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Monday, January 30, 2012

पुरातत्व सर्वेक्षण

''शहरीकरण और जनसंख्‍या के विस्‍तार के दबावों से देश भर में हमारे ऐतिहासिक स्‍मारकों के लिए खतरा पैदा हो गया है।'' ... ''पुरातत्‍व विज्ञान हमारे भूतकाल को वर्तमान से जोड़ता है और भविष्‍य के लिए हमारी यात्रा को परिभाषित करता है। इसके लिए दूर दृष्टि, उद्देश्‍य के प्रति निष्‍ठा और विभिन्‍न सम्‍बद्ध पक्षों के सम्मिलित प्रयासों की आवश्‍यकता होगी। मुझे उम्‍मीद है कि आप इस महत्‍वपूर्ण प्रयास के दायित्‍व को संभालेंगे।'' प्रधानमंत्री जी ने 20 दिसंबर को नई दिल्‍ली में आयोजित भारतीय पुरातत्‍तव सर्वेक्षण की 150वीं वर्षगांठ समारोह में यह कहा है। इस दौर में मैंने 'पुरातत्‍व', 'सर्वेक्षण' शब्‍दों पर सोचा-

पुरातत्‍व
आमतौर पर पिकनिक, घूमने-फिरने, पर्यटन के लिए पुरातात्विक स्मारक-मंदिर देखने का कार्यक्रम बनता है और कोई गाइड नहीं मिलता, न ही स्थल पर जानकारी देने वाला। ऐसी स्थिति का सामना किए आशंकाग्रस्त लोग, पुरातत्व से संबंधित होने के कारण साथ चलने का प्रस्ताव रखते हुए कहते हैं कि जानकार के बिना ऐसी जगहों पर जाना निरर्थक है, लेकिन ऐसा भी होता है कि किसी जानकार के साथ होने पर आप अनजाने-अनचाहे, उसी के नजरिए से चीजों को देखने लगते हैं। अवसर बने और कोई जानकार, विशेषज्ञ या गाइड का साथ न हो तो कुछ टिप्स आजमाएं-

मानें कि प्राचीन मंदिर देखने जा रहे हैं। गंतव्य पर पहुंचते हुए समझने का प्रयास करें कि स्थल चयन के क्या कारण रहे होंगे, पानी उपलब्धता, नदी-नाला, पत्थर उपलब्धता, प्राचीन पहुंच मार्ग? आसपास बस्ती-आबादी और इसके साथ स्थल से जुड़ी दंतकथाएं, मान्यताएं, जो कई बार विशेषज्ञ से नजरअंदाज हो जाती हैं। स्थल अब वीरान हो तो उसके संभावित कारण जानने-अनुमान करने का प्रयास करें। यह जानना भी रोचक होता है कि किसी स्थान का पहले-पहल पता कैसे चला, उसकी महत्ता कैसे बनी।

काल, शैली और राजवंश की जानकारी तब अधिक उपयोगी होती है, जब इसका इस्तेमाल तुलना और विवेचना के लिए हो, अन्यथा यह रटी-रटाई सुनने और दूसरे को बताने तक ही सीमित रह जाती है। प्राचीन स्मारकों के प्रति दृष्टिकोण 'खंडहर' वाला हो तो निराशा होती है, लेकिन उसे बचे, सुरक्षित रह गए प्राचीन कलावशेष, उपलब्ध प्रमाण की तरह देखें तो वही आकर्षक और रोचक लगता है। मौके पर अत्‍यधिक श्रद्धापूर्वक जाना, 'दर्शन' करने जैसा हो जाता है, इसमें देखना छूट जाता है और अपने देख चुके स्‍थानों की सूची में वह जुड़ बस जाता है, मानों ''अपने तो हो गए चारों धाम''।

मंदिर, आस्‍था केन्‍द्र तो है ही, उसमें अध्‍यात्‍म-दर्शन की कलात्‍मक अभिव्‍यक्ति के साथ वास्‍तु-तकनीक का अनूठा समन्‍वय होता है। मंदिर स्थापत्य को मुख्‍यतः किसी अन्य भवन की तरह, योजना (plan) और उत्सेध (elevation), में देखा जाता है। मंदिर की योजना में सामान्य रूप से मुख्‍यतः भक्‍तों के लिए 'मंडप' और भगवान के लिए 'गर्भगृह' होता है। उत्सेध में जगती या चबूतरा, उसके ऊपर पीठ और अधिष्ठान/वेदिबंध, जिस पर गर्भगृह की मूल प्रतिमा स्थापित होती है, फिर दीवारें-जंघा और उस पर छत-शिखर होता है। सामान्यतः संरचना की बाहरी दीवार पर और गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर प्रतिमाएं होती हैं, कहीं शिलालेख और पूजित मंदिरों में ताम्रपत्र, हस्‍तलिखित पोथियां भी होती हैं।

सामान्यतः मंदिर पूर्वाभिमुख और प्रणाल (जल निकास की नाली) लगभग अनिवार्यतः उत्‍तर में होता है। मंदिर की जंघा पर दक्षिण व उत्तर में मध्य स्थान मुख्‍य देवता की विग्रह मूर्तियां होती हैं और पश्चिम में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़, उपानह (घुटने तक जूता), कवच, पद्‌मधारी सूर्य की प्रतिमा होती है। दिशाओं/कोणों पर पूर्व-गजवाहन इन्द्र, आग्नेय-मेषवाहन अग्नि, दक्षिण-महिषवाहन यम, नैऋत्य-शववाहन निऋति, पश्चिम-मीन/मकरवाहन वरुण, वायव्य-हरिणवाहन वायु, उत्तर-नरवाहन कुबेर, ईशान-नंदीवाहन ईश, दिक्पाल प्रतिमाएं होती हैं। मूर्तियों की पहचान के लिए उनके वाहन-आयुध पर ध्यान दें तो आमतौर पर मुश्किल नहीं होती। यह भी कि प्राचीन प्रतिमाओं में नारी-पुरुष का भेद स्तन से ही संभव होता है, क्योंकि दोनों के वस्त्राभूषण में कोई फर्क नहीं होता।

विष्णु की प्रतिमा शंख, चक्र, गदा, पद्‌मधारी और गरुड़ वाहन होती है। उनके अवतारों में अधिक लोकप्रिय प्रतिमाएं वराह, नृसिंह, वामन आदि अपने रूप से आसानी से पहचानी जाती हैं। जिस तरह गणेश और हनुमान की पहचान सहज होती है। शिव सामान्‍यतः जटा मुकुट, नंदी और त्रिशूल, डमरू, नाग, खप्पर, सहित होते हैं। ब्रह्मा, श्मश्रुल (दाढ़ी-मूंछ युक्त), चतुर्मुखी, पोथी, श्रुवा, अक्षमाल, कमंडलु धारण किए, हंस वाहन होते हैं। कार्तिकेय को मयूर वाहन, त्रिशिखी और षटमुखी, शूलधारी, गले में बघनखा धारण किए दिखाया जाता है। दुर्गा-पार्वती, महिषमर्दिनी सिंहवाहिनी होती हैं तो गौरी के साथ पंचाग्नि, शिवलिंग और वाहन गोधा प्रदर्शित होता है। सरस्वती, वीणापाणि, पुस्तक लिए, हंसवाहिनी हैं। लक्ष्मी को पद्‌मासना, गजाभिषिक्त प्रदर्शित किया जाता है।

जैन प्रतिमाएं, कायोत्सर्ग यानि समपाद स्थानक मुद्रा में (एकदम सीधे खड़ी) अथवा पद्‌मासनस्थ/पर्यंकासन में सिंहासन, चंवर, प्रभामंडल, छत्र, अशोक वृक्ष आदि सहित, किन्‍तु मुख्‍य प्रतिमा अलंकरणरहित होती हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं में ऋषभदेव/आदिनाथ-वृषभ लांछनयुक्त व स्कंध पर केशराशि, अजितनाथ-गज लांछन, संभवनाथ-अश्व, चन्द्रप्रभु-चन्द्रमा, शांतिनाथ-मृग, पार्श्वनाथ-नाग लांछन और शीर्ष पर सप्तफण छत्र तथा महावीर-सिंह लांछन, प्रमुख हैं। तीर्थंकरों के अलावा ऋषभनाथ के पुत्र, बाहुबलि की प्रतिमा प्रसिद्ध है। जैन प्रतिमाओं को दिगम्बर (वस्त्राभूषण रहित) तथा उनके वक्ष मध्य में श्रीवत्स चिह्न से पहचानने में आसानी होती है।

आसनस्थ बुद्ध, भूमिस्पर्श मुद्रा या अन्य स्थानक प्रतिमाओं जैसे अभय, धर्मचक्रप्रवर्तन, वितर्क आदि मुद्रा में प्रदर्शित होते हैं। अन्य पुरुष प्रतिमाओं में पंचध्यानी बुद्ध के स्वरूप बोधिसत्व, अधिकतर पद्‌मपाणि अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि और खड्‌ग-पोथी धारण किए मंजुश्री हैं और नारी प्रतिमा, उग्र किन्तु मुक्तिदात्री वरदमुद्रा, पद्‌मधारिणी तारा होती हैं। कुंचित केश के अलावा बौद्ध प्रतिमाओं की जैन प्रतिमाओं से अलग पहचान में उनका श्रीवत्सरहित और मस्तक पर शिरोभूषा में लघु प्रतिमा होना सहायक होता है।

मंदिर गर्भगृह प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्व उर्ध्वाधर स्तंभों पर रूपशाखा की मिथुन मूर्तियों सहित द्वारपाल प्रतिमाएं व मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना होती हैं। द्वार के क्षैतिज सिरदल के मध्य ललाट बिंब पर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा का ही विग्रह होता है। लेकिन पांचवीं-छठीं सदी के आरंभिक मंदिरों में लक्ष्मी और चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी से इस स्थान पर गणेश की प्रतिमा बनने लगी तथा इस स्थापत्य अंग का नाम ही गणेश पट्टी हो गया। यहीं अधिकतर ब्रह्मा-विष्णु-महेश, त्रिदेव और नवग्रह, सप्तमातृकाएं स्थापित होती हैं। आशय होता है कि गर्भगृह में प्रवेश करते, ध्‍यान मुख्‍य देवता पर केन्द्रित होते ही सभी ग्रह-देव अनुकूल हो जाते हैं, गंगा-यमुना शुद्ध कर देती हैं। यहीं कल्‍प-वृक्ष अंकन होता है यानि अन्‍य सभी लौकिक आकांक्षाओं से आगे बढ़ने पर गर्भगृह में प्रवेश होता है और देव-दर्शन उपरांत बाहर आना, नये जन्‍म की तरह है।
पाली, छत्‍तीसगढ़ का मंदिर और बाहरी दीवार पर मिथुन प्रतिमाएं
यह जिक्र भी कि पुरातत्व का तात्पर्य मात्र उत्खनन नहीं और न ही पुराविद वह है जिसका काम सिर्फ बीजक से खजाने का पता लगाना, रहस्यमयी गुफा या सुरंग के खोज अभियान में जुटा रहना है। यह भी कि उत्‍खनन कोरी संभावना के चलते नहीं किया जाता, बल्कि ठोस तार्किक आधार और धरातल पर मिलने वाली सामग्री, दिखने वाले लक्षण के आधार पर, आवश्‍यक होने पर ही किया जाता है। बात काल और शैली की, तो सबसे प्रचलित शब्द हैं- 'बुद्धकालीन' और 'खजुराहो शैली', इस झंझट में अनावश्यक न पड़ें, क्योंकि वैसे भी बुद्धकाल (छठीं सदी इस्वी पूर्व) की कोई प्रतिमा नहीं मिलती और खजुराहो नामक कोई शैली नहीं है, और इसका आशय मिथुन मूर्तियों से है, तो ऐसी कलाकृतियां कमोबेश लगभग प्रत्येक प्राचीन मंदिर में होती हैं।
भोरमदेव, छत्‍तीसगढ़ का मंदिर और बाहरी दीवार पर मिथुन प्रतिमाएं
आम जबान पर एक अन्‍य शब्‍द कार्बन-14 डेटिंग होता है, वस्‍तुतः यह काल निर्धारण की निरपेक्ष विधि है, लेकिन इससे सिर्फ जैविक अवशेषों का तिथि निर्धारण, सटीक नहीं, कुछ अंतर सहित ही संभव होता है तथा यह विधि ऐतिहासिक अवशेषों के लिए सामान्‍यतः उपयोगी नहीं होती या कहें कि किसी मंदिर, मूर्ति या ज्‍यादातर पुरावशेषों के काल-निर्धारण में यह विधि प्रयुक्‍त नहीं होती, बल्कि सापेक्ष विधि ही कारगर होती है, अपनाई जाती है।

किसी स्‍मारक/स्‍थल के खंडहर हो जाने के पीछे कारण आग, बाढ़, भूकंप या आतताई आक्रमण-विधर्मियों की करतूत ही जरूरी नहीं, बल्कि ऐसा अक्‍सर स्‍वाभाविक और शनैः-शनैः होता है और कभी समय के साथ उपेक्षा, उदासीनता, व्‍यक्तिगत प्राथमिकताओं के कारण भी होता है। वैसे भी पुरातत्‍व अनुशासन में प्रशिक्षित के ध्‍यान और प्राथमिकता में वह होता है, जो शेष है, जो बच गया है, न कि वह जो नष्‍ट हो गया है। स्‍थापत्‍य खंड, मूर्तियों या शिलालेख का उपयोग आम पत्‍थर की तरह कर लिये जाने के ढेरों उदाहरण मिलते हैं और एक ही मूल के लेकिन अलग-अलग पंथों के मतभेद के चलते भी कम तोड़-फोड़ नहीं हुई है। स्‍वयं सहित कुछ परिचितों के पैतृक निवास की वर्तमान दशा पर ध्‍यान दें, वीरान हो गए गांव भी ऐसे तार्किक अनुमान के लिए उदाहरण बनते हैं। ऐसे उदाहरण भी याद करें, जिनमें आबाद भवन धराशायी हो गए हैं, मंदिर के खंडहर बन जाने के पीछे भी अक्‍सर ऐसी ही कोई बात होती है।

सर्वेक्षण
पुरातत्व के रोमांच को पुरातत्व का रोमांस बनते देर नहीं लगती। आपसी जान-पहचानी और वेब-परिचितों ने कई बार सुझाया कि इस पर भी कुछ बातें होनी चाहिए। अपने पुरातत्वीय सरकारी कार्य-दायित्‍व में ग्राम-विशेष, क्षेत्र-विशेष, ग्रामवार सर्वेक्षण के लिए सैकड़ों गांवों में जाने का अवसर मिला, स्वाभाविक ही अधिकतर में पहली बार और एकमात्र बार भी। लगा कि सर्वेक्षण भी ऐसा मामला है, कि हम किसी भी क्षेत्र, काम में हों, किसी न किसी रूप में हमें ऐसी खोज-बीन में जुटना पड़ता है। पुरातत्वीय सर्वेक्षण के लिए जो सुना-सीखा, जो गुना-बूझा वही अब समझाइश देने के काम आता है और यहां आपसे बांटने के भी।

सर्वेक्षण वाले क्षेत्र के राजस्व अधिकारी (कलेक्टर/एसडीएम/तहसीलदार), पुलिस अधिकारी (एसपी/एसडीओपी-टीआई/थाना प्रभारी) तथा यदि वन क्षेत्र हो तो वन विभाग के अधिकारी (डीएफओ/एसडीओ/रेंजर) को यथासंभव पत्र लिखकर या व्यक्तिगत संपर्क कर जानकारी एवं सहयोग प्राप्त करना आवश्यक होता है, इस क्रम में सर्वेक्षण वाले क्षेत्र का मजमूली नक्शा जिला/तहसील से प्राप्त कर लेना चाहिए। सर्वेक्षण में जाने से पहले, सर्वे आफ इंडिया के उस क्षेत्र के नक्शे, टोपो-शीट का अच्छी तरह अध्ययन कर लेना उपयोगी होता है। साथ ही सर्वेक्षण किए जाने वाले क्षेत्र के पूर्व सर्वेक्षित एवं ज्ञात स्थलों/संबंधित तथ्य तथा विभिन्न कार्यालयों/व्यक्तियों से आरंभिक जानकारी एकत्र करना आवश्यक होता है।

ग्राम-नाम, नाम का आधार, नाम-व्युत्पत्ति आदि के अनुमान और जानकारी से महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं, इस हेतु सजग रहना फायदेमंद होता है। ग्राम में नदी-नालों के घाट, महामाया, सती, सीतला, ठाकुर देव, बूढ़ा देव, बीर, थान, चौंरा जैसे ग्राम देवता स्‍थल, चौक-चौराहों, गुड़ी, देवलास, मरहान, खमना, सरना, ठकुरदिया, अकोल जैसे पेड़ वाले जैसे स्थानों पर पुरातात्विक सामग्री अथवा संकेत मिलने की संभावना होती है। इसी प्रकार किला, गढ़, खइया, पुराने तालाब, डीह-टीला आदि की जानकारी के साथ पुरातात्विक स्थलों का संकेत मिलता है। नदी-नाले का उद्‌गम, संगम और अन्य जल-स्रोत पवित्र माने जाते हैं सो उनके निकट प्राचीन अवशेष प्राप्त होने की संभावना होती है। पुराने, अब कम प्रचलित मार्ग, शार्ट-कट रास्तों की जानकारी सहायक और कई बार उपयोगी होती है।

सर्वेक्षण के दौरान स्‍थानीय जनप्रतिनिधि- पंच, सरपंच आदि, शासकीय कर्मचारी- शिक्षक, पटवारी, कोटवार आदि तथा विभिन्न समाज के मुखिया, वरिष्ठ नागरिक, ओझा-बइगा-गुनिया महत्वपूर्ण सूचक होते हैं, इनसे संपर्क कर सहयोग प्राप्त करना तथा अच्छे सहयोगी सूचकों का नाम, यदि हो तो मोबाईल नम्बर सहित, स्थायी संदर्भ के लिए भी दर्ज करना चाहिए। ध्यान रहे कि अबोध मान लिए जाने वाले बच्चे भी अच्छे सूचक होते हैं। हरेक गांव की अपनी विरासत, मान्‍यताओं और विश्‍वास से जुड़ी गौरव-गाथा होती ही है, उसके श्रोता-सहभागी बनें और इस दौरान, 'आपके गांव की खासियत क्‍या है?' जैसे सवाल का दो तरह से असर होता है, एक तो सवाल में छिपी चुनौती स्‍वीकार कर जवाब में अक्‍सर काम की जानकारियां मिल जाती हैं और साथ ही ग्रामवासी पुरावशेषों, विशिष्‍टता की ओर अधिक ध्‍यान देने लगते हैं।

यह भी ध्यान रहे कि जो जानकारी मौके पर सहज उपलब्ध होती है, वही वापस लौट आने पर पुनः एकत्र करने के लिए विशेष प्रयास करना होता है। अतएव सर्वेक्षण के दौरान मौके पर सजग रहते हुए अधिकतम सूचनाएं एकत्र कर, दर्ज कर लेनी चाहिए। ऐसी जानकारियां जो सर्वेक्षण के दौरान बहुत आवश्यक नहीं लगती हों, संभव हो तो उन्हें भी लिख कर रखना, काम का होता है। स्थानीय सूचकों द्वारा महत्वपूर्ण बताई गई प्राथमिक सूचना अगर काम की न निकले, तो भी इसका उल्लेख अवश्य होना चाहिए, जैसे अक्सर गुफा या कई बार नक्काशी वाला बताया जाने वाला पत्थर, पुरातात्विक महत्व का नहीं, मात्र प्राकृतिक होता है, यानि संभावित सूचना या स्थान पर वांछित न मिलने पर इसका तथ्यात्मक विवरण, ऐसा उल्लेख भी आवश्यक है, क्योंकि यह आपके बाद के लोगों के लिए मददगार होता है।

सर्वेक्षण के दौरान आवश्यकतानुसार क्षेत्र की वीडियोग्राफी, छायाचित्र तथा पुरावशेष/कलाकृति का माप (आकार- लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई) आवश्यक होता है। स्‍थल पर विवेचना या निष्‍कर्ष पर पहुंचने के प्रयास की तुलना में यह अधिक जरूरी होता है कि वस्‍तु का विवरण अच्‍छी तरह, आवश्‍यकतानुसार नजरी नकल-नक्‍शा सहित, तैयार कर लिया जाए। स्थल, पुरावशेष का स्थानीय नाम लिख कर रखना और यह जानकारी बाद के लोगों के वहां तक पहुंचने के साथ-साथ, स्थानीय परम्पराओं को समझने में भी सहायक होता है।

मौके पर बातचीत के दौरान इर्द-गिर्द, अपने अगले पड़ाव की जानकारी ले ली जानी चाहिए। काम के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक पूरे दिन, नौ-दस घंटे का समय निकालना चाहिए। आवश्यकतानुसार सर्वेक्षण में जाने के पूर्व तथा सर्वेक्षण के दौरान वरिष्ठ अधिकारियों/विषय व क्षेत्र के जानकारों से संपर्क कर सुझाव लेना सहायक होता है। कच्चे नोट्‌स मौके पर तुरंत, फिर शाम को लौटने पर उसी दिन व्‍यवस्थित कर लेना और उसका अंतिम स्वरूप, सर्वेक्षण सत्र के बाद, सप्ताह भर में तैयार कर लेना जरूरी होता है।

अध्‍ययन की क्रमिक-तार्किक प्रक्रिया, अवलोकन-विवरण यानि पोस्‍ट का दूसरा हिस्‍सा 'सर्वेक्षण' तथा विश्‍लेषण-व्‍याख्‍या/निष्‍कर्ष की तरह यहां पहला भाग 'पुरातत्‍व', उपशीर्षक अंतर्गत प्रस्‍तुत किया गया है। इस पोस्‍ट पर टिप्‍पणी के लिए मेरी अपेक्षा है कि कोई सुझाव हो तो अवश्‍य लिखें, अन्‍यथा फौरी टिप्‍पणी के बजाय इसे बुकमार्क कर रख लें और जब ऐसे किसी प्रवास पर जाएं तो इन बातों को आजमा कर देखें, बस... हां, इसके बाद पोस्‍ट की प्रशंसा अथवा आलोचना की मिली टिप्‍पणी को समभाव से आदर सहित स्‍वीकार कर, बेहतर बनाने के लिए इसमें आवश्‍यकतानुसार संशोधन कर लूंगा।

इस पोस्‍ट का 'पुरातत्‍व' वाला हिस्‍सा उदंती.com के 21 अप्रैल 2012 अंक में प्रकाशित किया गया है।