बस्तर के प्राचीन इतिहास और पुरातत्व का सर्वेक्षण-अध्ययन कर उजागर करने में राज्य पुरातत्च विभाग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले श्री सोबरन सिंह यादव, डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल और बाद के श्री जगदेवराम भगत तथा अमृतलाल पैकरा, पूरे बस्तर संभाग के पुरातात्विक स्थलों की जानकारी इकट्ठी कर संजोते रहे। श्री अरुण कुमार शर्मा के नेतृत्व में श्री प्रभात कुमार सिंह और श्री प्रवीण तिर्की ने ढोलकल गणेश का संयोजन-उपचार और पुनर्संयोजन के चुनौती भरे काम को अंजाम दिया। श्री गिरधारी लाल रायकवार, स्वयं मूलतः बस्तर निवासी हैं, उनकी भूमिका लाभान्वित करती रही। श्री वेदप्रकाश नगायच ने कुटरू, नुगरू, इंचमपल्ली, बोधघाट परियोजना से जुड़े क्षेत्रों का गहन सर्वेक्षण किया। मुझे पोलावरम परियोजना से संबंधित कोन्टा क्षेत्र के प्रभावित होने वाले अंचल के सर्वेक्षण का अवसर मिला और बस्तर के प्राचीन स्मारकों की फोटोग्राफी तथा गढ़ धनोरा और भोंगापाल स्मारक-टीलों को उद्घाटित करने की परियोजना में काम करने का अवसर मिला। डॉ. नरेश कुमार पाठक अपनी पदस्थापना के दौरान जिन क्षेत्रों में रहे, उससे संबंधित विपुल लेखन किया, उसी का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है।
बस्तर - इतिहास एवं पुरातत्व
मध्यप्रदेश के दक्षिण-पूर्व में स्थित बस्तर सम्भाग १७.४६‘ से २०.३४‘ उत्तरी अक्षांश और ८०.१५‘ से ८२.१‘ पूर्वी देशान्तर क बीच स्थित है। इसके पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में महाराष्ट्र, दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश और उत्तर में मध्यप्रदेश राज्य के रायपुर और दुर्ग जिलों की सीमायें स्पर्श करती हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ३९१७१ वर्ग किलोमीटर है। इस जिले का गठन सन् १९४८ में रियासतों के विलीनीकरण के समय बस्तर एवं कांकेर रियासतों को मिलाकर किया गया था। इसे २० मार्च १९८१ को मध्यप्रदेश का बारहवां सम्भाग बनाया गया। भौगोलिक दृष्टि से विन्ध्य समूह, कड़प्पा समूह, प्राचीन ट्रेप, आद्य कल्प एव धारवाड़ शैल समूह में वर्गीकृत किया गया है। इस सम्भाग में गोदावरी, इन्द्रावती, महानदी, शबरी, दूधी आदि प्रमुख नदियों को मिलाकर कुल ३५ नदियां प्रवाहित होती है।
भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व के क्षेत्र में बस्तर का स्थान महत्वपूर्ण रहा है। इस अंचल में पुरातत्व के विषय मे उस समय से जानकारी मिलती है,जब मानव सभ्यता का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था तथा मनुष्य पशुओं की भांति जंगलों, पर्वतों और नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में जीवन यापन करता था। अन्य प्राणियों से बुद्धि मे श्रेष्ठ होने के कारण मानव ने पत्थरों को नुकीला बनाकर उसे उपकरण (हथियार) के में प्रयुक्त करना प्रारम्भ किया जिससे भोजन सरलता पूर्वक प्राप्त कर सके। पाषाण के प्रयोग के कारण यह युग पाषाण काल के नाम से सम्बोधित किया जाता है। विकास की अवस्था के आधार पर इसे ३ भागों में विभाजित किया जाता है। (१) पूर्व पाषाण काल, (२) मध्य पाषाण काल एवं (३) उत्तर पाषाण काल। पूर्व पाषाण युग के उपकरण जगदलपुर से लगभग तीन मील दूर इन्द्रावती तट पर कालीपुर ग्राम से प्राप्त हुये हैं। मध्य पाषाण युग की सामग्री इन्द्रावती के तट पर स्थित खड़कपाट, कालीपुर, गढ़ चन्देला, भाटेवाड़ा, देवरगांव,घाट लोहंगा, बिन्ता एवं नारंगी तट पर स्थित गढ़ बोदरा व राजपुर तथा उत्तर पाषाण युग के औजार चित्रकूट, गढ़ चन्देला, घाट लोहांगा तथा गुपनसर से मिले हैं । पाषाण काल के पश्चात् नव-पाषाण काल आता है। इससे संबंधित अवशेष दक्षिण बस्तर से मिले हैं। इस काल में मानव सभ्यता की दृष्टि से विकसित हो चुका था तथा उसने कृषि कर्म, पशुपालन, गृह निर्माण तथा बर्तनों का निर्माण करना सीख लिया था।
पाषाण युग के पश्चात् ताम्र और लौह युग आता है। इस काल की सामग्री का बस्तर में अभाव है। लौह युग में शव गाड़ने के लिये बड़े-बड़े शिला खण्डों का प्रयोग किया जाता था, अतएव उन्हें महापाषाणीय स्मारक के नाम से सम्बोधित किया जाता है। बस्तर में डिलमिली तथा गमेवाड़ा से महापाषाणीय स्मारक प्राप्त हुए हैं। प्रागैतिहासिक काल का मनुष्य जब पर्वत की कन्दराओं में निवास करता था तब उसने कन्दराओं में अनेक चित्र बनाये थे, जो उसके कला प्रिय होने के प्रमाण हैं। बस्तर में गुपनसर और आलोर ग्राम के निकट ऐसे चित्र मिले हैं। चट्टान के धरातल का क्षरण होने के कारण चित्र धूमिल हो गए हैं, पर मानव और पशु आकृतियों को आसानी से पहचाना जा सकता है।
आर्यों के आगमन के साथ ही भारतीय इतिहास में वैदिक युग प्रारम्भ होता है। इस काल की सामग्री का बस्तर में अभाव है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम ने अपना अधिकांश समय दण्डक वन में बिताया। यह दण्डक वन, बस्तर का दण्डकारण्य क्षेत्र ही है। महाभारत एवं पुराणों में इस क्षेत्र की गोदावरी और शबरी नदियों का उल्लेख है और यह क्षेत्र दक्षिणापथ के अन्तर्गत आता था। महाजनपद काल (छठवीं शताब्दी ई.पू.) में यहां की संस्कृति विषयक कोई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं मिलती। कालांतर में संभवतः यह क्षेत्र अशोक के साम्राज्य का अंग था।
मौर्याे के पश्चात् बस्तर महामेघ वंश के प्रतापी राजा खारवेल के अधिकार में आ गया। आगे चलकर जब सातवाहन शक्तिशाली हो गये तब गौमती पुत्र शातकर्णी के अधिकार में बस्तर का भू-भाग आ गया। सातवाहनोत्तर काल के दण्डकारण्य का इतिहास अस्पष्ट है। इसके पश्चात् भारतीय इतिहास में स्वर्ण युग के नाम से विख्यात गुप्तकाल आता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उसके दक्षिणापथ विजय अभियान का वर्णन है, जिससे ज्ञात होता है कि उसने महाकान्तार (आधुनिक बरतर तथा सिहावा का जंगली प्रदेश) के राजा व्याघ्रराज को पराजित कर सिंहासनच्युत कर दिया था। तत्पश्चात् उसका राज्य वापस कर दिया। इस प्रकार गुप्तों का प्रभाव बस्तर में स्थापित हो गया।
इस क्षेत्र में गुप्तों के समकालीन नलवंशीय शासकों का आधिपत्य रहा है। इस वंश से संबंधित शासकों की ३२ मुद्राएं एडेंगा से प्राप्त हुई हैं। जिनमें २९ स्वर्ण मुद्रायें वराहराज की हैं, जिसका काल ५ वीं शताब्दी ई. का पूर्वार्ध माना गया है। एक स्वर्ण मुद्रा भवदत्त की है, जो वराहराज का पुत्र था। अन्य स्वर्ण मुद्रायें भवदत्त के पुत्र भट्टारक अर्थपति की है। नलवंश के भवदत्तवर्मा, स्कन्दवर्मा, अर्थवर्मा, पृथ्वीराज, विरुपाक्ष, विलासतुंग आदि शासकों ने बस्तर के भू-भाग पर शासन किया। गुप्तोत्तर काल की अनेक कालकृतियां बस्तर से प्राप्त हैं, जिसमें गढ़धनोरा से प्राप्त अवशेष, भोंगापाल स्थित स्तूप के अवशेष और बुद्ध प्रतिमा उल्लेखनीय है।
नलवंश के पश्चात् बस्तर में छिन्दक नागवंशी राजाओं का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश के अनेक महत्वपूर्ण शासकों ने इस क्षेत्र में शासन किया। इस वंश के शिलालेख, मंदिर, मूर्तियां एवं स्थापत्य कला संबंधी अवशेष एर्राकोट, कुरुषपाल, गढ़िया, चपका, चित्रकूट, छिन्दखड्क, जटनपाल, टेमरा, डोंगर, दन्तेवाड़ा, राजपुर, सोनारपाल, घोटिया, केशरपाल, बडे धाराऊर, छिन्दगांव, सिंगनपुर, पोषण-पल्ली, मद्देड, भोपालपटनम, समलूर, बोदरा, जगदलपुर, आदि स्थानों से प्राप्त हुये हैं। छोटे डोंगर में म.प्र. पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा मलबा सफाई में नागकालीन शिव मंदिर के अवशेष निकाले गए हैं। बस्तर ग्राम से इन्हीं शासकों की तीन चांदी की वराह द्रम्भ मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। नागवंशीय राजा सोमेश्वर की स्वर्ण मुद्राएं भी मिलती हैं।
इसी जिले के कांकेर क्षेत्र में सोमवंशी शासकों ने राज्य किया। सोमवशी शासकों के शिलालेख, किले, मूर्ति एवं स्थापत्य अवशेष कांकेर, तहनकापार एवं गढ़धनोरा से प्राप्त हुये हैं। लगभग १४ वीं शताब्दी में बस्तर क्षेत्र में काकतीय राजवंश का आधिपत्य स्थापित हुआ। यह वंश स्वतंत्रता की प्राप्ति तक बना रहा। इनके शासन काल के अभिलेख, मूर्तिकला एवं स्थापत्य आदि बस्तर, डोंगर, जगदलपुर, भोपालपटनम, दन्तेवाड़ा आदि स्थानों से मिले हैं तथा मुस्लिम शासकों एवं अग्रेजों के भी सिक्के यही से मिले हैं। भैरमगढ़ से प्राप्त देवगिरि के यादव राजवंश के सिक्के, जिन्हें पद्म टंका कहा जाता था, मिले हैं।
बस्तर के काकतीय शासकों के समकालीन कांकेर में सोमवंशी राजपूतों की रियासत थी। इस वंण में अनेक महत्वपूर्ण राजा हुए। बस्तर (जगदलपुर) एवं कांकेर के शासक समय-समय पर मराठों एवं अंग्रेजों के अधीनस्थ शासक के रूप में भी रहे हैं।
बस्तर की पुरातत्व सम्पदा को संगृहीत करने हेतु मध्यप्रदेश शासन द्वारा जगदलपुर में जिला पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की गई है। इस संग्रहालय में लगभग ५० प्रतिमाएं एवं शिलालेख संगृहीत किए गए है, जिनका संकलन कुरूषपाल, केशरपाल, बस्तर, छोटे डोंगर, चित्रकूट, पूर्वी टेमरा आदि स्थानों से किया गया है। संग्रहालय अभी अपनी शैशव अवस्था में है। शासन की योजना है कि इस संग्रहालय को विकसित कर ऐसा स्वरूप प्रदान किया जावे, जिससे सम्पूर्ण बस्तर संभाग की पुरातत्वीय सम्पदा की झलक दृष्टिगोचार हो सके।
डॉ. नरेश कुमार पाठक, तब और अब |
यह पत्रक दशहरा-पर्व 1988 में संग्रहाध्यक्ष, जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर के लिए पुरातत्ववेता, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया गया था। आलेख श्री नरेश कुमार पाठक ने तैयार किया था।
Wah! Kya bat hai! Is sundar evam gyanvardhak aalekh ko likhne ke liye Shri Naresh Kumar Pathak ji aur ise blog mein post kar hum sabhi tak pahnuchane ke liye aapkaa kotishah aabhar. Aap to bas aap hain, aapki kyaa baat hai. Abhinandan, swagat.
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