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Friday, October 8, 2010

बिटिया


किसी पेड़ की इक डाली को,
नव जीवन का सुख देने
नव प्रभात की किरणों को ले,
खुशियों से आंचल भर देने
दूर किसी परियों के गढ़ से, नव कोंपल बन आई बिटिया।
सबके मन को भायी बिटिया, अच्छी प्यारी सुन्दर बिटिया॥

आंगन में गूंजे किलकारी,
जैसे सात सुरों का संगम
रोना भी उसका मन भाये,
पर हो जाती हैं, आंखें नम
इतराना इठलाना उसका,
मन को मेरे भाता है
हर पीड़ा को भूल मेरा मन,
नए तराने गाता है
जीवन के बेसुरे ताल में, राग भैरवी लायी बिटिया।
सप्त सुरों का लिए सहारा, गीत नया कोई गाई बिटिया॥

बस्ते का वह बोझ उठा,
कांधे पर पढ़ने जाती है
शाम पहुंचती जब घर हमको,
आंख बिछाए पाती है
धीरे-धीरे तुतलाकर वह,
बात सभी बतलाती है
राम रहीम गुरु ईसा के,
रिश्‍ते वह समझाती है
कभी ज्ञान की बातें करती, कभी शरारत करती बिटिया।
एक मधुर मुस्कान दिखाकर हर पीड़ा को हरती बिटिया॥

सुख और दुख जीवन में आते,
कभी हंसाते कभी रुलाते
सुख को तो हम बांट भी लेते,
दुख जाने क्यूं बांट न पाते
अंतर्मन के इक कोने में,
टीस कभी रह जाती है
मैं ना जिसे बता पाता हूं,
ना जुबान कह पाती है।
होते सब दुख दूर तभी, जब माथा सहलाती बिटिया।
जोश नया भर जाता मन में, जब धीमे मुस्काती बिटिया॥

लोग मूर्ख जो मासूमों से,
भेदभाव कोई करते हैं
जिम्मेदारी से बचने को
कई बहाने रचते हैं
बेटा-बेटी दिल के टुकड़े,
इक प्यारी इक प्यारा है
बेटा-बेटी एक समान,
हमने पाया नारा है
घर की बगिया में जो महके, सुन्दर कोमल फूल है बिटिया।
पाप भगाने तीरथ ना जा, सब तीरथ का मूल है बिटिया॥

मान मेरा सम्मान है बिटिया, अब मेरी पहचान है बिटिया।
ना मानो तो आ कर देखो, मां-पापा की जान है बिटिया॥
मेरी बिटिया सुन्दर बिटिया,
मेरी बिटिया प्यारी बिटिया॥

कई क्षेत्रों में सक्रिय जयप्रकाश त्रिपाठी जी (+919300925397) स्टेट बैंक से जुड़े हैं, यह 'बिटिया' उनकी रचना है। बहुमुखी जयप्रकाश जी की प्रतिभा के अन्य रूपों को अच्छी तरह पहचान पाने में मेरी रूचि-सीमा आड़े आती रहती है। लेकिन पद्य पढ़ने से बचने वाला मैं, उनकी यह कविता बार-बार पढ़ता हूं। 'बिटिया' की वेब पर विदाई के लिए उन्होंने सहमति दी, उनका आभार।

नाम-लेवा पानी-देवाः

पुंसंतति के लिए कहा जाता है कि कोई तो होना चाहिए नाम-लेवा पानी-देवा जिससे वंश चले, आशय तर्पण से होता है, लेकिन पुत्री द्वारा मुखाग्नि और श्राद्ध-तर्पण की खबरें भी आजकल मिलने लगी हैं। बात आती है नाम-लेवा की तो कहा जाता है-
'नाम कमावै काम से, सुनो सयाने लोय। मीरा सुत जायो नहीं, शिष्‍य न मूड़ा कोय।'

बिलासपुर का एक किस्सा भी याद आ रहा है। मैंने सचाई तहकीकात नहीं की, किस्सा जो ठहरा। न सबूत, न बयान, कोई साखी-गवाही भी नहीं। आप भी बस पढ़-गुन लीजिए। तो हुआ कुछ यूं कि एक थे वकील साहब, खानदानी। अंगरेजों का जमाना। सिविल लाइन निवासी इक्के-दुक्के नेटिव। हर काम कानून से करने वाले और कानून से हर कुछ संभव कर लेने वाले। कहा तो यह भी जाता है कि उनकी जिरह-पैरवी सुन जज भी घबरा जाते थे। फिर मामला कोई भी हो, मुकदमा हारें उनके दुश्‍मन।

उच्च कुल के इन वकील साहब को कुल जमा एक ही पुत्री नसीब हुई। इंसान का क्या वश, यह फैसला तो ऊपर वाले का था। वंश परम्परा के रक्षक, पुश्‍तैनी वकील ने बेटे-बेटी में कोई फर्क न समझा। बिटिया को भी वकालत पढ़ाया। बिटिया काम में हाथ बंटाने लगी। कानून की किताबें, केस ब्रीफ और कागजात सहेजने लगी। वकील साहब निश्चिंत।

चिंता हुई, जब पत्नी ने बिटिया के हाथ पीले कर, उसे विदा करने का जिक्र छेड़ा। वकील साहब सन्न। किताबों की ओर देखने लगे इनका क्या होगा, मुवक्किल कहां जाएंगे, यह तो कभी सोचा ही नहीं। पति की चुप्पी भांपते हुए पत्नी तुरंत आगे बढ़ी, बोली बाकी तो जो रामजी की मरजी, लेकिन आप तो कोट-कछेरी में ही रमे रहे, कभी सोचा, कुल-खानदान का क्या होगा, वंश कैसे चलेगा। वकील साहब ने फिर किताबों की आलमारी की तरफ देखा और अब आसीन हो गए अपनी स्प्रिंग-गद्दे वाली झूलने वाली कुरसी पर। कुछ लिखते, कुछ पढ़ते, कुछ सोचते, झूलते-झालते रात बीत गई। ऐसा केस तो कभी नहीं आया था। लेकिन मामला कोई भी हो, आदमी हल तो अपनी विधा में ही खोजता है। उन्होंने वंश चलाने का रास्ता तलाश ही लिया, विधि-सम्मत।

सुयोग्य वर की तलाश होने लगी। पात्र मिल गया। वकील साहब ने होने वाले समधी से शर्त रखी कि वे भावी दामाद को न सिर्फ बेटा मानेंगे, बल्कि गोद ले लेंगे और अपनी बिटिया को उन्हें गोद देंगे। रिश्‍ता पक्का हुआ। गोदनामा बना, बाकायदा रजिस्टर भी हुआ। बस फिर क्या देर थी, चट मंगनी पट ब्याह। वकील साहब अपनी बेटी को बहू बनाकर, विदा करा अपनी ड्‌योढ़ी में ले आए। घर-आंगन खुशियों से भर गया.....जैसे उनके दिन फिरे .....या जैसे उन्होंने अपने दिन फेरे। वकील साहब का वंश चल रहा है, चलता रहे, 'आचन्द्रार्क तारकाः.....। अब आप ही बताइये, बेटी ही तो मां है, कौन सा वंश है जो बिना मां के चलता है और कौन कहेगा कि बेटी से वंश का नाम नहीं चल सकता।

आज नवरात्रि का आरंभ। या देवि सर्व भूतेषु .....

यह पोस्‍ट तैयार करते हुए मीरा वाली पंक्तियां ठीक याद नहीं कर सका था। यह भी याद नहीं आ रहा था कि यह कब और कहां पढ़ा-सुना। पोस्‍ट लगा दी फिर भी राजस्‍थान के और हिन्‍दी साहित्‍य वाले परिचितों को टटोलता रहा। 8 जनवरी 2011 को कवि उपन्‍यासकार विनोद कुमार शुक्‍ल जी पर केन्द्रित आयोजन में प्रो. पुरुषोत्‍तम अग्रवाल जी रायपुर आए मैंने चान्‍स लिया, उन्‍होंने तुरंत बताया और यह भी जोड़ा कि ये उनकी पसंद की पंक्तियां हैं। सो, अब सुधार दिया है।