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Friday, December 27, 2024

कोड़ेगांव सती लेख

यहां प्रस्तुत लेख इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की शोध पत्रिका ‘कला-वैभव’ के अंक-17 (2007-08) में पृष्ठ 107-108 पर प्रकाशित हुआ है। लेख के वाचन तथा भूमिका तैयार करने में सहयोगी अधिकारी श्री जी.एल. रायकवार की मुख्य भूमिका रही है। मूल शिलालेख का अवलोकन मेरे द्वारा नहीं किया गया है, वाचन श्री रायकवार द्वारा लिए तथा उपलब्ध कराए गए छायाचित्र के आधार पर किया जा कर पुष्टि कराई गई है। लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है- 

सारंगदेव के समय का कोड़ेगांव से प्राप्त सती लेख 
- श्री राहुल कुमार सिंह* 
* उप संचालक, संस्कृति विभाग, रायपुर (छ.ग.) 

छत्तीसगढ़ अंचल में महाषाणीय शवाधान संस्कृति के स्मृतिपरक अवशेषों के व्यापक क्षेत्र में बस्तर के वनांचल से लेकर दुर्ग धमतरी तक के मैदानी भाग में मानव संस्कृति की इस धारा में बस्तर अंचल के माड़िया गोंड़ जनजाति की शवाधान परम्परा में स्मृतिपरक काष्ठ स्तंभों में प्रकृति, प्रथा और दर्शन एक साथ समाहित रहते हैं। छत्तीसगढ़ के परवर्ती ऐतिहासिक काल के स्मृतिपरक अवशेषों में योद्धा प्रतिमाओं तथा सती प्रस्तर का अंकन विशेष लोकप्रिय रहा है। खड्ग-ढाल, धनुष-बाण और कटार से सज्जित योद्धा प्रतिमाएं अनेक स्थलों से प्राप्त हुई हैं। युद्ध में प्राणोत्सर्ग और आततायी दस्यु तथा नरभक्षी वन्य जन्तुओं से पीड़ितों की रक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग करने वाले शूरवीरों की प्रतिमाओं का अंकन तथा सम्मान लोक संस्कृति और परम्परा में प्रचलित रही है। ग्रामीण अंचलों में इस प्रकार की प्रतिमाओं की पूजा लोक देवता मानकर की जाती है, जिसमें पूर्ववत रक्षा की भावना सन्निहित होती है। 

छत्तीसगढ़ में प्राचीन सामाजिक प्रथाओं के अंतर्गत सती प्रस्तर, सती स्तंभ तथा शिलापट्ट बहुतायत से मिलते हैं। सामान्य रूप से इन्हें सती स्तंभ के रूप में अभिज्ञान किया जाता है। प्राचीन काल की कलाकृतियां होने से इन्हें पुरावशेषों के अंतर्गत भी रखा जाता है। सती प्रस्तरों का मुख्य लक्षण है- सूर्य, चन्द्र तथा भुजा सहित दायीं हथेली और दम्पति आकृति का रूपांकन। कुलीन, प्रतिष्ठित और धनाढ्य वर्ग से संबंधित अधिकांश सती प्रस्तरों पर लेख मिलते हैं। कुछ सती प्रस्तरों पर शिवलिंग अथवा विष्णु की आराधना रूपायित की जाती है। अधिकांश सती प्रस्तरों पर अंजलिबद्ध दम्पति युगल (पद्मानस्थ अथवा स्थानक) दिखाई पड़ते हैं। आकृति विहीन सती प्रस्तर भी प्राप्त होते हैं। ग्रामीण अंचलों में श्रद्धा से इनकी पूजा होती है। 

छत्तीसगढ़ अंचल से प्राप्त सती प्रस्तरों में जाति अथवा व्यवसाय मूलक प्रतीक चिह्न कोल्हू, हथौड़ी, कुदारी, अश्व भी पाये गए हैं। अभिलिखित सती प्रस्तरों में पारंपरिक रूप से स्वस्ति वाचन, स्थल, वंशावली (कुल पुरुषों के नाम), शासक का नाम, संवत, मास, तिथि, दिन तथा अंत में कुटुम्बियों के लिये शुभ भावना उत्कीर्ण की गई है। 

छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों में लगभग 11-12वीं सदी ईसवी के पश्चात् सती प्रस्तर मिलने लगते हैं। प्राचीन नगर, राजधानी, गिरि- दुर्ग, संगम स्थल, नदियों के तट पर स्थित ग्राम एवं सरोवर और धार्मिक स्थलों के आस-पास सती प्रस्तर विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। कुछ स्थलों के नाम के साथ सती नारी के त्याग, भक्ति, शौर्य तथा चरित्र, किंवदंतियों में जीवित हैं। अभिलिखित सती प्रस्तरों में सती नारी के लोकहित से संबंधित जानकारी के उल्लेख नहीं मिले हैं। राजिम तेलिन का नाम इस अंचल के महत्त्वपूर्ण धार्मिक एवं पुरातत्त्वीय स्थल राजिम और राजीव लोचन के साथ जुड़ा हुआ है। राजिम स्थित सती माता मंदिर के गर्भगृह की भित्ति में दो बड़े आकार के सती पट्ट जड़े हुए हैं। इनमें से एक राजिम तेलिन से संबंधित माना जाता है। दोनों सती प्रस्तरों में मानव आकृतियां एवं कोल्हू का अंकन है। 

सती प्रस्तरों की श्रृंखला में ग्राम कोड़ेगांव (बी) जिला धमतरी से प्राप्त अवशेष लेखन शैली की दृष्टि से विशिष्ट है। यह 57x47x20 से.मी. आकार का है। इसके ऊपरी भाग पर क्रमशः सूर्य, हथेली, कलश और चन्द्र का अंकन है। मध्य में प्रकोष्ठ के भीतर प‌द्मानस्थ दम्पति युगल प्रदर्शित हैं। प्रतीक चिन्हों के नीचे, प्रकोष्ठ के उभार पर लम्बवत एक पंक्ति का लेख अंकित है। शेष अंश प्रकोष्ठ के बायें तथा दायें स्तंभ पर ऊपर से नीचे की ओर दृष्टव्य है। यह सती प्रस्तर एवं लेख श्री संवत् 1435 के अनुसार ईसवी 1378 के लगभग निर्मित है। इसमें तत्कालीन शासक, स्थल तथा संवत की जानकारी होने से ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथा शोधपरक है। 

मूल पाठ 

प्रथम पंक्ति - स्वस्ती श्री सम्वत 1435। श्री सारंगदेव रा (.) काकैर दुर्गे होला साउ पुत्रधानु साउ सति हीराई सास्त 

बायां पार्श्व             दायां पार्श्व 

रलोक समै             भुरमा साउ पु (-) 
सुधी अ                  त् र ऐरू सेठी कृतिः
धीक -                   सुभं भ 
मासे                      वतुः 
(.....) स 
नीच 
रे 
मु 
ल 

शुद्ध पाठ 

स्वस्ति श्री संवत 1435। श्री सारंगदेव राजः कांकैर दुर्गे होला साउ पुत्र धानु साउ सती हीराय पास (प) रलोक समै (-) अधिक मासे (-) सनीचरे मुल भुरमा साउ पुत्र ऐरू सेठी कृतिः शुभं भवतु। अनुवाद स्वस्ति। श्री संवत 1435 में श्री सारंगदेव राजत्वकाल में कांकैर, दुर्ग (किला) के निवासी होला साहू के पुत्र धानु साहू की सास हीराई के परलोक गमन के समय (-) अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) (-) शनिवार के दिन भुरमा साहू के पुत्र ऐरू सेठी के द्वारा निर्मित की गई। शुभ (कल्याण) हो। 
अभिलेख का महत्त्व - यह अभिलेख शासक का नाम, स्थल नाम, जाति सूचक, संवत, मास, दिन एवं पुरुषोत्तम मास की जानकारी के कारण क्षेत्रीय इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस सती प्रस्तर में कलात्मकता भी प्रदर्शित है।

Saturday, September 17, 2022

खैरागढ़ ताम्रपत्र

बात 1989-90 की है। हमलोग रायपुर विश्वविद्यालय में आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र जी के परिसर स्थित प्राध्यापक आवास तथा विश्वविद्यालय के शिक्षण विभाग गए थे। वहां हुई दो खास बात याद है पहली कि शिक्षण विभाग में चर्चा के दौरान पता चला कि इस वर्ष एम.फिल. में 36 विद्यार्थी हैं तो उनके शोध निबंध के लिए विषय तय करने में सब की एक राय बनी कि प्रत्येक को छत्तीसगढ़ के 36 में से एक-एक गढ़, विषय यह ध्यान रखते हुए दिया जाए कि विद्यार्थी उस अंचल का निवासी या उससे परिचित हो।

यहां संदर्भ दूसरी बात का है, वह यह कि मिश्र जी ने अपने निवास पर एक ताम्रपत्र दिखाया। बाकी लोग चर्चा करते रहे, मैंने उनकी अनुमति से वहीं इसका प्रारंभिक पाठ तैयार कर लिया। इस पाठ को सुधार कर अच्छी तरह संपादित कर प्रकाशित कराने का विचार था, मगर ऐसा करना रह गया। पिछले दिनों मेरे द्वारा तैयार किया गया पाठ मिला तो फिर खोजबीन में लगा।

इसका परिचयात्मक प्रारंभिक प्रकाशन शोध पत्रिका ‘प्राच्य प्रतिभा‘ Journal of Prachya Niketan, Bhopal Vol.-V, No.-2, July 1977 में हुआ था। मालूम हुआ कि यह संक्षिप्त परिचय सहित अब इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के संग्रहालय में प्रदर्शित है। इनमें आई जानकारी अंशतः उपयोगी मगर, दोनों अशुद्धियों के कारण भ्रामक है। साथ ही इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के शोध जर्नल ‘कला-वैभव‘, अंक 18-19 वर्ष 2009-10/2010-11 में पृष्ठ-90 पर चित्र सहित संक्षिप्त विवरण डॉ. मंगलानंद झा ने प्रकाशित कराया, जो उपरोक्त चित्र में आई जानकारी के ही अनुरूप है, मगर उसमें ताम्रपत्र की लम्बाई साढ़े 46 सें.मी. व चौड़ाई 31 सें.मी, कुल वजन 1 किलो 974 ग्राम उल्लिखित है। ‘प्राच्य प्रतिभा‘ में लेखक के नाम की त्रुटि के अलावा ताम्रपत्र का आकार भी गलत छपा है। ताम्रपत्र का आकार खैरागढ़ विश्वविद्यालय की जानकारी में भी अशुद्ध है, मगर इस संबंध में श्री चौरे ने स्पष्ट किया कि ताम्रपत्र का वास्तविक आकार 48X30 सेंटीमीटर है। उक्त ताम्रपत्र का चित्र श्री मिश्र के निवास पर उपलब्ध है। उन्होंने कृपापूर्वक उस चित्र से प्रति तैयार करने की अनुमति दी, जो यहां नीचे है। आप महानुभावों के प्रति आभार।

ताम्रपत्र का पूरा पाठ साथ ही इसका संपादन भी संभवतः अभी तक नहीं हुआ है। इसमें विलंब न करते हुए, रुचि रखने वाले अध्येता, जो इसे प्रकाशित भी करा सकते हैं, ऊपर फोटो, जिससे पाठ देखा जा सकता है और नीचे 1989-90 में मेरे द्वारा तैयार पाठ की हस्तलिखित प्रति का चित्र तथा पंक्तिवार पाठ-टेक्स्ट, जिसे शुद्ध करते हुए, संपादित कर प्रकाशित किया जाना है, प्रस्तुत है।

यतो धर्मश्ततोजयाः
श्री
श्री श्री चन्द्रबंसी (याने) सोवनंसी कात्कीयवंस गंगवंसी राजओं का लेख

(पंक्ति 01) सोमबंशी राजाओं के बंस से जरासंघ के पुत्र शहदेव के सौमापी नामक पुत्र होये फेर इस तरह वसावली चालु हुई श्र्सुत
(पंक्ति 02) वान अयुता निर तीत्र सुफत्र ब्रहस्त करमा सु स्रुमद्रासेन मुमत रावल सुनीत सत्यजीत विस्वजीत रीपुजयं ये सव चंद्र
(पंक्ति 03) वंसी कलीजुग के १००० वर्स तक राज करे हैं वाद रीपुंजय नामक राजा से इनकी वंसावली चालु है इस कुल का मुख असथा
(पंक्ति 04) न हस्तनापुर का था जो मुसलमानों के चड़ाई के कार्ण बीर विक्रम देव राजा हस्ततान्पुर छोड़ कर मद्रास की ओर करना
(पंक्ति 05) टक में विक्रमी सम्वत् ८८२ में बुनीयाद डालकर राज अस्थापीत कीये जीन्के पुरत्र प्रताप रुद्रदेव जगदीश पुरी आये
(पंक्ति 06) और चन्दसेखर सुरजवसी से वीजै कर राज प्राप्त कीये इन्के तीन पुत्र प्रथम पुत्र बोधकेसरी देव ७१ वर्स पुरी
(पंक्ति 07) का राज भोग्य किये कीये दुतीये पुत्र कातकी प्रताप राद्रदेव मंन्द्रास में राज कीये इन्के वंसज भीमसेन
(पंक्ति 08) देव मुसलमानी परवर्तन में विक्रमी सम्वत ११८८ सुभ पक्षे भाद्रोपदेमा शापच्चोरिध झूंसी
(पंक्ति 09) के तर्फ जात्रा कर राज्य कीये त्रितीये पुत्र कात्की प्रताप रुद्रदेव नामक राजा का भाई आन्यम
(पंक्ति 10) राज उस अस्थान को छोड़ औरंगल यानी वारगल में आ बसे थे जब मुसलमानों ने इस अस्थान पर चड़ा
(पंक्ति 11) ई की तब अन्यमराजा बस्तर को चला आया और वहाँ पर राज अस्थापीत कीया जिसके वंसज
(पंक्ति 12) हम्मीरदेव उर्फ येमी राजदेव महाराजा हुए तीन्के पुत्र भैराजदेव तीन्के पुत्र पुरसोतमदेव
(पंक्ति 13) जगदीस जाकर मन्दीर साफ कराकर अपने पुरी राजवंश में शामिल हो मादुला पांजी लिखा
(पंक्ति 14) य जिन्के पुत्र जैसिंहदेव के पुत्र नरसिंहदेव के पुत्र प्रतापराजदेव जीन्के पुत्र जगदीस देव
(पंक्ति 15) जिन्के पुत्र विरनरायदेव इन्के पुत्र विरसिंहदेव इन्की रानी चन्दलिन बदनकुमारी महारानी
(पंक्ति 16) बिशए दीगपालदेव पुत्र प्राप्त हुये ते दिगपालदेव बिबाह कीन बरदी के चन्देल राव रतन राजा
(पंक्ति 17)वो कन्या अजबकुमारी महारानी विशये दो पुत्र उतपन्न हुये प्रथम पुत्र रक्षपालदेव जो ब
(पंक्ति 18) स्तर का राज भोग्य किये ऐ राजा चालक बृहमन का आसेप लेते हुये बंस वल्दकर रक्षा किये
(पंक्ति 19) दुतिय पुत्र अनंगपाल देव जो पुरी पुरसोत्तमदेव के पुष्प पुत्र हो कर सिहावा में शेस साल छिपकर राज किये इन्के पुत्र वीर
(पंक्ति 20) कान्हरदेव उर्फ करनेस्वरदेव जिन्के वंस का यह लेष लिषा जाता है बौध केसरीदेव पुरी नरेश के त्रितीये पुस्त
(पंक्ति 21) में पुरसोतम देव हुये और समुन्द्र की रेनुका से श्री जगनाथ जी के मंदिर को निकालकर सुना सजाकर श्रीकृष्णाजि के
(पंक्ति 22) उस पिंडज को लाकर चन्दन के घरे रामेरष कर अस्थापना की जो पान्डवों के जलाने से बाकी रह गया था वो आोडीया राज थापेतिन
(पंक्ति 23) के पट पुस्त में कर्ज केसरी देव जिन्के पुत्र (दुतिये) पुरसोतमदेव जो अपने जेष्ठ पुत्र सिध्द केसरीदेव को पुरी का राज सर्मपन कर
(पंक्ति 24) कुस्ट रोग्ग ग्रसित सिहावा आये कुन्ड में अशनान कर कुष्ठ नास किये वो सिहावा में रहै दिगपालदेव से बस्तर राजा से अनंगपाल
(पंक्ति 25) देव नामक पुत्र मांग पुस्य पुत्र माने और सिहावा राज प्राप्त कर प्राणांयाम बैकुठ गये अनंगपाल थोड़े दिन छिपकर राज्य
(पंक्ति 26) किये जिन्हें पुत्र वीर कान्हरदेव विवाह कनि भोपालादेवी से विष्यात पुरी से मदत लाये कर श्री साके १२४२ रुद्र नाम
(पंक्ति 27) सम्वतसरे सुभ पक्षे पंचम्यांतिथौ सिहावा नाम नगरे श्रृड्गी रिषि आश्रमे वर्तमान काकैर नाम नगरे सोमबंसी व्याघ्र प
(पंक्ति 28) द अत्रि गोत्र प्रथम विषयात हो सिहावा राज किये तिनके पुत्र कपिल नरेन्द्र देव के पुत्र तानुदेव जो सिहावा मे राज करते
(पंक्ति 29) हुये कांकेर नौरंगपुर की जमिदारी को भैना (याने) कड़ार से फते कर दोनों तालूका में राज कीये
(पंक्ति 30) ते सिहावा-कांकैर का राज करते हुए नागवंसि छत्रीयों से धमतरी दाहेज में पाये धमतरी अमल कर तीनो तालुका में राज कीये
(पंक्ति 31) जिन्के पुत्र अजै नरेनद्रदेव तिनों तालुका में राज किये इन्के पुत्र हमिरदेव तीनों तालुका में राज कीये तिन्के पुत्र रुद्रदेव धर्मशील
(पंक्ति 32) सिव भक्त राजा भये रुद्रदेव राजा के पधारे रुद्रेश्वर महादेव महानदी के तीर में धमतरी के नजीक इन्के पुत्रं हिमं
(पंक्ति 33) चल साह देव धमतरी में गद्दी कर तीनो तालुका में राज किये अर्थ रुद्रदेवराजा के प्रसंसा में पत्र लिषाये
(पंक्ति 34) मैथिल रामचरणदास लिषे के सम्बत १७०७ मासोतमे मासे फालगुन मास कृष्ण पछे सुभ तिथौउ
(पंक्ति 35) चतुरदसी सुभनाम नछत्रे श्री रुद्रेस्वर महादेव के पूजान उत्साह सहित पूर्ण भये अस राजा रुद्रदेव सम शिव भक्त आज राजा कल जुग में थोर
(पंक्ति 36) होई है - इति सुभमस्ताः
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Saturday, August 28, 2021

कांकेर सोमवंश - बालचन्द्र

कांकेर का प्राचीन सोम-वंश
बालचन्द्र जैन

प्राचीन लेखों में कांकेर को काकयर, काकरय अथवा काकैर कहा गया है।(1)

कांकेर के प्राचीन सोमवंश के संबंध में पांच उत्कीर्ण लेखों से कुछ जानकारी प्राप्त होती है। वे लेख हैं, (1) बाघराज का गुरुर स्तंभ लेख, (2) कर्णराज का सिहावा लेख, (3)-(4) पम्पराज के दो ताम्र पत्र लेख और (5) भानुदेव का कांकेर शिलालेख। गुरुर के स्तंभ लेख में संवत्सर का उल्लेख नहीं है। सिहावा के लेख में शकसंवत 1114 (ईस्वी 1191-92) का उल्लेख है। पम्पराज के ताम्रपत्र लेख क्रमशः कलचुरि संवत् 965 और 966 (ईस्वी 1213 और 1214) के हैं, जबकि भानुदेव का शिलालेख शक संवत् 1242 (ईस्वी 1320) का है।

सिहावा का शिलालेख कर्णराज के राज्य काल में उत्कीर्ण किया गया था। (2) उस लेख में कर्णराज के पिता बोपदेव, पितामह वाघराज और प्रपितामह सिंहराज का उल्लेख है। लेख में दी गयी तिथि के अनुसार, कर्णराज ईस्वी सन् 1191-92 में राज्य कर रहा था। यदि उसके पूर्ववर्ती नरेशों ने औसतन बीस-बीस वर्ष राज्य किया हो तो सिंहराज का राज्यकाल लगभग 1130-1150 ईस्वी, बाघराज का 1150-1170 ईस्वी और वोपदेव का 1170-1190 ईस्वी संभाव्य है। यदि ऐसा है तो कलचुरि पृथ्वीदेव (द्वितीय) के सेनापति जगपाल ने काकयर का प्रदेश सिंहराज से जीता होगा। इस काकयर विजय का उल्लेख करने वाला जगपाल का राजिम शिलालेख कलचुरि संवत 896 (ईस्वी 1144) का है।

सिहावा के लेख से ज्ञात होता है कि काकैर के कर्णराज ने देवहृद में पांच मंदिरों का निर्माण कराया था और छठे मंदिर का निर्माण अपनी रानी भोपाल्ला देवी के नाम पर कराया था। इससे जान पड़ता है कि सिहावा के तीर्थस्थान को देवहृद भी कहते थे। जगपाल के राजिम शिलालेख में उसे ही मेचका सिहावा कहा गया प्रतीत होता है।

कर्णराज के पितामह वाघ देव के राज्यकाल का उल्लेख गुरुर के स्तंभ लेख में है।(3) वह लेख सिहावा के लेख से प्राचीन है। उसमें कांकेर को काकराय कहा गया है। लेख में वाघदेव के राज्यकाल में एक नायक द्वारा काल भैरव के मंदिर को भूमिदान किये जाने की सूचना दी गई है। इस वाघदेव को पश्चातवर्ती नरेश भानुदेव के कांकेर शिलालेख में व्याघ्र के नाम से स्मरण किया गया है।

वाघदेव के पुत्र और उत्तराधिकारी वोपदेव के पश्चात इस वंश का राज्य तीन शाखाओं में बंट गया प्रतीत होता है। सिहावा के लेख के अनुसार कर्णराज उसका उत्तराधिकारी था पर पम्पराज के ताम्रपत्रलेखों में सोमराज को और भानु देव के शिलालेख में कृष्ण को बोपदेव का उत्तराधिकारी कहा गया है।

पम्पराज के ताम्रपत्रलेख कांकेर से लगभग 30 किलोमीटर दूरवर्ती तहनकापार नामक स्थान के एक प्राचीन कुएं में प्राप्त हुये थे।(4) प्रथम ताम्रपत्र लेख कलचुरि संवत् 965 (ईस्वी 1213) का और द्वितीय ताम्रपत्र लेख संवत् 966 (ईस्वी 1214) का है। प्रथम ताम्रपत्र लेख में काकैर के राजाधिराज परमेश्वर, परममाहेश्वर, सोमवंशान्वयप्रसूत, कात्यायनीवरलब्ध- पञ्चमहाशब्दाभि-नंदित, निजभुजोपार्जित महाभाण्डलिक श्री पम्पराजदेव के राज्यकाल का उल्लेख है। राजा के अलावा उसकी रानी लक्ष्मीदेवी, कुमार बोपदेव और प्रधान (अमात्य) डोगरा का भी नामोल्लेख है। कुछ अन्य अधिकारियां का भी उल्लेख किया गया है। यह लेख विष्णुशर्मा द्वारा ताम्रपत्रों पर लिखा गया था और श्रेष्ठि केशव ने उत्कीर्ण किया था। लेख की तिथि भाद्रपद वदि 10, सोमवार, मृग नक्षत्र, (कलचुरि) संवत् 965 है जो 12 अगस्त 1213 ईस्वी को पड़ी थी। ताम्रपत्र पाडिपत्तन में दिया गया था। डाक्टर मिराशी जी ने इसको पहचान उस पाडे नामक ग्राम से की है जो कांकेर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह व्यापारिक अभिलेख गैता लक्ष्मीधर को दिया गया था और जपरा तथा चिखली ग्रामों का राजस्व तय करने से संबंधित है। इस लेख में विजयराजटंक नामक सिक्के का उल्लेख मिलता है।

द्वितीय ताम्रपत्रलेख में परमभट्टारक महामाण्डलिक पम्पराजदेव द्वारा धृतकौशिक गोत्र के गैन्ता माधवशर्मा के पौत्र, गैन्ता गदाधर के पुत्र, गैन्ता लक्ष्मीधर शर्मा को (जो यजुर्वेद का पाठभि था) ईश्वर नाम संवत्सर में कार्तिक मास के रविवार को, चित्रा नक्षत्र में, सूर्यग्रहण के समय, श्री प्रांकेश्वर के समक्ष कोंगरा नाम का ग्राम दान में दिये जाने और उसी समय पम्पराज के पुत्र कुमार वोपदेव द्वारा आण्डलि ग्राम दान में दिये जाने का उल्लेख किया गया है। इस लेख में भी रानी लक्ष्मीदेवी और कुमार वोपदेव का उल्लेख है। प्रथम लेख के समय प्रधान (अमात्य) डोगरा थे, पर इस लेख के समय बाघु उस पद पर अधिष्ठित थे। लेख में दी गयी तिथि 5 अक्टूबर 1214 को पड़ती है। उस दिन कांकेर में सूर्य ग्रहण दिखायी पड़ा था। ईश्वर नामक संवत्सर उत्तर भारतीय गणना के अनुसार 2 सितम्बर 1212 से 29 अगस्त 1213 तक ही रहा। 5 अक्टूबर 1214 ईस्वी को उत्तर भारतीय गणनानुसार बहुधान्य संवत्सर था और दक्षिण भारतीय गणनानुसार भाव नामक संवत्सर था। डाक्टर मिराशी जी ने अपने ग्रंथ में इस संबंध में विवेचना की है।(5) डाक्टर मिराशी पाडी को पम्पराज की द्वितीय राजधानी मानते हैं।

पम्पराज के पिता सोमराज के नाम के साथ परम भट्टारक महामाण्डलीक उपाधि का उल्लेख किया गया है जबकि पितामह वोपदेव के नाम के साथ केवल महामांडलिक पद का प्रयोग हुआ है। इससे उनकी राजकीय श्रेणी का बोध होता है।

अंतिम उत्कीर्ण लेख भानुदेव के समय का है।(6) वह कांकेर में मिला था। उममें स्थान का प्राचीन नाम काकैर दिया हुआ है। लेख से ज्ञात होता है कि भानुदेव के राज्यकाल में नायक दामोदर के प्रपौत्र, पोलू के पौत्र, भीम के पुत्र नायक वासुदेव ने भगवान् शंकर के दो मंदिरों का निर्माण कराया था जो मण्डप, पुरतीभद्र और प्रतोली से शोभित थे तीसरा मंदिर क्षेत्रपाल का बनवाया, एक सरोवर खुदवाया तथा कौदिक नामक बांध निर्मित कराया गया था। शक्ति कुमार द्वारा लिखित यह प्रशस्ति शक संवत 1242 में, रौद्र नामक संवत्सर में, ज्येष्ठ वदि पंचमी, तदनुसार 27 या 28 मई 1320 ईस्वी के दिन समारोपित की गई थी। इसमें दी गयी सोमवंश की वंशावली में क्रमशः सिंहराज व्याघ्र, बोपदेव, कृष्ण, जैतराज, सोमचन्द्र और भानुदेव के नाम हैं। 

इस प्रशस्ति में सिंह राज से लेकर वोपदेव तक तीन राजाओं के नाम उसी क्रम में है जिस क्रम में सिहावा के कर्णराज के लेख में मिलते हैं। पर वोपराज के पुत्र और उत्तराधिकारी का नाम सिहावा के लेख में कर्णराज, भानुदेव की प्रशस्ति में कृष्ण और पम्पराज के ताम्रलेख मे सोमराज बताया गया है। ऐसा लगता है कि वोपदेव के पश्चात कांकेर के सोमवंश की तीन शाखाएं हो गयी थीं और उसके तीनों पुत्र राजा बन बैठे थे। किंतु तीनों ही शाखाओं के नरेश स्वयं को कांकेर का राजा बताते हैं। इसका कारण समझ में नहीं आता। यह भी संभव है कि सिहावा और तहनकापार लेखों वाली शाखा एक रही हो और भानुदेव वाली दूसरी। वैसी स्थिति में कर्णराज की मृत्यु के पश्चात् (संभवतः उसके निस्संतान होने के कारण) उसका चचेरा भ्राता (सोमराज का पुत्र) पम्पराज राजसिंहासन पर अभिषिक्त हुआ होगा और उसके एक अन्य चचेरे भाई (कृष्ण के पुत्र) जैतराज ने भिन्न शाखा स्थापित की होगी। उस शाखा में जैतराज के पुत्र सोमचन्द्र और पौत्र भानुदेव ने राज्य किया।

इस प्रकार सिंहराज (लगभग 1130 ईस्वी) से लेकर भानुदेव (1320 ईस्वी) तक ये सोमवंशी नरेश लगभग 200 वर्षों तक कांकेर के प्रदेश पर राज्य करते रहे। भानुदेव के अनन्तर वंश का प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। पर स्वातंत्र्य-पूर्व समय तक सोमवंशी ही कांकेर के अधिपति रहे हैं। 

ऊपर वर्णित उत्कीर्ण लेखों में कांकेर के सोमवंशियों की जो वंशावलियां मिली हैं, वे निम्नलिखित प्रकार हैं-

सिहावा का लेख       गुरुर का लेख       तहकापार ताम्रलेख             कांकेर लेख
 
सिंहराज                         -                                -                                 सिंहराज 
     ।                                                                                                       । 
वाघराज                     वाघराज                          -                                   व्याघ्र 
     ।                                                                                                       । 
वोपदेव                          -                            वोपदेव                               वोपदेव 
     ।                                                              ।                                       । 
कर्णराज                         -                         सोमराज                                कृष्ण 
                                                                                                            
(1191 ईस्वी)                   -                         पम्पराज                              जैतराज 
                                                              (1213 ईस्वी)                              । 
                                                                     ।                                        । 
                                                                 बोपदेव                               सोमचन्द्र 
                                                                                                               । 
                                                                                                           भानुदेव 
                                                                                                        (1320 ईस्वी)

पाद टिप्पणियां-

(1) कलचुरि पृथ्वीदेव (द्वितीय) के राजिम शिलालेख में काकयर, गुरुर के बाघराज के स्तंभ लेख में काकरय और कर्णराज के सिहावा लेख में काकैर।
(2) एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द नौ, पृष्ठ 182 इत्यादि; हीरालाल की सूची, द्वितीय संस्करण, कमांक 182।
(3) इंडियन एक्टिक्वरी, 1926, पृष्ठ 44, हीरालाल की सूची, द्वितीय संस्करण, क्रमांक 235।
(4) एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द नौ, पृष्ठ 166 इत्यादि हीरालाल की सूची, क्रमांक 300, 301, कार्पस इन्सक्रिप्शनम् इंडिकेरम्, चार, पृष्ठ 596-599, 599-602।
(5) कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम्, चार।
(6) एपि. इं., जिल्द नौ, पृष्ठ 123 इत्यादि, हीरालाल की सूची, क्रमांक 299; उत्कीर्ण लेख पृष्ठ 152 इत्यादि।



यह लेख संभवतः महाकोशल इतिहास परिषद की पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। लेख, अन्यथा महत्व के साथ-साथ बालचन्द्र जी की सहज-सपाट अनूठी शैली का भी नमूना है।