विन्ध्य और सतपुड़ा का संगम और इसके बीचों-बीच मेकल का गर्वोन्नत शिखर। मेकल के पादतल पर छत्तीसगढ़ का खुला और विस्तृत मैदान। महानदी, शिवनाथ के जल-प्रवाह से सिंचित होकर इस मैदान में विकसित हुआ है सभ्यता का वह शिशु, जो आदिम जनजातियों में सांस लेता है, जन-जन में धड़कता है और पुराने अवशेषों में आंखें खोल कर मानों अपनी निश्छल और मासूम हंसी बिखेर देता है, तब छत्तीसगढ़ का यह धान का कटोरा लबालब भर जाता है सम्पन्नता से और जिसकी सौम्यता, आभूषण बन अपनी चमक से स्वाभाविक ही आकर्षित करती है।
देवालयों के खण्डहर, टूटी-फूटी मूर्तियां, पत्थर और तांबे पर कुरेदे अजीब अक्षर, पकी मिट्टी के खिलौने-ठीकरे और सोने, चांदी, तांबे के सिक्के। ढेरों तरह के अवशेष और न जाने कितने पुराने। पर हैं पुराने जरूर। किसी की नजर पड़ती है और वह तय कर लेता है काल का अंतर और अंतर इतना साफ है कि अवशेष मानव निर्मित होंगे, मानने का मन नहीं होता। शायद यह सब कुछ परमात्मा ने ही गढ़ा है। कोई राजा, महाप्रतापी और बहुत पुराना तो जरूर रहा होगा। शायद उसने सिरजा हो यह सब, वह भी सतजुग में-
रइया के सिरजे रइया रतनपुर,राजा बेनू के सिरजे मलार।
कौन है बेनू राजा, गायक देवार भी नहीं जानता, लेकिन गाता है। इतिहास से अधिक जीवंत लोक-जीवन की साम-वाणी। इतिहास, और खासकर पुरातत्व तो अंधेरे में चलाया तीर है, निशाने पर लगा तो लगा नहीं तो तुक्का? जितना कुछ मिला, खोजा उतना इतिहासकार ने हमें बताया, बाकी जिज्ञासा शांत करने का जवाबदार तो वह नहीं है। इसीलिए देवार कवि-गायक का स्वर फूटता है या कोई साहित्यकार लिख जाता है-
गजानन अंबिका की गोद में सानंद रहते हैं।करे कल्याण जो जन का उन्हें केदार कहते हैं॥
करे जो देवि को शोभित उसे श्रृंगार कहते हैं।
करे हर मन को जो मोहित उसे मल्हार कहते हैं॥
हमारा इतिहास इसी तरह मिथक दंतकथाओं से जीवंत रहा है और हमारे सामाजिक परिवेश हमारी चेतना में, धर्म-संस्कृति से मिलकर एकरूप सपाट बुनावट कस जाती है कि उनके ताने-बाने को देख पाना सरल नहीं है, यही हमारी मानसिकता की उदार, संतुलित, वृहत्तर संसार की पृष्ठभूमि बनती है।
मल्हार, मलार और मल्लालपत्तन; नाम तीन, लेकिन स्थान एक ही, बिलासपुर से 33 किलोमीटर दूर, मस्तूरी-जोंधरा मार्ग पर मामूली सा कस्बा है यह। किन्तु पुरानी कला-संस्कृति के प्रमाण और काल का विस्तार मानों मल्हार के सीमित दायरे में ही सिमट आया है, काल और कला का इतना सघन विस्तार अन्यत्र दुर्लभ है। राह चलते यहां आपसे कोई ठीकरा या प्रतिमा खंड ठोकर खाकर लुढ़क सकता है, ऐसा टुकड़ा जो समृद्धि-गौरव से गुरु-गंभीर मौन हो और अपने किसी आत्मीय पुराविद को पाकर यकायक मुखर हो उठे।
मल्हार और आसपास के वर्तमान गांव- चकरबेढ़ा, बेटरी, जुनवानी, नेवारी, जैतपुर, बूढ़ीखार; शायद यह पूरा क्षेत्र पहले विशाल नगर का हिस्सा रहा होगा। वर्तमान जैतपुर और बेटरी गांव लीलागर नदी के किनारे हैं यानि मल्हार पूर्व में लीलागर, पश्चिम में कुछ दूरी पर अरपा और दक्षिण में कुछ और दूर शिवनाथ नदी, इस सलिला-त्रयी की गोद में है। तालाब भी कोई पांच-पचीस नहीं 'छै आगर छै कोरी' यानि पूरे एक सौ छब्बीस।
मलार का मल्हार नाम परिवर्तन तो हाल के वर्षों में हुआ, शायद अधिक ललित और साहित्यिक नाम के रूप में सुधारने की कोशिश में ऐसा हुआ। यद्यपि मूल स्थान नाम मलार, मल्लालपत्तन से सीधे व्युत्पन्न है। स्थान नाम का पत्तन शब्द महत्वपूर्ण है, पत्तन यानि बाजार-हाट या गोदी। पुराविदों का मत है कि मल्हार कभी प्रशासनिक मुख्यालय या राजधानी रहा हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नाममात्र को मिलता है, किन्तु धर्म, कला, व्यवसाय का महत्वपूर्ण केन्द्र जरूर रहा है। जलमार्ग से होने वाले व्यापारिक आवागमन की दृष्टि से मल्हार में आज भी केंवट-मल्लाहों का बाहुल्य है और केंवट आबादी के क्षेत्र भसर्री में पुराने अवशेषों की भरमार है, यहां घर की नींव खोदते हुए पुरानी नींव निकल सकती है और कुंआ खोदते हुए निकल आया पुराना कुंआ तो अब भी मौके पर देखा जा सकता है।
दो हजार साल से भी अधिक पुरानी बताई जाने वाली वासुदेव-विष्णु की अद्वितीय प्रतिमा सहित अनगिनत कलाकृतियां। देव-प्रतिमाएं इतनी कि कहावत चलती है- 'सब देवता बसे मलार।' प्रसन्नमात्र के एकमात्र ज्ञात तांबे के सिक्के और मघ शासकों के दुर्लभ सिक्कों सहित ढेरों सिक्के, मुद्रांक, व्याघ्रराज और महाशिवगुप्त के अभिलेखों सहित सैकड़ों-हजारों शब्दों का उत्कीर्ण प्राचीन साहित्य, बेशकीमती और ठोस पत्थरों की गुरिया और मनकों की तो खान ही है।
पुरानी कीमियागिरी में प्रेरणा की भूमिका आदिम इच्छा ने ही निभाई, यानि यौवन और स्वर्ण या कहें कालजयी होने की ललक और भौतिक सम्पन्नता, ऐश्वर्य की चाह। मल्हार की प्राचीन कलाकृतियां आज कालजयी होकर हमारे समक्ष विद्यमान हैं और सोना तो 'कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय' है ही। कहते हैं मल्हार में कभी सोने की बरसात हुई थी और यहां दुनिया के लिए ढाई दिन का राशन पूरा कर सकने की सम्पदा धरती के गर्भ में समाई हुई है। नाम भी है- सोनबरसा खार। इन कथनों में चाहे जितनी सचाई हो लेकिन मल्हार में आज भी यह सच्ची कहावत पूरी तरह लागू है कि 'संफरिया नांगर नई चलय' यानि हल अकेले-अकेले ही जोतते है किसी के साथ नहीं, क्योंकि कहीं भी, कभी भी और कुछ भी मिल जाने की आशा अब भी लोगों को होती है।
मल्हार के पुरातत्व का काल और क्षेत्र-विस्तार धार्मिकता के तीन बिंदुओं पर केन्द्रित हो गया है- पातालेश्वर या केदारेश्वर मंदिर, देउर और डिड़िन दाई। पातालेश्वर मंदिर परिसर में इस ग्राम और क्षेत्र की धार्मिक आस्थाओं के साथ विविध गतिविधियां जुड़ी हैं। यहीं स्थानीय संग्रहालय है। मल्हार महोत्सव पर पूरे छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों का मेला यहां लग जाता था और महाशिवरात्रि पर दस दिन के मेले में तो मानों पूरा क्षेत्र ही उमड़ पड़ता है।
देउर का प्राचीन मंदिर का टीला देउर कहा जाता था और दो विशाल मूर्तियों के कारण भीमा-कीचक भी। किसी प्राचीन स्थल की पूरी रहस्यात्मकता सहित इस टीले की रहस्य की परतें तीसेक साल पहले खुलनी शुरू हुईं। रहस्य के साथ भौतिकता की भव्य कल्पना सदैव जुड़ जाती है और यह प्रकाशित होते ही लोक-मानस को निराशा ही होती है देउर के स्थान पर प्रकाश में आया आठवीं सदी की महत्वपूर्ण स्थापत्य संरचना लेकिन लोक-मानस का मनो-महल भरभरा कर ढह गया, इसीलिए शायद वह धार्मिक महत्व न पा सका।
और डिड़िन दाई से तो जैसे पूरे मल्हार की धर्म-भावना अनुप्राणित हुई है। काले चमकदार पत्थर से बनी देवी। डिड़वा यानि अविवाहित वयस्क पुरुष और डिड़िन अर्थात् कुंवारी लड़की। माना जाता है कि मल्हार के शैव क्षेत्र में डिडिनेश्वरी शक्ति अथवा पार्वती का रूप है, जब वे गौरी थीं, शिव-वर पाने को आराधनारत थीं। डिड़िन दाई का मंदिर पूरे मल्हार और आसपास के जन-जन की आस्था का केन्द्र है।
सरकारी पुरातत्व विभाग द्वारा तो यहां संरक्षण, अनुरक्षण, शोध और संकलन किया ही गया है, सागर विश्वविद्यालय द्वारा उत्खनन भी यहां कराया गया लेकिन ग्रामवासी भी कुछ पीछे नहीं हैं। लगभग सभी घरों में कोई अलंकृत नक्काशी का टुकड़ा देखा जा सकता है और कुछ ऐसे लोग भी हैं, प्राचीन अवशेषों का संकलन और सुरक्षा, जिनकी दिनचर्या में शामिल है। जो ऐसे माहौल में जन्मा, पला-बढ़ा उसकी विशिष्ट संवेदना और मल्हार से लगाव तो स्वाभाविक ही है तथा मल्हार के गौरव को प्रकाशित करने के प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं और इस परिवेश में संस्कृति के अन्य पक्ष- संगीत, गायन और साहित्यिक चेतना का विकास भी स्वाभाविक है। इस छोटे से कस्बे में राष्ट्रीय स्तर की कवि गोष्ठियां, लोकमंच के कार्यक्रम और सांस्कृतिक उत्सवों के आयोजन से लेकर राजनैतिक कार्यक्रम तक आयोजित हुए हैं, होते रहते हैं। पुरातत्व से जुड़े दुनिया भर के लोगों का तो तीर्थ यह है ही।
टीपः
मल्हार ब्लॉग वाले श्री पा ना सुब्रमनियन और श्रीमती शुभदा-श्री विवेक जोगलेकर जी से बीसेक साल पहले पुरातत्व पर बात होती तो मेरी प्रशिक्षित बौद्धिकता और अर्जित ज्ञान (सूचना) से काम न चल पाता, इससे मुझे दिशा मिली और पुराने स्मारक-स्थलों को अपने विषय-विधा की सीमा से निकल कर देखने में मदद हुई। साथ ही श्री जी एल रायकवार की भटकी-सी लगने वाली बातों से पुरातत्वीय परिवेश के लिए न सिर्फ नजर खुली रखने, बल्कि उसके प्रति सम्मान का भाव विकसित करने का रास्ता बना। तभी यह प्रयोग किया था कि किसी पुरातत्वीय स्थल पर ऐसा कुछ लिखूं, जिसमें पुरातत्व न-सा हो।
धन्यवाद एक महत्वपूर्ण और पुरातत्व से जुडी विरासत के बारे में जानकारी का.
ReplyDeleteविषयवस्तु जितनी मनोरम है अभिव्यक्ति की शैली उतनी ही मौहक! उन प्राचीन अवशेषों में समाया वैभव इस साहित्यिक भंगिमा से बहुत लोभनीय हो उठा है.
ReplyDeleteसचमुच पुरातत्व से हटकर मल्हार की सुन्दर चर्चा
ReplyDeleteपूरा मलार घूम गया आँखों के सामने सुखद अनुभूति
आपको दो लाइन समर्पित
नार फांस नरियरा बसे फंकट बसे कोनार
कुथ्काथ कोसा बसे सब देवता बसे मलार
जी धन्यवाद, जोड़ दिया है.(पंक्तियां शायद रांछापोंड़ी वाले धरमलाल जी की हैं और कहावत की तरह प्रचलित हैं.)
Deleteइस पर कुछ और अधिक पढ़ने की इच्छा हो रही है.
ReplyDeleteमनमोहक, तथ्यपरक और आपकी छाप लिए!! अमूल्य!!
ReplyDeleteपुरातत्व से जुड़ी महत्त्व पूर्ण जानकारी,साथ ही आपकी अभिव्यक्ति शैली सुंदर लगी.
ReplyDeleteसतपुड़ा सुन एक और बस ही बात याद आती है वो है 'सतपुड़ा के घने जंगल उंघते अनमने जंगल' कविता. आज सतपुड़ा देख फिर वही याद आया. उसके अलावा सबकुछ ही नया है !
ReplyDeleteहम तो पढ़ते सोचते रह गए .....और अपने तो खंगाल लिया उस जमाने को ....!
ReplyDeleteबरसों के संचित ज्ञान से उपजी है यह पोस्ट, मल्हार कथा गजब है।
ReplyDeleteपोस्ट चोरी करने का मन है। :)
आपकी कई पोस्ट ऐसी होती हैं, जिनके लिए हम भी मन मसोस कर रह जाते हैं.
Deleteप्रस्तुतीकरण लाजवाब है. "पुरातत्व तो अंधेरे में चलाया तीर है, निशाने पर लगा तो लगा नहीं तो तुक्का" इस वाक्यांश से मैं तो सहमत नहीं हूँ.
ReplyDeleteतीर-तुक्का वाले वाक्य को, अगले वाक्य के साथ जोड़ कर देखें तो शायद आशय बेहतर स्पष्ट हो और वह यह कि पुरातत्व में अधिकतर प्राप्त अंशों के आधार पर ही प्राचीन स्थिति के चित्र को पूरा करने का प्रयास होता है और अन्य तथ्यों, प्राप्तियों के बाद वह कई बार न सिर्फ बदल जाता है, बल्कि पलट ही जाता है, तुक्का जैसा साबित हो जाता है.
Deleteबहुत ही लाजवाब जानकारी है। बहुत ही आनन्द आया पढ़कर।
ReplyDeletelajabab prastuti ... sir!!
ReplyDeletetathyaparak... post!
क्या गजब का लेख है राहुल जी। लेखनी चूमने का मन करता है!
ReplyDeleteन-सा हो... ... नया प्रयोग दिखा।
ReplyDeleteकुछ रोचक बातें भी लगीं जैसे 'हल अकेले-अकेले ही जोतते है किसी के साथ नहीं, क्योंकि कहीं भी, कभी भी और कुछ भी मिल जाने की आशा अब भी लोगों को होती है।'
या फिर
'गजानन अंबिका की गोद में सानंद रहते हैं।
करे कल्याण जो जन का उन्हें केदार कहते हैं॥
करे जो देवि को शोभित उसे श्रृंगार कहते हैं।
करे हर मन को जो मोहित उसे मल्हार कहते हैं॥'
... ... अब यह तर्ज कुछ ज्यादा ही चलताऊ हो गया है। खूब सुनाई पड़ता है।
काम बढिया है... छत्तीसगढ पर किताब बन गयी ही लगती है...
’न-सा’ को नसा\नशा मानकर पढ़ता हूँ तो और उचित लगता है - पुरातत्व नसा - कुछ ऐसा ही है न इस आलेख में कि धीमा-धीमा सा कुछ सुरूर की तरह होता है।
DeleteGood to know the local traditions associated with archaeology, I feel that if you do not take into account these local traditions, however vague these are, then archaeology of that place will be incomplete.
ReplyDeleteपोस्ट पढ़कर ऐसा लगता गया मानो पुरातन समय में पहुँच गये हों, गहन आलेख।
ReplyDelete'मलार' के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देने वाला रोचक पोस्ट!
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ भारत के अत्यन्त प्राचीन क्षेत्रों में से एक है किन्तु अलग राज्य बनने के पूर्व सदैव ही इस क्षेत्र की उपेक्षा होती रही है, जब यह क्षेत्र सी.पी. के अन्तर्गत था तब और जब यह मध्य प्रदेश के अन्तर्गत था तब भी इस क्षेत्र के प्राचीन गौरव तथा पुरातात्विक महत्व को अनदेखा ही रखा गया। ऐसे में छत्तीसगढ़ के गौरवशाली स्थानों के विषय में जानकारी देने वाली पोस्ट वास्तव में सराहनीय कार्य है। आशा है कि भविष्य में भी आप ऐसे पोस्ट प्रकाशित करते रहेंगे।
मेरी टिप्पणी गायब!
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढ़ कर तो मन बोल उठता है - क्या बात! क्या बात! क्या बात!
ReplyDeleteफिर से एक शोध-परक जानकारी.अभी हाजिरी लगा लीजिए,टीप बाद में !
ReplyDeleteGazab kee jaankaaree se labalab aalekh!
Deleteएक महत्वपूर्ण और पुरातत्व से जुडी विरासत के बारे में जानकारी मिली!
ReplyDeleteमूर्तियां भी बोलती हैं .मैने सुना है कि पातालेश्वर मंदिर के ऊपर सो रहे एक सिपाही को स्वप्न आया था कि नीचे देवता पड़े हैं .खुदाई के बाद वैसा ही निकला .बूढ़ीखार के बारे में बताया गया कि यह मल्हार नगर का शमशान क्षेत्र था .
ReplyDeleteपोस्ट पढ़ते हुए कई विचार स्फुलिंग कौंधे..पुरा इतिहास पर मेरा ज्ञान शून्य ही है मगर सहज बोध से अचानक ही कुछ काम /बेकाम की लालबुझककडी बातें निकल पड़ती हैं ..क्या कभी मल्ल शासकों का तो अधिपत्य नहीं था इस क्षेत्र में ..मल्ल से मल्लार ..मलार ...यह मल्हार बन गया जो एक प्रसिद्ध संगीत-राग है ..रोचकता लिए हुए है ....जो कुछ भी हो, यहाँ एक प्राचीन संस्कृति दबी सोयी है अभी भी .......रहस्योदघाटन की दरकार है ....
ReplyDeleteमल्हार का पौराणिक और सांस्कृतिक महत्त्व जानकर आश्चर्य हुआ कि अभी भी इस तरह की हमारी मौलिक विरासत बची हुई है.पुरातत्व विभाग और राज्य-प्रशासन को इसे एक पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित करना चाहिए.
ReplyDeleteइस क्षेत्र का संरक्षण भी उतना ही ज़रूरी है.
आपके इस आलेख से शायद सुप्त लोगों में कुछ चेतना आये !
पढ़ लिया लेकिन अभी मन नहीं भरा, कल कॉफ़े की चुस्कियों के साथ फ़िर से पढ़ेंगे।
ReplyDelete"हमारा इतिहास इसी तरह मिथक दंतकथाओं से जीवंत रहा है और हमारे सामाजिक परिवेश हमारी चेतना में, धर्म-संस्कृति से मिलकर एकरूप सपाट बुनावट कस जाती है कि उनके ताने-बाने को देख पाना सरल नहीं है, यही हमारी मानसिकता की उदार, संतुलित, वृहत्तर संसार की पृष्ठभूमि बनती है।"
ReplyDeleteइन पंक्तियों से उतना सहमत, जिससे ज्यादा हुआ ही नहीं जा सकता।
बहुत ही उम्दा सर
ReplyDeleteसही में पूरा इतिहास ही तीर तुक्के का खेल है.क्योकि अभी 2 घन्टे पहले हुई घटना का सभी उपस्थित लोग जब अलग अलग विवरण देते हो तब सदियों पुरानी बातो को आखिर किस आधार पर 100% सच कहा जा सकता.पर ये पोस्ट काफी अच्छी बनी है.शायद आपकी सबसे अच्छी पोस्ट में एक
ReplyDeleteअमूल्य!!! यही शब्द फूटता है कंठ से।
ReplyDeleteआपके प्रत्येक पोस्ट को पढ़ते हुए यही लगता है कि इन्हें पुस्तक की शक्ल में आ ही जाना चाहिये। और ऐसा होगा ही। जब ऐसा हो तो मेरी इच्छा है कि मैं उस पुस्तक का पहला खरीदार और पाठक बनूँ। मेरी हसरत पूरी तो करेंगे, न?
ReplyDeleteआपके प्रत्येक पोस्ट को पढ़ते हुए यही लगता है कि इन्हें पुस्तक की शक्ल में आ ही जाना चाहिये। और ऐसा होगा ही। जब ऐसा हो तो मेरी इच्छा है कि मैं उस पुस्तक का पहला खरीदार और पाठक बनूँ। मेरी हसरत पूरी तो करेंगे, न?
ReplyDeleteमल्हार के राजरानी में से किन्ही का नाम मुक्ता था क्या ?
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