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Friday, September 10, 2010

गणेशोत्सव - 1934

श्री गणेशाय नमः। सर्वविदित है कि मुख्‍यतः पेशवाओं में प्रचलित गणपति पूजन को सन 1893 में तिलक जी ने समानता, एकता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध का सार्वजनिक उत्सव बना दिया। छत्तीसगढ़ में इस उद्देश्य-पूर्ति का एक प्रमाण पुराने दस्‍तावेजों में मिलता है-

14 सितंबर 1934 को बेमेतरा के श्री विश्वनाथ राव तामस्कर किसी केस के सिलसिले में रायपुर आए और लौटे क्रांतिकुमार भारतीय के साथ। बेमेतरा में बालक शाला और सप्रे वकील के घर, गणेश प्रतिमा स्थापित की गई थी। क्रांतिकुमार को यहां रामायण पाठ के लिए आग्रह किया गया।

17 सितंबर को स्कूल के कार्यक्रम में छात्रों सहित करीब 100 लोग उपस्थित हुए। क्रांतिकुमार ने यहां प्राच्य और पाश्चात्य सभ्यता के मिश्रण से होने वाली बुराइयां बताईं, उन्होंने छात्रों को बौद्धिक और शारीरिक रूप से सबल बनने की प्रेरणा दी, ताकि आवश्यक होने पर उनकी शक्ति काम आए। उन्होंने खादी पहनने और मात्र स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की नसीहत देकर 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' की व्याख्‍या की।

सप्रे जी के निवास पर लगभग 400 लोग जमा हुए। यहां क्रांतिकुमार ने रामायण के भरत मिलाप प्रसंग को सही मायने में सुराज, संदर्भ लिया। उन्होंने कहा कि तब लोग राजा के प्रति पूर्ण समर्पित होते थे। राजा भी उनकी सलाह से काम करता था, जबकि आज साम्राज्यवाद से लोग परेशान हैं। उन्होंने कहा कि मातृभूमि की सेवा और स्वाधीनता के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए वह ज्ञान प्राप्ति से हो चाहे चोरी या हत्या ही क्यों न हो। इस मौके पर उन्होंने सिविल नाफरमानी, सेना के लिए किए जाने वाले गौ-वध, स्वदेशी, छुआ-छूत और नशा-मुक्ति की बातें भी कहीं।

इस घटना ने तत्कालीन प्रशासन की नींद फिर हराम कर दी, क्योंकि उन पर पहले भी कई बार शासन विरोधी गतिविधियों के कारण कार्रवाई हुई थी। 7 से 10 अप्रैल 1934 को 'नेशनल वीक' के दौरान नागपुर के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उन्हें रामायण प्रवचन के लिए कहा लेकिन उनके भाषणों को राजद्रोह प्रकृति का मान कर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 108 के अंतर्गत 14 अप्रैल को चालान किया गया। इस सिलसिले में 27 अगस्त को सिटी मजिस्ट्रेट, नागपुर के समक्ष उनका लिखित बयान दाखिल कराया गया, जिसमें क्रांतिकुमार भारतीय ने कहा था कि वे रामायण प्रवचन करते रहेंगे, लेकिन भविष्य में शासन विरोधी अथवा राजद्रोह के भाषण नहीं करेंगे "It is already known to the Court that I am contesting these proceedings. I deny that my speeches in quistion wewr seditious. I delivered discourses on Ramayan only which I propose to do herwafter also. But I can say that I will not deliver any anti-Government or seditious speech in future." लेकिन वे फिर बेमेतरा में 'रामायण प्रवचन' कर 19 सितंबर को रायपुर लौटे। इस तरह खास रहा छत्‍तीसगढ़ में सन 1934 का गणेशोत्‍सव।

प्रसंगवश :

गणेश, बुद्धि के देवता माने जाते हैं और बुद्धिमत्ता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही सार्थक होती है। अभिव्यक्ति में गणेश के साथ जैसी छूट ले ली जाती है, वैसी शायद किसी अन्य धर्म में अथवा हिन्दू धर्म के दूसरे देवता के साथ संभव नहीं है। इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र। प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण, छत्तीसगढ़ आए। सड़क मार्ग से यात्रा करते हुए उन्हें जहां कहीं भी बंदर या गणेश प्रतिमा दिखाई पड़े, न जाने क्‍यों, कार रुकवा लेते। बंदर और गणेश, मनुष्य के शायद यही दो सर्वप्रिय कार्टून रूप हैं।

गणेश के स्वरूप, पौराणिक कथाओं, पुरानी चित्रकारी से लेकर 'बाल गणेशा', 'माई फ्रेन्ड गणेशा' और गणेशोत्सव में स्थापित की जाने वाली प्रतिमाओं में मजाकिया पुट के साथ कल्पना, सृजनशीलता और अभिव्यक्ति के न जाने कितने रंग-रूप दिखते हैं। दूध पीने-पिलाने का मजाक भी तो गणेश जी के साथ ही हुआ है। खैर...


कालीबाड़ी, रायपुर के कलाकार राजेश पुजारी बताते हैं कि लोग ट्रैफिक पुलिस, बॉडी बिल्डर या किसी अभिनेता के रूप में गणेश प्रतिमा बनाने की भी मांग करते हैं। यहां पुजारी परिवार द्वारा बनाई मूर्ति का चित्र है। युवा राकेश पुजारी (फोन +919669016175) मूर्ति में रंग और बारीकी का काम करते हैं, ने बताया कि यह प्रतिमा सन 2005 में स्थानीय सदर बाजार में स्थापित की गई थी।

डीपाडीह, सरगुजा के प्राचीन कलावशेष को युगल और ब्रह्मा की उपस्थिति से, शिव विवाह की प्रतिमा के रूप में पहचाना जा सकता है। ऐसी अन्य प्राचीन प्रतिमाओं की भांति यहां भी शिव-पार्वती के पुत्र गणेश सशरीर अपने भाई कार्तिकेय (प्रतिमा के दायीं ओर) के साथ पार्वती परिणय के साक्षी बने हैं।

आदि न अंतः उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित 'उर्दू-हिन्दी शब्दकोश' के संकलनकर्ता मुहम्मद मुस्तफा खां 'मद्‌दाह' (अहमक) का लिखा प्राक्कथन का अंश यहां उद्धरण योग्य है- ''कोश लिखने का शौक मुझे पागलपन की हद तक शुरू से ही रहा है। अब से 15-16 वर्ष पहले इसका श्री गणेश पाली-उर्दू शब्दकोश से हुआ।''

जय गजानन।


(इस पोस्‍ट का एक अंश 'नवभारत' समाचार पत्र के संपादकीय पृष्‍ठ पर 14 सितंबर को प्रकाशित हुआ है.)