बालचन्द्र जैन
प्राचीन लेखों में कांकेर को काकयर, काकरय अथवा काकैर कहा गया है।(1)
कांकेर के प्राचीन सोमवंश के संबंध में पांच उत्कीर्ण लेखों से कुछ जानकारी प्राप्त होती है। वे लेख हैं, (1) बाघराज का गुरुर स्तंभ लेख, (2) कर्णराज का सिहावा लेख, (3)-(4) पम्पराज के दो ताम्र पत्र लेख और (5) भानुदेव का कांकेर शिलालेख। गुरुर के स्तंभ लेख में संवत्सर का उल्लेख नहीं है। सिहावा के लेख में शकसंवत 1114 (ईस्वी 1191-92) का उल्लेख है। पम्पराज के ताम्रपत्र लेख क्रमशः कलचुरि संवत् 965 और 966 (ईस्वी 1213 और 1214) के हैं, जबकि भानुदेव का शिलालेख शक संवत् 1242 (ईस्वी 1320) का है।
सिहावा का शिलालेख कर्णराज के राज्य काल में उत्कीर्ण किया गया था। (2) उस लेख में कर्णराज के पिता बोपदेव, पितामह वाघराज और प्रपितामह सिंहराज का उल्लेख है। लेख में दी गयी तिथि के अनुसार, कर्णराज ईस्वी सन् 1191-92 में राज्य कर रहा था। यदि उसके पूर्ववर्ती नरेशों ने औसतन बीस-बीस वर्ष राज्य किया हो तो सिंहराज का राज्यकाल लगभग 1130-1150 ईस्वी, बाघराज का 1150-1170 ईस्वी और वोपदेव का 1170-1190 ईस्वी संभाव्य है। यदि ऐसा है तो कलचुरि पृथ्वीदेव (द्वितीय) के सेनापति जगपाल ने काकयर का प्रदेश सिंहराज से जीता होगा। इस काकयर विजय का उल्लेख करने वाला जगपाल का राजिम शिलालेख कलचुरि संवत 896 (ईस्वी 1144) का है।
सिहावा के लेख से ज्ञात होता है कि काकैर के कर्णराज ने देवहृद में पांच मंदिरों का निर्माण कराया था और छठे मंदिर का निर्माण अपनी रानी भोपाल्ला देवी के नाम पर कराया था। इससे जान पड़ता है कि सिहावा के तीर्थस्थान को देवहृद भी कहते थे। जगपाल के राजिम शिलालेख में उसे ही मेचका सिहावा कहा गया प्रतीत होता है।
कर्णराज के पितामह वाघ देव के राज्यकाल का उल्लेख गुरुर के स्तंभ लेख में है।(3) वह लेख सिहावा के लेख से प्राचीन है। उसमें कांकेर को काकराय कहा गया है। लेख में वाघदेव के राज्यकाल में एक नायक द्वारा काल भैरव के मंदिर को भूमिदान किये जाने की सूचना दी गई है। इस वाघदेव को पश्चातवर्ती नरेश भानुदेव के कांकेर शिलालेख में व्याघ्र के नाम से स्मरण किया गया है।
वाघदेव के पुत्र और उत्तराधिकारी वोपदेव के पश्चात इस वंश का राज्य तीन शाखाओं में बंट गया प्रतीत होता है। सिहावा के लेख के अनुसार कर्णराज उसका उत्तराधिकारी था पर पम्पराज के ताम्रपत्रलेखों में सोमराज को और भानु देव के शिलालेख में कृष्ण को बोपदेव का उत्तराधिकारी कहा गया है।
पम्पराज के ताम्रपत्रलेख कांकेर से लगभग 30 किलोमीटर दूरवर्ती तहनकापार नामक स्थान के एक प्राचीन कुएं में प्राप्त हुये थे।(4) प्रथम ताम्रपत्र लेख कलचुरि संवत् 965 (ईस्वी 1213) का और द्वितीय ताम्रपत्र लेख संवत् 966 (ईस्वी 1214) का है। प्रथम ताम्रपत्र लेख में काकैर के राजाधिराज परमेश्वर, परममाहेश्वर, सोमवंशान्वयप्रसूत, कात्यायनीवरलब्ध- पञ्चमहाशब्दाभि-नंदित, निजभुजोपार्जित महाभाण्डलिक श्री पम्पराजदेव के राज्यकाल का उल्लेख है। राजा के अलावा उसकी रानी लक्ष्मीदेवी, कुमार बोपदेव और प्रधान (अमात्य) डोगरा का भी नामोल्लेख है। कुछ अन्य अधिकारियां का भी उल्लेख किया गया है। यह लेख विष्णुशर्मा द्वारा ताम्रपत्रों पर लिखा गया था और श्रेष्ठि केशव ने उत्कीर्ण किया था। लेख की तिथि भाद्रपद वदि 10, सोमवार, मृग नक्षत्र, (कलचुरि) संवत् 965 है जो 12 अगस्त 1213 ईस्वी को पड़ी थी। ताम्रपत्र पाडिपत्तन में दिया गया था। डाक्टर मिराशी जी ने इसको पहचान उस पाडे नामक ग्राम से की है जो कांकेर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह व्यापारिक अभिलेख गैता लक्ष्मीधर को दिया गया था और जपरा तथा चिखली ग्रामों का राजस्व तय करने से संबंधित है। इस लेख में विजयराजटंक नामक सिक्के का उल्लेख मिलता है।
द्वितीय ताम्रपत्रलेख में परमभट्टारक महामाण्डलिक पम्पराजदेव द्वारा धृतकौशिक गोत्र के गैन्ता माधवशर्मा के पौत्र, गैन्ता गदाधर के पुत्र, गैन्ता लक्ष्मीधर शर्मा को (जो यजुर्वेद का पाठभि था) ईश्वर नाम संवत्सर में कार्तिक मास के रविवार को, चित्रा नक्षत्र में, सूर्यग्रहण के समय, श्री प्रांकेश्वर के समक्ष कोंगरा नाम का ग्राम दान में दिये जाने और उसी समय पम्पराज के पुत्र कुमार वोपदेव द्वारा आण्डलि ग्राम दान में दिये जाने का उल्लेख किया गया है। इस लेख में भी रानी लक्ष्मीदेवी और कुमार वोपदेव का उल्लेख है। प्रथम लेख के समय प्रधान (अमात्य) डोगरा थे, पर इस लेख के समय बाघु उस पद पर अधिष्ठित थे। लेख में दी गयी तिथि 5 अक्टूबर 1214 को पड़ती है। उस दिन कांकेर में सूर्य ग्रहण दिखायी पड़ा था। ईश्वर नामक संवत्सर उत्तर भारतीय गणना के अनुसार 2 सितम्बर 1212 से 29 अगस्त 1213 तक ही रहा। 5 अक्टूबर 1214 ईस्वी को उत्तर भारतीय गणनानुसार बहुधान्य संवत्सर था और दक्षिण भारतीय गणनानुसार भाव नामक संवत्सर था। डाक्टर मिराशी जी ने अपने ग्रंथ में इस संबंध में विवेचना की है।(5) डाक्टर मिराशी पाडी को पम्पराज की द्वितीय राजधानी मानते हैं।
पम्पराज के पिता सोमराज के नाम के साथ परम भट्टारक महामाण्डलीक उपाधि का उल्लेख किया गया है जबकि पितामह वोपदेव के नाम के साथ केवल महामांडलिक पद का प्रयोग हुआ है। इससे उनकी राजकीय श्रेणी का बोध होता है।
अंतिम उत्कीर्ण लेख भानुदेव के समय का है।(6) वह कांकेर में मिला था। उममें स्थान का प्राचीन नाम काकैर दिया हुआ है। लेख से ज्ञात होता है कि भानुदेव के राज्यकाल में नायक दामोदर के प्रपौत्र, पोलू के पौत्र, भीम के पुत्र नायक वासुदेव ने भगवान् शंकर के दो मंदिरों का निर्माण कराया था जो मण्डप, पुरतीभद्र और प्रतोली से शोभित थे तीसरा मंदिर क्षेत्रपाल का बनवाया, एक सरोवर खुदवाया तथा कौदिक नामक बांध निर्मित कराया गया था। शक्ति कुमार द्वारा लिखित यह प्रशस्ति शक संवत 1242 में, रौद्र नामक संवत्सर में, ज्येष्ठ वदि पंचमी, तदनुसार 27 या 28 मई 1320 ईस्वी के दिन समारोपित की गई थी। इसमें दी गयी सोमवंश की वंशावली में क्रमशः सिंहराज व्याघ्र, बोपदेव, कृष्ण, जैतराज, सोमचन्द्र और भानुदेव के नाम हैं।
इस प्रशस्ति में सिंह राज से लेकर वोपदेव तक तीन राजाओं के नाम उसी क्रम में है जिस क्रम में सिहावा के कर्णराज के लेख में मिलते हैं। पर वोपराज के पुत्र और उत्तराधिकारी का नाम सिहावा के लेख में कर्णराज, भानुदेव की प्रशस्ति में कृष्ण और पम्पराज के ताम्रलेख मे सोमराज बताया गया है। ऐसा लगता है कि वोपदेव के पश्चात कांकेर के सोमवंश की तीन शाखाएं हो गयी थीं और उसके तीनों पुत्र राजा बन बैठे थे। किंतु तीनों ही शाखाओं के नरेश स्वयं को कांकेर का राजा बताते हैं। इसका कारण समझ में नहीं आता। यह भी संभव है कि सिहावा और तहनकापार लेखों वाली शाखा एक रही हो और भानुदेव वाली दूसरी। वैसी स्थिति में कर्णराज की मृत्यु के पश्चात् (संभवतः उसके निस्संतान होने के कारण) उसका चचेरा भ्राता (सोमराज का पुत्र) पम्पराज राजसिंहासन पर अभिषिक्त हुआ होगा और उसके एक अन्य चचेरे भाई (कृष्ण के पुत्र) जैतराज ने भिन्न शाखा स्थापित की होगी। उस शाखा में जैतराज के पुत्र सोमचन्द्र और पौत्र भानुदेव ने राज्य किया।
इस प्रकार सिंहराज (लगभग 1130 ईस्वी) से लेकर भानुदेव (1320 ईस्वी) तक ये सोमवंशी नरेश लगभग 200 वर्षों तक कांकेर के प्रदेश पर राज्य करते रहे। भानुदेव के अनन्तर वंश का प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। पर स्वातंत्र्य-पूर्व समय तक सोमवंशी ही कांकेर के अधिपति रहे हैं।
ऊपर वर्णित उत्कीर्ण लेखों में कांकेर के सोमवंशियों की जो वंशावलियां मिली हैं, वे निम्नलिखित प्रकार हैं-
सिहावा का लेख गुरुर का लेख तहकापार ताम्रलेख कांकेर लेख
सिंहराज - - सिंहराज
। ।
वाघराज वाघराज - व्याघ्र
। ।
वोपदेव - वोपदेव वोपदेव
। । ।
कर्णराज - सोमराज कृष्ण
। ।
(1191 ईस्वी) - पम्पराज जैतराज
(1213 ईस्वी) ।
। ।
बोपदेव सोमचन्द्र
।
भानुदेव
(1320 ईस्वी)
पाद टिप्पणियां-
(1) कलचुरि पृथ्वीदेव (द्वितीय) के राजिम शिलालेख में काकयर, गुरुर के बाघराज के स्तंभ लेख में काकरय और कर्णराज के सिहावा लेख में काकैर।
(2) एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द नौ, पृष्ठ 182 इत्यादि; हीरालाल की सूची, द्वितीय संस्करण, कमांक 182।
(3) इंडियन एक्टिक्वरी, 1926, पृष्ठ 44, हीरालाल की सूची, द्वितीय संस्करण, क्रमांक 235।
(4) एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द नौ, पृष्ठ 166 इत्यादि हीरालाल की सूची, क्रमांक 300, 301, कार्पस इन्सक्रिप्शनम् इंडिकेरम्, चार, पृष्ठ 596-599, 599-602।
(5) कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम्, चार।
(6) एपि. इं., जिल्द नौ, पृष्ठ 123 इत्यादि, हीरालाल की सूची, क्रमांक 299; उत्कीर्ण लेख पृष्ठ 152 इत्यादि।
यह लेख संभवतः महाकोशल इतिहास परिषद की पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। लेख, अन्यथा महत्व के साथ-साथ बालचन्द्र जी की सहज-सपाट अनूठी शैली का भी नमूना है।
No comments:
Post a Comment