गई किताब है, मगर सामान्य साहित्यिक कृतियों के लिए? एक तरीका तो उर्दू शेरो-शायरी की पुस्तकों की तरह हो सकता है, जहां पाद-टिप्पणियों में शब्दार्थ दिए जाते हैं। एक और तरीका मनोहर श्याम जोशी के ‘कसप‘ वाला है, जहां आरंभ में ही, कहानी की पृष्ठभूमि के अनुरूप प्रयुक्त भाषा कुमांउनी हिंदी का संक्षिप्त-सा परिचय दे दिया गया है। एक और तरीका पुस्तक के अंत में ऐसे शब्दों की सूची और अर्थ दे दिए जाएं, जिसमें कुछ ऐसे शब्द भी होंगे जिनका सीधे समानार्थी शब्द न हों, वहां उसका आशय स्पष्ट कर दिया जाए, जैसा कि अंचल-विशेष के गंभीर अकादमिक अध्ययनों के अंत में किया जाता है। जिन पुस्तकों में आंचलिक शब्दों का बाहुल्य हो, पाठक के प्रति यह लेखक-प्रकाशक की आवश्यक जिम्मेदारी है। यह पाठकीय-आसानी के लिए तो जरूरी है ही, उन भाषा-बोलियों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के साथ आंचलिक भाषाओं के संरक्षण के लिए भी महत्वपूर्ण है।
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