साहित्य में शीर्षकों का स्थान
पिछले दिनों एक चुटकुला पढ़ने में आया था- एक लेखक महोदय अपने मित्र से अपनी नई कृति के शीर्षक के लिये सलाह मांगते हैं। मित्र महोदय लेखक से प्रश्न करते हैं इस उपन्यास में ‘ढोल‘ शब्द है, लेखक सोचकर जवाब देते हैं- ‘नहीं‘ और ‘मंजीरा‘ मित्र पूछते हैं ‘नहीं‘ लेखक फिर कहते हैं। तब शीर्षक रख दो ‘न ढोल न मंजीरा‘, मित्र महोदय ने सुझाया।
शीर्षक की समस्या ने सचमुच छोटे लेखकों से बड़े साहित्यकारों तक को उलझन में डाला है। संभवतः इसीलिए शेक्सपीयर ने अपने एक नाटक का शीर्षक दिया था ‘एज यू लाईक इट‘ (जैसा तुम चाहो) और यह परेशानी पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीजी के सामने भी रही होगी तभी तो उन्होंने अपने एक लेख का शीर्षक दिया था- ‘क्या लिखूं‘।
शीर्षकों की माया प्राचीन काल से ही रही है। प्राचीन साहित्य मे शीर्षकों की परंपरा में शीर्षक के साथ कभी ‘रासो‘ जोड़ा गया, कभी ‘अध्यायी‘ कभी ‘सागर‘ और ‘समुद्र‘ की परंपरा रही तो कभी संख्या-वाचक शीर्षकों की, जैसे ‘वैताल पचीसी‘, सिंहासन बत्तीसी‘, हनुमान चालीसा आदि।
आधुनिक काल में शुक्ल-युग तक तो संभवतः शीर्षक साहित्यकारों के लिये विशेष समस्या नहीं साबित हुए, कितु शुक्लोत्तर-युग के शीर्षकों में नवीनता तो थी ही, विचित्रता भी कम न थी, और वह भी विशेषकर सन ‘40 के बाद के शीर्षकों में।
लंबे शीर्षक रखना इस काल की परंपरा थी। इसी काल के कुछ शीर्षक इस प्रकार थे- ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये‘ और ‘अरी ओ करूणा प्रभामय‘ (अज्ञेय) लगभग इस काल की रचनाओं के ये शीर्षक भी दृष्टव्य हैं- ‘तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूं‘ (यशपाल), ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ (मुक्तिबोध), ‘एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता‘ (शमशेर) आदि। इसी संबंध में अज्ञेय की ‘लिखि कागद कोरे‘ की भूमिका ‘सांचि कहऊं‘ के ये वाक्य उल्लेखनीय हैं- ‘असल में मुझे शीर्षक देना चाहिए था ‘अथ सांचि कहऊं मैं टांकि टांकि कागद अध कोरे‘ पर साठोत्तरी उपन्यास के पाठोत्तरी पाठक भी महसूसते (उन्हीं की भाषा है) कि इतने लंबे शीर्षक नहीं चलने के।‘
शीर्षक मे इन विचित्रताओं और नयेपन का आखिर कारण क्या है। आलोचकों का कथन है कि ऐसे शीर्षक उस पुस्तक के प्रति पाठक की उत्सुकता बढ़ाने के लिये होते हैं। सचमुच इन शीर्षकों के प्रति कौन उत्सुक नहीं होता- ‘एक गधे की आत्मकथा‘ (कृश्न चन्दर) ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूं‘ और ‘कितनी नावों में कितनी बार‘ (अज्ञेय) ‘आकाश में फसल लहलहा रही है‘ (रामदरश मिश्र) ‘जब ईश्वर नंगा हो गया‘ (शिव शर्मा), ‘थैला भर शंकर‘ (शंकर) आदि।
शीर्षकों की आधुनिक परंपरा में एक प्रमुख है- नामवाचक शीर्षकों की परंपरा। ‘बेबी‘ (विजय तेन्डुलकर), ‘अलका‘ और ‘अर्चना‘ (निराला), ‘नीरजा‘ (रविन्द्रनाथ ठाकुर) ‘दिव्या‘ (यशपाल) आदि । जीवनी में तो नामवाचक शीर्षक होते ही हैं। शीर्षकों में सर्वनाम का भी कभी-कभी जमकर प्रयोग होता है- ‘मेरी, तेरी, उसकी बात‘ (यशपाल), ‘वाह रे मैं वाह‘ (क. मा. मुंशी), ‘हम हशमत‘ (कृष्णा सोबती). ‘मैं‘ (विमल मित्र), ‘उनसे न कहना‘ (भगवती प्रसाद बाजपेयी) ये कुछ इसी तरह के शीर्षक हैं।
कुछ विशेषणयुक्त शीर्षक ये हैं- ‘घासीराम कोतवाल‘ और ‘सखाराम बाइंडर‘ (तेन्डुलकर) ‘पगला घोड़ा‘ (बादल सरकार) ‘मैला आंचल‘ (फणीश्वरनाथ रेणु) ‘लालपीली जमीन‘ (गोविन्द मिश्र) रिश्ते के संबंधों ने भी शीर्षक मे कभी-कभार स्थान पाया। ‘देवकी का बेटा‘ (रांगेय राघव), कनुप्रिया (भारती) ‘रतिनाथ की चाची‘ (नागार्जुन) ‘कैदी की पत्नी‘ (रामवृक्ष बेनीपुरी) आदि इसके उदाहरण हैं। विरोधाभासी और आश्चर्यजनक शीर्षकों की भी आधुनिक हिंदी साहित्य में बहुतायत है। इस तरह के कुछ शीर्षक हैं- ‘झूठा सच‘ (यशपाल), ‘आवारा मसीहा‘ (विष्णु प्रभाकर), ‘जिंदा मुर्दे‘ (कमलेश्वर), एक बिछा हुआ आदमी‘ (विभुकुमार), ‘एक गांधीवादी बैल की कथा‘ (राधाकृष्ण) आदि। संख्यावाचक शीर्षकों की जो रचनायें प्रसिद्ध हुईं, उनमें है- ‘गवाह नम्बर तीन‘, ‘तीस चालीस पचास‘ (विमल मित्र), चार खेमे चौंसठ खूंटे (बच्चन) और ‘अट्ठारह सूरज के पौधे‘ (रमेश बक्षी)।
आंचलिक भाषा का उपयोग शीर्षकों में बहुत कम हुआ है, कभी कभी लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया जाता है, उदाहरणस्वरूप ‘फिर बैतलवा डाल पर‘ (डा. विवेकी राय), ‘कागा सब तन खाइयो‘ (गुरुबक्श सिंह), ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं‘ (भगवती चरण वर्मा) ‘नाच्यो बहुत गोपाल‘ (अमृतलाल नागर) आदि। अब कुछ संस्कृत शीर्षक वाली कृतियों का नाम पढ़ लीजिए- ‘वयं रक्षामः‘ (आचार्य चतुरसेन) ‘एकोSहं बहुस्याम्‘ (रघुवीर सहाय), मृत्युर्धावति पंचमः (अज्ञेय), ‘धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् (हजारी प्रसाद द्विवेदी)।
कभी कभी लेखक अपनी रचना को किसी की डायरी या किसी का पोथा बताते हैं- ‘अनामदास का पोथा‘ (हजारी प्रसाद द्विवेदी), ‘एक साहित्यिक की डायरी‘ (मुक्तिबोध), ‘लफ़्टंट पिगसन की डायरी‘ (बेढब बनारसी), ‘अजय की डायरी‘ (डा. देवराज) आदि इसी प्रकार के उदाहरण हैं। आजकल की डायरियां ज्यादातर नेताओं की ‘मेरी जेल डायरी‘ होती है।
कुछ शीर्षक देख कर ही सामान्य पाठक भयभीत हो जाता है। ‘अस्वीकृति का अकाव्यात्मक काव्यशास्त्र‘ (रमेश कुंतल), एक ऐसा ही शीर्षक है। ऐतिहासिक या पौराणिक नाम, जिनसे पाठक अनजान रहता है, वे भी कुछ ऐसा ही प्रभाव डालते हैं- ‘प्रमथ्यु गाथा‘ और ‘वृहन्नला‘ (भारती), ‘एक और नचिकेता‘ (जी. शंकर कुरुप), ‘संपाति के बेटे‘ और ‘आछी का पेड़, पैशाची; जरथुस्त्र और मैं‘ (कुबेरनाथ राय)।
अब कुछ भ्रामक शीर्षक- इस बारे में श्रीलाल शुक्ल के ये वाक्य प्रसंगानुकूल हैं ‘‘मैंने ‘शेखर एक जीवनी‘ पढ़ी है। वह उपन्यास है। खेती सींखने के लिए मैंने अज्ञेय रचित ‘हरी घास पर क्षण भर‘ पढ़ा। उसमें कविताएं हैं। ... बच्चों के पढ़ने के लिए ‘तितली‘ और लक्ष्मीनारायण लाल का ‘बया का घोंसला और सांप‘ मंगाई पर उन्हें बच्चों ने नहीं, नर-नारियों के संबंधों के ज्ञाता बुजुर्गों ने ही पढ़ा।‘‘
नवभारत, रायपुर का 3 सितंबर 1978 का पृष्ठ-3 |
लेखन, अभिव्यक्ति के साथ-साथ सार्वजनिक करने के लिए भी हो तो उस पर कुछ न कुछ असर इस बात का होता है कि वह प्रस्तुत-प्रकाशित कहां होगा। मेरी पीढ़ी 20-22 की उम्र में कुछ डायरी में तो कुछ पत्रों में अभिव्यक्त होती थी, लेकिन कुछ सार्वजनिक करना है, छपना-छपाना है तो पत्रिकाओं और समाचार पत्र की ओर देखना होता था कि वहां क्या और कैसा लिखा-छपा होता है। लिखने के बाद छपने के लिए तब अखबारों में जगह होती थी, मिल जाती थी। अखबारों में नाम सहित कुछ छप जाना, चाहे ‘पाठकों पत्र/आपकी चिट्ठी‘ ही क्यों न हो, संग्रहणीय नहीं तो उल्लेखनीय जरूर होता, बधाइयां भी मिल जातीं। स्थानीय अखबारों के कार्यालय तक पहुंच आसान होती थी। इस तरह लेखन का विषय चुनते, उसे अंतिम रूप देते, पत्र-पत्रिका का संपादक पहले और प्रत्यक्ष ध्यान में होता, पाठक उसके बाद, परोक्ष। आम लेखन की शैली, स्तर और टेस्ट इसी के आधार पर तय होता।
आजकल का लोकप्रिय लेखन, अधिकतर पहले फेसबुक-ट्विटर पर उगता है, कुछ-कुछ ब्लाग पर भी। सामान्यतः अनुकरण होता है उनका, जिस पर ढेरों लाइक-कमेंट हों, फिर थोड़ी अपनी पसंद और उसके बाद अपने लेखन-क्षमता, कौशल। इस तरह पहचाने गए नये लेखकों में, लेखन का स्वरूप तय करने का पहला और महत्वपूर्ण कारक लाइक-कमेंट करने वाला पाठक होता है। तब उसके लिए जरूरी होता है कि गंभीर बात भी रोचक-चुटीले अंदाज और बोलचाल की भाषा में कही जाए। बात कहने के लिए लंबी भूमिका भी नहीं चलने की। हर पैरा ऐसा हो, जो आगे पढ़ने की उत्सुकता और रुचि बरकरार रखे। नये वाले अधिकतर लोकप्रिय लेखकों के साथ यह लागू है।
अब के लेखन से तब की कलम-घिसाई का फर्क। यहां आई कुछ पोस्ट, पुराने दौर का लेखन है, यह अभ्यास तब इसी तरह हुआ था।
शीर्षक के विषय में इतनी अच्छी जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteVery interesting sir
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