Showing posts with label केदारनाथ सिंह. Show all posts
Showing posts with label केदारनाथ सिंह. Show all posts

Monday, March 21, 2022

कविताई

आज ‘कविता दिवस‘ पर मन का मैल-मलाल।

कला, साहित्य, संस्कृति- एक होती है समझ में आने वाली और दूसरी समझने-समझाने वाली। अमूर्त कला, कुछ खास संगीत और अधिकतर कविता के लिए मेरी संकीर्ण सीमा है कि वह व्याकरण, नियम, सिद्धांत के आग्रह बिना सहज बोध से समझ में आए। इसलिए रथन्तर-मार्गी के बजाय वृहत्साम-देशी तक सीमित रहना भाता है। छंद-लय तो स्वाभाविक होता है, मात्रा गिन की गई (अजीब, चौंकाने वाली बेतुकी) तुकबंदी या जोड़-तोड़ कर बिठाए गए शब्दों से, कविता नहीं हो जाती। अपरा से भ्रम होता है कि जीवन की कविता के परा को, उसके व्याकरण और विन्यास सहित सीख-समझ/पा लिया है।

बकौल प्लेटो, सुकरात का संवाद है- ‘ये (कवि) उन दिव्यदर्शी तथा भविष्यवक्ताओं जैसे ही हैं, जो बहुत-सी गूढ़ बातें कहते हैं, परन्तु स्वयं उनका अर्थ नहीं जानते।‘ या दूसरे शब्दों में ‘कवि ऐसी महान और ज्ञान भरी बातें कहते हैं जो वो खुद नहीं समझते।‘ यह कम रोचक नहीं कि स्वयं ‘कवि‘ प्लेटो कहता है कि आदर्श गणतंत्र में कवियों का कोई स्थान नहीं है। दूसरी तरफ प्लेटो के प्रति अरस्तू की अनेक शिकायतों में एक यह भी थी कि प्लेटो कवि था।

रेणु, त्रिलोचन में शमशेर-नागार्जुन के जोड़-घटाव का हिसाब बिठाते हैं, मगर यह भी कहते हैं कि- 'मुझे यह कबूल करने में कभी लाज-शर्म नहीं आयी कि मैं कविता नहीं समझता। मेरे लिए कविता समझने की चीज कभी नहीं रही। इसीलिए अपने मन में उठनेवाले इस सवाल का जवाब- शमशेर-त्रिलोचन-नागार्जुन की कविताओं में मैं कभी नहीं ढूँढ़ता।'

यों तो तुलसी स्वयं के लिए ‘कबि न होउं ...‘ और ‘कबित बिबेक एक नहीं मोरें ...‘ कहते हैं, शायद यही कारण है कि कभी न अबूझ लगे, न कठिन। तब भी जब शिव से कहलाते हैं- ‘सत हरि भजनु जगत सब सपना।‘ यह भी कहा गया है कि ‘शास्त्र केवल इंगित-भर करते रहते हैं। स्वयं तो वे केवल शब्दजाल हैं। . . . अपनी कल्पनाओं को ही तार्किक लोग ‘शास्त्र‘ माना करते हैं।‘ प्रस्थान-त्रयी में ‘स्मृति‘ महाभारत युद्ध के आरंभ में कही गई गीता है। युद्ध के पश्चात आश्वमेधिक पर्व में गीता से भी विस्तृत अनुगीता है, जिसकी भूमिका रोचक है। अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि आपने ज्ञान का उपदेश दिया था, वह भूल गया, अतः पुनः सुना दीजिए। कृष्ण कहते हैं कि तुमने अपनी नासमझी के कारण उसे याद नहीं रखा, यह मुझे अप्रिय है, तुम श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि बहुत मंद जान पड़ती है। फिर मानों स्वयं भी स्वीकार कर रहे हों, कहते हैं- अब पूरा-पूरा स्मरण होना संभव नहीं जान पड़ता। उसको ज्यों का त्यों नहीं कह सकता, फिर से दुहरा देना मेरे वश की बात भी नहीं है। यहां अर्जुन का स्मृति-प्रस्थान श्रीमद्भगवतगीता का उपदेश भूल जाना, उसे कृष्ण का न दुहरा पाना, मानों ज्ञान का रहस्य रचते, श्रुति-स्मृति-न्याय की परतें भी खोल देता है।

महाभारत के एक प्रसंग में गंधर्व चित्रांगद, शांतनु पुत्र चित्रांगद से कहता है- राजकुमार! तुम मेरे सदृश नाम धारण करते हो, . . . नाम की एकता के कारण ही मैं तुम्हारे निकट आया हूं। मेरे नाम द्वारा व्यर्थ पुकारा जाने वाला मनुष्य मेरे सामने से सकुशल नहीं जा सकता। इस प्रसंग में व्यक्ति के अहम् और नाम-रूप को दुहरे चरित्र के सहज सूत्र से उजागर किया गया है। वाल्मीकि रामायण में केकय नरेश समस्त प्राणियों की बोली समझते हैं, तिर्यक् योनि में पड़े हुए प्राणियों की बातें भी उनकी समझ में आ जाती थीं। मेरे लिए इसका मर्म भी सहज ग्राह्य है, मगर . . .

अधिकतर आदरणीय कवियों से ले कर आधुनिक वालखिल्य-व्यास-वाल्मीकियों के मुझ प्रमाता-पाठक को कई बार ऐसा लगता है कि अजीब सी गुलजारनुमा बातें कहने का आत्मविश्वास भी कविताओं को जन्म दे सकता है। प्रेमचंदों को तो कोई ऐरा-गैरा भी पढ़ लेता है मगर मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल ऐसे नाम हैं, जिनका पाठक हो कर ही गौरवान्वित महसूस करता हूं, पसंद हैं ही, उनके प्रति आदर है, किंतु कई-कई बार आतंकित भी कम नहीं करते। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ की वक्रता मेरे लिए आज तक ज्यों की त्यों है, क्योंकि वहां ‘लटकी है पेड़ पर/ कुहासे के भूतों की सॉंवली चूनरी-/ चूनरी में अटकी है कंजी ऑंख गंजे सिर/ टेढ़े-मुॅंह चॉंद की।‘ चांद की सुंदरता में रोटी, हंसिया, बुढ़िया, खरगोश देखा जाता रहा है, मगर मुंह टेढ़ा यानि चांद को कुछ नापसंद है, मानव के चंद्र अभियान से रूसा-फूला है, या उसकी बनावट में ही कुछ गड़बड़ हो गई है, सीधे मुंह वाला चांद कैसा होता है! यह प्लास्टिक सर्जरी वाले डॉक्टर का विज्ञापन तो नहीं या ...! ‘कोसल में विचारों की कमी है‘ पढ़ कर सोच में पड़ जाता हूं कि विचारों में कमी की नाप कैसे संभव हुई होगी, क्या यह समूचे कोसलवासियों के लिए कही गई है या नियंता-नायकों के लिए। उस दौर में कहीं काशी, मगध, अवंती में विचारों की अधिकता भी रही होगी? क्या विचारों की कमी घातक होती है, तो विचारों की अधिकता कर्मनाशा तो नहीं हो जाएगी, फिर विचारों का सम क्या है? विचारों का सम, क्या सभ्यता को जड़ न कर देगा!

कई कवि और उनकी कुछ कविता, आपको रसिक पाठक होने की खुशफहमी से वंचित कर देने के लिए पर्याप्त होती हैं। ऐसी कविताओं का रस, समीक्षक ले पाते हैं या उनका जात-भाई, कोई अन्य कवि। कविता को हमारे शरीर जैसा होना चाहिए। शरीर में जिगर, गुर्दा न जानने वाला भी स्वस्थ, आनंदित रह सकता है और जानकार डाक्टर भी अपने शरीर के लिए समस्या पैदा कर लेता है। इसलिए बिंब, प्रतीक, रस, छंद, व्याकरण के शास्त्र से अनभिज्ञ, सामान्य समझ के पाठक भी रस पा ले वही सच्ची कविता अन्यथा एलीट साहित्य। 

अपनी कविता ‘नासमझी‘ के सिलसिले मे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना‬ की कविता याद आती है। ‘धीरे-धीरे रे मना ...‘ और ‘शनैः कंथा शनैः पंथा ...‘ के साथ कैसा लगेगा जब पढ़े-
'धीरे-धीरे'
मुझे सख़्त नफ़रत है‪
इस शब्द से।
‪धीरे-धीरे ही घुन लगता है
अनाज मर जाता है,‪
धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं‪
साहस डर जाता है।‪
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है‪
संकल्प सो जाता है।

इसी तरह कुँवर नारायण‬‬ के लिए मन में बात आती है कि ‘यह भी कोई कविता है महराज‘- ‪
कभी-कभी टहलते हुए निकल जाता हूँ‪
बाज़ारों की तरफ़ भी:‪
नहीं, कुछ ख़रीदने के लिए नहीं,
‪सिर्फ़ देखने के लिए कि इन दिनों
‪क्या बिक रहा है किस दाम
‪फ़ैशन में क्या है आजकल‬‬।

समझ नहीं पाता कि शमशेर बहादुर की इन पंक्तियों में आह-वाह वाली क्या बात है-
‘‘वकील करो-
अपने हक के लिए लड़ो।
नहीं तो जाओ
मरो।‘‘

बहरहाल, विचारों के साथ यह भी होता है कि ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह‘, जहां आदमी के धब्बे के अंदर आदमी है, पेड़ का धब्बा बिलकुल पेड़ की तरह है और रद्दी नस्ल के घोड़े का धब्बा रद्दी नस्ल के घोड़ा की तरह, पढ़ कर घबराहट होती है मगर ‘हताशा से बैठ गया व्यक्ति‘ और ‘अपनी भाषा में शपथ‘ जैसी सीधी बात, पसंद आती है। अज्ञेय और नागार्जुन जैसे दिग्गज शब्दों से खेल-खिलवाड़ करते रहे हैं, उससे आगे निराला की कवितानुमा ‘उटपटांग‘ पंक्तियों को माना जाता है कि मानसिक असंतुलन का परिणाम है, जबकि मुझे लगता है कि निराला ऐसी रचना से बताना चाहते थे कि कई बार वैसा ही प्रलाप, कविता मान ली जा सकती है।

अब, मेरी ऐसी कुछ पंक्तियां, जिन्हें कविताई के दावे की तरह रख रहा हूं-

निन्यानबे के अधूरेपन
और एकसौएक के पूरेपन के दौरान
सदी, शतक, सौ, 'K' का सपना।
आभासी क्षितिज सा
सपना-
अपूर आकांक्षा का,
अधमुंदी स्मृति का और
आगत-अनागत के बीच
आशा का।

***
पेड़, चिड़िया, तितली
नदी, बच्चे, मछली
बादल, चांद
आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यक
दलितों, तुम्हें मालूम न होगा
क्या बेमानी और बेहूदा
खपाई जाती हैं तुम्हारे नाम पर
रूपक, बिंब, प्रतीक के साथ
कविता और विमर्श कह कर

रोटी, गरीब, भूख
शोषण, दोहन, उत्पीड़न का छौंक
कितना लजीज बनाता है।
कविता की तरह पेश
चटखारेदार बलात्कार
सैनिक, देशप्रेम और मां हो तो,
लिजलिजी सी बात के भी क्या कहने
किसकी मजाल है कि
आह-वाह न करे।

***

वृक्षारोपण!

पेड़!
कैसे जंगली हो,
फैलते हो मनमाना, बेतरतीब
जहां चाहे उग जाते हो
इसीलिए कटते हो
माना कि बोल नहीं सकते,
मगर हो तो चेतन
सोच सकते होगे,
फिर भी दोयम दर्जे के,
मजबूर अपनी जड़ों से बंधे
उसी के भरोसे पलते-बढ़ते
देखो और कुछ तो सीखो
अपने कुल के परजीवियों से
मनमर्जी उग आते हो,
कहीं भी काबिज हो जाते हो
अड़ते हो अपनी जगह
और एहसान जताते कि
फल, छाया, लकड़ी देते हो।
नहीं चलने देंगे तुम्हारी मनमानी
हम रोपेंगे तुम्हें, पोसेंगे,
प्लांटेशन, ट्रांसप्लांटेशन,प्लांटनेशन
तुम्हें वहां उगना होगा, वैसा रहना है, जैसा हम चाहें, तय करें।
'निशुकरे' कहीं के,
क्यों नहीं समझते कि
तुम्हारे लिए ही है,
यह वृक्षारोपण महाअभियान।
(मानते हुए कि पेड़, बच्चे, चिड़िया, नदी पर कुछ भी लिख मारो, कविता बन जाती है।)


गुरुओं की नसीहत है, जो पसंद हैं, जिनके प्रति आदर हो, उन्हें प्रश्नातीत नहीं मान लेना चाहिए। सवाल और संदेह करते अपने समझ की धूल-गर्द साफ करते रहना चाहिए। यहां इसी का पालन करते हुए छत्तीसगढ़ के तीन कवि, जिनमें दिवंगत मुक्तिबोध और श्रीकांत वर्मा ने कविता के साथ पत्रकारिता और विविध, विपुल गद्य लेखन किया है। रचना-सक्रिय विनोद कुमार शुक्ल, अपने गद्य में भी कवि हैं, तीनों के प्रति आदर सहित यह ‘काव्यशास्त्र विनोदेन‘, कभी केदारनाथ सिंह ने भी प्रश्नाकुल किया था।

Monday, August 27, 2018

केदारनाथ सिंह के प्रति


‘‘शुरू करो खेला/पैसा न धेला/जाना अकेला।‘‘ कहने वाले केदारनाथ सिंह बलिया जनपद के तुक मिलाते से नाम वाले गांव चकिया में पैदा हुए। अब उनके न होने पर उन्हीं के शब्दों में- ‘‘मेरा होना/सबका होना है/पर मेरा न होना/सिर्फ होगा मेरा।‘‘ जो कहते हैं- ‘‘पर मृत्यु के सौन्दर्य पर/संसार की सर्वोत्तम कविता/अभी लिखी जानी है।‘‘ वे पाठक को संबोधित कहते हैं- ‘‘जा रहा हूं/लेकिन फिर आऊंगा/आज नहीं तो कल/कल नहीं तो परसों/परसों नहीं तो बरसों बाद/हो सकता है अगले जनम में ही‘‘ ऐसे स्मृतिशेष केदारनाथ पर, धतूरे का कांटेदार फल और फूल की अंजुरी अर्पित-

उनके न रहने पर उनकी एक कविता ‘हाथ‘- ‘‘उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।‘‘ और दूसरी ‘जाना‘- ‘‘मैं जा रही हूँ- उसने कहा/जाओ- मैंने उत्तर दिया/यह जानते हुए कि जाना/हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है‘‘ (‘तेरा जाना, दिल के अरमानों का लुट जाना‘ टाइप), सबसे अधिक उद्धृत हुईं। मुझे लगता है कि इन कविताओं में ऐसी कोई बात नहीं है, जो कवि का नाम हटा लेने के बाद भी खास या महत्वपूर्ण मानी जाय। यहां ‘धीरे धीरे हम‘ शीर्षक कविता को भी याद किया जा सकता है। घर उल्लेख वाली उनकी चर्चित कविता है- मंच और मचान। इस कविता के साथ '(उदय प्रकाश के लिए)' उल्लेख है, इसलिए बरबस ध्यान जाता है ‘विद्रोह‘ पर, जिसमें मूल की ओर लौटने, ‘वापस जाना चाहता हूं‘ का भाव है। ऐसा ही भाव ‘मातृभाषा‘ में हैं, जहां वे चींटियों, कठफोड़वा, वायुयान और भाषा के लौटने की बात करते हैं, लेकिन ये कविताएं वैसी असरदार नहीं जैसी उदय प्रकाश की ‘मैं लौट जाऊंगा‘।

अंतिम दो पड़ाव सन 2014 में प्रकाशित ’सृष्टि पर पहरा’ संग्रह और इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2017-18 के आधार पर उनका कवि-मन की छवि कुछ इस तरह दिखती है- अजित राय से बात करते हुए उन्होंने बताया था कि- तोलस्तोय अपने गांव के लोगों से बहुत प्यार करते थे... गांव वालों के लिए तरसते थे। और फिर सवाल पर कि- क्या आपके चाचा या चकिया (बलिया जिले का उनका गांव) वालों को पता है कि आप देश के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं? उन्होंने परेशान होकर टालने की गरज से कहा, ‘ए भाई, तू बहुत बदमाश हो गइल बाड़अ, पिटइबअ का हो? इसी बातचीत में उन्होंने ‘बनारस‘ कविता सुनकर रोने लगी महिला के बारे में बताया कि- ‘वह कविता के लिए नहीं बनारस के लिए रो रही है जहां वह कभी नहीं जा पाएगी। ... यह जादू बनारस का है मेरी कविता का नहीं।‘

’सृष्टि पर पहरा’ का ब्लर्ब विचारणीय है जहां कहा गया है कि- केदारनाथ सिंह का यह नया संग्रह कवि के इस विश्वास का ताजा साक्ष्य है कि अपने समय में प्रवेश करने का रास्ता अपने स्थान से होकर जाता है। यहां स्थान का सबसे विश्वसनीय भूगोल थोड़ा और विस्तृत हुआ है, जो अनुभव के कई सीमांत को छूता है। ... ये कविताएं कोई दावा नहीं करतीं। वे सिर्फ आपसे बोलना-बतियाना चाहती हैं- एक ऐसी भाषा में जो जितनी इनकी है उतनी ही आपकी भी। और दूसरी तरफ यह भी कि- कार्यक्षेत्र का प्रसार महानगर से ठेठ ग्रामांचल तक। इस संग्रह की कविता ‘घर में प्रवास‘ का अंश है- ‘अबकी गया तो भूल गया वह अनुबंध/जो मैंने कर रखा था उनके साथ/जब अन्दर प्रवेश किया/जरा पंख फड़फड़ाकर/उन्होंने दे दी मुझे अनुमति/कुछ दिन उस घर में रहा मैं उनके साथ/उनके मेहमान की तरह/यह एक आधुनिक का/आदिम प्रवास था/अपने ही घर में।‘

’सृष्टि पर पहरा’ का समर्पण भी गहरे अर्थ वाला है- “अपने गांववालों को, जिन तक यह किताब कभी नहीं पहुंचेगी।“ इसकी भूमिका उनकी कविता ‘चिट्ठी‘ में पहले ही बन गई थी कि- ‘‘मुझे याद आई/एक और भी चिट्ठी/जो बरसों पहले/मैंने दिल्ली में छोड़ी थी/पर आज तक/ पहुंची नहीं चकिया‘‘ या ‘गांव आने पर‘ कविता के इन शब्दों में- ‘‘जिनका मैं दम भरता हूं कविता में/और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे‘‘ केदार जी का आशय क्या है? उनके गांव वालों तक किताब-चिट्ठी पहुंचना, ऐसा कौन सा मुश्किल था, जो नहीं हो सकता था? फिर गांव वालों तक किताब न पहुंच पाने में कारक कौन? केदारजी, गांववाले या स्वयं किताब (उसमें कही गई बात)? दिवंगत केदार जी के प्रति पूरी श्रद्धा के बावजूद- क्या उन्हें लगने लगा था कि उनकी बात साहित्य प्रेमियों, समीक्षकों, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वालों के समझ में तो आती है लेकिन इस भाषा-शैली में कही गई कविता की बातें उनके गांववालों तक पहुंच पाएगी? (उनकी कई बातें-कविताएं मुझे भी अबूझ लगीं तब सोचा कि क्या मैं भी उनके गांववालों की तरह हूं?) उनकी कविताई बातें अपने ही गांववालों के लिए बेगानी होती चली गई है? क्या इस समर्पण-कथन में उन्हें यही अफसोस साल रहा है? अपने पर इस तरह का भरोसेमंद संदेह, केदार जी जैसा कवि ही कर सकता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार के अवसर पर उनके वक्तव्य में भी उल्लेख है कि अपने गांव के अनुभव में पके कर्मठ किसान के ‘कुछ सुनाओ‘ कहने पर वे अवाक रह गए थे और कहते हैं- ‘मैं जानता हूं कि यह आज की कविता की एक सीमा हो सकती है, पर कोई दोष नहीं कि वह बूढ़े किसान को सुनायी नहीं जा सकती।‘

मनोहर श्याम जोशी कहते थे- ‘हर व्यक्ति के वास्तविक संसार और काल्पनिक या आदर्श संसार में गहरा अंतर होता है। वह जो होता है, वही तो नहीं होता जो होना चाहता है या जो उसने चाहा था। जो उसने होना चाहा, उसकी कविताएं हो जाती हैं।‘ शायद ऐसी ही होने लगी थीं उनकी कविताएं। ‘बंटवारा‘ की पंक्तियां हैं- ‘‘कि यह जो कवि है मेरा भाई/जो बरसों ही रहता है मेरी सांस/मेरे ही नाम में/अच्छा हो, अगली बरसात से पहले/उसे दे दिया जाय/कोई अलग घर/कोई अलग नंबर।‘‘ स्वयं को निरस्त करने का दुर्लभ साहस लेकिन उनमें दिखता है, जब वे कहते हैं- ‘‘जो लिखकर फाड़ दी जाती हैं/कालजयी होती हैं/वही कविताएं।‘‘ या ‘‘कविताएं करा दी जाएं प्रवाहित/किसी नाले में‘‘ और मानों वसीयत लिख रहे हों- ‘‘और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे/कि लिख चुकने के बाद/इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना‘‘ लेकिन उन्हें उम्मीद है कि- ‘‘पर मौसम/चाहे जितना खराब हो/उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें‘‘।

बहरहाल उनकी पुण्य स्मृति को समर्पित- ‘‘मेरे गांव की मतदाता सूची में/नहीं है आपका नाम/न था, न होगा/इसलिए/आपका राशन कार्ड भी/यहां नहीं है/न आधार कार्ड/इस मामले में आप वैसे ही हैं/जैसा किसी चकिया के लिए मैं/न रहने के बाद भी/मैं हूं कही न कहीं/और कुछ न कुछ/वहां भी/ठीक वैसे ही/जैसे न होने के बाद भी/आप अपनी कविताओं में हैं, वैसे के वैसे।‘‘ उन्हें समर्पित मेरी ये पंक्तियां, मात्र संयोग है कि उनके द्वारा तैयार की गई अंतिम पांडुलिपि, जो अब प्रकाशित है, का शीर्षक ‘मतदान केन्द्र पर झपकी‘ है। इसी शीर्षक वाली कविता की अंतिम पंक्तियां है- मैंने खुद से कहा/अब घर चलो केदार/और खोजो इस व्यर्थ में/नया कोई अर्थ।

समाचार पत्र ‘नवभारत‘, रायपुर में
इस प्रकार प्रकाशित हुआ।