• इतिहास की पढ़ाई का हिस्सा है, इतिहास-लेख (Historiography)। जिसने इतिहास की पाठ्यपुस्तकीय पढ़ाई न की हो या की हो और यह पाठ्यक्रम में न रहा हो, तो भी इतिहास पर आड़े-तिरछे सवाल मंडराते जरूर हैं और इतिहास को समझने-पकड़ने के लिए, अपनी सोच को, अपने चिंतन को, चाहे वह अनगढ़ हो, शब्द दे कर उसका धरन-धारण बेहतर हो पाता है।
• प्रकृति का रहस्य अक्सर उसकी अभिव्यक्ति में गहराता है, उसी तरह इतिहास, कई बार पुरातात्विक प्राप्तियों (OOP, out-of-place) और उनकी व्याख्या में। इतिहास अपने को दुहराए न दुहराए, उसके पुनर्लेखन की आवश्यकता बार-बार होती है। जीवन-वर्तमान, मृत्यु-इतिहास। तथ्य, सत्य और कथ्य का फर्क। मौत, फकत मौत के तथ्य का सत्य हत्या, आत्महत्या, फांसी-मृत्युदंड, दुर्घटनाजन्य या स्वाभाविक मृत्यु, कुछ भी हो सकता है और कथ्य- 'नैनं छिन्दन्ति ...' या 'हमारे बीच नहीं रहे' या 'अपूरणीय क्षति' या 'आत्मा का परमात्मा में मिलन' या 'चोला माटी का' या 'पंचतत्व में विलीन' या 'रोता-बिलखता छोड़ गए' या 'धरती का बोझ कम हुआ।
• पुराविद्, आधुनिक पंडित-वैज्ञानिक जैसे हैं, जिसकी बात पर कम लोग ही तर्क करते हैं, आसानी से मान लेते हैं, चकित होने की अपेक्षा सहित उसकी ओर देखते हैं। इस अपेक्षा की पूर्ति आवश्यक नहीं, बल्कि विश्वासजनित ऐसे अकारण मिलने वाले सम्मान के प्रति जवाबदेही तो बनती है।
• पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं। कई बार मुख्य धारा में आ कर वह आहत होने लगता है, तब लगता है कि हाशिये में रह कर उपेक्षित नहीं, बेहतर सुरक्षित है। वैसे अब हाशिये का इतिहास, अवर, उपाश्रयी, सबआल्टर्न शब्दों के साथ, अलग (प्रतिवादी) अवधारणा और दृष्टिकोण है।
• पुरातत्व का संस्कार- 'जो अब नहीं रहा' उसके लिए हाय-तौबा के बजाय 'जो है, जितना है', उसे बचाए रखने का उद्यम अधिक जरूरी है, क्योंकि बचाने के लिए भी इतनी सारी चीजें बची हैं कि प्राथमिकता तय करना जरूरी होता है। हर व्यक्ति के, अपने आसपास ही इतना कुछ जानने-बूझने को, सहेजने-संभालने को हैं कि क्षमता और संसाधन सीमित पड़ने लगता है। खंडहरों के साथ समय बिताते हुए पसंदीदा और जरूरी का टूटना, खोना, छूट जाना महसूस तो होता है, लेकिन इसको बर्दाश्त करने के लिए मन धीरे-धीरे तैयार भी होता जाता है। अवश्यंभावी नश्वर। जैसे डाक्टरों की तटस्थता कई बार निर्मम लगती है।
• इतिहास यदि आसानी से बनने लगे तो उसे समय की परतें आसानी से ढकने भी लगती हैं। ध्वंस भी सृजन की तरह, बिना शोर-शराबे के, समय के साथ स्वाभाविक होता है, बल्कि निर्माण कई बार रस्मी ढोल-ढमाके के साथ और उद्यम से संभव होता है। शाश्वत-नश्वर के बीच प्रलय-लय-विलय और प्रकृति-कृति-विकृति। ''प्रकृतिर्विकृतिस्तस्य रूपेण परमात्मनः।'' टाइम मशीन के दुर्लभ अनुभव की कल्पना, उत्खनन के दौरान काल में पर्त-दर-पर्त उतरने का वास्तविक अनुभव, सच्चा रोमांच। इतिहास जानना, भविष्य जानने के प्रयास से कम रोमांचक नहीं होता।
• सभ्यता का इतिहास, पहाड़ों की कोख-कन्दरा में पलता है। सभ्यता-शिशु, गिरि-गह्वर गर्भ से जन्मता है। ठिठकते-बढ़ते तलहटी तक आता है, युवा से वयस्क होते मैदान में कुलांचे भरने लगता है। (अगल-बगल वन-अरण्य में दर्शन, चिंतन, वैचारिक सृजन और शिक्षण होता रहता है।) वयस्क से प्रौढ़ होते हुए नदी तट-मुहाने पर आ कर, उद्गम से बहाव की दिशा में आगे बढ़ता जाता है, संगम पर तट भी बदल पाता है। अपने अलग-अलग संस्करणों में परिवर्तित होता कायम रहता है, कभी स्थान बदल कर, कभी रूप बदल कर। बहती नदी, समय का रूपक है?
• प्राकृत-पालि या लौकिक संस्कृत का दो हजार साल से भी अधिक पुराना साहित्य, जातक या पंचतंत्र पढ़ते हुए यह लगातार महसूस होता है कि संसार में यातायात, संचार साधनों, भौतिक स्वरूप में जो भी परिवर्तन आया हो, हमारी दृष्टि, हमारा मन वही है।
• हर कहानी की शुरुआत होती है- 'किसी समय की बात है, एक देश में राजा या राजकुमारी या किसान या व्यापारी या ब्राह्मण या सात भाई थे' या कि 'बहुत पुरानी बात है, फलां शहर में ...', ज्यों अंग्रेजी में 'लांग लांग अ गो / वन्स अपान अ टाइम, देअर वाज अ किंग ...' यानि हर कहानी बनती है देश, काल और पात्र से। 'देश', जड़ है, धरती की तरह, भूत-इतिहास। 'काल', अवधारणा है, हवा की तरह, संभावना-भविष्य। और 'पात्र', मनुष्य है, क्षितिज की तरह, आभासी-वर्तमान। जातक का जन्म फलां स्थान में, अमुक समय हुआ। तीन आयाम मिले, तस्वीर ने आकार ले लिया, बात की बात में रंग भरा और बन गई जन्म-कुंडली। बात ठहराने के लिए जरूरत होती है इन्हीं तीन, देश-काल-पात्र की। कहानी हो या इतिहास, होता इन्हीं तीन का समुच्चय है। जहां यह नहीं, वह शब्दातीत-शाश्वत।
• मानविकी - दर्शन, अध्यात्म, कला, भाषा, नैतिकता, मूल्य, मानवता - भविष्य।
सामाजिक विज्ञान - अर्थ, राजनीति, समाज, पूर्वापर काल - वर्तमान।
प्राकृतिक विज्ञान – भू-भौमिकी, गणना, भौतिकी - भूत।
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• इतिहास, विषय के रूप में एक अनुशासन है और प्रत्येक अनुशासन का विशिष्ट होते, उसका महत्व होता है तो उसकी अपनी सीमाएं भी होती हैं, जिस तरह किसी अपराधी को सबूतों के अभाव में सजा नहीं दी जा सकती, उसी तरह पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इतिहास में भी, विश्वास और मात्र निजी सूचना के आधार पर, स्थापनाएं मान्य नहीं होतीं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि अपने विश्वास को इतिहास की कसौटी पर अनावश्यक कसने का प्रयास न करें, यह उसी तरह अनावश्यक है, निरर्थक साबित होगा जैसे अपनी मां के हाथ बने व्यंजन के सुस्वादु होने, अपनी पसंद को प्रमाणित करने का तर्क और प्रमाण देना। आशय यह कि किसी विषय की सीमा उसकी दिशा निर्धारित करती है, मर्यादा उसे संकुचित कर उसमें सौंदर्य भरती है।
यह स्थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का पहला हिस्सा (दूसरा हिस्सा – अगली पोस्ट में)
संबंधित पोस्ट - साहित्यगम्य इतिहास।
'जनसत्ता' 23 दिसंबर 2013 के
संपादकीय पृष्ठ पर यह पोस्ट |
क्या बात...
ReplyDeleteराहुल जी, ये पोस्ट मुझे सबसे अच्छी लगी... आज तक की आप की सभी सुन्दर पोस्ट में शिखर पर... मार्वलस...
ReplyDeleteआपने सच ही कहा पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं। कई बार मुख्य धारा में आ कर वह आहत होने लगता है, तब लगता है कि हाशिये में रह कर उपेक्षित नहीं, बेहतर सुरक्षित है।
ReplyDeleteआपके सानिध्य में कुछ बातें समझ में आने लगी हैं फिर भी इतिहास या पुरातत्व पर कुछ कहने की औकात नहीं पड़ना और देखना भाता है आपका यह लेख सचमुच हमारे जैसे विद्यार्थी के लिए संग्रहनीय और अनुकरणीय है , तथ्यगत सूक्ष्म बातों के लिए नमन स्वीकारें
एक एक अनुच्छेद अपने आप में समर्थ है और पूरी व्याख्या के साथ लिखा जा सकता है। हमारा मन अभी भी वही चाहता है जो सदियों पहले लिख दिया गया है..सच है।
ReplyDeleteप्रागैतिहासिक कालखण्ड की वर्तमान एवं भविष्य से तारतम्यता हमेशा है व रहेगी। अप्रत्यक्ष रुप से हम इस तारतम्यता में सम्मिलित भी हैं। परन्तु इतिहास तथा इससे सम्बद्ध शोध, अनुसन्धान, खोज और शोधार्थी, अनुसन्धानकर्ता, खोजकर्ता के बाबत स्वाभाविक संभाषणों एवं प्रदर्शनों की अनदेखी से दु:ख होता है। यह वैसे ही है कि हम घर में रहते हैं पर उसके निर्माण की प्रक्रिया से कितना प्रभावित होते हैं....निसन्देह बहुत कम या मन ही मन। आवश्यकता इतिहास को व्यापक स्तर पर रुचिकर बनाने की है।
ReplyDeleteआपके विचार कालखण्डों के सन्दर्भ में अत्यन्त संवेदित हैं।
अर्थात् आगत और विगत के बीच मे जो शान्ति बनती है वही इतिहास का निर्माण करती है।
ReplyDeleteइतिहास बोध और लेखन पर एक विद्वतापूर्ण आलेख!
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ReplyDeleteचकित कर देने वाले आपके चिन्तन-मनन को प्रणाम। कोटिश: प्रणाम।
ReplyDeleteकई साल के पुरुत-पुरुत माढ़े आय वैष्णव जी, सादर आभार.
Deleteसार्थक आलेख!
ReplyDeleteश्री संजीव तिवारी ई-मेल परः
ReplyDeleteपुरातत्ववेत्ता ल बने फलियारे हावव भईया.
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ReplyDeleteआदरणीय सिंह साहब को सादर अभिवादन सहित;
ReplyDeleteजिस प्रकार कार्यालयीन काज में पीछे देख आगे बढ़
मतलब पूर्व में किये कार्य का अनुसरण करते चल की धारणा के साथ
वर्तमान आवश्यकताओं के मिलाप के साथ इतिहास का महत्त्व है
उसी प्रकार पुरातत्व के बारे में जानना भी अतिमहत्वपूर्ण है।
बहुत ही सुन्दर आलेख ......आभार!
अब्बड़ अकन बरा-सोंहारी ह तुँहर झाँपी म भराय हे। बने करत हो, एक-एक ठिक ल परसत हवव। सबो कोई ल एके सँग परस देहू त एला खावँ कि एला खाँव कस हो जाही। तभो ले आज नहीं त काली त परसे च्च लागिस हे, न? किताब के रूप म आही त सिरतोन म बहुँते मजा आही। अब जादा परीक्छा झन लेवव, भाई। फौरन ले पेसतर पुस्तक परकासित करे के उदिम कर डारव।
ReplyDeleteअब्बड़ अकन बरा-सोंहारी ह तुँहर झाँपी म भराय हे। बने करत हो, एक-एक ठिक ल परसत हवव। सबो कोई ल एके सँग परस देहू त एला खावँ कि एला खाँव कस हो जाही। तभो ले आज नहीं त काली त परसे च्च लागिस हे, न? किताब के रूप म आही त सिरतोन म बहुँते मजा आही। अब जादा परीक्छा झन लेवव, भाई। फौरन ले पेसतर पुस्तक परकासित करे के उदिम कर डारव।
ReplyDeleteफौरन ले पेसतर पुस्तक परकासित करे के उदिम कर डारव। ........
Deletesahi kahe hain bhaiji aapne.....
pranam.
@ पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं
ReplyDeleteवाकई ...
हमारे देश में इस विभाग के कार्यान्वन के लिए जो धन आवंटित होता है शायद उसका 100 गुना भी कर दिया जाए तो भी कम होगा ! धरोहर ,परम्परा और संस्कृति की बाते करने वाले, अगला कदम लेना जानते ही नहीं :(
आभार और शुभकामनाएं !
बचपन में मैं कहता था कि मैं पुरातत्ववेत्ता बनुंगा, बाद में दिशा ही नहीं मिली और समय के प्रवाह में कुछ यूँ बहा कि पता नहीं कहाँ कहाँ बहता चला गया। आपकी पोस्ट का इंतजार रहता है पुरातत्व में डूबने के लिए, सुंदर प्रस्तुति
ReplyDelete"प्रकृतिर्विकृतिस्तस्य रुपेण परमात्मनः।" "देश" जड है , " काल " अवधारणा है और
ReplyDelete" पात्र " मनुष्य है। कहानी हो या इतिहास , इन्हीं तीन का समुच्चय है , जहां यह
नहीं - शब्दातीत-शाश्वत । सम्यक एवँ सटीक शब्द-संयोजन । मैं इतिहास की विद्यार्थी नहीं
हूँ , मैं नहीं जानती थी कि इतिहास भी इतना रोचक हो सकता है । अनिवर्चनीय, अद्भुत ।
मजा आ गया ।