Wednesday, August 24, 2011

कृष्‍णकथा

छत्‍तीसगढ़ में कृष्‍णकथा और उत्‍सव की अपनी परम्‍परा है, जिसमें भागवत कथा आयोजन, गउद के दादूसिंह जी, हांफा के पं. दुखुराम, बेलसरी वाले पं. रामगुलाम-पं.बालमुकुंद जी, पेन्‍ड्री के पं. बसोहर. रतनपुर वाले पंडित ननका सूर्यवंशी, सांसद रहे गोंदिल प्रसाद अनुरागी जी, विधायक रहे कुलपतसिंह जी सूर्यवंशी जैसे रासधारियों और रानीगांव आदि का पुतरी (मूर्ति) और बेड़ा (मंच, प्रदर्शन स्‍थल) वाला रहंस (रास), छत्‍तीसगढ़ का वृन्‍दावन कहे जाने वाले गांव नरियरा की कृष्‍णलीला, रतनपुर का भादों गम्‍मत, पं. सुन्‍दरलाल शर्मा की रचना छत्‍तीसगढ़ी दानलीला, महाप्रभु वल्‍लभाचार्य जी की जन्‍म स्‍थली चम्‍पारण, राउत नाच, दहिकांदो, कान्‍हा फाग गीत, रायगढ़ की जन्‍माष्‍टमी, डोंगरगढ़ का गोविन्‍दा उत्‍सव, बस्‍तर में आठे जगार, सरगुजा में डोल तो उल्‍लेखनीय हैं ही, पहले-पहल गोदना कृष्‍ण ने गोपियों के अंग पर गोदा, इस रोचक मान्‍यता का गीत भी प्रचलित है-
गोदना गोदवा लो सखियां गोदना गोदवा लो रे
मांथ में गोदे मोहन दुई नयनन में नंदलाला
कान में गोदे कृष्‍ण कन्‍हैया गालों में गोपाला।
ओंठ में गोदे आनन्‍द कंद गला में गोकुल चंद
छाती में दो छैला गोदे नाभी में नंदलाला।
और कृष्‍णकथा सहित पाण्‍डवों की गाथा को 'बोलो ब्रिन्‍दाबन बिहारीलाल की जै' से आरंभ कर 'तोरे मुरली म जादू भरे कन्‍हैया, बंसी म जादू भरे हे' तक पहुंचाने वाली पद्मभूषण तीजनबाई जी की पंडवानी, जैसे छत्‍तीसगढ़ की पहचान बन गई है।

इसकी पृष्‍ठभूमि में धर्म-अध्‍यात्‍म और साहित्‍य की भूमिका निसंदेह है, कृष्‍ण नाम यहां पहली बार रानी वासटा के लक्ष्‍मण मंदिर शिलालेख, सिरपुर से ज्ञात है- ''यः प्रद्वेषवतां वधाय विकृतीरास्‍थाय मायामयीः कृष्‍णो'' और सैकड़ों साल के ठोस प्रमाण प्राचीन शिल्‍प कला में तुमान, पुजारीपाली, देव बलौदा, रायपुर, गंडई, लक्ष्‍मणगढ़, महेशपुर, सिरपुर, तुरतुरिया, जांजगीर आदि में मूर्त हैं। प्रतिमा-शिल्‍पखंड का अभिज्ञान, काल, राजवंश-कला शैली उल्लेख सहित चित्रमय झांकी-
कृष्‍ण जन्‍म?, ईस्‍वी 11वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

वसुदेव-बालकृष्‍ण गोकुल गमन, बलराम-प्रलंबासुर, ईस्‍वी 12वीं सदी, रतनपुर कलचुरी

बाललीला, कुब्‍जा पर कृपा, कुवलयापीड़वध, 
ईस्वी 10वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

कृष्‍णजन्‍म, योगमाया, पूतना वध, 
ईस्वी 9वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

पूतनावध, ईस्वी 18वीं सदी, मराठा

कालियदमन, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश

पूतनावध, तुरंगदानव केशीवध ईस्वी 7वीं सदी, सोमवंश

केशीवध, ईस्वी 6वीं सदी, शरभपुरीयवंश

केशीवध, वत्‍सासुरवध, ईस्वी 6वीं सदी, शरभपुरीयवंश

शकट भंजन, यमलार्जुन उद्धार-ऊखलबंधन, अरिष्‍ट(वृषभासुर)वध, 
कालियदमन, धेनुकासुरवध, कृष्‍ण-बलराम-अक्रूर मथुरा यात्रा, 
ईस्वी 10वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

गोवर्धनधारी कृष्‍ण, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश

कर्णार्जुन युद्ध, वेणुधर कृष्‍ण, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश
लिखित, वाचिक-मौखिक परम्‍परा, पत्‍थरों पर उकेरी जाकर स्‍थायित्‍व के मायनों में जड़ होती है। इन पर सर भी पटकें, पत्‍थर तो पत्‍थर। इस पोस्‍ट की योजना तो बना ली लेकिन ये पत्‍थर मेरे लिए पहाड़ साबित होने लगे। काम आगे बढ़ा, हमारे आदरणीय वरिष्‍ठ गिरधारी (श्री जीएल रायकवार जी) की मदद से। पथराया कला-भाव और उसकी परतें उनके माध्‍यम से जिस तरह एक-एक कर खुलती हैं, वह शब्‍दातीत होता है। कर्ण-अर्जुन युद्ध करते रहें, बंशीधर के चैन की बंसी बजती रहे। काम सहज पूरा हो गया। इस बीच एक पुराने साथी जी. मंजुसाईंनाथ जी ने जन्‍माष्‍टमी पर बंगलोर से खबर दी-
भोँपू, नारा, शोरगुल, कौवों का गुणगान।
हंगामे में खो गयी, मधुर मुरलिया तान।

लेकिन अहमदाबाद की एक तस्‍वीर यहां देख सकते हैं।

Saturday, August 13, 2011

आजादी के मायने

आजादी के दूसरे दशक के शुरुआती बरसों में पैदा हुई मेरी पीढ़ी ने जब होश संभाला तब नई संवैधानिक व्यवस्था में दो आम चुनाव हो चुके थे। ऐसी राजनैतिक व्यवस्था से साक्षात्कार हो रहा था, जिसमें लोकतंत्र की ताजी चमक के साथ मुगलिया तहजीब, ब्रिटिश हुकूमत के तौर-तरीकों और देशी रियासतों की ठाट भी दिखाई पड़ती थी। कृषि, उद्योग और अर्थ व्यवस्था जुमले बनकर हावी हो रहे थे। प्रगति-विकास का उफान, उसका वेग और उसकी दिशा ढर्रे पर आ रही थी। आजादी का जज्बा और जोश उतार पर था। आजादी का उत्सव भी सालाना रस्म में बदलने लगा था। 'आजादी' खास घटना की बजाय सहज होकर आदत बन गई। आजादी का वह अर्थ छीज रहा था, जिस तरह पिछली पीढ़ी के प्रत्यक्ष अनुभव में था।

मेरी पीढ़ी आजादी के मायने ढूंढते हुए 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर, जय स्तंभ, गांधी जी के माध्यम से जानने-पहचानने का प्रयास करते हुए पिछली पीढ़ी के संस्मरणों को अनुभूत करना चाहती थी। लेकिन उस उम्र की कच्ची समझ को राष्ट्र और उसकी स्वाधीनता, स्वतंत्रता संग्राम को समझने के लिए किसी प्रतीक की जरूरत होती। डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी की आरंभिक स्मृति मेरे और शायद मेरी पीढ़ी के बहुतेरों के लिए इसी तरह महत्वपूर्ण है, जिनमें आजादी के ऐसे मायने को सजीव महसूस किया जा सकता था। आमने-सामने चरखा चलाते मैंने पहली बार और एकमात्र उन्हें ही देखा। आजादी की स्फुट जानकारियां और कहानियां सभी एक सूत्र में बंधकर सार्थक होती जान पड़ती थीं- डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के व्यक्तित्व में। वे हमारे लिए आजादी के प्रतीक थे।

बातें पुरानी हैं, उनकी याद से कहीं ज्यादा असर है। बातें अब अच्छी तरह याद भी नहीं हैं। आजादी की उनकी बातों में मुझे क्या जिज्ञासा होती थी यह कुछ हद तक तब समझ पाया जब नरोन्हा जी की आत्मकथा पढ़ी, इसके जिस हिस्से का उल्लेख कर रहा हूं वह स्वतंत्रता के ठीक पहले और बाद प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका और निष्ठा के दृष्टिकोण से है। पुस्तक में जिक्र है कि किस तरह कल के निगरानीशुदा में शुमार अब सम्मानित हो गए। व्यवस्था के विरोधी, व्यवस्था बनाने में जुट गए, अब लगता है कि डॉ. ज्वालाप्रसाद जी की बातों में मेरी यही जिज्ञासा होती कि अपने देश की व्यवस्था तोड़ने और बनाने का द्वंद्व क्या और कैसा होता है। आपात्‌काल, जिसे दूसरी आजादी कहा गया और उसके बाद की स्थितियों को देखने पर अधिक स्पष्ट हुआ कि यह सदैव संदर्भ और व्याख्‍या आश्रित होता है।

डॉ. ज्वालाप्रसाद जी के विशाल व्यक्तित्व में न जाने कितनी चीजें समाहित थीं। सफेद कुरता, धोती और टोपी के साथ उनकी काया में उर्जा, स्फूर्ति और चपलता भरी रहती। स्मरण करने पर लगता है कि मिश्र जी जिन स्थानों, वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और क्षेत्रों से संबंधित रहे उन सबकी झलक उनके व्यक्तित्व से अभिन्न हो गई। मुंगेली के साथ-साथ लिमहा, गीधा, करही जैसे स्थान, अकलतरा में स्टेशन रोड का हरियाली से ढंका भवन और हरी जीप, पारिवारिक और रिश्तेदार सदस्य, जिनकी फेहरिस्त लंबी है, रामदुलारे (मुख्‍य रूप से कम्पाउन्डर, लेकिन जिनके लिए अटैची विशेषण ही उपयुक्त हो सकता है।) चिकित्सा, स्वतंत्रता संग्राम, जेल, चरखा, विवेकानंद आश्रम, यह सब कुछ उनसे अनुप्राणित जान पड़ता।

अकलतरा में आयोजित होने वाली सभाओं की अध्यक्षता बहुधा आप करते थे (अध्यक्ष के रूप में अन्‍य- पं. रामभरोसे शुक्ल जी होते थे)। कार्यक्रमों में विशेषज्ञ आमंत्रित वक्ता और मुख्‍य अतिथि के बाद अंत में जब अध्यक्ष की बारी आती, तो अवसर कोई भी हो, विषय कैसा भी हो आपका वक्तव्य व्यापक ज्ञान और गहन अनुभव के साथ सहज-सुबोध होता था। आपके उद्‌बोधन में राष्ट्रीयता और देशप्रेम की चर्चा इस तरह से होती कि वह अनुभूत होकर सार्थक और असरकारी होती। लगभग सभी मौकों पर उनकी ही बातें ज्यादा भाती थीं और हम अपने कस्बे पर गौरवान्वित होते। वे अकलतरा में निवास करते थे, किन्तु उनके कार्यक्षेत्र की व्यापकता को मैं उतना ही जान पाया, जितनी सीमित मेरी जानकारी और समझ बनी।

1976 में पढ़ाई के लिए मैं रायपुर गया और दो साल विवेकानंद आश्रम के छात्रावास में रहा। छात्रावास भवन के बीच वाले कक्ष, संभवतः क्र. 5 पर डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के नाम की पटि्‌टका लगी है। यह कक्ष तब अतिथियों के लिए उपयोग होता था। वे रायपुर और आश्रम आते, तब हमलोगों को मिलने के लिए अवश्य बुलवाते और हमेशा प्रेरक, उत्साहवर्धक बातें सहजता से कहते। मुझे यह तब पता चला कि रायपुर रामकृष्ण मिशन, विवेकानंद आश्रम के संचालन में आपकी महती भूमिका रही है। आश्रम के नियम-कायदे सख्‍त थे और अनुशासन बहुत पक्का। आश्रम का माहौल गरिमामय और गंभीर होकर भी खुशनुमा और सहज होता था और इसका कारण निसंदेह स्वामी आत्मानंद जी थे।

इस दौरान आश्रम छात्रावास के वार्डन का एक पत्र डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के पास गया, जिसमें कुछ अन्य बातों के साथ मेरे लिए जिक्र था- बेहतर होगा यदि मैं आश्रम छात्रावास की सख्‍त पाबंदियों के बजाय छात्रावास से बाहर कहीं और रहूं। मेरे अकलतरा पहुंचने पर डॉ. साहब ने बुलवा कर पत्र मुझे सौंपा। वह आज भी सुरक्षित है। उन्होंने मुझसे पूरे विस्तार से आश्रम की व्यवस्था संबंधी जानकारी लेते हुए खुद निर्णय लेने की छूट दी। आश्रम में रहते हुए विभिन्न व्यक्तियों से सहज मुलाकात, आश्रम का पुस्तकालय और वाचनालय, खेलकूद और अन्य गतिविधियों के साथ समय-समय पर स्वामी आत्मानंद जी महराज का सुलभ सानिध्य की बात कहकर मैंने कुछ और समय आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहमति दे दी।

साल भर बाद मैंने जब आश्रम छात्रावास छोड़ने की मंशा उनके सामने प्रकट की, तो कारण की पूछताछ करने लगे, ऐसा लगा कि सहमत नहीं हो रहे हैं, लेकिन पूरी चर्चा करने पर इजाजत मिल गई। यह सब याद आने पर लगता है कि किसी मामले को जिस उदार और खुले ढंग से आप देखते थे, वह कितना अनूठा और दुर्लभ है। अलग-अलग विचारधारा, आयु-वर्ग, जाति-धर्म और व्यवसाय के लोग उनसे जुड़े थे। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विचार और आस्था का वे सच्चा सम्मान करते, महत्व देते। आप वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। तरल और पारदर्शी व्यक्तित्व के इन गुणों की चर्चा उनके पुण्य स्मरण के साथ होती है।

आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संगठन और नेतृत्व में सक्रिय रहे, लेकिन अंतिम दिनों में उनसे मेरा सीधा सम्पर्क कम रहा इसलिए पारिवारिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति के अलावा अन्य कोई उल्लेखनीय व्यक्तिगत अनुभव या संस्मरण नहीं है। सेनानियों और उनसे जुड़े लोगों द्वारा इस दौर में उनकी अवस्था के बावजूद सक्रियता और कुशल नेतृत्व का स्मरण अब भी किया जाता है।

सन 2009 के आरंभ में प्रकाशित डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) स्मृति ग्रंथ में शामिल मेरा आलेख।

Monday, August 8, 2011

अपोस्‍ट

मेरी शतकीय पोस्‍ट, मेरे सैकड़ा फालोअर, सौ पार टिप्‍पणियां, ऐसा कुछ भी नहीं है इस पोस्‍ट के साथ, इसलिए यह क्‍या खाक पोस्‍ट, यह तो अपोस्‍ट है, लेकिन अपनी है इसलिए मान लिया कि 'अ' जुड़कर, पोस्‍ट से एक कदम आगे है, सो आगे बढ़ें। पोस्‍ट, फालोअर, फीड बर्नर पाठक, टिप्‍पणी के शतक और विजिट संख्‍या पर पोस्‍ट लगाने का चलन रहा है। हिंदी ब्‍लागिंग के उज्‍ज्‍वल भविष्‍य को देखते हुए आशा की जा सकती है कि आने वाले समय में अर्द्धशतक पर और दशक पर भी पोस्‍ट लगा करेगी। गहन चिंतन कर रहा हूं मैं। सिर खुजाने की मुद्रा से आगे, ठुड्ढी पर हाथ देने की नौबत आने लगी है।
मुझ चिंतित-भ्रमित जिज्ञासु की मुलाकात ब्‍लागाचार्य पं. चतुरानन शास्‍त्री 'दशरूप' जी से हो गई। उन्‍होंने समझाया कि जमाना क्रिकेट का है, देखते हो क्रिकेट का क्रेज, हर रन पर रिकार्ड और रन न बने तो भी रिकार्ड। इसी तरह हर पोस्‍ट रिकार्ड और पोस्‍ट न लिखो तो भी पोस्‍ट। आगे आने वाले कुछ दिनों में कोई पोस्‍ट न लिखनी हो तो उसकी पोस्‍ट। कुछ दिनों का अंतराल रहा तो उस पर पोस्‍ट, लौटे तब तो पोस्‍ट की बनती ही है, उसकी गिनती भी ब्‍लाग पेज पर और चर्चा-वार्ता, संकलक मंच पर भी। क्‍यों न रहे रिकार्ड इनका। रिकार्ड न रखने के कारण ही हम पिछड़ जाते हैं। आंकड़े तो जरूरी हैं, जनगणना से मतगणना तक। इसी के दम पर चलती है देश-दुनिया। चांदनी की ठंडक और उजास, नदी की धारा, फूलों का रंग और खुशबू, बच्‍चे की खिलखिलाहट, मुंह में घुलता स्‍वाद सब डिजिटलाइज हो रहा है और अब तो तुम्‍हारा अस्तित्‍व ही यूआइडी का अंक होगा। लगता है अपनी परम्‍परा का ढाई आखर का प्रेम भी याद नहीं तुम्‍हें।

निजी आक्षेप होता देख, हम भी उतारू हो गए और बात का रूख मोड़ना चाहा। पूछा- लेकिन ब्‍लाग पर रोज-ब-रोज पोस्‍ट, सार्थकता..., औचित्‍य..., स्‍तर..., विषय कहां से आएंगे। थोड़ा चिढ़ाया भी, तुकबंदी नमूना बात कह कर कि-
यहां अखबारी खबरों की तरह रोज इतिहास बन रहा है,
और महीना बीतते-बीतते हर महान रद्दी में बिक रहा है।

वे पहले तो उखड़े, नश्‍वरता का सिद्धांत निरूपित किया, फिर धारा-प्रवाह शुरू हो गए। ब्‍लागर के लिए हर दिन नया दिन, हर रात नई रात होनी चाहिए। अंतःदृष्टि, चर्म-चक्षु और मोबाइल कैमरे की आंख, बस, अगर प्रतिभा हो तो दिन भर में एक पोस्‍ट तो बनती ही है। ब्‍लागरी का सार्थक जीवन व्‍यतीत करते, दृष्टि-संपन्‍न ब्‍लागर के लिए ऐसा दिन हो ही नहीं सकता, जो पोस्‍ट-संभावनायुक्‍त न हो। घर से बाहर निकलो तो पोस्‍ट, घर में ही बने रहो तो पोस्‍ट। जिस तरह मछली अपने तेल में ही पक सकती है वैसे ही कुछ न हो तो ब्‍लाग, ब्‍लागर, ब्‍लागरी, ब्‍लागर सम्‍मेलन, ब्‍लागर मिलन या टिप्‍पणियों और पोस्‍ट पर भी तो पोस्‍ट बनती है। फिर भी कसर रहे तो जयंती, जन्‍मतिथि, पुण्‍यतिथि, श्रद्धांजलि, बधाई, शुभकामनाएं, और कुछ नहीं तो पता कर लो साल के 365 में 465 नमूने के डे होने लगे हैं आजकल...। निरर्थक प्रश्‍नों में मत उलझो, वृथा ही दिग्‍भ्रमित होते हो। बस, अंतर्जालीय महाजाल के असीम को असीम से पूर्ण करते चलो। ब्‍लाग साहित्‍य का भंडार समृद्ध करो, तथास्‍तु।

हम तो यों ही अपना ब्‍लाग पेज बना कर कभी-कभार, नया-पुराना कुछ डालते रहे हैं। लगा कि ब्‍लागरी के ऐसे संस्‍कार नहीं मिल पाए हमें, क्‍या करें। लेकिन यह समझ में आया कि ऐसे ब्‍लाग, जिसके फालोअर या फीड बर्नर पाठकों की संख्‍या चार-पांच शतक पार हो, ऐसी पोस्‍ट, जिस पर टिप्‍पणियां सैकड़ा पार करती हों, अथवा पेज विजिट हजार से अधिक हों, (चाहे जितने आरोप लगते रहें लेन-देन, खुजाल-खुजाई के) इससे हिंदी ब्‍लॉगिंग के भविष्‍य का संकेत मिल सकता है और इतिहास की तस्‍वीर साफ हो सकेगी। ब्‍लागाचार्य जी के इस 'पोस्‍टमार्टम' का असर है, अपोस्‍ट जैसी यह ब्‍लागरी पोस्‍ट, उन्‍हीं को समर्पित..., तेरा तुझको सौंपता...।

पुनश्‍च- विशेषज्ञों ने टिप्‍पणियों का परीक्षण 'दाढ़ी में तिनका' तर्ज पर करने का आश्‍वासन दिया है।

Wednesday, August 3, 2011

सोन सपूत

सभ्यता, किसी पहाड़ी की कोख-कंदरा में जन्म लेती है और विकसित होती हुई नदी तटों पर पहुंचती है लेकिन संस्कृति, नदियों के अगल-बगल, आभूषित, अलंकृत होती है और नदी-जलधाराओं के उद्‌गम और संगम बिंदु, संस्कृति के घनीभूत केंद्र होते हैं। ऐसा ही केंद्र है- छत्तीसगढ़ में पेण्‍ड्रा के निकट ग्राम सोन बचरवार का सोनमुड़ा या सोनकुण्ड। सोन नदी नहीं, सोन नद का उद्‌गम जो 'शोण' या 'शोणभद्र' नाम से भी जाना गया है।

लोक विश्वास में अमरकंटक का सोनमुड़ा (सिद्ध शोणाक्षी शक्ति पीठ) 'सोन' तथा 'भद्र' दो भिन्न जलधाराओं का उद्गम, साथ ही भद्र का सोन में संगम स्थल माना जाता है, किन्तु तथ्य की दृष्टि से यह भ्रम है। इस विश्वास के कारणों में प्रमुख तो पौराणिक भूगोल की जानकारियां हैं, जिनमें सोन और नर्मदा का उद्‌गम मेकल से और पास-पास होना बताया गया है साथ ही एक रोचक किंतु अविश्वसनीय तथ्य यह भी है कि लोक विश्वास और परंपरा (प्रशासनिक अड़चन, राजनैतिक कारणों) का ध्यान रखते हुए सन 1952-53 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अमरकंटक के सोनमुड़ा को ही सोन का उद्‌गम बताकर दिखाया गया। उल्लेखनीय है कि इसी अवसर पर आदर्श ग्राम 'राजेन्‍द्रग्राम' नामकरण भी हुआ (गांव का मूल नाम बसनिहा बताया जाता है)। अमरकंटक वाले सोनमुड़ा का प्रवाह, आमानाला, आमाडोब नाला, माटीनाला होकर अरपा में मिल जाता है जो अरपा, शिवनाथ होकर महानदी में मिलती है। किंतु वास्तविक सोन का उद्‌गम मौके पर तो स्पष्ट है ही गंभीर अध्ययनों तथा सर्वे आफ इण्डिया के प्रामाणिक नक्शे, 19वीं सदी के जे.डी. बेगलर के पुरातत्वीय सर्वेक्षण और देवकुमार मिश्र की पुस्तक 'सोन के पानी का रंग' में भी इसका तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है।

पचासेक साल पहले मध्‍यप्रदेश में नवमी कक्षा की हिन्‍दी पाठ्य पुस्‍तक 'नव-साहित्‍य-सुधा' में पाठ-7, श्री राखालदास वन्‍द्योपाध्‍याय का 'अमरकंटक' शीर्षक निबंध होता था। इस निबंध की आरंभिक पंक्तियां हैं- ''विन्‍ध्‍यप्रदेश में विन्‍ध्‍यपर्वत के एक शिखर से तीन भारी-भारी नदियां निकली हैं- महानदी, सोन (शोणभद्र) और नर्मदा। इसीलिए अमरकंटक समस्‍त भारतवर्ष में विख्‍यात है।'' यहां सोन उद्गम की भूल तो है ही, महानदी को भी यहां से निकली बताया गया है जबकि जोहिला, वस्‍तुतः जिसका उद्गम यहा है, का नाम भी नहीं है। राखालदास वन्‍द्योपाध्‍याय से ऐसी भूल और यह पाठ्यपुस्‍तक के लिए स्‍वीकृत हो कर पढ़ाया जाना, आश्‍चर्यजनक है।

देश की प्रसिद्ध पुल्लिंग जलधाराओं में ब्रह्मपुत्र के साथ सोन मुख्‍य है। सिक्किम की कुंवारी कही जाने वाली नदी तिस्‍ता की प्रेम कहानी का नायक नद रंगीत है। छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख जलधारा, शिवनाथ तथा सरगुजा का कन्हर भी नद माने गये हैं। दमेरा पहाड़ी, जशपुर से निकली सिरी और बांकी जलधाराएं क्रमशः भाई-बहन मानी जाती हैं। सरगुजा के सूरजपुर-प्रतापपुर की दो जलधाराओं, बांक और बांकी नाम में दंतकथा की पूरी संभावना है। कांकेर वाली दूध नदी, महानदी की पुत्री मानी जाती है। कोल्‍हान नाला को राजा कहा जाता है। कोरिया की मेन्‍ड्रा पहाड़ी के उत्‍तर से निकली गोपद को नारी और दक्षिण से निकले हसदेव को पुरुष माना जाता है। छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश की सीमा पर ग्राम बांकी (पंडरीपानी) के कांदावानी-दंतखेड़ा पहाड़ी से निकलने वाली हांफ-हंफनिन, प्रेमी-प्रेमिका मानी जाती हैं। हांफ, शिवनाथ के बांयें तट पर तरपोंगी, बेमेतरा जिला और दाहिने तट पर बलौदाबाजार जिले के तरपोंगा मावली माता मंदिर के पास शिवनाथ से महानदी होते बंगाल की खाड़ी में जाती है। हंफनिन (हलो), नर्मदा की सहायक बुढ़नेर नदी में मिल कर अरब सागर चली जाती है। अर्थात नर्मदा और सोन की तरह इनका भी 'मिलन' नहीं हो पाता। कान्हा-मुक्की की नर्मदा की सहायक जलधारा ‘बंजर‘, पुल्लिंग तो भीमलाट संगम की दूसरी नदी ‘जमुनिया‘ स्त्रीलिंग मानी जाती है। इसी तरह मवई, मंडला की जलधाराओं और गांव का नाम ही ‘भाई-बहन नाला‘ है।

कोरबा-बिलासपुर की एक छोटी नदी, लीलागर के नाम में लीला और आगर की संधि है, वैसे दो नदियां लीलागर और आगर अलग-अलग भी हैं और देवार गीत में लीला नारी और आगर पुरुष है, जिनके विवाह की गाथा गाई जाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस गीत में कन्या-प्राप्ति के लिए करमसैनी की पूजा के फलस्वरूप लीला का जन्म हुआ है। पहाड़ और जलधारा का रिश्‍ता तो जन्‍मदाता और संतति का होता ही है। प्रचलित लोक मान्यता में अगल-बगल के तालाब सास-बहू, देवरानी-जेठानी या मामा-भांजा के होते हैं तो नदियों के बीच आपसी रिश्ता रानी-चेरी, प्रेमी-प्रेमिका या भाई-बहन का माना जाता है। समान उद्‌गम स्थल से निकली नदियां रानी-दासी या भाई-बहन तो मानी गई है किंतु प्रेमी-प्रेमिका के लिए सामान्यतः भिन्न उद्‌गम की सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा जाता है।

सोन ओर नर्मदा की प्रेमकथा पूरे अंचल में कई तर‍ह से प्रचलित है। कहा जाता है कि राजा मेकल ने पुत्री राजकुमारी नर्मदा के लिए निश्चय किया कि जो राजकुमार बकावली के फूल ला देगा, उसका विवाह नर्मदा से होगा। राजपुत्र शोणभद्र, बकावली के फूल ले आए, लेकिन देर होने से विवाह संभव न हुआ। इधर नर्मदा, सोन के रूप-गुण की प्रशंसा सुन आकर्षित हुई और नाइन-दासी जोहिला से संदेश भेजा। जोहिला ने नर्मदा के वस्त्राभूषण मांग लिए और संदेश ले कर सोन से मिलने चली। जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जोहिला का सोन से संगम, वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर हो जाता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी ही उल्टी दिशा में बह चलती है। रानी और दासी के पोशाक बदलने की कथा, अन्य संदर्भों में इलाहाबाद जिले के पूर्वी भाग की अवधी बोली क्षेत्र में भी प्रचलित है।

सोन को पवित्र और अभीष्ट फल देने वाला कहा गया है तथा यह भी कि गुरू के मकर राशि में आने पर जो यहां बास करे वह विनायक पद प्राप्त करता है। रामचरित मानस में आता है- ‘सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन। अर्थात अनुज लक्ष्मण सहित राम के युद्ध-यशरूपी सुहावना महानद सोन (उसमें आ कर) मिलता है। सोन के पुल्लिंग मानने का आधार तो पता नहीं चलता, किन्तु दशरथ घाट से मसीरा घाट जाते हुए और उसके आगे भी तेज ढाल वाला सोन का पाट पुरूष का विशाल, विस्तृत उरू प्रदेश लगता है। माघ पूर्णिमा की तिथि, हमारी संस्कृति में सामुदायिक मेल-मिलाप का उत्सव है। सोन बचरवार, आमाडांड और लाटा गांव के बीच स्थित सोन उद्‌गम 'सोनकुंड' पर भी जनसमूह इस तिथि पर आदिम संस्कृति, सभ्यता के लक्षणों सहित घनीभूत होने लगता है।

इस स्थान पर पहले पहल सन्‌ 1930 में बनारस के ग्वारा घाट से स्वामी सहज प्रकाशानंद आए और साफ-सफाई कर कुटी बनाई। 1931 में पेंड्रा के जमींदार लाल अमोल सिंह ने कुंड का जीर्णोद्धार कराया। ब्रह्मचारी चिदानंद, योगानंद स्वामी जी के शिष्य हुए। सन्‌ 1976 में स्वामी जी ब्रह्मलीन हुए अब उनकी समाधि वहां है तथा कुटी व धार्मिक क्रियाकलापों का संचालन वर्तमान बेलगहना वाले सिद्ध मुनि बाबा आश्रम के स्वामी सदानंद के अधीन होता है, जो माघ पूर्णिमा और गुरू पूर्णिमा पर स्वयं यहां विराजते हैं। रोजाना की गतिविधियों की निगरानी स्वामी कृष्णानंद की देख-रेख में होती है।
बस्तर में दंतेवाड़ा, रायपुर में राजिम और बिलासपुर (अब जांजगीर) में शिवरीनारायण की मान्यता आंचलिक पुण्य क्षेत्र की है वहां महानदी के रामकुंड की भांति सोनकुंड के प्रवाह में स्थानीय जन, श्राद्ध व अस्थि विसर्जन भी करते है। सोन उद्‌गम के अथाह कुंड के पार्श्व में भरने वाले ठेठ आंचलिक मेले के परंपरा की गहराई और सघनता अथाह है। संभवतः उतनी ही गहरी जितनी सोन का मूल अथवा उतनी ही सघन, जितनी मानव-मन की श्रद्धा।

दैनिक भास्कर, बिलासपुर में मेरा यह लेख ''छत्‍तीसगढ़ी कोख का 'सोन' सपूत'' शीर्षक से 21 फरवरी 2001 को लगभग इसी तरह प्रकाशित हुआ था।

छत्‍तीसगढि़या हम, मध्‍यप्रदेश से तो अभिन्‍न रहे ही हैं, लेकिन इससे आगे बढ़ कर मुझ जैसे, सोन के माध्‍यम से उत्‍तरप्रदेश और बिहार होते हुए खुद को गंगा से जुड़ा महसूस करते हैं। इस विषय पर एक अन्‍य पोस्‍ट बेहतर और रंगीन चित्रों के साथ यहां है।