यही है इस कथा का शीर्षक और गांव का नाम- गिरोद। किसी छोर से शुरू हो सकने वाली और जहां चाहे रोकी जा सकने वाली कथा। देखिए किस तरह। दस साल पुराने छत्तीसगढ़ विधान सभा से पांच किलोमीटर के दायरे में। लोहा कारखाने के पास, पंद्रह साल से जिसकी भारी मशीनों का तानपूरा यहां जीवन-लय को आधार दे रहा है। कोई बारह सौ साल पुराने अवशेष युक्त गांव का अब यही पता है। वैसे गांव का स्थानीय उच्चारण है- गिरौद या गिरउद। आपका हार्दिक स्वागत है।
गांव के एक छोर पर तालाब के किनारे कोई डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है, जिसका निर्माण गांव प्रमुख दाऊ परिवार ने कराया। पत्थर की नक्काशी वाले स्तंभों और प्रवेश द्वार वाला स्थापत्य मराठा शैली का नमूना है।
खजुराहो में मिथुन मूर्तियों की बहुलता है और प्रसिद्धि यहां तक कि ऐसी कलाकृतियों को खजुराहो शैली नाम दे दिया जाता है, लेकिन ऐसे अंकन कमोबेश मंदिरों में दिख जाते हैं। माना जाता है कि इससे संरचना पर नजर नहीं लगती, बिजली नहीं गिरती, सचाई राम जाने। यह मंदिर भी इससे अछूता नहीं और इन पर नजर बरबस पड़ती है।
इस शिव मंदिर के पास ठाकुरदेव की पूजा-प्रतिष्ठा की परम्परा निर्वाह के लिए कमल वर्मा ने बइगाई का कोर्स किया है, गुरु सूरदास तिखुर वर्मा से प्रशिक्षण लिया, जिसके आरंभ के लिए हरेली अमावस्या और गुरु द्वारा सफल मान लिये जाने पर दीक्षांत के लिए नागपंचमी अथवा ऋषिपंचमी तिथि निर्धारित होती है।
समष्टि लोक के व्यवहार में विद्यमान और प्रचलित टोना-टोटका, रूढ़ि माना जा कर कभी प्रताड़ित भी होता है। दुर्घटनावश बनी परिस्थितियों के चलते अंधविश्वास कह कर तिरस्कार योग्य मान लिये जाने से अक्सर इसके पीछे अनवरत गतिमान व्यवस्था ओझल रह जाती है। इसके साथ चर्चा 'सवनाही छेना' की यानि अभिमंत्रित गोइंठा-कंडा, जो गांव बइगा सावन में शनिवार की रात पूजा कर, रविवार को घरों के दरवाजे पर लटका जाता है, ताकि अवांछित-अनिष्ट प्रवेश न कर सके।
घर के दरवाजे पर पहटनिन हर साल हांथा लिखती है। पहटनिन यानि पहटिया-गोसाइन और पहटिया यानि रात बीतते और पहट (प्रखेट? 'खेटितान' अर्थात्- वैतालिक, स्तुतिपाठक जो गृहस्वामी को गा बजा कर जगाता है) होते रोजमर्रा की पहली दस्तक देने वाला ठेठवार। पहट-मुंदियरहा, सुकुवा, कुकराबास, फजर, झुलझुलहा, पंगपंगाए बेरा, भिनसरहा, मुंह-चिन्हारी तब होता है परभाती, बिहनिया, रामे-राम के बेरा। हांथा के साथ कहीं शुभ-लाभ लिखा है और इन दिनों जनगणना का क्रमांक भी। हांथा के लिए अवसर होता है देवारी यानि बूढ़ी दीवाली, मातर अर्थात् भैया दूज, जेठउनी एकादशी से कार्तिक पुन्नी तक। फिर इसी से मिलती-जुलती आकृतियां अगहन के बिरस्पत पूजा में चंउक बन कर आंगन में उतर आती हैं।
गांव का मुख्य हिस्सा है, दाऊ का निवास, गुड़ी और चंडी माता का चबूतरा। नवरात्रि पर जोत जलाने की परम्परा है और जिस तरह गिनती की शुरुआत एक के बजाय 'राम' बोल कर की जाती है, उसी तरह पहली ज्योति मां चंडी के नाम पर बिठाई जाती है।
चंडी दाई में ग्राम देवता की परम्परा और पुरातत्व घुल-मिल गए हैं यानि चंडी के रूप में पूजित सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी की महिषमर्दिनी के साथ इतनी ही पुरानी प्रतिमाएं और स्थापत्य खंड भी हैं। चबूतरे पर पूजा के लिए तो दिन-मुहूरत होता है, लेकिन यह गुलजार रहता है, चिड़ी के गुलामों, पान की मेमों, ईंट के बादशाहों, हुकुम के इक्कों के साथ पूरी वाबन परियों से मानों देवालय के महामंडप में देवदासियों का नर्तन हो रहा हो और चौपड़ की बाजियों में असार संसार के मोहरे, तल्लीन साधक और उनके साथ सत्संगी से दर्शक भी जमा हैं। गांव के प्रवेश द्वार पर लीला मंच है और एक कमरे में बाना-सवांगा, वस्त्राभूषण सहित भजन-कीर्तन का बाजा-पेटी सरंजाम भी।
बुजुर्ग याद करते हैं, रेल लाइन के किनारे का डीह, यानि जहां कभी गांव आबाद था और बाद में वहीं संतरा, आम, केला, नीबू, अमरूद का मेंहदी की बाड़ वाला फलता-फूलता बगीचा था। लेकिन पिछले डेढ़-दो सौ सालों में धीरे-धीरे यहां, दो किलोमीटर दूर खिसक आया, आकर्षण बना वही शिव मंदिर और शायद कारण था सड़क और रेल से बदला कन्टूर, खेत और पानी। पुराना पचरी तालाब, जिसके बीच में चौकोर सीढ़ीदार कुंड बताया जाता है।
सन 1900 में पूरे छत्तीसगढ़ में महाअकाल का जिक्र होता है। इस साल मार्च माह में रायपुर जिले को 56 कार्य प्रभार क्षेत्र (चार्ज) में विभाजित कर राहत कार्य से लगभग 2 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराए जाने की बात पढ़ने को मिली थी, जिसमें एक हजार से भी अधिक पुराने तालाबों को दुरुस्त कराया गया था। यह अप्रत्याशित अभिलिखित मिल गया यहां, चार्ज नं.8 के काम का प्रमाण। लोग याद करते हैं- 'बड़े दुकाल पहर के, बिक्टोरिया रानी के सुधरवाए तलाव'
बात करते-करते पता लग रहा है गांव का पूरा इतिहास, व्यवस्थित और कालक्रमानुसार। काल निर्धारण के लिए शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं- छमासी रात, पण्डवन काल, सतजुगी, बिसकर्मा के, रतनपुर राज, भोंसला, अंगरेज ...। इसे ईसा की सदियों में बिठाने के लिए पुरातत्व-प्रशिक्षित, मेरे ज्यादा जोर दे कर सवाल पूछने पर, बाकी सब लाजवाब हैं शायद मैं उनकी यह भाषा नहीं समझ पा रहा हूं और वे मेरी। लेकिन अब तक मौन रहा सियनहा बूझ रहा है और सबको समझ में आ जाने वाली बात धीरे से कहता है 'तइहा के गोठ ल बइहा ले गे'।
पुराना तालाब, फिर बना मंदिर, जिसके बाद दाऊ का घर बना, मराठा असर वाली बुलंद इमारत। लगता है इस मकान में न जाने क्या-क्या होगा। अजनबी से आप, गांव में अकारण तो आए नहीं हैं, यह तो गंवई-देहातियों का काम है, शहरी कामकाजियों का नहीं। लेकिन गांव में कुछ लेने-देने नहीं आए हैं, यह भरोसा बनते ही, आत्मीयता का सोता अनायास फूट पड़ता है।
घर का दरवाजा खुला है, बेरोक-टोक, स्वयं निर्धारित मर्यादा पालन की देहाती शिष्टता निभाते, बैठक में पहुंचने पर तस्वीरें टंगी दिखती हैं। पहली फोटो दाऊ गणेश प्रसाद वर्मा की, चेहरा बदल जाए तो सब कुछ, हम-आप सब की पिछली पीढ़ी जैसा। दूसरी तस्वीर है, उनके पिता दानवीर दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा की।
पचरी तालाब के शिलालेख के बाद दूसरा अप्रत्याशित हासिल यह तस्वीर है। रायपुर 'कुरमी बोर्डिंग' के साथ जुड़ा 'भोला' कौन है, जिज्ञासा रहती थी। पता लगा, दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा यानि वह दानवीर, जिसने कोई 80 साल पहले, छुईखदान बाड़ा कहलाने वाले क्षेत्र का 28 हजार वर्गफुट हिस्सा खरीद कर दान किया था, यह भवन छत्तीसगढ़ की अस्मिता से जुड़े मुद्दों सहित राज्य आंदोलन-बैठकों के प्रमुख केन्द्रों में एक रहा है।
राज्य केन्द्र, राजधानी रायपुर से यहां आने पर लग रहा है कि यह गांव शाखा और पत्ते नहीं, बल्कि जड़ें ही यहां हैं। सो, जमीन पा लेना आश्वस्त कर रहा है और याद भी दिला रहा है, ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं ...
गुफ्तगूं :
अब कभी-कभी स्वयं से ही ईर्ष्या होती है कि ज्यादातर पिछला समय गांव-कस्बों में बीता। हजारों गांवों में गया, ज्यादातर में मात्र एक बार। अकारण ही आ गया था यहां, फिर भी 'वहां गए क्यों थे' के जवाब का दबाव हो तो कहूंगा 'किस्सा' के लिए। दादी-नानी तो रही नहीं, जो किस्से सुनाएं और हम रह गए बच्चे, अपने सच्चे भरोसों पर संदेह होने लगता है तो खुद से 'कथा-किस्से' का जुगाड़ ही उपाय रह जाता है। इस जन्मना-कर्मणा का हासिल कि हर गांव कथा होता है, जिसे कुछ हद तक पढ़ना सीखा है मैंने। जी हां, कोई भी गांव मेरे लिए कथा की तरह खुलता है और पाठक के साथ पात्र बनने को आमंत्रित करता है तो गांव-कथा में गाथा-बीज भी अंकुराने लगता है। ये भी कोई कथा है ..... आप न माने, मुझे तो कथा, गाथा बनते दिख रही है। ..... कुछ साथी भी है, वापसी की जल्दी है। इसलिए चल खुसरो घर ...
गिरोद से छत्तीसगढ़ के महान संत बाबा गुरु घासीदास जी याद आ रहे हैं, इसी नाम के एक अन्य ग्राम में उनकी पुण्य स्मृति है और जहां इन दिनों कुतुब मीनार से ऊंचा स्मारक 'जैतखाम' बन रहा है। पिछली सदी के एक और संत स्वामी आत्मानंद जी के नाम पर गांव में मनवा कुर्मी क्षत्रीय समाज रायपुर द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम विद्यापीठ है। और भी कुछ-कुछ, बहुत कुछ ... । इस गाथा को शब्द बनने के पहले यहीं रोक ले रहा हूं, मध्यमा-पश्यन्ती स्तुति बना कर, अकेले पुण्य लाभ के लिए मन में दुहराते, अपनी खुदाई जो है।
मंदिर के चित्र अच्छे पुरातन और रुचिकर और रहस्यमय से लगे ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
अनायास ही दानवीर भोला से मुलाकात हो गई, जिनका एक महत्वपूर्ण योगदान इतिहास बन गया।
ReplyDeleteशानदार प्रस्तुति, छोटे छोटे गांवो में बिखरी एतिहासिक कडियां।
sundar prastuti, sajeew warnan
ReplyDeleteदेश के हर गाँव का अपना इतिहास है.. एतिहासिक परम्पराएं हैं जिन्हें संकलित करने, संरक्षित करने के प्रयास नहीं के बराबर हो रहा है.. एक छोटे से गाँव गिरोद से आप इतिहास और संस्कृति की कड़ियाँ चुन कर लाये हैं.. अच्छा लगा आलेख.. अच्छा लगा विवरण.. छत्तीसगढ़ के बारे में काफी जानकारी मिल रही है आपसे... झारखण्ड से होने के कारण यह आलेख अपना सा लग रहा है...
ReplyDeletegirod ka singhavlokan sammohak raha.....sahaj hi
ReplyDeletekuh shabd a-boojh rahe lekin bhaw ko jaise-taise
pakra....
aisi gram-itihas katha chalti rahe...
pranam.
अरुण से सहमत होते हुए कहूँगा कि हर गाँव अपने में एक किस्सा है |
ReplyDeleteहिन्दुस्तान का हर गाँव इतिहास की धरोहर है और कला की प्रतिमा.
ReplyDeleteबहुत आभार इतनी अच्छी जानकारी देने का.
कुछ विशेष आकर्षण है चित्रकला में, कई बार देख चुका हूँ, कुछ डूढ़ने का प्रयास करता।
ReplyDeleteगिरोद के बारे में फोटो सहित बढ़िया जानकारी ... बढ़िया कलेक्शन
ReplyDeleteभारत की आत्मा का दर्शन /
ReplyDeletekabhi mere blog par bhi aaye
babanpandey.blogspot.com
ek dum naya ...........kuchh bhi to nahi suna tha ye sab...!!
ReplyDeleteachchha laga padh kar...
बहुत ही अच्छा लगा...इस छोटे से गाँव 'गिरोद' को जानना .वहाँ का प्राचीन मंदिर और उसपर उत्कीर्ण मूर्तियाँ, सांस्कृतिक धरोहर हैं,उनकी अच्छी तरह देखभाल होनी चाहिए. हमें इनसे रूबरू कराने का आभार.
ReplyDeleteडीह यानि रेल लाइन के किनारे,
डीह का यही अर्थ है?...मुझे आज पता चला, जबकि झारखंड में कई शहरों के नाम ऐसे है..'गिरिडीह'..इत्यादि
कही दूर छत्तीसगढ़ के एक गांव गिरोद की दिवाली बाद की परम्पराए और बनारस की परम्पराए एक सी लग रही है तो कही दीवार पर बनाने वाली ये आकृतिया मुंबई में घरो के बाहर बनाने वाली रंगोली सी दिख रही है | ये सारी चीजे कही ना कही हम सब को जोड़ती ही है |
ReplyDelete@ रश्मि रविजा जी
ReplyDelete'डीह यानि रेल लाइन के किनारे' गलती से ऐसा आशय निकल रहा था, आपकी टिप्पणी से मेरा ध्यान गया, अब दुरुस्त कर दिया है. डीह का लगभग अर्थ पुराने अवशेषों युक्त टीला या जहां कभी पुरानी बस्ती आबाद रही हो. आपका आभार, धन्यवाद.
गोइंठा-कंडा, एक नयी जानकारी. बहुत ही रोचक आलेख. वैसे मुझे पता है कैसे गाँवों में आपको कथा मिलती है.
ReplyDelete@ सुब्रह्मनियन जी,
ReplyDeleteआप सहित न जाने कितनी ऐसी कहानियों के पात्र बने हैं हम, धन्यवाद सर.
मिथुन मूर्तियों की उपस्थिति का कारण नजर न लगना, बिजली न गिरना पहली बार मालूम हुआ। अब तक मैं यही मानता रहा हूँ कि मन्दिरों में मिथुन मूर्तियों के होने पीछे चार पुरुषार्थों की उपस्थिति ही कारण रहती होगी।
ReplyDeleteचित्र बहुत ही सुन्दर हैं। नयनाभिराम।
गिरोद के और वहां के मंदिरों तथा महत्वपूर्ण स्थलों के दर्शन.
ReplyDeleteआभार.
आदरणीय राहुल सिंह जी
ReplyDeleteनमस्कार !
हर गाँव का अपना इतिहास है.....फोटो सहित बढ़िया जानकारी
धन्यवाद सर.
मेरी हौसला अफज़ाई के लिए आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
एक गांव के बहाने आपने इस देश की आत्मा का परिचय कराया है राहुल जी…
ReplyDeleteराहुल भैया
ReplyDeleteगिरोद से शुरु होकर पहटिया काम और पहटनिन हांथा चिन्हा के साथ दानवीर दाऊ भोला राम के विषय में सार जानकारी दी।
साथ ही ग्राम नाम गिरोद से छत्तीसगढ़ के महान संत बाबा गुरु घासीदास जी को याद किया।
शानदार पोस्ट के लिए आभार
Rahul Bhai, Greatly elaborated information on Girod. History, archaeology,legends-heresays and connectivity with contemporary times were charismatically interwoven. Worth reference matter.Fantastic presentation on heritage. Congrats- Kishore diwase
ReplyDeleteमंदिर में मिथुन मूर्तियों का होना लोगों को आश्चर्यचकित करता है. पर यह चेतावनी है कि यदि ईश्वर के समीप आना है तो राग से होते हुए आओ ....उसे भोगते हुए .....
ReplyDeleteयहाँ वर्जना नहीं है ...स्वीकार्यता है....काम की ....पर सन्देश स्पष्ट है कि उसे भोगकर ...पूरा करके ....तृप्त होकर आओ .....और सब कुछ बाहर त्याग कर आओ ...एक अवस्था को पार करते हुए आओ, कुछ भी कामना शेष न रहे तभी आओ . इसीलिये ये मूर्तियाँ मंदिर के बाहर हैं ...अंदर नहीं हैं ...अंदर है तो केवल इष्ट की मूर्ति...काम बाहर रह गया .....अब तो अपना आराध्य ही है अपने पास. यह सम्भोग से समाधि की ओर की यात्रा है. गिरौद के बारे में जानकारी के लिए बधाई.
राहुलजी,
ReplyDelete’पहाट’ शब्द की व्युत्पत्ति ’प्रभात’ में देखी जा
सकती है,वैसे यह शब्द मराठी भाषा में भी इसी
अर्थ में प्रयुक्त होता है ।
मन्दिर मराठा शैली का है,इससे भी अनुमान लगा
सकते हैं कि इस क्षेत्र की साँस्कृतिक पृष्ठभूमि और
भौगोलिक निकटता,-महाराष्ट्र से कितना गहरा संबंध
है ।
’सवांगा’ (स्वांग?) भी महाराष्ट्र से घनिष्ठतः जुड़ा
है ।
जानकारी बहुत आत्मीय सी लगी ।
आभार और धन्यवाद,
सादर,
@ कौशलेन्द्र जी,
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद. अच्छी व्याख्या है, लेकिन मंदिरों के अंदर, गर्भगृह के मुख्य प्रवेश द्वार पर लगभग अनिवार्यतः और शास्त्रीय अनुशंसाओं अनुरूप कामुक अंकन वाली रूप शाखा या मिथुन शाखा का विधान है.
कौशलेन्द्र जी का कमेंट मैथुन्ररत मूर्तियों की विद्यमानता का एक बेहतरीन पक्ष प्रस्तुत करता है।
ReplyDeleteआपने तो पोस्ट के शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि ये कथा अनंत है। सच में कोई अंत नहीं। बेहद रोचक तरीके से जड़ों से परिचित करवाते हैं आप।
पूजा का दिन-मुहूर्त होता है, लेकिन गुलामों\मेमो\बादशाहों\इक्कों के गुलजार होने का और लुटने का न कोई मौसम और न कोई दिन\वार - मस्त एकदम।
आभारी हैं हमारे अंदर पुरातत्व संबंधी एक अनोखी प्यास को जगाने के लिये।
बहुत मन करता है की ऐसी किसी छोटी सी जगह पर जाऊं और कुछ दिन बिताऊँ.
ReplyDeleteपर घर में कहने से डरता हूँ:)
कृपया दो फोटो को जोड़कर (इनसेट करके) न लगाएं. दोनों को अलग-अलग देखना ही अच्छा लगेगा. ऐसा आपने शायद चित्रों की अधिकता होने पर किया है. लेकिन सारे चित्र खूबसूरत हैं और उन्हें बड़ा करके देखना बहुत अच्छा लगा.
प्रांतीय जीवन और लोकसंस्कृति की अनूठी छाप है आपकी पोस्टों में. लीक से हटकर चलने वाला ब्लौग है यह.
बिलकुल सही फरमाया है आपने थोडा पुरातत्व थोडा इतिहास थोडी लोकपरम्परा । यही पूरा जीवन है ।
ReplyDeleteएक दस्तावेज़ है अपका ब्लॉग.. एक अभिलेखागार से कम नहीं.. मिट्टी को छूकर स्वर्णिम इतिहास तक का बखान, चकित ही नहीं करता वरन् जुड़ाव भी पैदा करता है उस जगह से... देश के मानचित्र पर गिरोद को यदि अंकित करना चाहें तो शायद सुई की नोंक भर जगह यथेष्ट होगी किंतु इतिहास ऐसा कि अध्याय भी कम पड़ें!! आभार!
ReplyDeleteगांव नहीं पूरी किताब है इतिहास की.. संस्कृति की..
ReplyDeleteसामान्यतः आपकी प्रविष्टियों से समय की यात्रा का अहसास होता है विशेषकर अतीत से आज तक का समय ! गिरौद का कोई शाब्दिक अर्थ भी ज़रूर होगा ! स्थापत्य पर मराठी संपर्क का प्रभाव सहज लगता है ! एक ख्याल ये कि रानी विक्टोरिया ने जन संकट के समय तालाब सुधरवाये थे ,कार्य की सार्थकता की वज़ह से ग्रामीणों के मन में उसकी स्मृतियाँ भी सकारात्मक हैं तो आज से कोई १०० साल के बाद हमारे नेता विक्टरवा(ओं) के द्वारा सुधरवाये गए तालाबों और निर्माण कार्यों की स्मृतियाँ कैसी होंगी यह अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है ,देशी और विदेशी लुटेरों का यह फर्क चिंता में डालता है ,सोचने को मजबूर करता है ! और हां ...मंदिर में मिथुन मूर्तियों का औचित्य जानकर खुश हुआ ! अब मुझे अपने ब्लॉग में अपनी पोस्ट 'नीलवर्ण विषबेल' को लेकर कोई अपराध बोध नहीं :)
ReplyDeleteआपने लिखा गाँव के किसी भी छोर से शुरू और कहीं भी रोकी जाने वाली कथा ...मेरी टिप्पणी भी इस मान्यता पर आधारित उस कथा जैसी मानी जाए !
क्या गांव के प्रवेश द्वार की स्वागत पट्टिका में वाक्य सुधार के सुझाव उन्हें दिए जा सकते हैं ?
ReplyDelete@ अली जी,
ReplyDeleteबस यही कहूंगा, व्यापक दृष्टि से देखें तो धर्म, अर्थ और काम से संतुलित समन्वय से ही मोक्ष प्राप्त होता है.
ये ऐतिहासिक लेख बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteखोजपरक।
ReplyDeleteभारत का हर गाँव धरोहर और कला की केंद्र हे.आज की दुनिया में ऐसे एतिहासिक परम्पराएं,लोक कथाएँ बहोत हे पैर उसको संकलित करने, संरक्षित करने के प्रयास नहीं हो पारहा हे .पर इस समय में आपके द्वारा गिरोद गाँव से पुरातत्व ,इतिहास और संस्कृति आदि स्मृति चुन कर लाये हैं..इ एक अच्छा प्रयास हे हमारा के काम का प्रमाण,इ बास्तविक लाजवाब हे .और उसके साथ जो लोक कथा 'बड़े दुकाल पहर के, बिक्टोरिया रानी के सुधरवाए तलाव' पढ़ के बहोत अच्छा लगा.
ReplyDeleteआप के आलेख अच्छा लगा.बहोत बहोत आभार.धन्यवाद
अच्छी पोस्ट....शुक्रिया !
ReplyDeleteराहुल जी,
ReplyDeleteहमारी जड़े गावों में ही है !
गिरोद की तस्वीरें इतिहास की साक्षी बन कर आपके आलेख को प्राणवान कर रही हैं !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
शीर्षक पढ़ते ही गुरु घासीदास जी के गिरौद का ख़याल आया। इस दूसरे गिरोद से आपने अद्भुत परिचय कराया।
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ी शब्दावली, संस्कृति और परम्पराओं से सजा यह आलेख मन को मुग्ध कर गया।
देश के प्रत्येक गांव में इतिहास के धुंधले पृष्ठ अवश्य नज़र आ जाएंगे,हां, उन्हें देखने-पढ़ने के लिए आप के जैसी एक पारखी नज़र की ज़रूरत अवश्य होगी।
इस अनूठी जानकारी के लिए धन्यवाद, राहुल जी।
निशांत मिश्र जी नें कहा कि प्रांतीय जीवन और लोकसंस्कृति की अनूठी छाप है आपकी पोस्टों में. लीक से हटकर चलने वाला ब्लौग है यह. जिससे मैं पूर्ण सहमत हँ.
ReplyDeleteगिरौद में इतिहास, संस्कृति, पुरातत्व सहित बहुत सारी जानकारी मिली. बइगा कोर्स को पढ़ते ही मुझे छत्तीसगढ़ी व्यंग्य 'मर्दनिन कोर्स'का याद हो आया.
पोस्ट में क्षेत्रीय भाषा के शव्दों को व्यापक बनाने हेतु आपका विश्लेषण अच्छा लगा. शव्दकोशों में इसी प्रकार से प्रयोग व उद्हरणों का उल्लेख होना चाहिए.
agreed with sanjeeva tiwari
ReplyDeleteइमेल से प्राप्त महेश शर्मा जी की टिप्पणी
ReplyDeletenamaskar bhaiya,
durlabh jankari mili,aur yah aapke prayason se hi sambhav ho
pata hai.blog ke madhyam se giraud ko poora ghoom liya ,aur wahan ki
sab visheshatayein pata chal gayi.
sadhuwad.
कोई भी गांव मेरे लिए कथा की तरह खुलता है
ReplyDelete....इस पंक्ति में बड़ी उर्जा है। कौशलेन्द्र जी का तर्क अच्छा लगा।
बहुत बड़ा आलेख हैं यदि कुछ संक्षिप्त होता या दो किश्तों में होता तो अधिक रुचिकर होता।
ReplyDeleteलोहड़ी,पोंगल और मकर सक्रांति : उत्तरायण की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteगिरोद के बारे में जानकार अच्छा लगा ..जितनी शिद्दत से आपने इस लेख के माध्यम से हमारी ऐतिहासिक परम्परा का वर्णन किया है उसका कोई जबाब नहीं ..आपका लेखन शोधपूर्ण है और आप निरंतर नए विषयों पर लिखते हैं निश्चित रूप से आपका योगदान महत्वपूर्ण है..इतिहास और संस्कृति से हमारा परिचय करवाने में ...आपका शुक्रिया
ReplyDeleteगिरोद के बारे में अच्छी जानकारी मिली। चित्रों के माधयम से अभिव्यक्ति मुखरित हो उठी है।मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteगिरोद के अतीत को जानना रोचक लगा.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
आपकी नजरों से देखा 'गिरौद' को...
नया बहुत कुछ जाना भी, आज इस आलेख को पढ़कर...
मिथुन मूर्तियों के बारे में कौशलेन्द्र जी सही ही कह रहे हैं।
...
गिरोद के बारे में इतना कुछ जानकर बहुत अच्छा लगा.... आपने इतना खूबसूरती से इसे पेश किया की लगा वही सबकुछ देख रहे....... सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeletenice information.. sharing k liye shukriya..
ReplyDeletePlease visit my blog.
Lyrics Mantra
Banned Area News
ग्राम यात्रा के वर्णन की प्रेरणा देती पोस्ट है। पढ़वाने के लिये धन्यवाद।
ReplyDeleteलेखनी के कोणों के साथ साथ फोटोग्राफी के कोण भी आकर्षित कर गए सर!
ReplyDeleteबहुत सुदर वर्णन एसा लग रहा था जेसे हम वही घूम घूम कर उसकी जानकारी ले रहें हों !
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया !
बहुत शानदार पोस्ट। इस तरह की सामग्री ब्लॉग पर देख लगता है हर व्यक्ति की क्रियेटिविटी/अभिव्यक्ति को चार चांद लगाने वाली है यह विधा।
ReplyDeleteआप से अपने आस-पास को टटोलती और भी पोस्टों की आशा है।
हर गांव कथा होता है, जिसे कुछ हद तक पढ़ना सीखा है मैंने। जी हां, कोई भी गांव मेरे लिए कथा की तरह खुलता है और पाठक के साथ पात्र बनने को आमंत्रित करता है..
ReplyDeletebahul achchha laga sir.
shubhkamnayen.
What to say , thou i am known to Rahul Bhaiya for a very long but still i use to think sometime that he too is from this planet Earth only, his content may take to Trans (not EduTrans) since i have a very limited editon model of brain specific for all narrow focus operation only,then also can clam i have understood 30% matter, greeting to bhaiya for writing
ReplyDeleteकाम में रस बचा है तो गर्भग्रह के बाहर से ही नयनों तक सीमित रह कर वापस घर चले आओ, यदि राम में रुचि जग गयी है तो अंतस की चेतना को बाहर के काम के प्रतिनिधि प्रहरी हों न हों कोई फर्क ही न पड़ेगा।
ReplyDeleteबहुत ही गहरी सोच रही होगी खजुराहो शैली के पीछे।
गिरोद के बारे में जानकारी देने के लिये धन्यवाद
Is naee jankari ke liye apka bahut dhanyavaad. Bahut hi accha vistar hai.........bahut badia kam hai apka........badhaee kabool kijie.
ReplyDeleteSurjeet.
दादी-नानी तो रही नहीं, जो किस्से सुनाएं और हम रह गए बच्चे, अपने सच्चे भरोसों पर संदेह होने लगता है तो खुद से 'कथा-किस्से' का जुगाड़ ही उपाय रह जाता है.....
ReplyDeleteबहुत बढिया!
achchha lekh...sundar chitra.
ReplyDeletebahut badhiya samanjasy .
गिरोद के बारे में फोटो सहित बढ़िया जानकारी | धन्यवाद |
ReplyDeleteइस पोस्ट को पढ्कर लग रहा है कि कितना अच्छा होता अगर अपने गाँव के बारे में ऐसा या इसी टाइप का कुछ लिख पाता....
ReplyDeleteआप के लेखन शैली से नया साक्षात्कार हुआ, विषय के अनुसार भाषा और शब्दावली.लगातार नेट से बाहर था , वापसी में अच्छा पोस्ट पाया .
ReplyDeleteवास्तव में यह 'गिरोद' मेरे लिए एक प्रयोग जैसा ही था, क्या होना चाहिए, क्या करना चाहता हूं (सांस्कृतिक दृष्टि से ग्राम सर्वेक्षण) यह तो पता था, लेकिन कैसे होगा पता नहीं था, प्रयास किया, आप सबको पसंद आया, आभार.
ReplyDeletebouth he aacha post hai aapka.... very nice pic
ReplyDeleteआदरणीय श्री राहुल सिंह जी
ReplyDeleteप्रणाम !
वाह भाईजी वाऽऽह !
धन्य हैं आप और आपका श्रम स्तुत्य है ।
गिरोद की सैर बहुत सजीव वृतांत है , एकदम जैसे हम हमारी आंखों से देख रहे हैं …
गिरोद, पहटिया काम , पहटनिन हांथा चिन्ह , दाऊ भोला राम पूरी जानकारी बांध कर रखने वाली है। आभार ! महान संत बाबा गुरु घासीदास जी और उनकी स्मृति में कुतुब मीनार से भी अधिक ऊंचा स्मारक 'जैतखाम' बनने की जानकारी रोचक और प्रसन्नतादायक है ।
एक शानदार पोस्ट के लिए हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
very nice post sir badhai.adbhut likha hai aapne
ReplyDelete○ भारी मशीनों का तानपूरा यहां जीवन-लय को आधार दे रहा है। कोई बारह सौ साल पुराने अवशेष
ReplyDeleteयुक्त गांव का अब यही पता है ।
○ प्रसिद्धि यहां तक कि ऐसी कलाकृतियों को खजुराहो शैली नाम दे दिया जाता है ।
○ ठाकुरदेव की पूजा-प्रतिष्ठा की परम्परा निर्वाह के लिए कमल वर्मा ने बइगाई का कोर्स किया है ।
○ चबूतरे पर पूजा के लिए तो दिन-मुहूरत होता है, लेकिन यह गुलजार रहता है, ♣ के गुलामों, ♥ की
मेमों, ♦ के बादशाहों, ♠ के इक्कों के साथ................
○ अपने सच्चे भरोसों पर संदेह होने लगता है तो खुद से 'कथा-किस्से' का जुगाड़ ही उपाय रह जाता
है।
भईया आपके पोस्ट के अइसने लाईन बहुतेच सुघ्घोर अउ अ सरकारी लागथे, कोनो गांव म घुम के आथे...देखके.....समझके आथे आप त पढ़ के शोध करके आथव, गांव के कोनो भी शब्द के सफल आपरेशन घला करथव, गिरोद के स्वा गत द्वार म जतका खरचा आय होही वोतका म हैण्डधपंप एक पारा के पियास बुझातिस तभो गिरोदगांव, गिरोद रतीस हाथा लिखई संग सबो फोटू नीक लागिस पुराना पचरी के सुघ्घगर फोटू अउ परिचय ल देख के डरत रहेंव कि पानी खरीदईया मन इहां मत पहुंच जाय फेर देखंव पोस्टद म सवनाही छेना लगे हे तब त कोना डर नईये, सार त इही हे भईया आपके लिखे दू लाईन के बीच के सादा जघा म घला भाव छुपे रथे जिन दिखे त नहीं फेर लिखा ले जादा वजन रथे ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteहीरे की परख जौहरी ही जानता है.वैसे तो इस गाँव को वहाँ के लोग और उस रास्ते से आने-जाने वाले लोग हमेशा देखते आ रहे हैं,लेकिन यह गाँव आपकी पारखी निगाह से ही ब्लॉग जगत के जरिए आज दुनिया की निगाह में आ रहा है. वास्तव में एक छोटे से गाँव का चकित कर देने वाला अदभुत वर्णन किया है आपने. इतिहास , कला और हमारी लोक-संस्कृति साकार हो उठी है इसमें. बहुत -बहुत बधाई .
ReplyDeleteआपकी यायावरी को प्रणाम ऐसी जानकारियां कहाँ मिल सकती है बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट
ReplyDeleteशोध पूर्ण पुरातात्विक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण आलेख . सरंक्षण हेतु भारतीय पुरातत्वा विभाग को सप्रेषित कीजिये
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