छत्तीसगढ़ के बौद्ध स्थल प्रदर्शनी का आयोजन, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में दिनांक 17 मई से 30 जून 1993 तक आयोजित किया गया था। इस अवसर पर विभागीय अधिकारियों के सहयोग से तत्कालीन कलेक्टर श्री देवराज विरदी द्वारा तैयार आलेख, पत्रक के रूप में प्रकाशित-वितरित किया गया था। इसमें आई जानकारी संदर्भ हेतु उपयोगी, अतएव यहां प्रस्तुत है-
छत्तीसगढ़ के बौद्ध स्थल
मध्यप्रदेश का दक्षिण-पूर्वी अंचल प्राचीन काल में कौशल या दक्षिणी-कौशल के नाम से जाना जाता था। इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व की दृष्टि से यह क्षेत्र अधिक समृद्ध है। बन्धुत्व एवं सहिष्णुता की यहां गौरवशाली परम्परा रही है। ब्राह्मण, बौद्ध, जैन एवं शाक्त मत साथ-साथ फले फूले हैं, उनका प्रचार-प्रसार हुआ है, इतिहास इसका साक्षी है। यह धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय का प्रमाण है।
विश्व के प्रमुख धर्मों में बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका उद्भव हमारे देश में ही हुआ था। इसके प्रवर्तक थे महात्मा गौतम बुद्ध, जिनका जन्म कपिलवस्तु के शाक्य वंशी राजा शुद्धोदन की रानी महामाया की कोख से सन् ५७६ ई. पूर्व में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। १६ वर्ष की आयु में इनका विवाह यशोधरा से हो गया। २९ वें वर्ष में उनका एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम ‘राहुल‘ रखा गया। २९ वें वर्ष में ही सन्यास ग्रहण कर घर का त्याग (महाभिनिष्क्रमण) कर दिया। उरुवेला में पहुँचकर सिद्धार्थ ने घोर तपस्या की, पर उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकी। एक दिन पीपल के पेड़ के नीचे उन्हें ज्ञान (बुद्धत्व) प्राप्त हुआ और वह यहीं से ‘बुद्ध‘ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उस समय उनकी आयु ३९ वर्ष की थी।
ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात बुद्ध ने अपना शेष जीवन लोगों के हित में लगाने का निश्चय किया तथा उनने अपना प्रथम धर्मोपदेश बनारस के निकट सारनाथ में दिया, जिसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन‘ की संज्ञा दी गई। अपने जीवन के शेष ४५ वर्ष ग्राम-ग्राम और नगर नगर में उन्होंने घूम-घूमकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया। ८० वर्ष की आयु में ४८७ ईसा पूर्व में कुशीनगर (कुशीनारा) में उनका निधन हो गया। भगवान बुद्ध के अनुयायी ‘बौद्ध‘ कहलाये। चूंकि इस नये धर्म में परम्परागत रूढ़ियों, कुरीतियों, अन्धविश्वास, जाति प्रथा तथा याज्ञिक, कर्मकाण्ड आदि का विरोध किया तथा इसे नया वैज्ञानिक धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया गया था। अतः इसका प्रचार-प्रसार द्रुत गति से होने लगा। बुद्ध के पश्चात मौर्य काल में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में नई स्फूर्ति एवं शक्ति का संचार किया। कुषाण काल से गुप्तोत्तर एवं राजपूत काल तक में न केवल दक्षिण भारत एवं लंका अपितु सुदूर दक्षिण-पूर्वी एशिया के सुवर्ण भूमि (बर्मा) थाईलैण्ड, कम्बोडिया, मलाया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, चीन, जापान, कोरिया तक फैल गया। सम्राट कनिष्क एवं हर्ष के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
चूंकि दक्षिण कोशल एवं महाकान्तार मगध एवं दक्षिण भारत के मध्य में स्थित है, अतः अनुमान है कि मौर्य काल में ही इस क्षेत्र में प्रथम बार बौद्ध भिक्षुओं का पदार्पण मगध की ओर से हुआ होगा। तथा जोगीमारा गुफा एवं सीताबेंगरा गुफा बौद्ध भिक्षुओं के निवास गृह के रूप में प्रयुक्त हुई होंगी, इस की संभावना प्रबल है। जोगीमारा गुफा के भित्ति चित्र बौद्धमत से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। इनमें जातक कथाओं के कथानक का अंकन हुआ है। एक चित्र में बुद्ध बैठे हुए हैं तथा दूसरे में नदी एवं हाथियों की पंक्ति का अंकन है। भित्ति एवं छत पर निर्मित रंगीन चित्र अब धूमिल पड़ गये हैं तथा एकाएक दिखलाई नहीं पड़ते।
छत्तीसगढ़ अंचल के सिरपुर एवं मल्हार नामक दो प्रसिद्ध प्राचीन नगर बौद्ध कला के केन्द्र थे। इसी तरह राजिम, तुरतुरिया, एवं भोंगापाल भी अन्य महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय बौद्ध स्थल थे।
१. सिरपुर -
सिरपुर, रायपुर नगर से ८४ कि.मी. की दूरी पर महानदी के दक्षिण तट पर स्थित है। शरभपुरी एवं सोमवंशी शासकों के अभिलेखों एवं ताम्रपत्रों में उल्लेखित नाम ‘श्रीपुर‘ ही बिगड़कर ‘सिरपुर‘ हो गया है। श्रीपुर का अर्थ लक्ष्मी का नगर अथवा समृद्ध नगर होता है। शरभपुरियों के उपरांत सोमवंशी राजाओं की छत्रछाया में सिरपुर में (जो इस अंचल का सबसे बड़ा केन्द्र था) अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ तथा बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु दूर-दूर से यहां आते थे। सोमवंशी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। किन्तु परवर्ती शासक शैव हो गये थे। सांस्कृतिक सह अस्तित्व एवं समन्वय की झांकी बौद्ध धर्म के विहार एवं प्राचीन मंदिरों से मिलती है।
चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपने भ्रमण वृत्तान्त में किया वसलो (कोशल) का ६३९ ई. में वर्णन किया है। उसके अनुसार इस राज्य का क्षेत्रफल ६०० ली तथा राजधानी का क्षेत्रफल ४० ली था युवानच्वाड्ग-२ पृ. २००) राजा क्षत्रिय जाति का था और बौद्ध धर्म को बहुत सम्मान देने वाला था। उसके गुण एवं प्रेम आदि की बड़ी प्रशंसा थी। राजधानी में कोई १०० संघाराम थे और १०००० से कुछ ही कम साधु थे, जो सब के सब महायान सम्प्रदाय का अनुशीलन करते थे। कोई २० देव मंदिर विरोधियों से भरे हुए थे। यहीं पूर्व में नागार्जुन बोधिसत्व सिरपुर में रहा था।
प्रमुख बौद्ध बिहार आनन्दप्रभकुटी विहार के नाम से प्रसिद्ध है, चूंकि इस विहार का निर्माण महाशिवगुप्त के काल में आनन्दप्रभ नामक एक बौद्ध भिक्षु द्वारा कराया गया था। इस विहार के अग्रभाग में एक मण्डप है, जिसमें प्रवेश द्वार के पास विशालकाय द्वार रक्षक एवं यक्ष प्रतिमा है। मध्य भाग में अष्टादश स्तंभों पर आधारित एक सभा मण्डप है, जिसके चारों ओर बरामदे हैं तथा उनके पीछे कुल १४ कोठरियां हैं। इसके पीछे गर्भगह में सिंहासनासीन २ मीटर ऊंची एक बुद्ध प्रतिमा भूस्पर्श मुद्रा में बैठी हुई प्राप्त हुई है, जो आज भी अपने मूल स्थान पर है। इसके वाम भाग में पद्मपाणि अवलोकितेश्वर की स्थानक प्रतिमा है। इस विहार के उत्खनन में तात्कालिक जीवन की झांकी प्रस्तुत करने वाले बर्तन, दिये, ताले, पूजा की मूर्तियां, पूजा-पात्र आदि अनेक पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। इस विहार की निर्माण योजना में मंदिर एव विहार की निर्माण योजना का समन्वय दिखलाई पड़ता है।
इसी प्रकार सन् १९५५ में ही इसके समीप एक दूसरा विहार उत्खनित हुआ, जिसे हम स्वस्तिक विहार के नाम से जानते हैं। ईंट निर्मित इस विहार में सभा मण्डप के तीन ओर सामने पूर्व दिशा की ओर छोड़कर कक्ष निर्मित हैं। सभा मण्डप के दाहिनी ओर तीन कक्ष हैं। स्वस्तिक विहार के गर्भगृह में बुद्ध की भूस्पर्श मुद्रा में पद्मासन पर आसीन प्रतिमा सिंहासन पर विराजमान है। यह २.१० मीटर ऊंची है। इसके वाम पार्श्व में पद्मपाणि अवलोकितेश्वर की कट्यवलम्बित प्रतिमा सिंहासन पर विराजमान है।
सिरपुर में परमसुगत के जीवन सम्बन्धी प्रमुख घटनाओं का सूक्ष्म अंकन करने का प्रयास किया गया। धातु-प्रतिमाओं के निर्माण के क्षेत्र में इस अंचल में सिरपुर में प्रारंभिक सक्रियता के दर्शन होते हैं। अवलोकितेश्वर, पद्मपाणि, वज्रपाणि, मैत्रेय, तारा, मंजुश्री एवं बुद्ध के जीवन की भिन्न-भिन्न मुद्राएं रूपांकित हुई हैं। पूर्वी भारत की पाल कला शैली में निर्मित मगध के कुर्कीहार एवं नालन्दा से प्राप्त धातु प्रतिमाओं तथा सिरपुर की धातु-प्रतिमायें समकालीन हैं एवं उनमें अत्यधिक साम्य है। ये धातु प्रतिमायें अद्वितीय कला निधि एवं पुरातत्वीय विरासत हैं।
२. तुरतुरिया -
रायपुर जिले में रायपुर से व्हाया सिरपुर तुरतुरिया रायपुर से ११७ कि.मी. एवं सिरपुर से ३७ कि. मी. की दूरी पर है। कसडोल मार्ग पर स्थित ठाकुरदिया गांव से ४ कि.मी. दूर स्थित इस स्थल पर भी बौद्ध प्रतिमा विद्यमान हैं। किंवदन्ती है कि इसके निकट सघन वन में बौद्ध भिक्षुओं का एक विहार था, जिसको ढूंढा नहीं जा सका है। यहां पर सीता मंदिर में पद्मपाणि की एक प्रतिमा, कुंड के पास एक प्रतिमा एवं जानकी कुटी नामक मढ़िया में बुद्ध की दो एवं पद्मपाणि की दो प्रतिमाएं रखी हैं। ये लगभग ९ वीं शती ई. की हैं। यह स्थान सिरपुर से व्हाया शिवरीनारायण मल्हार के रास्ते में पड़ता है।
३. मल्हार-
छत्तीसगढ़ अंचल का मल्हार तीसरा बौद्ध केन्द्र था। यह प्राचीन ऐतिहासिक नगर, बिलासपुर जिले में बिलासपुर से ३२ कि.मी. दूर स्थित है। सिरपुर की भांति यहां भी शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध लोग मिल जुल कर रहते थे। महाशिवगुप्त के राजत्व काल में जारी किये गये, मल्हार ताम्रपत्र से हमें यह जानकारी प्राप्त होती है कि तरडंशक (आधुनिक तरोद ) भोग में स्थित कैलाशपुर (आधुनिक केसला या कोसला) ग्राम जो मल्हार से १३ कि.मी. आग्नेय कोण में स्थित है, को कोरदेव की पत्नी अलका द्वारा तरडंशक में बनवाये गये विहार में रहने वाले आर्य भिक्षु संघ को मामा भास्कर वर्मन की विज्ञप्ति से आषाढ़ मास की अमावस्या को सूर्य ग्रहण के समय दान में दिया गया था। यह दान बौद्ध भिक्षुओं को दिया गया था। (दे.पृ. ४५ एवं उत्कीर्ण लेख -श्री बी.सी.जैन)
मल्हार में ७ वीं शती ई. से १० शती ई. तक गुप्तकालीन परम्परा में बौद्ध स्मारक एवं प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। बुद्ध बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज्र, आदि अनेक बौद्ध देवी देवताओं की प्रतिमायें मल्हार में प्राप्त हुई हैं। उत्खनन में स्थानीय प्रस्तरों से निर्मित हेवज्र देवता का मंदिर प्राप्त हुआ। यह गर्भगृह के ईंट निर्मित चबूतरे पर प्राप्त हुई। पकी मिट्टी की बहुसंख्यक मुहर की प्राप्ति विशेष उल्लेखनीय है। पकी मिट्टी की अण्डाकार मुहर जिस पर ‘कल्याणार्चि‘ उत्कीर्ण है, (काल-७वीं शती ई.) प्राप्त हुई है। ‘धर्मकारक‘ पात्र भी प्राप्त हुए हैं। मल्हार में सातवीं से लेकर दसवीं शती ई. तक मल्हार में तंत्रयान का विकास परिलक्षित होता है।
४. राजिम-सिरकट्टी (पाण्डुका)
रायपुर जिले में पैरी महानदी के संगम पर बसा राजिम नामक स्थान धार्मिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह रायपुर से देवभोग सड़क पर ४५ कि.मी. की दूरी पर है। कनिंघम के मतानुमार सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर के मण्डप के स्तंभ नाव द्वारा राजिम लाये गये थे। (आ. सर्वे रिपोर्ट्स भाग - XVII पृ.२३) राजिम के राजीवलोचन मंदिर के परिसर के उत्तरी द्वार के निकट भूस्पर्श मुद्रा में बैठी हुई एक प्राचीन बुद्ध प्रतिमा स्थापित है, जो ८वीं-९वीं शती की है।
राजिम से देवभोग रोड पर २० कि. मी. दूर पाण्डुका ग्राम स्थित है, जहां से २ कि. मी. की दूरी पर सिरकट्टी आश्रम है, यह आश्रम एक प्राचीन टीले पर है। यहां पर चतुर्भुज मंदिर के पास पीपल के पेड़ के नीचे चार प्राचीन प्रस्तर-चौकी रखी हैं। ये बौद्धों की पूजन सामग्री से सम्बन्धित हैं। इन चौकियों पर मकार या नन्दी पाद चिन्ह एवं स्वस्तिक चिन्ह बने हुए हैं। एक चौकी पर बुद्ध जी है, जो मौर्यकालीन प्रतीत होती है। इससे ऐसा अनुमान है कि सिरपुर-राजिम क्षेत्र में बौद्धों का प्रचार मौर्यकाल में हो चुका था। प्राचीन नदी बन्दरगाह के अवशेष पैरी में सिरकट्टी में ही है।
५. भोंगापाल -
एक नये बौद्ध स्थल भोंगापाल, नारायणपुर से ३० कि.मी. उत्तर में सघन वन में स्थित की जानकारी हमें पुरातत्व विभाग मध्यप्रदेश द्वारा १९९०-९१ में कराये गये मलबा सफाई कार्य के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुई है। अनुमान है कि यहां पर सिरपुर एवं भद्रावती के समान गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में एक प्राचीन बस्ती थी। भोंगापाल में लसूरा नदी के तट पर एक बौद्ध मठ या बौद्ध विहार के अवशेष एवं एक बुद्ध प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो ७वीं शती ई. की है। ईंट निर्मित बौद्ध विहार में मण्डप, प्रदक्षिणापथ, देवपीठिका युक्त गर्भगृह जो अर्द्धवृत्ताकार (apsidal) एवं पूर्व दिशा को छोड़कर शेष तीन दिशाओं के मण्डपों से सम्बद्ध कक्षों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उड़ीसा में बोध नामक स्थान में भी ९वीं शती ई. के बौद्ध विहार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये हमारे गौरवपूर्ण अतीत के मूक साक्षी हैं।
छत्तीसगढ़ के बौद्ध स्थल प्रदर्शनी में प्रदर्शित सामग्री -
१. आंचलिक बौद्ध स्मारकों एवं प्रतिमाओं के छायाचित्र -
१. जोगीमारा गुफा, रामगढ़, जिला सरगुजा
२. सीताबेंगरा गुफा, रामगढ़, जिला सरगुजा
३. ईंट निर्मित बौद्ध विहार, भोंगापाल, जिला बस्तर
४. ईट निर्मित बौद्ध विहार भोंगापाल के पीछे का दृश्य
५. ध्यानी बुद्ध की पद्मासन में आसीन प्रतिमा, भोंगापाल
६. आनंदप्रभकुटी विहार, सिरपुर, जिला रायपुर
७. स्वस्तिक विहार, सिरपुर, जिला रायपुर
८. गन्धेश्वर मंदिर, सिरपुर के नदी द्वार की बुद्ध प्रतिमा
९. तुरतुरिया के जानकी कुटी की बुद्ध-प्रतिमा
१०. मंजुश्री (धातु प्रतिमा) सिरपुर
११. वज्रपाणि (धातु प्रतिमा) सिरपुर
१२. अलंकृत स्तंभ जिस पर उलूक जातक का दृश्य अंकित है, मल्हार जिला बिलालपुर
१३. बुद्ध प्रतिमा, बूढीखार (मल्हार) जिला बिलासपुर
१४. जम्भल (कुबेर) मल्हार, जिला बिलासपुर
२. सिरपुर से प्राप्त बौद्ध मूल धातु प्रतिमाएं जो विशिष्ट पुरातत्वीय महत्व की हैं -
१. मंजुश्री
२. बोधिसत्व पदमपाणि
३. वज्रपाणि
४ भू-स्पर्श मुद्रा में बैठी हुई बुद्ध प्रतिमा
५. भू-स्पर्श मुद्रा में बैठी हुई बुद्ध प्रतिमा
३. सिरपुर से प्राप्त मृणमय मुहर ईंटें
१. बौद्ध मंत्र युक्त मुहर
२. मृण्मय मुहर, जिस पर स्थानक अवलोकितेश्वर अंकित हैं।
३. बौद्ध मंत्रयुक्त मृण्मय मुहर जिस पर भू-स्पर्श मुद्रा में बैठे हैं।
४. प्राचीन ईंट २ नग
४. सिरपुर से प्राप्त बौद्ध पाषाण-प्रतिमायें -
१. भूस्पर्श मुद्रा में बैठी हुई लघु बुद्ध प्रतिमा
२ मंजुश्री की कृष्ण प्रस्तर निर्मित लघु प्रतिमा जिसमें पीछे अभिलेख है।
३. बुद्ध प्रतिमा
४. मंजुश्री
५. बुद्ध प्रतिमा, लाल बलुआ पत्थर निर्मित
६. बुद्ध पद्मासनस्थ चौकी पर ५ पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है।
५. मल्हार, जिला बिलासपुर के ४ पुरावशेष भी प्रदर्शित किये गये हैं -
१. मृण्मय बौद्ध मंत्र युक्त मुहर जिसमें स्तूप के मध्य बुद्ध बैठे हैं।
२. मृण्मय मुहर जिस पर बौद्ध बीज मंत्र अंकित है।
३. मृण्मय मुहर बौद्धमंत्र युक्त (अंशतः खण्डित) श्री गुलाब सिंह, मल्हार के सौजन्य से प्रदर्शनी हेतु ये पुरावशेष प्राप्त हुए हैं।
६. छत्तीसगढ़ के पुरातत्वीय स्मारक स्थल का नक्शा जिसमें बौद्ध स्थल अंकित हैं -
७. सिरपुर के प्राचीन स्थल एवं बौद्ध विहार, भोंगापाल के मानचित्र -
सम्पर्क - महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय रायपुर, स्थित
१. उपसंचालक कार्यालय पुरातत्व एवं संग्रहालय मध्यप्रदेश दक्षिणी क्षेत्र दूरभाष क्रमांक :-२७९७६
२. संग्रहाध्यक्ष कार्यालय दूरभाष क्रमांक - २७९७६
आलेख: देवराज विरदी (आई.ए.एस.) जिलाध्यक्ष एवं अध्यक्ष जिला पुरातत्व संघ रायपुर (म.प्र.)
बहुत बहुत साधुवाद... बहुत ही सुंदर जानकारी 🌷🙏🌷
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