जिसके नाम पर बसे बिलासपुर में वास करते हुए, बिलासा का जिक्र यदा-कदा और स्मरण तो अक्सर होता है, तब सदैव याद आती है, अपने बचपन की केंवटिन दाई। नियत समय पर, नियत स्थान पर हमारे गांव में नित्य-प्रति दंवरी और पर्रा में चना, मुर्रा, लाई, करी-लाड़ू लेकर आती थी। खाइ-खजेना (टिट-बिट) का पर्याय मेरे लिए आज भी यही है। पौराणिकता की चर्चा यहां अनावश्यक होगी, किन्तु जब सन्तोषी माता के प्रसाद में चना-गुड़ बांटा जाता, तो मुझे सदैव स्मरण होता, केंवटिन दाई के खाइ-खजेना का।
कभी चंदिया रोड के पास के गांव कौड़िया-सलैया जाते हुए, उसके अगले गांव बिलासपुर के कुछ लोग मिले, उस दिन मैंने हिमांचल प्रदेश के बिलासपुर के बाद तीसरे बिलासपुर का नाम सुना। चंदिया रोड से शहडोल वापस लौटते हुए रास्ते में वीरसिंहपुर पाली में बिरासिनी देवी की प्राचीन मूर्ति देखने के लिए रुका। वहां मंदिर के बाहर खाइ-खजेना लिए, एक केंवटिन दाई के भी दर्शन हुए।
इन स्फुट स्मृतियों को आपस में जोड़ने के प्रयास में अपनी प्रशिक्षित बौद्धिकता का सहारा लेता हूं तो बीच-बीच का अंतराल फैलने लगता है। लेकिन मन के स्वच्छंद विचरण में ऐसी परिकल्पना आसानी से बन जाती है कि यह सपाट और एकरूप मालूम पड़ता है। वही विरासिनी देवी, वही सन्तोषी माता, वही बिलासा केंवटिन, वही केंवटिन दाई। फिर बौद्धिक प्रतीत होने वाले कई निष्कर्ष उभरने लगते हैं, जिनमें से एक कि निषाद गृहणियां, अपने नाविक गोसइंया के लिए, जिसका यह भरोसा नहीं कि एक बार नदी में हेल जाने के बाद कितनी देर या कितने दिन बाद आए, भूंजा, खाइ-खजेना तैयार करती रही होंगी। सुधीजन और शोधार्थी परीक्षण कर खंडन-मंडन करें, उनका मन रखने के लिए उनके प्रत्येक मत का सम्मान, लेकिन अपने मन का मान कभी बदलेगा, ऐसा नहीं लगता। निष्कर्ष और भी हैं, लेकिन फिलहाल आगे बढ़ें।
इतिहास अपने को दुहराता है या यों कहें- नया कुछ घटित नहीं होता, काल, स्थान और पात्र बदलते रहते हैं और व्याख्याएं बदल जाती हैं। पौराणिक साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पहले राजा, पृथु से भी पहले, सर्वप्रथम विन्ध्यनिवासी निषाद तथा धीवर उत्पन्न हुए। भारतीय सभ्यता का प्रजातिगत इतिहास भी निषाद, आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा से आरंभ माना जाता है। यही कोई चार-पांच सौ साल पहले, अरपा नदी के किनारे, जवाली नाले के संगम पर पुनरावृत्ति घटित हुई। जब यहां निषादों के प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों केंवट-मांझी समुदाय का डेरा बना। आग्नेय कुल का नदी किनारे डेरा। अग्नि और जल तत्व का समन्वय यानि सृष्टि की रचना। जीवन के लक्षण उभरने लगे। सभ्यता की संभावनाएं आकार लेने लगीं। नदी तट के अस्थायी डेरे, झोपड़ी में तब्दील होने लगे। बसाहट, सुगठित बस्ती का रूप लेने लगी। यहीं दृश्य में उभरी, लोक नायिका- बिलासा केंवटिन।
इतिहास के तथ्य तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, लोक-गाथाओं की तरह सहज-स्वाभाविक नहीं, इसलिए इतिहास नायकों को चारण-भाट-बारोट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण का काव्य रच-गढ़ सकें, पत्थर-तांबे पर उकेरे जा सकें, लेकिन लोक नायकों के व्यक्तित्व की विशाल उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते, किंतु लोक नायकों का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है।
इसी तरह 'बिलासा केंवटिन' काव्य, संदिग्ध इतिहास नहीं, बल्कि जनकवि-गायक देवारों की असंदिग्ध गाथा है, जिसमें 'सोन के माची, रूप के पर्रा' और 'धुर्रा के मुर्रा बनाके, थूंक मं लाड़ू बांधै' कहा जाता है। अपने पिता दशरथ की पंक्तियां गाते हुए कुकुसदा की रेखा देवार याद करती हैं– 'राजपुर रतनपुर, कंचो लगे कपूर तीन फूल बेनी म झूले बिलासा केंवटिन चार कुरिया जुन्ना बिलासपुर आज उड़त हे कबिलास।' उसका परिचय इस प्रकार भी दिया जाता है- 'बड़ सतवंतिन केंवटिन ए, कुबरा केंवट के डउकी ए, नाथू केंवट के पत्तो ए, धुर्रा के केंवटिन मुर्रा बनाए, सुक्खा नदी म डोंगा चलाय, भरे नदी म घोड़ा कुदाय।' केंवटिन की गाथा, देवार गीतों के काव्य मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने में सक्षम है ही, केंवटिन की वाक्पटुता और बुद्धि-कौशल का प्रमाण भी है। गीत का आरंभ होता है-
छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
सोन के माची रूप के पर्रा, राजा आइस केंवटिन करा।
मोल बिसाय सब कोइ खाय, फोकटा मछरी कोइ नहीं खाय।
कहव केंवटिन मछरी के मोल, का कहिहौं मछरी के मोल।
आगे सोलह प्रजातियों- डंडवा, घंसरा, अइछा, सोंढ़िहा, लूदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, जटा चिंगरा, भेंड़ो, बामी, कारीझिंया, खोकसी, झोरी, सलांगी और केकरा- का मोल तत्कालीन समाज की अलग-अलग जातिगत स्वभाव की मान्यताओं के अनुरूप उपमा देते हुए, समाज के सोलह रूप-श्रृंगार की तरह, बताया गया है। सोलह प्रजातियों का 'मेल' (range), मानों पूरा डिपार्टमेंटल स्टोर। लेकिन जिनका यहां नामो-निशान नहीं अब ऐसी रोहू-कतला-मिरकल का बोलबाला है और इस सूची की प्रजातियां, जात-बाहर जैसी हैं। जातिगत स्वभाव का उदाहरण भी सार्वजनिक किया जाना दुष्कर हो गया क्योंकि तब जातियां, स्वभावगत विशिष्टता का परिचायक थीं। प्रत्येक जाति-स्वभाव की समाज में उपयोगिता, अतएव सम्मान भी था। जातिवादिता अब सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति का हथियार बनकर, सामाजिक सौहार्द्र के लिए दोधारी छुरी बन गई है अन्यथा सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन, बहादुर कलारिन के साथ बिलासा केंवटिन परम्परा की ऐसी जड़ है, जिनसे समष्टि का व्यापक और उदार संसार पोषित है।
अरपा-जवाली संगम के दाहिने, जूना बिलासपुर और किला बना तो जवाली नाला के बायीं ओर शनिचरी का बाजार या पड़ाव, जिस प्रकार उसे अब भी जाना जाता है। अपनी परिकल्पना के दूसरे बिन्दु का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा- केंवट, एक विशिष्ट देवी 'चौरासी' की उपासना करते हैं और उसकी विशेष पूजा का दिन शनिवार होता है। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां के नामों में जयलाला, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासूली और चण्डी के साथ 'बिलासिनी' नाम मिलता है तो क्या देवी 'चौरासी' की तरह कोई देवी 'बिरासी', 'बिरासिनी' भी है या सतबहिनियों में से एक 'बिलासिनी' है, जिसका अपभ्रंश बिलासा और बिलासपुर है। इस परिकल्पना को भी बौद्धिकता के तराजू पर माप-तौल करना आवश्यक नहीं लगा।
अरपा में पानी बहता रहा, लेकिन जवाली नाला का सहयोग-सामर्थ्य वैसा नहीं रहा। अब तो शायद संज्ञा में प्रोजेक्ट के चलते 'रोज मेरी' नाम स्थापित हो जाय (जवाली नाला शब्द में पुनः अग्नि-जल समन्वय का आभास है) और अरपा जानी जाए, स्टाप डैम से। अरपा को तब अन्तःसलिला जैसे शब्दाभूषणों की आवश्यकता (मजबूरी) नहीं थी। कलचुरियों की रतनपुर राजधानी पर सन 1740 के बाद मराठों का अधिकार हो गया, 1770 में नदी तट के आकर्षण से बिलासपुर में किले का निर्माण आरंभ हुआ, लेकिन 1818 तक मुख्यालय रतनपुर ही रहा। ब्रिटिश अधिकारियों को रायपुर और बिलासपुर सुगम, सुविधाजनक प्रतीत हुआ। अंततः 1862 में बिलासपुर, जिला मुख्यालय के रूप में पूर्णतः स्थापित हो गया।
शुरुआत में नगर के अंतर्गत तीन मालगुजारी गांव थे- बिलासपुर, चांटा और कुदुरडांड (क्रमशः वर्तमान जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड)। नगर, किला वार्ड से शनिचरी होते हुए गोल बाजार होकर आगे पसरने लगा और इसके बाद रेल के आगमन से नगर की विकास-गति में मानों पहिए नहीं, पर लग गए। रेलवे की तार-घेरा वाली सीमा और दीवाल वाली सीमा क्रमशः तारबाहर और देवालबंद (वर्तमान दयालबंद) मुहल्ले कहलाए। दाढ़ापारा, दाधापारा हो गया। अब नगर-सीमा में समाहित अमेरी, तिफरा, चांटीडीह, सरकंडा, कोनी, लिंगियाडीह, देवरीखुर्द, मंगला जैसे गांव, पारा-मुहल्ला जाने जा रहे हैं। नगर पर एसइसीएल, रेल जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी की और गोंडपारा, कतियापारा, तेलीपारा, कुम्हारपारा, टिकरापारा, मसानगंज पर ...नगर, ...वार्ड, ...कालोनी की परत चढ़ने लगी है।
प्रगति के साथ, नगर की परम्परा का स्मरण स्वाभाविक है। कहा जाता है 'इतिहास तो जड़ होता है' और 'पुरातत्व यानि गड़े मुर्दे उखाड़ना', लेकिन सभ्यता आशंकित होती है तो पीछे मुड़कर देखती है आस्था के मूल की ओर, कि गलती कहां हुई? और ऐसी प्रत्येक स्थिति में सम्बल बनता है, बिलासा केंवटिन दाई का स्मरण-दर्शन। नगर की गौरवशाली परम्परा का मूल बिन्दु- बिलासा केंवटिन, गहरी और मजबूत जड़ें है, जिसके सहारे यह नगर-वृक्ष आंधी-तूफान सहता पतझड़ के बाद बसंत में फिर से उमगने लगता है।
दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।
दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।
राहुल सर आपके आलेख की अब प्रतीक्षा रहने लगी है.. आज जिस तरह से आपने विलासपुर के बहाने संस्कृति और सभ्यता के दर्शन कराएँ हैं मुझे झारखण्ड के कई देवी देवता... कई स्थानों के नाम स्मरण हो आये.. जिसमे माईथान का नाम प्रमुख है जो कालांतर में मैथन बन गया जहाँ अभी दामोदर घाटी परियोजना का एक प्रमुख डैम है... यहाँ का कल्याणेश्वरी माता का मंदिर दर्शनीय है.. कहते हैं कि मिस्टर वूड्स जिन्हें मैथन डैम बनाने के लिए ब्रिटेन से बुलाया गया था वो जब सफलीभूत नहीं हो रहे थे तो उन्होंने माँ की मदद ली... तभी जाके डैम बन सका... इतिहास के एक अनछुए हिस्से से परिचय के लिए आपका आभार..
ReplyDeleteइतिहास अपने को दुहराता है या यों कहें- नया कुछ घटित नहीं होता, काल, स्थान और पात्र बदलते रहते हैं और व्याख्याएं बदल जाती हैं।
ReplyDeleteसद्य: प्रमाणित..
अत्यंत मधुर और रोचक पोस्ट जिसकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है. इसका भाव वे बेहतर पकड़ सकते हों जिनका उस अंचल से कुछ वास्ता है... जैसे मैं.
ReplyDeleteअब यदि छत्तीसगढ़ के बारे में कुछ भी आधिकारिक जानना हो तो आपके ब्लौग से बेहतर स्थान और आपसे बेहतर व्यक्ति मेरे लिए कौन होगा?
पोस्ट को पढता हूँ तो बचपन में बिलासपुर और उसके इर्द-गिर्द बिताये लम्हे आँखों के सामने तैरने लगते हैं.
इतनी रोचक और ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. मैं आपके ब्लौग को बहुत पहले ही अपनी फेवरिट लिंक्स में शामिल कर चुका हूँ.
प्रगति के साथ, नगर की परम्परा का स्मरण स्वाभाविक है। कहा जाता है 'इतिहास तो जड़ होता है' और 'पुरातत्व यानि गड़े मुर्दे उखाड़ना', लेकिन सभ्यता आशंकित होती है तो पीछे मुड़कर देखती है
ReplyDeletexxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
और यह इतिहास ही है जिसकी नींव पर खड़े होकर हम अपना अक्स देखते हैं ..और खुद का विश्लेषण करते हैं ...फिर आगे बढ़ते हैं ....आपकी पोस्ट इस धरातल पर खरी उतरती है ...आपका आभार
कहा जाता है 'इतिहास तो जड़ होता है' और 'पुरातत्व यानि गड़े मुर्दे उखाड़ना', लेकिन सभ्यता आशंकित होती है तो पीछे मुड़कर देखती है आस्था के मूल की ओर, कि गलती कहां हुई..
ReplyDeletebehad saargarbhit.
poora aalekh pathak ko baandhe rakhta hai.
बिलासपुर में 8 माह रहा, अब समझ में आया कि कहाँ रहा।
ReplyDeleteSansmaran padhana bahut achha laga!Bachpankee kayee yaaden taza ho aayeen.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसामाजिक इतिहास का जीवंत दस्तावेज है यह पोस्ट.
ReplyDeleteलोक स्मृति से कुछ और नाम याद आते हैं.
अच्छा लगा जानकार ...शुभकामनायें आपको !!
ReplyDeleteबहुत विस्तार से आप ने समझाया, इस सुंदर लेख के लिये आप का धन्यवाद
ReplyDeleteशानदार लेखन.
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ पहले से ही आकर्षित करता रहा है, और अब आपके लेख पढ़कर यह आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। मुझ सिरफ़िरे का ठीक नहीं, कहीं आपके अंचल में ही डेरा न जमा लूँ(रिटायरमेंट के बाद), हा हा हा।
ReplyDeleteगंभीर बातों को इतने सहज से बखान जाते हैं आप कि कहते नहीं बनता।
शुक्रिया राहुल जी, इतिहास और पुरातत्व में रुचि जगाने ले किये।
बिलासपुर प्रवास तो पचासों बार हुआ किन्तु इस तरह से उसे कभी नहीं जाना। अपने 'धन्धे-पानी' मे ही लगा रहा। यह पोस्ट पढ कर जी करता है - बिलासपुर की एक यात्रा और की जाए।
ReplyDeleteबहुत ही शोधपरक लेख है आपका। मैं चुंकि रायपुर का रहने वाला हूँ इसलिए बिलासपुर भी कई बार जाना हुआ है। पर न तो वहाँ अधिक रहा हूँ न ज्यादा घूमा हूँ। अच्छा लगा ये सब जानकर और ज्ञानवर्धन तो हुआ ही। :)
ReplyDeleteकिसी भी बहाने से सही ऐसे भौगोलिक इतिहास को प्रस्तुत करने वाले लेख हमेशा सराहनीय हैं।
ReplyDeleteसाभार धन्यवाद
अत्यंत मधुर और रोचक पोस्ट..
ReplyDeleteपहली बार आप के ब्लॉग पर आया हूँ आकर बहुत अच्छा लगा ,
कभी समय मिले तो //shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें ..
BAHUT BADIYA LEEKHE HO BHAIYA.
ReplyDeleteइतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते, किंतु लोक नायकों का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है।
ReplyDeleteऔर ये रोचक भी होता है...इसलिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अनायास ही हस्तांतरित हो जाता है.
आपकी पोस्ट से छत्तीसगढ़ को पूरे विस्तार और गहराई से जानने का अवसर मिलता है...शुक्रिया
एक जगह के बहाने आपने एक प्रदेश की आत्मा का परिचय कराया । प्रांतीय जीवन और लोकसंस्कृति की अनूठी छाप है आपकी पोस्टों में.पोस्ट में क्षेत्रीय भाषा के शव्दों को व्यापक बनाने हेतु आपका विश्लेषण अच्छा लगा।वीरांगना सत्ती बिलासा देवी की अमरगाथा आज बी छत्तीसगढ़ के कण कण में प्रचलित हे.
ReplyDeleteबअड़ संत्वान्तीं कारी केंवटिन,सुखा नदी म डोंगा चलाय
धन-धन केंवटिन तोर बअड़ नाव् ,मोटियारी गोटी के चना चबाय
में अभी इसे ही लोकसंस्कृति की जरीए छत्तीसगढ़ की इथिहस को धुंडने केलिए कोसिस करता हूँ.इस लेख से मुझे बहोत कुछ जानकारी प्राप्त हुआ.कलचुरी नरेश कल्याण साय द्वारा बिलासा देवी को दीए मान-सन्मान की जानकारी भी मुझे प्राप्त हुआ था .आपका आभार
बहुत सुंदर ढंग से साझा किया आपने बिलासपुर का इतिहास.... किसी भी स्थान से जुड़ी कितनी रोचक बातें हो सकती हैं.... सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteसुरुचिपूर्ण ज्ञानवर्धक आलेख. बधाई.
ReplyDeleteशिमला जाते हुये एक दो बार बिलासपुर रुकना हुआ लेकिन विस्तार से उसके इतिहास के बारे मे आज ही जाना। बहुत ग्यानवर्द्धक पोस्ट है। धन्यवाद।
ReplyDeleteइतिहास को ऐसे जानना अच्छा लगा ...आभार ..सुन्दर पोस्ट
ReplyDeletebahut achchha laga ...
ReplyDeletesundar lekh ke liye aabhar !
विलासपुर पर केन्द्रित बहुत ही बढ़िया आलेख.... सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteआप के द्वारा दी गई जानकारी काफी महत्वपूर्ण है .धन्यवाद
ReplyDeleteसरकारी तूती के बाद जब आपके नक्कारख़ाने का नाद सुनता हूँ तब जाकर मुँह से स्वतः निकल पड़ता है
ReplyDeleteINCREDIBLE INDIA!!
अतुलनीय भारत!!
बिलासा यदि ऐतिहासिक सत्य ना हो तो मैं आपकी दूसरी परिकल्पना सतबहिनियों में से बिलासिनी पर दांव लगाता !
ReplyDeleteसुन्दर प्रविष्टि ! छत्तीसगढ़ से बाहर के पाठकों के लिए पद्यानुवाद देना बेहतर होता !
राहुलजी,
ReplyDeleteआपसे कह तो दिया कि आपकी पोस्ट बाद में पढ़ूँगा,
लेकिन प्रतीक्षा क्यों करूँ यह सोचकर तुरन्त ही साईट
पर आ गया । आपकी केंवटिन की कविता का प्रवाह
इतना जबर्दस्त था कि एक साँस में पढ़ गया । मैंने
अपने ’उन दिनों’ (हिन्दी-क-ब्लॉग) में बिलासपुर का
ज़िक्र भी किया है ।कभी वक़्त मिले तो देखिये ।
आपके लेख को पढ़कर ५० वर्ष पूर्व की यादें ताज़ा हो
गईं, जब मैं खैरागढ़ (राज) में कक्षा एक से चार तक
छात्र था ! लगा ’दाई’ यहीं बाहर बैठी होगी ’पैली’ लिये
हुए ! क्या आपको याद है ऐसा कुछ ?
सादर,
अद्भुत ;काल खंड ,इतिहास खंड ,भूगोल खंड और कुल -जाति जन्म वृत्तांत /पुराण सब एक ही लेखन प्रवाह में आमेलित !-नयी जानकारियाँ हुईं -महाभारत का योजन गंधा महात्म्य भी सहसा याद हो आया और कोहरें की जन्मकथा भी !
ReplyDeleteबिलासा दाई और उनके बिलासपुर के संबंध में माइक्रोस्कोपिक व्याख्या की है आपने।
ReplyDeleteइतिहास के मंच पर मौन खड़े पात्र आपने निर्देशन में मुखरित हो उठे है।
बिलासपुर से होकर कई बार जाना हुआ है ,अब कभी जाना होगा तो ज्यादा परिचित लगेगा !
ReplyDeleteकई नई बातें जानने को मिलीं !
आभार !
बिलासा और बिलासपुर का इतिहास ... आपने बहुत ही गहन अध्यन किया है सांस्क्र्टिती और जनजीवन का ....
ReplyDeleteऐतिहासिक लेख है ...
कभी गई तो नहीं पर अच्छा लगा पढ़कर और जानकर
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख....बहुत-बहुत बधाई
ग्रेट! देशज जीवन पर आपकी पकड़ और आपकी कलम की ताकत का जवाब नहीं राहुल जी!
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आलेख. कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
ReplyDeleteBAHUT SUNDAR JANAKARI..
ReplyDeleteबिलासपुर {छ.ग.} से खास लगाव है... पर आज ये सब जानकर बहुत ही अच्छा लगा... ऐसा लगा जैसे सैर हो गयी शब्दों के माध्यम से...
ReplyDeleteमुझे भी पहली बार तीन बिलासपुर के बारे में पता चला... बहुत-बहुत धन्यवाद, जानकारी, गीत, और यादों को ताज़ा करने के लिए...
एक बार मैं बस से भटिंडा जा रहा था. नरवाना के पास मेरी आँख खुली तो खिड़की से मुझे साइन बोर्ड पर बिलासपुर लिखा दिखाई दिया. मुझे तो अपने इसी बिलासपुर का पता था. उनींदा होने के कारण सर को एक बार झटका दिया. फिर से देखा तो बिलासपुर ही लिखा था. तब मैंने ड्राईवर को पूछा तो उसने बताया की यह बिलासपुर हरियाणा का है.
ReplyDeleteएक बिलासपुर दिल्ली से रिवाड़ी जाते वक़्त धरुहेदा के पास आता है. एक बिलासपुर हिमाचल प्रदेश में भी है.
लेकिन केंवटिन दाई के बिलासपुर जैसा नहीं देखा.
ये खाइ-खजेना (टिट-बिट) क्या बला है नहीं समझ पाई .....
ReplyDeleteबस इतना पता लगा कोई खाने की ही वस्तु है .....
और ये केंवटिन दाई किसे कहते हैं .....?
@ दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉं. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।
अच्छी ल गी बलासपुर की ये जानकारी .....
आपने अपनी तस्वीर भी बदल ली तो हमें पहचानने में थोड़ी मुश्किल लगी कि ये वही राहुल जी है जिनकी अधितर ब्लोगों पे टिप्पणियाँ देखती हूँ .....
chhatisgarh ke ilaake me main bhi kareeb char maheene raha hoon.dalli-rajhara bahut badhiya jagah lagi,khaskar raat ko bahut achchha lagta tha.bhilai ke bhi darshan kiye the.yah baat 1991 ki hai !
ReplyDeleteaapke dwara vistar me jankari mili,dil fir vahin pahunch gaya !
आप के द्वारा दी गई जानकारी काफी महत्वपूर्ण है .धन्यवाद
ReplyDeleteआपकी लेखनी ... वृतचित्र
ReplyDeleteछितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन करे सिंगार।
विलासपुर की संस्कृति और सभ्यता के दर्शन कराने के लिए आभार !
ReplyDelete(फेसबुक पर) श्याम कोरी 'उदय' commented on your post.
ReplyDeleteश्याम wrote: "... saargarbhit va prabhaavashaalee lekh ... kintu ukt lekh men, aapne jwaalee naalaa (jo mool roop men ek naalaa hi hai jisme shahar kaa gandaa paanee bahtaa hai) kaa arpa nadi se "sangam" kaa ullekh kiyaa hai, sambhav hai uchit ho, kintu mujhe aisaa prateet hotaa hai ki "arpaa-jwaalee sangam" shabd ke ullekh se lekh kamjor ho rahaa hai ... aisaa meraa vyaktigat vichaar hai !!"
क्या कहूँ राहुल भाई पढ़कर ऐसा लगा मानो बचपन के बिलासपुर में पहुँच गया पता नहीं कंहा गया वह बिलासपुर जिसमें बचपन के कुछ छुट्टियों के दिन मामा के यहाँ गुजरे जवाली नाला जैसा कि आपने कहा है निश्चित ही शायद रोज मेरी प्रोजेक्ट के भारी भरकम नाम के निचे दबकर खो जाये
ReplyDeleteआपकी लेखनी को शत शत नमन
इस ज्ञानवर्धक आलेख का शुक्रिया!
ReplyDeleteफिर लगा कि पूरा छत्तीसगढ़ी हैं आप। और किताब तो छत्तीसगढ़ पर लिख ही डालिए अब। एकदम पाठ्यक्रम में चलने लायक होगी और बेहतर भी। वैसे बिलासपुर की यह कहानी इसके नाम के पीछे सही नहीं लगती। ऐसा मुझे लग रहा है, अपने अल्प ज्ञान से। थोड़ा कठिन लगा यह लेख। फिर पढ़ूंगा कभी।
ReplyDeleteबिलासपुर में ६ महीने हो गए. अब तक इसके इतिहास पर एक समग्र एवं रोचक जानकारी नहीं मिली थी, इस पोस्ट ने यह कमी पूरी कर दी. राहुल सर को बहुत बहुत धन्यवाद्
ReplyDeleteSIR
ReplyDeleteBILASH BAI KEWATIN . NAMAK BOOK KAISE MILEGA......8542864357
बहोत अच्छा लगा पढ़कर। आपसे मिलने व् बिलासा के इतिहास कथा की पूरी जानकारी पाने की इच्छा हो रही है। कुछ योजना है। मिलकर चर्चा करेंगे। अपना फोन नम्बर दीजिये। मेरा नम्बर है 9300517611. तथा 7000318307 ज़रूर फोन कीजिएगा। मैं मुकेश स्वर्णकार। बलौदा (अकलतरा) से। पर आजकल कोरबा में हूँ। पहले लोकस्वर बिलासपुर में कार्टूनिस्ट व् एडिटर था। शेष मिलने पर।
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