Thursday, September 2, 2021

खैरागढ़ संग्रहालय

संग्रहालय परिचय

वर्तमान छत्तीसगढ़, दक्षिण कोसल के नाम से अभिहित रहा है, जो अपने विशाल हृदय में भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की एक समृद्ध राशि संजोये हुये है। इस अंचल की अनुपम कला-कृतियां अपनी आंचलिक विशेषताओं के साथ भारत वर्ष में ही नहीं, अपितु विश्व के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य में भी ख्यातिलब्ध है। ऐसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पुरासम्पदा के संपोषण एवं संरक्षण हेतु भारतीय कला का इतिहास तथा जिला पुरातत्व संघ के सहयोग से वर्ष 1977 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में वर्तमान कला एवं पुरातत्व संग्रहालय का शुभारंभ किया गया था, जिसमें प्रदर्शों के माध्यम से प्रायोगिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का उद्देश्य समाहित है।

संग्रहालय अजायबघर, संग्रह-स्थान, विचित्रालय न होकर शिक्षा का एक जीवन्त संस्थान है, जहां प्रदर्शों के माध्यम से ‘‘श्रृव्यदृश्य-साधन‘‘ द्वारा शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। विद्यालयीन शिक्षा का क्षेत्र पाठ्यक्रम तक सीमित है, किन्तु संग्रहालय-जनित शिक्षा का क्षेत्र व्यापक है। यही कारण है कि ये बिना किसी भेद-भाव के सभी वर्गों की शिक्षा एवं जिज्ञासा के प्रमुख स्रोत है। शैक्षणिक संस्थाओं की तरह वर्तमान शताब्दी में संग्रहालय शिक्षा के सशक्त एवं सर्वतोन्मुखी केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठापित हुये हैं। विश्वविद्यालय का संग्रहालय भी इन्हीं उद्देश्यों एवं संकल्पों के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।

भारतीय कला का इतिहास एवं संस्कृति विभाग के अंतर्गत स्थापित संग्रहालय में प्रागैतिहासिक काल के पाषाण-उपकरण, सैंधव-सभ्यता के पुरावशेषों के प्लास्टरकास्ट्स, आहत, जनपदीय तथा कुषाण-शासकों के ताम्रधातु के सिक्के तथा मथुरा कला-शैली के प्लास्टरकास्ट्स भी उल्लेखनीय हैं। विभिन्न कला-केन्द्रों से प्राप्त विशिष्ट देवी-देवताओं की पाषाण कला-कृतियां संग्रहीत हैं, जो कला-रसिकों तथा पर्यटकों को सहज ही आकर्षित करती हैं। खैरागढ़ के समीप अमलीडीह कला नामक ग्राम से ज्ञात बौद्ध-स्तूप विशेष रूप से पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन सकता है। संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुएं मुख्यतः चार प्रकार की है, जिनमें प्रस्तर मूर्तियां, छायाचित्र, गच-निर्मित प्रतिकृतियां (प्लास्टर कास्ट) एवं सिक्के प्रमुख हैं। विभिन्न राजवंशों के शासनकाल में निर्मित कलाओं में संगीत एवं नृत्य के दृश्य को प्रस्तुत करने वाले रंगीन छायाचित्रों का प्रदर्शन बोर्ड पर किया गया है, जिनके द्वारा प्राचीन वाद्य-यंत्रों, नृत्य-शैलियों का ज्ञान प्राप्त होता है। भारतीय कला, इतिहास एवं संस्कृति का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने हेतु गच-निर्मित अनुकृतियाँ शो-केसों में प्रदर्शित की गई हैं। लगभग तृतीय शती ई.पूर्व से लेकर 11 वीं शती ईस्वी तक के भारतीय राजवंशों द्वारा प्रसारित ताम्र-सिक्के एवं सिक्कों की विद्युत लिप्त अनुकृतियों का संग्रह एवं प्रदर्शन भी दृष्टव्य है।

संग्रहालय में वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर, बौद्ध एवं जैन आदि धर्माें का प्रतिनिधित्व करने वाली पाषाण प्रतिमायें विशेषतः सोमवंश तथा कलचुरि कला शैली से संबंधित है, जिनमें लम्बे-पतले होठ, लम्बी मुखाकृति, भौंहे, पलकों और नाक के अंकन में नुकीलापन, छोटे कद, समानुपातिक अंग एवं कंधों का त्रिकोण में बनावट, क्षीण कटि और तिरछे पैर जैसे लक्षणों का भावपूर्ण अंकन प्राप्त होता है। इस काल की प्रतिमाओं में अंलकरणों की भरमार है, जो इसे अन्य काल की क्षेत्रीय कला शैली से अलग करती है। इस युग से सम्बन्धित प्रतिमाओं में- उमा-महेश्वर (रावणानुग्रह), भैरव, नन्दी पर आरूढ़ उमा-महेश्वर, गौरी, चामुण्डा, सरस्वती, लक्ष्मीनारायण, ध्यानी बुद्ध (अक्षोभ्य), जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ आदि उल्लेखनीय हैं।

उत्तर-मध्यकालीन कलावशेषों में स्मारक-प्रतिमाओं की प्रमुखता है। अंजलिहस्त मुद्रा एवं सूर्य-चंद्र का अंकन इनकी अन्य देव प्रतिमाओं से भिन्नता प्रदर्शित करती है। संग्रहालय में ऐसी स्मारक-प्रतिमाओं का बाहुल्य है, जो केवल राजनांदगांव जिले से प्राप्त हैं। ये समस्त संग्रह निःसंदेह छत्तीसगढ़ की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के ज्ञान हेतु अत्यंत उपयोगी हैं, जिनमें क्षेत्रीय कला के चारुत्व तत्व विद्यमान हैं।

विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग के समस्त छात्र-छात्राएं संग्रहालय के पुरावशेषों के माध्यम से व्यावहारिक, प्रायोगिक (दृश्यप्रणाली) अध्ययन से लाभान्वित होते हैं। दृश्यकला, भारतीय कला का इतिहास एवं संस्कृति विभाग की स्नातक तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम प्रायः संग्रहालय पर आधारित हैं। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों से दर्शक, जिज्ञासु तथा शोधार्थी यहां आकर छत्तीसगढ़ की मूर्तिकला एवं संस्कृति का अवलोकन एवं अध्ययन करते हैं।

यद्यपि संग्रहालय में दो वीथिकाओं की स्थापना की जा चुकी है, तथापि भविष्य में संग्रहालय-भवन का विस्तार किया जाना है, जहां पृथक-पृथक मतों से सम्बन्धित पाषाण-प्रतिमाओं का प्रदर्शन किया जाना है। आदिवासी संस्कृति से सम्बन्धित कलाकृतियों को संग्रहीत कर स्वतंत्र वीथिका के निर्माण की महती आवश्यकता है।

वर्तमान संग्रहालय में ‘‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘‘ के नाम से विख्यात् भोरमदेव मंदिर (कवर्धा) की प्रतिकृति प्रदर्शित है, जो दर्शकों के लिये आकर्षण है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ के प्रमुख मंदिरों की अनुकृतियां बनवाकर प्रदर्शित की जा सकती है। संग्रहालय की प्रतिमाओं के कैटलॉग का प्रकाशन विचाराधीन है। प्रमुख कला-कृतियों एवं मंदिरों आदि के छायाचित्रों को संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।

प्रतिमा प्राप्ति-स्थल- राजनांदगांव जिले के- छुरिया, चौकी, माडिंग-पीडिंग, डोंगरगढ़, देवकट्टा, गातापार, महुआढार, भड़भड़ी, कटंगी, भेजराटोला, बनबोर करेला, बिरखा बिलहरी, लोहारा, सिलीपचराही (वर्तमान कवर्धा जिला) लिमऊटोला आदि कला केन्द्रों से प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो संग्रहालय में प्रदर्शित हैं।

विशिष्ट कलात्मक प्रतिमायें-

नन्दी पर आरूढ़ उमामहेश्वर (वरेश्वर शिव)-
नन्दी पर आरूढ़ उमा-महेश्वर की यह प्रतिमा अत्यन्त मनमोहक है। इसमें उमा के बैठने का क्रम विपरीत है अर्थात् वामाङ्गी उमा दांयी ओर स्थित है। श्रीमद्भागवत के विवरणानुसार एक बार शिव, विष्णु के समीप उनके मोहनी रूप को देखने की इच्छा से वृषभ पर बैठ कर गये थे। उस समय पार्वती भी उनके साथ बैठी थी। यह प्रतिमा इसी विवरण की ओर इंगित करती है। शिव रास्ते में विष्णु के मोहनी रूप की कथा पार्वती को सुना रहे हैं जो उनकी मुख-मुद्रा से स्वतः स्पष्ट है। यह प्रसंग इतना रोचक है कि शिव-वाहन नन्दी भी ध्यान लगाकर सुन रहा है। सुनने की स्थिति में नन्दी के कान खड़े रूप में निर्मित है, जो इस दृश्यांकन को और भी जीवन्त रूप में प्रदर्शित करता है। यह प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

गौरी-
महेश्वर के द्वारा गौरी का ध्यान किया जाता है, ये गौर वर्ण की चार भुजा वाली होती हैं। अक्षसूत्र, पद्म, कमण्डलु हाथों में धारण करती हैं तथा एक हाथ अभय मुद्रा में रहता है। संग्रहालय में प्रदर्शित गौरी की प्रतिमा कमलासन पर स्थानक रूप में स्थित है। इनकी भुजायें एवं आयुध खण्डित हैं। अवशेषों से ज्ञात होता है कि प्रतिमा चतुर्भुजी थी। प्रतिमा के बांयी ओर ऊपर ब्रह्मा तथा नीचे मालाधारी, पूजक एवं गोधा स्थित है। बांयी ओर का हिस्सा खण्डित है। सर्वाभरण-भूषित गौरी की यह प्रतिमा लगभग 11 वीं शती ईस्वी की है।

उमामहेश्वर-
इस रूप में शिव को पार्वती के साथ प्रदर्शित किया गया है। चतुर्भुज शिव के हाथों में त्रिशूल, सर्प तथा मातुर्लिङ्ग धारण किये हुए हैं। एक हाथ से देवी को आलिङ्गन किए हुये दर्शित हैं। उमा के हाथों में अंजन-शलाका, दर्पण तथा एक हाथ शिव के स्कन्ध पर स्थित है। नीचे पादपीठ पर रावण को कैलाश पर्वत उठाते हुये प्रदर्शित किया गया है। संग्रहालय में प्रदर्शित उमा-महेश्वर प्रतिमाओं के पादपीठ पर रावण द्वारा ‘कैलाशोत्तोलन‘ दृश्य को प्राथमिकता दी गयी है। सिलीपचराही (कवर्धा) से प्राप्त यह प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

भैरव-
यह शिव का भयानक (ऊग्र) रूप है। भैरव की भयावह मुखमुद्रा में बड़े-बड़े नासापुट, नेत्र तथा मुख खुले हुये हैं। चतुर्भुजी भैरव के दो हाथ दर्शित हैं, जिनमें कपाल तथा एक हाथ से गण के केश को पकड़े हुये दिखाया गया है। शेष दो हाथ खंडित हैं। बांयी ओर नीचे उनका वाहन श्वान प्रदर्शित है, जो स्वभावानुसार देव की ओर उन्मुख हो रहा है। वस्त्रहीन भैरव पैरों में खड़ाऊ धारण किये हुए हैं, जो दर्शनीय है। यह प्रतिमा लगभग 7 वीं शती ईस्वी की है।

चामुण्डा-
चामुण्डा विकृत मुख वाली कही गई हैं। ये प्रेतों के साथ रहती हैं तथा सर्पाें के आभूषण धारण करती हैं। इनका रूप भयानक होता है। अपराजित पृच्छा ग्रन्थ चामुण्डा को शव पर आरूढ़ बतलाता है। संग्रहालय में प्रदर्शित चामुण्डा की प्रतिमा 20 भुजी है, जो उल्लेखनीय है। शिल्प शास्त्रों में 8, 12 एवं 16 भुजाओं वाली देवी प्रतिमा-निर्माण का विधान प्राप्त होता है। कलात्मक संयोजन की दृष्टि से यह भारत की एक अत्यंत दुर्लभ प्रतिमा कही जा सकती है। कदाचित अन्य क्षेत्रों से ऐसी बीसभुजी प्रतिमा दुर्लभ है। इस बीसभुजी प्रतिमा में देवी को विस्मय मुद्रा में अट्टहास करते हुये दिखाया गया है। चामुण्डा को एक अपस्मार-पुरुष के ऊपर नृत्य करते हुए निर्मित किया गया है। सर्पाभूषण, कृशकाय चेहरा, भयानक अस्त्र-शस्त्र, उदरभाग पर वृश्चिकांकन, नर-मुण्डमाला, गण आदि देवी के रौद्र रूप को प्रदर्शित करते हैं। शिल्पकार ने शिल्पशास्त्रों के विधानानुसार इस प्रतिमा को निर्मित किया है, जो उल्लेखनीय है। चामुण्डा की यह प्रतिमा लगभग 11वीं शती ईस्वी की है।

वीणापाणि सरस्वती-
ललितासन में आसनस्थ चतुर्भुजी वाग्देवी सरस्वती की कलचुरिकालीन प्रतिमा अप्रतिम है। वीणा, पुस्तक, कमलकलिका तथा नीचे बांयी ओर वाहन ‘हंस‘ सहित देवी की गले में ग्रैवेयक तथा कलात्मक अलंकरणों सहित मुख-मुद्रा में स्मित-सौम्य-भाव परिलक्षित है। यह प्रतिमा लगभग 11 वीं शती ईस्वी की है।

लक्ष्मीनारायण-
इस प्रतिमा में विष्णु ललितासन मुद्रा में ऊपर बैठे हैं, उनका एक पैर मुड़ा हुआ गरूड़ के स्कन्ध पर है और दूसरा लटकता हुआ गरूड़ की बांयी हथेली पर रखा है। पक्षीराज गरूड़ को मानवीय रूप में प्रदर्शित किया गया है। विष्णु के उत्सङ्ग में लक्ष्मी बैठी हैं। उनका दाहिना पैर मुड़ा हुआ है और बांया पैर लटकता हुआ गरूड़ की बांयी हथेली पर रखा है। गरूड़-पंख फैले और उड़ते हुये भाव में प्रदर्शित किया गया है। आलिङ्गन लक्ष्मीनारायण प्रतिमा के परिकर भाग में विष्णु के दशावतार-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम, परशुराम, बलराम, बुद्ध, कल्कि आदि का अंकन सूक्ष्मता के साथ किया गया है। शिल्प निर्माण की दृष्टि से यह प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

बुद्ध-
भूमि-स्पर्श मुद्रा में सिंहासन पर बैठे हुये बुद्ध की प्रतिमा प्रदर्शित है, जिसकी ऊंचाई लगभग 4 फीट 6 इंच है। प्रतिमा के परिकर भाग में बुद्ध के जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं का अंकन किया गया है, जिसमें महापरिनिर्वाण, धर्म-चक्रप्रवर्तन, अनुयायियों के साथ बुद्ध, वानर, वादक एवं नृत्यांगनाएं प्रमुख हैं। बौद्ध-कथानकों एवं काल की दृष्टि से यह प्रतिमा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बौद्ध मंत्र- हे धम्मों हेतु प्रभवा... लिखित यह प्रतिमा लगभग 9 वीं श.ई. वीं शती ईस्वी की है।

बौद्ध देवी तारा की अभिलिखित (बौद्ध- बीज मंत्र सहित) पाषाण-प्रतिमा कला की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

पार्श्वनाथ-
जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा पद्मासन में स्थित है, जिसके शीर्ष भाग पर सप्तफणों का आटोप है और उसके ऊपर घंटानुकृति तीन तलों वाला मुकुट प्रदर्शित है। सिंहासन के ऊपर नवग्रहों का अंकन है। बांया ऊपरी भाग खंडित है। सम्भवतः इसमें पंच परमेष्ठि का अंकन किया गया था, जिसमें दो दृष्टव्य है। विवेच्य प्रतिमा लगभग 12 वीं शती ईस्वी की है।

संग्रहालय में द्वार-पाल, आलिङ्गनबद्ध-युग्म (द्वार-शाखा का खंडित भाग) लगभग 7 वीं शती ईस्वी, नृत्य-गणेश, सूर्य, कलात्मक अलंकरणों से सुसज्जित राजा-रानी, उपासक, कलात्मक स्तंभ तथा सती-स्तंभ और योद्धाओं आदि की परंपरागत अनेक अप्रतिम कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय हैं, जो 7 वीं से 16 वीं शती ईस्वी के मध्य की हैं।

सुविधा
शोधार्थियों, विद्यार्थियों एवं जिज्ञासुओं को आवश्यक्तानुसार प्रतिमा-शास्त्रीय जानकारी संग्रहालय के कर्मचारियों द्वारा दी जाती है।
संग्रहालय खुलने का समय प्रातः 10ः30 से 1ः30 तक, दोपहर 2ः00 से सायं 5ः30 तक (द्वितीय-तृतीय शनिवार एवं शासकीय अवकाश के दिनों को छोड़कर)
सम्पर्क कुल सचिव कार्यालय, फोनः (07820) 34232,
संरक्षिका प्रोफेसर (डॉ.) इन्द्राणी चक्रवर्ती कुलपति
परामर्श डॉ. कृष्ण कुमार त्रिपाठी, अध्यक्ष - भारतीय कला का इतिहास एवं संस्कृति विभाग। डॉ. आर. एन. विश्वकर्मा, व्याख्याता। श्री आशुतोष चौरे संग्रहाध्यक्ष।
आलेख डॉ. मंगलानंद झा - गाईड

इस संग्रहालय के लिए प्रतिमाओं के समूल्य संग्रह के लिए तत्कालीन उपसंचालक श्री वी.के. बाजपेयी के साथ मुझे भी कवर्धा और खैरागढ़ में इस प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर मिला था। खैरागढ़ में उन दिनों दो एस.आर. यानि डा. श्री राम नेमा और डा. सीताराम शर्मा हुआ करते थे।

इस फोल्डर में अमलीडीह कलां ग्राम के बौद्ध-स्तूप का उल्लेख है। शासकीय विभाग की ओर से इस स्थल का निरीक्षण कर प्रतिवेदन दिया गया था, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि यह स्थल टीले पर मंदिर के अवशेष का है तथा अवशिष्ट संरचना की भूयोजना का रेखांकन भी मेरे द्वारा किया जा कर, प्रतिवेदन के साथ संलग्न किया गया था।

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