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Wednesday, March 19, 2025

बस्तर में संग्रहालय

बस्तर के अखबार ‘दण्डकारण्य समाचार‘ की 1959 से 2003 तक की 45 वर्षों की यात्रा का संकलन है ‘जिज्ञासा‘। इसमें दस्तावेजी महत्व की जानकारियां हैं। संग्रहालय विज्ञान से जुड़े होने के कारण इसकी दो प्रविष्टियां मेरे लिए खास हैं- पहली 1961 में उद्घाटित पुरातत्वीय संग्रहालय (पेज-25) और दूसरी जगदलपुर में 1964 में नृतत्वशास्त्रीय संग्रहालय (पेज-70) के प्रस्ताव पर कार्यवाही का निम्नानुसार है- 

Vol 2 No. XXXIX Jagdalpur, Sunday, February 12, 1961 

Kabir Inaugurates Archeological Museum 

Jagdalpur, Feb. 5. The Minister for Scientific Research and Cultural Affairs Professor Humaun Kabir told a packed gathering here that the object of the Government was to study Indian Archeology throughout India and Baster would now also be put under this programme. 

He was inaugurating a small Archeological Museum housed in the District Collectorate on the afternoon of Feb. 4. The function was orgins by the District Publicity and Social Welfare department with an initial collection about 20 sculptures. 

"Bastar is a land of fascinating interest having influences from different parts of the country with manifestations of diversity of culture besides its unique place in the sphere of Anthropology, Geology and the ike and rich also in archeological remains scattered all over the disrict with thousands of years of history behind them," Shri Kabir said, Announcing a token grant of Rs. 1000/00 for the museum, the Minister said that while the departments of Anthropology and Gelogy are already at work at Bastar, the Government would step in the archelogical sphere also when time was ripe for it and appreciated the move taken locally towards this. 

speaking at length of cultural heritage of India Prof. Humayun Kabir said that researches now being carried & linguistic survey of India being made from next year would have more insight into this. The Minister advised the district to apraoch Government of India for a technical Institute to be followed by Polytechnic Institution for the benifit of tribals. Later in the evening Prof. Humayan Kabir paid visit to Republic Day Exhibition and gave away prizes to the competitors in the presence of a t gatheringe. He felt happy at the development programmes undertaken at Bastar and laid stress on placing emphasis on spread of education which alone would lead our country to progress, he said. 

On both these functions, in the absence of the Collector, the Duputy Collector Sri P.G.Y. Mudaliar who welcomed the Minister and introducted him to gathering stated in brief the background under which the functions were held and later proposed a vote of thanks for the chief guest in glowing terms. He also thanked all those connected with the successful organisation of the functions. 

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Voll. V No. 40 Jagdalpur, Sunday April 26, 1964 

Anthropological Museum at Jagdalpur 

JAGDALPUR, April 14, 1964. The Government of lndia, it is understood, is examning a proposal for opening of an Anthropological Museum at Jagdalpur, the Hdqrs of Bastar District. The Directorate of the Anthropological Survey of India, Calcutta, had recently deputed Doctor N.C. Chowdhary, the Curator of Indian Museum to Jagdalpur for survey and to find out this possibility. This survey by the Anthropological Survey of India was undertaken in view of a request from the Ministry of Education, Government of India inviting comments and suggestions on the proposal immediately and also asking for a comprehensive scheme with full financial involvement in case the directorate support the proposal, it is very reliably learnt. 

Shri Sunderial Tripathi of the Anthropological Institute Jagdalpur, it is also gathered, met the Education Minister Shri M.C. Chagla in New Delhi early last March and put before him the fact that Bastar area had many interesting historical finds relating to tribals, finds of early 9th to 15th Century A.D. and urged the desirability of establishing an Anthropological museum at Jagdalpur Maintained directly by the Central Government which would prove very useful to the country. 

Doctor Chowdhary who was here for four days left for Calcutta and is likely to submit his comments and suggestions shortly to the Directorate.

Wednesday, May 18, 2022

CONFLICTORIUM

आज 18 मई को अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर सुबह-सुबह याद कर रहा हूं 24 फरवरी 2021 को, जिस दिन दो युवतियों ने कन्फ्लिक्टोरियम प्रतिनिधि के रूप में अपना परिचय दिया था। तब उनकी बातचीत का आशय, अगर मैं ठीक समझ सका तो यह था कि रायपुर, छत्तीसगढ़ में ऐसे संग्रहालय की क्या संभावना है? और इसके बारे में मैं उन्हें क्या बता सकता हूं। यानि उन्हें क्या जानना चाहिए यह भी मुझे बताना है। मुझे यह मनोरंजक पहेली जैसा लगा था।

मैंने बताया कि यह तो खल्लारी के देवपाल वाले मंदिर जैसे उदाहरणों वाला छत्तीसगढ़ है। मगर कन्फ्लिक्ट ही ठहराना हो तो वह कहां नहीं, लेकिन अक्सर बिना समझे, जल्दबाजी कर उसमें दखल देना, उसे हवा देने जैसा होता है। इसलिए मैं मानता हूं कि संग्रहालय के बजाय आचरण और व्यवहार हो, वह भी समन्वय का। वैचारिक भिन्नता तो स्वाभाविक है, रहेगी, आवश्यकता उसके प्रति उदारता की हो सकती है, ... आदि कारणों से मैं कन्फ्लिक्टोरियम जैसा कोई संग्रहालय, छत्तीसगढ़ के लिए निरर्थक मानता हूं।

मुझे तब लगा था कि ऐसे संग्रहालय का निर्णय तो किसी स्तर पर हो चुका होगा, बाद में अपनी बात पर खुद विचार करते हुए लगा था कि उसे मेरी असहमति, कन्फ्लिक्ट मान कर यहां कन्फ्लिक्टोरियम की सख्त आवश्यकता, उनके प्रतिवेदन में होगी, इसलिए समझ नहीं पाया था कि मैं इसके लिए स्वयं को सहमत मानूं या असहमत? बहरहाल, यह बात याद रह गई और पिछले दिनों आपसी चर्चा में आई, मगर आई-गई हो गई। आज फिर याद आने पर लगा कि पहले इसकी तलाश कर लेनी चाहिए।

अटकते-भटकते बैरन बाजार के जनता कालोनी में पहुंचा, वहां बोर्ड दिख गया।
तीर की दिशा में ठिठकते आगे बढ़ा, क्योंकि यह घरों के पिछवाड़े वाली गली थी, एक रहवासी गृहणी ने बताया कि सामने जाइए, बड़ा पीपल का पेड़ है, वही म्यूजियम का प्रवेश है, ऐसा लगा कि उनसे म्यूजियम का पता पहली बार किसी ने पूछा है और पता बताने के अलावा इससे उनका कोई ताल्लुक नहीं है। बताए पते पर दरवाजा बंद और उस पर बोर्ड मिला, कुछ आशा बंधी।

एक युवती पीपल के पेड़ पर जल अर्पित कर रही थी, उससे पता पूछा, उसने कहा कि प्रवेश पीछे गली से है। मैंने कहा कि गली से ही लौट कर आ रहा हूं। संयोग कि वही संग्रहालय की प्रभारी थी, इसलिए उसके बताए रास्ते, यानि घरों के पिछवाड़े वाली गली में वापस लौटा, इस बार आगे बढ़ने पर झांकता सा संकेत मिला।

अब मैं आधे बंद दरवाजे के सामने था, झिझकते हुए प्रवेश किया।
मेरा यहां तक पहुंचना उन्हें कुछ अजीब सा लग रहा था, इसलिए मैंने अनपा परिचय देना जरूरी समझा कि मुझे आकस्मिक दर्शक न मान लें। मैं इसकी पृष्ठभूमि से परिचित हूं और स्वयं संग्रहालय विज्ञान का विद्यार्थी हूं साथ ही संग्रहालय से संबंधित कामों से भी जुड़ा रहा हूं। संग्रहालय प्रभारी स्वागत की मुद्रा में तो थीं ही, अब आश्वस्त भी हो गईं। काउंटर पर देखा कि यह 14 अप्रैल 2022 से खुला है।

अंदर जाने के लिए उन्होंने मुझे हैलमेट दिया, मैंने पूछा कि किसी खतरे की आशंका है, सावधानी बरतनी है? उन्होंने आश्वस्त करते हुए टोपी पर लगे बल्व को जला दिया और बताया कि इस बंद दरवाजे के अंदर अंधेरा है, इससे आपको मदद मिलेगी। सुरंगनुमा अंधेरा संकरा गलियारा, थोड़ा उबड़-खाबड़ भी। अलग सा महसूस करते इसे पार कर आगे बढ़ते जिस कक्ष में ठहरा वहां संविधान की प्रति और अंबेडकर जी के चित्र लगे थे। अंबेडकर-संविधान ने द्वंद्व-CONFLICT को रेखांकित कर उसे मिटाने की राह बनाई? इसलिए? मुझे लगा कि इसके साथ संविधान निर्मात्री सभा के छत्तीसगढ़ के सदस्यों का भी नामोल्लेख, परिचय होता! काउंटर पर के चित्र में ‘रायपुर का अपना CONFLICTORIUM‘ लिखा है, मगर इसमें रायपुर या छत्तीसगढ़ का अपना कुछ नहीं दिखा, तो यह ‘अपना‘ बेगाना-सा लगा। अपनी इस बात से प्रभारी को अवगत कराया।
कुछ और प्रादर्श थे, प्रभारी ने उन सबसे परिचित कराया। मैं फिर पूरा समय ले कर आने की बात कहते, दर्शक पंजी पर अपना नाम दर्ज कर वापस निकल आया। इस संग्रहालय दिवस पर, इस संग्रहालय तक पहुंचने वाला मैं शायद अकेला दर्शक रहा।

Tuesday, November 23, 2021

हेराफेरी

समाचार पत्र ‘महाकोशल‘ रायपुर में 1 अप्रैल 1975 को मुखपृष्ठ पर प्रकाशित खबर-

पुरातन कालीन सोने के सिक्कों की हेराफेरी: नकली सिक्कों का प्रदर्शन

घासीदास संग्रहालय के भू.पू. क्यूरेटर महेश श्रीवास्तव को ४ वर्ष की कैद व जुर्माना


रायपुर, सोमवार (न० प्र०)। सोने के पुरातन कालीन सिक्कों की हेराफेरी करने व असली सिक्कों के स्थान पर नकली सिक्कों को म्यूजियम में रखने के आरोप में महंत घासीदास संग्रहालय के भूतपूर्व क्यूरेटर को धारा ४०९ व भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम के तहत पृथक-पृथक ४ वर्ष व १ वर्ष की सजा दी गई है।

सतर्कता विभाग की रायपुर शाखा द्वारा इस सनसनीखेज मामले को जांच के बाद मामला न्यायालय में पेश किया गया या तथा शासन द्वारा नियुक्त विशेष सत्र न्यायाधीश श्री व्ही० डी० वाजपेयी ने इस मामले में घासीदास संग्रहालय के भूतपूर्व क्यूरेटर महेशचन्द श्रीवास्तव को दोषी फरार देते हुए धारा ४०९ के तहत ४ वर्ष की कैद व १ हजार रु० का ज़माना न भष्टाचार निरोध नियम के तहत १ वर्ष की कैद व एक हजार रु० के जुर्माने की सजा दी है। जुर्माना न पटाने की स्थिति में आरोपी को १ वर्ष की अतिरिक्त सजा काटनी होगी।

इस प्रकरण में सतर्कता विभाग के निरीक्षक श्री खालिद द्वारा प्रस्तुत किए गए अभियोग पत्र के अनुसार वर्ष १९६० में राजिम के निकट पितई में राजा महेन्द्रदत्त के काल के ५वीं शताब्दी के ४६ सोने के सिक्के खुदाई के समय मिले थे। संग्रहालय के तत्कालीन संग्रहाध्यक्ष श्री बालचन्द जैन ने सिक्कों का परीक्षण भी किया था तथा इसे संग्रहालय को अवाप्ति पंजी में दर्ज किया गया। इसकी जानकारी जनरल आफ न्यू(मिस्)मेस्टिक सोसायटी आफ इन्डिया नामक पत्रिका में भी प्रकाशित की गई थी। श्री जैन के तबादले के बाद श्री बी० के० बाजपेयी व एच० के० कुदेशिया ने इन सिक्कों को चार्ज में लिया था। इनके स्थानांतर के बाद १४।६।६८ को महेशचन्द्र श्रीवास्तव ने इन सिक्कों का चार्ज लिया था।

१९६७ में यात्रा के दौरान नागपुर में श्री जैन को इन सिक्कों की गड़बड़ी की जानकारी मिलने पर उन्होंने इसकी सूचना पुरातत्व विभाग को दो थी बाद में विभाग के उप संचालक द्वारा १६-११-६८ को इस मामले की जांच की थी। जांच के दौरान पाया गया कि ज महेन्द्र दत्तया काल म ४६ सोने के सिक्कों में से ३ सिक्कों को बदल दिया गया था तथा उनके स्थान पर नकली सिक्के बनवाकर रख दिये गये था इसकी कीमत ३ हजार रु. बताई गई थी। इसके अतिरिक्त प्रसन्ना माप के काल का एक सोने का सिक्का गायब पाया गया था। इनके बाद प्रकरण को जांच हेतु सतकर्ता विभाग को सौंप दिया गया था जांच वधि में ही महेन्द्र श्रीवास्तव को बर्खास्त कर दिया गया प्रकरण को जांच के बाद जब मामला कोर्ट में पेश किया गया तो क्यूरेटर महोदय फरार हो गये थे सतर्कता जांच के दौरान निम्न तथ्य प्रकाश में आये थे।

०० गोविन्दचंद्र के काल का जो सिक्का रखा गया था वह नकली था तथा असली सिक्के का नकल कर उसे अन्य धातु से बनाया गया था।
०० कुशाणवंश का एक अन्य सिक्का भी दूसरी धातु से बना पाया गया।
०० महेन्द्र दत्ता काल का ही एक अन्य सिक्का सोने के स्थान पर अन्य धातु का नकली पाया गया। इस सिक्के के पीछे दबाव से आकृति उभारी गई थी। नकली सिक्का नागरी लिपि में था जबकि ५वीं सदी के काल में सिक्कों में ब्राम्ही लिपि र ती थी।
०० महेन्द्र दत्ता काल के एक अन्य सिक्के के स्थान पर प्रसन्न मात्र का टूटा हुआ सिक्का मिला था। इसी काल के एक अन्य असली सिक्के को बदलकर उसके स्थान पर नकली सिक्का मोटा पाया गया था जिसमें पीछे में लक्ष्मी जी की प्रतिमा अंकित थी।

यह सिक्का मोटा पाया गया जबकि असली सिक्का पतला था और उसमें वरूण की प्रतिमा थी। इसके अतिरिक्त जब क्यूरेटर को बर्खास्त किया गया तो उसने चार्ज देने में आना कानी की। सिक्कों के गायब होने के संबंध में जब उससे स्पष्टीकरण मांगा गया तो उसने कहा कि स्पष्टीकरण शासन को भेज दिया गया है। न्यायालय में बयान के समय श्रीवास्तव ने अपनी सफाई में कहा था कि उसके विरुद्ध षड़यंत्र रचा गया है वह नया आदमी होने के कारण सिक्कों की पहचान से अनभिज्ञ था।

प्रकरण में निसंदेह जिम्मेदारी श्री श्रीवास्तव की थी, किंतु सफाई में उनके द्वारा कही गई बात पर न्यायालय के बाहर अधिकतर को भरोसा था और षड़यंत्रकारी का नाम तब लोगों के जबान पर आम हुआ करता था।

Thursday, September 2, 2021

खैरागढ़ संग्रहालय

संग्रहालय परिचय

वर्तमान छत्तीसगढ़, दक्षिण कोसल के नाम से अभिहित रहा है, जो अपने विशाल हृदय में भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की एक समृद्ध राशि संजोये हुये है। इस अंचल की अनुपम कला-कृतियां अपनी आंचलिक विशेषताओं के साथ भारत वर्ष में ही नहीं, अपितु विश्व के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य में भी ख्यातिलब्ध है। ऐसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पुरासम्पदा के संपोषण एवं संरक्षण हेतु भारतीय कला का इतिहास तथा जिला पुरातत्व संघ के सहयोग से वर्ष 1977 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में वर्तमान कला एवं पुरातत्व संग्रहालय का शुभारंभ किया गया था, जिसमें प्रदर्शों के माध्यम से प्रायोगिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का उद्देश्य समाहित है।

संग्रहालय अजायबघर, संग्रह-स्थान, विचित्रालय न होकर शिक्षा का एक जीवन्त संस्थान है, जहां प्रदर्शों के माध्यम से ‘‘श्रृव्यदृश्य-साधन‘‘ द्वारा शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। विद्यालयीन शिक्षा का क्षेत्र पाठ्यक्रम तक सीमित है, किन्तु संग्रहालय-जनित शिक्षा का क्षेत्र व्यापक है। यही कारण है कि ये बिना किसी भेद-भाव के सभी वर्गों की शिक्षा एवं जिज्ञासा के प्रमुख स्रोत है। शैक्षणिक संस्थाओं की तरह वर्तमान शताब्दी में संग्रहालय शिक्षा के सशक्त एवं सर्वतोन्मुखी केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठापित हुये हैं। विश्वविद्यालय का संग्रहालय भी इन्हीं उद्देश्यों एवं संकल्पों के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।

भारतीय कला का इतिहास एवं संस्कृति विभाग के अंतर्गत स्थापित संग्रहालय में प्रागैतिहासिक काल के पाषाण-उपकरण, सैंधव-सभ्यता के पुरावशेषों के प्लास्टरकास्ट्स, आहत, जनपदीय तथा कुषाण-शासकों के ताम्रधातु के सिक्के तथा मथुरा कला-शैली के प्लास्टरकास्ट्स भी उल्लेखनीय हैं। विभिन्न कला-केन्द्रों से प्राप्त विशिष्ट देवी-देवताओं की पाषाण कला-कृतियां संग्रहीत हैं, जो कला-रसिकों तथा पर्यटकों को सहज ही आकर्षित करती हैं। खैरागढ़ के समीप अमलीडीह कला नामक ग्राम से ज्ञात बौद्ध-स्तूप विशेष रूप से पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन सकता है। संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुएं मुख्यतः चार प्रकार की है, जिनमें प्रस्तर मूर्तियां, छायाचित्र, गच-निर्मित प्रतिकृतियां (प्लास्टर कास्ट) एवं सिक्के प्रमुख हैं। विभिन्न राजवंशों के शासनकाल में निर्मित कलाओं में संगीत एवं नृत्य के दृश्य को प्रस्तुत करने वाले रंगीन छायाचित्रों का प्रदर्शन बोर्ड पर किया गया है, जिनके द्वारा प्राचीन वाद्य-यंत्रों, नृत्य-शैलियों का ज्ञान प्राप्त होता है। भारतीय कला, इतिहास एवं संस्कृति का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने हेतु गच-निर्मित अनुकृतियाँ शो-केसों में प्रदर्शित की गई हैं। लगभग तृतीय शती ई.पूर्व से लेकर 11 वीं शती ईस्वी तक के भारतीय राजवंशों द्वारा प्रसारित ताम्र-सिक्के एवं सिक्कों की विद्युत लिप्त अनुकृतियों का संग्रह एवं प्रदर्शन भी दृष्टव्य है।

संग्रहालय में वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर, बौद्ध एवं जैन आदि धर्माें का प्रतिनिधित्व करने वाली पाषाण प्रतिमायें विशेषतः सोमवंश तथा कलचुरि कला शैली से संबंधित है, जिनमें लम्बे-पतले होठ, लम्बी मुखाकृति, भौंहे, पलकों और नाक के अंकन में नुकीलापन, छोटे कद, समानुपातिक अंग एवं कंधों का त्रिकोण में बनावट, क्षीण कटि और तिरछे पैर जैसे लक्षणों का भावपूर्ण अंकन प्राप्त होता है। इस काल की प्रतिमाओं में अंलकरणों की भरमार है, जो इसे अन्य काल की क्षेत्रीय कला शैली से अलग करती है। इस युग से सम्बन्धित प्रतिमाओं में- उमा-महेश्वर (रावणानुग्रह), भैरव, नन्दी पर आरूढ़ उमा-महेश्वर, गौरी, चामुण्डा, सरस्वती, लक्ष्मीनारायण, ध्यानी बुद्ध (अक्षोभ्य), जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ आदि उल्लेखनीय हैं।

उत्तर-मध्यकालीन कलावशेषों में स्मारक-प्रतिमाओं की प्रमुखता है। अंजलिहस्त मुद्रा एवं सूर्य-चंद्र का अंकन इनकी अन्य देव प्रतिमाओं से भिन्नता प्रदर्शित करती है। संग्रहालय में ऐसी स्मारक-प्रतिमाओं का बाहुल्य है, जो केवल राजनांदगांव जिले से प्राप्त हैं। ये समस्त संग्रह निःसंदेह छत्तीसगढ़ की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के ज्ञान हेतु अत्यंत उपयोगी हैं, जिनमें क्षेत्रीय कला के चारुत्व तत्व विद्यमान हैं।

विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग के समस्त छात्र-छात्राएं संग्रहालय के पुरावशेषों के माध्यम से व्यावहारिक, प्रायोगिक (दृश्यप्रणाली) अध्ययन से लाभान्वित होते हैं। दृश्यकला, भारतीय कला का इतिहास एवं संस्कृति विभाग की स्नातक तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम प्रायः संग्रहालय पर आधारित हैं। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों से दर्शक, जिज्ञासु तथा शोधार्थी यहां आकर छत्तीसगढ़ की मूर्तिकला एवं संस्कृति का अवलोकन एवं अध्ययन करते हैं।

यद्यपि संग्रहालय में दो वीथिकाओं की स्थापना की जा चुकी है, तथापि भविष्य में संग्रहालय-भवन का विस्तार किया जाना है, जहां पृथक-पृथक मतों से सम्बन्धित पाषाण-प्रतिमाओं का प्रदर्शन किया जाना है। आदिवासी संस्कृति से सम्बन्धित कलाकृतियों को संग्रहीत कर स्वतंत्र वीथिका के निर्माण की महती आवश्यकता है।

वर्तमान संग्रहालय में ‘‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘‘ के नाम से विख्यात् भोरमदेव मंदिर (कवर्धा) की प्रतिकृति प्रदर्शित है, जो दर्शकों के लिये आकर्षण है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ के प्रमुख मंदिरों की अनुकृतियां बनवाकर प्रदर्शित की जा सकती है। संग्रहालय की प्रतिमाओं के कैटलॉग का प्रकाशन विचाराधीन है। प्रमुख कला-कृतियों एवं मंदिरों आदि के छायाचित्रों को संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।

प्रतिमा प्राप्ति-स्थल- राजनांदगांव जिले के- छुरिया, चौकी, माडिंग-पीडिंग, डोंगरगढ़, देवकट्टा, गातापार, महुआढार, भड़भड़ी, कटंगी, भेजराटोला, बनबोर करेला, बिरखा बिलहरी, लोहारा, सिलीपचराही (वर्तमान कवर्धा जिला) लिमऊटोला आदि कला केन्द्रों से प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो संग्रहालय में प्रदर्शित हैं।

विशिष्ट कलात्मक प्रतिमायें-

नन्दी पर आरूढ़ उमामहेश्वर (वरेश्वर शिव)-
नन्दी पर आरूढ़ उमा-महेश्वर की यह प्रतिमा अत्यन्त मनमोहक है। इसमें उमा के बैठने का क्रम विपरीत है अर्थात् वामाङ्गी उमा दांयी ओर स्थित है। श्रीमद्भागवत के विवरणानुसार एक बार शिव, विष्णु के समीप उनके मोहनी रूप को देखने की इच्छा से वृषभ पर बैठ कर गये थे। उस समय पार्वती भी उनके साथ बैठी थी। यह प्रतिमा इसी विवरण की ओर इंगित करती है। शिव रास्ते में विष्णु के मोहनी रूप की कथा पार्वती को सुना रहे हैं जो उनकी मुख-मुद्रा से स्वतः स्पष्ट है। यह प्रसंग इतना रोचक है कि शिव-वाहन नन्दी भी ध्यान लगाकर सुन रहा है। सुनने की स्थिति में नन्दी के कान खड़े रूप में निर्मित है, जो इस दृश्यांकन को और भी जीवन्त रूप में प्रदर्शित करता है। यह प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

गौरी-
महेश्वर के द्वारा गौरी का ध्यान किया जाता है, ये गौर वर्ण की चार भुजा वाली होती हैं। अक्षसूत्र, पद्म, कमण्डलु हाथों में धारण करती हैं तथा एक हाथ अभय मुद्रा में रहता है। संग्रहालय में प्रदर्शित गौरी की प्रतिमा कमलासन पर स्थानक रूप में स्थित है। इनकी भुजायें एवं आयुध खण्डित हैं। अवशेषों से ज्ञात होता है कि प्रतिमा चतुर्भुजी थी। प्रतिमा के बांयी ओर ऊपर ब्रह्मा तथा नीचे मालाधारी, पूजक एवं गोधा स्थित है। बांयी ओर का हिस्सा खण्डित है। सर्वाभरण-भूषित गौरी की यह प्रतिमा लगभग 11 वीं शती ईस्वी की है।

उमामहेश्वर-
इस रूप में शिव को पार्वती के साथ प्रदर्शित किया गया है। चतुर्भुज शिव के हाथों में त्रिशूल, सर्प तथा मातुर्लिङ्ग धारण किये हुए हैं। एक हाथ से देवी को आलिङ्गन किए हुये दर्शित हैं। उमा के हाथों में अंजन-शलाका, दर्पण तथा एक हाथ शिव के स्कन्ध पर स्थित है। नीचे पादपीठ पर रावण को कैलाश पर्वत उठाते हुये प्रदर्शित किया गया है। संग्रहालय में प्रदर्शित उमा-महेश्वर प्रतिमाओं के पादपीठ पर रावण द्वारा ‘कैलाशोत्तोलन‘ दृश्य को प्राथमिकता दी गयी है। सिलीपचराही (कवर्धा) से प्राप्त यह प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

भैरव-
यह शिव का भयानक (ऊग्र) रूप है। भैरव की भयावह मुखमुद्रा में बड़े-बड़े नासापुट, नेत्र तथा मुख खुले हुये हैं। चतुर्भुजी भैरव के दो हाथ दर्शित हैं, जिनमें कपाल तथा एक हाथ से गण के केश को पकड़े हुये दिखाया गया है। शेष दो हाथ खंडित हैं। बांयी ओर नीचे उनका वाहन श्वान प्रदर्शित है, जो स्वभावानुसार देव की ओर उन्मुख हो रहा है। वस्त्रहीन भैरव पैरों में खड़ाऊ धारण किये हुए हैं, जो दर्शनीय है। यह प्रतिमा लगभग 7 वीं शती ईस्वी की है।

चामुण्डा-
चामुण्डा विकृत मुख वाली कही गई हैं। ये प्रेतों के साथ रहती हैं तथा सर्पाें के आभूषण धारण करती हैं। इनका रूप भयानक होता है। अपराजित पृच्छा ग्रन्थ चामुण्डा को शव पर आरूढ़ बतलाता है। संग्रहालय में प्रदर्शित चामुण्डा की प्रतिमा 20 भुजी है, जो उल्लेखनीय है। शिल्प शास्त्रों में 8, 12 एवं 16 भुजाओं वाली देवी प्रतिमा-निर्माण का विधान प्राप्त होता है। कलात्मक संयोजन की दृष्टि से यह भारत की एक अत्यंत दुर्लभ प्रतिमा कही जा सकती है। कदाचित अन्य क्षेत्रों से ऐसी बीसभुजी प्रतिमा दुर्लभ है। इस बीसभुजी प्रतिमा में देवी को विस्मय मुद्रा में अट्टहास करते हुये दिखाया गया है। चामुण्डा को एक अपस्मार-पुरुष के ऊपर नृत्य करते हुए निर्मित किया गया है। सर्पाभूषण, कृशकाय चेहरा, भयानक अस्त्र-शस्त्र, उदरभाग पर वृश्चिकांकन, नर-मुण्डमाला, गण आदि देवी के रौद्र रूप को प्रदर्शित करते हैं। शिल्पकार ने शिल्पशास्त्रों के विधानानुसार इस प्रतिमा को निर्मित किया है, जो उल्लेखनीय है। चामुण्डा की यह प्रतिमा लगभग 11वीं शती ईस्वी की है।

वीणापाणि सरस्वती-
ललितासन में आसनस्थ चतुर्भुजी वाग्देवी सरस्वती की कलचुरिकालीन प्रतिमा अप्रतिम है। वीणा, पुस्तक, कमलकलिका तथा नीचे बांयी ओर वाहन ‘हंस‘ सहित देवी की गले में ग्रैवेयक तथा कलात्मक अलंकरणों सहित मुख-मुद्रा में स्मित-सौम्य-भाव परिलक्षित है। यह प्रतिमा लगभग 11 वीं शती ईस्वी की है।

लक्ष्मीनारायण-
इस प्रतिमा में विष्णु ललितासन मुद्रा में ऊपर बैठे हैं, उनका एक पैर मुड़ा हुआ गरूड़ के स्कन्ध पर है और दूसरा लटकता हुआ गरूड़ की बांयी हथेली पर रखा है। पक्षीराज गरूड़ को मानवीय रूप में प्रदर्शित किया गया है। विष्णु के उत्सङ्ग में लक्ष्मी बैठी हैं। उनका दाहिना पैर मुड़ा हुआ है और बांया पैर लटकता हुआ गरूड़ की बांयी हथेली पर रखा है। गरूड़-पंख फैले और उड़ते हुये भाव में प्रदर्शित किया गया है। आलिङ्गन लक्ष्मीनारायण प्रतिमा के परिकर भाग में विष्णु के दशावतार-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम, परशुराम, बलराम, बुद्ध, कल्कि आदि का अंकन सूक्ष्मता के साथ किया गया है। शिल्प निर्माण की दृष्टि से यह प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

बुद्ध-
भूमि-स्पर्श मुद्रा में सिंहासन पर बैठे हुये बुद्ध की प्रतिमा प्रदर्शित है, जिसकी ऊंचाई लगभग 4 फीट 6 इंच है। प्रतिमा के परिकर भाग में बुद्ध के जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं का अंकन किया गया है, जिसमें महापरिनिर्वाण, धर्म-चक्रप्रवर्तन, अनुयायियों के साथ बुद्ध, वानर, वादक एवं नृत्यांगनाएं प्रमुख हैं। बौद्ध-कथानकों एवं काल की दृष्टि से यह प्रतिमा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बौद्ध मंत्र- हे धम्मों हेतु प्रभवा... लिखित यह प्रतिमा लगभग 9 वीं श.ई. वीं शती ईस्वी की है।

बौद्ध देवी तारा की अभिलिखित (बौद्ध- बीज मंत्र सहित) पाषाण-प्रतिमा कला की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

पार्श्वनाथ-
जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा पद्मासन में स्थित है, जिसके शीर्ष भाग पर सप्तफणों का आटोप है और उसके ऊपर घंटानुकृति तीन तलों वाला मुकुट प्रदर्शित है। सिंहासन के ऊपर नवग्रहों का अंकन है। बांया ऊपरी भाग खंडित है। सम्भवतः इसमें पंच परमेष्ठि का अंकन किया गया था, जिसमें दो दृष्टव्य है। विवेच्य प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

संग्रहालय में द्वार-पाल, आलिङ्गनबद्ध-युग्म (द्वार-शाखा का खंडित भाग) लगभग 7 वीं शती ईस्वी, नृत्य-गणेश, सूर्य, कलात्मक अलंकरणों से सुसज्जित राजा-रानी, उपासक, कलात्मक स्तंभ तथा सती-स्तंभ और योद्धाओं आदि की परंपरागत अनेक अप्रतिम कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय हैं, जो 7 वीं से 16 वीं शती ईस्वी के मध्य की हैं।

सुविधा
शोधार्थियों, विद्यार्थियों एवं जिज्ञासुओं को आवश्यक्तानुसार प्रतिमा-शास्त्रीय जानकारी संग्रहालय के कर्मचारियों द्वारा दी जाती है।
संग्रहालय खुलने का समय प्रातः 10ः30 से 1ः30 तक, दोपहर 2ः00 से सायं 5ः30 तक (द्वितीय-तृतीय शनिवार एवं शासकीय अवकाश के दिनों को छोड़कर)
सम्पर्क कुल सचिव कार्यालय, फोनः (07820) 34232,
संरक्षिका प्रोफेसर (डॉ.) इन्द्राणी चक्रवर्ती कुलपति
परामर्श डॉ. कृष्ण कुमार त्रिपाठी, अध्यक्ष - भारतीय कला का इतिहास एवं संस्कृति विभाग। डॉ. आर. एन. विश्वकर्मा, व्याख्याता। श्री आशुतोष चौरे संग्रहाध्यक्ष।
आलेख डॉ. मंगलानंद झा - गाईड

इस संग्रहालय के लिए प्रतिमाओं के समूल्य संग्रह के लिए तत्कालीन उपसंचालक श्री वी.के. बाजपेयी के साथ मुझे भी कवर्धा और खैरागढ़ में इस प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर मिला था। खैरागढ़ में उन दिनों दो एस.आर. यानि डा. श्री राम नेमा और डा. सीताराम शर्मा हुआ करते थे।

इस फोल्डर में अमलीडीह कलां ग्राम के बौद्ध-स्तूप का उल्लेख है। शासकीय विभाग की ओर से इस स्थल का निरीक्षण कर प्रतिवेदन दिया गया था, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि यह स्थल टीले पर मंदिर के अवशेष का है तथा अवशिष्ट संरचना की भूयोजना का रेखांकन भी मेरे द्वारा किया जा कर, प्रतिवेदन के साथ संलग्न किया गया था।

Wednesday, August 18, 2021

संस्कृति की बपौती

अंग्रेजी का शब्द है लेगैसी, जिसका अर्थ, पैतृक संपत्ति होता है और बोलचाल में बपौती। इन दिनों संस्कृति विभाग, बपौती के लिए चर्चा में है। इसलिए प्रसंगवश कुछ बातें याद आ रही हैं। संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में स्थापित-संचालित है और यह लगभग 150 साल पुरानी संस्था, हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं के साथ सरकार को जोड़े-जुड़े रहने का केन्द्र है। इसलिए संस्कृति विभाग और यह संग्रहालय, दोनों एक-दूसरे के पर्याय की तरह देखे जा रहे हैं।

यहां इस भवन-संस्था की परंपरा, इतिहास और ‘बपौती‘ पर कुछ बातें। रायपुर शहर का एक पुराना नक्शा सन 1868 का है, जिसमें वर्तमान महाकोशल कला वीथिका, अष्टकोणीय भवन को म्यूजियम दर्शाया गया है। उस भवन के साथ एक शिलालेख हुआ करता था, जो अब वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय के प्रवेश पर लगा है। इसमें लेख है कि ‘सन् 1875 ईसवी में तामीर पाया बसर्फे महंत घासीदास रईस नांदगांव‘। यह छत्तीसगढ़ के गौरव का अभिलेख है।

देश में सन 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम (सन 1931 में) 45390 आबादी वाला शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना जाता है।

इस संग्रहालय का एक खास उल्लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए।

सन 1953 में इस नये भवन का उद्घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। इस संस्था का पूरा क्षेत्र, मूलतः वर्तमान परिसर के अतिरिक्त गुरु तेग बहादुर संग्रहालय व हॉल, साक्षरता बगीचा, भी था। सन 1956 में मध्यप्रांत और बरार का पुनर्गठन हुआ और मध्यप्रदेश बना। इस नये प्रदेश के शासकीय डेढ़ मुख्यालय रायपुर में हुआ करते थे। एक संचालनालय ‘भौमिकी एवं खनिकर्म‘ और संचालनालय ‘पुरातत्व एवं संग्रहालय’ का आधा हिस्सा, संग्रहालय, रायपुर में रहा। रायपुर संग्रहालय में तब बंटवारे के फलस्वरूप, मध्यप्रदेश हिस्से के और विशेषकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पुरावशेष, जो नागपुर संगग्रहालय में थे, रायपुर संग्रहालय में आ गए। आज भी संग्रहालय में जबलपुर-कटनी अंचल के कारीतलाई, बिलहरी की कलाकृतियां संग्रहित, प्रदर्शित हैं। पूरे देश में मिलने वाले सिक्कों के दफीने का एक निश्चित हिस्सा बंटवारे में इस संग्रहालय का मिलता था।

संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।

रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंद कृष्ण जी रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए।

इस संस्था को पुरातत्व, संगीत, साहित्य, कला के मर्मज्ञ संस्कारित करते रहे हैं। देश के मूर्धन्य विद्वान शोध-अध्ययन, संगोष्ठी, प्रदर्शन के लिए यहां पधारते रहे हैं, जिनकी उपस्थिति से यह संस्था संस्कारित होती रही है, जो अब क्षीण हो रही है। स्थानीय महानुभावों में सर्व आदरणीय रामनिहाल शर्मा, हरि ठाकुर, विष्णु सिंह ठाकुर, लक्ष्मीशंकर निगम, गुणवंत व्यास, वसंत तिमोथी, सरयूकांत झा, केयूर भूषण, बसंत दीवान, पीडी आशीर्वादम, राजेन्द्र मिश्र, यदा-कदा विनोद कुमार शुक्ल जैसे नाम हैं, जिनका रिश्ता इस संस्था से बना रहता था। वे संस्था की बेहतरी के लिए पहल करते थे और बदले में उनकी पूछ-परख होती थी। राज्य गठन के बाद अपने रायपुर प्रवास पर हबीब तनवीर इस संस्था के लिए समय अवश्य निकालते थे, जिनकी जयंती मनाए जाने के प्रसंग में ‘बपौती‘ की अवांछित स्थिति चर्चा में है।

इस संस्था से जुड़े विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। विभाग के कई अल्प वेतन भोगी सदस्य रहे हैं, जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश, चंदराम, कमल, लताबाई, फेंकनबाई, तिरबेनी बाई ऐसे कुछ नाम हैं, जिन्होंने इस संस्था की परवाह, अपनी बपौती से भी अधिक मान कर की है, इसे सहेजा है।

रायपुर संग्रहालय के पुरावशेषों का पिछले कई वर्षों से वार्षिक भौतिक सत्यापन, पंजियों-नस्तियों के आधार पर नहीं हुआ है, जो संग्रहालय प्रबंधन की बुनियादी आवश्यकता है। राज्य के 150 वर्ष पुराने इस संग्रहालय से वस्तुएं गुम होने की शिकायत विभाग के अधिकारियों द्वारा हुई है, इसके बावजूद भी इसकी जांच एवं भौतिक सत्यापन नहीं कराया जा सका है। उल्लेखनीय है कि इस संग्रहालय में 15000 से भी अधिक बहुमूल्य पुरावशेष संग्रहित हैं, जिनकी ठीक पहचान और मिलान के लिए वर्तमान में कुछ ही पूर्व अधिकारी और विशेषज्ञ रह गए हैं, जो इसकी भरोसेमंद ढंग से पहचान और पुष्टि कर सकते हैं।

देश के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक रायपुर का यह महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय अब तक इंटरनेशनल कौंसिल आफ म्यूजियम्स, इंडिया (आइकॉम) का सदस्य नहीं है। राज्य के पुरातत्व और प्राचीन कला-संस्कृति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियमित और प्रभावी उपस्थिति के लिए यह आवश्यक है, जिसके अभाव में अत्यंत महत्वपूर्ण और पुरानी संस्था होने के बावजूद भी यह संग्रहालय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान में पिछड़ जाता है। आइकॉम, इंडिया की सदस्यता, संक्षिप्त कागजी औपचारिक कार्यवाही से ली जा सकती है, इसमें कोई वित्तीय प्रशासकीय अतिरिक्त भार नहीं होगा।

वर्तमान महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व तथा संस्कृति भवन (कुछ वर्षों से ‘गढ़ कलेवा‘ वाला!) के रूप में जाना जाता है। ध्यान रहे की मूर्तियां मौन होती हैं, शिकायत नहीं करतीं, इसलिए उनकी देखरेख के लिए अधिक संवेदनशीलता, समझ और खुली-सजग निगाहों की जरूरत होती है। अपनी जिम्मेदारियों के सम्यक निर्वाह के लिए यह पता रहना और याद करते रहना आवश्यक होता है कि हम किस विरासत-लेगैसी के धारक-संवाहक हैं, इसकी गुरुता ही कर्तव्य-निर्वाह का उपयुक्त मार्ग प्रशस्त करती है। यह संग्रहालय-संस्कृति भवन, राज्य के साथ हम सबकी ऐसी बपौती है, जिसे यथासंभव बेहतर बना कर और नहीं तो कम से कम यथावत, अगली पीढ़ी को सौंपने की परवाह बेहद जरूरी है।

यह लेख रायपुर से प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़‘ सांध्य दैनिक अखबार में 16 अगस्त 2021 को प्रकाशित हुआ।


Wednesday, May 18, 2011

अजायबघर

18 मई। सन 1977 से इस तिथि पर पूरी दुनिया में संग्रहालय दिवस मनाया जाता है। आज यह दिवस 100 से भी अधिक देशों और 30000 से भी अधिक संग्रहालयों में मनाया जा रहा है। इस वर्ष का विषय है 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी' (Theme - Museum and Memory : Object Tell Your Story)। कुछ स्मृति और पुराना लेखा-जोखा मिलाकर हमने संग्रहालय की ही कहानी बना ली है, जिसमें रायपुर, छत्तीसगढ़ के लिए गौरव-बोध का अवसर भी है।

सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। यह नक्शा आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र जी के संग्रह में है।

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है।


सन 1936 के प्रतिवेदन (The Museums of India by SF Markham and H Hargreaves) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से भी आश्चर्यजनक कम) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है।
अष्‍टकोणीय पुराना संग्रहालय भवन तथा महंत घासीदास
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है (आजाद भारत में पैदा मेरी पीढ़ी को सोच कर कोफ्त होने लगती है)।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
मंजुश्री, सिरपुर, लगभग 8वीं सदी ईसवी
कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, इस वर्ष संग्रहालय दिवस के लिए निर्धारित विषय दुहरा लें - 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी'।

यह पोस्‍ट, नई दिल्‍ली के जनसत्‍ता अखबार में 10 जून 2011 को समांतर स्‍तंभ में 'कहानी ही सही' शीर्षक से प्रकाशित।

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