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Wednesday, February 21, 2024

दो महीने, नौ किताबें

2022-2023 दिसंबर-जनवरी, दो महीनों में फुटकर पढ़ाई के साथ पढ़ी गई नौ किताबें। 2019 से 20022 के बीच छपी नौ की नौ सुशोभित की- 
माया का मालकौंस (2019) 
गांधी की सुंदरता, सुनो बकुल! (2020) 
कल्पतरु, दूसरी कलम, अपनी रामरसोई (2021) 
पवित्र पाप, देखने की तृष्णा, मिडफ़ील्ड (2022) 
मेरी जानकारी में इसके अलावा उनकी गद्य की माउथ ऑर्गन, बायस्कोप, बावरा बटोही, आइंस्टाइन के कान, यह चार तथा कविता की अन्य चार पुस्तकें अब तक (जनवरी 2023) प्रकाशित हैं।

इन पर बात करने के पहले संक्षिप्त भूमिका। कोविड के आगे-पीछे नये-युवा लेखकों को पढ़ता रहा। 24 जुलाई 2020 को अपने फेसबुक पर ’चार-यार चालीसा’, ऐसे चार जो उम्र के चौथे दशक में हैं, की बात कही थी- 

मुझ जैसे बुजुर्ग के चौथे अंतःकरण या ग्यारहवीं इन्द्रिय, चंचल मन में ऐसे युवा के प्रति सम्मान होता है, जो यों अभिभावक मानते हुए व्यवहार करें, लेकिन आपस में ऐसी हर छूट की गुंजाइश रखें जो मित्रों के साथ होती है। चिड़िया और बच्चों से आप अपनी मैत्री का दावा कर सकते हैं लेकिन उस पर मुहर तभी लगती है, जब वे भी ऐसा मानें, प्रकट करें। 

चार में से ऐसे दो उत्तर भारतीय पहले, आशुतोष भारद्वाज(1976) स्वयंभू किस्म के प्रखर, उत्साही मगर संयत बौद्धिक, किसी भी संस्कार-परंपरा से आकर्षित होते हैं, जूझने-परखने, जितना सम्मान करने, उतना ही खारिज करने को सदैव तत्पर। दूसरे, व्योमेश शुक्ल (1980) परंपरा के लक्षणों को संस्कारों से जोड़कर, सब भार स्वयं वहन करते हैं, मगर उसे प्रसंगानुकूल वजन घटा-बढ़ा कर व्यक्त कर सकते हैं, बनारसी स्निग्धता तो है ही। इन दोनों से अच्छी मेल-मुलाकातें हैं। 

अन्य दो, मालवी, जिनसे कभी मुलाकात नहीं है, एकाध बार फोन पर बात हुई, उन्हें पढ़ता जरूर रहता हूं, लिक्खाड़ सुशोभित (1982) ऐसा लगा कि गांधी पर लिखते हुए उनकी सोच और अभिव्यक्ति में गांधी का स्थायी प्रवेश हुआ, पैठ गए, अधिक प्रभावी और रसमय बना दिया है। अनुशासन और मर्यादा का शील भी उनमें स्थायी है, इसके लगभग ठीक विपरीत अम्बर पांडेय (1984) अनुशासन की मानों उनकी अपनी संहिता हैं। उच्छृंखलता कभी अभिव्यक्ति में आती है, वह शायद स्वभाव की नहीं है, बल्कि यदा-कदा मन-तुरग को जीन-लगाम मुक्त कर हवाखोरी कराते रहते हैं (पिछले साल 2023 में सुशोभित से जनवरी में भोपाल में मुलाकात हुई और अम्बर मिल गए कथा कहन, जयपुर में, फरवरी में)।

किसी चिंतक-दार्शनिक को पढ़ने में उसका जीवन-वृत्त जानना रोचक और मददगार होता है, यह देखने के लिए कि जीवन स्थितियों ने उसके विचारों पर कोई, क्या और कितना असर डाला है। चारों उम्र के चौथे दशक यानि तीसादि बरस आयु के हैं। अपना पर्याप्त समय पढ़ने में खरचा है। इनके लेखन से, इनकी दिमागी बनावट (इंटेलेक्चुअलिटी) को समझने का आनंद लेता रहता हूं। ऐसे मित्र, जिनके बारे में धारणा चाहे बदलती रहे, मेरे मन में इनके प्रति मैत्रीभाव एक जैसा अडिग बना हुआ है।

(जेंडर बैलेंस आग्रह बतौर अगली किश्त विचाराधीन है☺️) 

अब 2022-2023 दिसंबर-जनवरी, दो महीनों में पढ़ी गई नौ किताबें, फुटकर पढ़ाई के साथ। सारी सुशोभित की। पढ़ते हुए कुछ नोट्स-टिप्पणियां-

# ‘पुस्तक को एक दिन में पढ़कर समाप्त हो जाना चाहिए। या जितने भी दिनों में वह पढ़ी जाए, वह मेरी चेतना में एक ही दिन हो।‘

# दृश्यों पर, स्वाद पर, शब्दों पर, आवाज पर मैं उनके साथ अपने पढ़ने का दायरा विस्तृत होते पाता हूं।

# कई बार ऐसा लगता है कि तथ्य, सूचना, संदर्भ एकत्र कर रहा है, और व्याख्या तक ले जाने के फिराक में है। मगर खुद को साबित करने के दबाव से मुक्त।

# भाषा सध जाए और मन ‘बहक‘ जाए फिर कलम क्योंकर न फिसले।

# एक अकेले एकांत में भटकता है, न ऊबता, न घबराता, कुछ जग की से होते अपनी तक आता है, सन्नाटा बुनता, सुनता, गुनता, गढ़ता है और दम मारने आता है शब्द-भाषा थामे, अभिव्यक्त होता है।

# वे जिस लेखक-जिद से लिखते हैं, उसके लिए पाठक-जिद से ही पढ़ना संभव होता है।

# इस जिम्मेदारी से लिख रहे हैं कि हिंदी पाठक को क्या पढ़ने-जानने, समझने-बूझने और मन बहलाते, पाठकीय भूख मिटाने को मिलना चाहिए।

# हिंदी पाठक को मुहैया कराने की यह जिद है, खासकर फुटबॉल और कुछ हद तक विश्व सिनेमा, विश्व साहित्य।

# फुटबॉल अपने नियमों के दायरे में, गोल के आंकड़ों के आगे कहां तक पहुंच जाता है। उस रेंज की, फलक की हैं जो कम समय में कम उम्र द्वारा लिखी गई, जिसे धीरज से पढ़ पाना, आमतौर पर जिद से ही संभव है।

# फिल्म की स्टोरी सुनना और सुनाना, कभी इसलिए कि फिल्म नहीं देख पाएंगे, या फिल्म देखनी है, ट्रेलर की तरह।

# खुली-खुली सी सरपट पढ़ जाने वाली, बात-बात में कविता बनकर चुनौती-सी बातें, कल्पतरु के गद्य में सुनो बकुल से अधिक कविताई होने लगी है।

# कवि मन के प्रवाह में कैसा वाक्य सहज रच जाता है- ‘और उसने भी बतलाया नहीं कि नहीं मैं तेरा नहीं हूं।‘

# पाठक को छूट हो, अगर चाहे सहज अर्थ या रूपकों का भेद ले, विचार और व्याख्या को प्रेरित करे, संभावना बनाए।

# मैं खुद को लेखक-पुस्तक के हवाले नहीं कर देता, मानता हूं कि वह मेरे हवाले है, इससे दबाव नहीं होता कि उसे शब्द दर शब्द पीना है, नजरें दौड़ती हैं फिर किताब की कुव्वत कि वह कितनी याद रहे, कितनी जज्ब हो और कितनी यूं ही गुजर जाए। सुनने-देखने पर इतना आसान काबू नहीं होता।

# किताबें- आप लेखक के पास नहीं पहुंच सकते, जब मन चाहे खोल-बंद कर सकते हैं, वह ‘लाइव‘ नहीं है कि अभिव्यक्त होने के दौरान सामने रहना जरूरी है, लिखा हुआ पढ़ते चिट मारने जैसा भी।

# सुशोभित- मूलतः फीचर वाले पत्रकार हैं, अहा! जिंदगी वाले, स्तंभ लेखन वाले। वरना पत्रकार कब सतही और सरसरी हो जाते हैं उन्हें खुद भी पता नहीं लगता और साहित्यकार कब अनावश्यक उलझाव भरे नाटकीय।

# सुशोभित- साहित्यकार कैसे हैं, हैं भी या नहीं, यह तो समीक्षक तय करेंगे यों वे लगभग लगातार पाठक, दर्शक या श्रोता-सी ही मुद्रा में होते हैं, लेकिन लेखक या कहें लिक्खाड़ आला दरजे के हैं।

# सुशोभित- लेखक, शहरी माहौल, अपने कार्य-स्थल की भीड़ और पारिवारिक सघनता के बीच भी अपने को नितांत एकाकी रख कर सृजन करता रहा है मगर यह भी जरूरी होता है कि उसमें जंगल, नदी के किनारे, सुनसान-सन्नाटे में स्थित रहते, भरा-पूरापन कितना उमगता है।

# सुशोभित- ‘रोज-मर्रा‘ का मरने से कोई ताल्लुक नहीं, फिर भी बहुतेरे अक्सर दैनंदिन जीवन को मशीनी-मुर्दों की तरह जीते हैं, मगर उसमें जीवन-मधु का संचय करना, संभव करते जान पड़ते हैं।

Saturday, August 27, 2022

घर का पता

लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि
आपके घर का पता आप खुद नहीं जानते,
लोग आपको बताते हैं
क्योंकि 
आप तो अपने घर को जानते हैं
न कि घर का पता
इसलिए बिना किसी पहचान के
अपने घर पहुंच जाते हैं।
लोग बताते हैं कि आपका घर कहां है,
वह किस तरह से आपके घर पहुंचते हैं,
उसे पहचानते हैं।
कोई पेड़, कोई भवन या कोई दुकान,
क्या पहचान, आपके घर का पता बनता है,
इसलिए मुझे लगता है कि
आप अपने घर का पता नहीं जानते,
आप के घर का पता लोग आपको बताते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल घर का पता बताते हैं,
‘सफेद चम्पे के फूल वाला घर‘,
तो लगता है
कोई कविता सुनाने जा रहे हैं
और कह पड़ेंगे-
‘हर बार घर लौट कर आने के लिए ...‘

गली का आखिरी मकान है यह
या मान लें पहला
इसे पहला या आखिरी ही होना चाहिए
यह गली बंद नहीं है
धर्मवीर भारती वाला ‘बंद गली का आखिरी मकान‘ नहीं,
न ही राजेन्द्र यादव के ‘हंस‘ दफ्तर की तरह
गली खुली हुई है दोनों ओर
बाएं और दाएं

बिना नाम-पट्टिका घर
अब आम, मौलश्री और सप्तपर्णी
चिड़िया और गिलहरी और ...
हरियाली, जीवन शाश्वत
सफेद चम्पा,
घर की पहचान, पता बताने के लिए?
या हर बार घर पहचान,
लौट लौट आने के लिए।

पिछले दिनों जया जादवानी जी से उनके घर और अपने घर के साथ किसी तीसरे पते की बात हुई, जहां हम दोनों को पहुंचना था। इस दौरान विनोद जी के घर जाने की बात भी मेरे मन में थी। याद आया फरवरी 2020 में आशुतोष भारद्वाज ने ‘संडे एक्सप्रेस मैगजीन‘ के लिए विनोद जी पर कवर स्टोरी की थी, उसकी शुरुआत इसी तरह पता पूछने-बताने से होती है। विनोद जी के घर तक पहुंचा, वहां नाम-पट्टिका नहीं है, अब सफेद चंपा भी नहीं। विनोद जी के पुत्र शाश्वत ने बताया कि गली का नंबर बदला है, घर वहीं है, ‘घर पर किसी का नाम नहीं लिखा है। अंदर एक आम का पेड़ है। बाहर एक ओर मौलश्री के दो पेड़ और दूसरी ओर सप्तपर्णी के दो पेड़ हैं। इन सब में बहुत से पक्षी, गिलहरी रहते हैं। हम सब इनके साथ रहते हैं। यही घर की पहचान है।‘

प्रसंगवश- विनोद जी ने राजनांदगांव के एक आयोजन में कविता पाठ के दौरान कहा था, ‘शीर्षक‘ ढक्कन की तरह होता है। एक अन्य अवसर पर उनसे बार-बार पूछा जाने वाला सवाल दुहराया गया कि आपकी पहली कविता कौन सी है? इस पर मुझे जो बात सूझी वह कुछ-कुछ कविता की तरह ही लगी-  

उनसे बार बार पूछा जाता है
आपकी पहली कविता कौन सी है
न जाने कितनी बार जवाब दे चुके वे
कुछ यूं कि अप्रकाशित, अधूरी और
न लिखी कविता ही मेरी कविता है।
जो छप गई वह पाठकों की
और पहली, वह जो पहले-पहल छपी।
फिर याद करते हैं मुक्तिबोध और श्रीकांत वर्मा को
और उन आठ कविताओं को,
जो एक साथ पहले छपी।
और आपकी पहली कविता के सवाल पर,
हर बार जवाब देते
मानों नई कविता रच जाती है।
उनके हर जन्मदिन पर
 उनसे यही सवाल कर,
मैं हर बार एक नई कविता सुनूंगा।

एक गद्य कविता-
बात करीब बीस साल पुरानी है। 
एक भूले से मगर प्रतिष्ठित साहित्यकार को 
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद याद कर, 
पत्र भेजा गया। 
पता अनुमान से लिखा गया था। 
पत्र उन्हें मिल गया, 
उनका जवाब आया, जिसमें दो खास बात थी। 
पहली कि उनके लेटर हेड पर 
शहर के नाम के साथ अब भी म.प्र. था, 
मगर दूसरी बात कि 
उन्हें जिस पते पर पत्र भेजा गया था,
उस पर अपनी खिन्नता प्रकट करते लिखा था- 
‘पता, जिस पर डाकिया पत्र पहुंचा जाया करता है‘ 
मेरे साथी ने कहा कि साहित्यकार भी अजीब होते हैं, 
सीधी सी बात, सीधे नहीं कहते। 
ऐसा लगता है कि पता, पत्र पाने का ही है, 
उनके निवास का नहीं, रहते कहीं और हैं। 
मुझे साहित्य(कारों) का प्रतिपक्ष बने रहने से, 
अपनी जगह उचित लगती है 
बल्कि यों भी प्रतिपक्ष बने रहना। 
मगर यहां मैंने उन साहित्यकार का पक्ष लिया कि 
इसमें गड़बड़ क्या है, हम भी तो ‘डाक का पता‘ लिखते हैं, 
इसका भी मतलब निकाला जा सकता है कि 
यह डाक का पता है, निवास का नहीं। 
तब मित्र ने तर्क दिया, मगर यह रूढ़ हो गया हैै। 
मैंने आगे कुछ न कह कर संवाद विराम किया। 
याद करने लगा कि पहले पत्र में लिखने का चलन था- 
मु.पो. यानि मुकाम और पोस्ट। 
इसी तरह कुछ अधिक बारीक लोग 
हाल मुकाम और खास मुकाम, बताते थे 
यानि वर्तमान पता और स्थायी पता। 
बहरहाल, पता बताने और खोजने की अधिक सावधानी, 
प्रकारांतर से खुद की तलाश होने लगती है, 
पता वही रहता है, हम ही खोए रहते हैं, 
कभी पता बताते, कभी तलाशते।

Wednesday, March 4, 2020

पितृ-वध

‘पितृ-वध‘ शीर्षक, आशुतोष भारद्वाज की उस पहचान के अनुरूप है, जिसमें उनकी पैनी, स्पष्ट असहमतियां और स्थापनाएं एकबारगी चौंकाती हैं। अपनी स्थापनाओं के पक्ष में वे किसी मनोवैज्ञानिक के बजाय दोस्तोयवस्की के लेखन से ले कर शास्त्र वाक्य ‘‘पुत्र और शिष्य से पराजय की इच्छा रखता हूं।‘‘ तक उद्धृत करते हैं। ‘‘वध में वैधानिकता का भाव है‘‘ कहते हुए भीष्म, शंबूक और जयद्रथ वध के क्रम में नाथूराम गोड़से द्वारा अपने कृत्य को ‘गांधी-वध‘ कहे जाने का उल्लेख करते हैं। ‘‘एक पुरुष का अपने पिता के साथ जो द्वन्द्वात्मक संबंध होता है वह शायद मां के साथ नहीं है, और चूंकि मैं हूं तो पुरुष ही इसलिए अपने पूर्वजों के साथ रचनात्मक संघर्ष मेरे भीतर पिता के रूपक में ही दर्ज हुआ है?‘‘ का सवाल भी उठाते हैं, जिसका जवाब ‘नहीं‘ पुस्तक में आगे आ जाता है।

स्वर, स्मृति, संवाद और समय शीर्षक खंडों में से ‘एक: स्वर‘ में श्रीकांत वर्मा हैं, जिनकी रचनाधर्मिता के लिए कही गई बात खुद कवि पर लागू हो सकती है- ‘‘जो कविता खुद अपना विषय भी हो, पूरक, विलोम और शत्रु भी, वह न सिर्फ आत्म-रत है, बल्कि आत्म-हन्ता भी।‘‘ मुक्तिबोध में स्त्री की अनुपस्थिति रेखांकित करते हुए आशुतोष, एकाकीपन की भूमिका बनाते दिखते हैं। वे अशोक बाजपेयी के लिए उदार हैं तो अज्ञेय के प्रति निर्मम। ‘‘एक लेखक और सामान्य पाठक के पाठ में शायद गहरा फर्क है।‘‘ कहते हुए निर्मल वर्मा की कड़ी के साथ आशुतोष, अज्ञेय को 'मेरे पितामह' मानते हैं, लेकिन पितृ-वध का खास खुलासा यहां होता है, जब वे बिना पूर्वाग्रह के चाहते हैं कि ‘‘इस कथाकार से कोई, दूर का ही सही, संबंध जोड़ पाऊं, लेकिन नहीं।‘‘ संदेह नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति पितृ-वध को सूक्ष्म, किसी न किसी रूप में न सिर्फ स्वयं में घटित होता महसूस करता है, औरों को भी दिखता है, उम्र के साथ खुद में खुद को मरते और पिता को पनपते देखना, अनहोनी नहीं है।

‘स्वर‘ खंड के अन्य चार निबंध, भारतीय साहित्य की स्त्री पर हैं। आमतौर पर स्त्री की योनिगत भिन्नता, मातृत्व, यौनिकता जनित लाचारी और उससे जुड़कर कभी शोषण, कभी अधिकार ही ’विमर्श’ में होता है। ‘केवल श्रद्धा‘, ‘आंचल में दूध, आंखों में पानी‘, अबला-सबला, दुर्गा-चंडी, होते हुए ‘तिरिया जनम झनि दे‘ तक रह जाता है। किन्तु यहां इन निबंधों में, जैसा अपेक्षित था, थोथी ‘विमर्श-पूर्ति‘ नहीं है, व्यापक सर्वेक्षण और विश्लेषण-चिंतन करते स्त्री को बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की संवेदनायुक्त होमो सेपियंस की तरह देखा गया है। नर से उसकी लैंगिक भिन्नता को नजरअंदाज कर, समग्र जीव मानते। एकदम अलग लेकिन सच को उजागर करने का वह पहलू, जिसे अब तक शायद ठीक से स्पर्श भी नहीं किया गया था। यहां उससे अलग बहुत कुछ है, उसका भय, उदासी, चिंता, भाव में कायिक कारक न के बराबर हैं, इससे स्त्री का भिन्न आयाम उभरा है, उसका फलक विस्तृत हुआ है।

इस दौर का खासकर गद्य का युवा पाठक-लेखक प्रेमचंद, छायावाद और बांग्ला लेखकों को पढ़ता है, संदर्भ के लिए इस्तेमाल भी करता है, लेकिन अधिकतर प्रभावित होता है मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती से। ऐसा यहां भी है। खंड ‘दो: स्मृति‘ में आशुतोष का निर्मल वर्मा से मिलना, बात करते हुए उन्हें पढ़ा होना और याद करना, लेखक-पाठक को पूरा करने में किस तरह भूमिका निभाता है, देखने लायक है। हिन्दी पाठकों के बीच अनजान से, समकालीन दार्शनिक रामचन्द्र गांधी ‘‘एक ऐसा अनुभव जो अपने मिथकीय व्योम में महाकाव्य हो जाना चाहता है।‘‘ से लेखक का संपर्क-संस्मरण, महाकाव्य के व्यापक संदर्भों से आत्मीय परिचित होने और आत्मसात करने के लिए आकर्षित करता है।

‘‘किसी लेखक को समझने के लिए उससे मिलना जरूरी थोड़े है‘‘ उद्धृत कर, खंड ‘तीन: संवाद‘ में कृष्ण बलदेव वैद और कृष्णा सोबती से अपनी मुलाकात-बात को गंभीर इन्द्राज बना कर, इस उद्धरण का नकार, रोचक है। खंड ‘चार: समय‘ डायरी है। रचनाकार की डायरी, दैनंदिनी से अलग और अधिक, वह नोटबुक, जो पाठक, प्रकाशक, बाजार से अपेक्षा-मुक्त है। वैद फेलो आशुतोष की डायरी के साथ, वैद की प्रकाशित डायरी-पुस्तकें याद आती हैं, जिन्हें पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता कि मैं यह क्यों पढ़ रहा हूं, लेकिन छोड़ नहीं पाता। वहीं मैं ‘कुकी‘ जैसे अनूठे चरित्र से परिचित हुआ, ‘दिल एक उदास मेंडक‘ जैसा दुर्लभ वाक्य वहां मिला, और वैद की स्वीकारोक्ति कि ‘‘यह सम्पादन इसलिए भी कि सब कुछ किसी को भी बताया नही जा सकता, अपने आपको भी नहीं।‘‘ आशुतोष की डायरी का 19 मार्च 2015, जो मेरे लिए खास है, वह अंश- ‘‘आज राहुल सिंहजी से उनके दफ्तर में मिला। बड़े कमजोर से लगे। उनके चेहरे की चमक और आवाज में चहक गायब थी। उनसे पूछा तो वे बोले‘ ‘जब मैं किसी मंत्री से मिलने जाता हूं, हारा और पिटा हुआ दिखने की कोशिश करता हूं, दासता के बोझ से दबा। गुलामी का भाव। ... ... ...‘‘ यहीं उन्होंने मेरी पुस्तक में मेरे परिचय का अंश, ‘‘सरकारी मुलाजिम, नौकरी के चौथे दशक में मानते हैं कि इससे स्वयं में दासबोध जागृत करने में मदद मिली है।‘‘ भी उद्धृत किया है। संयोग ही है कि लगभग डेढ़ साल पहले उपजी और साल भर पहले छपी मेरी रचना ‘एक थे फूफा‘, जिसमें यह परिचय है, का नायक भी अपने तरह से पितृ-वध करता है।

समग्रतः परम्परा की समष्टि में समाहित होते स्व को बचाए रखने का उद्यम है ‘पितृ-वध‘, जिसमें लेखक अपनी जगह तलाशते हुए पितर में मातर-स्त्री को शामिल कर, संवाद करते हुए एकाकी-एकांत ढ़ूंढ़ता है, अलग तरह का ‘सन्नाटा बुनता‘ है और पाठक को अपने नितांत निजी ‘डायरी‘ तक ले आता है। अस्तित्ववादी घोषणा ‘ईश्वर-परमपिता मर चुका है, हम लोगों ने उसे मार डाला है‘ जैसा ही कुछ-कुछ है यह ‘पितृ-वध‘, जिसमें सारे मुकाबले, अकेले हमारे हैं, इसलिए अब ‘उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता‘ में कोई महेश्वर नहीं है, द्रष्टा-कर्ता-भोक्ता, सारी जवाबदारी अपनी है।

आलोचना के लिए जरूरी पैनापन, समृद्ध संदर्भ और अंतर्दृष्टि तो लेखक में है, उसकी सजगता में सूझ है, लेकिन कहीं बूझ के लिए आंखें बंद करना जरूरी होता है, वह गुडाकेशी आशुतोष को मंजूर नहीं दिखता। यह पुस्तक, लेखक के भारतीय उपन्यास, आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर आने वाले मोनोग्राफ के लिए अपेक्षा जगाने वाली है, जिसमें उम्मीद है, अधिक गहरी अंतर्दृष्टि सहजता से तल पर उभरेगी। बहरहाल राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. और रज़ा फ़ाउण्डेशन के सह-प्रकाशन वाली आशुतोष भारद्वाज की यह आलोचना पुस्तक, सोचने के लिए ऐसी जमीन बना कर देती है, जिसे समय-समय याद करते, खोलते रहना हो, इसलिए बुक-शेल्फ वाली जरूरी पुस्तक है। डेविड अल्तमेज्द के चित्र को आवरण पर महेश वर्मा ने संजोया है, जिसमें पुस्तक की तरह परम्परा की मिट्टी का वजन है, तो मौलिकता की ताजी सार्थक लकीरें भी।