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Sunday, February 27, 2022

एक चिड़िया अनेक चिड़िया

पक्षी, हमारे देश के साहित्य और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। हंस के नीर-क्षीर विवेकी होने का मूल शुक्ल यजुर्वेद है, जिसमें उसे पानी से सोम अलग कर सकने की क्षमता वाला बताया गया है। चक्रवाक यानि चकवा-चकवी जोड़े के दाम्पत्य प्रेम का आधार भी वैदिक साहित्य से आया है। ‘उल्लू‘ के लिए वक्र दृष्टि वैदिक काल से रही है, संभवतः उसकी बोली के कारण। वैदिक संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक, उपनिषदों में एक तैत्तिरीय है, जो तीतर पक्षी के नाम पर है और इस तरह वैदिक साहित्य में तित्तिर, तित्तिरि (कपिंजल) अर्थात तीतर के नाम का महत्व सबसे अधिक है। उपनिषद में एक डाल पर बैठे, कर्ता और भोक्ता रूप वाले दो पक्षियों का उल्लेख आता है, इसी प्रकार शिकारी के बाण से बिंधे पक्षी को देख, व्यथा से महाकाव्य का जन्म होता है। मार्कण्डेय पुराण में पक्षियों को प्रवचन का अधिकारी बनाकर उनके द्वारा धर्म-निरूपण किया गया है। गीता में कृष्ण स्वयं को पक्षियों में वैनतेय- विनतानंदन गरुड़ बताते हैं। इसी गरुड़ का वामपक्ष, बायां डेना, वृहत्साम-लोक है और दायां दक्षिणपक्ष रथन्तर-शास्त्र। यों भी, शुक और काकभुशुंडी के बिना कौन सी कथा संभव है!

रामचरित मानस, अरण्यकाण्ड में राम की विरह-व्यथा के चित्रण में कहा गया है कि ‘कोयलें कूज रही हैं। वही मानों मतवाले हाथी हैं। ढेक और महोख पक्षी मानों ऊँट और खच्चर हैं। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानों सब सुंदर अरबी घोड़े हैं। तीतर और बटेर पैदल सिपाहियों के झुंड हैं। पपीहे भाट हैं, जो विरुद गान करते हैं। जलमुर्गे और राजहंस बोल रहे हैं। चक्रवाक, बगुले आदि पक्षियों का समुदाय देखते ही बनता है। सुंदर पक्षियों की बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानों राहगीरों को बुला रही हों। कोयलों की कुहू कुहू रसीली बोली सुनकर मुनियों का भी ध्यान टूट जाता है। इसी तरह किष्किन्धाकाण्ड में चक्रवाक, चकवा, चातक, चकोर जैसे पक्षियों के साथ ऋतु, मनोभाव और पक्षियों के व्यवहार-लक्षणों का रोचक उल्लेख- 'जानि सरद ऋतु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।।' आया है।

जातक कथा में तीसरे परिच्छेद के अंतर्गत द्वितीय-कोसिय वर्ग का अंतिम जातक, उलूक जातक है, जिसमें उल्लू और कौवों के बैर की कहानी बताई गई है। उल्लू को पक्षियों का राजा चुने जाते हुए एक कौवा टोक कर कहता है-
न मे रुच्चति भद्दं वो उलुकस्साभिसेचनं, अकुद्धस्स मुखं पस्स, कथ कुद्धो करिस्सति।। अर्थात, हे भद्रों! उल्लू का अभिषेक मुझे अच्छा नहीं लगता। अभी क्रुद्ध नहीं है तब इसका मुख देखिए, क्रुद्ध होने पर क्या करेगा?, इस आपत्ति से उल्लू के बजाय हंस पक्षियों का राजा बनता है और उल्लू, कौवों से बैर ठान लेते हैं।

वाराहमिहिर ने शकुनसूचक पक्षियों में श्यामा, श्येन, शशहन, वंजुल, मयूर, श्री कर्ण, चक्रवाक, चाष, भण्डरीक, खंजन, शुक, काक, कबूतर, कुलाल, कुक्कुट, भारद्वाज, हारीत, खर, गृद्ध, पर्ण कुट, और चटक के नाम गिनाये हैं। बाणभट्ट के हर्षचरित में लोक और वन्य-जीवन की झांकी है। सप्तम उच्छ्वास में आया है कि ‘कुछ दूसरी तरह के बहेलिए चिड़िया फंसाने वाले शाकुनिक विचर रहे थे, जो कंधे पर वीतंसक जाल या डला लटकाए थे ... उनके हाथों में बाज, तीतर और भुजंगा आदि के पिंजड़े थे। चिड़िमारों के लड़के बेलों पर लासा लगाकर गौरेैया पकड़ने के इरादे में इधर से उधर फुदक रहे थे। चिड़ियों के शिकार के शौकीन नवयुवक लोग शिकारी कुत्तों को जो बीच बीच में झाड़ी में उड़ते हुए तीतरों की फड़फड़ाहट से बेचैन हो उठते थे, पुचकार रहे थे।

छायावाद के प्रवर्तक पद्मश्री सम्मानित छत्तीसगढ़ के कवि मुकुटधर पांडेय ने यहां आने वाले प्रवासी पक्षी ‘डेमाइजल क्रेन‘ पर ‘कुररी के प्रति‘ शीर्षक से कविता रची थी- ‘बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात, पिछड़ा था तू कहां, आ रहा जो इतनी रात।‘

खरौद के पं. कपिलनाथ मिश्र द्वारा छत्तीसगढ़ी कविता ‘खुसरा चिरई के बिहाव‘ रची गई थी, जो मानों पूरा पक्षीकोश ही नहीं, उनके व्यवहार-स्वभावगत आचरण का मानवीकरण भी है। खुसरा गीत अन्य कई तरह से भी गाया-सुनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में पंडकी के साथ कलां, खुर्द, डीह, पाली, पारा, डीपा, भाट, पहरी जुड़कर, इसी तरह कुकरा के साथ झार, पानी, चुंदा जुड़कर और परेवा के साथ पाली, डोल, डीह जुड़कर ग्राम नाम बने हैं। गरुड़डोल, चिड़ियाखोह, चिरई, चिरईपानी, चिरईखार, सोन चिरइया, रनचिरई, हंसपुर, लवा, गुंडरू, घुघुवा, मंजूर पहरी, चिरहुलडीह, लिटिया, गिधवा, छछान पैरी जैसे पक्षियों पर आधारित नाम वाले अनेक ग्राम हैं ही, महासमुंद जिले में मुख्य राजमार्ग पर नवागांव में पहाड़ी पर छछान माता का मंदिर है। धमतरी-बालोद मार्ग के प्रसिद्ध महाश्मीय स्मारक क्षेत्र में बहादुर कलारिन और उसके पुत्र छछान छाड़ू की कथा प्रचलित है तथा उन दोनों का मंदिर भी हैै। छत्तीसगढ़ में पक्षियों की लगभग 450 प्रजातियां और उनकी बड़ी संख्या है।
सभी तस्वीरें रायपुर-बिलासपुर के आसपास,
कैनन-पावर शाट या निकान-प्वाइंट एंड शूट से, ली गई हैं।
कैमरे का उपयोग मेरे लिए
फोटोग्राफी से कहीं अधिक डाक्यूमेंटेशन के लिए
और बॉयनाकुलर जैसा है।

राज्य के विभिन्न स्थानों में इस क्षेत्र में स्वैच्छिक रुचि से कार्य कर रहे लोगों, शासकीय, अशासकीय संस्थाओं, संगठनों, समूहों जैसे वन विभाग, संग्रहालयों के साथ साथ प्रकाशित साहित्य आदि स्रोतों में उपलब्ध जानकारियों का लगातार संकलन अपेक्षित है। इसके तहत पक्षियों के विभिन्न आवासीय क्षेत्र, जैसे वन, दलदली भूमि, जलाशयों, बंजर मैदान, घास के मैदान, उद्यान, खेत आदि जगहों से पक्षियों की उपस्थिति और उनकी जानकारी, स्थानीय स्वैच्छिक रुचि वाले लोगों की मदद से संभव है। पंछी-निहारन, सर्वेक्षण का समय बरसात, ठंड और गरमी, तीनों ऋतुओं को ध्यान में रखा जाता है, ताकि स्थानीय पक्षियों के साथ साथ ऋतुओं के अनुरूप प्रवास पर आने वाले सभी पक्षियों की जानकारी भी एकत्र हो।

पक्षी, हमारे पर्यावरण के अभिन्न आवश्यक अंग हैं साथ ही कृषि-वनस्पति को नुकसान पहुंचाने वाले कीट-पतंगे, पक्षियों के भोजन हैं, जिससे ये हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं। वनस्पतियों में फूलों के परागण, निषेचन तथा बीजों को फैलाने में भी पक्षियों की भूमिका होती है। पक्षियों में रुचि का आम जन समुदाय तक विस्तार होने से पक्षियों की तथ्यात्मक स्थिति के साथ साथ उनके संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में भी मदद होती है और यह पर्यावरण की ओर जागरूकता के लिए बड़ा योगदान साबित होता है, इस दृष्टि से इसमें समाज के सभी वर्गों का जुड़ाव अपेक्षित है।

कुछ वर्ष पूर्व मेरे द्वारा तैयार किया गया नोट
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छत्तीसगढ़ में पक्षी-प्रवास और नवा रायपुर 

‘बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात, पिछड़ा था तू कहां, आ रहा जो इतनी रात।‘ मुकुटधर पांडेय की, छत्तीसगढ़ आने वाले प्रवासी पक्षी पर रची छायावाद की आरंभिक कविता ‘कुररी के प्रति‘ जुलाई 1920 में हिन्दी की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। कवि फिर से कहता है- ‘ विहग विदेशी मिला आज तू बहुत दिनो के बाद, तुझे देखकर फिर अतीत की आई मुझको याद।‘ खरौद के पं. कपिलनाथ मिश्र की छत्तीसगढ़ी कविता ‘खुसरा चिरई के बिहाव‘ एक दौर में लोगों की जबान पर चढ़ी कविता थी। शीतकाल में प्रवासी, खासकर जलीय पक्षियों की विभिन्न प्रजाति राज्य के जलाशयों में डेरा डाले होते है, इस समय नवा रायपुर के पुराने अड्डों में भी ये रंग-बिरंगे प्रवासी मेहमान देखे जा सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में राज्य के राजधानी क्षेत्र के बदलते नक्शे के साथ जैव-विविधता और खास कर पक्षियों की दृष्टि से रोचक और समृद्ध इस क्षेत्र पर दृष्टिपात प्रासंगिक है।

छत्तीसगढ़ में गिधवा और रायपुर के परसदा तथा मांढर के इलाके को पक्षी संरक्षण क्षेत्र घोषित करने पर विचार होता रहा है। यह भी विचार होता रहा है कि पक्षी संरक्षण क्षेत्रों सहित नवा रायपुर में भी ऐसी प्रजातियों के वृक्ष लगाए जाएं, जिनके फलों और फूलों की ओर पक्षी आकर्षित होकर बसेरा बना सकें। नया रायपुर सुनियोजित, हरित एवं आधुनिक शहर कहा जाता है। यहां 55 से अधिक तालाबों के गहरीकरण और सौंदर्यीकरण की योजना है। नवा रायपुर के ग्राम झांझ (नवागांव) में लगभग 270 एकड़ जलाशय के मध्य में पक्षियों के लिए छोटे-छोटे नेस्टिंग आइलैण्ड बनाने पर विचार किया गया है। झांझ और सेंध जलाशय का क्षेत्र लगभग 100 हेक्टेयर का है।

नवा रायपुर के सेंध जलाशय और किनारा, पक्षियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, साथ ही खडुआ तालाब तथा आसपास के क्षेत्र में विभिन्न पक्षियों का डेरा रहता है। राजधानी सरोवर और कया बांधा भी पक्षियों के निर्वाह केंद्र हैं। 230 हेक्टेयर क्षेत्र में विकसित जंगल सफारी के 18 हेक्टेयर क्षेत्र में जलीय पक्षी विहार का है। जंगल सफारी के पास केन्द्री गांव का मैदान-भांठा और तेंदुआ भी पक्षियों के लिए उपयुक्त है, जहां मौसम अनुकूल पक्षी देखे जा सकते हैं। सामान्यतः न दिखने वाली कुछ पक्षी प्रजातियां स्टार्क, आइबिस, प्रेटिनकोल, सैंडग्राउज, कोर्सर आदि नवा रायपुर में आसानी से दिख जाती हैं, इसी प्रकार शीतकालीन प्रवासी पक्षी भी यहां जलाशयों में आते हैं। अन्य पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां, बड़ी संख्या में यहां हैं और आसानी से दिखती हैं। 

नवा रायपुर पर्यावरण अनुकूल शहर के रूप में विकसित किया जा रहा है, आधारभूत संरचनाओं और अन्य विकास कार्यों के साथ पर्यावरणीय स्थितियों को सहेजना, बनाए रखना, एक चुनौती है। ध्यान रखना होगा कि यहां विकास-निर्माण के बावजूद खुले मैदान, जलराशि और हरियाली बनी रहे। यह इस क्षेत्र की जैव-विविधता को बचाए रखने के साथ इसे एक आदर्श आधुनिक बसाहट के रूप में विकसित और स्थापित करने में सहायक-आवश्यक होगा। 

कुछ वर्ष पूर्व मेरे द्वारा तैयार किया गया यह एक अन्य नोट, आंशिक संशोधन सहित 
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छत्तीसगढ़ में पक्षियों के साथ बीता साल-2015 

फेसबुक पेज BIRDS & WILDLIFE OF CHHATTISGARH के सदस्यों की संख्या इस साल 2015 में तेजी से बढ़ कर 1350 पार कर गई है और इसके सार्थक और उत्साहवर्धक परिणाम भी आए हैं। छत्तीसगढ़ के पक्षियों पर केएनएस चौहान और इला फाउंडेशन की पुस्तकों का जिक्र होता रहा, लेकिन पक्षी-प्रेमियों को ये आसानी से उपलब्ध नहीं हुई, यही स्थिति डा. एससी जेना की पुस्तक के साथ रही।

सत्तर पार कर चुके अरुण एम के भरोस और भरोस परिवार की सक्रियता हमेशा उल्लेखनीय रही है, वह वैसी ही बनी हुई है और छत्तीसगढ़ के पक्षी जगत की शोध स्तरीय अधिकृत जानकारियां, उनके माध्यम से गंभीर प्रकाशनों में शामिल हो रही हैं। ‘छत्तीसगढ़ वाइल्ड लाइफ सोसाइटी’ के सौरभ अग्रवाल की गतिविधियों की जानकारी सोशल मीडिया पर कम रही, लेकिन मोहित साहू और अमित खेर के साथ मयूर रायपुरे भी जुड़े और उनकी पक्षी-तस्वीरों की प्रविष्टियां आती रहीं।

रायपुर में सोनू अरोरा तस्वीरों, जानकारियों और फेसबुक जिम्मेदारियों में पहले की तरह महत्वपूर्ण भूमिका में रहे। युवा अविजीत जब्बल के बाद पहल करते दसवीं कक्षा के छात्र सिफत अरोरा ने डबलूआरएस से यूरेशियन रोलर की तस्वीर ला कर सब को चौंकाया और आठवीं कक्षा के आर्यन प्रधान ने भी आशाजनक दस्तक दी।

इसी तरह बस्तर से सुशील दत्ता ने हिल मैना के झुंड की फोटो ला कर नई और ठोस उम्मीद जगाई, उनके साथ पीआरएस नेगी का भी उल्लेेखनीय योगदान रहा और छत्तीसगढ़ में पक्षियों की कई अल्पज्ञात प्रजातियों की प्रामाणिक उपस्थिति दर्ज कराई। डेमोसिल क्रेन यानि कुररी, मलाबार पाइड हार्नबिल, डेजर्ट व्हीटियर, ब्लैक/ब्राउन हेडेड गल की उपस्थिति और अपमार्जक यानि स्केवेन्जर इजिप्शियन वल्चर की बढ़ती संख्या ने नई उम्मीदें जगाई हैं। बेलमुंडी के रोजी स्टर्लिंग का एयर शो इस साल भी आकर्षण का केन्द्र बना।

उधर जांजगीर के कुमार सिंह लगभग पूरे साल कम दिखने वाली पक्षियों की तस्वीरें ले कर आते रहे। नबारुण साध्य के छत्तीसगढ़ में होने से अधिकृत और महत्वपूर्ण जानकारियां आती रहीं। पिथौरा के जोगीलाल श्रीवास्तव, टीकमचंद पटेल, विजय पटेल, चरनदीप आजमानी, गौरव श्रीवास्तव के माध्यम से भी अच्छी सचित्र जानकारियां आईं और भागवत टावरी के पक्षी कैलेंडर के अलावा भी बेहतरीन तस्वीरें आती रहीं। 

बिलासपुर के राम सोमावार, डॉ. चंद्रशेखर रहालकर, डॉ श्रुतिदेव मिश्रा, विवेक-शुभदा जोगलेकर की गतिविधियों की नियमित जानकारियां नहीं मिलीं, लेकिन प्राण चड्डा सक्रिय रहे और अनिल पांडेय, शशि चौबे, सौरभ तिवारी, मजीद सिद्दिकी, शिरीष दामरे, सत्यप्रकाश पांडेय, अपूर्व सिसौदिया, नवीन वाहिनीपति, जितेन्द्र रात्रे सक्रिय रहे और श्याम कोरी ने अपनी देखी और ली गई तस्वीरों के साथ पक्षियों को सूचीबद्ध किया। 

साथ ही समय-समय पर डा. राहुल कुलकर्णी, विकास अग्रवाल, रिशी सेन, जगदेवराम भगत, रूपेश यादव, मनीष यादव, प्रदीप जनवदे, कुंवरदीप सिंह अरोरा, पंकज बाजपेयी, रवीश गोवर्धन, दिव्येन्दु मुखर्जी, विवेक शुक्ला, यश शुक्ला, कमलेश वर्मा, संजीव तिवारी, ललित शर्मा, डा. विजय आनंद बघेल, डा. सुरेश जेना, प्रदीप गुप्ता, वी एस मनियन, मत सूरज, रवीन्दर सिंह सैंडो, राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, शिशिर दास, बाला सुब्रमण्यम, विशाल त्रेहन, अनुभव शर्मा, शैलेन्द्र सदानी, डा जयेश कावड़िया, निकष परमार आदि की ली हुई पक्षी-तस्वीरों से सामने आने वाली जानकारियों की लंबी सूची है।

मैंने पक्षियों और पक्षियों पर नजर रखने वालों पर पूरे साल नजर रखने की कोशिश की है. यहां प्रत्येक सुझाव का हार्दिक स्वागत रहेगा। 

‘बर्ड्स एंड वाइल्ड लाइफ आफ छत्तीसगढ़’ समूह के लिए  02 जनवरी 2016 की फेसबुक पोस्ट  

पुनश्च- अब इस समूह के सदस्यों की संख्या 9600 पार कर गई है। 2021 तक इस ओर कई पक्षी-प्रेमी सक्रिय हुए हैं, जिनमें रवि नायडू, सौरभ सिंह, डॉ. दिलीप वर्मा, सौमित्र शेष आर्य, डॉ. हिमांशु गुप्ता, हैप्पी सिंह, अविनाश भोई, फर्गुस मार्क एन्थनी जैसे कुछ सदस्यों से कई विशिष्ट जानकारियां आईं। साथ ही डॉ. मधुकर टिकास, डॉ. कपिल मिश्रा, अविरल जाधव, अशोक अग्रवाल, अनिल अग्रवाल, विकास अग्रवाल, हकीमुद्दीन सैफी, आलोक सिंह, महेश कुमार, संदीपन अधिकारी, पारुल परमार, चंदन त्रिपाठी, गोपा सान्याल, मंजीत कौर बल, हर्षजीत सिंह बल, अभिनंदन तिवारी, प्रसेनजित मजुमदार, राहुल गुप्ता, रत्नेश गुप्ता, देव रथ, श्रेयांस जैन, संतोष गुप्ता, गौरव उपाध्याय, दिनेश कुमार पाण्डेय, राजू वर्मा, आनंद करांबे, राधाकृष्ण, दानेश सिन्हा, प्रतीक ठाकुर, रवि ठाकुर, नरेन्द्र वर्मा, विजय जादवानी, जागरूक दावड़ा जैसे कई सदस्य सक्रिय रहे। (यहां नाम बतौर सूची नहीं, बल्कि उदाहरण के लिए आए हैं।)
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अपने लिखे उपरोक्त के अलावा पक्षियों पर एक अलग नजरिया, पुस्तक ‘शिकार के पक्षी‘ से, जिससे वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम-1972 के पहले की स्थिति और दृष्टिकोण को समझने में मदद होगी। लेखक श्री सुरेश सिंह की पुस्तक ‘शिकार के पक्षी‘, हिन्दी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश शासन, लखनऊ द्वारा 1971 में प्रकाशित की गई थी। इस पुस्तक की ‘भूमिका‘ ध्यान देने योग्य, इस प्रकार है- 

शिकार के पक्षियों को अन्य पक्षियों से अलग कर के एक पुस्तक के रूप में देने का तात्पर्य यही है कि हम अपने देश के उन पक्षियों से भली भांति परिचित हो जायें जो शिकार के पक्षी कहे जाते हैं और जिनके मांस के लिए लोग उनका शिकार करते हैं। 

शिकार के पक्षियों का सबसे बड़ा गुण, उनका स्वादिष्ठ मांस है और सबसे बड़ी विशेषता उनकी तुरन्त छिपने की आदत और तेज उड़ान मानी जाती है। दूसरे शब्दों में शिकार के पक्षियों की श्रेणी में वे स्वादिष्ठ मांस वाले पक्षी आते हैं जिनका शिकार आसान नहीं होता और जिसमें शिकारी को काफी परिश्रम करना पड़ता है। लेकिन इस परिभाषा को आधार मान लेने से शिकार के पक्षियों की संख्या बहुत सीमित रह जाती है और इस पुस्तक के लिखने का उद्देश्य पूरा नहीं होता। इस पुस्तक में तो उन सभी पक्षियों को एकत्र किया गया है जिनका शिकार किया जाता है और जिनका मांस खाने के काम आता है, जिससे हम सब उन पक्षियों से भली भांति परिचित हो जायें और यह जान जाये कि किस पक्षी का मांस खाद्य है और किसका अखाद्य है।

इतना ही नहीं, इस पुस्तक में हमें शिकार के प्रत्येक पक्षी के शिकार के बारे में भी थोड़ी-बहुत जानकारी हो जायेगी जो साधारणतया पक्षियों का परिचय देने वाली पुस्तकों से नहीं प्राप्त हो सकती, क्योंकि पक्षियों के बारे में जो पुस्तकें लिखी जाती है वे प्रायः इस दृष्टिकोण से नहीं लिखी जाती कि उनका शिकार कैसे किया जाता है बल्कि उनके लिखने का तात्पर्य यही रहता है कि उन पक्षियों के स्वभाव, बोली, निवास, रंग रूप, रहन-सहन, तथा अंडे और घोंसले के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें। इसी कारण शिकार के प्रेमी पाठक उनसे लाभ नहीं उठा पाते। प्रस्तुत पुस्तक उसी कमी को पूरा करने के लिए लिखी गयी है जिससे साधारण पाठकों का मनोरंजन तो होगा ही, साथ ही साथ शिकार से प्रेम करने वाले सज्जनों को इसमें बहुत-सी ऐसी बातें मिलेंगी जो उनके शिकार को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होंगी। 
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और एक खबर, जो 29 अगस्त 1995 को दैनिक भास्कर, बिलासपुर में ‘अज्ञेय नगर में पक्षियों का जलविहार‘ शीर्षक से प्रकाशित, इस तरह- 

बिलासपुर। पक्षियों की प्रजातियां नगरीकरण के साथ-साथ मानव से दूर हो रही हैं। वहीं बिलासपुर के अज्ञेयनगर में एक पांच-सात एकड़ के जलकुम्भी वाले तालाब में अनेक प्रजातियों की पक्षी जल किलोल कर अपने वंश की वृद्धि कर रहे हैं। यदि इस स्थल को संरक्षित किया गया तो शहर के मध्य प्रवासी पक्षियों का डेरा इसी शीतकाल में जम सकता है।

अज्ञेय नगर के मध्य और तालापारा से जुड़े इस गंदले से तालाब में निस्तारी के पानी का ठहराव है जिस वजह पूरे साल पानी भरा रहता है। लगभग पांच एकड़ के इस भराव के चारों तरफ मकान भरे हैं। नागरिकों का कहना है कि यह उद्यान स्थली थी परंतु शायद गड्ढे के कारण यहां उद्यान बनाना संभव नहीं हो पाया और निस्तार का पानी एकत्र होते गया। ग्रीष्म ऋतु में भी यहां भराव बना रहता है। जलकुम्भी से यह स्थल लगभग भर चुका है। जलकुम्भी को समुंदर सोख माना जाता है। ऐसी अवधारणा है कि यदि जलकुंभी फैले तो समुद्र को भी अपने आगोश में ले सकती है। ये जल वनस्पति मानव के लिए कोई खास लाभदायक नहीं लेकिन अज्ञेय नगर में जलीय पक्षियों के लिए यह जलस्थल और जलीय वनस्पति तथा बेशरम की झाड़ियों से सुन्दर रैन बसेरा बन गया है।

जलीय पक्षियों के इस बसेरे को महाविद्यालय की एक छात्रा शाहिन सिद्दकी ने खोजा है। उसने पहली बार यहां विभिन्न प्रजातियों के पक्षी देखें और अपने परिचित विवेक जोगलेकर को इसकी जानकारी दी। बस फिर क्या था शाहिन, श्री जोगलेकर, राहुल सिंह ने पक्षियों की शिनाख्त शुरू कर दी। अब तक इस क्षेत्र में लाल बगुला, अंधा बगुला, कांना बगुला, पाइड किंग फिशर, स्माल ब्ल्यू किंग फिशर, व्हाइट ब्रेस्टेड किंग फिशर, राबिन इण्डियन, राबिन मैग पाई, खंजन, ऐशी रेन वार्बलर, बया, फीजेन्ट टेल जकाना, ब्रांज विंग्ड जकाना, कूट, कैम, मूरहेन, टील, लिटिल कारमोरेन्ट, पतरिंगा एवं रेड वेन्टेड बुलबुल हैं।

शरद ऋतु अभी आई नहीं परंतु खंजन पक्षी यहां पहुंच गये हैं। काले रंग के पक्षियों ने तो यहां अपने वंश की वृद्धि भी कर ली है। किलकिला (किंगफिशर) यहां हवा से सीधी गोताखोरी कर मछलियां पकड़ते दिखाई देते हैं। लंबी पूंछ वाली जकाना पक्षी (जलमोर) के यहां जोड़े हैं। जलीय पक्षियों के मध्य मानसून के साथ प्रवास में पहुंचने वाला चातक पक्षी भी यहां जोड़े में दिखाई देता है।

पक्षियों ने तो नगर के मध्य एक सुरक्षित परिवेश मान अपना बसेरा बना लिया। इस बात की आशंका है कि इस क्षेत्र में बढ़ती हुई पक्षियों की संख्या पर चिड़ीमारों की नजर न लग जाए अन्यथा अपने आप विस्तृत हो रहा एक उद्यान अपने पूर्ण विकास के पूर्व ही समाप्त हो जाएगा।
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Friday, January 14, 2022

मुकुट-प्यारे-हरि

हरि ठाकुर, छत्तीसगढ़-गौरव के शोध, लेखन, प्रकाशन जैसे सभी क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहे। इतिहास को कण-कण समेटने के लिए उनका उद्यम लाजवाब और व्यग्रता अनूठी थी, लेकिन इसके इस्तेमाल में वे संयत रहते थे। इसके ढेरों प्रमाण अब भी उनके योग्य उत्तराधिकारी पुत्र आशीष सिंह सहेजे हुए हैं। यह भूमिका, हरि ठाकुर की लिखावट वाले यहां प्रस्तुत किए जा रहे 7 पृष्ठों के दस्तावेज के लिए है।

यह दस्तावेज मुकुटधर पांडेय द्वारा प्यारेलाल गुप्त को सन 1963 में लिखे पत्र की प्रतिलिपि है। गुप्त जी अपनी संकलित सामग्री, पत्रों आदि की चर्चा ठाकुर जी से करते, उन्हें दिखलाते और ऐसी किसी भी सामग्री की नकल उतार कर उसे सुरक्षित करने में ठाकुर जी देर नहीं करते। यह पत्र उसी का एक नमूना है।

यों तो पत्र का मजमून, गंभीर शोध-आलेख से कम नहीं, जिस पर पूरी टीका लिखी जानी चाहिए, किंतु यहां कुछ बिंदुओं का उल्लेख समीचीन होगा। छत्तीसगढ़-उड़ीसा संबंधों और इतिहास की दृष्टि से रायगढ़-संबलपुर के साथ सारंगढ़ का विशेष महत्व है। इस दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथों ‘सम्बलपुर इतिहास‘ और ‘जयचंद्रिका‘ का उल्लेख पत्र में आया है। वे ‘पूज्याग्रज‘ संबोधन, पं. लोचन प्रसाद पांडेय जी के लिए प्रयोग करते थे।

प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में लिखी जाने वाली हिन्दी की रोचक चर्चा है, जिसमें 2 ताम्रपत्रों की प्रतिलिपियां भेजने का उल्लेख है। ये ताम्रपत्र संभवतः वही हैं, जो सारंगढ़ में होने की जानकारी अन्य स्रोतों से मिलती है। (मेरे द्वारा इस संबंध में बहुत पहले प्रयास किया जा रहा है, लेकिन सफलता अब तक नहीं मिली है।)

अठारहवीं सदी मध्य अर्थात् रतनपुर राज पर मराठा भोंसलों के आधिपत्य के पूर्व रतनपुर-सम्बलपुर के तनाव और राजनैतिक षड़यंत्र, अस्थिरता का उल्लेख आया है। इस दौर के इतिहास में सारंगढ़-रायगढ़ राजा की भूमिका का महत्व भी उजागर हुआ है।

रोचक यह भी कि इस लंबे गंभीर शोध-सूचनापूर्ण पत्र का समापन करते हुए लिखा गया है कि- ‘‘इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम। जानिएगा।‘‘ और ‘‘लिखते २ थक गया हूं। विशेष विनय लिखने को और कुछ है भी नहीं।‘‘

अपनी ओर से मेरी बात बस इतनी कि धन्य हमारे ऐसे पुरखे। (प्रसंगवश पत्रिका ‘हमर छत्तीसगढ़‘ का अंक-3, जनवरी-दिसंबर 2003 मुकुटधर जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित था, जिसमें डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने अपने लेख में बताया है कि पाण्डेय जी द्वारा 1959 से 1975 के मध्य प्यारेलाल गुप्त जी को लिखे गए लगभग 121 पत्रों को मैंने पढ़ा‘ इस पर श्री मिश्र से चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि उनके पास पं. मुकुटधर के बहुत से पत्रों का संग्रह सुरक्षित है, मैंने उनसे निवेदन किया है कि उसे सुरक्षित और सार्वजनिक करने के लिए डिजिटाइज कर वेब पर लाना आवश्यक मानता हूं और इसमें उन्हें मेरे सहयोग की आवश्यकता हो तो मैं सहर्ष तैयार रहूंगा।)

आगे पत्र का पूरा मजमून-

श्रीराम
रायगढ़
२-१०-६३

मान्यवर गुप्त जी,

७-९ का कार्ड कल मिला। कल रात को डा. शर्मा ने उडिया भाषा में प्रकाशित सम्बलपुर इतिहास नामक पुस्तक ला कर दी जिसकी पृष्ठ संख्या ६४० है। लेखक हैं श्री शिवप्रसाद दाश B.A. M.Ed. विश्व भारती प्रेस सम्बलपुर में सन् १९६२ में प्रथम बार मुद्रित हुई है। कीमत है १५) । ये शिवप्रसाद दाश जी वही हैं जिनका नामोल्लेख स्व. पूज्याग्रज की जीवनी में ”सुधी समादर” के शीर्ष में हुआ है। वे सन् १९२४ में अपने इसी ग्रंथ के संबंध में ‘जयचंद्रिका‘ काव्य की नकल लेने को बालपुर पधारे थे। ‘जयचंद्रिका‘ का उल्लेव ग्रंथ में अनेक स्थलों पर हुआ है पर ग्रन्थकार ने पूज्याग्रज का नामोल्लेलख कहीं नहीं किया है जिनके द्वारा जयचंद्रिका पहले-पहल उन्हें देखने को मिली। खैर! प्रायः ४० वर्ष के उनके परिश्रम का फल है यह ग्रंथ। लगभग सौ पुस्तकों से उन्होंने सहायता ली है जिनका नामोल्लेख अंत में किया है, लेखक ने परिश्रम बहुत किया है, तभी ऐसे ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं।

आपको आश्चर्य होगा, मैंने सरसरी तौर से कल रात को ही १२ बजे तक पूरी किताब देख ली जो बातें आपके मतलब की मिलीं, लिख रहा हूं-

(१) प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में कैसी हिन्दी लिखी जाती थी ‘शीर्षक‘ लेख के काम की दो चीजें मिली- २ ताम्रपत्र जिनकी प्रतिलिपियॉं भेज रहा हूं। इनमें से एक-रतनपुर के राजा राजसिंह के पत्र का समसामयिक है। राजसिंह का पत्र संवत् १७४५ का है, छत्रसाय का लेख संवत १७४७ का। रतनपुर और सम्बलपुर में लगभग ६० कोस का अन्तर है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से इनका अध्ययन बड़ा मजेदार होगा। बस्तर वाला लेख संवत् १७६० का है। दूसरा ताम्रपत्र जैतसिंह का लगभग ८० वर्ष पीछे का है संवत् १८३८ का। अब आपको ४ प्राचीन लेख मिल गए - चारों प्रामाणिक। इन ताम्रपत्रों से तो प्रमाणित होता है कि उस समय सम्बलपुर (उड़ीसा हीराखंड) की राजभाषा हिन्दी थी।

(२) इस ग्रंथ के द्वारा पता चलता है कि सम्बलपुर के महाराजा छत्रसाय की (सं. १७४७ के लगभग) जिनके ताम्रपत्र का जिक्र उपर आया है, १२ रानियां थीं। रतनपुर की हैहय राजकुमारी उनकी अन्यतमा महिषी थीं। इस रानी के गर्भ से बूढ़ा राय का इस जन्म हुआ। नवजात शिशु को देखने के लिए रतनपुर राजा सम्बलपुर गये थे (राजा का नाम नहीं दिया है पर संवत् १७४७ के लगभग रामसिंह रतनपुर के राजा थे जिनका पत्र सं० १७४५ का लभ्य है, यह स्पष्ट है।) रत्नपुर की राजकुमारी पुरुषोत्तम सिंह और मान मिश्र नामक दो राजकर्मचारियों को बहुत मानती थी। अन्यान्य कर्मचारी उनसे ईर्ष्या करते थे। उन्होंने राजा छत्रसाय से चुगली खाई कि रतनपुर के राजा और राजकुमारी बूढ़ाराय को गद्दी पर बिठाने का षड़यन्त्र कर रही हैं। उन्होंने जालसाजी द्वारा मिथ्या आरोप को प्रमाणित कर दिया। इस पर राजा ने माता-पुत्र को जीवन्त समाधि का दण्ड दिया। खबर पा कर रत्नपुर के राजा बड़े क्रुद्ध हुए। उन्होंने नागपुर के भोंसलों की सहायता से सम्बलपुर पर आक्रमण कर छत्रसाय को बन्दी बनाया। छत्रसाय क्षमा-भिक्षा मांगने पर मुक्त हुए। उन्होंने शेष जीवन पुरी क्षेत्र में व्यतीत कर पाप का प्रायश्चित किया। पुरी में उनकी मृत्यु हुई।

ज्ञातव्य यह है कि क्या रतनपुर के इतिहास से इन बातों की पुष्टि होती है?

(३) रायगढ़ और सारंगढ़ के केवल उन्हीं राजाओं का उल्लेख यहां पाया जाता है जिनका सम्बलपुर के इतिहास से सम्बंध रहा है, यों वे सम्बलपुर के करद राजा थे, अठारह गढ़ों में सारंगढ़ और रायगढ़ भी थे।

सारंगढ़ के राजा बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने २ बार सम्बलपुर के महाराजाओं को राज्य-भ्रष्ट होने पर उनका सहाय्य कर उन्हें फिर से गद्दी पर बिठाया। वे पहले देवान कहलाते थे।

(अ) नरवर राय के पुत्र भीखराय देवान ने महाराजा बलभद्र साय के लिए बौत्नू-विजय करके उनसे ‘सोहागपुर सरखों‘ नामक १२ गॉंव पुरस्कार में प्राप्त किए थे। भीखराय देवान ने संवत् १६२४ से १६४४ तक राज्य किया था।

(ब) सम्बलपुर के महाराजा छत्रसाय के समय सैनिकों ने विद्रोह कर राजधानी को हस्तगत कर लिया। छत्रसाय अपने पुत्र अजित सिंह को साथ लेकर सारंगढ़ आए। उस समय उद्योतसाय सारंगढ़ के देवान थे। सैनिक विद्रोह का हाल पा कर उन्होंने अविलम्ब अपनी सेना सज्जित कर महाराजा सहित उत्तराभिमुख यात्रा की। वे रायगढ़ पहुंचे रायगढ़ में उस समय ठाकुर दुर्जय सिंह सम्बलपुर के सहायक सामन्त राजा थे। उन्होंने भी अपनी सेना उनके साथ कर दी। सारंगढ़ और रायगढ़ की सेना ने मिलकर सम्बलपुर के सैनिक विद्रोह का दमन किया। महाराजा छत्रसाय ने प्रसन्न होकर किकरदा परगने से ४२ गांव उद्योतसाय को ताम्रपत्र के द्वारा पुरस्कार में दिए। (संवत् १७१७)

(स) सबलपुर के राजा जैतसिंह के समय अकबर राय दीवान सर्वेसर्वा बन गया। महाराजा उसके भय से मंडला भाग गए। सारंगढ़ के राजा विश्वनाथ साय अपनी सेना लेकर सम्बलपुर गये। अकबर राय देवान को मार कर जैतसिंह को फिर से गद्दी पर बिठाया। तब उन्हें सरिया का परगना इनाम में मिला। इसका प्रमाण जैतसिंह द्वारा प्रदत्त सं० १८३८ का ताम्रपत्र है।

(4) रायगढ़ के सम्बंध में इतना ही लिखा है- ‘‘ठाकुर दुर्जय सिंह महाराजा छत्रसाय के समय सम्बलपुर के सहायक सामंत राजा थे। वे गौड़ (गोंड) वंश के थे। छत्रसाय ने उन्हें राजा की उपाधि दी थी। दुर्जय सिंह के पूर्व पुरुष नागपुर के अन्तर्गत बैरागढ़ (चांदा?) से आकर प्रथम फुलझर में रहे, उसके बाद सारंगढ़ और अंत में, रायगढ़ आए जहां उन्होंने अपने वंश की प्रतिष्ठा की। परवर्ती काल में रायगढ़ के राजा को बरगड़ का परगना भी प्राप्त हो गया। बाज पक्षी इनका वंश या राजचिन्ह है।

मदनसिंह1 जिसका जिक्र आपने अपने कार्ड में किया है दुर्जय सिंह के पहले हुए या पीछे। मदन सिंह का काल निर्णय पं. ज्वा. प्र. मिश्र ने यदि किया होगा तो पता चलेगा। दुर्जय सिंह महाराजा छत्रसाल के समय थे जिनका काल संवत् १७४७ के लगभग है।
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रायगढ़ के राजवंश के संबंध में मुझे इतनी और जानकारी है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज्य जब बंगाल और नागपुर में भोसलों का राज्य था तब राजा जुझार सिंह के समय रायगढ़ का राज्य बड़ा शक्तिशाली था। वह उन दोनों बड़े राज्यों के मध्य में Buffer State के समान था। जुझार सिंह के साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी की संधि हुई थी। जुझार सिंह ने ही शायद बरगड़ का किला सर किया था। रायगढ़ राज्य की खरसिया तहसील में बरगड़ का परगना है। मैं जब राजशाही में दण्डाधिकारी था मैंने बरगड़ परगने का दौरा किया था, तभी बरगड़ के कुछ भग्नावशेषों को जा कर देखा था।

जुझार सिंह का समय क्या है, नहीं कह सकता। पं. ज्वा. प्र. जी ने शायद कुछ जानकारी दी हो। इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम। जानिएगा। लिखते 2 थक गया हूं। विशेष विनय लिखने को और कुछ है भी नहीं।

आपका
मुकुटधर

सारंगढ़ के किसी ऐसे सज्जन का नाम मुझे नहीं मालूम जो आपको आवश्यक जानकारी दे सके।


मुकुटधर पांडेय जी का एक अन्य पत्र, जिसका महत्व स्वयं स्पष्ट है-
पोस्ट कार्ड पर रायगढ़ डाकखाने की मुहर 23.1.88 की
तथा अंबिकापुर 28.1.88 की है।

श्रीराम

रायगढ़ 22-1-88

(ठीक दिखता नहीं अन्दाज़ से लिख रहा हूं। जानिएगा।)

श्री छात्राएं
शासकीय कन्या उ.मा. शाला
अम्बिकापुर

आप लोगों का मुद्रित पत्र
प्राप्त हुआ। धन्यवाद।
आप लोगों को यह जान कर
दुःख होगा कि इस समय
(93 वर्ष की अवस्था में)
मोतियाबिन्दु से पीड़ित हूं-
आंखें काम नहीं कर रही हैं,
डा. ऑपरेशन की सलाह दे रहे हैं,
पशोपेश में हूं।

मुझे इस बात का अत्यन्त
खेद है कि मैं आप लोगों की
मांग पूरा करने में असमर्थ हूं।
मेरी बहुत सी कविताएं
संग्रह ग्रन्थों में आपको
मिलेंगी। आप उनमें से कोई

कविता अपने संग्रह के लिए
ले सकती हैं। मुझे कोई
आपत्ति नहीं। इस अवस्था में
चित्र भी भेजने में असमर्थ हूं,
क्षमा चाहता हूं।

प्रस्तावित संग्रह ग्रन्थ की
सफलता के लिए शुभकामना
सहित, आप लोगों का

मुकुटधर पाण्डेय

श्री छात्राएं
द्वारा प्राचार्य
शा.क.उ.मा. शाला
अम्बिकापुर (म.प्र.)
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हरिप्रसाद अवधिया जी के उपन्यास की लिए उनकी शुभाशंसा का नमूना भी उल्लेखनीय है-

‘मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता यह है कि अवधिया जी ने ‘धान के देश में‘ नाम देकर पहली बार उपन्यास को रचना की है। उपन्यास रचना में उन्हें कितनी सफलता हुई है इसका निर्णय तो सुविज्ञ आलोचक और मर्मज्ञ पाठक ही करेंगे। अवधिया जी पर मेरा विशेष स्नेह है। अपने स्नेह पात्रों की रचनाओं में हम लोग गुण-दोष की विवेचना नहीं करते। मैं तो यही कहूँगा कि उनकी इस प्रथम कृति से मुझे असन्तोष नहीं हुआ है। मुझे यह आशा भी है कि जब वे अन्य उपन्यास लिखेंगे तो उन्हें उत्तरोत्तर अधिक से अधिक सफलता प्राप्त होगी।‘
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Friday, October 8, 2021

मेघ-बसंत

रहंगी, चकरभाटा कैम्प वाले डॉ. बसंतलाल शर्मा, आयुर्वेद चिकित्सक थे, रससिद्ध। उनकी रसिकता, शास्त्र और साहित्य-साधना में उनकी पैठ के साथ थी।

मेनका की कन्याओं में शकुंतला (और दुष्यंत) की कथा प्रचलित है। मेनका की एक और कन्या प्रमद्वरा की कथा महाभारत के आदि पर्व में है। यही प्रमद्वरा डॉ. बसंतलाल शर्मा से मेरे लगाव की कड़ी बनी। सन 2007 में वे इसी ‘प्रमद्वरा‘ शीर्षक से खण्ड काव्य रच रहे थे। इस विशिष्ट पात्र की कथा का कम प्रचलन है, जीवन-रक्षा और यौवन के लिए भी आयु देने लेने के कई प्रसंग पुराने आख्यानों में हैं, किंतु यहां बताया जाता है कि सांप काटने से मृत प्रमद्वरा के जीवन के लिए पति रूरू ने अपनी आधी आयु दे दी थी। इस कथा के अन्य उल्लेख और पहलुओं की रोचक व्याख्या शर्मा जी किया करते थे।

पता लगा कि उनकी साधना निरंतर है, किन्तु उन्हीं के शब्दों में ‘अरसिकेषु काव्यानिवेदनम्‘ करना नहीं चाहते थे, इसलिए प्रकाशन में रुचि नहीं ली। इसी बातचीत में उनके ‘मेघदूत पद्यानुवाद‘ की चर्चा हुई, जिस पर मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद करने वाले साहित्य-मनीषी पं. मुकुटधर पाण्डेय जी ने 11.11.1979 को सम्मति-आशीर्वाद दिया था, इन शब्दों में-

श्रीराम
श्री डॉ. बसंत शर्मा कृत ‘मेघदूत‘ का पद्यानुवाद मुझे पढ़ने सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यों तो हिन्दी में इसके अनेकानेक अनुवाद हो चुके है पर जो सहजता ओर सरसता इस अनुवाद में पाई जाती है- वह ब्रजभाषा के पूर्ण कवि कृत अनुवाद को छोड़ मैने कहीं नहीं पाया। 
-अनुवाद की विशेषता यही है कि भाषा मौलिक सी जान पड़े।
शर्माजी की भाषा से मैं बड़ा प्रभावित हुआ। यह अनुवाद यदि छप पाता है तो इससे हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि होगी, यह मेरा विश्वास है।
इत्यलम्!

2007 में पुस्तक छपी। रचनाकार के अनुसार ‘‘अब तक कुछ मन से, कुछ बेमन से कहने वाले मिलते थे। अब जा कर मन से कहने और कहने वाला मिला- उसके ही सार्थक प्रयास से यह प्रकाशित हो सका है।‘‘ शर्माजी के आग्रह का मान रखते, इस कृति पर अपनी भावना मैंने व्यक्त की थी, इस तरह-

उमड़ते-घुमड़ते मेघ से कोंपलें फूटने लगती हैं और उनकी गति, भाव-आलंबन बन कर अभिव्यक्त होती रही है, इस क्रम में महाकवि कालिदास की रचना ‘मेघदूत’ व्यापक देश-काल-पात्र की बात बनकर कालजयी है। इसमें आदिम मनोभावों का स्पंदन, वैदिक ऋक् द्रष्टाओं की सौंदर्यानुभूति और विरह संदेश-संप्रेषण की चिरंतनता है। मेघ, दूत के रूप में आकुल-व्याकुल मन की भावाभिव्यक्ति को दिशा देकर, राहत पहुंचाने के लिए ई-मेल से अधिक कारगर रहा है और रहेगा।

मेघदूत के रचनात्मक रूपान्तरणों में मेरे लिए स्मरणीय पद्मश्री पं. मुकुटधर पांडेय का छत्तीसगढ़ी ‘मेघदूत’ तो है ही, एक पुराना फिल्मी गीत भी यादगार है-

‘‘ओ वर्षा के पहले बादल, मेरा संदेशा ले जाना,
असुंवन की बूंदन बरसा कर, अलका नगरी में तुम जाकर,
खबर मेरी पहुंचाना, ओ वर्षा के.....’’

खैर! किसी कृति के रसास्वादन का एक तरीका यह भी है कि उसे पढ़ते हुए आत्मसात् कर, अपने अधिकार की भाषा-शैली में पुनः अभिव्यक्त किया जाय। दूसरे शब्दों में यह एक प्रकार का अनुवाद ही है, किन्तु इसका सौन्दर्य और महत्व इसकी रचनात्मकता में होती है, इसलिए यह भाषान्तरण या अनुवाद से आगे निकल जाता है। कुछ ऐसी ही रचना डॉं. बसन्त शर्मा जी की यह कृति ‘पद्यानुकृत मेघदूत’ है।

डॉ. शर्मा का यह उद्यम रसास्वाद का अपना तरीका है, ऐसा इसलिए भी माना जा सकता है कि सन् 1979 में यह कार्य किया जाकर इसके प्रकाशन के लिए उनके द्वारा तब से कोई प्रयास नहीं किया गया, प्रयास तो उनके द्वारा अभी भी नहीं किया गया, किन्तु संयोगवश यह अब हो रहा है और इस क्रम में मुझे भी डॉ. शर्मा और उनके कृतित्व से परिचित होने का अवसर मिला, यह मेरे लिए सुखद है।

डॉ. शर्मा की साधना, उनके ‘स्वान्तः सुखाय’ से बाहर निकल कर कितनी सीमाएं पार कर लेगी, यह तो सुधी पाठकों से तय होगा, किन्तु साहित्य भण्डार को समृद्ध करती रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।