राहुल कुमार सिंह, पुरातत्वविद्
सारे ख्वाब पूरे हुए
पुरातत्तवविद् एवं शिक्षाशास्त्री राहुल कुमार सिंह ने ताउम्र जैसा सोचा वैसा ही हुआ। उनकी नजरों में यह उनके पूर्व जन्म के कर्मों और भाग्य का प्रतिफल है...
मुझे समाज से, प्रकृति से, ईश्वर से वो सभी सामान्य परिस्थितियां मिली, जो एक इंसान को मिलनी चाहिए। बौद्ध दर्शन का क्षणवादी जीवन मनुष्य का होता है, जिसमें हर क्षण अनिश्चित है। कुछ कर्मों से, कुछ प्रारब्ध से हम उसे निश्चित करते चलते हैं। दार्शनिक रूप से जो मृत्युलोक में होता रहता है, वो सब मेरे साथ भी होता रहा है।
राहुल कुमार सिंह कहते हैं, पुरातत्व के क्षेत्र में रूचि बचपन से थी। पर यह नहीं सोचा था कि इसी क्षेत्र में सेवा करूंगा। लोक विश्वास, दंतकथाएं , किवदंतियां और मान्यताएं, जो प्राचीन स्थलों से जुड़ी होती है उसे जानने में गहरी रुचि थी। मेरे मूल निवास अकलतरा में कोटगढ़ का दुर्ग, जांजगीर का भीमा तालाब, नकटा का प्राचीन शिव मंदिर, सभी के बारे में चमत्कारपूर्ण मिथक और फैंटेसी कथाएं थी। ये किसी भी बालक और वयस्क को आकर्षित करती है।
ग्यारहवीं तक विज्ञान पढ़ा। घरवाले चाहते थे डाक्टर बनूं। दो साल बीएससी की पढ़ाई की पर अनुत्तीर्ण हुआ। रुचि सोशल साइंस और मानविकी में थी इसलिए महत्वाकांक्षा से इस ओर कदम बढ़ाया। दुर्गा महाविद्यालय रायपुर में पुरातत्व भी कला का एक विषय था। परिवार नृतत्व शास्त्र, साहित्य और अर्थशास्त्र से संबंधित था और गुरू भी सच्चे अर्थों में हमारी जिज्ञासाओं को शांत करने वाले मिले। पढ़ाई पूरी होने के बाद घूमा-फिरा, पारिवारिक खेती का काम देखा।
जीवन में कोई टर्निग पाइंट तो नहीं है, पर विज्ञान विषय छोड़ना और जब मेरी पढ़ाई पूरी हुई ठीक उसी अवधि में बिलासपुर में संग्रहालय आरंभ होना संयोग रहा है। ये तय था कि रुचि के अनुसार घूमना, जगहों की खोज और पढ़ाई जारी रहती और इसका आधार पारिवारिक खेती होती। एमए में रविशंकर विश्वविद्यालय में स्वर्णपदक मिला और संग्रहालय विज्ञान डिप्लोमा में विशिष्ट प्रावीण्य सूची में था। भोपाल में डिप्लोमा करने के दौरान नेशनल म्यूजियम दिल्ली में काम करने का अवसर भी मिला। इन कारणों से 1984 में तदर्थ रूप से और 1987 में लोक सेवा आयोग के माध्यम से स्थाई रूप से संग्रहाध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई।
पुरातत्व की दृष्टि से बिलासपुर संभाग बहुत महत्वपूर्ण है। ‘ताला‘ का भारतीय कला में विशिष्ट स्थान है। मल्हार में अट्ठाइस सौ वर्षों का नियमित क्रमबद्ध इतिहास है। प्रतिमाएं, मंदिर, शिलालेख, मनके, मृदभांड, ताम्रपत्र, आवासीय संरचनाएं, सभी प्रकार के पुरावशेष यहां मिले हैं और ऐसे स्थान बहुत कम हैं। कलचुरी काल के पुरावशेष यहां इतनी बड़ी मात्रा में मिले कि उस काल की दृष्टि से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। संभावनायुक्त स्थलों की भी कमी नहीं है। किरारी में मिला अठारह सौ वर्ष पुराना काष्ठ स्तंभ दुनिया में सबसे पुराना है। मल्हार की सामग्रियां अक्सर खेती-बाड़ी का काम करते किसानों से मिली हैं।
धार्मिक मान्यताओं के कारण अनेक पुरावशेष सुरक्षित हैं, पर कहीं कहीं नुकसान भी हुआ है। अभी जितने स्मारक संरक्षित है उससे कहीं ज्यादा असंरक्षित पड़े हैं। विभाग नया है, अमला कम है। इसलिए जनसहयोग, जागरूकता और स्थानीय प्रशासन के सहयोग से ही धरोहर सुरक्षित रह सकती है। जब तक पुरातत्व को लोक जीवन से जोड़कर न देखा जाए तब तक वे बेजान होते हैं। विश्वास और आस्थामूलक तत्व उसके साथ जुड़ते हैं तो वे सजीव हो जाते हैं।
हिंदी और अंग्रेजी साहित्य, लोकजीवन शैलियां, लोकगीत, संस्कृति और उससे जुड़े मुद्दे मेरी रूचि का विषय रहे हैं। घूमना सुदूर इलाकों में जाना, जनजातियों के बीच समय बिताना। काम के बीच इन रूचियों को पूरा करने का भरपूर अवसर मिलता रहा है। इसलिए मैं अपनी सेवा की स्थितियों से बहुत संतुष्ट हूं।
बस्तर में काम का अलग रोमांच है। वहां नक्सलवादियों के अगल-बगल होने की एक-आध घटनाएं हुई पर उन्होंने कभी परेशान नहीं किया, काम में रूकावट नहीं डाली। ताला में काम करते हुए भी रोमांचक अवसर मिले। उसकी प्राप्ति स्थल पर सात-आठ दिन रहने का अवसर एक नए व्यक्ति के लिए भी रोमांच पैदा कर देता है और मैं तो पूरे समय इससे जुड़ा रहा।
शासकीय सेवा में मेरी स्मरणीय तिथि 27 (वस्तुतः 17) जनवरी 1988 है, जब ताला में रूद्र शिव की प्रतिमा प्राप्त हुई। शासकीय सेवा के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर मैं इससे जुड़ा ये संतुष्टि का बहुत बड़ा कारण है। पारंपरिक हस्तशिल्प कार्यशाला रायपुर, कंटेपरेरी आर्टस, पेंटर्स की कार्यशाला में भी सुनने, देखने और जानने का अवसर मिला।
पूरे जीवन कोई ऐसी घटना नहीं हुई जब मैंने अपनी किस्मत को बहुत रोया हो। काम में किसी गंभीर दखलअंदाजी का सामना कभी नहीं करना पड़ा। कहावत है ‘कोयले की दलाली में हाथ काला‘, पुरातत्व के क्षेत्र में काम करने वाले हर व्यक्ति की तरह शिकायतें मेरे विरूद्ध भी हुई, पर जिस इच्छा और विश्वास से मैंने काम किया था उन शिकायतों को भी मैंने उतनी ही रूटीन माना जितनी समाज की बाकी अच्छाईयां या बुराईयां हैं।
- नूपूर रायजादा
यह दैनिक भास्कर, बिलासपुर के छत्तीसगढ़ प्लस पेज पर 28 जून 2001 को प्रकाशित हुआ था। यह डिस्पैच बातचीत के आधार पर नूपूर जी ने तैयार किया था। मेरे कहने और वह यहां प्रस्तुति में कुछ फर्क रहा, जैसे यह लगता है मानों कहने वाला शर-शैया पर लेटे हुए अपनी बात कह रहा हो। पूर्व जन्म के कर्मों और भाग्य की बात, वस्तुतः यह थी कि मैंने हमारी चिंतन पद्धति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध की बात कही थी, जिसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया। पढ़ कर स्पष्ट हो सकता है कि मेरी बातें साक्षात्कार के कुछ सामान्य प्रश्नों, जैसे- बचपन, शिक्षा, रुचि, टर्निंग प्वाइंट, यादगार अनुभव, उपलब्धियां, महत्वाकांक्षा आदि, के जवाब में हैं। बहरहाल, इसमें कुछ गंभीर आपत्तिजनक नहीं है।
नूपूर जी और दैनिक भास्कर का आभार।
प्रसंगवश ध्यानाकर्षण कि गेस्ट कॉलम के बगल में सर्वेक्षण के अंतर्गत ‘सरकार नक्सलियों से बात करे‘ में किस गंभीरता से सरगुजा की नक्सली समस्या को रखा गया है, उल्लेखनीय है।
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