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Wednesday, January 23, 2013

काल-प्रवाह

• क्रियमाण-वर्तमान की सत्ता क्षितिज की भांति है, आकाश जैसे प्रारब्‍ध-भविष्य और पृथ्वी जैसे संचित-भूत का आभासी संगम। जड़ भूत और अपरिभाषित भविष्य के बीच अभिव्यक्त (आभासी) वर्तमान। 'अर्थसत्‍ता' की जमीन पर धावमान 'राजसत्‍ता' के रथ पर 'धर्मसत्‍ता' का छत्र।

• इतिहास जो बीत गया, जो था और भविष्य जो आयेगा, जो होगा, इस दृष्टिकोण से देखने पर इतिहास के साथ जैसी तटस्थता और निरपेक्षता बरती जाती है वह कभी-कभार लावारिस लाश के पोस्‍टमार्टम जैसी निर्ममता तक पहुंच जाती है। इतिहास की जड़ता और संवेदना, वस्तुगत और विषयगत-व्यक्तिनिष्ठ के बीच का संतुलन कैसे हो? इतिहास को महसूस करने के लिए दृष्टिकोण यदि इतिहास, जो कल वर्तमान था और भविष्य जो कल वर्तमान होगा, इसे संवेदनशील बना देता है।

• इतिहास के लिए यदि एक पैमाना ईस्वी, विक्रम, शक, हिजरी या अन्य किसी संवत्सर जैसा कोई मध्य बिन्दु है, जिसके आगे और पीछे दोनों ओर काल गणना कर इतिहास का ढांचा बनता है। एक दूसरा तरीका भी प्रयुक्त होता है ईस्‍वी पूर्व-बी.सी. और ईस्वी-ए.डी. के अतिरिक्त बी.पी. before present, आज से पूर्व। अधिक प्राचीन तिथियों, जिसमें ± 2000 वर्षों का हिसाब जरूरी नहीं, उनकी गिनती बी.पी. में कर ली जाती है। तब सैद्धांतिक रूप से ही सही और इतिहास नहीं तो अन्य वस्तुस्थितियों के लिए क्या एक तरीका यह भी हो सकता है कि गणना शुरू ही वहां से हो जहां से काल शुरू होता हो या वहां से उलट गिनती करें जो अंतिम बिंदु हो-

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काल शुरू             ईसा           वर्तमान          अंतिम बिंदु 

• ऐसे बिन्दुओं की खोज सदैव मानव जाति ने की है, जॉर्ज कैन्‍टर के 'अनंतों के बीच के अनंत' की तलाश की तरह या हमारा भविष्य-पुराण (भविष्‍य भी पुराना भी), शायद इसी का परिणाम है, भारतीय चिन्तन पद्धति में वृत्तात्मक गति, मण्डल जैसी अवधारणाएं यहीं से विकसित जान पड़ती है।

• तो यदि उन आरंभिक/चरम बिन्दु को प्राप्त नहीं किया जा सकता फिर भी उसकी खोज आवश्यक है क्या? शायद यही खोज हमें नियति-बोध कराती है और अपने दृष्टिकोण को समग्र की सम्पन्नता प्रदान करती है, संवेदना प्रदान करती है, किन्तु संतुलन के बजाय इसकी अधिकता होने पर इतिहास बोध की हीनता से आरोपित होने के साथ नियतिवादी बन जाने का रास्ता अनचाहे खुलने लगता है।

• अस्तित्वमान को सिर्फ इसलिए प्रश्नातीत नहीं माना जा सकता कि वह 'घटित हो चुके का परिणाम' है, जिस तरह आगत को 'अभी तो कुछ हुआ नही' कह कर नहीं छोड़ा जाता। इतिहास क्यों? इतिहास के लिए पीछे देखना होता है तो आगे देखने की दृष्टि भी वहीं से मिलती है। इतिहास, समाज का ग्रंथागार जो है।

• इतिहास अभिलेखन का आग्रह भी तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीन जाने का आभास होने लगे, वह मुठ्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय या फिर तब भी ऐसा आग्रह भाव बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो यानि जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशास्ति रचना, लेकिन विसंगति यह है कि ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव ही सापेक्ष हो जाता है यह 'इतिहास' की एक विकट समस्या भी कही जा सकती है कि उसे साथ-साथ, आगे से या पीछे से किसी (समकोण, अधिककोण या न्यूनकोण) कोण से देखें वह मृगतृष्णा बनने लगता है। ''इतिहास से बड़ा कोई झूठ नही और कहानी से बड़ा कोई सच नही'' कथन संभवतः ऐसे ही विचारों की पृष्ठभूमि पर उपजा हो। छत्‍तीसगढ़ी कहावत है- 'कथा साहीं सिरतो नहीं, कथा साहीं लबारी', अर्थात् कथा जितना सच्‍चा कुछ नहीं, लेकिन है कथा जैसा झूठा।

• हमारी सोच और उसका विस्तार, हमारे राजमर्रा की बातचीत और उसकी व्यापकता में पात्र फिर देश और उसके बाद अंतिम क्रम पर काल है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि सोच की गहराई में सबसे नीचे अवधारणात्मक काल ही हो सकता है, उसके ऊपर भौतिक देश और सबसे सतही स्तर पर सजीव पात्र होना ही स्वाभाविक है, किन्तु इसके विपरीत और साथ-साथ पात्र में भौतिक स्वरूप और अवधारणा का अंश प्रकटतः सम्मिलित है, देश में उसके भौतिक विस्तार के साथ अवधारणात्मक विचार निहित हैं जबकि काल की सत्ता देश और पात्र संदर्भपूर्ण विचारों या बातचीत में आकार ग्रहण कर जीवन्त हो पाता है। काल की स्वत्रंत और निरपेक्ष सत्ता वैचारिक स्तर पर भी असंभव नही तो दुष्कर अवश्य है।

• इतिहास कालक्रम का पैमाना है, लेकिन किसी पैमाने पर माप लेना, किसी वस्तु को जान लेने की बुनियादी और अकेली शर्त जैसा तय मान लिया जाता है (जैसे व्यक्ति का नाम, कद, वजन या किसी स्थान की दूरी और स्मारक की प्राचीनता) जबकि किसी को जान लेने में, चाहे वह सजीव पात्र हो, भौतिक देश हो या अवधारणात्मक काल, यह एक शर्त और वह भी गैर जरूरी की हद तक अंतिम, उसे माप लेने की हो सकती है।

• परम्परा में नदी-सा सातत्य भाव है। परम्परा, रूढ़ि नहीं है, वह केवल प्राचीनता भी नहीं है, न ही वह इतिहास है, परम्परा की सार्थकता तो उसके पुनर्नवा होने में ही है। गति का रैखिक या विकासवादी दृष्टिकोण उसे अपने मूल से विलग होकर दूर होते देखता है लेकिन वृत्तायत दृष्टिकोण से परिवर्तनशील किन्तु मूल से निरन्तर सामीप्य और समभाव बनाये पाता है।

• परम्परा का अभिलेखन अन्जाने में, तो कभी षड़यंत्रपूर्वक उस पर आघात का हथियार बना लिया जाता है। परम्परा को अभिलिखित कर उसी परम्परा की अगली पीढ़ी को उसके पुराने अभिलिखित स्वरूप का आईना दिखाकर (कहना कि यह है तुम्हारा असली चेहरा) उसे झूठा साबित करना आसान उपाय है, शायद तभी कहा गया है कि ''शैतान भी अपने पक्ष में बाइबिल के उद्धरण ला सकता है।''

• आगे (?) बढ़ते समय के साथ विकास को अनिवार्यतः जोडकर देखा जाता है, और विकास का अर्थ लगाया जाता है वृद्धि, यानि 1 से 2 और 2 से 4 किन्तु यह स्वाभाविक नही है स्वाभाविक है परिवर्तन जिसे हम अपने बनाए दुनियावी पैमाने पर आगे पीछे माप-गिन लेते है, यह आंकडों के व्यावहारिक इस्तेमाल में तो संभव है किन्तु इसे तत्वतः कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

पिछली पोस्‍ट की तरह यह भी स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का दूसरा हिस्‍सा (पहला हिस्‍सा – पिछली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।

Tuesday, January 15, 2013

आगत-विगत

• इतिहास की पढ़ाई का हिस्सा है, इतिहास-लेख (Historiography)। जिसने इतिहास की पाठ्‌यपुस्तकीय पढ़ाई न की हो या की हो और यह पाठ्‌यक्रम में न रहा हो, तो भी इतिहास पर आड़े-तिरछे सवाल मंडराते जरूर हैं और इतिहास को समझने-पकड़ने के लिए, अपनी सोच को, अपने चिंतन को, चाहे वह अनगढ़ हो, शब्द दे कर उसका धरन-धारण बेहतर हो पाता है।

• प्रकृति का रहस्य अक्सर उसकी अभिव्यक्ति में गहराता है, उसी तरह इतिहास, कई बार पुरातात्विक प्राप्तियों (OOP, out-of-place) और उनकी व्याख्‍या में। इतिहास अपने को दुहराए न दुहराए, उसके पुनर्लेखन की आवश्यकता बार-बार होती है। जीवन-वर्तमान, मृत्‍यु-इतिहास। तथ्‍य, सत्‍य और कथ्‍य का फर्क। मौत, फकत मौत के तथ्‍य का सत्‍य हत्‍या, आत्‍महत्‍या, फांसी-मृत्‍युदंड, दुर्घटनाजन्‍य या स्‍वाभाविक मृत्‍यु, कुछ भी हो सकता है और कथ्‍य- 'नैनं छिन्‍दन्ति ...' या‍ 'हमारे बीच नहीं रहे' या 'अपूरणीय क्षति' या 'आत्‍मा का परमात्‍मा में मिलन' या 'चोला माटी का' या 'पंचतत्‍व में विलीन' या 'रोता-बिलखता छोड़ गए' या 'धरती का बोझ कम हुआ।

• पुराविद्‌, आधुनिक पंडित-वैज्ञानिक जैसे हैं, जिसकी बात पर कम लोग ही तर्क करते हैं, आसानी से मान लेते हैं, चकित होने की अपेक्षा सहित उसकी ओर देखते हैं। इस अपेक्षा की पूर्ति आवश्यक नहीं, बल्कि विश्वासजनित ऐसे अकारण मिलने वाले सम्मान के प्रति जवाबदेही तो बनती है।

• पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्‍कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्‍परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं। कई बार मुख्‍य धारा में आ कर वह आहत होने लगता है, तब लगता है कि हाशिये में रह कर उपेक्षित नहीं, बेहतर सुरक्षित है। वैसे अब हाशिये का इतिहास, अवर, उपाश्रयी, सबआल्टर्न शब्दों के साथ, अलग (प्रतिवादी) अवधारणा और दृष्टिकोण है।

• पुरातत्व का संस्कार- 'जो अब नहीं रहा' उसके लिए हाय-तौबा के बजाय 'जो है, जितना है', उसे बचाए रखने का उद्यम अधिक जरूरी है, क्योंकि बचाने के लिए भी इतनी सारी चीजें बची हैं कि प्राथमिकता तय करना जरूरी होता है। हर व्यक्ति के, अपने आसपास ही इतना कुछ जानने-बूझने को, सहेजने-संभालने को हैं कि क्षमता और संसाधन सीमित पड़ने लगता है। खंडहरों के साथ समय बिताते हुए पसंदीदा और जरूरी का टूटना, खोना, छूट जाना महसूस तो होता है, लेकिन इसको बर्दाश्‍त करने के लिए मन धीरे-धीरे तैयार भी होता जाता है। अवश्‍यंभावी नश्‍वर। जैसे डाक्‍टरों की तटस्‍थता कई बार निर्मम लगती है।

• इतिहास यदि आसानी से बनने लगे तो उसे समय की परतें आसानी से ढकने भी लगती हैं। ध्‍वंस भी सृजन की तरह, बिना शोर-शराबे के, समय के साथ स्‍वाभाविक होता है, बल्कि निर्माण कई बार रस्‍मी ढोल-ढमाके के साथ और उद्यम से संभव होता है। शाश्‍वत-नश्‍वर के बीच प्रलय-लय-विलय और प्रकृति-कृति-विकृति। ''प्रकृतिर्विकृतिस्‍तस्‍य रूपेण परमात्‍मनः।'' टाइम मशीन के दुर्लभ अनुभव की कल्‍पना, उत्खनन के दौरान काल में पर्त-दर-पर्त उतरने का वास्‍तविक अनुभव, सच्‍चा रोमांच। इतिहास जानना, भविष्य जानने के प्रयास से कम रोमांचक नहीं होता।

• सभ्यता का इतिहास, पहाड़ों की कोख-कन्दरा में पलता है। सभ्यता-शिशु, गिरि-गह्वर गर्भ से जन्‍मता है। ठिठकते-बढ़ते तलहटी तक आता है, युवा से वयस्क होते मैदान में कुलांचे भरने लगता है। (अगल-बगल वन-अरण्‍य में दर्शन, चिंतन, वैचारिक सृजन और शिक्षण होता रहता है।) वयस्क से प्रौढ़ होते हुए नदी तट-मुहाने पर आ कर, उद्गम से बहाव की दिशा में आगे बढ़ता जाता है, संगम पर तट भी बदल पाता है। अपने अलग-अलग संस्करणों में परिवर्तित होता कायम रहता है, कभी स्थान बदल कर, कभी रूप बदल कर। बहती नदी, समय का रूपक है?

• प्राकृत-पालि या लौकिक संस्‍कृत का दो हजार साल से भी अधिक पुराना साहित्‍य, जातक या पंचतंत्र पढ़ते हुए यह लगातार महसूस होता है कि संसार में यातायात, संचार साधनों, भौतिक स्‍वरूप में जो भी परिवर्तन आया हो, हमारी दृष्टि, हमारा मन वही है।

• हर कहानी की शुरुआत होती है- 'किसी समय की बात है, एक देश में राजा या राजकुमारी या किसान या व्यापारी या ब्राह्मण या सात भाई थे' या कि 'बहुत पुरानी बात है, फलां शहर में ...', ज्यों अंग्रेजी में 'लांग लांग अ गो / वन्स अपान अ टाइम, देअर वाज अ किंग ...' यानि हर कहानी बनती है देश, काल और पात्र से। 'देश', जड़ है, धरती की तरह, भूत-इतिहास। 'काल', अवधारणा है, हवा की तरह, संभावना-भविष्य। और 'पात्र', मनुष्य है, क्षितिज की तरह, आभासी-वर्तमान। जातक का जन्‍म फलां स्‍थान में, अमुक समय हुआ। तीन आयाम मिले, तस्‍वीर ने आकार ले लिया, बात की बात में रंग भरा और बन गई जन्‍म-कुंडली। बात ठहराने के लिए जरूरत होती है इन्हीं तीन, देश-काल-पात्र की। कहानी हो या इतिहास, होता इन्हीं तीन का समुच्चय है। जहां यह नहीं, वह शब्दातीत-शाश्वत।

• मानविकी - दर्शन, अध्यात्म, कला, भाषा, नैतिकता, मूल्य, मानवता - भविष्य।
  सामाजिक विज्ञान - अर्थ, राजनीति, समाज, पूर्वापर काल - वर्तमान।
  प्राकृतिक विज्ञान – भू-भौमिकी, गणना, भौतिकी - भूत।
Natural Science
Social Science
Bio-science
Psychology-Philosophy
Biology
Sociology
Chemistry
Economics-Political Science
Physics
History-Geography
Maths
Language

• पुरातत्‍व की सुरंग और इतिहास की पगडंडियों पर एकाकी चलते, राह दिखलाते तर्क-प्रमाणों की संकरी गलियों में सरकते, कभी आसपास गुजरते लोक-विश्‍वास के जनपथ पर साथ आ कर बहुमत बन जाना जरूरी होता है, क्‍योंकि जो लिख दिया गया वह शास्‍त्र बना, दर्ज हुआ वह इतिहास बन कर समय (और दूरी) को लांघ गया, लेकिन कई बार इस तरह तय किए सफर का मुसाफिर अपने परिवेश में बेगाना हो जाता है। शोध, अपने संदेहों पर भरोसा करना सिखलाता है, अनुसंधान का परिणाम अविश्‍वसनीय के प्रति आश्‍वस्‍त करता है, आत्‍म-विश्‍वास पैदा करने में मददगार होता है।

• इतिहास, विषय के रूप में एक अनुशासन है और प्रत्येक अनुशासन का विशिष्ट होते, उसका महत्व होता है तो उसकी अपनी सीमाएं भी होती हैं, जिस तरह किसी अपराधी को सबूतों के अभाव में सजा नहीं दी जा सकती, उसी तरह पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इतिहास में भी, विश्वास और मात्र निजी सूचना के आधार पर, स्थापनाएं मान्य नहीं होतीं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि अपने विश्वास को इतिहास की कसौटी पर अनावश्यक कसने का प्रयास न करें, यह उसी तरह अनावश्यक है, निरर्थक साबित होगा जैसे अपनी मां के हाथ बने व्यंजन के सुस्वादु होने, अपनी पसंद को प्रमाणित करने का तर्क और प्रमाण देना। आशय यह कि किसी विषय की सीमा उसकी दिशा निर्धारित करती है, मर्यादा उसे संकुचित कर उसमें सौंदर्य भरती है।

यह स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का पहला हिस्‍सा (दूसरा हिस्‍सा – अगली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।
'जनसत्‍ता' 23 दिसंबर 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट 

Thursday, December 1, 2011

स्‍वाधीनता

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म 1891     निधन 1956

सन 1919 में प्रकाशित पुस्‍तक का अंश

हालैंड की स्वाधीनता का इतिहास

ठाकुर छेदीलाल एम.ए. (आक्सफोर्ड)
बैरिस्टर-एट-ला 
(परमात्‍मने नमः)

बीसवीं सदी स्वतंत्रता की सदी है। संसार के जिस हिस्से पर ध्यान दिया जाये, चारों ओर से स्वतंत्रता ही की आवाज आती है। यहां तक कि वर्तमान विश्वव्यापी समर भी स्वतंत्रता ही के नाम पर प्रत्येक देश में मान पा रहा है। भारत वर्ष भी स्वतंत्रता के इस भारी नाद में अपना क्षीण स्वर अलाप रहा है। यद्यपि इस विश्व में भिन्न-भिन्न जातियां, भिन्न भिन्न राष्ट्र निर्माण कर, अपने ही स्वार्थ साधन मे सदैव तत्पर रहती हैं, तथापि ईश्वर ने इस संसार का निर्माण इस ढंग से किया है कि एक का प्रभाव दूसरे पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। इस वर्तमान समर में कई राष्ट्र सम्मिलित नही हैं, तिस पर भी उन्हें इसके बुरे परिणामों को अवश्य भोगना पड़ता है। इसी तरह प्रत्येक राष्ट्र में होने वाले राजनैतिक आंदोलन से तथा साहित्य की उन्नति से दूसरे राष्ट्र लाभ उठा सकते हैं। यथार्थ में पूछा जाये तो इतिहास के पढ़ने से यही लाभ है। बीते हुए युग का हाल पढ़ने से हम अतीत युग में अपना प्रवेश कराते हैं, जिससे हमारा ज्ञान-क्षेत्र विस्तीर्ण होता है और भविष्य में हमें किस तरह कार्य करना चाहिए, इसकी शिक्षा मिलती है। भारतवर्ष में यह जो स्वराज्य का आंदोलन चल रहा है, इस देश के लिए बिल्कुल नई बात है। इसमें संदेह नही कि प्राचीन भारत में प्रजातंत्र राज्य भी थे। परंतु प्रधानता अनियंत्रित शासन-पद्धति की ही थी। इस कारण केवल भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के ही अध्ययन से इस नये मार्ग के पथिक को कुछ सहायता नहीं मिलती, जिससे उसे पश्चिम की ओर सहायता के लिए झांकना अनिवार्य हो जाता है। यूरोप में कई राष्ट्रों ने कई प्रकार से आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य प्राप्त किया है। किंतु हिन्दी साहित्य में इनका वर्णन न होने से इस भाषा भाषी को इससे कोई लाभ नहीं होता।

आजकल हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न चारों ओर से किया जा रहा है, जिनके प्रधान नेता श्रद्धास्पद, स्वनामधन्य कर्मवीर महात्मा गांधी हैं। इतने बड़े सेवक को पाकर हिंदी सचमुच कृतार्थ हो गई है, और आशा है कि अब इसके वेग को कोई रोकने में समर्थ न होगा और यह अपने लक्ष्य सिद्धि में शीघ्र ही सफलीभूत होगी। यद्यपि कई क्षुद्र व्यक्तियों ने जिनका नाम लिखना अनावश्‍यक है, हिंदी भाषा की निंदा करते-करते गांधी महात्मा पर भी संकीर्णता तथा पक्षपात का दोष आरोपण किया है, तथापि इनका प्रयत्न इस आंदोलन को रोकने में असमर्थ है। इनमें से कई महात्माओं ने अंग्रेजी की इतनी प्रशंसा की है कि उसे करीब-करीब यूरोप के सब भाषाओं से बढ़कर बना दिया है, उदाहरणार्थ एक महाशय लिखते हैं-
“English is of special value as being the key to a vast field of knowledge and as being the means of likewise of communicating to the whole of the civilised world anything of intellectual value that India may have to communicate.”

इन महात्मा को शायद यह मालूम नहीं है कि यूरोप में सिवाय इंग्लैंड के और किसी देश में सैकड़ा पीछे एक आदमी भी अंग्रेजी नहीं जानता। वहां पर फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं ही की प्रधानता है। इनसे पूछा जाय क्या मेटरलिंक ने अपने विख्यात नाटकों को अंग्रेजी में लिखा था? क्या कान्ट ने अपना तत्व विज्ञान, डास्टोएवेस्की ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास, गोगोल तथा टर्जनीव ने अपने उपन्यास, टालस्टाय ने अपनी तत्व विज्ञान संबंधी पुस्तकें, शापेनहार, हीगेल तथा स्पिनोजा ने अपने विचार अंग्रेजी में व्यक्त किये थे? क्या विक्टर ह्यूगो, ब्रू, इब्सेन ने अपनी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित कराई थी? हां, हम भारतवासियों को जो संसार में अंग्रेजी ही को अपनी अज्ञानतावश सर्वश्रेष्ठ तथा विश्‍वव्यापी मान बैठे हैं, उपरोक्त प्रतिभाशाली लेखकों को ज्ञान अंग्रेजी ही द्वारा हुआ। किंतु इतना स्मरण रखना चाहिए कि इन सब महात्माओं की पुस्तकों की उत्तमता को देखकर अंग्रेजी ने अपनी साहित्य की कमी पूरा करने के लिए इनको अपनी भाषा में अनुवाद किया। किंतु अंग्रेजी में अनुवाद होने के पूर्व ही इन्होंने संसार में ख्याति पा ली थी। क्या रविन्द्र बाबू की गीतांजलि, बंगाली भाषा से फ्रेंच में अनुवादित की जाती तो संसार में प्रसिद्ध न होती? यदि अंग्रेजों को यह मालूम हो जाये कि भारतवासी अपने उत्कर्ष विचार अपनी ही भाषा में व्यक्त करेंगे, तो निश्‍चय ही वे हमारी भाषा को पढ़ेंगे और उत्तम ग्रंथों का अनुवाद अपनी भाषा में स्वयं करेंगे। क्या जगदीश बाबू के प्रसिद्ध अविष्कार, अपनी भाषा में लिखे जाने पर दूसरे लोग ग्रहण न करते? क्या फ्रेंच में इनके सिद्धांतों का अनुवाद नहीं हुआ होगा? अस्तु।

हिंदी का मुखोज्वल करना हमारे हाथ है, और यदि हम चाहें तो अपने मौलिक लेखों द्वारा इस भाषा को इतने ऊंचे पद पर चढ़ा सकते हैं, कि पश्चिमी विद्वान इसे अवश्‍य अध्ययन करें। तुलसीदास की रोचकता ने, कबीर की सार-गर्भिता ने तथा सूरदास के पद-लालित्य ने कई विदेशियों को हिन्दी पढ़ने पर विवश किया। इसी तरह यदि केवल हम इधर-उधर की पुस्तकों का अनुवाद करने ही को अपना इति कर्तव्य न समझें, और अपने ऊंचे विचार इसी भाषा में व्यक्त करें तो क्या नहीं हो सकता। हिन्दी में यूरोपीय इतिहास संबंधी कोई पुस्तक नहीं है। हां, इंडियन प्रेस ने इतिहास-माला निकालना प्रारंभ किया है, जिसमें पांच छः पुस्तकें निकल चुकी है। निस्संदेह यह प्रयत्न अच्छा है। किंतु इन पुस्तकों को, कोई इतिहास नहीं कह सकता। यदि हम इनको सन् संवत की सूचियां कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। इस कमी को पूर्ण करने के लिए हम लोगों ने यह 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' निकालना निश्चय किया है। इसमें केवल उन्हीं देशों के इतिहासों का समावेश रहेगा, जिन्होंने राष्ट्रीय तथा आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य प्राप्त की है और इनमें केवल उन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख रहेगा, जिनका संबंध एतद्देशीय राष्ट्रीय स्वाधीनता से रहा हो।

विषय बड़ा गहन है और हमारी योग्यता बहुत कम है। आश्‍चर्य नहीं कि पग-पग पर हम लोग चूकेंगे। किंतु वर्तमान काल में ऐसी पुस्तकों की उपयोगिता का विचार कर, और हिंदी में उनका अभाव देखकर हम लोग अपनी अयोग्यता को जानते हुए भी इस कार्य में बद्ध-परिकर हुए हैं। इस सोपान सीरीज में निम्नलिखित देशों की स्वाधीनता प्राप्त करने की विधि का वर्णन रहेगा।
अर्थात्
(१) हालैंड, (२) इंग्लैंड, (३) अमेरिका, (४) फ्रांस, (५) इटली, (६) टर्की, (७) ईरान, (८) पोर्तगाल और, (९) रूस।
भाषा संबंधी त्रुटियों का होना तो हमारी अयोग्यता-वश अनिवार्य ही है। फिर भी सहृदय पाठकों से हमारा निवेदन है कि इन त्रुटियों का विचार न करके, इस सीरीज को अपनाकर, हमें उत्साहित करेंगे। उदार पाठकों से प्रार्थना है कि जो त्रुटियां, भाषा तथा विषय-संबंधी उन्हें इस 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' में मिले, उनसे हमें सूचित करें, जिसे हम सहर्ष और धन्यवाद सहित स्वीकार करेंगे।
- संपादक

भूमिका

यूरोप के इतिहास में सोलहवीं सदी तथा सत्रहवीं सदी धार्मिक मारकाट के लिए प्रसिद्ध है। एक भारतीय को जिसका ध्येय सदा से धार्मिक स्वतंत्रता ही रहा है, धार्मिक विषय में मारकाट बड़ा विचित्र मालूम होता है। हिंदू धर्म के छत्र-छाया में बौद्ध, जैन, चार्वक, नास्तिक आदि सब मतों ने एक सा मान पाया है और किसी को धार्मिक विश्वास के कारण किसी तरह का कष्ट नहीं उठाना पड़ा। धार्मिक विषय में स्वाधीनता एक हिंदू को बहुत आवश्यक तथा साधारण ज्ञात होती है। इसलिए यूरोप के इतिहास में, धर्म के नाम से मनुष्यों पर पाशविक अत्याचार का किया जाना, उसके मन को डांवाडोल कर देता है। यूरोप की सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के इतिहास में यदि कोई रत्न चमकता हुआ उसे दिखता है तो वह छोटे हालैंड का अपने बलिष्ठ शत्रु स्पेन के साथ अपनी स्वतंत्रता लाभार्थ अस्सी साल की लड़ाई है। स्पेन का यूरोप में उस समय बड़ा दबदबा था। धन, जन आदि सब बातों में दूसरे यूरोपीय देश स्पेन का महत्व स्वीकार करते थे। इंग्लैंड, फ्रांस प्रभृति देश भी स्पेन के आगे सिर झुकाते थे। ऐसे स्पेन से एक तुच्छ हालैंड का, जिसकी जनसंख्या हिन्दुस्तान के किसी छोटे प्रांत के चौथाई से भी कम है, अस्सी साल तक अपूर्व पराक्रम से लड़ना तथा अंत में स्पेन ही द्वारा अपनी स्वतंत्रता कबूल करा लेना, एक भारतीय को थर्रा देता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो अधिकारी वर्ग को सदैव सब कुछ मानता आया है, जिसके हृदय में स्वाधीनता का लेशमात्र भी भास नहीं है, वह स्‍वतंत्रता के लिए हालैंड के इस आत्मोत्सर्ग का क्या आदर कर सकता है? यद्यपि उसका हृदय अंधकार से पूर्ण है तथापि डच लोगों का अपूर्व साहस उसके हृदय में ऐसी ज्योति उत्पन्न कर देता है कि स्वयं गिरे हुए होने पर भी हालैंड के उन वीरों के कार्य को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपने धन, प्राण सब सहर्ष अर्पण कर दिए, प्रेम और आदर दृष्टि से देखता है। स्पेन के घोर अत्याचार तथा उद्दण्डता, मौनी विलियम के असीम देशप्रेम, साहस तथा आत्म त्याग, वार्नवेल्ट की राजनैतिक कुशलता, नासो के विलियम का रण पांडित्य, जान डी विट् का यूरोपीय राष्ट्र संगठन में अपूर्व ज्ञान तथा प्रत्येक डच का स्वाधीनता के लिए सहर्ष प्राण अर्पण करना, यही प्रथम सोपान के मुख्य विषय है। किस प्रकार इस छोटे से हालैंड ने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह भारतवर्ष सरीखे आलसी तथा लकीर के फकीर देश के लिए अनुकरणीय है।

इस पुस्तक का मुख्य अभिप्राय उन्हीं बातों से हैं, जिनसे डच लोगों को स्वाधीनता दिलाने में सहायता मिली। इस कारण सोलहवीं सदी से हमारा प्रकरण प्रारंभ होगा। यथार्थ में डच लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई स्पेन के द्वितीय फिलिप के राज्य काल से आरंभ की। इस कारण हमारा इतिहास द्वितीय फिलिप के समय से ही आरंभ किया जायेगा। जिन महाशयों को इसके पूर्व का हाल जानने की उत्सुकता है उन्हें केम्ब्रिज मिडिवियल हिस्ट्री, हिस्टोरियन्स हिस्ट्री आफ दी वर्ल्‍ड और माटले की डच रिपब्लिक प्रथम भाग की प्रस्तावना देखना चाहिए।

इस पुस्तक में हमने समकालीन लेखों तथा पत्रों से कुछ अवतरण दिया है। हिंदी में इनका अच्छा अनुवाद न हो सकने के कारण अंगेरजी अनुवाद दे दिए गए हैं।
- ठाकुर छेदीलाल

स्‍वाधीनता संग्राम के दौरान वैचारिक स्‍तर पर अस्मिता और स्‍वतंत्रता की भावना जागृत करने वाले उपाय भी किए जाते रहे। गणेशोत्‍सव, धार्मिक प्रवचन, यज्ञ-अनुष्‍ठान, लीला-नाटक मंचन, इतिहास लेखन-प्रकाशन, भाषाई आग्रह जैसे अहिंसक तौर-तरीके अपनाए जाते। अकलतरा के ठाकुर छेदीलाल बैरिस्‍टर ने ऐसे सभी अस्‍त्र आजमाए। बैरिस्‍टरी की पढ़ाई के बाद, वकालत और शिक्षण के साथ 1919 से 1933 के बीच (उनके जेल जाने से व्‍यवधान भी होता रहा) दो-ढाई हजार की आबादी वाले कस्‍बे अकलतरा में रामलीला का आयोजन करते रहे। उनके साथ इस काम में अकलतरा के दो और विलायत-पलट, लोगों को निःशुल्‍क चिकित्‍सा सेवा देते एफआरसीएस, उनके अनुज डा. चन्‍द्रभान सिंह और रायल इकानामिक सोसायटी से जुड़े, पूरी गोंडवाना पट्टी और बस्‍तर के बीहड़ सुदूर अंचल में शोध-सक्रिय, जनजातीय समुदाय में अलख जगाते, उनके भतीजे डा. इन्‍द्रजीत सिंह अनुगामी होते।

Tuesday, November 22, 2011

साहित्यगम्य इतिहास

यह पोस्‍ट, 7 से 9 मार्च 2000 को बिलासपुर में आयोजित संगोष्‍ठी के लिए साहित्‍य वाले डॉ. सरोज मिश्र जी और इतिहास वाले डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद जी के सुझाव पर मेरे द्वारा तैयार किया गया परचा, शुष्‍क आलेख है, जिनकी रुचि साहित्‍य एवं इतिहास विज्ञान में न हो, उनके लिए इसे पढ़ना उबाऊ और समय का अपव्‍यय हो सकता है।

''जन केन्द्रित और समग्र मानव इतिहास के लिए विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का सहयोग और सहकार आवश्यक है। अनुशासनों से जुड़े गर्व के कारण इन विषयों के बीच का संवाद अब तक, पीटर बर्क के शब्दों में बहरों की बातचीत रहा है। इन अनुशासनों ने एक दूसरे को पूर्वाग्रह, शंका और भय की दृष्टि से देखा है। हमने उनकी सीमाओं पर विचार किया है, उपलब्धियों और संभावनाओं पर नहीं।'' प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे के इस कथन में ''इतिहास और साहित्य-इतिहास लेखन का अंतरावलंबन'' की पड़ताल में यहां इतिहास की दिशा से प्रवेश का प्रयास है।

''राजतरंगिणी'' भारतीय साहित्य का वह बिन्दु है, जहां इतिहास और साहित्य के लेखन और अंतरावलंबन की पड़ताल सुगम है। बारहवीं सदी ईस्वी में काश्मीर के शासक जयसिंह के समकालीन कल्हण की यह रचना, प्रथम इतिहास ग्रंथ मान्य है। कल्हण की यह कृति साहित्य की रचना करते हुए, इतिहास का लेखन है, इसलिए अंतरावलंबन का यह बिन्दु विचार प्रस्थान के लिए उपयुक्त है। राजतरंगिणी इतिहास की शब्दगम्य श्रेणी है। इसके अतिरिक्त वस्तुगम्य और बोधगम्य इतिहास श्रेणियां कही जा सकती हैं। वस्तुगम्य इतिहास की सीमा में पुरातात्विक वस्तुओं के रूप में उत्खननों से प्राप्त प्रमाण से लेकर जीवाश्म और पूरा भौतिक संसार है, जो प्राकृतिक इतिहास के रूप में जाना जाता है और बोधगम्य इतिहास- मूल्य, मान्यता, आचार, व्यवहार, शैली और परम्परा यानि समष्टि लोक है।

पुनः प्रस्थान बिन्दु राजतरंगिणी पर दृष्टि केन्द्रित कर विचार करें। कालक्रम में इसके पूर्व, वैदिक युग है, जिस काल का शब्दगम्य इतिहास बन पाता है, वस्तुगम्यता नगण्य है। दूसरी स्थिति अशोक के अभिलेख हैं, जहां इतिहास गढ़ते हुए, साहित्य की रचना होती चलती है। इसके पश्चात्‌ गुप्त युग है, जो अधिकतर पुराणों का रचनाकाल माना गया है। पुराणों के साथ रोचक यह है कि हिन्दू (भारतीय) धर्म-शास्त्रीय ग्रंथों के अंतिम क्रम में होने के बावजूद उन्हें पुराना और साथ ही इतिहास-पुराण सामासिक रूप में कहा गया है, इसीलिए इतिहास-साहित्य के अंतरावलंबन का यह बिन्दु महत्वपूर्ण हो जाता है। यह भी रोचक है कि एक विरोधाभासी भविष्यत्‌ पुराण का उल्लेख आता है। अन्य पुराणों की शैली से अनुमान होता है कि पुराणों में प्राचीन गाथाओं के साथ समकालीन घटनाओं का भी विवरण संग्रह है, लेकिन प्राचीन गाथाओं को अद्यतन और समकालीन घटनाओं को भविष्यवाणी के रूप में रखा गया है। इस प्रकार पुराण, न सिर्फ इतिहास-पुराण सामासिक पद के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, बल्कि भारतीय पद्धति में इतिहास-साहित्य लेखन के संघटन को समझने का अवसर भी प्रदान करते हैं।

गुप्तकालीन स्थितियों में चौथी सदी ईस्वी में रचित हरिषेण की प्रयाग-प्रशस्ति और पांचवीं सदी ईस्वी में रचित वत्सभटि्‌ट की मन्दसौर प्रशस्ति शिलालेख, जैसी रचनाएं तत्कालीन इतिहास की स्रोत-सामग्री तो हैं ही, इनका साहित्यिक मूल्य तत्कालीन साहित्यिक कृतियों से कम नहीं हैं। इसी युग के ताम्रपत्र, जिन पर दान के विवरण के साथ दान की प्रतिष्ठा 'आचन्द्रार्क तारकाः' यानि जब तक सूरज, चांद और तारे रहें, काल अवधि तक के लिए बताई जाती है, किन्तु इतिहास के कालक्रम का ढांचा तैयार करने में समस्या तब होती है जब ऐसे अनेक ताम्रपत्रों पर तिथि किसी प्रचलित संवत्‌ के स्थान पर शासक के राज्य वर्ष की संख्‍या में अंकित की गयी है।

शब्दगम्य इतिहास में विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृत्तांत और अन्य लिपियुक्त अवशेषों, साहित्यिक सामग्रियों का विवरण पाठ्‌य पुस्तकों में पर्याप्त है, किन्तु राजतरंगिणी के पश्चात्‌ काल के शब्दगम्य इतिहास में विवेच्य प्रयोजन हेतु अंतिम आधुनिक चरण आरंभ होता है- 15 जनवरी सन 1784 से, जब सर विलियम जोन्स ने कलकता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। इसके साथ इतिहास के वैज्ञानिक और व्यवस्थित लेखन के प्रयास का सूत्रपात हुआ। सन 1788 से 'एशियाटिक रिसर्चेज' शोध पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ और कुछ वर्षों बाद ही सेन्ड्राकोट्टस को चन्द्रगुप्त मौर्य से समीकृत किया गया, जोन्स का यह प्रसिद्ध शोध लेख भारतीय इतिहास को कालगत क्रम में व्यवस्थित करने का आधार बना। इसके बाद के उस दौर का भी स्मरण यहां आवश्यक है, जब राहुल सांकृत्यायन की 'वोल्गा से गंगा', रामधारी सिंह दिनकर की 'संस्कृति के चार अध्याय' और भगवतशरण उपाध्याय की 'पुरातत्व का रोमांस' जैसी पुस्तकें प्रकाशित हुई।

इतिहास लेखन की दृष्टि से कुछ विचार-कथनों का स्मरण कर लें, इससे भारतीय इतिहास-दृष्टि की न्यायसंगत समीक्षा आसान हो सकेगी। कौटिल्य ने इतिहास को पुराण, इतिवृत्त, आख्‍यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र से समन्वित माना है। नेहरू, इतिहास के साथ महाकाव्य, परम्परा और कहानी-किस्से को जोड़ते हुए मानों कौटिल्य के कथन की टीका करते हैं- दंतकथाएं, महाकाव्यों तक महदूद नहीं हैं, वे वैदिक काल तक पहुंचती हैं और अनेक रूपों और पोशाकों में संस्कृत साहित्य में आती हैं। कवि और नाटककार इनसे पूरा फायदा उठाते हैं और अपनी कथाएं और सुंदर कल्पनाएं इनके आधार पर बनाते हैं। नेहरू यह भी स्पष्ट करते हैं कि ''तारीखवार इतिहास लिखने की या घटनाओं का कोरा हाल इकट्‌ठा कर लेने की खास अहमियत नहीं रही है। जिस बात की उन्हें ज्यादा फिक्र रही है, वह यह है कि इन्सानी घटनाओं का इन्सानी आचरण पर क्या प्रभाव और असर रहा है।''

अमरीका के प्रसिद्ध विधिवेत्ता ऑलिवर वेन्डल होम्स मानो जिरह करते हैं- ''इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए क्योंकि इतिहास कारणों और पूर्ववृत्त के ऐसे सूत्रों का चयन है, जिनमें हमारी रुचि है और रुचियां पचास वर्षों में बदल जाती हैं।'' अंगरेज इतिहासकार ईएच कार अपनी प्रसिद्ध कृति ''इतिहास क्या है?'' में दिखाते हैं- ''ऐतिहासिक तथ्य मात्र वे हैं, जो इतिहासकारों द्वारा जांच के लिए छांटी गयी हैं'' वे स्पष्ट करते हैं कि लाखों लोगों के बावजूद सीजर का रूबिकन पुल पार करना महत्वपूर्ण हुआ (और मुहावरा बन गया) वे आगे कहते हैं- ''सभी ऐतिहासिक तथ्य इतिहासकारों के समसामयिक मानकों से प्रभावित हुई अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप हम तक आते हैं।''

भारत में इतिहास, हमारी काल चिंतन पद्धति के अनुरूप रहा है। भारतीय, बल्कि समूचा प्राच्य चिंतन, काल तथा उसके सापेक्ष वस्तुओं, घटनाओं को परिवर्तनशील वृत्तायत दृष्टि से देखता है न कि पाश्चात्य, रैखिक विकास की दृष्टि से। साथ ही हमारा सुदीर्घ, अबाध और जीवन्त क्रम, सनातन माना जाकर इतिहास के बजाय स्वाभाविक ही परम्परा में बदल सकता है। परम्परा, जिसकी सार्थकता उसके पुनर्नवा होने में है, उसमें नदी सा सातत्य है। वह प्राणवान 'भवन्ति' का स्पंदित प्रवाह है, न कि खण्डित 'अस्ति' का संवेदनारहित समूह। वस्तुतः इतिहास और परम्परा किसी तथ्य अथवा घटना के दो लगभग विपरीत, किन्तु पूरक बनकर, दोनों सार्थक दृष्टिकोण हैं। परम्परा से जुड़ा व्यक्ति उसके प्रति विषयगत हो जाता है तो, बाहरी व्यक्ति इसके प्रति रूक्ष होकर इसके कपोल-कल्पना साबित करने में जुट जाता है। इसी स्थिति में भारतीयों पर 'इतिहास-बोध' न होने का आरोप लगता है, जिसकी सफाई में कुछ कहने के बजाय भारतीय मानस में 'नियति बोध' का दर्शन पा लेना अधिक आवश्यक है, किन्तु यहीं अभिलेखन के भारतीय दृष्टिकोण का एक उल्लेख पर्याप्त होगा, वृहस्पति का कथन है-
षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्‍यतः पुरा॥
''किसी घटना के छः मास बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसलिए ब्रह्‌मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है।''

इतिहास लेखन की यह एक विकट समस्या है कि समकालीन इतिहास, घटना के प्रभाव के प्रति तटस्थ नहीं हो पाता। इतिहास का आग्रह अधिकतर तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीनने का आभास होने लगे। वैभव, जब मुट्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय अथवा ऐसा आग्रह भाव तब भी बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो, जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशस्ति रचना या प्रस्तावित छत्तीसगढ़ राज्य का पृथक अस्तित्व होने के पूर्व, उसे राज्य इकाई मानकर किया जाने वाला लेखन, लेकिन प्रयोजनीय होने से ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव सापेक्ष हो जाता है। इस तरह घटनाओं को साथ-साथ देखते चलें, आगे से देखें या पीछे से, इतिहास के लिए दृष्टि समकोण हो, अधिककोण या न्यूनकोण, वह मृगतृष्णा बनने लगता है।

इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, परम्परा की तरह स्वयंसिद्ध नहीं। इसलिए इतिहास-नायकों को चारण-भाट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण हेतु काव्य रच सकें, पत्थर-तांबे पर उकेर सकें लेकिन परम्परा के लोक नायकों के विशाल व्यक्तित्व की उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते किन्तु लोक मन का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है। इसलिए जिस समाज के जड़ों की गहराई और व्यापकता परम्परा-पोषित जनजीवन में व्याप्त है, वह आंधी तूफान सहता, पतझड़ के बाद बसंत में फिर उमगने लगता है।

इतिहास लेखन में समस्या तब अधिक गंभीर होती है, जब किसी स्रोत-सामग्री का नाम लेना उसके जान लेने की एकमात्र बुनियादी शर्त बन जाती है। इतिहासकार अपना दायित्व वस्तु-घटनाओं के वर्गीकरण और उसकी सांख्यिकीय जमावट तक अपने को सीमित कर लेता है, वह इतिहास को परिवर्तन के बजाय, इकहरे क्रमिक विकास की दृष्टि से देखता है। भारतीय स्थापत्य के इतिहास का उदाहरण इसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है। हम पाते हैं कि यहां आरम्भ में हड़प्पा सभ्यता में निर्माण हेतु ईंट प्रयुक्त हुए, वैदिक युग का स्थापत्य घास-फूस, लकड़ी और पत्थर की कुम्भियों का था, मौर्य युग में ढूह (स्तूप) और स्तम्भ तथा काष्ठ वास्तु की तरह रेलिंग बनने लगी, फिर अचानक संरचनात्मक के स्थान पर शिलोत्खात (लेण और गुहा) वास्तु का दौर आता है, संयोगवश लगभग यही काल भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है, फिर गुप्त युग में क्रमशः सीधे-सपाट संरचनात्मक वास्तु का पुनः आरंभ होता है, इसके बाद देश के कुछ हिस्सों, विशेषकर छत्तीसगढ़ में फिर ईंटों का प्रचलन हो गया और इसी प्रकार परिवर्तन अब तक होते रहे हैं। अब यदि इसे विकास क्रम में जमाने का प्रयास करें तो कुछ तथ्यों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा या फिर कुछ मनगढ़ंत सम्मिलित करना विवशता होगी।

इस प्रकार पाश्चात्य पद्धति ने हमारी इतिहास दृष्टि को जागृत करने में सहायता की, जिसके माध्यम से हम मंदिरों का, मूर्तियों का, सिक्कों का, लिपियों का, बोली-भाषाओं का और साहित्य के इतिहास का ढांचा तैयार कर सके, किन्तु शायद इसी ने समग्रता के इतिहास से जो परम्परा से सम्बद्ध होकर मानव का, उसकी संस्कृति का, इतिहास हो सकता था, दूर कर दिया। यह विवेचन अंगरेजों को उत्तरदायी ठहराने के लिए नहीं, अपने स्वाभाविक वर्तमान का आकलन करने के लिए है।

निष्कर्ष यह कि हमारे व्यक्तित्व के ढांचे में, चेतना के स्तर पर समष्टि सूत्रों से हम सृष्टि में प्रकृति के सहोदर हैं, लोक-जन हमारे अग्रज हैं, वे ही हमारे मूल से वर्तमान को जोड़ने का परिचय-माध्यम हो सकते हैं, सूत्र बन सकते हैं। आज हम जहां हैं, वहां होने की तार्किकता, अपने आदि से कार्य-कारण संबंध तलाश कर, उसमें छूटे स्थानों को पूरी आस्था सहित लोक और जन से पूरित कर, यानि चेतना के स्तर पर अपने इतिहास से अपने वर्तमान का सातत्य पाकर हम वास्तविक अर्थों में मनुज कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। यह विश्लेषण आश्रित शब्दगम्य इतिहास मात्र से संभव नहीं, इसके लिए वस्तुगम्य इतिहास की व्याख्‍या और बोधगम्य इतिहास सम्पदा को साहित्य का सम्मान देते हुए, तैयार किया गया इतिहास ही सार्थक होगा।

Tuesday, February 15, 2011

देवार

इतिहास, अपनी मान्य रूढ़ियों की सीमा के चलते निर्मम होता है। घटनाएं, उनका प्रलेखन, उनकी खोज, शोध और व्याख्‍या के पश्चात्‌ खंडन-मंडन का अनवरत सिलसिला। इस कसौटी पर जो खरा उतरता है, वही इतिहास-स्वीकृत होता है, वरना खारिज। ऐसा इतिहास, पाठ्‌यक्रम की आवश्यक शर्त पूरी कर लेता है, किन्तु इतिहास में संशोधन करते, प्रतिदिन इतिहास रचते, मानव के लिए उसकी उपयोगिता अथवा कम से कम प्रासंगिकता का सवाल जरूर बना रहता है और मजेदार कि ऐसे प्रश्न, सामान्य जिज्ञासु के जितने होते हैं, उससे कहीं अधिक खुद इतिहासकार उठाते हैं इसलिए इतिहास-दर्शन या इतिहास-शास्त्र, इतिहास अध्ययन का जरूरी हिस्सा बन जाता है।

चारण-भाटों का साहित्य, राजाश्रय पाकर इतिहास की महत्वपूर्ण स्रोत-सामग्री के रूप में उपलब्ध होता है, घुमन्तू बारोटों की पहुंच भी दरबारों में होती थी, ये सभी इतिहास के लगभग अनिवार्य घटक हैं किन्तु वंशगत इतिहास को राजसत्ता का और पुराणों को धर्मसत्ता का इतिहास माना जाता है। धर्मसत्ता और राजसत्ता जनित, इतिहास के समानान्तर और बहुधा समवाय अर्थसत्ता सम्बद्ध होकर उसे दृढ़ता प्रदान करती है पर काल की धारा, इतिहास से कहीं अधिक निर्मम है। इसीलिए एक बार इतिहास-स्वीकृत, स्‍थापित होने पर भी उसके खारिज होने की संभावना बनी रहती है। क्या भरोसा, कब काल-पात्र गाड़ा जाए और कब उखड़ जाए या खो ही जाए। नामकरण, स्मारक-फलक और कालजयी मानी जाने वाली मूर्तियों के साथ कब क्या हादसा हो जाए ? स्वाभाविक ही इस परिवेश में उपाश्रयी (सब-आल्टर्न) इतिहास की चर्चा जोर पकड़ती है।

इस संदर्भ में देवारों का उल्लेख आने पर समझा जा सकता है कि जैसे गंगा-यमुना के साथ सरस्वती की अन्तर्धारा इसे त्रिवेणी बनाकर शाश्वत पवित्रता का सम्मान दिलाती है, उसी तरह देवारों की गाथाएं घटनाओं और उसके हाल-अहवाल के दबाव से मुक्त इतिहास हैं और इन गाथाओं के कवि-गायक देवार, इतिहास की अन्तर्धारा के संवाहक हैं। धर्म, राज और अर्थ तीनों सत्ताओं की अपेक्षा से स्वतंत्र, लोक-नायकों के इतिहासकार। देवार-गाथा को इतिहास का दर्जा भले न मिल पाए, लेकिन खंडन-मंडन से परे, देवार-गीतों में ऐसा इतिहास है, जिसकी प्रासंगिकता पर कभी प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा सकता और जो देवार, इतिहास की उपाश्रयवादी विचारधारा के जनक, साधक और कर्ता हैं।

प्रमाण-लाचार और तथ्य-शुष्क पाठ्‌यक्रम-योग्य इतिहास, देवार-गीतों में विद्यमान प्रसंगों के प्रति जैसा भी बर्ताव करे, इतिहास की अन्तर्धारा के संवाहक देवारों को उसकी कोई परवाह नहीं है। मानवीय-प्रवृत्तियों और सूक्ष्म मनोभावों को घटनाओं के ताने-बाने में जिस प्रकार देवारों ने रचा है, सुरक्षित रखा है, जन-जन तक पहुंचाया है वह अंजुरी भर ही हो, लेकिन समष्टि के कल्याण के लिए है, मंगलकारी है। इस दिशा में किया गया कार्य मंगलमय ही होगा।

(जून, 2003 में प्रकाशित डॉ. सोनऊराम निर्मलकर की पुस्‍तक 'देवार की लोक गाथाएं' के आमुख के लिए लिखे गए अपने आलेख से)

पुनश्‍चः

हबीब जी के नया थियेटर से परिचितों के लिए फिदाबाई (या फीताबाई) और किस्‍मतबाई देवरनिन गायक-कलाकारों के नाम नये नहीं, लेकिन इनमें डाक्‍टर से मास्‍टर तक, चपरासी से कलेक्‍टर तक और बिस्‍कुट, फोटो, लगेज, मनीबेग, किताब, तीतुर, रहिंचुल, घोटारी जैसे भी नाम लोकप्रिय हैं। कई मायनों में अनूठी है देवारों की रंगीनी, क्‍यों न हो, कहा जाता है-

चिरई म सुंदर रे पतरेंगवा, सांप सुंदर मनिहार। राजा म सुंदर गोंड़े रे राजा, जात सुंदर रे देवार।।
और- ककनी, बनुरिया अगवारिन मन के, मोहिनी ढिला गे देवारिन मन के।

Monday, January 31, 2011

बिलासा

जिसके नाम पर बसे बिलासपुर में वास करते हुए, बिलासा का जिक्र यदा-कदा और स्मरण तो अक्सर होता है, तब सदैव याद आती है, अपने बचपन की केंवटिन दाई। नियत समय पर, नियत स्थान पर हमारे गांव में नित्य-प्रति दंवरी और पर्रा में चना, मुर्रा, लाई, करी-लाड़ू लेकर आती थी। खाइ-खजेना (टिट-बिट) का पर्याय मेरे लिए आज भी यही है। पौराणिकता की चर्चा यहां अनावश्यक होगी, किन्तु जब सन्तोषी माता के प्रसाद में चना-गुड़ बांटा जाता, तो मुझे सदैव स्मरण होता, केंवटिन दाई के खाइ-खजेना का।

कभी चंदिया रोड के पास के गांव कौड़िया-सलैया जाते हुए, उसके अगले गांव बिलासपुर के कुछ लोग मिले, उस दिन मैंने हिमांचल प्रदेश के बिलासपुर के बाद तीसरे बिलासपुर का नाम सुना। चंदिया रोड से शहडोल वापस लौटते हुए रास्ते में वीरसिंहपुर पाली में बिरासिनी देवी की प्राचीन मूर्ति देखने के लिए रुका। वहां मंदिर के बाहर खाइ-खजेना लिए, एक केंवटिन दाई के भी दर्शन हुए। यों ओड़गी, बतौली, कुनकुरी, खरसिया और बिलईगढ़ वाले, इस तरह छत्तीसगढ़ में ही पांच अन्य बिलासपुर की जानकारी मिल गई।

इन स्फुट स्मृतियों को आपस में जोड़ने के प्रयास में अपनी प्रशिक्षित बौद्धिकता का सहारा लेता हूं तो बीच-बीच का अंतराल फैलने लगता है। लेकिन मन के स्वच्छंद विचरण में ऐसी परिकल्पना आसानी से बन जाती है कि यह सपाट और एकरूप मालूम पड़ता है। वही विरासिनी देवी, वही सन्तोषी माता, वही बिलासा केंवटिन, वही केंवटिन दाई। फिर बौद्धिक प्रतीत होने वाले कई निष्कर्ष उभरने लगते हैं, जिनमें से एक कि निषाद गृहणियां, अपने नाविक गोसइंया के लिए, जिसका यह भरोसा नहीं कि एक बार नदी में हेल जाने के बाद कितनी देर या कितने दिन बाद आए, भूंजा, खाइ-खजेना तैयार करती रही होंगी। सुधीजन और शोधार्थी परीक्षण कर खंडन-मंडन करें, उनका मन रखने के लिए उनके प्रत्येक मत का सम्मान, लेकिन अपने मन का मान कभी बदलेगा, ऐसा नहीं लगता। निष्कर्ष और भी हैं, लेकिन फिलहाल आगे बढ़ें।

इतिहास अपने को दुहराता है या यों कहें- नया कुछ घटित नहीं होता, काल, स्थान और पात्र बदलते रहते हैं और व्याख्‍याएं बदल जाती हैं। पौराणिक साहित्‍य में उल्‍लेख मिलता है कि पहले राजा, पृथु से भी पहले, सर्वप्रथम विन्‍ध्‍यनिवासी निषाद तथा धीवर उत्‍पन्‍न हुए। भारतीय सभ्यता का प्रजातिगत इतिहास भी निषाद, आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा से आरंभ माना जाता है। यही कोई चार-पांच सौ साल पहले, अरपा नदी के किनारे, जवाली नाले के संगम पर पुनरावृत्ति घटित हुई। जब यहां निषादों के प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों केंवट-मांझी समुदाय का डेरा बना। आग्नेय कुल का नदी किनारे डेरा। अग्नि और जल तत्व का समन्वय यानि सृष्टि की रचना। जीवन के लक्षण उभरने लगे। सभ्यता की संभावनाएं आकार लेने लगीं। नदी तट के अस्थायी डेरे, झोपड़ी में तब्दील होने लगे। बसाहट, सुगठित बस्ती का रूप लेने लगी। यहीं दृश्य में उभरी, लोक नायिका- बिलासा केंवटिन।

इतिहास के तथ्य तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, लोक-गाथाओं की तरह सहज-स्वाभाविक नहीं, इसलिए इतिहास नायकों को चारण-भाट-बारोट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण का काव्य रच-गढ़ सकें, पत्थर-तांबे पर उकेरे जा सकें, लेकिन लोक नायकों के व्यक्तित्व की विशाल उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते, किंतु लोक नायकों का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है।

इसी तरह 'बिलासा केंवटिन' काव्य, संदिग्ध इतिहास नहीं, बल्कि जनकवि-गायक देवारों की असंदिग्ध गाथा है, जिसमें 'सोन के माची, रूप के पर्रा' और 'धुर्रा के मुर्रा बनाके, थूंक मं लाड़ू बांधै' कहा जाता है। अपने पिता दशरथ की पंक्तियां गाते हुए कुकुसदा की रेखा देवार याद करती हैं– 'राजपुर रतनपुर, कंचो लगे कपूर तीन फूल बेनी म झूले बिलासा केंवटिन चार कुरिया जुन्‍ना बिलासपुर आज उड़त हे कबिलास।' उसका परिचय इस प्रकार भी दिया जाता है- 'बड़ सतवंतिन केंवटिन ए, कुबरा केंवट के डउकी ए, नाथू केंवट के पत्‍तो ए, धुर्रा के केंवटिन मुर्रा बनाए, सुक्‍खा नदी म डोंगा चलाय, भरे नदी म घोड़ा कुदाय।' केंवटिन की गाथा, देवार गीतों के काव्य मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने में सक्षम है ही, केंवटिन की वाक्‌पटुता और बुद्धि-कौशल का प्रमाण भी है। गीत का आरंभ होता है-

छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
सोन के माची रूप के पर्रा, राजा आइस केंवटिन करा।
मोल बिसाय सब कोइ खाय, फोकटा मछरी कोइ नहीं खाय।
कहव केंवटिन मछरी के मोल, का कहिहौं मछरी के मोल।

आगे सोलह प्रजातियों- डंडवा, घंसरा, अइछा, सोंढ़िहा, लूदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, जटा चिंगरा, भेंड़ो, बामी, कारी‍झिंया, खोकसी, झोरी, सलांगी और केकरा- का मोल तत्कालीन समाज की अलग-अलग जातिगत स्वभाव की मान्यताओं के अनुरूप उपमा देते हुए, समाज के सोलह रूप-श्रृंगार की तरह, बताया गया है। सोलह प्रजातियों का 'मेल' (range), मानों पूरा डिपार्टमेंटल स्‍टोर। लेकिन जिनका यहां नामो-निशान नहीं अब ऐसी रोहू-कतला-मिरकल का बोलबाला है और इस सूची की प्रजातियां, जात-बाहर जैसी हैं। जातिगत स्वभाव का उदाहरण भी सार्वजनिक किया जाना दुष्कर हो गया क्योंकि तब जातियां, स्वभावगत विशिष्टता का परिचायक थीं। प्रत्येक जाति-स्वभाव की समाज में उपयोगिता, अतएव सम्मान भी था। जातिवादिता अब सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति का हथियार बनकर, सामाजिक सौहार्द्र के लिए दोधारी छुरी बन गई है अन्यथा सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन, बहादुर कलारिन के साथ बिलासा केंवटिन परम्परा की ऐसी जड़ है, जिनसे समष्टि का व्यापक और उदार संसार पोषित है।

अरपा-जवाली संगम के दाहिने, जूना बिलासपुर और किला बना तो जवाली नाला के बायीं ओर शनिचरी का बाजार या पड़ाव, जिस प्रकार उसे अब भी जाना जाता है। अपनी परिकल्पना के दूसरे बिन्दु का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा- केंवट, एक विशिष्ट देवी 'चौरासी' की उपासना करते हैं और उसकी विशेष पूजा का दिन शनिवार होता है। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां के नामों में जयलाला, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासूली और चण्डी के साथ 'बिलासिनी' नाम मिलता है तो क्या देवी 'चौरासी' की तरह कोई देवी 'बिरासी', 'बिरासिनी' भी है या सतबहिनियों में से एक 'बिलासिनी' है, जिसका अपभ्रंश बिलासा और बिलासपुर है। इस परिकल्पना को भी बौद्धिकता के तराजू पर माप-तौल करना आवश्यक नहीं लगा।

अरपा में पानी बहता रहा, लेकिन जवाली नाला का सहयोग-सामर्थ्य वैसा नहीं रहा। अब तो शायद संज्ञा में प्रोजेक्‍ट के चलते 'रोज मेरी' नाम स्थापित हो जाय (जवाली नाला शब्द में पुनः अग्नि-जल समन्वय का आभास है) और अरपा जानी जाए, स्‍टाप डैम से। अरपा को तब अन्तःसलिला जैसे शब्दाभूषणों की आवश्यकता (मजबूरी) नहीं थी। कलचुरियों की रतनपुर राजधानी पर सन 1740 के बाद मराठों का अधिकार हो गया, 1770 में नदी तट के आकर्षण से बिलासपुर में किले का निर्माण आरंभ हुआ, लेकिन 1818 तक मुख्‍यालय रतनपुर ही रहा। ब्रिटिश अधिकारियों को रायपुर और बिलासपुर सुगम, सुविधाजनक प्रतीत हुआ। अंततः 1862 में बिलासपुर, जिला मुख्‍यालय के रूप में पूर्णतः स्थापित हो गया।

शुरुआत में नगर के अंतर्गत तीन मालगुजारी गांव थे- बिलासपुर, चांटा और कुदुरडांड (क्रमशः वर्तमान जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड)। नगर, किला वार्ड से शनिचरी होते हुए गोल बाजार होकर आगे पसरने लगा और इसके बाद रेल के आगमन से नगर की विकास-गति में मानों पहिए नहीं, पर लग गए। रेलवे की तार-घेरा वाली सीमा और दीवाल वाली सीमा क्रमशः तारबाहर और देवालबंद (वर्तमान दयालबंद) मुहल्‍ले कहलाए। दाढ़ापारा, दाधापारा हो गया। अब नगर-सीमा में समाहित अमेरी, तिफरा, चांटीडीह, सरकंडा, कोनी, लिंगियाडीह, देवरीखुर्द, मंगला जैसे गांव, पारा-मुहल्‍ला जाने जा रहे हैं। नगर पर एसइसीएल, रेल जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी की और गोंडपारा, कतियापारा, तेलीपारा, कुम्हारपारा, टिकरापारा, मसानगंज पर ...नगर, ...वार्ड, ...कालोनी की परत चढ़ने लगी है।

प्रगति के साथ, नगर की परम्परा का स्मरण स्वाभाविक है। कहा जाता है 'इतिहास तो जड़ होता है' और 'पुरातत्व यानि गड़े मुर्दे उखाड़ना', लेकिन सभ्यता आशंकित होती है तो पीछे मुड़कर देखती है आस्था के मूल की ओर, कि गलती कहां हुई? और ऐसी प्रत्येक स्थिति में सम्बल बनता है, बिलासा केंवटिन दाई का स्मरण-दर्शन। नगर की गौरवशाली परम्परा का मूल बिन्दु- बिलासा केंवटिन, गहरी और मजबूत जड़ें है, जिसके सहारे यह नगर-वृक्ष आंधी-तूफान सहता पतझड़ के बाद बसंत में फिर से उमगने लगता है।

दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।