बीसेक साल पहले मेरे इर्द-गिर्द जिन पुस्तकों की चर्चा होती, वे थीं-
# Dr. Eric Berne की Transactional Analysis in Psychotherapy, Games People Play और What Do You Say After You Say Hello?
# Muriel James, Dorothy Jongeward की Born To Win
# Thomas A Harris की I'm OK, You're OK और
# AB Harris, TA Harris की Staying OK
# Claude Steiner की Scripts People Live आदि।
इनमें से कुछ सुनी, देखी, उल्टी-पल्टी, कुछ पढ़ी भी, इससे जो नई बात समझ में आई, तब लिख लिया, यह वही निजी नोट है, इसलिए इसमें प्रवाह और स्पष्टता का अभाव हो सकता है, लेकिन इस विषय से परिचितों के लिए सहज पठनीय होगा और अन्य को यह पढ़ कर, इस क्षेत्र में रुचि हो सकती है।
व्यक्तित्व के रहस्य को समझने और उसे सुलझाने का वैज्ञानिक तरीका, टीए-ट्रान्जैक्शनल एनालिसिस या संव्यवहार विश्लेषण, मानव के जन्म से उसकी विकासशील आयु को आधार बनाकर व्यवहार को पढ़ने का प्रयास करता है। व्यक्ति के आयुगत विकास वर्गीकरण में 1. उसका स्वाभाविक निश्छल बचपन, 2. अनन्य शैतानी भरा बचपन, फिर 3. पारिवारिक अनुशासन में अभिभावकों के निर्देशों का पालन करता हुआ बचपन होता है। इस क्रम में पुनः 4. तर्कशील, व्यावहारिक, समझदार वयस्क और फिर 5. अभिभावकों के अनुकरण से सीखा उन्हीं जैसा अनुभवजन्य व्यवहार तथा अंततः 6. दयाशील पालनकर्ता अभिभावक, देखी जाती हैं।
1. Natural Child (NC) - प्यारा, स्नेहमय, मनोवेगशील, इंद्रियलोलुप, सुखभोगी, अ-गोपन, जिज्ञासु, भीरु, आत्म-केन्द्रित, आत्म-आसक्त, असंयमी, आक्रामक, विद्रोही।
2. Little Professor (LP) - अन्तर्दृष्टि-सहजबुद्धिवान, मौलिक, रचनाशील, चतुर-चालाक।
3. Adapted Child (AC) - आज्ञापालक, प्रत्याहारी, विलंबकारी-टालू।
4. Adult (A) - यथार्थवादी, वस्तुनिष्ठ, तर्क-युक्ति-विवेकपूर्ण, हिसाबी, व्यवस्थित, संयत, स्वावलम्बी।
5. Prejudicial Parent (PP) - अनुभवी, नियंत्रक, संस्कार-आग्रही।
6. Nurturing Parent (NP) - हमदर्द, दयावान, संरक्षक, पालक-पोषक।
डॉ. एरिक बर्न द्वारा विकसित इस ढांचे के प्राथमिक संरचनात्मक विश्लेषण में व्यक्तित्व का 1, 2 व 3 Child (C)- शिशु // 4 Adult (A)- वयस्क // 5 व 6 Parent (P)- पालक होता है, जिनकी व्यवहार-शैली संक्षेप में शिशु- महसूसा-felt // वयस्क- सोचा-thought // पालक- सीखा-taught कही जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण सहायक हो सकता है- शिशु का कथन होगा- ''मुझे भूख/नींद लगी है'', वयस्क का ''मेरे/हमारे खाने का/सोने का समय हो गया'', तो पालक कुछ इस तरह कहेगा- ''हमें खाना खा लेना/सो जाना चाहिए।'' चाहें तो कभी बैठे-ठाले स्वयं पर आजमाएं, घटाकर देखें।
उक्त सभी व्यवहार, जन्म से नहीं तो लगभग बोलना सीखने से लेकर जीवन्त-पर्यन्त, प्रत्येक आयु दशाओं में देखे जा सकते हैं, यानि बच्चे में वयस्क और पालक भाव तो बुढ़ापे के साथ बाल-भाव का व्यवहार सहज संभव हुआ करता है। इन्हीं भावों की कमी-अधिकता और संतुलन से मानव का व्यवहार, उसकी अस्मिता-स्व निर्धारित करता है। मानव व्यवहार का इनमें से कोई गुण अच्छा या बुरा नहीं, बल्कि इनका संतुलन अच्छा और असंतुलन बुरा होता है इसलिए व्यवहार के माध्यम से व्यक्तित्व की असंतुलित स्थिति की पहचान कर, उसका विश्लेषण टीए है, जो विश्लेषण के पश्चात् संतुलन का दिग्दर्शन करने तक, पृष्ठभूमि व प्रक्रिया में विज्ञान सम्मत और सुलझा होने के साथ-साथ संवेदनशील और सकारात्मक भी है। जैसा कि इसमें स्पष्ट किया जाता है- ''समय होता है आक्रामक होने का, समय होता है निष्क्रिय होने का, साथ रहने का/अकेले रहने का, झगड़ने का/प्रेम करने का, काम का/खेलने का/आराम का, रोने का/हंसने का, मुकाबला करने का/पीछे हटने का, बोलने का/शांत रहने का, शीघ्रता का/रुकने का।''
फ्रायडवादी मनोविज्ञान का इड, इगो, सुपर इगो (अहम्, इदम्, परम अहम्) तथा डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन से शिव खेड़ा तक, व्यवहार विज्ञानियों के बीच (यहां मनोविज्ञान की पाठ्य पुस्तकें हैं और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास कुरु कुरु स्वाहा भी) विकसित टीए इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करते हुए इन्हें सैद्धांतिक स्पष्टता प्रदान कर, इसके व्यावहारिक, अनुप्रयुक्त और क्रियात्मक पक्ष के विकास से अपनी उपयोगिता के क्षेत्र में असीमित विस्तार पा लेता है। वह क्षेत्र जहां हम हैं, हमारा समाज है और जिसमें पागलखाने हैं, इसमें एक ओर से मनोचिकित्सकों की कड़ी जुड़ी तो दूसरी ओर समाजसुधारक जैसे वर्ग के लोग सक्रिय हुए, इन्हें अभिन्न करने के लिए, या इसे एक ही श्रृंखला की कड़ियां दिखाने के लिए मानव जाति को परामर्शदाता-Counselors की जरूरत थी, इस महती उत्तरदायित्व को पूरा करने हेतु व्यापक और गहन टीए की वैज्ञानिक अवधारणा का स्वरूप बना है।
ऐसा नहीं कि परामर्शदाता की जरूरत, बीच की कड़ी की आवश्यकता का आभास पहले नहीं था। व्यक्ति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध के निरूपण का प्रयास सदैव किया जाता रहा है। आदिम समाज से आज तक, मनुष्य ने जादू-टोना, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, षोडशोपचार-कर्मकाण्ड, ज्योतिष-सामुद्रिक, मुखाकृति-हस्तलिपि और बॉडी लैंग्वेज जैसे कितने रास्ते खोजे, जो कमोबेश परामर्शदाता की आवश्यकता पूर्ति का माध्यम बने हैं। इन्हें प्रश्नातीत प्रभावी और लाभकारी मानें तो भी इनकी विधि या प्रक्रिया में तार्किक व्याख्यापूर्ण वैज्ञानिक स्पष्टता का अभाव ही रहा। इन उपयोगी किन्तु उलझे/अस्पष्ट तरीकों की व्याख्या बदल-बदल कर आवश्यकतानुसार कर ली जाती रही। ऐसा नहीं कि टीए में उलझाव नहीं है, पर वह उलझाव अज्ञान, अंधविश्वास या कमसमझी का नतीजा नहीं, बल्कि मानव प्रकृति और व्यवहार की जटिलता के कारण है, यानि मानव व्यवहार को दो-दूनी चार जैसा स्पष्ट न तो समझा जा सकता और न ही समझाया जा सकता, किन्तु इसे टीए की मदद से इतना स्पष्ट किया जा सकता है जो एक-दूसरे को लगभग एक जैसा समझ में आ सके।
यूं तो टीए की उपयोगिता और अनुप्रयोग का क्षेत्र अधिकतर कल-कारखाने, कार्यालय अथवा सार्वजनिक संस्थानों के प्रबंधन से जुड़ा है, क्योंकि मानव-संसाधनों को विकसित करने का तीव्र आग्रह यहीं होता है, किन्तु परामर्शदाता के रूप में टीए की आवश्यकता पूरे समाज और समाज की प्रत्येक इकाई को है, और टीए की पृष्ठभूमि में वह विस्तार और गहराई एक साथ महसूस की जा सकती है जो ऐसे धार्मिक ग्रंथों में, जिनमें मानव के जीवन-मूल्यों, नीति और सिद्धांतों को लगभग काल-निरपेक्ष स्थितियों में व्याख्यायित कर धर्म के व्यावहारिक पक्षों का प्रणयन होता है, फलस्वरूप टीए में वैज्ञानिक तटस्थता के साथ नैतिक और संवेदनशील मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं होता।
कहा जाता है कि जो टीए की थोड़ी-बहुत भाषा सीख लेते हैं वे कभी बच्चों को मिल गए नए खिलौने की तरह इसका खिलवाड़ करने लगते हैं तो कभी अपना ज्ञान बघारते हुए अपने आसपास के लोगों का विश्लेषण शुरू कर देते हैं और कई बार दूसरों से इसकी भाषा का उपयोग कर, परोक्षतः उनकी कमियों का अहसास कराते हुए नीचा दिखाने और प्रभावित करने का भी प्रयास करते हैं, जो उचित नहीं है (मंत्रों के नौसिखुआ के लिए निषेध की तरह?)। टीए की भाषा और जानकारी का सकारात्मक उपयोग स्वयं की जागरूकता और परिवर्तन तथा दूसरों की ऐसी ही मदद के लिए किया जा सकता है। सचेत प्रयास रहा कि इस नोट को पोस्ट बनाते हुए उक्त नैतिकता का पालन हो।
ऊपर, ''कुरु कुरु स्वाहा'' का जिक्र है, इसके नायक में इड, इगो, सुपर इगो या शिशु, वयस्क, पालक संयोग का मजेदार चित्रण है, जिन्होंने न पढ़ा हो उन्हें स्पष्ट करने के लिए और जो पढ़ चुके हों उन्हें स्मरण कराने के लिए यह अंश-
''मैं साहब, मैं ही नहीं हूं। इस काया में, जिसे मनोहर श्याम जोशी वल्द प्रेमवल्लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्ली अल्मोड़ा, हाल मुकाम दिल्ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए है। एक हैं जोशी जी। ... इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर।'' फिर यह भी कहा गया है- ''इसमें वर्णित सभी स्थितियां, सभी पात्र सर्वथा कपोल-कल्पित हैं। और सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''
मनुष्य का व्यवहार बहुत जटिल है -कितना मुश्किल है उसके नियमन के लिए कोई फार्मूला बनाना
ReplyDeleteव्यवहार तो जटिल है ही, मुझे तो आलेख भी जटिल ही लगा। एक बार फिर से पढकर समझने का प्रयास करूंगा।
ReplyDeleteकुरु कुरु स्वः पढूंगा.
ReplyDeleteदुबारा पढेंगे जी । बाप रे बाप आप लोग कितना जटिल विषय को इतनी आसानी से लिख देते हैं , नमन आपको और आपके श्रम को । हिंदी लेखन में इसी तथ्यात्मक लेखों और ऐसे ही ब्लॉग साथी की बहुत जरूरत है । भविष्य के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteपोस्ट पर टिप्पणी दोबारा पढने के बाद पुन: दूंगा । शुक्रिया
मानव व्यहार की जटिलता के साथ लेख भी जटिल है . टी ए अभिप्राय समझ न सका . कृपया बतायें
ReplyDeleteमुझे तो यह सहज लगा
ReplyDeleteबहुत जटिल विषय पर प्रवाहपूर्ण लेखिनी चली है....
ReplyDeleteटीप बोले तो : उपस्थित श्रीमान
कुछ समझ में आया। लेकिन ये शिव खेड़ा जैसे लोग जो मात्र वक्ता हैं, व्यवहार- विज्ञानी कहलाने लायक नहीं लगे, मेरा मानना है ऐसा, इसे अन्यथा न लें।
ReplyDelete'जो टीए की थोड़ी-बहुत भाषा सीख लेते हैं वे कभी बच्चों को मिल गए नए खिलौने की तरह इसका खिलवाड़ करने लगते हैं तो कभी अपना ज्ञान बघारते हुए अपने आसपास के लोगों का विश्लेषण शुरू कर देते हैं और कई बार दूसरों से इसकी भाषा का उपयोग कर, परोक्षतः उनकी कमियों का अहसास कराते हुए नीचा दिखाने और प्रभावित करने का भी प्रयास करते हैं'...
महत्वपूर्ण!
हाँ, आपकी लिखावट भी अच्छी है।
@ श्री चंदन कुमार मिश्र
ReplyDeleteशिव खेड़ा के प्रति मेरा कोई आग्रह नहीं है, क्या ऐसा झलक रहा है पोस्ट में? लेकिन यह ध्यान रहे कि जिसे सुनने लोगों की भीड़ टूट पड़े उसमें और कोई गुण हो न हो मानव व्यवहार की बेहतर समझ तो जरूर होती है.
पोस्ट में कुछ ठीक लगा और आपने अभिव्यक्त किया, आभार.
आलेख की सबसे रोचक बात है आपकी स्थापना कि आरंभिक समय में परामर्शदाता के स्थानापन्न रास्ते , जादू टोना,झाड़फूंक...मुद्राकृति हस्तलिपि ,बाडी लैंग्वेज वगैरह वगैरह थे ! तब की अस्पष्ट अवैज्ञानिक व्यवहार विश्लेषण विधि में पारंगत परामर्शदाता मानवीय व्यवहार के विश्लेषण में परा-जागतिक / अधि-प्राकृतिक / अधि-सावयवी तत्वों को भी सम्मिलित करते थे ! कहने का आशय यह है कि उन दिनों मनुष्य के व्यक्तित्व में ईश्वरीय प्रभाव को जोड़कर ही विश्लेषण और निदानात्मक यत्न किये जाते थे !
ReplyDeleteआगे चलकर विकसित संव्यवहार विश्लेषण विधि में से ईश्वरीय तत्व का विलोपन दिखाई देता है और विधिगत स्पष्टता भी ,संभवतः इसी कारण से इन दोनों समयों के परामर्शदाताओं में एक शब्द का अंतर आप चस्पा करते हैं कि अवैज्ञानिक / वैज्ञानिक समझ !
जैसा कि आलेख इस यथार्थ को स्वीकार करता है कि मानवीय व्यवहार अत्यंत जटिल है और इसे दो दुनी चार की तर्ज़ पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता , इसका एक मतलब यह भी है कि टीए एक सम्पूर्ण विधि /अंतिम विधि नहीं है जो मानवीय व्यवहार पर अचूक /शुद्ध निर्णय ले सके , सो मैं कल्पना करता हूँ कि और भी आगे चलकर संव्यवहार विश्लेषण की कई नई विधियां विकसित होंगी जिनकी तुलना में टीए को लगभग वही संज्ञा दी जा सकेगी जो कि टीए बनाम जादुई परामर्शदाताओं के मसले में फिलहाल जादुई परामर्शदाताओं को दी जाती है :)
उस समय नि:संदेह टीए की भाषा के जानकार और बच्चों से खिलवाड करने वाले और परोक्षतः व्यक्तियों को नीचा दिखाने वाले परामर्शदाता स्वयं भी हेय दृष्टि से देखे जायेंगे :)
मेरी प्रतिक्रिया को मानवीय व्यक्तित्व की जटिलताओं की भूलभुलैयों में खोये हुए एक परामर्शदाता की राय माना जाए जो बाद में अप्रासंगिक सिद्ध होने से बचने के लिए कोई विश्लेषण करने की हिम्मत नहीं करता और अपने विषय से यह जानकर भी द्रोह करता है कि मानवीय व्यवहार से सम्बंधित विश्लेषण प्रणालियों को अद्यतन होते रहना होगा इसलिए अपने काल के अनुरूप विधियों से निर्णय तक पहुँचने में लज्जा कैसी :)
एक अच्छे आलेख के लिए बधाई !
@ श्री अली जी-
ReplyDeleteयह एक स्वतंत्र पोस्ट की तरह प्रस्तुत किया गया है, लेकिन पिछले तीन सहित यह पोस्ट आपस में संबंधित हैं.
आपकी टीप से मंत्र-परामर्श के परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व विश्लेषण के कुछ बिन्दु बेहतर स्पष्ट हो पा रहे हैं, जैसा इस पोस्ट से संभव नहीं हो सका था, आपके इस ''मानवशास्त्रीय'' सहयोग के लिए विशेष आभार.
"टिप्स हिंदी" में ब्लॉग की तरफ से आपको नए साल के आगमन पर शुभ कामनाएं |
ReplyDeleteटिप्स हिंदी में
ख़ूबसूरत प्रस्तुति, बधाई.
ReplyDeleteनूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ मेरे ब्लॉग "meri kavitayen " पर आप सस्नेह/ सादर आमंत्रित हैं.
नहीं समझ में आता कि हम कहाँ थे और धीरे धीरे कहाँ पहुँच जायेंगे। अत्यन्त रोचक विश्लेषण
ReplyDeleteयह आलेख बहुत उपयोगी रहेगा. मैंने भी पढ़ी या पुस्तक पलटी थी. बहुत प्रभावित भी हुआ था. टी ये, प्रशिक्षक के रूप में मुझे अत्यधिक सहायक रही. "टीए की भाषा और जानकारी का सकारात्मक उपयोग स्वयं की जागरूकता और परिवर्तन तथा दूसरों की ऐसी ही मदद के लिए किया जा सकता है" इस वाक्यांश में निहित भावना को भी आत्मसात कर लिया था.
ReplyDelete..........
ReplyDelete..........
..........
nav-varsh ke subhkamnayen......
pranam.
rochak aur pathaniy.
ReplyDeleteआदरणीय राहुल जी, मेरे मनोनुकूल सामग्री. रोचक और पठनीय, साधुवाद!
ReplyDeleteवाकई मानव-मन को समझने में टीए यानी 'Transactional Analysis'(संव्यवहार-विश्लेषण) की भूमिका महतवपूर्ण है. उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, सरल और सुगम बनाकर शब्दों में उसकी अभिव्यक्ति. हर व्यक्ति अपने व्यवहार को एक खास ढंग से साधता है. अपने सामाजिक जीवन में उससे काम लेता है. व्यवहार के तौर-तरीके देखकर प्रायः अमुक व्यक्ति के आचरण, प्रकृति और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बारे में हम ठीक-ठीक अनुमान लगा लेते हैं. दरअसल, बोलने के साथ ही व्यक्ति सामने वाले के लिए एक ऑब्जेक्ट हो जाता है जिसका श्रोता के मानस पर स्फूर्त प्रभाव पड़ता है. कई दफा किसी के बिना बोले ही उसकी देहभाषा सचबयानी का कच्चा-चिठ्ठा खोल देती है, और तब हम कहते हैं-माफ़ कीजिये, जनाब! अब आपको कुछ और कहने की जरुरत नहीं है.
बाद बाकी, फिर कभी.
मुझे भी बडी जटिल लगी यह पोस्ट। दो बार, ध्यानपूर्वक (जी हॉं, ध्यानपूर्वक, इतना ध्यानपूर्वक कि 'टीए' का आशय समझने के लिए तीन-चार बार पहले अनुच्छेद पर गया) पढने के बाद भी लगा कि कुछ नहीं पढा।
ReplyDeleteअनुभव हुआ कि मुझमें सुधार की पर्याप्त गुंजाइश बनी हुई है।
कुछ माह पहले ऑनलाईन सपोर्ट देने के लिये एक उत्साही युवा आई टी प्रोफ़ैशनल हमारी ब्रांच में आया हुआ था और वो अभी तक की सबसे जटिल किसी मशीन के बारे में दावा कर रहा था। उन दिनों अपना असहमति वाला मोड ऑन था तो हमने उससे कहा था कि इस दुनिया में सबसे जटिल मशीनरी इंसानी दिमाग(मानव स्वभाव के कारण) ही है। कौन, कब, कहाँ, किसके साथ कैसा व्यवहार करेगा, नहीं कहा जा सकता। विषय जितना जटिल है, उतना ही आकर्षित भी करता है। कुछ प्रैक्टिकल उदाहरण लेते हुये एक पोस्ट तैयार कर रहा था, लेकिन अभी अधूरी सी है तो फ़िलहाल इसी कमेंट से अपनी भावना व्यक्त कर रहा हूँ। आपकी हर पोस्ट से आपकी लेखनी के और ज्यादा कायल होते जाते हैं, टी.ए. पता नहीं क्या सुझायेगा:)
ReplyDeleteआपको नव-वर्ष 2012 की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
ReplyDeleteNavavarsh agaman par hardik badhai or shubhakamanaye...abhaar
ReplyDeleteफुर्सत से पढ़ने लायक आलेख
ReplyDeleteनववर्ष की शुभकामनायें
टी ए से संबंधित कई किताबें मेरी नजरों से भी गुजरी हैं। किशोरावस्था में इन्हें पढ़ने का चस्का लग गया था। स्वेट मार्डेन तब टी ए के प्रमुख लेखक थे। अब इस विषय पर नई किताबों को पढ़ता हूं तो कुछ भी नयापन नहीं लगता।
ReplyDeleteटी ए को समझने का एक स्रोत और है- इसके बेहतरीन उदाहरण जानने के लिए महान उपन्यासकारों के उपन्यासों को पढ़ने से ज्यादा अच्छा तरीका दूसरा नहीं हो सकता। टी ए की मनोवैज्ञानिक प्रविधियों से कहीं बेहतर विश्लेषण मैंने इन उपन्यासों में पाया है। आपने मनोहर श्याम जोशी का उल्लेख किया ही है। इस कड़ी में बीसों नाम हैं- अमृता प्रीतम, आचार्य चतुरसेन, शिवाजी सावंत, बिमल मित्र, अमृतलाल नागर, शिवानी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, शरतचंद्र,.......।
बहुत अच्छा आलेख.....
ReplyDeleteनववर्ष मुबारक हो।
बहुत अच्छा........
ReplyDeleteइस तरह की किताबें लिखते-लिखते लेखक लोग इतना आड़ा-तिरछा कर देते हैं कि किताबें, किताबें न लग कर अत्यंत क्लिष्ट भाषा में लिखे धर्मग्रंथ लगने लगती हैं. वैसे I'm OK, You're OK अपने समय की बेस्ट सेल्लर किताब रही थी, जो कि सेल्फ हेल्प किताबों में ज़्यादा नहीं होता है..
ReplyDeleteउपयोगी विषय पर विश्लेषण तथा व्यक्तित्व निर्माण -विकास से आप के की बोर्ड का जूझना अच्छा लगा .
ReplyDeleteChachu, 'Games People Play', 'Staying OK', 'I m OK u r OK' , 'Born to
ReplyDeleteWin' books maine padhi hai. Pahle jab padhi thi, to attractive lagi
thi, P-A-C ko enjoy bhi kiya, par ab pata nahi kyun, kuchh uthli si
mahsus hone lagi hain.
Vaise, day-to-day psychology k hisaab se bahut achchhi kitaaben hain,
P-A-C se self observation ya 'drashta bhaav' jaisi kuchh 'shuruwaat'
to hoti hai, vyakti atleast apni so-called personality ki analysis to
karna shuru karta hi hai, jo laabhdayak hoti hain, par ek sthiti aati
hai, jab personality bhi khatm hoti hai, individuality bhi dissolve
hoti hai, ego bhi destroy hota hai aur sab kuchh totally disappear ho
jata hai uni-verse me... disappeara universica, par shayad wo alag
stage ki baatein hain.
Psychology is temporarily helpful till ego exists, it cannot solve the
problems permanently because ego exists. Something exists beyond
psychology, which also needs to be understood...
Anyway, it is true, to a great extent, that one who knows TA will,
possibly, be a better parent than one who knows not.
प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । नव वर्ष की अशेष शुभकामनाएं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteरोचक आलेख के साथ साथ नव वर्ष की बधाई....
ReplyDeleteसारगर्भित पोस्ट ......
ReplyDelete@ श्री बालमुकुंद जी-
ReplyDeleteदैनंदिन जीवन व्यापार और व्यवहार के लिए उपयोगी टीए से अध्यात्म का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है.
रोचक विश्लेषण सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteबहुत सुंदर,
नया साल सुखद एवं मंगलमय हो,..
आपके जीवन को प्रेम एवं विश्वास से महकाता रहे,
मेरी नई पोस्ट --"नये साल की खुशी मनाएं"--
आपका ब्लॉग पढ्कर बहोत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉग
हिन्दी दुनिया ब्लॉग
बने पोस्ट हे गा, नवा बछर के गाड़ा गाड़ा बधई।
ReplyDeleteपोस्ट थोडा कठिन लगा. शायद अभी मन नहीं लगा पढ़ने में... रुचिकर जरूर है. किसी और दिन... एक बार फिर से पढ़ने लायक.
ReplyDeleteरोचक और जिज्ञासु लेख
ReplyDeleteनव वर्ष की बधाई
मानव व्यहार पर मनोविज्ञान .. प्रभावशाली अभिव्यक्ति .. सुंदर लेख ..
ReplyDeleteनये वर्ष 2012 पर .. ढेर सारी शुभकामनाएं .. ।
गाड़ा-गाड़ा बधई ..
मानव व्यवहार को बूझता बढ़िया आलेख .नव वर्ष मुबारक .
ReplyDeleteनव वर्ष पर आपको और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteप्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट " जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी" पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । नव-वर्ष की मंगलमय एवं अशेष शुभकामनाओं के साथ ।
ReplyDeleteवाकई मानव व्यवहार का सटीक विश्लेषण सहज नहीं. एक महत्वपूर्ण विषय को साझा करने का धन्यवाद.
ReplyDeleteक्षमा करियेगा कि देर से यह लेख पढ़ पाया व प्रतिकृया दे सका। किंतु लेख पढ़कर बड़ा आनंद आया, व किसी भी व्यक्तित्व को देखने व समझने के लिये नया दृष्टिकोण व दानकारी मिली।
ReplyDeleteबहुत बढिया,मन की भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति ......
ReplyDeleteWELCOME to--जिन्दगीं--
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ReplyDeleteविषय रुचिकर है ...कदाचित कुछ लोगों के लिए क्लिष्ट भी.....अस्तु, राहुल जी की ही बात को सहज बोधगम्य बनाने की दृष्टि से शब्दान्तरित भर करने का प्रयास कर रहा हूँ.
ReplyDeleteमानव व्यवहार का अध्ययन बहुत ही जटिल विषय है. हम अपने नित्य जीवन में विभिन्न व्यक्तित्व वाले लोगों से मिलते रहते हैं. कोई हमें प्रभावित करता है, कोई रुष्ट, तो कोई उत्तेजित ......आदि. हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करने ...उसे विकसित करने वाले कई घटक होते हैं, यथा - व्यक्ति का बौद्धिक स्तर, घर के अन्य लोगों का व्यवहार, समाज के लोगों का व्यवहार, परिस्थितियाँ, परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति की सहज प्रतिक्रिया, आर्थिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, शारीरिक स्थिति, शासन और समाज की व्यवस्थाएं ...आदि.....
कभी हमें असंतुलित व्यवहार वाले लोगों से भी जूझना पड़ता है. ऐसे लोगों के लिए विशेष परामर्श की आवश्यकता होती है. यह देखा गया है कि परामर्श के द्वारा किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकसित ...संशोधित किया जा सकता है ...यद्यपि यह सदैव संभव नहीं हो पाता ...किन्तु हम सकारात्मक सम्भावनाओं की बात कर रहे हैं.
१९५० के दशक में कनाडाई मूल के डॉक्टर एरिक बर्नी ने फ्रायड के अध्ययनों को और आगे बढाते हुए मानव संव्यवहार के विश्लेषण का एक तार्किक स्वरूप प्रस्तुत किया. जिसे ट्रांजैक्शनल एनालिसिस कहा गया . इसे ही संक्षेप में T .A . कहते हैं. फ्रायेड ने मानव व्यक्तित्व के तीन स्तरों के बारे में बताया - Id , ego , और Supper ego . बर्नी ने इन्हें क्रमशः Child , Adult और Parent नाम दिया. प्राचीन भारतीय चिंतकों ने इन्हें क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण कहा है. यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि भारतीय मनीषियों ने पश्चिमी चिंतकों की तरह मनोविज्ञान को पृथक विषय की तरह लेकर उसका अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया है किन्तु उनके उपदेशों में मानव व्यवहार का सूक्ष्म विश्लेषण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है. गीता और रामायण भी तो मानव व्यवहार का लेखा-जोखा ही प्रकट करते हैं.
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा दिए गए ये तीनो नाम वस्तुतः हमारी बौद्धिक स्थिति के तीन स्तर हैं. हर व्यक्ति में न्यूनाधिक रूप में इन तीनो स्थितियों का सम्मिश्रण पाया जाता है. इस सम्मिश्रण में एक संतुलन की अपेक्षा की जाती है ....यह संतुलन ही हमें और समाज को प्रशस्त पथ की ओर ले जाने में सहायक होता है. असंतुलन हानिकारक है क्योंकि उससे व्यक्ति की दिशा एकान्तिक या अतिवाद की ओर हो जाती है. नित्य प्रति के व्यवहार में यह अतिवाद बड़ी सरलता से अनुभव किया जा सकता है. भारतीय चिंतकों द्वारा किया गया सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण विभाजन भी उल्वणता के आधार पर है ...एकान्त विभाजन नहीं.
विभिन्न परिस्थितियों में हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पक्ष हमारी बौद्धिक स्थिति ....और तदनुरूप हमारे संव्यवहार को प्रदर्शित करते हैं. यह प्रदर्शन दूसरों के लिए प्रिय या अप्रिय हो सकता है..... संरचनात्मक या विघटनात्मक हो सकता है.
हमारे संव्यवहार के विश्लेषण की आवश्यकता का जन्म वैचारिक अतिवाद को रोकने के लिए परामर्श देने की आवश्यकता के साथ होता है. हमारे नीति वचनों में ऐसे ही परामर्श सर्वसाधारण के लिए सर्वसुलभ कर दिए गए थे ताकि स्वेछा से लोग उन्हें अपने जीवन में उतार सकें.
फ्रायेड, एरिक बर्नी और प्राचीन भारतीय चिंतकों के तीनों संव्यावहारिक स्तरों को तुलनात्मक दृष्टि से देखना आवश्यक है :-
फ्रायेड एरिक बर्नी भारतीय चिन्तक
Id Child , emotion, creativity सतोगुण, निश्छलता, समष्टिगत भाव, परोपकार, नवीनता
Ego Adult, logic, revolution, change रजोगुण, महत्वाकांक्षा, आधिपत्य, स्वार्थ, शक्ति....
Supper ego Parent , value, conservation, experience तमोगुण, व्यष्टिगत भाव, स्वार्थ, परम्परा
प्रकाशन के बाद टेबल गड़बड़ हो गयी, अतः अलग-अलग कर पुनः लिख रहा हूँ .....शायद टिप्पणी बॉक्स में टेबल नहीं बन सकेगी.
ReplyDeleteफ्रायेड- Id /एरिक बर्नी- Child , emotion, creativity. /भारतीय चिन्तक- सतोगुण, निश्छलता, समष्टिगत भाव, परोपकार, नवीनता
फ्रायेड- Ego /एरिक बर्नी- Adult, logic, revolution, change /भारतीय चिन्तक- रजोगुण, महत्वाकांक्षा, आधिपत्य, स्वार्थ,शक्ति....
फ्रायेड- Super ego /एरिक बर्नी- Parent , value, conservation, experience /भारतीय चिन्तक-तमोगुण, व्यष्टिगतभाव, स्वार्थ, परम्परा....
धन्यवाद कौशलेन्द्र जी,
ReplyDeleteकिन्तु असहमति सहित कहना है कि फ्रायड के Id में डॉ. एरिक बर्न का Child, emotion, creativity तो है लेकिन उसमें भारतीय चिन्तकों के सतोगुण का (निश्छलता, नवीनता है) समष्टिगत भाव, परोपकार कतई नहीं है, इसलिए यह और अन्य भी संगति नहीं बैठ पा रही है.
अगर भारतीय परम्परा में घटाने का प्रयास किया जाए तो शायद कुछ हद तक Super ego/Parent मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं या विदुर हैं, Ego/Adult गीता के योगेश्वर कृष्ण या चाणक्य हैं और Id/Child कृष्ण की ही बाल-लीलाएं हैं. वैसे हमारी परम्परा में भी कृष्ण को ही सोलह कलाओं से पूर्ण पुरुष कहा गया है, यानि इन तीनों का संतुलित व्यवहार.
aadarniy aapaake post se bahut sari gutthiyan sulghin.aapase anurodh is wishay ko bhag 2 men wistardene ka kasht karenge .sundar wyakhya ke liye aabhar.
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