छत्तीसगढ़ का पुरातत्व
मध्यप्रदेश के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में स्थित रायपुर, बिलासपुर और बस्तर संभाग का क्षेत्र छत्तीसगढ़ के नाम से प्रख्यात है। इस भू-भाग का अधिकांश हिस्सा (पूर्व बस्तर रियासत को छोड़कर) तथा पश्चिमी उड़ीसा का क्षेत्र दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध था। भारतीय इतिहास, संस्कृति एव पुरातत्व के क्षेत्र में दक्षिण कोसल का स्थान महत्वपूर्ण रहा है। इस अंचल के पुरातत्व के विषय में उस समय से जानकारी मिलती है, जब मानव-सभ्यता का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था तथा मनुष्य पशुओं की भांति जंगलों, पर्वतों और नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में जीवन व्यतीत करता था। अन्य प्राणियों से बुद्धि में श्रेष्ठ होने के कारण मानव ने पत्थरों को नुकीला बनाकर उसे उपकरण (हथियार) के रूप में प्रयुक्त करना प्रारम्भ किया, जिससे भोजन सरलतापूर्वक प्राप्त कर सके। पाषाण के प्रयोग के कारण, यह युग पाषाण-काल के नाम से सम्बोधित किया जाता है। विकास की अवस्था के आधार पर इसे तीन भागों में विभाजित किया जाता है- (१) पूर्व-पाषाण काल, (२) मध्य-पाषाण काल एवं (३) उत्तर-पाषाण काल। पूर्व-पाषाण युग के उपकरण महानदी घाटी तथा रायगढ़ जिले के सिंघनपुर से प्राप्त हुए हैं। मध्य-पाषाण युग की सामग्री रायगढ़ जिले से ही कबरा पहाड के निकट से तथा उत्तर पाषाण काल के औजार महानदी घाटी बिलासपुर जिले के धनपुर, सिंघनपुर आदि स्थलों से मिले हैं। हाल के वर्षों में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं मध्यप्रदेश संग्रहालय विभाग द्वारा बस्तर जिले के अनेक प्रागैतिहासिक स्थलों की खोज की गई है। पाषाण काल के पश्चात् नव-पाषाण काल आता है। इससे सम्बन्धित अवशेष दुर्ग जिले के अर्जुनी तथा नांदगांव, रायगढ़ जिले के टेरम तथा बस्तर जिले में मिलते हैं। इस काल में मानव, सभ्यता की दृष्टि से विकसित हो चुका था तथा उससे कृषि-कर्म, पशुपालन, गृह निर्माण तथा बर्तनों का निर्माण करना सीख लिया था।
पाषाण युग के पश्चात् ताम्र और लोह युग आता है। इस काल की सामग्री का छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अभाव है किन्तु निकटवर्ती बालाघाट जिले के गुंगेरिया नामक स्थान में ताम्बे के औजारों का एक बड़ा संग्रह सन १८७० में प्राप्त हुआ था। लौह-युग में शव को गाड़ने के लिये बड़े बड़े शिलाखण्डों का प्रयोग किया जाता था, अतएव इन्हें महापाषाण स्मारक के नाम से सम्बोधित किया जाता है। दुर्ग जिले के कन्हीभण्डार, चिरचोली. मजगहान एवं सोरर से इस काल के पाषाण घेरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसी जिले के कबराहाट नामक स्थल से पाषाण घेरे के साथ लोहे के औजार एवं मृण्मयभाण्ड (मिट्टी के बर्तन) मिले हैं। दुर्ग जिले के धनोरा नामक स्थल में ५०० महापाषाणीय स्मारक स्थित हैं: इस स्थान में सन् १९५६-५७ में मध्यप्रदेश शासन द्वारा उत्खनन शासन कराया गया था।
प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य, जब पर्वत की कन्दराओं में निवास करता था, तब उसने कन्दराओं में अनेक चित्र बनाए थे जो उसके कलाप्रिय होने के प्रमाण हैं। इस प्रकार के चित्र रायगढ जिले के सिंघनपुर, कबरा पहाड़, ओंगना, बसनाझर, करमागढ़ लेखामाडा, राजनांदगांव जिले के चितवा डोंगरी तथा बस्तर जिले के गुपनसार आदि स्थलों में प्राप्त हुए हैं।
आर्यों के आगमन के साथ ही भारतीय इतिहास में वैदिक युग प्रारम्भ होता है। इस काल की सामग्री का छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अभाव है। रामायण, महाभारत तथा पौराणिक कथानकों से संबंधित अनेक स्थलों के विवरण यहां मिलते हैं। लगभग छठवीं शताब्दी ई.पू. में उत्तर भारत सोलह महाजनपदों में विभाजित था। इस काल के विवरण इस क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हैं किन्तु तारापुर और आरंग से प्राप्त आहत मुद्राओं (punch marked coins) से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में नन्द-मौर्य काल के पूर्व, एक पृथक सत्ता स्थापित थी।
मौर्यकालीन पुरातात्विक सामग्रियों में सरगुजा जिले के रामगढ़ की पहाड़ियों में स्थित सीताबेंगा और जोगीमारा नामक गुफाएं अत्यन्त महत्वपूर्ण कही जा सकती है। यहां अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में सुतनुका नामक देवदासी तथा उसके कलाकार प्रेमी देवदत्त का उल्लेख है। यहीं भारत की प्राचीनतम् नाट्य शाला भी स्थित है जो पर्वत को खोदकर बनाई गई है। मौर्य-काल की मुद्राए बिलासपुर जिले के अकलतरा /अकलसरा और ठठारी से प्राप्त हुए हैं।
मौर्यों के पश्चात् छत्तीसगढ़ का क्षेत्र संभवतः सातवाहनों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था। शिवश्री आपिलक नामक सातवाहन राजा की ताम्र मुदाएं यहां प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त सातवाहन मुद्राओं की अनुकृति में अनेक ताम्बे के सिक्के भी मिलते हैं। सातवाहनकालीन सामग्रियों में बिलासपुर जिले के किरारी नामक स्थान से प्राप्त काष्ठस्तंभ लेख तथा सक्ती के निकट गंुजी (ऋषभ तीर्थ) स्थित कुमारवरदत्त का शिलालेख महत्वपूर्ण माना जा सकता है। चीनी यात्री युवान-च्वांग ने भी यहां के सातवाहन राजा तथा उसके राज्य में रहने वाले भिक्षु नागार्जुन का उल्लेख किया है। बिलासपुर जिले के बुढ़ीखार से एक लेखांकित प्रतिमा मिली है। यह प्रतिमा भारत की प्राचीनतम वैष्णव प्रतिमा स्वीकृत की जाती है। सातवाहन काल में भारत का व्यापार रोम से अत्यन्त विकसित था। संभवतः इसीलिए छत्तीसगढ़ क्षेत्र से अनेक रोमन स्वर्ण मुद्राएं भी प्राप्त हुई हैं।
सातवाहनों के पश्चात भारतीय राजनीति में शक कुषाण आदि विदेशी जातियों का वर्चस्व स्थापित हो गया। छत्तीसगढ़ में इनके अधिकार संबंधी विवरण उपलब्ध नहीं है, फिर भी इनके ताम्बे के सिक्कों की प्राप्ति यहां हुई है। बिलासपुर जिले के पेन्डरवा नामक स्थान से कुषाण सिक्कों के साथ यौधेयगण का एक ताम्बे का सिक्का मिला है।
इसके पश्चात भारतीय इतिहास में स्वर्ण-युग के नाम से विख्यात गुप्त-काल आता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने दक्षिण कोसल के राजा महेन्द्र तथा महाकान्तार (बस्तर) के राजा व्याघ्रराज को पराजित किया तत्पश्चात् उनका राज्य वापस कर दिया। इस प्रकार उनका प्रभाव इस क्षेत्र में स्थापित हो गया। गुप्तकाल की नौ स्वर्ण मुद्राएं दुर्ग जिले के बानबरद नामक स्थल से मिली हैं। इसमें काच, चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा कुमार गुप्त प्रथम की मुद्राएं हैं। कुमारगुप्त प्रथम का चांदी का एक सिक्का आरंग से मिला है। गुप्तों के समकालीन वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन का एक अधूरा ताम्रपत्र भी दुर्ग से प्राप्त हुआ है।
गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल में इस क्षेत्र में गुप्त वाकाटक वंशों का प्रभाव रहा किन्तु यहां की सत्ता स्थानीय राजवंशों द्वारा संचालित होती थी। यहां नल, राज्यर्षितुल्यकुल, शरभपुरीय, पाण्डुवंशीय शासकों का राज्य रहा। नलवंश का प्रमुत्व मुख्यतः बस्तर क्षेत्र में था इसका संघर्ष वाकाटक राजाओं से था। इस वंश के कुल चार अभिलेख मिले हैं। बस्तर जिले के एडेन्गा एवं दुर्ग जिले के कुलिया नामक स्थानों से प्राप्त उभारदार (repousse) मुद्राओं से इस वंश के पांच राजाओं यथा- वराहराज, भवदत्तवर्मन, अर्थपति, नन्दनराज एवं स्तंभ के विषय में जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त राजिम से प्राप्त एक ताम्रपत्र में इनकी परवर्ती शाखा के विषय में जानकारी मिलती है।
राज्यर्षितुल्यकुल के राजा भीमसेन द्वितीय का आरंग से प्राप्त एकमात्र ताम्रपत्र ज्ञात है।
शरभपुरीय नाम, इस वंश के संस्थापक शरभ तथा उसकी राजधानी शरभपुर के आधार पर दिया गया है। शरभपुर का अभिज्ञान अभी तक नहीं हो सका किन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि यह रायपुर-बिलासपुर क्षेत्र में स्थित रहा होगा। शरभ का उत्तराधिकारी नरेन्द्र हुआ। इसके पश्चात् प्रसन्न नामक राजा का उल्लेख परवर्ती अभिलेखों में मिलता है। इसमें स्वर्ण, रजत एवं ताम्बे की उभारदार मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिससे इसका पूरा नाम प्रसन्नमात्र ज्ञात होता है। प्रसन्नमात्र के सिक्कों के सदृश्य महेन्द्रादित्य और क्रमादित्य की भी स्वर्ण मुद्राएं मिलती हैं। इसके प्रचलनकर्ता स्थानीय शासक थे अथवा गुप्त सम्राट, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। शरभपुरीय शासकों की द्वितीय राजधानी कालान्तर में श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर, जिला-रायपुर) हो गई। बाद में यह पूर्ण राजधानी में परिवर्तित हो गई। शरभपुरीय स्मारकों का निश्चित अभिज्ञान नहीं हो सका है। किन्तु बिलासपुर जिले के ताला में स्थित देवरानी एवं जेठानी मंदिर इस काल के प्रतीत होते हैं। मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय संचालनालय द्वारा इस स्थान के सफाई तया संरक्षण का कार्य विगत वर्षों कराया गया है, जिससे अनेक महत्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्रियां मिली हैं।
शरभपुरियों के पश्चात छत्तीसगढ़ क्षेत्र पाण्डुवंशीय अथवा सोमवशीय शासकों के आधीन आया। यह काल छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण-काल माना जा सकता है। इस वंश की राजधानी सिरपुर में स्थित थी। महाशिवगुप्त बालार्जुन इस वंश का यशस्वी राजा था। पाण्डु-काल के अनेक अभिलेख, स्मारक एंव मंदिर इस क्षेत्र में मिलते हैं। सिरपुर का ईटों द्वारा निर्मित लक्ष्मण मंदिर इस काल की अनुपम कृति है। इसके अतिरिक्त गंधेश्वर मंदिर का निर्माण भी इसी काल में हुआ था। सिरपुर में उत्खनन कायं १९५३-५४ में सागर विश्व विद्यालय तथा १९५४-५५ एवं ५५-५६ में मध्यप्रदेश शासन द्वारा कराया गया, जिससे पंचायतन शैली का शिवमंदिर एवं दो बौद्ध बिहार और सैकड़ों मूर्तियां एवं पुरातात्विक सामाग्री प्राप्त हुई है। सिरपुर से प्राप्त धातु प्रतिमाएं न केवल छत्तीसगढ़ वरन् सम्पूर्ण भारत की महत्वपूर्ण कलाकृति के रुप, स्वीकृत हैं। सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की शैली के ईटों के मंदिर की परम्परा लगभग ३०० वर्षों तक चलती रही। खरौद, पुजारीपाली, धोबनी, पलारी आदि स्थलों में प्राप्त मंदिरों से इसकी पुष्टि होती है।
छत्तीसगढ़ में पाण्डुवंशियों के पश्चात रतनपुर कलचुरियों, कवर्धा तथा चक्रकोट के नाग तथा कांकेर के सोमवंशियों का शासन रहा। इसमें कलचुरी प्रमुख सत्ता थी। कलचुरियों की प्रारंभिक राजधानी बिलासपुर जिले के तुम्माण में थी कालान्तर में यह रत्नपुर (वर्तमान रतनपुर) में स्थानांतरित हो गई। इस वंश के अनेक अभिलेख, मुद्राएं तथा स्मारक छत्तीसगढ़ में मिलते हैं। कलचुरी अभिलेखों का सम्पादन डा. व्ही. व्ही. मिराशी द्वारा किया गया है। इस वंश के जाजल्लदेव प्रथम की स्वर्ण एवं ताम्र; रत्नदेव द्वितीय की स्वर्ण, रजत और ताम्र तथा प्रतापमल्ल की सिर्फ ताम्बे की मुद्राएं ज्ञात हैं। कलचुरी तथा समकालीन राजवंशों से संबंधित मंदिर एवं प्रतिमाएं रायपुर जिले के राजिम, नारायणपुर, आरंग, सिहावा, खल्लारी; बिलासपुर जिले के तुम्माण, रतनपुर, मल्लार, सलखन, शिवरीनारायण; जांजगीर, कोटगढ़, सरगांव, अडभार; दुर्ग जिले देवबलौदा एवं सोरर; राजनांदगांव जिले के भोरमदेव, घटियारी, गंडई और बस्तर जिले के नारायणपाल बारसूर एव भैरमगढ़ में स्थित हैं। इन स्थानों में शैव, वैष्णव. शाक्त तथा जैन धर्म से सम्बंधित कलात्मक देवालय एवं प्रतिमाएं उपलब्ध हैं। कलचुरियों के पश्चात् छत्तीसगढ़ क्षेत्र मराठों तथा कालान्तर में ब्रिटिश शासन के अधिकार में आ गया।
छतीसगढ़ की पुरातत्व सम्पदा का एक बड़ा संग्रह रायपुर के महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय में संरक्षित है। विगत वर्षों में मध्यप्रदेश शासन द्वारा बिलासपुर में एक संग्रहालय की स्थापना की गई है। यहां की पुरातात्विक सम्पदा के संरक्षण के लिए शासन सतत प्रयत्नशील है अनेक स्मारकों को राज्य शासन द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया जा चुका है तथा यह क्रम अभी भी जारी है।
पुरातत्व एवं संग्रहालय, मध्यप्रदेश, रायपुर द्वारा प्रकाशित तथा शि. बे. औ सह. संस्था द्वारा मुद्रित। आलेख- डा. लक्ष्मीशंकर निगम।
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