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Wednesday, January 23, 2013

काल-प्रवाह

• क्रियमाण-वर्तमान की सत्ता क्षितिज की भांति है, आकाश जैसे प्रारब्‍ध-भविष्य और पृथ्वी जैसे संचित-भूत का आभासी संगम। जड़ भूत और अपरिभाषित भविष्य के बीच अभिव्यक्त (आभासी) वर्तमान। 'अर्थसत्‍ता' की जमीन पर धावमान 'राजसत्‍ता' के रथ पर 'धर्मसत्‍ता' का छत्र।

• इतिहास जो बीत गया, जो था और भविष्य जो आयेगा, जो होगा, इस दृष्टिकोण से देखने पर इतिहास के साथ जैसी तटस्थता और निरपेक्षता बरती जाती है वह कभी-कभार लावारिस लाश के पोस्‍टमार्टम जैसी निर्ममता तक पहुंच जाती है। इतिहास की जड़ता और संवेदना, वस्तुगत और विषयगत-व्यक्तिनिष्ठ के बीच का संतुलन कैसे हो? इतिहास को महसूस करने के लिए दृष्टिकोण यदि इतिहास, जो कल वर्तमान था और भविष्य जो कल वर्तमान होगा, इसे संवेदनशील बना देता है।

• इतिहास के लिए यदि एक पैमाना ईस्वी, विक्रम, शक, हिजरी या अन्य किसी संवत्सर जैसा कोई मध्य बिन्दु है, जिसके आगे और पीछे दोनों ओर काल गणना कर इतिहास का ढांचा बनता है। एक दूसरा तरीका भी प्रयुक्त होता है ईस्‍वी पूर्व-बी.सी. और ईस्वी-ए.डी. के अतिरिक्त बी.पी. before present, आज से पूर्व। अधिक प्राचीन तिथियों, जिसमें ± 2000 वर्षों का हिसाब जरूरी नहीं, उनकी गिनती बी.पी. में कर ली जाती है। तब सैद्धांतिक रूप से ही सही और इतिहास नहीं तो अन्य वस्तुस्थितियों के लिए क्या एक तरीका यह भी हो सकता है कि गणना शुरू ही वहां से हो जहां से काल शुरू होता हो या वहां से उलट गिनती करें जो अंतिम बिंदु हो-

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काल शुरू             ईसा           वर्तमान          अंतिम बिंदु 

• ऐसे बिन्दुओं की खोज सदैव मानव जाति ने की है, जॉर्ज कैन्‍टर के 'अनंतों के बीच के अनंत' की तलाश की तरह या हमारा भविष्य-पुराण (भविष्‍य भी पुराना भी), शायद इसी का परिणाम है, भारतीय चिन्तन पद्धति में वृत्तात्मक गति, मण्डल जैसी अवधारणाएं यहीं से विकसित जान पड़ती है।

• तो यदि उन आरंभिक/चरम बिन्दु को प्राप्त नहीं किया जा सकता फिर भी उसकी खोज आवश्यक है क्या? शायद यही खोज हमें नियति-बोध कराती है और अपने दृष्टिकोण को समग्र की सम्पन्नता प्रदान करती है, संवेदना प्रदान करती है, किन्तु संतुलन के बजाय इसकी अधिकता होने पर इतिहास बोध की हीनता से आरोपित होने के साथ नियतिवादी बन जाने का रास्ता अनचाहे खुलने लगता है।

• अस्तित्वमान को सिर्फ इसलिए प्रश्नातीत नहीं माना जा सकता कि वह 'घटित हो चुके का परिणाम' है, जिस तरह आगत को 'अभी तो कुछ हुआ नही' कह कर नहीं छोड़ा जाता। इतिहास क्यों? इतिहास के लिए पीछे देखना होता है तो आगे देखने की दृष्टि भी वहीं से मिलती है। इतिहास, समाज का ग्रंथागार जो है।

• इतिहास अभिलेखन का आग्रह भी तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीन जाने का आभास होने लगे, वह मुठ्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय या फिर तब भी ऐसा आग्रह भाव बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो यानि जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशास्ति रचना, लेकिन विसंगति यह है कि ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव ही सापेक्ष हो जाता है यह 'इतिहास' की एक विकट समस्या भी कही जा सकती है कि उसे साथ-साथ, आगे से या पीछे से किसी (समकोण, अधिककोण या न्यूनकोण) कोण से देखें वह मृगतृष्णा बनने लगता है। ''इतिहास से बड़ा कोई झूठ नही और कहानी से बड़ा कोई सच नही'' कथन संभवतः ऐसे ही विचारों की पृष्ठभूमि पर उपजा हो। छत्‍तीसगढ़ी कहावत है- 'कथा साहीं सिरतो नहीं, कथा साहीं लबारी', अर्थात् कथा जितना सच्‍चा कुछ नहीं, लेकिन है कथा जैसा झूठा।

• हमारी सोच और उसका विस्तार, हमारे राजमर्रा की बातचीत और उसकी व्यापकता में पात्र फिर देश और उसके बाद अंतिम क्रम पर काल है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि सोच की गहराई में सबसे नीचे अवधारणात्मक काल ही हो सकता है, उसके ऊपर भौतिक देश और सबसे सतही स्तर पर सजीव पात्र होना ही स्वाभाविक है, किन्तु इसके विपरीत और साथ-साथ पात्र में भौतिक स्वरूप और अवधारणा का अंश प्रकटतः सम्मिलित है, देश में उसके भौतिक विस्तार के साथ अवधारणात्मक विचार निहित हैं जबकि काल की सत्ता देश और पात्र संदर्भपूर्ण विचारों या बातचीत में आकार ग्रहण कर जीवन्त हो पाता है। काल की स्वत्रंत और निरपेक्ष सत्ता वैचारिक स्तर पर भी असंभव नही तो दुष्कर अवश्य है।

• इतिहास कालक्रम का पैमाना है, लेकिन किसी पैमाने पर माप लेना, किसी वस्तु को जान लेने की बुनियादी और अकेली शर्त जैसा तय मान लिया जाता है (जैसे व्यक्ति का नाम, कद, वजन या किसी स्थान की दूरी और स्मारक की प्राचीनता) जबकि किसी को जान लेने में, चाहे वह सजीव पात्र हो, भौतिक देश हो या अवधारणात्मक काल, यह एक शर्त और वह भी गैर जरूरी की हद तक अंतिम, उसे माप लेने की हो सकती है।

• परम्परा में नदी-सा सातत्य भाव है। परम्परा, रूढ़ि नहीं है, वह केवल प्राचीनता भी नहीं है, न ही वह इतिहास है, परम्परा की सार्थकता तो उसके पुनर्नवा होने में ही है। गति का रैखिक या विकासवादी दृष्टिकोण उसे अपने मूल से विलग होकर दूर होते देखता है लेकिन वृत्तायत दृष्टिकोण से परिवर्तनशील किन्तु मूल से निरन्तर सामीप्य और समभाव बनाये पाता है।

• परम्परा का अभिलेखन अन्जाने में, तो कभी षड़यंत्रपूर्वक उस पर आघात का हथियार बना लिया जाता है। परम्परा को अभिलिखित कर उसी परम्परा की अगली पीढ़ी को उसके पुराने अभिलिखित स्वरूप का आईना दिखाकर (कहना कि यह है तुम्हारा असली चेहरा) उसे झूठा साबित करना आसान उपाय है, शायद तभी कहा गया है कि ''शैतान भी अपने पक्ष में बाइबिल के उद्धरण ला सकता है।''

• आगे (?) बढ़ते समय के साथ विकास को अनिवार्यतः जोडकर देखा जाता है, और विकास का अर्थ लगाया जाता है वृद्धि, यानि 1 से 2 और 2 से 4 किन्तु यह स्वाभाविक नही है स्वाभाविक है परिवर्तन जिसे हम अपने बनाए दुनियावी पैमाने पर आगे पीछे माप-गिन लेते है, यह आंकडों के व्यावहारिक इस्तेमाल में तो संभव है किन्तु इसे तत्वतः कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

पिछली पोस्‍ट की तरह यह भी स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का दूसरा हिस्‍सा (पहला हिस्‍सा – पिछली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।

Tuesday, January 15, 2013

आगत-विगत

• इतिहास की पढ़ाई का हिस्सा है, इतिहास-लेख (Historiography)। जिसने इतिहास की पाठ्‌यपुस्तकीय पढ़ाई न की हो या की हो और यह पाठ्‌यक्रम में न रहा हो, तो भी इतिहास पर आड़े-तिरछे सवाल मंडराते जरूर हैं और इतिहास को समझने-पकड़ने के लिए, अपनी सोच को, अपने चिंतन को, चाहे वह अनगढ़ हो, शब्द दे कर उसका धरन-धारण बेहतर हो पाता है।

• प्रकृति का रहस्य अक्सर उसकी अभिव्यक्ति में गहराता है, उसी तरह इतिहास, कई बार पुरातात्विक प्राप्तियों (OOP, out-of-place) और उनकी व्याख्‍या में। इतिहास अपने को दुहराए न दुहराए, उसके पुनर्लेखन की आवश्यकता बार-बार होती है। जीवन-वर्तमान, मृत्‍यु-इतिहास। तथ्‍य, सत्‍य और कथ्‍य का फर्क। मौत, फकत मौत के तथ्‍य का सत्‍य हत्‍या, आत्‍महत्‍या, फांसी-मृत्‍युदंड, दुर्घटनाजन्‍य या स्‍वाभाविक मृत्‍यु, कुछ भी हो सकता है और कथ्‍य- 'नैनं छिन्‍दन्ति ...' या‍ 'हमारे बीच नहीं रहे' या 'अपूरणीय क्षति' या 'आत्‍मा का परमात्‍मा में मिलन' या 'चोला माटी का' या 'पंचतत्‍व में विलीन' या 'रोता-बिलखता छोड़ गए' या 'धरती का बोझ कम हुआ।

• पुराविद्‌, आधुनिक पंडित-वैज्ञानिक जैसे हैं, जिसकी बात पर कम लोग ही तर्क करते हैं, आसानी से मान लेते हैं, चकित होने की अपेक्षा सहित उसकी ओर देखते हैं। इस अपेक्षा की पूर्ति आवश्यक नहीं, बल्कि विश्वासजनित ऐसे अकारण मिलने वाले सम्मान के प्रति जवाबदेही तो बनती है।

• पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्‍कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्‍परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं। कई बार मुख्‍य धारा में आ कर वह आहत होने लगता है, तब लगता है कि हाशिये में रह कर उपेक्षित नहीं, बेहतर सुरक्षित है। वैसे अब हाशिये का इतिहास, अवर, उपाश्रयी, सबआल्टर्न शब्दों के साथ, अलग (प्रतिवादी) अवधारणा और दृष्टिकोण है।

• पुरातत्व का संस्कार- 'जो अब नहीं रहा' उसके लिए हाय-तौबा के बजाय 'जो है, जितना है', उसे बचाए रखने का उद्यम अधिक जरूरी है, क्योंकि बचाने के लिए भी इतनी सारी चीजें बची हैं कि प्राथमिकता तय करना जरूरी होता है। हर व्यक्ति के, अपने आसपास ही इतना कुछ जानने-बूझने को, सहेजने-संभालने को हैं कि क्षमता और संसाधन सीमित पड़ने लगता है। खंडहरों के साथ समय बिताते हुए पसंदीदा और जरूरी का टूटना, खोना, छूट जाना महसूस तो होता है, लेकिन इसको बर्दाश्‍त करने के लिए मन धीरे-धीरे तैयार भी होता जाता है। अवश्‍यंभावी नश्‍वर। जैसे डाक्‍टरों की तटस्‍थता कई बार निर्मम लगती है।

• इतिहास यदि आसानी से बनने लगे तो उसे समय की परतें आसानी से ढकने भी लगती हैं। ध्‍वंस भी सृजन की तरह, बिना शोर-शराबे के, समय के साथ स्‍वाभाविक होता है, बल्कि निर्माण कई बार रस्‍मी ढोल-ढमाके के साथ और उद्यम से संभव होता है। शाश्‍वत-नश्‍वर के बीच प्रलय-लय-विलय और प्रकृति-कृति-विकृति। ''प्रकृतिर्विकृतिस्‍तस्‍य रूपेण परमात्‍मनः।'' टाइम मशीन के दुर्लभ अनुभव की कल्‍पना, उत्खनन के दौरान काल में पर्त-दर-पर्त उतरने का वास्‍तविक अनुभव, सच्‍चा रोमांच। इतिहास जानना, भविष्य जानने के प्रयास से कम रोमांचक नहीं होता।

• सभ्यता का इतिहास, पहाड़ों की कोख-कन्दरा में पलता है। सभ्यता-शिशु, गिरि-गह्वर गर्भ से जन्‍मता है। ठिठकते-बढ़ते तलहटी तक आता है, युवा से वयस्क होते मैदान में कुलांचे भरने लगता है। (अगल-बगल वन-अरण्‍य में दर्शन, चिंतन, वैचारिक सृजन और शिक्षण होता रहता है।) वयस्क से प्रौढ़ होते हुए नदी तट-मुहाने पर आ कर, उद्गम से बहाव की दिशा में आगे बढ़ता जाता है, संगम पर तट भी बदल पाता है। अपने अलग-अलग संस्करणों में परिवर्तित होता कायम रहता है, कभी स्थान बदल कर, कभी रूप बदल कर। बहती नदी, समय का रूपक है?

• प्राकृत-पालि या लौकिक संस्‍कृत का दो हजार साल से भी अधिक पुराना साहित्‍य, जातक या पंचतंत्र पढ़ते हुए यह लगातार महसूस होता है कि संसार में यातायात, संचार साधनों, भौतिक स्‍वरूप में जो भी परिवर्तन आया हो, हमारी दृष्टि, हमारा मन वही है।

• हर कहानी की शुरुआत होती है- 'किसी समय की बात है, एक देश में राजा या राजकुमारी या किसान या व्यापारी या ब्राह्मण या सात भाई थे' या कि 'बहुत पुरानी बात है, फलां शहर में ...', ज्यों अंग्रेजी में 'लांग लांग अ गो / वन्स अपान अ टाइम, देअर वाज अ किंग ...' यानि हर कहानी बनती है देश, काल और पात्र से। 'देश', जड़ है, धरती की तरह, भूत-इतिहास। 'काल', अवधारणा है, हवा की तरह, संभावना-भविष्य। और 'पात्र', मनुष्य है, क्षितिज की तरह, आभासी-वर्तमान। जातक का जन्‍म फलां स्‍थान में, अमुक समय हुआ। तीन आयाम मिले, तस्‍वीर ने आकार ले लिया, बात की बात में रंग भरा और बन गई जन्‍म-कुंडली। बात ठहराने के लिए जरूरत होती है इन्हीं तीन, देश-काल-पात्र की। कहानी हो या इतिहास, होता इन्हीं तीन का समुच्चय है। जहां यह नहीं, वह शब्दातीत-शाश्वत।

• मानविकी - दर्शन, अध्यात्म, कला, भाषा, नैतिकता, मूल्य, मानवता - भविष्य।
  सामाजिक विज्ञान - अर्थ, राजनीति, समाज, पूर्वापर काल - वर्तमान।
  प्राकृतिक विज्ञान – भू-भौमिकी, गणना, भौतिकी - भूत।
Natural Science
Social Science
Bio-science
Psychology-Philosophy
Biology
Sociology
Chemistry
Economics-Political Science
Physics
History-Geography
Maths
Language

• पुरातत्‍व की सुरंग और इतिहास की पगडंडियों पर एकाकी चलते, राह दिखलाते तर्क-प्रमाणों की संकरी गलियों में सरकते, कभी आसपास गुजरते लोक-विश्‍वास के जनपथ पर साथ आ कर बहुमत बन जाना जरूरी होता है, क्‍योंकि जो लिख दिया गया वह शास्‍त्र बना, दर्ज हुआ वह इतिहास बन कर समय (और दूरी) को लांघ गया, लेकिन कई बार इस तरह तय किए सफर का मुसाफिर अपने परिवेश में बेगाना हो जाता है। शोध, अपने संदेहों पर भरोसा करना सिखलाता है, अनुसंधान का परिणाम अविश्‍वसनीय के प्रति आश्‍वस्‍त करता है, आत्‍म-विश्‍वास पैदा करने में मददगार होता है।

• इतिहास, विषय के रूप में एक अनुशासन है और प्रत्येक अनुशासन का विशिष्ट होते, उसका महत्व होता है तो उसकी अपनी सीमाएं भी होती हैं, जिस तरह किसी अपराधी को सबूतों के अभाव में सजा नहीं दी जा सकती, उसी तरह पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इतिहास में भी, विश्वास और मात्र निजी सूचना के आधार पर, स्थापनाएं मान्य नहीं होतीं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि अपने विश्वास को इतिहास की कसौटी पर अनावश्यक कसने का प्रयास न करें, यह उसी तरह अनावश्यक है, निरर्थक साबित होगा जैसे अपनी मां के हाथ बने व्यंजन के सुस्वादु होने, अपनी पसंद को प्रमाणित करने का तर्क और प्रमाण देना। आशय यह कि किसी विषय की सीमा उसकी दिशा निर्धारित करती है, मर्यादा उसे संकुचित कर उसमें सौंदर्य भरती है।

यह स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का पहला हिस्‍सा (दूसरा हिस्‍सा – अगली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।
'जनसत्‍ता' 23 दिसंबर 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट 

Thursday, January 10, 2013

अनूठा छत्तीसगढ़

प्राचीन दक्षिण कोसल, वर्तमान छत्तीसगढ़ एवं उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक सभ्यता के रोचक पाषाण-खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल में यानि तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास- कन्दरा की भित्ति पर रंग ड़ूबी कूंची फेर कर, अपने कला-रुझान का प्रमाण दर्ज किया। मानव-संस्कृति की निरंतर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर एवं प्रतिमा, सिक्के, अभिलेख आदि में व्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों की महत्वाकांक्षा व कलाप्रियता से इस क्षेत्र में सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ और छत्तीसगढ़ का धरोहर सम्पन्न क्षेत्र, पुरातात्विक महत्व के विशिष्ट केन्द्र के रूप में जाना गया।

खोज और अध्ययन के विभिन्न प्रयासों के फलस्वरूप यह क्षेत्र, पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। शैलाश्रयवासी आदि-मानव के प्रमाण, रायगढ़ के सिंघनपुर व कबरा पहाड़ और कोरिया के घोड़सार और कोहबउर में ज्ञात हैं। ऐसे ही प्रमाण राजनांदगांव, बस्तर और रायगढ़ अंचल के अन्य स्थलों में भी हैं। लौहयुग के अवशेषों की दृष्टि से धमतरी-बालोद मार्ग के विभिन्न स्थल यथा- धनोरा, सोरर, मुजगहन, करकाभाट, करहीभदर, चिरचारी और धमतरी जिले के ही लीलर, अरोद आदि में सैकड़ों की संख्‍या में महापाषाणीय स्मारक- शवाधान हैं।

इतिहास-पूर्व युग को इतिहास से सम्बद्ध करने वाली कड़ी के रूप में इस अंचल के परिखायुक्त मिट्‌टी के गढ़ों का विशेष महत्व है। ऐसी विलक्षण संरचना वाले विभिन्‍न आकार-प्रकार के गढ़ों को महाजनपदीय काल के पूर्व का माना गया है। जांजगीर-चांपा जिले में ही ऐसे गढ़ों की गिनती छत्तीस पार कर जाती है, इनमें मल्हार का गढ़ सर्वाधिक महत्व का है। इन गढ़ों के विस्तृत अध्ययन से इनका वास्तविक महत्व उजागर होगा, किन्तु प्रदेश की पुरातात्विक विशिष्टता में मिट्‌टी के गढ़ों का स्थान निसंदेह महत्वपूर्ण है।

प्रदेश की विशिष्ट पुरातात्विक उपलब्धियों में नन्द-मौर्य के पूर्व काल से संबंधित आहत-मुद्राएं बड़ी संख्‍या में तारापुर और ठठारी से प्राप्त हैं। मौर्य व उनके परवर्ती काल का महत्वपूर्ण स्थान सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी पर निर्मित शिलोत्खात, अभिलिखित गुफा है, जो सुतनुका देवदासी और उसके प्रेमी देवदीन नामक रूपदक्ष के अभिलेख सहित, प्राचीनतम रंगमंडप के रूप में प्रतिष्ठित है। सातवाहनकालीन इतिहास साक्ष्यों में जांजगीर-चांपा जिले का किरारी काष्ठ-स्तंभलेख इस अंचल की विशिष्ट उपलब्धि है, जो काष्ठ पर उत्कीर्ण प्राचीनतम अभिलेख माना गया है। लगभग इसी काल के दो अन्य महत्वपूर्ण अभिलेखों में मल्हार की प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, जिस पर प्रतिमा निर्माण हेतु दान का उल्लेख उत्कीर्ण है तथा अन्य अभिलेख, सक्ती के निकट ऋषभतीर्थ-गुंजी के चट्‌टान-लेख जिसमें सहस्र गौ दानों के विवरण सहित, कुमारवरदत्तश्री नामोल्लेख है। इसी काल के स्थानीय मघवंशी शासकों के सिक्के और रोमन सिक्कों की प्राप्ति उल्लेखनीय है।

गुप्त शासकों के समकालीन छत्तीसगढ़ में शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डु वंश की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें राजर्षितुल्य कुल का एकमात्र ताम्रपत्र आरंग से प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात्‌ का काल क्षेत्रीय राजवंश- शरभपुरीय अथवा अमरार्यकुल से सम्बद्ध है। इस काल- लगभग पांचवीं-छठी सदी ईस्वी के ताला के दो शिव मंदिर तथा रूद्र शिव की प्रतिमा तत्कालीन शिल्‍प के अनूठे उदाहरण हैं। इसी राजवंश के प्रसन्नमात्र व अन्‍य शासक के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्के तकनीक की दृष्टि से अद्वितीय हैं, नल शासकों के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्‍के बस्‍तर से मिले हैं। इस कालखंड में राजिम में उपलब्ध शिल्प तथा सिसदेवरी, गिधपुरी, रमईपाट के अवशेष भी उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार बस्तर के गढ़ धनोरा के मंदिर, मूर्तियां और भोंगापाल का बौद्ध चैत्य, भारतीय कला की महत्वपूर्ण कड़ियां हैं।

इसके पश्चात्‌ के सोम-पाण्डुवंशी शासकों के काल में तो मानों छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग घटित हुआ है। ईंटों के मंदिरों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, ईंटों के प्राचीन मंदिरों में भारतीय स्थापत्य का सर्वाधिक कलात्मक व सुरक्षित नमूना है। साथ ही पलारी, धोबनी, खरौद के ईंटों के मंदिर तारकानुकृति स्थापत्य योजना वाले, विशिष्ट कोसली शैली के हैं। इसी वंश के महाशिवगुप्त बालार्जुन के सिरपुर से प्राप्त ताम्रपत्रों के नौ सेट की निधि, एक ही शासक की अब तक प्राप्त विशालतम ताम्रलेख निधि है साथ ही तत्कालीन मूर्तिकला का शास्त्रीय और कलात्मक प्रतिमान दर्शनीय है। सरगुजा के डीपाडीह और महेशपुर तो जैसे प्राचीन मंदिरों के नगर हैं।

दसवीं से अठारहवीं सदी ईस्वी तक यह अंचल हैहयवंशी कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की विभिन्न गतिविधियों-प्रमाणों से सम्पन्न है। विश्व इतिहास में यह राजवंश सर्वाधिक अवधि तक अबाध शासन का एक उदाहरण है। कलचुरि राजाओं के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मंदिर व प्रतिमाएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। संभवतः देश का अन्य कोई क्षेत्र अभिलेख व सिक्कों की विविधता और संख्‍या की दृष्टि से प्राप्तियों में इस क्षेत्र की बराबरी नहीं कर सकता।

पुरातात्विक स्थलों की दृष्टि से प्रसिद्ध ग्राम सिरपुर प्राचीन राजधानी के वैभव प्रमाणयुक्त है ही, मल्हार का भी विशिष्ट स्थान है। इस स्थल के राजनैतिक-प्रशासनिक मुख्‍यालय होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता, किंतु मल्हार व संलग्न ग्रामों- बूढ़ीखार, जैतपुर, नेवारी, चकरबेढ़ा, बेटरी आदि विस्तृत क्षेत्र में लगभग सातवीं-आठवीं ईस्वी पूर्व से आरंभ होकर विविध पुरावशेष- आवासीय व स्थापत्य संरचना, अभिलेख, सिक्के, मनके, मृणमूर्तियां, मिट्‌टी के ठीकरे, मंदिर, मूर्तियां, मुद्रांक जैसी सामग्री निरंतर कालक्रम में प्राप्त हुए हैं।

इस प्रकार अभिलेख, सिक्कों का वैविध्यपूर्ण प्रचुर भण्डार, प्राचीनतम रंगशाला, प्राचीनतम काष्ठ स्तंभलेख, प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, उभारदार सिक्के, ताला आदि स्थलों के मंदिरों का अद्वितीय स्थापत्य, मूर्तिशिल्प और पुरातात्विक स्थलों की संख्‍या और विशिष्टता आदि के कारण देश के पुरातत्व में छत्तीसगढ़ का स्थान गौरवशाली और महत्वपूर्ण है।

Monday, January 30, 2012

पुरातत्व सर्वेक्षण

''शहरीकरण और जनसंख्‍या के विस्‍तार के दबावों से देश भर में हमारे ऐतिहासिक स्‍मारकों के लिए खतरा पैदा हो गया है।'' ... ''पुरातत्‍व विज्ञान हमारे भूतकाल को वर्तमान से जोड़ता है और भविष्‍य के लिए हमारी यात्रा को परिभाषित करता है। इसके लिए दूर दृष्टि, उद्देश्‍य के प्रति निष्‍ठा और विभिन्‍न सम्‍बद्ध पक्षों के सम्मिलित प्रयासों की आवश्‍यकता होगी। मुझे उम्‍मीद है कि आप इस महत्‍वपूर्ण प्रयास के दायित्‍व को संभालेंगे।'' प्रधानमंत्री जी ने 20 दिसंबर को नई दिल्‍ली में आयोजित भारतीय पुरातत्‍तव सर्वेक्षण की 150वीं वर्षगांठ समारोह में यह कहा है। इस दौर में मैंने 'पुरातत्‍व', 'सर्वेक्षण' शब्‍दों पर सोचा-

पुरातत्‍व
आमतौर पर पिकनिक, घूमने-फिरने, पर्यटन के लिए पुरातात्विक स्मारक-मंदिर देखने का कार्यक्रम बनता है और कोई गाइड नहीं मिलता, न ही स्थल पर जानकारी देने वाला। ऐसी स्थिति का सामना किए आशंकाग्रस्त लोग, पुरातत्व से संबंधित होने के कारण साथ चलने का प्रस्ताव रखते हुए कहते हैं कि जानकार के बिना ऐसी जगहों पर जाना निरर्थक है, लेकिन ऐसा भी होता है कि किसी जानकार के साथ होने पर आप अनजाने-अनचाहे, उसी के नजरिए से चीजों को देखने लगते हैं। अवसर बने और कोई जानकार, विशेषज्ञ या गाइड का साथ न हो तो कुछ टिप्स आजमाएं-

मानें कि प्राचीन मंदिर देखने जा रहे हैं। गंतव्य पर पहुंचते हुए समझने का प्रयास करें कि स्थल चयन के क्या कारण रहे होंगे, पानी उपलब्धता, नदी-नाला, पत्थर उपलब्धता, प्राचीन पहुंच मार्ग? आसपास बस्ती-आबादी और इसके साथ स्थल से जुड़ी दंतकथाएं, मान्यताएं, जो कई बार विशेषज्ञ से नजरअंदाज हो जाती हैं। स्थल अब वीरान हो तो उसके संभावित कारण जानने-अनुमान करने का प्रयास करें। यह जानना भी रोचक होता है कि किसी स्थान का पहले-पहल पता कैसे चला, उसकी महत्ता कैसे बनी।

काल, शैली और राजवंश की जानकारी तब अधिक उपयोगी होती है, जब इसका इस्तेमाल तुलना और विवेचना के लिए हो, अन्यथा यह रटी-रटाई सुनने और दूसरे को बताने तक ही सीमित रह जाती है। प्राचीन स्मारकों के प्रति दृष्टिकोण 'खंडहर' वाला हो तो निराशा होती है, लेकिन उसे बचे, सुरक्षित रह गए प्राचीन कलावशेष, उपलब्ध प्रमाण की तरह देखें तो वही आकर्षक और रोचक लगता है। मौके पर अत्‍यधिक श्रद्धापूर्वक जाना, 'दर्शन' करने जैसा हो जाता है, इसमें देखना छूट जाता है और अपने देख चुके स्‍थानों की सूची में वह जुड़ बस जाता है, मानों ''अपने तो हो गए चारों धाम''।

मंदिर, आस्‍था केन्‍द्र तो है ही, उसमें अध्‍यात्‍म-दर्शन की कलात्‍मक अभिव्‍यक्ति के साथ वास्‍तु-तकनीक का अनूठा समन्‍वय होता है। मंदिर स्थापत्य को मुख्‍यतः किसी अन्य भवन की तरह, योजना (plan) और उत्सेध (elevation), में देखा जाता है। मंदिर की योजना में सामान्य रूप से मुख्‍यतः भक्‍तों के लिए 'मंडप' और भगवान के लिए 'गर्भगृह' होता है। उत्सेध में जगती या चबूतरा, उसके ऊपर पीठ और अधिष्ठान/वेदिबंध, जिस पर गर्भगृह की मूल प्रतिमा स्थापित होती है, फिर दीवारें-जंघा और उस पर छत-शिखर होता है। सामान्यतः संरचना की बाहरी दीवार पर और गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर प्रतिमाएं होती हैं, कहीं शिलालेख और पूजित मंदिरों में ताम्रपत्र, हस्‍तलिखित पोथियां भी होती हैं।

सामान्यतः मंदिर पूर्वाभिमुख और प्रणाल (जल निकास की नाली) लगभग अनिवार्यतः उत्‍तर में होता है। मंदिर की जंघा पर दक्षिण व उत्तर में मध्य स्थान मुख्‍य देवता की विग्रह मूर्तियां होती हैं और पश्चिम में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़, उपानह (घुटने तक जूता), कवच, पद्‌मधारी सूर्य की प्रतिमा होती है। दिशाओं/कोणों पर पूर्व-गजवाहन इन्द्र, आग्नेय-मेषवाहन अग्नि, दक्षिण-महिषवाहन यम, नैऋत्य-शववाहन निऋति, पश्चिम-मीन/मकरवाहन वरुण, वायव्य-हरिणवाहन वायु, उत्तर-नरवाहन कुबेर, ईशान-नंदीवाहन ईश, दिक्पाल प्रतिमाएं होती हैं। मूर्तियों की पहचान के लिए उनके वाहन-आयुध पर ध्यान दें तो आमतौर पर मुश्किल नहीं होती। यह भी कि प्राचीन प्रतिमाओं में नारी-पुरुष का भेद स्तन से ही संभव होता है, क्योंकि दोनों के वस्त्राभूषण में कोई फर्क नहीं होता।

विष्णु की प्रतिमा शंख, चक्र, गदा, पद्‌मधारी और गरुड़ वाहन होती है। उनके अवतारों में अधिक लोकप्रिय प्रतिमाएं वराह, नृसिंह, वामन आदि अपने रूप से आसानी से पहचानी जाती हैं। जिस तरह गणेश और हनुमान की पहचान सहज होती है। शिव सामान्‍यतः जटा मुकुट, नंदी और त्रिशूल, डमरू, नाग, खप्पर, सहित होते हैं। ब्रह्मा, श्मश्रुल (दाढ़ी-मूंछ युक्त), चतुर्मुखी, पोथी, श्रुवा, अक्षमाल, कमंडलु धारण किए, हंस वाहन होते हैं। कार्तिकेय को मयूर वाहन, त्रिशिखी और षटमुखी, शूलधारी, गले में बघनखा धारण किए दिखाया जाता है। दुर्गा-पार्वती, महिषमर्दिनी सिंहवाहिनी होती हैं तो गौरी के साथ पंचाग्नि, शिवलिंग और वाहन गोधा प्रदर्शित होता है। सरस्वती, वीणापाणि, पुस्तक लिए, हंसवाहिनी हैं। लक्ष्मी को पद्‌मासना, गजाभिषिक्त प्रदर्शित किया जाता है।

जैन प्रतिमाएं, कायोत्सर्ग यानि समपाद स्थानक मुद्रा में (एकदम सीधे खड़ी) अथवा पद्‌मासनस्थ/पर्यंकासन में सिंहासन, चंवर, प्रभामंडल, छत्र, अशोक वृक्ष आदि सहित, किन्‍तु मुख्‍य प्रतिमा अलंकरणरहित होती हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं में ऋषभदेव/आदिनाथ-वृषभ लांछनयुक्त व स्कंध पर केशराशि, अजितनाथ-गज लांछन, संभवनाथ-अश्व, चन्द्रप्रभु-चन्द्रमा, शांतिनाथ-मृग, पार्श्वनाथ-नाग लांछन और शीर्ष पर सप्तफण छत्र तथा महावीर-सिंह लांछन, प्रमुख हैं। तीर्थंकरों के अलावा ऋषभनाथ के पुत्र, बाहुबलि की प्रतिमा प्रसिद्ध है। जैन प्रतिमाओं को दिगम्बर (वस्त्राभूषण रहित) तथा उनके वक्ष मध्य में श्रीवत्स चिह्न से पहचानने में आसानी होती है।

आसनस्थ बुद्ध, भूमिस्पर्श मुद्रा या अन्य स्थानक प्रतिमाओं जैसे अभय, धर्मचक्रप्रवर्तन, वितर्क आदि मुद्रा में प्रदर्शित होते हैं। अन्य पुरुष प्रतिमाओं में पंचध्यानी बुद्ध के स्वरूप बोधिसत्व, अधिकतर पद्‌मपाणि अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि और खड्‌ग-पोथी धारण किए मंजुश्री हैं और नारी प्रतिमा, उग्र किन्तु मुक्तिदात्री वरदमुद्रा, पद्‌मधारिणी तारा होती हैं। कुंचित केश के अलावा बौद्ध प्रतिमाओं की जैन प्रतिमाओं से अलग पहचान में उनका श्रीवत्सरहित और मस्तक पर शिरोभूषा में लघु प्रतिमा होना सहायक होता है।

मंदिर गर्भगृह प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्व उर्ध्वाधर स्तंभों पर रूपशाखा की मिथुन मूर्तियों सहित द्वारपाल प्रतिमाएं व मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना होती हैं। द्वार के क्षैतिज सिरदल के मध्य ललाट बिंब पर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा का ही विग्रह होता है। लेकिन पांचवीं-छठीं सदी के आरंभिक मंदिरों में लक्ष्मी और चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी से इस स्थान पर गणेश की प्रतिमा बनने लगी तथा इस स्थापत्य अंग का नाम ही गणेश पट्टी हो गया। यहीं अधिकतर ब्रह्मा-विष्णु-महेश, त्रिदेव और नवग्रह, सप्तमातृकाएं स्थापित होती हैं। आशय होता है कि गर्भगृह में प्रवेश करते, ध्‍यान मुख्‍य देवता पर केन्द्रित होते ही सभी ग्रह-देव अनुकूल हो जाते हैं, गंगा-यमुना शुद्ध कर देती हैं। यहीं कल्‍प-वृक्ष अंकन होता है यानि अन्‍य सभी लौकिक आकांक्षाओं से आगे बढ़ने पर गर्भगृह में प्रवेश होता है और देव-दर्शन उपरांत बाहर आना, नये जन्‍म की तरह है।
पाली, छत्‍तीसगढ़ का मंदिर और बाहरी दीवार पर मिथुन प्रतिमाएं
यह जिक्र भी कि पुरातत्व का तात्पर्य मात्र उत्खनन नहीं और न ही पुराविद वह है जिसका काम सिर्फ बीजक से खजाने का पता लगाना, रहस्यमयी गुफा या सुरंग के खोज अभियान में जुटा रहना है। यह भी कि उत्‍खनन कोरी संभावना के चलते नहीं किया जाता, बल्कि ठोस तार्किक आधार और धरातल पर मिलने वाली सामग्री, दिखने वाले लक्षण के आधार पर, आवश्‍यक होने पर ही किया जाता है। बात काल और शैली की, तो सबसे प्रचलित शब्द हैं- 'बुद्धकालीन' और 'खजुराहो शैली', इस झंझट में अनावश्यक न पड़ें, क्योंकि वैसे भी बुद्धकाल (छठीं सदी इस्वी पूर्व) की कोई प्रतिमा नहीं मिलती और खजुराहो नामक कोई शैली नहीं है, और इसका आशय मिथुन मूर्तियों से है, तो ऐसी कलाकृतियां कमोबेश लगभग प्रत्येक प्राचीन मंदिर में होती हैं।
भोरमदेव, छत्‍तीसगढ़ का मंदिर और बाहरी दीवार पर मिथुन प्रतिमाएं
आम जबान पर एक अन्‍य शब्‍द कार्बन-14 डेटिंग होता है, वस्‍तुतः यह काल निर्धारण की निरपेक्ष विधि है, लेकिन इससे सिर्फ जैविक अवशेषों का तिथि निर्धारण, सटीक नहीं, कुछ अंतर सहित ही संभव होता है तथा यह विधि ऐतिहासिक अवशेषों के लिए सामान्‍यतः उपयोगी नहीं होती या कहें कि किसी मंदिर, मूर्ति या ज्‍यादातर पुरावशेषों के काल-निर्धारण में यह विधि प्रयुक्‍त नहीं होती, बल्कि सापेक्ष विधि ही कारगर होती है, अपनाई जाती है।

किसी स्‍मारक/स्‍थल के खंडहर हो जाने के पीछे कारण आग, बाढ़, भूकंप या आतताई आक्रमण-विधर्मियों की करतूत ही जरूरी नहीं, बल्कि ऐसा अक्‍सर स्‍वाभाविक और शनैः-शनैः होता है और कभी समय के साथ उपेक्षा, उदासीनता, व्‍यक्तिगत प्राथमिकताओं के कारण भी होता है। वैसे भी पुरातत्‍व अनुशासन में प्रशिक्षित के ध्‍यान और प्राथमिकता में वह होता है, जो शेष है, जो बच गया है, न कि वह जो नष्‍ट हो गया है। स्‍थापत्‍य खंड, मूर्तियों या शिलालेख का उपयोग आम पत्‍थर की तरह कर लिये जाने के ढेरों उदाहरण मिलते हैं और एक ही मूल के लेकिन अलग-अलग पंथों के मतभेद के चलते भी कम तोड़-फोड़ नहीं हुई है। स्‍वयं सहित कुछ परिचितों के पैतृक निवास की वर्तमान दशा पर ध्‍यान दें, वीरान हो गए गांव भी ऐसे तार्किक अनुमान के लिए उदाहरण बनते हैं। ऐसे उदाहरण भी याद करें, जिनमें आबाद भवन धराशायी हो गए हैं, मंदिर के खंडहर बन जाने के पीछे भी अक्‍सर ऐसी ही कोई बात होती है।

सर्वेक्षण
पुरातत्व के रोमांच को पुरातत्व का रोमांस बनते देर नहीं लगती। आपसी जान-पहचानी और वेब-परिचितों ने कई बार सुझाया कि इस पर भी कुछ बातें होनी चाहिए। अपने पुरातत्वीय सरकारी कार्य-दायित्‍व में ग्राम-विशेष, क्षेत्र-विशेष, ग्रामवार सर्वेक्षण के लिए सैकड़ों गांवों में जाने का अवसर मिला, स्वाभाविक ही अधिकतर में पहली बार और एकमात्र बार भी। लगा कि सर्वेक्षण भी ऐसा मामला है, कि हम किसी भी क्षेत्र, काम में हों, किसी न किसी रूप में हमें ऐसी खोज-बीन में जुटना पड़ता है। पुरातत्वीय सर्वेक्षण के लिए जो सुना-सीखा, जो गुना-बूझा वही अब समझाइश देने के काम आता है और यहां आपसे बांटने के भी।

सर्वेक्षण वाले क्षेत्र के राजस्व अधिकारी (कलेक्टर/एसडीएम/तहसीलदार), पुलिस अधिकारी (एसपी/एसडीओपी-टीआई/थाना प्रभारी) तथा यदि वन क्षेत्र हो तो वन विभाग के अधिकारी (डीएफओ/एसडीओ/रेंजर) को यथासंभव पत्र लिखकर या व्यक्तिगत संपर्क कर जानकारी एवं सहयोग प्राप्त करना आवश्यक होता है, इस क्रम में सर्वेक्षण वाले क्षेत्र का मजमूली नक्शा जिला/तहसील से प्राप्त कर लेना चाहिए। सर्वेक्षण में जाने से पहले, सर्वे आफ इंडिया के उस क्षेत्र के नक्शे, टोपो-शीट का अच्छी तरह अध्ययन कर लेना उपयोगी होता है। साथ ही सर्वेक्षण किए जाने वाले क्षेत्र के पूर्व सर्वेक्षित एवं ज्ञात स्थलों/संबंधित तथ्य तथा विभिन्न कार्यालयों/व्यक्तियों से आरंभिक जानकारी एकत्र करना आवश्यक होता है।

ग्राम-नाम, नाम का आधार, नाम-व्युत्पत्ति आदि के अनुमान और जानकारी से महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं, इस हेतु सजग रहना फायदेमंद होता है। ग्राम में नदी-नालों के घाट, महामाया, सती, सीतला, ठाकुर देव, बूढ़ा देव, बीर, थान, चौंरा जैसे ग्राम देवता स्‍थल, चौक-चौराहों, गुड़ी, देवलास, मरहान, खमना, सरना, ठकुरदिया, अकोल जैसे पेड़ वाले जैसे स्थानों पर पुरातात्विक सामग्री अथवा संकेत मिलने की संभावना होती है। इसी प्रकार किला, गढ़, खइया, पुराने तालाब, डीह-टीला आदि की जानकारी के साथ पुरातात्विक स्थलों का संकेत मिलता है। नदी-नाले का उद्‌गम, संगम और अन्य जल-स्रोत पवित्र माने जाते हैं सो उनके निकट प्राचीन अवशेष प्राप्त होने की संभावना होती है। पुराने, अब कम प्रचलित मार्ग, शार्ट-कट रास्तों की जानकारी सहायक और कई बार उपयोगी होती है।

सर्वेक्षण के दौरान स्‍थानीय जनप्रतिनिधि- पंच, सरपंच आदि, शासकीय कर्मचारी- शिक्षक, पटवारी, कोटवार आदि तथा विभिन्न समाज के मुखिया, वरिष्ठ नागरिक, ओझा-बइगा-गुनिया महत्वपूर्ण सूचक होते हैं, इनसे संपर्क कर सहयोग प्राप्त करना तथा अच्छे सहयोगी सूचकों का नाम, यदि हो तो मोबाईल नम्बर सहित, स्थायी संदर्भ के लिए भी दर्ज करना चाहिए। ध्यान रहे कि अबोध मान लिए जाने वाले बच्चे भी अच्छे सूचक होते हैं। हरेक गांव की अपनी विरासत, मान्‍यताओं और विश्‍वास से जुड़ी गौरव-गाथा होती ही है, उसके श्रोता-सहभागी बनें और इस दौरान, 'आपके गांव की खासियत क्‍या है?' जैसे सवाल का दो तरह से असर होता है, एक तो सवाल में छिपी चुनौती स्‍वीकार कर जवाब में अक्‍सर काम की जानकारियां मिल जाती हैं और साथ ही ग्रामवासी पुरावशेषों, विशिष्‍टता की ओर अधिक ध्‍यान देने लगते हैं।

यह भी ध्यान रहे कि जो जानकारी मौके पर सहज उपलब्ध होती है, वही वापस लौट आने पर पुनः एकत्र करने के लिए विशेष प्रयास करना होता है। अतएव सर्वेक्षण के दौरान मौके पर सजग रहते हुए अधिकतम सूचनाएं एकत्र कर, दर्ज कर लेनी चाहिए। ऐसी जानकारियां जो सर्वेक्षण के दौरान बहुत आवश्यक नहीं लगती हों, संभव हो तो उन्हें भी लिख कर रखना, काम का होता है। स्थानीय सूचकों द्वारा महत्वपूर्ण बताई गई प्राथमिक सूचना अगर काम की न निकले, तो भी इसका उल्लेख अवश्य होना चाहिए, जैसे अक्सर गुफा या कई बार नक्काशी वाला बताया जाने वाला पत्थर, पुरातात्विक महत्व का नहीं, मात्र प्राकृतिक होता है, यानि संभावित सूचना या स्थान पर वांछित न मिलने पर इसका तथ्यात्मक विवरण, ऐसा उल्लेख भी आवश्यक है, क्योंकि यह आपके बाद के लोगों के लिए मददगार होता है।

सर्वेक्षण के दौरान आवश्यकतानुसार क्षेत्र की वीडियोग्राफी, छायाचित्र तथा पुरावशेष/कलाकृति का माप (आकार- लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई) आवश्यक होता है। स्‍थल पर विवेचना या निष्‍कर्ष पर पहुंचने के प्रयास की तुलना में यह अधिक जरूरी होता है कि वस्‍तु का विवरण अच्‍छी तरह, आवश्‍यकतानुसार नजरी नकल-नक्‍शा सहित, तैयार कर लिया जाए। स्थल, पुरावशेष का स्थानीय नाम लिख कर रखना और यह जानकारी बाद के लोगों के वहां तक पहुंचने के साथ-साथ, स्थानीय परम्पराओं को समझने में भी सहायक होता है।

मौके पर बातचीत के दौरान इर्द-गिर्द, अपने अगले पड़ाव की जानकारी ले ली जानी चाहिए। काम के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक पूरे दिन, नौ-दस घंटे का समय निकालना चाहिए। आवश्यकतानुसार सर्वेक्षण में जाने के पूर्व तथा सर्वेक्षण के दौरान वरिष्ठ अधिकारियों/विषय व क्षेत्र के जानकारों से संपर्क कर सुझाव लेना सहायक होता है। कच्चे नोट्‌स मौके पर तुरंत, फिर शाम को लौटने पर उसी दिन व्‍यवस्थित कर लेना और उसका अंतिम स्वरूप, सर्वेक्षण सत्र के बाद, सप्ताह भर में तैयार कर लेना जरूरी होता है।

अध्‍ययन की क्रमिक-तार्किक प्रक्रिया, अवलोकन-विवरण यानि पोस्‍ट का दूसरा हिस्‍सा 'सर्वेक्षण' तथा विश्‍लेषण-व्‍याख्‍या/निष्‍कर्ष की तरह यहां पहला भाग 'पुरातत्‍व', उपशीर्षक अंतर्गत प्रस्‍तुत किया गया है। इस पोस्‍ट पर टिप्‍पणी के लिए मेरी अपेक्षा है कि कोई सुझाव हो तो अवश्‍य लिखें, अन्‍यथा फौरी टिप्‍पणी के बजाय इसे बुकमार्क कर रख लें और जब ऐसे किसी प्रवास पर जाएं तो इन बातों को आजमा कर देखें, बस... हां, इसके बाद पोस्‍ट की प्रशंसा अथवा आलोचना की मिली टिप्‍पणी को समभाव से आदर सहित स्‍वीकार कर, बेहतर बनाने के लिए इसमें आवश्‍यकतानुसार संशोधन कर लूंगा।

इस पोस्‍ट का 'पुरातत्‍व' वाला हिस्‍सा उदंती.com के 21 अप्रैल 2012 अंक में प्रकाशित किया गया है।

Monday, January 23, 2012

मल्हार

विन्ध्य और सतपुड़ा का संगम और इसके बीचों-बीच मेकल का गर्वोन्नत शिखर। मेकल के पादतल पर छत्तीसगढ़ का खुला और विस्तृत मैदान। महानदी, शिवनाथ के जल-प्रवाह से सिंचित होकर इस मैदान में विकसित हुआ है सभ्यता का वह शिशु, जो आदिम जनजातियों में सांस लेता है, जन-जन में धड़कता है और पुराने अवशेषों में आंखें खोल कर मानों अपनी निश्छल और मासूम हंसी बिखेर देता है, तब छत्तीसगढ़ का यह धान का कटोरा लबालब भर जाता है सम्पन्नता से और जिसकी सौम्यता, आभूषण बन अपनी चमक से स्वाभाविक ही आकर्षित करती है।

देवालयों के खण्डहर, टूटी-फूटी मूर्तियां, पत्थर और तांबे पर कुरेदे अजीब अक्षर, पकी मिट्‌टी के खिलौने-ठीकरे और सोने, चांदी, तांबे के सिक्के। ढेरों तरह के अवशेष और न जाने कितने पुराने। पर हैं पुराने जरूर। किसी की नजर पड़ती है और वह तय कर लेता है काल का अंतर और अंतर इतना साफ है कि अवशेष मानव निर्मित होंगे, मानने का मन नहीं होता। शायद यह सब कुछ परमात्मा ने ही गढ़ा है। कोई राजा, महाप्रतापी और बहुत पुराना तो जरूर रहा होगा। शायद उसने सिरजा हो यह सब, वह भी सतजुग में-
रइया के सिरजे रइया रतनपुर,
राजा बेनू के सिरजे मलार।

कौन है बेनू राजा, गायक देवार भी नहीं जानता, लेकिन गाता है। इतिहास से अधिक जीवंत लोक-जीवन की साम-वाणी। इतिहास, और खासकर पुरातत्व तो अंधेरे में चलाया तीर है, निशाने पर लगा तो लगा नहीं तो तुक्का? जितना कुछ मिला, खोजा उतना इतिहासकार ने हमें बताया, बाकी जिज्ञासा शांत करने का जवाबदार तो वह नहीं है। इसीलिए देवार कवि-गायक का स्वर फूटता है या कोई साहित्यकार लिख जाता है-
गजानन अंबिका की गोद में सानंद रहते हैं।
करे कल्याण जो जन का उन्हें केदार कहते हैं॥
करे जो देवि को शोभित उसे श्रृंगार कहते हैं।
करे हर मन को जो मोहित उसे मल्हार कहते हैं॥

हमारा इतिहास इसी तरह मिथक दंतकथाओं से जीवंत रहा है और हमारे सामाजिक परिवेश हमारी चेतना में, धर्म-संस्कृति से मिलकर एकरूप सपाट बुनावट कस जाती है कि उनके ताने-बाने को देख पाना सरल नहीं है, यही हमारी मानसिकता की उदार, संतुलित, वृहत्तर संसार की पृष्ठभूमि बनती है।

मल्हार, मलार और मल्लालपत्तन; नाम तीन, लेकिन स्थान एक ही, बिलासपुर से 33 किलोमीटर दूर, मस्तूरी-जोंधरा मार्ग पर मामूली सा कस्बा है यह। किन्तु पुरानी कला-संस्कृति के प्रमाण और काल का विस्तार मानों मल्हार के सीमित दायरे में ही सिमट आया है, काल और कला का इतना सघन विस्तार अन्यत्र दुर्लभ है। राह चलते यहां आपसे कोई ठीकरा या प्रतिमा खंड ठोकर खाकर लुढ़क सकता है, ऐसा टुकड़ा जो समृद्धि-गौरव से गुरु-गंभीर मौन हो और अपने किसी आत्मीय पुराविद को पाकर यकायक मुखर हो उठे।

मल्हार और आसपास के वर्तमान गांव- चकरबेढ़ा, बेटरी, जुनवानी, नेवारी, जैतपुर, बूढ़ीखार; शायद यह पूरा क्षेत्र पहले विशाल नगर का हिस्सा रहा होगा। वर्तमान जैतपुर और बेटरी गांव लीलागर नदी के किनारे हैं यानि मल्हार पूर्व में लीलागर, पश्चिम में कुछ दूरी पर अरपा और दक्षिण में कुछ और दूर शिवनाथ नदी, इस सलिला-त्रयी की गोद में है। तालाब भी कोई पांच-पचीस नहीं 'छै आगर छै कोरी' यानि पूरे एक सौ छब्‍बीस।

मलार का मल्हार नाम परिवर्तन तो हाल के वर्षों में हुआ, शायद अधिक ललित और साहित्यिक नाम के रूप में सुधारने की कोशिश में ऐसा हुआ। यद्यपि मूल स्थान नाम मलार, मल्लालपत्तन से सीधे व्युत्पन्न है। स्थान नाम का पत्तन शब्द महत्वपूर्ण है, पत्तन यानि बाजार-हाट या गोदी। पुराविदों का मत है कि मल्हार कभी प्रशासनिक मुख्‍यालय या राजधानी रहा हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नाममात्र को मिलता है, किन्तु धर्म, कला, व्यवसाय का महत्वपूर्ण केन्द्र जरूर रहा है। जलमार्ग से होने वाले व्यापारिक आवागमन की दृष्टि से मल्हार में आज भी केंवट-मल्लाहों का बाहुल्य है और केंवट आबादी के क्षेत्र भसर्री में पुराने अवशेषों की भरमार है, यहां घर की नींव खोदते हुए पुरानी नींव निकल सकती है और कुंआ खोदते हुए निकल आया पुराना कुंआ तो अब भी मौके पर देखा जा सकता है।

दो हजार साल से भी अधिक पुरानी बताई जाने वाली वासुदेव-विष्णु की अद्वितीय प्रतिमा सहित अनगिनत कलाकृतियां। देव-प्रतिमाएं इतनी कि कहावत चलती है- 'सब देवता बसे मलार।' प्रसन्नमात्र के एकमात्र ज्ञात तांबे के सिक्के और मघ शासकों के दुर्लभ सिक्कों सहित ढेरों सिक्के, मुद्रांक, व्याघ्रराज और महाशिवगुप्त के अभिलेखों सहित सैकड़ों-हजारों शब्दों का उत्कीर्ण प्राचीन साहित्य, बेशकीमती और ठोस पत्थरों की गुरिया और मनकों की तो खान ही है।
पुरानी कीमियागिरी में प्रेरणा की भूमिका आदिम इच्छा ने ही निभाई, यानि यौवन और स्वर्ण या कहें कालजयी होने की ललक और भौतिक सम्पन्नता, ऐश्वर्य की चाह। मल्हार की प्राचीन कलाकृतियां आज कालजयी होकर हमारे समक्ष विद्यमान हैं और सोना तो 'कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय' है ही। कहते हैं मल्हार में कभी सोने की बरसात हुई थी और यहां दुनिया के लिए ढाई दिन का राशन पूरा कर सकने की सम्पदा धरती के गर्भ में समाई हुई है। नाम भी है- सोनबरसा खार। इन कथनों में चाहे जितनी सचाई हो लेकिन मल्हार में आज भी यह सच्ची कहावत पूरी तरह लागू है कि 'संफरिया नांगर नई चलय' यानि हल अकेले-अकेले ही जोतते है किसी के साथ नहीं, क्योंकि कहीं भी, कभी भी और कुछ भी मिल जाने की आशा अब भी लोगों को होती है।

मल्हार के पुरातत्व का काल और क्षेत्र-विस्तार धार्मिकता के तीन बिंदुओं पर केन्द्रित हो गया है- पातालेश्वर या केदारेश्वर मंदिर, देउर और डिड़िन दाई। पातालेश्वर मंदिर परिसर में इस ग्राम और क्षेत्र की धार्मिक आस्थाओं के साथ विविध गतिविधियां जुड़ी हैं। यहीं स्थानीय संग्रहालय है। मल्हार महोत्सव पर पूरे छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों का मेला यहां लग जाता था और महाशिवरात्रि पर दस दिन के मेले में तो मानों पूरा क्षेत्र ही उमड़ पड़ता है।

देउर का प्राचीन मंदिर का टीला देउर कहा जाता था और दो विशाल मूर्तियों के कारण भीमा-कीचक भी। किसी प्राचीन स्थल की पूरी रहस्यात्मकता सहित इस टीले की रहस्य की परतें तीसेक साल पहले खुलनी शुरू हुईं। रहस्य के साथ भौतिकता की भव्य कल्पना सदैव जुड़ जाती है और यह प्रकाशित होते ही लोक-मानस को निराशा ही होती है देउर के स्थान पर प्रकाश में आया आठवीं सदी की महत्वपूर्ण स्थापत्य संरचना लेकिन लोक-मानस का मनो-महल भरभरा कर ढह गया, इसीलिए शायद वह धार्मिक महत्व न पा सका।

और डिड़िन दाई से तो जैसे पूरे मल्हार की धर्म-भावना अनुप्राणित हुई है। काले चमकदार पत्थर से बनी देवी। डिड़वा यानि अविवाहित वयस्क पुरुष और डिड़िन अर्थात्‌ कुंवारी लड़की। माना जाता है कि मल्हार के शैव क्षेत्र में डिडिनेश्वरी शक्ति अथवा पार्वती का रूप है, जब वे गौरी थीं, शिव-वर पाने को आराधनारत थीं। डिड़िन दाई का मंदिर पूरे मल्हार और आसपास के जन-जन की आस्था का केन्द्र है।

सरकारी पुरातत्व विभाग द्वारा तो यहां संरक्षण, अनुरक्षण, शोध और संकलन किया ही गया है, सागर विश्वविद्यालय द्वारा उत्खनन भी यहां कराया गया लेकिन ग्रामवासी भी कुछ पीछे नहीं हैं। लगभग सभी घरों में कोई अलंकृत नक्काशी का टुकड़ा देखा जा सकता है और कुछ ऐसे लोग भी हैं, प्राचीन अवशेषों का संकलन और सुरक्षा, जिनकी दिनचर्या में शामिल है। जो ऐसे माहौल में जन्मा, पला-बढ़ा उसकी विशिष्ट संवेदना और मल्हार से लगाव तो स्वाभाविक ही है तथा मल्हार के गौरव को प्रकाशित करने के प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं और इस परिवेश में संस्कृति के अन्य पक्ष- संगीत, गायन और साहित्यिक चेतना का विकास भी स्वाभाविक है। इस छोटे से कस्बे में राष्ट्रीय स्तर की कवि गोष्ठियां, लोकमंच के कार्यक्रम और सांस्कृतिक उत्सवों के आयोजन से लेकर राजनैतिक कार्यक्रम तक आयोजित हुए हैं, होते रहते हैं। पुरातत्व से जुड़े दुनिया भर के लोगों का तो तीर्थ यह है ही।

टीपः

मल्‍हार ब्लॉग वाले श्री पा ना सुब्रमनियन और श्रीमती शुभदा-श्री विवेक जोगलेकर जी से बीसेक साल पहले पुरातत्‍व पर बात होती तो मेरी प्रशिक्षित बौद्धिकता और अर्जित ज्ञान (सूचना) से काम न चल पाता, इससे मुझे दिशा मिली और पुराने स्‍मारक-स्‍थलों को अपने विषय-विधा की सीमा से निकल कर देखने में मदद हुई। साथ ही श्री जी एल रायकवार की भटकी-सी लगने वाली बातों से पुरातत्‍वीय परिवेश के लिए न सिर्फ नजर खुली रखने, बल्कि उसके प्रति सम्‍मान का भाव विकसित करने का रास्‍ता बना। तभी यह प्रयोग किया था कि किसी पुरातत्‍वीय स्‍थल पर ऐसा कुछ लिखूं, जिसमें पुरातत्‍व न-सा हो।

Wednesday, August 24, 2011

कृष्‍णकथा

छत्‍तीसगढ़ में कृष्‍णकथा और उत्‍सव की अपनी परम्‍परा है, जिसमें भागवत कथा आयोजन, गउद के दादूसिंह जी, हांफा के पं. दुखुराम, बेलसरी वाले पं. रामगुलाम-पं.बालमुकुंद जी, पेन्‍ड्री के पं. बसोहर. रतनपुर वाले पंडित ननका सूर्यवंशी, सांसद रहे गोंदिल प्रसाद अनुरागी जी, विधायक रहे कुलपतसिंह जी सूर्यवंशी जैसे रासधारियों और रानीगांव आदि का पुतरी (मूर्ति) और बेड़ा (मंच, प्रदर्शन स्‍थल) वाला रहंस (रास), छत्‍तीसगढ़ का वृन्‍दावन कहे जाने वाले गांव नरियरा की कृष्‍णलीला, रतनपुर का भादों गम्‍मत, पं. सुन्‍दरलाल शर्मा की रचना छत्‍तीसगढ़ी दानलीला, महाप्रभु वल्‍लभाचार्य जी की जन्‍म स्‍थली चम्‍पारण, राउत नाच, दहिकांदो, कान्‍हा फाग गीत, रायगढ़ की जन्‍माष्‍टमी, डोंगरगढ़ का गोविन्‍दा उत्‍सव, बस्‍तर में आठे जगार, सरगुजा में डोल तो उल्‍लेखनीय हैं ही, पहले-पहल गोदना कृष्‍ण ने गोपियों के अंग पर गोदा, इस रोचक मान्‍यता का गीत भी प्रचलित है-
गोदना गोदवा लो सखियां गोदना गोदवा लो रे
मांथ में गोदे मोहन दुई नयनन में नंदलाला
कान में गोदे कृष्‍ण कन्‍हैया गालों में गोपाला।
ओंठ में गोदे आनन्‍द कंद गला में गोकुल चंद
छाती में दो छैला गोदे नाभी में नंदलाला।
और कृष्‍णकथा सहित पाण्‍डवों की गाथा को 'बोलो ब्रिन्‍दाबन बिहारीलाल की जै' से आरंभ कर 'तोरे मुरली म जादू भरे कन्‍हैया, बंसी म जादू भरे हे' तक पहुंचाने वाली पद्मभूषण तीजनबाई जी की पंडवानी, जैसे छत्‍तीसगढ़ की पहचान बन गई है।

इसकी पृष्‍ठभूमि में धर्म-अध्‍यात्‍म और साहित्‍य की भूमिका निसंदेह है, कृष्‍ण नाम यहां पहली बार रानी वासटा के लक्ष्‍मण मंदिर शिलालेख, सिरपुर से ज्ञात है- ''यः प्रद्वेषवतां वधाय विकृतीरास्‍थाय मायामयीः कृष्‍णो'' और सैकड़ों साल के ठोस प्रमाण प्राचीन शिल्‍प कला में तुमान, पुजारीपाली, देव बलौदा, रायपुर, गंडई, लक्ष्‍मणगढ़, महेशपुर, सिरपुर, तुरतुरिया, जांजगीर आदि में मूर्त हैं। प्रतिमा-शिल्‍पखंड का अभिज्ञान, काल, राजवंश-कला शैली उल्लेख सहित चित्रमय झांकी-
कृष्‍ण जन्‍म?, ईस्‍वी 11वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

वसुदेव-बालकृष्‍ण गोकुल गमन, बलराम-प्रलंबासुर, ईस्‍वी 12वीं सदी, रतनपुर कलचुरी

बाललीला, कुब्‍जा पर कृपा, कुवलयापीड़वध, 
ईस्वी 10वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

कृष्‍णजन्‍म, योगमाया, पूतना वध, 
ईस्वी 9वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

पूतनावध, ईस्वी 18वीं सदी, मराठा

कालियदमन, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश

पूतनावध, तुरंगदानव केशीवध ईस्वी 7वीं सदी, सोमवंश

केशीवध, ईस्वी 6वीं सदी, शरभपुरीयवंश

केशीवध, वत्‍सासुरवध, ईस्वी 6वीं सदी, शरभपुरीयवंश

शकट भंजन, यमलार्जुन उद्धार-ऊखलबंधन, अरिष्‍ट(वृषभासुर)वध, 
कालियदमन, धेनुकासुरवध, कृष्‍ण-बलराम-अक्रूर मथुरा यात्रा, 
ईस्वी 10वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी

गोवर्धनधारी कृष्‍ण, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश

कर्णार्जुन युद्ध, वेणुधर कृष्‍ण, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश
लिखित, वाचिक-मौखिक परम्‍परा, पत्‍थरों पर उकेरी जाकर स्‍थायित्‍व के मायनों में जड़ होती है। इन पर सर भी पटकें, पत्‍थर तो पत्‍थर। इस पोस्‍ट की योजना तो बना ली लेकिन ये पत्‍थर मेरे लिए पहाड़ साबित होने लगे। काम आगे बढ़ा, हमारे आदरणीय वरिष्‍ठ गिरधारी (श्री जीएल रायकवार जी) की मदद से। पथराया कला-भाव और उसकी परतें उनके माध्‍यम से जिस तरह एक-एक कर खुलती हैं, वह शब्‍दातीत होता है। कर्ण-अर्जुन युद्ध करते रहें, बंशीधर के चैन की बंसी बजती रहे। काम सहज पूरा हो गया। इस बीच एक पुराने साथी जी. मंजुसाईंनाथ जी ने जन्‍माष्‍टमी पर बंगलोर से खबर दी-
भोँपू, नारा, शोरगुल, कौवों का गुणगान।
हंगामे में खो गयी, मधुर मुरलिया तान।

लेकिन अहमदाबाद की एक तस्‍वीर यहां देख सकते हैं।

Tuesday, December 21, 2010

अक्षर छत्तीसगढ़

सुतनुका का प्रेम संदेश
'ओड़ा-मासी-ढम', अजीब से लगने वाले ये छत्तीसगढ़ी शब्द, विद्यारंभ संस्कार के समय लिखाए जाने वाले 'ओम्‌ नमः सिद्धम्‌' का अपभ्रंश हैं, यानि ककहरा (वर्णमाला) 'क ख ग घ' या 'ग म भ झ' का अभ्यास, इस मंत्र से आरंभ होता था। अब भी कहीं-कहीं पाटी-पूजा के रिवाज में यह प्रचलित है। इस मंत्र का उपयोग विनम्रतापूर्वक अपनी अपढ़-अज्ञानता की स्वीकारोक्ति के लिए भी किया जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ में पुराने जमाने के सबूत कम उजले नहीं हैं।

पहले कुछ बातें, लिखावट की। सभ्यता के क्रम में विचारशील मानव ने अपने भावों को भाषा में और फिर भाषा को लिपि में ढालकर, दूरी और काल की सीमाओं को लांघने का साधन विकसित किया है। हड़प्पा सभ्यता की ठीक-ठीक पढ़ी न जा सकी लिपि और मौर्यकाल के प्रमाणों के बीच, लगभग 2500 साल पुराने बौद्ध ग्रंथ 'ललित विस्तर' में 64 तथा जैन सूत्रों में 18 लिपियों की सूची मिलती है। इन्हीं सूचियों की ब्राह्मी लिपि से विकसित (भारत की लगभग सभी लिपियां और) हमारी आज की देवनागरी लिपि, सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि मानी गई है। यही नहीं, भले ही कागज का अविष्कार लगभग 2000 साल पहले चीन में हुआ माना जाता है, लेकिन 2400 साल पहले निआर्कस ने लिखा है कि हिन्दू (भारतीय) लोग कुंदी किए हुए कपास पट (कपड़े जैसे कागज) पर पत्र लिखते हैं।

छेनी, लौह-शलाका, बांस, नरकुल और खड़िया लेखनी बनती थी और मसि या स्याही सामान्य प्रयोजन के लिए कोयले को पानी, गोंद, चीनी या अन्य चिपचिपा पदार्थ मिलाकर बनाई जाती थी। स्थायी स्याही लाख का पानी, सोहागा, लोध्रपुष्प, तिल के तेल का काजल आदि को मिलाकर खौलाने से बनती थी। भूर्जपत्रों पर लिखावट के लिए उपयोगी, बादाम से बनाई गई स्याही तथा रंगीन स्याही का उल्लेख व तैयार करने का विवरण भी पुरानी पोथियों में प्राप्त होता है।

लिखना, लिपि, ग्रंथ जैसे शब्दों के मूल में लेखन की क्रिया-प्रक्रिया ही है। 'लिख' धातु का अर्थ कुरेदना है। 'लिपि' स्याही के लेप के कारण प्रचलित हुआ। 'पत्र' या 'पत्ता' भूर्जपत्र और तालपत्र के इस्तेमाल से आया। पत्रों के बीच छेद में धागा पिरोना 'सूत्र मिलाना' है और सूत्र ग्रंथित होने के कारण पुस्तक 'ग्रंथ' है, जबकि 'पुस्त' शब्द का अर्थ पलस्तर या लेप करना अथवा रेखाचित्र बनाना है। यानि ग्रंथ बनने की प्रक्रिया में पहले पत्रों पर लोहे की कलम अथवा सींक से अक्षर कुरेदे जाते थे, स्याही का लेप कर अक्षरों को उभारा जाता था, छेद बना कर उसमें धागा पिरोया जाता था तब वह ग्रंथ बनता था।

 किरारी काष्‍ठ स्‍तंभ
छत्तीसगढ़ में सभ्यता ने लिखावट के पहले-पहल जो प्रमाण उकेरे उनमें उड़ीसा की सीमा पर स्थित विक्रमखोल का चट्टान लेख है, जो हड़प्पा और ब्राह्मी लिपि के संधिकाल का माना गया है। आगे बढ़ते ही साक्षर छत्तीसगढ़ की तस्वीर साफ होती है, सरगुजा के रामगढ़ में, जहां पत्थर पर उकेरा, दुनिया का सबसे पुराना प्रेम का पाठ सुरक्षित है- 'सुतनुका देवदासी और देवदीन रूपदक्ष' का उत्कीर्ण लेख। किरारी से मिले लकड़ी पर खुदे दुनिया के सबसे पुराने कुछ अक्षर आज भी महंत घासीदास संग्रहालय, रायपुर में सुरक्षित हैं, जिसमें तत्कालीन राज व्यवस्था के अधिकारियों के पदनाम हैं और यहीं कुरुद का वह ताम्रपत्र भी है, जिसमें राजकीय अभिलेखागार के अस्तित्व और ताम्रपत्रों के चलन में आने की पृष्ठभूमि पता लगती है। महाभारत में उल्लिखित छत्तीसगढ़ के ऋषभतीर्थ-गुंजी में एक-एक हजार गौ के दान का हवाला है वहीं छत्तीसगढ़ी का सबसे पुराना नमूना, दन्तेवाड़ा के दुभाषिया शिलालेख में पढ़ने को मिलता है।

मत्स्यपुराण का उल्लेख है - ''शीर्षोपेतान्‌ सुसम्पूर्णान्‌ समश्रेणिगतान्‌ समान। आन्तरान्‌ वै लिखेद्यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः॥'' अर्थात्‌ उपर की शिरोरेखा से युक्त, सभी प्रकार से पूर्ण, समानान्तर तथा सीधी रेखा में लिखे गए और आकृति में बराबर अक्षरों को जो लिखता है वही श्रेष्ठ लेखक कहा जाता है। यह कोटगढ़ (अकलतरा) के शिलालेख के इस हिस्‍से में घटा कर देखें।

वृहस्पति का कथन है - ''षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्‍यतः पुरा॥'' अर्थात्‌, किसी घटना के छः माह बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है। किन्तु भ्रम से बचने के लिए ब्रह्मा द्वारा बनाई अक्षरों की लिपि 'ब्राह्मी' पढ़ना ही भुला दी गई और जब 1837-38 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी की पूरी वर्णमाला उद्‌घाटित की, तब देवताओं का लेखा, बीजक या गुप्त खजाने का भेद समझे जाने वाले लेख, इतिहास की रोमांचक जानकारियों का भंडार बन गए और भारतीय संस्कृति की समृद्ध सूचनाओं का खजाना साबित हुए। पत्थरों पर खुदी इबारत में तनु भावों की कविता पढ़ ली गई और तांबे पर उकेरे गए अक्षर, सुनहरे-रुपहले इतिहास के पन्ने बने तब अक्षरों में हमारा गौरवशाली अतीत उजागर हुआ।

ये सब तो पुरानी बातें हैं। आज का समय 'बायनरी' के दो संकेत-अक्षरों का है, लेकिन इसमें संवेदना का अदृश्य आधा अक्षर जुड़कर 'ढाई आखर' प्रेम के बनते हैं, जो छत्तीसगढ़ में रामगढ़ की पहाड़ी में उकेरे गए और आज भी कायम हैं। छत्तीसगढ़ी अक्षर-ब्रह्म नमन सहित पढ़ाई-लिखाई की आरंभिक लोक-उच्चारण स्तुति 'ओड़ा-मासी-ढम' अनगढ़ और बाल-सुलभ तोतली सी हो कर भी, सार्थक और शुभ है।

आपस की बात :

इसके साथ कुछ पुराने गोरखधंधों का स्मरण। गुरुजी ने कभी कहा कि पुराने अभिलेख पढ़ना सीखना है तो उसी तरह से खुद लिखा करो, बस फिर क्या था, छेनी तो नहीं पकड़ी, लेकिन कागज कलम से नरकुल तक आजमा ही लिया। यानि गुरुओं की प्रेरणा से, मत्स्य पुराण के निर्देश अनुरूप, 'श्रेष्ठ लेखक' बनने की धुन में कम कलम-घिसाई नहीं की है हमने भी, इसका एक नमूना, कोई बारह सौ साल पुरानी ब्राह्‌मी के कोसलीय विशिष्टता वाली पेटिकाशीर्ष लिपि में ताम्रपत्र पर ग्रामदान प्रयोजन से उकेरे गए अक्षरों की नकल, जिसके पहले चिह्‌न को 'ओम्‌' या 'सिद्धम्‌' पढ़ा जाता है। मूल लिपि की नकल के साथ नागरी पाठ भी है, इसके सहारे थोड़े अभ्‍यास से आप भी खजानों का भेद पा सकते हैं।

सभी गुरुजनों का सादर स्मरण, विशेषकर, जिन्होंने अक्षरों की नकल उतारने की बजाय उन्हें लिखना, लिखे को पढ़ना और पढ़े को समझने की, आत्मसात करने की शिक्षा दी। सिखाया कि जो पढ़ो, पसंद आए, वह मुखाग्र और कंठस्थ रहे न रहे, हृदयंगम और आत्मसात हो।

डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर और डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम गुरु-द्वय की उदारता अबाध रही, अपनी संकीर्णता के लिए स्वयं जिम्मेदार हूं, लेकिन गुरुओं के कर्ज (ऋषि-ऋण) का बोझ सदैव ढोना चाहता हूं।

(गुरुओं की मर्यादा का ध्यान हो तो देखिए, अपने ही ब्लॉग पर अपनी एक फोटो, वह भी गुरुओं की आड़ में, चिपकाने के लिए कितनी मशक्कत करनी होती है, वरना पोस्‍ट तो यूं चुटकियों में और फोटो एलबम क्‍या पूरी गैलरी बना दें, अपनी खेती जो ठहरी।)