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Saturday, September 6, 2025

टैगोर का छल

रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर/ठाकूर या पूर्वज ‘कुशारी‘) का जन्म 6 मई 1861 को, उनकी पत्नी भवतारिणी उर्फ मृणालिनी देवी (विवाह पश्चात नाम) का जन्म 1 मार्च 1874 को, विवाह 9 दिसंबर 1883 को हुआ। उनकी संतानों क्रमशः मधुरिलता-बेला, रथीन्द्रनाथ-रथी, रेणुका-रानी, मीरा-अतासी तथा शमीन्द्रनाथ-शमी (बंगाली परंपरा का भालो-डाक नाम) का जन्म 1886 से 1896 के बीच हुआ, इसके बाद मृणालिनी देवी अस्वस्थ होती रही, 22 दिसंबर 1901 को ब्रह्म विद्यालय (शांति निकेतन स्कूल) की स्थापना के बाद गंभीर रूप से अस्वस्थ हुईं और 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हुई। 1902 से 1907 के बीच पत्नी मृणालिनी के अलावा पुत्री रेणुका, पिता देवेन्द्रनाथ, छोटे पुत्र शमीन्द्रनाथ की तथा इसके बाद 1918 में बड़ी पुत्री मधुरिलता की मृत्यु हुई।

मृणालिनी की मृत्यु के अगले दिनों में पत्नी की याद में टैगोर ने लगभग प्रतिदिन कविताएं लिखीं, इन 27 कविताओं का संग्रह मोहितचन्द्र सेन के सम्पादकत्व में, रवीन्द्र काव्यग्रन्थ के छठे भाग में और ‘स्मरण‘ शीर्षक से स्वतंत्र काव्यग्रन्थ के रूप में मृणालिनी की मृत्यु के बारह वर्ष बाद 1914 में प्रकाशित हुईं। इस क्रम में टैगोर का अन्य संग्रह ‘पलातका‘ 1918 में प्रकाशित हुआ, लगभग 146 पंक्तियों, 11 पैरा और 830 शब्दों की लंबी, संग्रह की चौथी कविता ‘फाँकि‘ है। इस कविता में पात्र बीनू की अस्वस्थता, उसके साथ ‘मैं‘ की रेलयात्रा और बिलासपुर रेल्वे स्टेशन, झामरु कुली की पत्नी हिन्दुस्तानी लड़की रुक्मिनी का उल्लेख है। कविता में ‘बिलासपुर स्टेशन‘ नाम तीन बार इस तरह आता है। कविता ‘फाँकि‘ लगभग 45 साल पहले इन पंक्तियों- ‘बिलासपुर स्टेशन से बदलनी है गाड़ी, जल्दी उतरना पड़ा, मुसाफिरखाने में पड़ेगा छः घंटे ठहरना‘ के साथ चर्चा में आई।

26 दिसंबर 1983 को ए.के. बैनर्जी मंडल रेल प्रबंधक, बिलासपुर के पद पर आए। वे साहित्य में रुचि रखने वाले और प्रसिद्ध फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी के दामाद थे। बिलासपुर पदस्थापना के साथ उन्हें टैगोर की कविता ‘फाँकि‘ याद आई और उन्होंने बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के मुख्य प्रवेश के बाईं ओर प्लेटफार्म 1 पर, वीआइपी वेटिंग लाउंज के साथ कविता की इन पंक्तियों को रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्र के साथ खास फलक बनवा कर समारोह पूर्वक स्थापित किया। यह आकर्षण का कारण बना और इसकी चर्चा बिलासपुर और खासकर पेंड्रा में होने लगी, जिसमें टैगोर के बिलासपुर होते पेंड्रा जाने, वहां पत्नी का इलाज, पेंड्रा में ही उनकी पत्नी की मृत्यु और उसके बाद अकेले वापस लौटने की बात होने लगी, जिसका आधार यह कविता थी। कविता में आए नाम बीनू को टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी और ‘मैं‘ को साहित्यिक अभिव्यक्ति के पात्र प्रथम पुरुष के बजाय टैगोर स्वयं के साथ निर्मित और घटित स्थिति मान लिया गया। 


वेब पर मीडिया के विभिन्न यूट्यूब रिपोर्ट/स्टोरी तथा महीनों पेंड्रा में इलाज और इस दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी-बीनू का देहांत हो गया ... इसी सैनेटोरियम में रविंद्रनाथ की पत्नी के शरीर को मिट्टी दी गई और समाधि बनाई गई ... जैसी ढेरों खबरें मिल जाती हैं। अब बिलासपुर स्टेशन पर पूरी बांग्ला कविता हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद सहित लगाई गई है, जिस पर अंकित है- ‘यह कविता कविगुरु श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन 1918 में बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में लिखी गई।

और फिर 10.12.2012 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 5 रुपये का डाक टिकट, बिलासापेक्स, विशेष आवरण सहित जारी हुआ, जिसमें अंकित है- ‘रविन्द्र नाथ टैगोर एवं उनकी धर्म पत्नी श्रीमती मृणालिनी देवी सन् 1900 में अपनी एक यात्रा के दौरान बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में छः घंटा रुके। उन्होंने इसका वर्णन अपनी एक कविता में किया है।‘ एक कविता में किया है।‘ जिला अस्पताल सैनेटोरियम परिसर परिसर में रविन्द्र नाथ टैगोर वाटिका, संग्रहालय निर्माण एवं गुरुदेव की मूर्ति का अनावरण, दिनांक 07.05.2023 को होने का शिलान्यास शिलापट्ट लगा है और जुलाई 2023 में परिसर के बरगद के पेड़ को काटने का विरोध हुआ कि टैगोर इस पेड़ के नीचे बैठते थे।

कविता के रचना काल, स्थान और बिलासपुर यात्रा के वर्ष की विसंगतियों के बावजूद यह बात चल पड़ी। मगर इसके पहले 2008 में ही ऐसा माना जाने लगा था, इसी साल रमेश अनुपम संपादित ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै‘ पुस्तक का पहला संस्करण आया, जिसकी तीसरी आवृत्ति, 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तक के प्रवासी खंड में रवींद्रनाथ टैगोर की कविता फॉकि (बांग्ला), उत्पल बॅनर्जी के हिंदी अनुवाद ‘छलाना‘ (न कि छलना या छलावा) सहित प्रकाशित है, साथ ही लंबी पाद-टिप्पणी है, जिसमें बताया गया है कि कविगुरु मृणालिनी देवी को लेकर छत्तीसगढ़ आये। छत्तीसगढ़ का पेंड्रारोड उस समय क्षय रोग चिकित्सा के लिए संपूर्ण एशिया में विख्यात था।‘ ... उस जमाने में (सन 1901) में ... वे पेंड्रारोड में दो महीने तक रुके ... मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु में कविगुरु को अकेले छोड़कर अनंत में विलीन हो गईं। पेंड्रारोड का विश्वविख्यात टी.बी. सैनेटोरियम तथा यहां की जलवायु भी मृणालिनी देवी को मृत्यु के चंगुल से नहीं बचा सका।

यहां भी पेंड्रा यात्रा-प्रवास का वर्ष 1901, तथा ‘मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु‘ जैसी विसंगति है। मगर इन सबके बीच यह मान लेना कि बीनू, रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का नाम हैं (जो किसी स्रोत से पुष्ट नहीं होता), ‘फाँकि‘ कविता का ‘मैं‘ स्वयं कवि है और यह संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति है, के औचित्य पर विचार करने के लिए टैगोर से संबंधित अधिकृत और विश्वसनीय स्रोतों को देख लेना आवश्यक है, ऐसे स्रोतों में आए संबंधित कुछ उल्लेख आगे दिए जा रहे हैं-

रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रथीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘ऑन द एजेस ऑफ टाइम‘ के विश्व-भारती द्वारा प्रकाशित जून, 1981 के द्वितीय संस्करण, पेज-52 पर मृणालिनी देवी को शांति निकेतन से इलाज के लिए कलकत्ता लाने, डॉक्टरों द्वारा आशा छोड़ देने के साथ मां मृणालिनी देवी की मृत्यु के दौरान सभी पांच संतानों का वहां होने का उल्लेख है।

कृष्ण कृपलानी (टैगोर की तीसरी बेटी मीरादेवी की बेटी नंदिता के पति) की बहु-प्रशंसित ‘रबीन्द्रनाथ टैगोर, ए बॉयोग्राफी‘ 1980 का संस्करण विश्व-भारती कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। पेज 201 पर उल्लेख है कि शांति निकेतन में नया निवास मिलने के कुछ माह बाद ही मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार हुईं और उन्हें कलकत्ता लाया गया, जहां 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हो गई।

विश्व भारती द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के पत्र-व्यवहार के प्रथम खंड (तीसरा संस्करण बंगाब्द 1400 यानि 1993-94) में मृणालिनी देवी को लिखे पत्र हैं, इस पुस्तक के अंत में मृणालिनी देवी के जीवन की प्रमुख तिथियां-घटना दी गई हैं, जिसके अनुसार उन्हें 12 सितम्बर 1902 इलाज के लिए कलकत्ता लाया गया। 23 नवम्बर 1902 जोरासांको महर्षि भवन में निधन हो गया।

1998 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रीय जीवनचरित श्रृंखला में कृष्ण कृपलानी की पुस्तक का अनुवाद रणजीत साहा प्रकाशित ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक जीवनी‘ में पेज 116-117 पर ‘शांतिनिकेतन में, अपना नया घर पाने के कुछ ही दिनों के अंदर रवीन्द्रनाथ की पत्नी मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं । उन्हें कलकत्ता ले जाया गया और जहां 23 नवंबर 1902 को उनका निधन हो गया। ... ‘किसी पेशेवर नर्स को बहाल न कर उन्होंने लगातार दो महीने तक रात और दिन उनकी सेवा की। उन दिनों बिजली के पंखे नहीं हुआ करते थे और उनके समकालीन साक्ष्यकारों ने इस बात को दर्ज करते हुए बताया है कि हर घड़ी कैसे उनके सिरहाने उपस्थित रवीन्द्रनाथ हाथ में पंखा लिए हुए लगातार धीरे धीरे झलते रहे थे। जिस रात को उनका निधन हुआ, वे पूरी रात अपनी छत की बारादरी के ऊपर नीचे घूमते रहे और उन्होंने सबसे कह रखा था कि उन्हें कोई परेशान न करे।‘

रंजन बंद्योपाध्याय की पुस्तक ‘आमि रवि ठाकुरेर बोउ‘ का शुभ्रा उपाध्याय द्वारा किया हिंदी अनुवाद ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी‘ (मृणालिनी की गोपन आत्मकथा) प्रकाशित हुई है। पुस्तक के परिचय (2013) में स्पष्ट किया गया था- ‘मृणालिनी अपनी गोपन आत्मकथा में क्या लिखतीं? इस उपन्यास में वही सोचने की कोशिश की गई है।‘ मगर इस पुस्तक का ‘उपसंहार‘ उल्लेखनीय है, जिसमें बताया गया है कि मृणालिनी देवी को चिकित्सा के लिए 12 सितंबर 1902 को कलकत्ता ला कर जोड़ासाँको में रवीन्द्रनाथ की लालबाड़ी के दूसरे तल पर एक कमरे में रखा गया। ... मृणालिनी की स्थिति 17 नवंबर को आशंकाजनक हो गई। 23 नवंबर, 1902 को जोड़ासाँको की बाड़ी में मृणालिनी के जीवन का अवसान हुआ। दो महीने ग्यारह दिन उन्हें कलकत्ता में मृत्युशैया की यंत्रणा भोगनी पड़ी।

विकीपीडिया तथा द स्कॉटिश सेंटर आफ टैगोर स्टडीज के वेबपेज के अनुसार- मृणालिनी देवी 1902 मध्य में बीमार पड़ गईं, जबकि परिवार शांतिनिकेतन में एक साथ रहता था। इसके बाद, वे और रवींद्रनाथ 12 सितंबर को शांतिनिकेतन से कलकत्ता चले गए। डॉक्टर उनकी बीमारी का निदान करने में विफल रहे और 23 नवंबर की रात को 29 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे रथिंद्रनाथ ने बाद में अनुमान लगाया कि उनकी मां को एपेंडिसाइटिस था।

रामानंद चटर्जी द्वारा संपादित रवीन्द्रनाथ टैगोर के सत्तरवें जन्मदिन पर 1931 में प्रकाशित ‘द गोल्डन बुक आफ टैगोर‘ में ‘ए टैगोर क्रानिकल: 1861-1931‘ में मृणालिनी देवी से विवाह और उनकी मृत्यु का उल्लेख है, मगर मृत्यु का स्थान नहीं दिया गया है। इसी तरह 1961 में सत्यजित राय ने फिल्म्स डिवीजन के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर पर 51 मिनट का वृत्तचित्र बनाया है, जिसमें उनके विवाह तथा पत्नी की मृत्यु का उल्लेख है, स्थान का नहीं। इन स्रोतों में मृत्यु के स्थान का उल्लेख न होने का कारण यही हो सकता है कि मृणालिनी देवी की मृत्यु उनके मूल स्थान के अलावा कहीं अन्य नहीं हुई थी।

इस तारतम्य में पेंड्रा रेल लाइन और सैनेटोरियम संबंधी तथ्यों की पड़ताल प्रासंगिक होगी, इनमें-

1910 के बिलासपुर जिला गजेटियर पेज 336 पंडरीबन या पेंड्रा, जमींदारी में सैनेटोरियम का उल्लेख नहीं है, मगर पेज 248 पर मेडिकल शीर्षक के अंतर्गत पेंड्रा अस्पताल में पुरुष एवं महिला के लिए दो-दो बिस्तर वाले अस्पताल की जानकारी है। पेज 69 पर क्षयरोग का उल्लेख है, मगर सैनेटोरियम का नहीं, जबकि मुंगेली और चांपा के कुष्ठ आश्रम का उल्लेख है। पेज 338 पर उल्लेख है कि एक जोगी और उसके दो विशाल सर्पों ने ‘खोडरी टनल‘ काटने पर आपत्ति की और उनके शापवश बड़ी संख्या में मजदूर रोगग्रस्त हो कर मर गए।

1923 के ‘बिलासपुर वैभव‘ पेज 73 पर व्यापार के अंतर्गत उल्लेख है कि ‘सन् 1891 में जबसे कटनी लाइन खुली है ...‘ पेज 105 पर पेंडरा शीर्षक के अंतर्गत उल्लेख है कि गौरेला और पेंडरा के बीच मिस लांगडन का क्षयरोगाश्रम है। पुनः पेज 136 पर ‘पेंडरा जमींदारी का जलवायु शीतल है। इसे बिलासपुर जिले की पंचमढ़ी समझिये। गौरेला और पेंडराके बीच मिस लांगडनका क्षयरोगाश्रम देखने योग्य है।‘

1978 के बिलासपुर जिला गजेटियर में पेज 244 बिलासपुर रायपुर सेक्शन 1881 में, बिलासपुर रायगढ़ सेक्शन 1890 में, बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन 1861 में (!) आरंभ होने का उल्लेख है। साथ ही पेज 519 पर क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित तथा मध्यप्रदेश सरकार और प्रादेशिक रेड क्रास सोसाइटी से सहायता प्राप्त सैनेटोरियम तथा टी.बी. के इलाज के लिए माकूल जलवायु का उल्लेख है।

राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम के वेबपेज की जानकारी के अनुसार देश का पहला ओपन एयर सैनेटोरियम अजमेर के पास तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 में स्थापित हुआ। ऐसी स्थिति में पेंड्रा में आबोहवा बदलने के लिए मरीजों का आना संभव है मगर उपरोक्त उद्धरणों के आधार पर निष्कर्ष आसानी से निकालता है कि सैनेटोरियम 1910 से 1923 के बीच (वस्तुतः 1916) बना।

कटनी रेलखंड पर गाड़ी परिचालन 1891 में आरंभ होने की जानकारी मिलती है, मगर इसके साथ दुविधा रह जाती है कि रेलवे रिकार्ड्स में 1907 में पहले-पहल भनवारटंक टनेल डाउन का निर्माण हुआ तथा इस खंड में रेल लाइन के दोहरीकरण का कार्य 1960-65 के बीच हुआ और भनवारटंक टनेल अप यानि इस लाइन पर नये दूसरे बोगदा का निर्माण 1965-66 में होना, पता चलता है। ऐसी स्थिति में 1907 के पहले बिलासपुर से पेंड्रा का रेल लाइन संपर्क कैसे संभव हुआ होगा?

अंततः ‘फाँकि‘ कविता की पहली पंक्ति ‘बिनुर बयस तेइश तखन‘ यानि नाम बीनू और उसकी उम्र तेइस कहा गया है, यह दोनों ही बातें टैगोर की पत्नी मृणालिनी से मेल नहीं खातीं, क्योंकि भवतारिणी उर्फ मृणालिनी का अन्य नाम बीनू था ऐसा पुष्ट नहीं होता (अन्य संबोधन ‘छोटो बोउ‘, ‘छूटी‘ या ‘छुटि‘ जैसा पत्रों में संबोधन है) और इस समय यानि 1902 में मृणालिनी (जन्म 1874, कहीं 1872/1876 मिलता है) की उम्र 23 वर्ष भी नहीं बैठती। पत्नी के निधन की कविताएं ‘स्मरण‘ में हैं और ‘फाँकि‘ कविता 1918 में प्रकाशित संग्रह ‘पलातका‘ में शामिल है, और इस कविता की रचना तिथि न होने से इसे 1918 या उसके कुछ पहले की रचना मानना उचित होगा।

संजुक्ता दासगुप्ता, टैगोर साहित्य की गंभीर अध्येता और अंगरेजी अनुवादक हैं। उनकी पुस्तक ‘इन मेमोरियम स्मरण एंड पलातका‘ 2020 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है, जिसमें मृणालिनी देवी की याद में टैगोर द्वारा लिखी ‘स्मरण‘ की 27 कविताएं का तथा ‘पलातका‘ की 15 कविताओं का अंगरेजी अनुवाद है। पलातका की कुछ अन्य कविताओं सहित फांकी के लिए अनुवादक की टिप्पणी प्रासंगिक और मारक है, जिसमें वे कहती हैं कि ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था आजीवन कठोर कारावास की तरह प्रतीत होती है जहाँ घरेलू श्रम और प्रजनन श्रम को आश्रित महिलाओं के वांछित लक्ष्य और मिशन के रूप में महिमामंडित किया जाता है। मुक्ति, चिरादिनेर दागा, फांकी, निष्कृति, कालो मेये, हारिये जाओ जैसी कविताएँ लैंगिक मुद्दों के प्रति मुखर अभिव्यक्ति हैं।‘

कविता में बिलासपुर स्टेशन का नाम है, मगर वहां से गाड़ी बदल कर आगे जाने की बात के साथ पेंड्रा का नाम नहीं आया है। 1902 में पेंड्रा में अस्पताल जरूर था, जैसा कि 1909-10 के गजेटियर से पता लगता है। साथ ही देश का पहला सैनेटोरियम तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 स्थापित होने का तथ्य असंदिग्ध है। ‘द इंडियन मेडिकल गजट, जुलाई 1945, पेज 369 से निश्चित जानकारी मिल जाती है कि पेंड्रा सैनेटोरियम स्थापना वर्ष 1916 है, यह पेंड्रा के लोगों की स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज साधू बाबू अर्थात् मन्म्थनाथ बैनर्जी के साथ जुड़ा है, वे कलकत्ता, प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में उपाधिधारी थे और पढ़ाई में सुभाषचंद्र बोस से एक कक्षा आगे होना बताया करते थे। टीबी के इलाज के लिए 1917 में सैनेटोरियम लाए गए बताए जाते हैं और फिर स्वस्थ हो कर पूरा जीवन यहां बिताया। साधू बाबू की मृत्यु 8 अगस्त 1982 को हुई। 16 जुलाई 1954 को शिलान्यास हुआ पेशेन्ट्स रिक्रिएशन हॉल अब उनके नाम पर साधू हॉल नाम से जाना जाता है।

पेंड्रा निवासी एक अन्य बुद्धिजीवी डॉ. प्रणब कुमार बैनर्जी लगभग 25 वर्ष की उम्र में 1961 में यहां आए, 2018 में उनकी मृत्यु हुई। वे साधू बाबू से नियमित संपर्क में रहे थे, उन्होंने ही अविवाहित रहे साधू बाबू को मुखाग्नि दी थी। डॉ. प्रणब जी से व्यक्तिगत संपर्क के दौरान मैंने टैगोर के पेंड्रा प्रवास के बारे में जिज्ञासा की थी, उन्होंने स्वयं अपनी तथा साधू बाबू से होने वाली उनकी चर्चाओं में ऐसी किसी बात को अपुष्ट माना था, अब पुनः डॉ. प्रणब के पुत्र प्रतिभू जी ने भी बताया कि ऐसी कोई बात अपने पिता से उन्होंने नहीं सुनी।

कटनी रेलखंड पर 1891 में रेल परिचालन की जानकारी मिलती है साथ ही बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन, जिसके बीच बोगदा और पेंड्रारोड स्टेशन है, 1861 (!) में आरंभ होने का उल्लेख मिलता है किंतु बोगदा निर्माण 1907 में होने का तथ्य, विसंगतियों के कारण पहले पेंड्रा-बिलासपुर के रेल से से जुड़ा होना स्पष्ट नहीं होता और संदेह का कारण बनता है।

इस तरह टैगोर का पत्नी के इलाज के लिए 1902 में पेंड्रा आना और यहां उनकी पत्नी की मृत्यु की बात, मात्र एक काव्य रचना के आधार पर स्वीकार किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता और विशेषकर तब, जब सारे प्रामाणिक स्रोतों में इसके विपरीत तथ्य हैं। यों यह रचना विवरण-मूलक है किंतु ‘मैं‘ बीनू के साथ, बिलासपुर स्टेशन पर गाड़ी बदल कर कहां जा रहा है या वापसी में ‘मैं‘ के अकेले होने का कारण, बीनू को कहीं छोड़ आना है या बीनू की मृत्यु? यह कुछ कविता में नहीं आता, इसलिए भी इसे आत्मकथ्यात्मक यात्रा-विवरण मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और जैसा कहा जाता है- ‘साहित्य का ‘मैं‘ सदैव बहुवचन ही होता है।‘ इस कविता के ‘मैं‘ को भी इसी तरह देखना चाहिए। 

मेरा अनुमान है कि किसी व्यक्ति ने बिलासपुर हो कर आगे जाने की ‘फाँकि‘ कविता से मिलती-जुलती अपनी रामकहानी टैगोर को सुनाई होगी, उसकी पीड़ा को अपने अनुभवों के साथ जोड़ कर टैगोर ने इस कविता को रचा होगा, जिसमें ‘मैं‘ के कारण इसे स्वयं उनका संस्मरण मान कर, पत्नी के इलाज के लिए स्वयं उनके बिलासपुर होते पेंड्रा आने और यहां पत्नी के निधन की बात प्रचलित हो गई, जो पूरी तरह काव्यात्मक अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए, क्योंकि तथ्यों से मेल नहीं खाती।

प्रसंगवश-

0 कविता ‘फाँकि‘ में बिलासपुर का नाम आया है। यों छत्तीसगढ़ में ही एकाधिक बिलासपुर हैं, अन्य प्रदेशों के इस स्थान-नाम में हिमांचल का जिला मुख्यालय बिलासपुर प्रमुख है, मगर पुराना जंक्शन वाला रेल्वे स्टेशन होने के कारण छत्तीसगढ़ का यही बिलासपुर होना निश्चित किया जा सकता है। इसके साथ कविता में रुक्मिणी के चले जाने के संदर्भ में तीन अन्य स्थान-नाम ‘दार्जिलिंग, खसरुबाग और आराकान‘ आए हैं। उसका यह प्रवास संभवतः मजदूरी के लिए हुआ। बिलासपुर अंचल से श्रमिक पुराने समय से प्रवास पर ‘कमाने-खाने‘ जाते रहे हैं, उनमें कुछ लौट कर आ जाते हैं और बड़ी संख्या है, जो प्रवास के बाद वहीं टिक जाते हैं। इस क्षेत्र से कालीमाटी अर्थात जमशेदपुर, जहां अब सोनारी में छत्तीसगढ़ियों की बड़ी बस्ती है, ‘कोइलारी-कलकत्ता के अलावा कंवरू-कौरूं यानि असम प्रवास होता रहा है। संभव है उस दौर में अधिकतर प्रवास कविता में आए तीनों स्थान-नामों में होता रहा होगा।

0 कविता ‘फाँकि‘ में रुक्मिनी को ‘हिन्दूस्तानि मेये’ कहा गया है। जैसा बांग्ला-जन द्वारा गैर-बांग्ला भारतीय के लिए सामान्यतः इस्तेमाल किया जाता है, जो सहज प्रवाह में यहां भी आया है। बिलासपुर स्टेशन पर लगे अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी लड़की‘, संजुक्ता दासगुप्ता के अंगरेजी अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी गर्ल‘ है, मगर उत्पल बॅनर्जी ने इसका ‘गैर बंगाली लड़की‘ किया है। इस पर विचार करें- गैर बंगाली यानि जो पूर्व-पश्चिम बंगाल निवासी या बांग्लाभाषी न हो, होगा। यों हिंदुस्तानी का अर्थ बंगाल से इतर हिंदुस्तान निवासी ध्वनित होता है किंतु हिंदुस्तानीभाषी अर्थ नहीं निकलेगा, क्योंकि ‘बंगाल से इतर ‘हिंदुस्तान‘ में हिंदुस्तानी के अलावा अन्य भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। इस संदर्भ में कुबेरनाथ राय के निबंध ‘धुरीमन बनाम परिधिमन‘ का एक अंश उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- ‘बंकिम ने ‘वन्देमातरम्‘ में केवल सप्तकोटि बंगालियों की बंगमाता को ही गरिमा से अभिषिक्त किया। जब इस गीत का अखिल भारतीय उपयोग होने लगा तो ‘सप्त‘ को बदल कर ‘त्रिंशकोटि-कण्ठ-निनाद-कराले‘ कर दिया गया।‘

0 इस कविता में एक पंक्ति है- ‘बिनुर येन नतुन करे शुभदृष्टि हल नतुन लोके‘- बीनू शादी के बाद ससुराल से पहली बार रेल यात्रा पर निकली है, पति से कभी-कभार मुलाकातें, दबी-घुटी हंसी और बातें ही हो पाती थीं, अब उन्मुक्त माहौल और मानों ‘शुभदृष्टि‘, यानि वह ‘दृश्य‘ जिसमें नववधू विवाह के अवसर पर पान के पत्तों से चेहरा ढकी होती है, फेरों के बाद पहली बार पत्ते हटा कर, अपने होने वाले पति को पहली बार देखती है। ‘शुभदृष्टि- इस कविता में आई बांग्ला संस्कृति का नाजुक संवेदनापूर्ण मर्मस्पर्शी अर्थपूर्ण शब्द-प्रयोग।

0 ‘स्मरण‘ की दो कविताओं का हिंदी अनुवाद-

जीवित रहते उसने मुझे
जो कुछ दिया,
उसका बदला चुकाऊँगा, लेकिन 
अभी समय नहीं है।
उसके लिए रात सुबह हो गई है,
हे प्रभु, तूने आज उसे ले लिया है।
मैंने उसे तेरे चरणों में,
कृतज्ञतापूर्वक भेंट किया है।
मैंने उसके साथ जो भी बुरा किया है,
जो भी गलतियाँ की हैं,
उसकी क्षमा मैं आपसे माँगता हूँ,
आपके चरणों में डालता हूँ।
जो कुछ उसे नहीं दिया गया,
जो कुछ मैं उसे देना चाहता हूँ,
उसे आज प्रेम के हार के रूप में
आपकी पूजा की थाली में रखता हूँ।
- - -
एक दिन इसी दुनिया में,
तुम एक नवविवाहिता के रूप में मेरे पास आईं,
अपना काँपता हुआ हाथ मेरे हाथों में रख दिया। 
क्या यह भाग्य का खेल था, क्या यह संयोग था?
यह कोई क्षणिक घटना नहीं है,
यह अनादि काल से चली आ रही योजना है। 
दोनों के मिलन से भर जाऊँगा मैं,
युगों-युगों से इसी आशा में हूँ मैं।
मेरी आत्मा का कितना हिस्सा तुमने लिया है,
कितना दिया है इस जीवन धारा को?
कितने दिन, कितनी रातें, कितनी शर्म, कितनी हानि, कितनी जय-पराजय
मैं लिखता रहा हूँ,
मेरे थके हुए साथी क्या करेंगे,
सिवाय मेरे अपने शब्दों के!

0 सस्ता साहित्य मंडल द्वारा इन्द्र नाथ चौधुरी के प्रधान संपादकत्व में 2013 में प्रकाशित रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली का खण्ड-42, ‘मेरी आत्मकथा‘ है, जिसमें मुख्यतः टैगोर के जीवन के आरंभिक वर्षों की विदेश यात्रा व प्रवास तथा साहित्यिक गतिविधियों का उल्लेख है। इसमें पेज 209-210 पर ‘स्त्री‘ कह कर अपनी पत्नी से संबंधित रोचक जिक्र आया है- एक तरुण, जो कहता है कि आपकी स्त्री पूर्वजन्म की मेरी माता है, ऐसा मुझे स्वप्न में दिखाई पड़ा है ... इतना ही नहीं कुछ दिनों बाद ‘एक लड़की का (मेरी स्त्री के पूर्व जन्म की लड़की का) एक पत्र मिला ...।‘ इस संदर्भ में उल्लेखनीय कि पता लगता है टैगोर प्लेन्चिट से मृत आत्माओं का आह्वान किया करते थे।

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शब्द-कौतुक

0 बांग्ला पलातका, जैसा मिलता-जुलता मराठी शब्द पळपुटा है, जिसका अर्थ वैसा ही है और छत्तीसगढ़ी का पल्ला भागना, पल्ला तान देना वही अर्थ देता है, इससे लगता है कि शब्द का मूल एक ही होगा।

0 1910 के बिलासपुर गजेटियर में पेंड्रा के साथ ‘पंडरीबन‘ नाम आया है, यह रोचक संकेत का आधार है। सामान्यतः पेंड्रा या पेन्डरा, पिंडारियों से संबंधित शब्द माना जाता है, यह उपयुक्त नहीं जान पड़ता। पंडरीबन शब्द का बन स्पष्टतः वन, वृक्ष-बहुलता का शब्द है और पंडरी को रायपुर के पंडरीतलई, पेंडरवा, पेंड्री, पंर्री, पांडातराई, पंडरीपानी जैसे शब्दों के साथ समझने के प्रयास में इसका अर्थ सफेद (पांडुर) या स्वच्छ-उजला निकलेगा। छत्तीसगढ़ से संबंधित ‘गोरे‘ फादर लोर या वेरियर एल्विन को और अन्य विदेशी पादरियों आदि को पंडरा साहब कहा जाता रहा है। इस आधार पर संभव है कि इस क्षेत्र में सफेदी लिए तना-छाल वाले वृक्ष- धौंरा, केकट या कउहा की अधिकता रही हो, यों कुरलू या कुल्लू, कुसुम, अकोल, मुढ़ी, कलमी, सिरसा, करही, परसा, सेमल, खम्हार, पीपल, पपरेल का तना भी सफेदी लिए होता है, मगर जंगली नही और झुंड में नहीं होता। पंडरा, चूने का संकेत भी देता है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ी में सामान्यतः धौंरा (धवल) शब्द है, जिससे धौंराभांठा, धवलपुर, धौरपुर जैसे स्थान-नाम बनते हैं। पंडरभट्ठा स्थान-नाम स्पष्ट ही चूना पत्थर का खदान है। पेंड्रा से चूना निर्यात की जानकारी भी मिलती है, यह दूर की कौड़ी मानी जा सकती है फिर भी ... और इसी तरह गौरेला को गौ-रेला, यानि गायों की पंक्ति-झुंड या रेला बताया जाता है तो इसे गौर (वर्ण), चूने या सफेदी से जोड़ कर भी देखा जा सकता है।

0 इसी क्रम में भनवारटंक, का भनवार बहुत अजनबी शब्द है, और हिंदी में उच्चारित होने वाला टंक अंगरेजी में ‘टी-ओ-एन-के‘ लिखा जाता है। संभावना बनती है कि यह भंवर यानि बड़ी मधुमक्खी से आया हो और अंगरेजी स्पेलिंग के कारण इस तरह बदल गया हो। खोडरी, स्पष्ट ही खड्ड, खोड़रा, अर्थात गड्ढा का अर्थ देता है और खोंगसरा, जैसा एक अन्य स्थान -नाम खोंगापानी है, इसमें सरा-पानी, स्पष्ट है और खोंग का आशय व्यवधान-रुकावट या गहराई के लिए है।

टीप- इस मसौदे को तैयार करने में उपरोक्त उल्लेखित के अतिरिक्त रायपुर, भिलाई के महानुभावों और कोलकाता, विश्वभारती से संबंधित लोगों से संपर्क किया गया। साथ ही इससे संबंधित आपत्ति, आलोचना, संदेह पैदा करने और स्थानीय तथ्यों की जानकारी-सामग्री जुटाने में रायपुर, बिलासपुर और पेंड्रा से जुड़े बुद्धिजीवियों, मीडिया-परिचितों से सहयोग मिला।

Friday, June 17, 2022

समालोचक सप्रे

माधवराव सप्रे की एक सौ पचासवीं जयंती पर गत वर्ष सार्ध शती समारोह के आयोजन हुए। साल बीत जाने पर यहां उनकी जन्मशती 1971 का स्मरण है। 1968 के दौर में हिंदी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी‘ के लेखक के नाते सप्रे जी की चर्चा होती थी। उनकी जन्मशती के अवसर पर आई.ए.एस. डॉ. सुशील त्रिवेदी, जो तब सुशीलकुमार त्रिवेदी नाम से जाने जाते थे, ने उस दौर की सबसे प्रतिष्ठित धर्मवीर भारती संपादित साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग‘ में सप्रे जी के समालोचक पक्ष को भुला दिए जाने या उपेक्षा/नजरअंदाज? किए जाने पर गंभीर कटाक्ष करते हुए लेख लिखा था। 

‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के प्रथम अंक, जनवरी 1900 में स्पष्ट किया गया था कि- ‘आजकल भाषा में बहुत-सा कूड़ा-करकट जमा हो रहा है। वह न हो पाए इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करें।‘ सप्रे जी कहते थे कि ‘न्यायाधीश और समालोचक के कार्य कुछ साम्य भी है और कुछ भिन्नता भी है।‘ उनके एक कथन का उल्लेख मिलता है- ‘हिंदी समालोचना के विकास के लिए नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक समालोचक समिति की स्थापना हो और नागरी समालोचक नाम की पत्रिका भी निकले।‘ किंतु बाद में सभा के द्वारा प्रस्तावित समालोचना समिति से अपना नाम वापस ले लिया था। 

प्रसंगवश, यों तो ‘आलोचना, समीक्षा, समालोचना‘ के शाब्दिक और रूढ़ अर्थ में घालमेल होता रहा है। सप्रे जी ने ‘भारत गौरव’ पुस्तक की समीक्षा करते हुए लिखा है कि- ‘समालोचक शब्द का अर्थ यद्यपि बहुत अच्छा है, परंतु साधारणतः कई लोग उससे बुरा अर्थ ही लेते हैं। कहते हैं कि किसी के छिद्र ढूंढना और समालोचना करना एक बराबर है। ... ऐसा कोई न समझे कि समालोचक की कृति में कभी त्रुटि ही नहीं रहती। नहीं, समालोचक भी एक मनुष्य है और मनुष्य से प्रमाद हो जाना स्वाभाविक है। ‘लव कुश चरित्र‘ की समीक्षाओं पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘केवल प्रशंसा कर देना ही यदि समालोचना है तो अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।‘ उनकी समालोचना दृष्टि का असर ‘सरस्वती‘, जुलाई 2001 अंक के उद्धरण में मिलता है- ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ की देखा-देखी समालोचना की चाल हिंदी भाषा में चल पड़ी है ... उसकी समालोचना प्रणाली प्रशंसनीय है। 

स्मरणीय कि गंगाप्रसाद अग्निहोत्री का नाम मिलता है, जो जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ के संपर्क में आए और चिपलूणकर शास्त्री के ‘समालोचना‘ शीर्षक मराठी निबंध का हिंदी अनुवाद कर नागरी प्रचारिणी पत्रिका में 1896 में प्रकाशित कराया था। इसी प्रकार अगस्त 1902 से जयपुर से बाबू गोपालराम गहमरी ने ‘समालोचक‘ मासिक पत्र आरंभ किया, जिसमें कहा गया कि ‘समालोचना बिना हिन्दी की अतिहीन दशा है। अब साहित्य वाटिका में पड़ा कूड़ा कर्कट का ढेर अपने उदर से दूषित और अस्वास्थकर वाष्प फेंकने लगा है।‘ इस पत्र के प्रवेशांक में श्री वेंकटेश्वर समाचार द्वारा प्रस्तावित समालोचक समिति की स्थापना और उसके सभापति पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र निर्वाचित होने की सूचना प्रकाशित हुई है। समालोचक में गुलेरी जी की भूमिका भी विशेष उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में श्याम बिहारी-शुकदेव बिहारी मिश्र बंधुओं का ‘हिन्दी नवरत्न‘ उल्लेखनीय है, जिसे श्यामसुंदरदास ने इसे कवियों की समालोचना का सूत्रपात कहा था। 

यह संयोग है कि हिंदी में समालोचक को पहले-पहल प्रतिष्ठित करने वाले माधवराव सप्रे तथा विशाल ग्रंथ ‘गांधी मीमांसा‘ तथा अंग्रेजी ‘GANDHI-ISM X-RAYED‘ के रचयिता, समर्थ समालोचक उपाधि-भूषित पं. रामदयाल तिवारी, की कर्मभूमि छत्तीसगढ़ है। पं. रामदयाल तिवारी ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के लिए 1932 में कहा कि ‘उनका समालोचना विभाग, जिसमें स्वयं सप्रे जी प्रेषित ग्रंथों की आलोचना किया करते थे, आज भी पढ़ने योग्य है।‘ इसी प्रकार मावलीप्रसाद श्रीवास्तव ने 1933 में लिखा था कि वे ‘समालोचना-संसार में एक नये अवतार‘ थे। 

उल्लेखनीय कि मावली बाबू द्वारा एकत्र और सहेजी सामग्री के आधार पर पं. माधवराव सप्रे (जीवनी) पुस्तक, पं. गोविंदराव हर्डीेकर (समर्पण और निवेदन में नाम ‘गोविन्द नारायण हर्डीकर आया है तथा देवीप्रसाद वर्मा ‘हार्डीकर‘ लिखते हैं।) ने तैयार की, जिसका प्रकाशन सन 1950 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, जबलपुर द्वारा किया गया तथा इसका पुनर्प्रकाशन पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केंद्र द्वारा, संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन के अनुदान से 2008 में किया गया। 

प्रसंगानुकूल इस भूमिका के साथ त्रिवेदी जी का उक्त लेख यहां यथावत प्रस्तुत- 

हिंदी के समालोचकों द्वारा भुला दिये गये पहले समालोचक: माधवराव सप्रे 

सुशीलकुमार त्रिवेदी 

जन्म-शताब्दी (१९ जून) के अवसर पर 


दोष किसका है, कुछ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन स्थिति यही है कि एक मराठी-भाषी जीवन भर निष्ठा तथा एकाग्रता से हिंदी की सेवा करता रहा, और हिंदी के इतिहासकारों ने उसे भुला दिया. जिस व्यक्ति ने हिंदी में समालोचना-लेखन की परंपरा की नींव डाली, सशक्त निबंधों की रचना की और कई महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, उसी व्यक्ति- पं. माधवराव सप्रे का नाम पंडित रामचंद्र शुक्ल और उनके ग्रंथ को आधार बना कर ‘नकल नवीस इतिहासकार‘ बननेवालों को याद नहीं रहा. यह एक भूल है या साहित्य इतिहासकारों की साधन-दरिद्रता है? 

पिछड़े इलाके का अगुआ
 
मध्यप्रदेश, जो आज भी पिछड़ा माना जाता है उसी का एक और पिछडा इलाका छत्तीसगढ़ सप्रे जी की कर्मभूमि रहा. इसी क्षेत्र में उन्होंने आज से लगभग ७५ वर्ष पूर्व हिंदी-आंदोलन शुरू किया था. उन्हें छत्तीसगढ़ की सोंधी मिट्टी से इतना ममत्व था, इतना अनुराग था कि उन्होंने अपने साहित्यिक मासिक पत्र का नाम ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ रखा. यह वही ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ है, जिसमें सबसे पहली बार हिंदी-ग्रंथों की समालोचना प्रकाशित हुई. बनती-संवरती रूप लेती हिंदी में प्रकाशित होनेवाले पहले ग्रंथों की पहली समालोचना को लिखने वाले सप्रे जी ही थे. 

पेंड्रा (जिला-बिलासपुर) के राजकुमारों को पढ़ाने से मिलनेवाले वेतन में से पैसा बचा कर सप्रे जी ने जनवरी, १९०० में ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन आरंभ किया. पं. श्रीघर पाठक, जिन्हें आचार्य शुक्ल ने ‘सच्चे स्वच्छंदतावाद का प्रवर्त्तक‘ माना है, की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों- ऊजड़ ग्राम, एकांतवासी योगी, जगत सचाई सार, घन-विजय, गुणवंत हेमंत तथा अन्य, की विस्तृत विश्लेषणात्मक और विवेचनात्मक वैज्ञानिक समालोचना इसी पत्र में पहली बार प्रकाशित हुई. इसी प्रकार मिश्रबंधु तथा पं. कामताप्रसाद गुरु आदि तत्कालीन महत्वपूर्ण साहित्यकारों की कृतियों की समालोचना सप्रे जी ने ही लिखी. इसके अतिरिक्त पं. महावीरप्रसाद मिश्र, पं. कामताप्रसाद गुरु, पं. गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पं. श्रीघर पाठक आदि की रचनाएं प्रायः ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ में प्रकाशित होती रहीं. 

कुछ वर्ष पूर्व एक ख्याति प्राप्त कहानी-मासिक (सारिका) पत्रिका में एक परिचर्चा प्रकाशित हुई, जिसमें माधवराव सप्रे द्वारा लिखित ‘एक टोकरी मिट्टी‘ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी बताया गया था. यह कहानी ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ में सन् १९०१ में प्रकाशित हुई थी. 

अर्थाभाव के कारण ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन दिसंबर, १९०२ में बंद हो गया. पहले एक साल तक इसका मुद्रण रायपुर कैयूमी प्रेस में हुआ, किंतु बाद में यह नागपुर के देशसेवक प्रेस में मुद्रित होता था. 

सप्रे जी का जन्म मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में १९ जून, १८७१ को हुआ था. रायपुर से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. उन्नीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने रेलवे की ठेकेदारी साझेदारी में की, किंतु अनुभवहीनता के कारण ठोकर खायी. फिर वे ग्वालियर चले गये, जहां से उन्होंने इंटर की परीक्षा पास की. सन् १८९८ में सप्रे जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने एल एल. बी. का अध्ययन पूरा किया, किंतु जिस दिन परीक्षा शुरू हुई, उस दिन वे परीक्षा भवन तक जा कर वहां से वापस आ गये. उन्होंने सोचा कि यदि वे वकील बन गये, तो वे साहित्य-साधना नहीं कर पायेंगे. और इसके बाद ही उन्होंने हिंदी के उन्नयन के लिए जीवन समर्पित कर दिया. 

‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के अवसान से सप्रे जी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हो गये. वे नागपुर आ गये और उन्होंने देशसेवक प्रेस में नौकरी करनी शुरू कर दी. इस प्रेस से ‘देशसेवक‘ नामक एक साप्ताहिक प्रकाशित होता था. तीन वर्ष बाद सप्रे जी ने एक प्रकाशन संस्थान खोला, जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी ग्रंथमाला‘ का प्रकाशन किया. जान मिल स्टुअर्ट द्वारा लिखित ‘लिबर्टी‘ नामक ग्रंथ का आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया अनुवाद इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत हुआ था. इसके अलावा कई महत्वपूर्ण हिंदी लेखकों द्वारा किये गये अनुवाद तथा उनकी अन्य कृतियां भी सप्रे जी ने संपादित तथा प्रकाशित कीं. 

काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने विज्ञान कोश के निर्माण का कार्य सन् १९०२ में प्रारंभ किया था. इस योजना में सप्रे जी को अर्थशास्त्र विभाग का कार्य सौंपा गया. 

उन दिनों भारत के राजनीतिक क्षितिज पर तिलक का सूर्य जगमगा रहा था. चौंतीस वर्षीय सप्रे जी लोकमान्य तिलक के संपर्क में आये, और उन्होंने नागपुर से ‘हिंदी केसरी‘ प्रकाशित करने का निश्चय किया. ‘हिंदी केसरी‘ का प्रकाशन एक साप्ताहिक के रूप में सन् १९०७ में प्रारंभ हुआ. महान स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुंदरलाल ने कहा था कि ‘सप्रे जी के ‘हिंदी केसरी‘ से मुझे देश-भक्ति की स्फूर्ति मिली. सप्रे जी की विद्वत्ता, आध्यात्म के अभ्यास, अकृत्रिम निष्ठा, स्पष्ट व्यवहार, सादगी तथा स्वार्थ त्याग के लिए मेरे मन में बहुत आदर है. खेद इतना ही है कि उन सरीखे योग्य पुरुष महात्मा गांधी के उदात्त राजनीतिक तत्वज्ञान का आकलन पूरी तरह से न कर सके.‘ 

बलि के बकरे की तलाश 

‘हिंदी केसरी‘ ने सन् १९०८ में ‘राष्ट्रीय आंदोलन का हिंदी भाषा से क्या संबंध है?‘ विषय पर एक निबंध प्रतियोगिता आयोजित की. इस प्रतियोगिता में पं. माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध सर्वाेत्तम ठहराया गया और उन्हें १५ रुपये का पुरस्कार दिया गया. सन् १९१५ में इटारसी स्टेशन पर सप्रे जी की माखनलाल जी से अचानक भेंट हो गयी. सप्रे जी ने उनसे कहा, ‘मुझे मध्यप्रदेश के लिए एक बलि की जरूरत है. अनेक तरुण मुझे निराश कर चुके हैं, अब मैं तुम्हारी बर्बादी पर उतारू हूं. माखनलाल, तुम वचन दो कि अपना समस्त जीवन मध्यप्रदेश के उठाने में लगा दोगे.‘ इस पर माखनलाल जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि ‘यदि प्रांत के लिए मेरा उपयोग किया जा सकता है, तो मैं आप के दरवाजे पर ही हूं.‘ 

‘हिंदी केसरी‘ की उत्कट राष्ट्र भक्ति तथा चेतना से अंग्रेजी सरकार क्षुब्ध हुई और अगस्त सन् १९०८ में सप्रे जी ‘राज्य-विरोधी लेख‘ प्रकाशित करने के आरोप में गिरफ्तार किये गये. 

इसके बाद के कुछ वर्ष उन्होंने सार्वजनिक जीवन से अवकाश में बिताये. इसी दौरान उन्होंने आध्यात्मिक साधना की, और मराठी संत कवि श्री रामदास रचित ‘दास बोध‘ तथा तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य‘ का हिंदी अनुवाद किया. 

हिंदी के प्रसार-प्रचार के लिए हिंदी में व्याख्यान माला आयोजित करने की आवश्यकता पर विचार कर सप्रे जी ने सेठ गोविंददास के सहयोग से ‘शारदा भवन‘, योजना चलायी. इस योजना के अंतर्गत हिंदी-ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य भी किया गया. महाकोशल क्षेत्र में ‘शारदा भवन‘ योजना का स्मरण आज भी बड़े सम्मान के साथ किया जाता है. 

युगबोध से समन्वित वह महान व्यक्तित्व
 
सप्रे जी का व्यक्तित्व कभी भी साहित्य के स्वप्निल लोक तक ही सीमित नहीं रहा. वह सदैव युग-बोध से स्पंदित होता रहता. जीवन के यथार्थ को उन्होंने न केवल देखा, वरन् भोगा भी था. बार-बार राजनीति तथा पत्रकारिता में सक्रिय भाग लेने पर मजबूर होते थे. यही कारण है कि वे सदैव राष्ट्रीय चेतना संपन्न समाचारपत्र से संबद्ध हो जाते थे. 

सन् १९२० में पं. माखनलाल चतुर्वेदी के संपादकत्व में जबलपुर से ‘कर्मवीर‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ. इस पत्र के पीछे सारी प्रेरणा और मेहनत सप्रे जी की थी. सप्रे जी ने माखनलाल जी को आगे आने के लिए प्रेरित किया था. इसी वर्ष सप्रे जी ने जिला राजनीतिक परिषद का आयोजन किया और जबलपुर जिला कांग्रेस समिति का गठन किया. यह वर्ष एक और दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सागर में आयोजित मध्य प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष सप्रे जी चुने गये, किंतु उन्होंने सेठ गोविंददास के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया. 

सन् १९२४ में देहरादून में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का १५वां अधिवेशन आयोजित किया गया. सप्रे जी ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की. यहीं उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया. इस अस्वस्थता के बाद वे उठ नहीं सके और २३ अप्रैल, १९२६ को रायपुर उनका स्वर्गवास हो गया. 

हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास की दिशा में सप्रे जी का योगदान अत्यंत गौरवशाली और महत्वपूर्ण है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करने के अतिरिक्त उन्होंने चौदह पुस्तकें लिखीं तथा अनूदित की हैं. उनके अस्सी से भी ज्यादा निबंध ‘सरस्वती‘, ‘मर्यादा‘, ‘अभ्युदय‘, ‘श्री शारदा‘ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. श्री सप्रे द्वारा लिखित ‘जीवन संग्राम में विजय पाने के उपाय‘ नामक पुस्तक आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित ‘आदर्श जीवन‘ की भांति ही श्रेष्ठ है. सप्रे जी ने गंभीर उपयोगी विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध लिखे जो आज भी तरोताजा लगते हैं. उस युग में उनकी भाषा इतनी प्रांजल तथा प्रवहमान थी, जो द्विवेदी जी के अतिरिक्त किसी की भी नहीं थी. 

आचार्य द्विवेदी ने सप्रे जी का स्मरण करते हुए लिखा है, ‘वे हिंदी के अच्छे लेखक ही नहीं, उसके अच्छे उन्नायक थे.‘ और मिश्रबंधु ने ‘सरस्वती‘ में (जुलाई, सन् १९०१) मत व्यक्त किया था कि ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘, की देखा-देखी समालोचना की चाल हिंदी भाषा में भी चल पड़ी. इन दो महत्वपूर्ण व्यक्तियों के मत, जो बाईस वर्ष के अंतराल में व्यक्त किये गये हैं, सप्रे जी की प्रतिष्ठा के सूचक हैं और साथ ही साहित्य के इतिहासकारों की संकुचित दृष्टि के भी! 

धर्मयुग ★ १३ जून १९७१ ★ २१
 

डॉ. सुशील त्रिवेदी
1942 में जन्मे त्रिवेदी जी 1964 से शासकीय सेवा में रहे। 1971 में जनसंपर्क विभाग की सेवा से प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी में आए थे। पुरोधा पत्रकार पिता स्वराज प्रसाद त्रिवेदी और इतिहासकार शंभुदयाल गुरु का सानिध्य उन्हें सहज प्राप्त था, इसलिए उन्हें प्राथमिक स्रोत उपलब्ध थे, जिसके फलस्वरूप यह लेख आया। डॉ. त्रिवेदी, साहित्य के ऐसे पक्षों को उजागर करने के लिए संकल्पित रहे हैं, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ पर उनका शोध और उनकी पुस्तक इसका प्रमाण है। इसी तरह उनके द्वारा अब लगभग 5000 पृष्ठों वाला ‘माधवराव सप्रे समग्र‘ तैयार कर लिया गया है।