आजादी के दूसरे दशक के शुरुआती बरसों में पैदा हुई मेरी पीढ़ी ने जब होश संभाला तब नई संवैधानिक व्यवस्था में दो आम चुनाव हो चुके थे। ऐसी राजनैतिक व्यवस्था से साक्षात्कार हो रहा था, जिसमें लोकतंत्र की ताजी चमक के साथ मुगलिया तहजीब, ब्रिटिश हुकूमत के तौर-तरीकों और देशी रियासतों की ठाट भी दिखाई पड़ती थी। कृषि, उद्योग और अर्थ व्यवस्था जुमले बनकर हावी हो रहे थे। प्रगति-विकास का उफान, उसका वेग और उसकी दिशा ढर्रे पर आ रही थी। आजादी का जज्बा और जोश उतार पर था। आजादी का उत्सव भी सालाना रस्म में बदलने लगा था। 'आजादी' खास घटना की बजाय सहज होकर आदत बन गई। आजादी का वह अर्थ छीज रहा था, जिस तरह पिछली पीढ़ी के प्रत्यक्ष अनुभव में था।
मेरी पीढ़ी आजादी के मायने ढूंढते हुए 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर, जय स्तंभ, गांधी जी के माध्यम से जानने-पहचानने का प्रयास करते हुए पिछली पीढ़ी के संस्मरणों को अनुभूत करना चाहती थी। लेकिन उस उम्र की कच्ची समझ को राष्ट्र और उसकी स्वाधीनता, स्वतंत्रता संग्राम को समझने के लिए किसी प्रतीक की जरूरत होती। डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी की आरंभिक स्मृति मेरे और शायद मेरी पीढ़ी के बहुतेरों के लिए इसी तरह महत्वपूर्ण है, जिनमें आजादी के ऐसे मायने को सजीव महसूस किया जा सकता था। आमने-सामने चरखा चलाते मैंने पहली बार और एकमात्र उन्हें ही देखा। आजादी की स्फुट जानकारियां और कहानियां सभी एक सूत्र में बंधकर सार्थक होती जान पड़ती थीं- डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के व्यक्तित्व में। वे हमारे लिए आजादी के प्रतीक थे।
बातें पुरानी हैं, उनकी याद से कहीं ज्यादा असर है। बातें अब अच्छी तरह याद भी नहीं हैं। आजादी की उनकी बातों में मुझे क्या जिज्ञासा होती थी यह कुछ हद तक तब समझ पाया जब नरोन्हा जी की आत्मकथा पढ़ी, इसके जिस हिस्से का उल्लेख कर रहा हूं वह स्वतंत्रता के ठीक पहले और बाद प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका और निष्ठा के दृष्टिकोण से है। पुस्तक में जिक्र है कि किस तरह कल के निगरानीशुदा में शुमार अब सम्मानित हो गए। व्यवस्था के विरोधी, व्यवस्था बनाने में जुट गए, अब लगता है कि डॉ. ज्वालाप्रसाद जी की बातों में मेरी यही जिज्ञासा होती कि अपने देश की व्यवस्था तोड़ने और बनाने का द्वंद्व क्या और कैसा होता है। आपात्काल, जिसे दूसरी आजादी कहा गया और उसके बाद की स्थितियों को देखने पर अधिक स्पष्ट हुआ कि यह सदैव संदर्भ और व्याख्या आश्रित होता है।
डॉ. ज्वालाप्रसाद जी के विशाल व्यक्तित्व में न जाने कितनी चीजें समाहित थीं। सफेद कुरता, धोती और टोपी के साथ उनकी काया में उर्जा, स्फूर्ति और चपलता भरी रहती। स्मरण करने पर लगता है कि मिश्र जी जिन स्थानों, वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और क्षेत्रों से संबंधित रहे उन सबकी झलक उनके व्यक्तित्व से अभिन्न हो गई। मुंगेली के साथ-साथ लिमहा, गीधा, करही जैसे स्थान, अकलतरा में स्टेशन रोड का हरियाली से ढंका भवन और हरी जीप, पारिवारिक और रिश्तेदार सदस्य, जिनकी फेहरिस्त लंबी है, रामदुलारे (मुख्य रूप से कम्पाउन्डर, लेकिन जिनके लिए अटैची विशेषण ही उपयुक्त हो सकता है।) चिकित्सा, स्वतंत्रता संग्राम, जेल, चरखा, विवेकानंद आश्रम, यह सब कुछ उनसे अनुप्राणित जान पड़ता।
अकलतरा में आयोजित होने वाली सभाओं की अध्यक्षता बहुधा आप करते थे (अध्यक्ष के रूप में अन्य- पं. रामभरोसे शुक्ल जी होते थे)। कार्यक्रमों में विशेषज्ञ आमंत्रित वक्ता और मुख्य अतिथि के बाद अंत में जब अध्यक्ष की बारी आती, तो अवसर कोई भी हो, विषय कैसा भी हो आपका वक्तव्य व्यापक ज्ञान और गहन अनुभव के साथ सहज-सुबोध होता था। आपके उद्बोधन में राष्ट्रीयता और देशप्रेम की चर्चा इस तरह से होती कि वह अनुभूत होकर सार्थक और असरकारी होती। लगभग सभी मौकों पर उनकी ही बातें ज्यादा भाती थीं और हम अपने कस्बे पर गौरवान्वित होते। वे अकलतरा में निवास करते थे, किन्तु उनके कार्यक्षेत्र की व्यापकता को मैं उतना ही जान पाया, जितनी सीमित मेरी जानकारी और समझ बनी।
1976 में पढ़ाई के लिए मैं रायपुर गया और दो साल विवेकानंद आश्रम के छात्रावास में रहा। छात्रावास भवन के बीच वाले कक्ष, संभवतः क्र. 5 पर डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के नाम की पटि्टका लगी है। यह कक्ष तब अतिथियों के लिए उपयोग होता था। वे रायपुर और आश्रम आते, तब हमलोगों को मिलने के लिए अवश्य बुलवाते और हमेशा प्रेरक, उत्साहवर्धक बातें सहजता से कहते। मुझे यह तब पता चला कि रायपुर रामकृष्ण मिशन, विवेकानंद आश्रम के संचालन में आपकी महती भूमिका रही है। आश्रम के नियम-कायदे सख्त थे और अनुशासन बहुत पक्का। आश्रम का माहौल गरिमामय और गंभीर होकर भी खुशनुमा और सहज होता था और इसका कारण निसंदेह स्वामी आत्मानंद जी थे।
इस दौरान आश्रम छात्रावास के वार्डन का एक पत्र डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के पास गया, जिसमें कुछ अन्य बातों के साथ मेरे लिए जिक्र था- बेहतर होगा यदि मैं आश्रम छात्रावास की सख्त पाबंदियों के बजाय छात्रावास से बाहर कहीं और रहूं। मेरे अकलतरा पहुंचने पर डॉ. साहब ने बुलवा कर पत्र मुझे सौंपा। वह आज भी सुरक्षित है। उन्होंने मुझसे पूरे विस्तार से आश्रम की व्यवस्था संबंधी जानकारी लेते हुए खुद निर्णय लेने की छूट दी। आश्रम में रहते हुए विभिन्न व्यक्तियों से सहज मुलाकात, आश्रम का पुस्तकालय और वाचनालय, खेलकूद और अन्य गतिविधियों के साथ समय-समय पर स्वामी आत्मानंद जी महराज का सुलभ सानिध्य की बात कहकर मैंने कुछ और समय आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहमति दे दी।
साल भर बाद मैंने जब आश्रम छात्रावास छोड़ने की मंशा उनके सामने प्रकट की, तो कारण की पूछताछ करने लगे, ऐसा लगा कि सहमत नहीं हो रहे हैं, लेकिन पूरी चर्चा करने पर इजाजत मिल गई। यह सब याद आने पर लगता है कि किसी मामले को जिस उदार और खुले ढंग से आप देखते थे, वह कितना अनूठा और दुर्लभ है। अलग-अलग विचारधारा, आयु-वर्ग, जाति-धर्म और व्यवसाय के लोग उनसे जुड़े थे। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विचार और आस्था का वे सच्चा सम्मान करते, महत्व देते। आप वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। तरल और पारदर्शी व्यक्तित्व के इन गुणों की चर्चा उनके पुण्य स्मरण के साथ होती है।
आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संगठन और नेतृत्व में सक्रिय रहे, लेकिन अंतिम दिनों में उनसे मेरा सीधा सम्पर्क कम रहा इसलिए पारिवारिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति के अलावा अन्य कोई उल्लेखनीय व्यक्तिगत अनुभव या संस्मरण नहीं है। सेनानियों और उनसे जुड़े लोगों द्वारा इस दौर में उनकी अवस्था के बावजूद सक्रियता और कुशल नेतृत्व का स्मरण अब भी किया जाता है।
सन 2009 के आरंभ में प्रकाशित डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) स्मृति ग्रंथ में शामिल मेरा आलेख।
मिश्र जी को हमारा भी नमन !
ReplyDeleteham log shayad in swatantrya veeron ki kurbaaniyon ke kaabil nahi the. aaj ke haalaton se to yahi mahsoos hota hai. hamne swa-tantra to pa liya lekin aajad n ho sake.
ReplyDeleteस्वतंत्रता के मायने अब नई पीढ़ी के लिये बदल गये हैं राहुल जी,..... और कुछ ऐसे बदले कि अब जो स्वतंत्रता आदि के वीरों की बात करे लोग उसका मजाक उड़ाते हैं।
ReplyDeleteमैं उदाहरण दूंगा कि - मंगल पांडे पर जब फिल्म बन रही थी तब आमिर खान ने जिस भौंडे अंदाज में अपनी फिल्म में मंगल पांडे को चित्रित किया वह शर्मनाक था, मनोरंजन और चटक मसाला परोसने के चक्कर में मंगल पांडे कहीं पीछे छूट गये। यह उसी की परिणति थी कि बाद में जब बॉम्बे टू गोवा फिल्म बनी तो उसमें एक शख्स को मजाकिया रोल करते हुए मंगल पांडे फिल्म की स्टाइल के कपड़े पहने दिखाया गया। उसे यदा कदा जंगल में घूमने के कारण जंगल पांडे कहा गया। एक एतिहासिक चरित्र को किस तरह हास्यास्पद बनाया जा सकता है यह उस घटना से समझा जा सकता है जिसके अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पहले चरित्र को भोथरा किया जाता है और बाद में चरित्र को हास्यास्पद बनाया जाता है।
डॉ ज्वाला प्रसाद जी के बारे में जानना अच्छा लगा।
एक महात्मा का परिचय कराने के लिए आभार आपका !
ReplyDeleteआमीर खान पर सतीश पंचम जी के विश्लेषण से पूरी तरह सहमत हूँ.आगे कभी इस में कुछ और जोडूंगा ."दिल"के समय का आमीर गुम सा गया है,अभी वाला तो फूहड़ हो चूका है.
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ की विभूति से मिल कर श्रध्हा हुई .उन्हें मेरा नमन .
ReplyDeleteBahut zabardast aalekh hai!
ReplyDeleteये कहीं वही प्रसिद्ध भाष्यकार तो नहीं थे जो? यह पढ़कर अच्छा लगा कि बुरा, यह कहने की स्थिति में फिलहाल नहीं लेकिन सतीश पंचम जी की बात कुछ कहती है। शराबी और क्रांति करते लोग हैं रंग दे बसन्ती में और एक गाली को कुख्यात या विख्यात बनाने में भी।
ReplyDeleteअब स्वच्छंदता है, स्वतंत्रता नहीं लेकिन यह कहते ही पुराना और ओल्ड फैशन्ड होने का लेबल चिपकेगा।
अब आजादी की लड़ाई के जमाने के लोगों में पेंशन वाले ही लोग अधिक हैं।
वे अलग प्रकृति के लोग थे। समाज उनमें बसता था और वे समाज के लिए जीते थे। आज भी मानवता को ऐसे लोगों की दरकार है।
ReplyDeleteराहुल सर, हम पोस्ट-इमरजेंसी दौर में पैदा हुए। जाहिर है, हमारे लिए आपके लेख जरुरी हैं। मिश्र जी के बारे में बताने के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteमिश्रजी जैसे व्यक्तित्व अनुकरणीय और श्रद्धेय हैं....... नमन
ReplyDeleteस्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ.ज्वाला प्रसाद मिश्र से जुड़े इस संस्मरण को साझा करने के लिए शुक्रिया !
ReplyDeleteवह काल ऐसे ही प्रेरणा पुरुषों का था !
इतिहास को लोग अपने मन से परिभाषित करते हैं। बहुत अच्छा लगा यह परिचय जान कर।
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें! डॉ.ज्वाला प्रसाद मिश्र के संस्मरण के लिए धन्यवाद! दूसरों की स्वतंत्रता, विचार और आस्था का सम्मान किये बिना स्वतंत्रता की अवधारणा को समझा नहीं जा सकता है। अकलतरा का उच्चारण क्या है: अक-लतरा या अकल-तरा या कुछ और?
ReplyDeleteडॉं. ज्वाला प्रसाद मिश्र जी जैसे प्रतिभावान और विलक्षण व्यक्तित्व से परिचित करने के लिए आपको धन्यवाद.
ReplyDeleteपता नहीं क्यों हम अपनें महापुरुषों से कुछ सीख नहीं पा रहे.
आज के दौर में समाज के ऐसे प्रदर्शक हैं जो इन महापुरुषों की चरण धूलि भी नहीं हैं लेकिन वही आज वन्दनीय हो चले हैं.
Swatantrata Diwas kee anek shubh kamnayen!
ReplyDeleteइस देश की स्वतंत्रता में हजारों ऐसे लोंगों का योगदान है जिनका जिक्र पुस्तकों में नहीं है... स्थानीय स्तर पर ऐसे लोगों की वही भूमिका थी जो राष्ट्रीय स्तर पर बड़े नेताओं की... ऐसे मनीषियों को याद कर अच्छा लगता है... स्वतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना...
ReplyDeleteपहली बार डॉ ज्वाला प्रसाद जी के बारे में पढा ... अच्छा लगा..
ReplyDeleteआभार.
वरेण्य अभिलेख, डॉ ज्वाला प्रसाद जी के विषय में जानकर अच्छा लगा...
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 15-08-2011 को चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.com/ पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteप्रेरक, सद्पुरुषों को सान्निध्य मिलना अपने आप में सौभाग्य की बात होती है। ऐसे व्यक्तियों से हमें, अचेतन में जो संस्कार मिलते हैं वे मृत्यु पर्यन्त हमारा साथ देते हैं। ऐसे व्यक्तियों का स्मरण आजके प्रसंग पर सुखद लगा।
ReplyDeleteबहुत प्रेरणास्पद .. वैचारिक स्वतंत्रता बहुत मायने रखती है .. आपके इस सुंदर सी प्रस्तुति से हमारी वार्ता भी समृद्ध हुई है !!
ReplyDeleteराहुल जी, डा. ज्वालाप्रसाद जी के व्यक्तित्व से परिचय कराने के लिए धन्यवाद. आजादी के बाद के पहले कुछ दशकों में इस तरह के कई लोग जीवित थे, उनसे मिलने उन्हें जानने का मौका मिलना आसान था. आज के बदले वातावरण में वह सब बातें धुँधली, पुरानी पड़ गयी हैं, उस इतिहास को बचा कर रखना मुझे महत्वपूर्ण लगता है.
ReplyDeleteHameshaa kii tarah ek aur umdaa post. Swaadhiintaa-sangraam ke purodhaa Dr. Jwalaprasad Mishra jii ko kotishah naman. Aapkaa abhaar ki aapne aise pranamy vyaktitv se parichit karaayaa.
ReplyDeleteआज़ादी का सही अर्थ समझने के लिए डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र जैसे महापुरुषों और उनके कार्यों का स्मरण करना आवश्यक है।
ReplyDeleteश्रीमान आपका लिखा पढते वक्त पाठक जेसे आपकी मह्फिल में ही पहुँच जाता है और आराम से मिल पाता है कम्पाउंडर साहिब जेसे लोगों से यदि स्म्रतियों की बात हो तो जेसे आपकी चोपाल पर साकार हो जाती हैं यादों की वो मूरतें .शुक्रिया
ReplyDeleteडॉं. ज्वाला प्रसाद मिश्र जी के अभिगम को जानना अच्छा लगा!!
ReplyDeleteसतीश पंचम की यथार्थ प्रतिक्रिया से सहमत!!
डाक्टर ज्वाला प्रसाद जी को नमन...
ReplyDeleteसतीश पंचम जी ने अत्यंत सार्थक प्रश्न उठाया है...
कोई भी ऐसा काम नहीं किया जाना चाहिए जो हमें आज़ाद हवा में सांस लेने लायक बनाने वाले अमर शहीदों का अपमान हो...
राष्ट्र पर्व की सादर भाधाईयाँ...
वाह ! क्या बात है डॉं. ज्वाला प्रसाद मिश्रजी की !
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।
डॉ ज्वालाप्रसाद जी को किस रूप में हम अकलतरा वाले याद करे एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में एक चिकित्सक के रूप में या एक अच्छे वक्ता के रूप में सभी कुछ तो था उनमे उनकी स्मृति को शत शत नमन मुझे वे एक चिकित्सक के रूप में याद आते है जब सामान्य सा बुखार होने पर भी हम उनके पास उनका बनाई दवा लेने जाया करते थे इस स्मृति ग्रन्थ के माध्यम से उनकी स्मृतियों को मुझे भी नमन करने का अवसर मिला स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ
ReplyDeleteज्वाला प्रसाद मिश्र जी के परिचय और स्मृतियाँ साझा करने के लिए आभार !
ReplyDeleteपरिचय कराने के लिए आभार आपका !
ReplyDeleteस्वतन्त्रता दिवस की बहुत बहुत शुभकामनायें... :)
जय हिन्द...
स्मृति वीथिका में दीवारों पर लगे चित्रों की तरह ज्वाला प्रसाद जी का परिचय एक अनुभव सा प्रतीत हुआ!!
ReplyDeleteआपका हर लेख अलग हट कर होता है ..
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें ..
- डा. जेएसबी नायडू (रायपुर)
डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी जैसे व्यक्तित्व से सानिध्य निश्चित ही आपके लिए एक सौभाग्य रहा. ऐसे पुनात्मा के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा. आजकल एक अजीब बात समझ में आ रही है. हम मिडिया का जितना भी बुरा भला कह लें, १५ अगस्त और २६ जनवरी उन्हीं की बदौलत जीवित है.
ReplyDeleteडा. मिश्र व आपके बारे में और जानकारी मिली, ग्राफ़ और ऊपर उठा है।
ReplyDeleteराहुल जी
ReplyDeleteहमने तो बस ज्वाला परसाद जी का नाम ही सुना था
आज पहली बार डॉ ज्वाला प्रसाद जी के बारे में पढा ... अच्छा लगा
परिचित करने के लिए आपका आभार सर
ऐसे आलेख मेरी कमजोरी है..
ReplyDeleteशुक्रिया इसे पोस्ट करने के लिए!!