tag:blogger.com,1999:blog-15607451849211787762024-03-29T11:26:02.735+05:30सिंहावलोकनआगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्थ दृष्टिRahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.comBlogger397125tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-29562210071339088952024-02-26T06:51:00.005+05:302024-02-27T10:17:52.071+05:30पीएससी - दावे, आपत्तियां और निराकरण<div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा वर्ष 2023, पिछले 11 फरवरी को आयोजित हुई थी, 16 फरवरी को मॉडल आंसर जारी हुए और 27 फरवरी तक दावा-आपत्तियां मंगाई गई हैं। और अब खबर आई है कि आयोग मार्च के प्रथम सप्ताह में संशोधित मॉडल आंसर जारी करेगा, जिसके आधार पर परिणाम घोषित किए जाएंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच से जूझ रहे छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग की इस परीक्षा पर खबरें आईं, उनमें उल्लेखनीय कि ‘पहली आपत्ति (सत्तारूढ़) भाजपा नेताओं की तरफ से आई और खबरों के अनुसार इसके बाद मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी मुखर हो गई है। अभ्यर्थी और कोचिंग संस्थान, जो सीधे प्रभावित होने वाले पक्ष हैं, भी खोज-बीन में जुटे होंगे। लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अनियमितता, पक्षपात, भूल-गलती, विलंब, अदालती और जांच की कार्यवाही जैसी की खबरें लगातार आती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के साथ अन्य राज्यों की स्थिति भी कमोबेश एक जैसी है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">फिलहाल जांच वाले विषय को छोड़ कर परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों, मॉडल आंसर और उन पर दावा-आपत्ति की समस्या को समझने का प्रयास करें। यह स्थिति अधिकतर प्रारंभिक परीक्षा, जिसमें बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न होते हैं, के साथ होती है। इसमें मानवीय कारकों के चलते होने वाली त्रुटि दूर करने के लिए उत्तर पुस्तिकाएं ओएमआर शीट के रूप कर दी गईं। एक समस्या ऐच्छिक विषय और स्केलिंग को ले कर भी होती थी, जिसके कारण अब ऐच्छिक के बजाय, सभी अभ्यर्थियों के लिए एक जैसा प्रश्नपत्र होने लगा है। यह माना जा रहा है कि इससे विज्ञान, अभियांत्रिकी और तकनीकी विषय के अभ्यर्थियों को लाभ मिलता है, कला-मानविकी के अभ्यर्थी पिछड़ जाते हैं। अंतिम चयन के आंकड़े देखने पर स्थिति कुछ ऐसी ही दिखाई पड़ती है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस परीक्षा के कुछ सवाल, जिन पर आपत्तियों की चर्चा है, क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटा जिला, जिले में लिंगानुपात, बस्तर की लोक संस्कृति में विवाह मंडप में प्रयुक्त होने वाली लकड़ी, छत्तीसगढ़ राज्य कितने राज्यों की सीमा को छूता है? इन प्रश्नों पर ध्यान दें तो स्पष्ट होता है कि आपत्तियों का मुख्य कारण काल-सन का उल्लेख न होना है, अर्थात छत्तीसगढ़ में पिछले वर्षों में नये जिले बने हैं, इसके बाद आंकड़ों का बदल जाना स्वाभाविक है, इसी तरह राज्यों की सीमा में बिहार-झारखंड या आंध्र से तेलंगाना भाग का राज्य बनना, उत्तर में मतभेद का कारण बनेगा। बस्तर के प्रश्न में लोक-संस्कृति बनाम जनजातीय संस्कृति के अलावा, विभिन्न जनजातियों की भिन्न परंपराएं, भौगोलिक क्षेत्र (बस्तर का विस्तृत क्षेत्र, जो अब सात जिलों में से एक है।) उत्तर में मतभेद की स्थिति का कारण बनता है। हिंदी और अंग्रेजी के प्रश्नों में अंतर, भाषाई भूल के अलावा प्रकाशित, सार्वजनिक उपलब्ध स्रोत अथवा प्रश्नपत्र में छपाई की भूल, प्रूफ केी गलतियां भी समस्या का कारण बनती है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ऐसे प्रश्न, जिनके मॉडल आंसर पर आपत्तियां होती हैं, सामान्यतः सामाजिक विज्ञान-मानविकी के होते हैं, परंपरा-मान्यता से संबंधित होते हैं। ऐसा इसलिए कि प्राकृतिक विज्ञान के प्रश्नों जैसी वस्तुनिष्ठता सामाजिक विज्ञान के प्रश्नों में संभव नहीं होती। विज्ञान में कारण होते हैं तो कला में कारक। और विज्ञान में भी आवश्यक होने पर नियत मान के साथ एनटीपी जोड़ा जाता है, यानि वह मान सामान्य ताप-दाब पर होगा, अन्यथा बदल जाएगा। कालगत आंकड़ों में जनगणना दशक, योजनाएं पंचवर्षीय और अनेक सर्वेक्षण-प्रतिवेदन वार्षिक होते हैं। इस मसले के कुछ अन्य पक्षों को सीधे उदाहरणों में देख कर समझने का प्रयास करें। छत्तीसगढ़ की काशी, कई स्थानों को कहा जाता है। मूरतध्वज की नगरी आरंग भी है, खरौद भी। खरौद, खरदूषण की नगरी है तो बड़े डोंगर में भी खरदूषण की जनश्रुति है। सोरर की बहादुर कलारिन, लोक विश्वास में बड़े डोंगर में भी है। ऐसी स्थिति में ‘कहा जाता है, माना जाता है ...‘ वाले प्रश्न वस्तुनिष्ठ कैसे होंगे! </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रश्नपत्र तैयार करने वालों, माडरेटर्स और अभ्यर्थी, इन सभी की समस्या जो अंततः आयोग की समस्या बन जाती है, यह कि किन स्रोतों को प्रामाणिक आधार माना जाए। शासन की वेबसाइट अपडेट नहीं होती, दो शासन की ही दो भिन्न साइट पर तथ्य और आंकड़े भिन्न होते हैं (पूर्व में वन विभाग से संबंधित एक प्रश्न में ऐसी स्थिति बनी थी।) इसके साथ पुनः उदाहरणों सहित बात करें तो 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास का उल्लेख विभिन्न स्थानों पर है, मगर तिथियां अलग-अलग मिलती हैं, और खास बात यह कि किसी प्राथमिक-प्रामाणिक स्रोत से पुष्टि नहीं हो पाती कि गांधी 1920 में छत्तीसगढ़ आए थे। इसी तरह वीर नारायण सिंह की फांसी के स्थान में मतभेद है और डाक तार विभाग द्वारा जारी डाक टिकट में उन्हें तोप के सामने बांधा दिखाया गया है साथ ही उनके एक वंशज ने कुछ और ही कहानी दर्ज कराई है। पहली छत्तीसगढ़ी प्रकाशित रचना ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ के प्रकाशन की तिथि विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्य-इतिहासकारों ने अलग-अलग बताई है। ऐसे ढेरों उदाहरण और भी हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सामान्य अध्ययन और सामान्य ज्ञान के फर्क का ध्यान भी आवश्यक होता है। सामान्य अध्ययन, ऐसी आधारभूत जानकारियां हैं, जो सामान्यतः अध्ययन से, पुस्तक आदि माध्यम से पढ़ाई प्राप्त होती हैं और जिन जानकारियों की अपेक्षा किसी सामान्य जागरूक नागरिक से की जाती है, जबकि सामान्य ज्ञान आवश्यक नहीं कि पुस्तकों में आया हो, जहां समझ-बूझ की अपेक्षा होती है, और यह संस्कृति-परंपरा की दृष्टि से कई बार वैविध्यपूर्ण छत्तीसगढ़ में मतभेद का कारण बनती है, एक उदाहरण हरियाली अमावस्या का है, जो मैदानी छत्तीसगढ़ में हरेली, सरगुजा में हरियरी और बस्तर में अमुस तिहार नाम से प्रचलित है। कुरुद- धमतरी क्षेत्र के पंडकी नृत्य से अन्य छत्तीसगढ़ लगभग अनजान है, वह सुआ नृत्य-गीत को जरूर जानता है। बस्तर का दशहरा, दंतेश्वरी देवी का पर्व है, रायपुर के आसपास रावण की विशाल स्थायी मूर्तियां हैं, जिनकी पूजा भी होती है, सरगुजा में गंगा दशहरा का प्रचलन है तो सारंगढ़ के आसपास दशहरा के आयोजन का प्रमुख हिस्सा मिट्टी की मीनारनुमा स्तंभ पर चढ़कर गढ़ जीतना होता है। राम-रावण और रावण-वध वाला दशहरा तो है ही। इसी तरह भाषाई फर्क में शिवनाथ के उत्तर और दक्षिण यानि मोटे तौर पर बिलासपुर और रायपुर, दोनों की छत्तीसगढ़ी का फर्क क्रमशः- अमरूद जाम-बिही है, मेढ़क बेंगचा-मेचका है, तालाब तलाव-तरिया है और कुछु काहीं हो जाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस समस्या का सीधा और आसान हल दिखाई नहीं देता, मगर कुछ हद तक इसे कम किया जा सकता है, जैसे- मानविकी के प्रश्नों में एकमात्र सही विकल्प के बजाय निकटतम विकल्प को सही माना जाए। मान्यता है, कहा जाता है आदि जैसे प्रश्न न पूछे जाएं। आंकड़ों वाले प्रश्नों के कारण यह स्पष्ट हो कि सही उत्तरों के लिए निर्धारित तिथि क्या होगी। दावा-आपत्ति में गाइड बुक की जानकारियों के बजाय पाठ्य-पुस्तकों और अधिक प्रामाणिक ग्रंथों में आई जानकारी को सही माना जाए, मगर प्रश्न अनावश्यक चुनौतीपूर्ण न हों, क्योंकि अभ्यर्थी, विद्यार्थी होता है, शोधार्थी नहीं, और परीक्षा सामान्य ज्ञान की ली जानी है। एक ही प्रामाणिकता के दो स्रोतों में जानकारी में अंतर हो तो, परीक्षा के लिए निर्धारित माह-वर्ष के ठीक पहले अर्थात अंत में आई, अद्यतन जानकारी को प्रामाणिक माना जाए। यानि ऐसे आंकड़े या जानकारियां, जब तक विशिष्ट महत्व के न हों, करेंट अफेयर की तरह, अद्यतन स्थिति के ही प्रश्न होने चाहिए। इस तरह अन्य बिंदु निर्धारित कर वह परीक्षा की अधिसूचना के साथ प्रश्न-पत्र पर भी स्पष्ट अंकित हो।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitgznT14ZerSvhw6TaogxCKdmSgBZTsKgH74ku89sSdbfVegOT0zr9gYMTCJZA0hPbS0n1Iq3uph2arqdBycJfB3ZDbf3Lnvv7f3JrixYj9Z99hiMx69u7KdxGSZCsdooqfHSyoFlGHABWPwogAAJaaPy9a0vwurtj673CncD7p0qNSKWpoG-O5Gx9cx4E/s873/Screenshot%202024-02-25%20072124.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="873" data-original-width="716" height="364" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitgznT14ZerSvhw6TaogxCKdmSgBZTsKgH74ku89sSdbfVegOT0zr9gYMTCJZA0hPbS0n1Iq3uph2arqdBycJfB3ZDbf3Lnvv7f3JrixYj9Z99hiMx69u7KdxGSZCsdooqfHSyoFlGHABWPwogAAJaaPy9a0vwurtj673CncD7p0qNSKWpoG-O5Gx9cx4E/w298-h364/Screenshot%202024-02-25%20072124.png" width="298" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-42393363301277251422024-02-21T06:38:00.003+05:302024-02-21T10:03:40.985+05:30दो महीने, नौ किताबें<div style="text-align: justify;">2022-2023 दिसंबर-जनवरी, दो महीनों में फुटकर पढ़ाई के साथ पढ़ी गई नौ किताबें। 2019 से 20022 के बीच छपी नौ की नौ सुशोभित की- </div><div style="text-align: justify;">माया का मालकौंस (2019) </div><div style="text-align: justify;">गांधी की सुंदरता, सुनो बकुल! (2020) </div><div style="text-align: justify;">कल्पतरु, दूसरी कलम, अपनी रामरसोई (2021) </div><div style="text-align: justify;">पवित्र पाप, देखने की तृष्णा, मिडफ़ील्ड (2022) </div><div style="text-align: justify;">मेरी जानकारी में इसके अलावा उनकी गद्य की माउथ ऑर्गन, बायस्कोप, बावरा बटोही, आइंस्टाइन के कान, यह चार तथा कविता की अन्य चार पुस्तकें अब तक (जनवरी 2023) प्रकाशित हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_CLVeU5N7PDCSD5_MKzqZ8O_IWccSAqZ_vKoFO7trLZS0n0IH8z5Txc1BYV8qQXSiyHb2PqMWy_BiOXR5vyVk5yjXXFU8vAt07Sp2O0HWhumJPQDCH5YAIFnc9Zou4reE36nkHn7uQnNDhIAJ3C6KaPUHNEIfe2MCaiZUXfOC9ENxo1cEXNgUcwBI3YKf/s2746/pic-sushobhit.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2314" data-original-width="2746" height="317" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_CLVeU5N7PDCSD5_MKzqZ8O_IWccSAqZ_vKoFO7trLZS0n0IH8z5Txc1BYV8qQXSiyHb2PqMWy_BiOXR5vyVk5yjXXFU8vAt07Sp2O0HWhumJPQDCH5YAIFnc9Zou4reE36nkHn7uQnNDhIAJ3C6KaPUHNEIfe2MCaiZUXfOC9ENxo1cEXNgUcwBI3YKf/w376-h317/pic-sushobhit.jpg" width="376" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">इन पर बात करने के पहले संक्षिप्त भूमिका। कोविड के आगे-पीछे नये-युवा लेखकों को पढ़ता रहा। 24 जुलाई 2020 को अपने फेसबुक पर ’चार-यार चालीसा’, ऐसे चार जो उम्र के चौथे दशक में हैं, की बात कही थी- </div><div><br /></div><div><i>मुझ जैसे बुजुर्ग के चौथे अंतःकरण या ग्यारहवीं इन्द्रिय, चंचल मन में ऐसे युवा के प्रति सम्मान होता है, जो यों अभिभावक मानते हुए व्यवहार करें, लेकिन आपस में ऐसी हर छूट की गुंजाइश रखें जो मित्रों के साथ होती है। चिड़िया और बच्चों से आप अपनी मैत्री का दावा कर सकते हैं लेकिन उस पर मुहर तभी लगती है, जब वे भी ऐसा मानें, प्रकट करें। </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>चार में से ऐसे दो उत्तर भारतीय पहले, आशुतोष भारद्वाज(1976) स्वयंभू किस्म के प्रखर, उत्साही मगर संयत बौद्धिक, किसी भी संस्कार-परंपरा से आकर्षित होते हैं, जूझने-परखने, जितना सम्मान करने, उतना ही खारिज करने को सदैव तत्पर। दूसरे, व्योमेश शुक्ल (1980) परंपरा के लक्षणों को संस्कारों से जोड़कर, सब भार स्वयं वहन करते हैं, मगर उसे प्रसंगानुकूल वजन घटा-बढ़ा कर व्यक्त कर सकते हैं, बनारसी स्निग्धता तो है ही। इन दोनों से अच्छी मेल-मुलाकातें हैं। </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>अन्य दो, मालवी, जिनसे कभी मुलाकात नहीं है, एकाध बार फोन पर बात हुई, उन्हें पढ़ता जरूर रहता हूं, लिक्खाड़ सुशोभित (1982) ऐसा लगा कि गांधी पर लिखते हुए उनकी सोच और अभिव्यक्ति में गांधी का स्थायी प्रवेश हुआ, पैठ गए, अधिक प्रभावी और रसमय बना दिया है। अनुशासन और मर्यादा का शील भी उनमें स्थायी है, इसके लगभग ठीक विपरीत अम्बर पांडेय (1984) अनुशासन की मानों उनकी अपनी संहिता हैं। उच्छृंखलता कभी अभिव्यक्ति में आती है, वह शायद स्वभाव की नहीं है, बल्कि यदा-कदा मन-तुरग को जीन-लगाम मुक्त कर हवाखोरी कराते रहते हैं (पिछले साल 2023 में सुशोभित से जनवरी में भोपाल में मुलाकात हुई और अम्बर मिल गए कथा कहन, जयपुर में, फरवरी में)।</i></div><div><br /></div><div><i>किसी चिंतक-दार्शनिक को पढ़ने में उसका जीवन-वृत्त जानना रोचक और मददगार होता है, यह देखने के लिए कि जीवन स्थितियों ने उसके विचारों पर कोई, क्या और कितना असर डाला है। चारों उम्र के चौथे दशक यानि तीसादि बरस आयु के हैं। अपना पर्याप्त समय पढ़ने में खरचा है। इनके लेखन से, इनकी दिमागी बनावट (इंटेलेक्चुअलिटी) को समझने का आनंद लेता रहता हूं। ऐसे मित्र, जिनके बारे में धारणा चाहे बदलती रहे, मेरे मन में इनके प्रति मैत्रीभाव एक जैसा अडिग बना हुआ है।</i></div><div><i><br /></i></div><div><i>(जेंडर बैलेंस आग्रह बतौर अगली किश्त विचाराधीन है☺️) </i></div><div><br /></div><div>अब 2022-2023 दिसंबर-जनवरी, दो महीनों में पढ़ी गई नौ किताबें, फुटकर पढ़ाई के साथ। सारी सुशोभित की। पढ़ते हुए कुछ नोट्स-टिप्पणियां-</div><div><br /></div><div># ‘पुस्तक को एक दिन में पढ़कर समाप्त हो जाना चाहिए। या जितने भी दिनों में वह पढ़ी जाए, वह मेरी चेतना में एक ही दिन हो।‘</div><div><br /></div><div># दृश्यों पर, स्वाद पर, शब्दों पर, आवाज पर मैं उनके साथ अपने पढ़ने का दायरा विस्तृत होते पाता हूं।</div><div><br /></div><div># कई बार ऐसा लगता है कि तथ्य, सूचना, संदर्भ एकत्र कर रहा है, और व्याख्या तक ले जाने के फिराक में है। मगर खुद को साबित करने के दबाव से मुक्त।</div><div><br /></div><div># भाषा सध जाए और मन ‘बहक‘ जाए फिर कलम क्योंकर न फिसले।</div><div><br /></div><div># एक अकेले एकांत में भटकता है, न ऊबता, न घबराता, कुछ जग की से होते अपनी तक आता है, सन्नाटा बुनता, सुनता, गुनता, गढ़ता है और दम मारने आता है शब्द-भाषा थामे, अभिव्यक्त होता है।</div><div><br /></div><div># वे जिस लेखक-जिद से लिखते हैं, उसके लिए पाठक-जिद से ही पढ़ना संभव होता है।</div><div><br /></div><div># इस जिम्मेदारी से लिख रहे हैं कि हिंदी पाठक को क्या पढ़ने-जानने, समझने-बूझने और मन बहलाते, पाठकीय भूख मिटाने को मिलना चाहिए।</div><div><br /></div><div># हिंदी पाठक को मुहैया कराने की यह जिद है, खासकर फुटबॉल और कुछ हद तक विश्व सिनेमा, विश्व साहित्य।</div><div><br /></div><div># फुटबॉल अपने नियमों के दायरे में, गोल के आंकड़ों के आगे कहां तक पहुंच जाता है। उस रेंज की, फलक की हैं जो कम समय में कम उम्र द्वारा लिखी गई, जिसे धीरज से पढ़ पाना, आमतौर पर जिद से ही संभव है।</div><div><br /></div><div># फिल्म की स्टोरी सुनना और सुनाना, कभी इसलिए कि फिल्म नहीं देख पाएंगे, या फिल्म देखनी है, ट्रेलर की तरह।</div><div><br /></div><div># खुली-खुली सी सरपट पढ़ जाने वाली, बात-बात में कविता बनकर चुनौती-सी बातें, कल्पतरु के गद्य में सुनो बकुल से अधिक कविताई होने लगी है।</div><div><br /></div><div># कवि मन के प्रवाह में कैसा वाक्य सहज रच जाता है- ‘और उसने भी बतलाया नहीं कि नहीं मैं तेरा नहीं हूं।‘</div><div><br /></div><div># पाठक को छूट हो, अगर चाहे सहज अर्थ या रूपकों का भेद ले, विचार और व्याख्या को प्रेरित करे, संभावना बनाए।</div><div><br /></div><div># मैं खुद को लेखक-पुस्तक के हवाले नहीं कर देता, मानता हूं कि वह मेरे हवाले है, इससे दबाव नहीं होता कि उसे शब्द दर शब्द पीना है, नजरें दौड़ती हैं फिर किताब की कुव्वत कि वह कितनी याद रहे, कितनी जज्ब हो और कितनी यूं ही गुजर जाए। सुनने-देखने पर इतना आसान काबू नहीं होता।</div><div><br /></div><div># किताबें- आप लेखक के पास नहीं पहुंच सकते, जब मन चाहे खोल-बंद कर सकते हैं, वह ‘लाइव‘ नहीं है कि अभिव्यक्त होने के दौरान सामने रहना जरूरी है, लिखा हुआ पढ़ते चिट मारने जैसा भी।</div><div><br /></div><div># सुशोभित- मूलतः फीचर वाले पत्रकार हैं, अहा! जिंदगी वाले, स्तंभ लेखन वाले। वरना पत्रकार कब सतही और सरसरी हो जाते हैं उन्हें खुद भी पता नहीं लगता और साहित्यकार कब अनावश्यक उलझाव भरे नाटकीय।</div><div><br /></div><div># सुशोभित- साहित्यकार कैसे हैं, हैं भी या नहीं, यह तो समीक्षक तय करेंगे यों वे लगभग लगातार पाठक, दर्शक या श्रोता-सी ही मुद्रा में होते हैं, लेकिन लेखक या कहें लिक्खाड़ आला दरजे के हैं।</div><div><br /></div><div># सुशोभित- लेखक, शहरी माहौल, अपने कार्य-स्थल की भीड़ और पारिवारिक सघनता के बीच भी अपने को नितांत एकाकी रख कर सृजन करता रहा है मगर यह भी जरूरी होता है कि उसमें जंगल, नदी के किनारे, सुनसान-सन्नाटे में स्थित रहते, भरा-पूरापन कितना उमगता है।</div><div><br /></div><div># सुशोभित- ‘रोज-मर्रा‘ का मरने से कोई ताल्लुक नहीं, फिर भी बहुतेरे अक्सर दैनंदिन जीवन को मशीनी-मुर्दों की तरह जीते हैं, मगर उसमें जीवन-मधु का संचय करना, संभव करते जान पड़ते हैं।
</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-87785946870173723122024-02-20T06:47:00.003+05:302024-02-20T07:47:29.819+05:30निगम सर को पत्र-1986<i>1986 का साल। तब न मेल, न मोबाइल। पत्र माध्यम होता था, अब लगता है कि ‘वे दिन भी क्या दिन थे‘ आदरणीय डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम (पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में विभागाध्यक्ष रहे, श्री शंकराचार्य व्यावसायिक विश्वविद्यालय, भिलाई के संस्थापक कुलपति), जिन्हें संबोधित यह पत्र है, बस इतना ही कहना है कि उनसे जितना पाठ-मार्गदर्शन कक्षा में मिलता था, शासकीय सेवा के दौरान मिलता रहा और अब भी मिलता रहता है। और खास कि यह पुर्जानुमा यह कागज उनके पास सुरक्षित था, उन्होंने मुझे वापस सौंप दिया। आगे पत्र का मजमून, जो अपना बयान खुद है-</i><div><br /></div><div>आदरणीय गुरुदेव,</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">व्यग्रता के फलस्वरूप इस कागज पर पत्र लिख रहा हूँ, प्रथम समाचार ताला से प्रतापमल्ल का ताम्बे का एक सिक्का मिला है, ऐसे सिक्के बालपुर और संभव है अन्य sites से भी मिले हों.</div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijUaRNu2XvZXPl_EN6W_BM0jZmr8y83o_53gKnNZPBa33CMHPS9eoAfOfJQlfArVOkRdLffSJFEM5AVYawDUq_-64B3vPtcungQnuZHfTuU6SmiMXisEjmK5E5FTBhvsllGmJ_a1nZ8AftYG-5fy6kEgxvuxSKeFNyFWeB2rgFoS-He7HN4o30K5J4dkI6/s996/Letter-Oct1986.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="883" data-original-width="996" height="319" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijUaRNu2XvZXPl_EN6W_BM0jZmr8y83o_53gKnNZPBa33CMHPS9eoAfOfJQlfArVOkRdLffSJFEM5AVYawDUq_-64B3vPtcungQnuZHfTuU6SmiMXisEjmK5E5FTBhvsllGmJ_a1nZ8AftYG-5fy6kEgxvuxSKeFNyFWeB2rgFoS-He7HN4o30K5J4dkI6/w359-h319/Letter-Oct1986.jpg" width="359" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">front back</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: justify;">दूसरा यह कि पीछे मुण्डेश्वरी मंदिर का plan है जिसमें नीली स्याही से regular lines वाला हिस्सा वास्तविक plan है, पेन्सिल से भरा हिस्सा, एक तरफ मात्र दिखाई गई दीवाल है, जबकि काली स्याही से बनाई गई टूटी रेखाएँ extension हैं, जिनके द्वारा इस मंदिर को भी ताराकृति भू-योजना बनाने के इरादे में हूँ, निःसंदेह आपकी स्वीकृति एवं अनुमति के बाद, मंदिर का काल भी इधर के ‘कोसली‘ के कालों का ही है, अंतर यह है कि इनमें बाहिरी भाग पर plan है, मुण्डेश्वरी में भीतरी भाग पर, जैसा नीचे चित्र से स्पष्ट है। जोना विलियम्स ने कुछ अन्य प्रकार से इसे अष्टकोणीय, ताराकृति, पंचरथ, आदि कहते हुए एक अन्य नाम कश्मीर के ‘शंकराचार्य‘ का दिया है. </div><div><br /></div><div style="text-align: center;">कोसली → मुंडेश्वरी </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">मेरे extension हेतु सचिवालय की विशेष सहृदयता देखने को मिली, और उन्होंने बहुत सामान्य से प्रयास के फलस्वरूप स्वतः ही 8.10.86 से अर्थात् लगभग 15 दिनों पूर्व extension order भेज दिया वह मुझे मिला, पिछले दिनों ही. इसमें आगे के लिए सुरक्षित मार्ग क्या हो सकता है, इसकी राय के लिए में स्वयं रायपुर उपस्थित होऊंगा, आपका मार्गदर्शन मूल्यवान होगा. </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी बीच आपका पत्र मिला, इसके लिए किसी टिप्पणी की स्थिति में मैं स्वयं को नहीं समझता, इतनी अतिरिक्त सूचना और देना चाहता हूँ कि इन सिक्कों पर जिस प्रकार का चक्र बनाया गया है ठीक वैसा ही, उतना ही सुन्दर colour polished terracotta चक्र हमलोगों को ताला से प्राप्त हुआ है, मैं उसके फोटोग्राफ व आकार आदि आपको लिख भेजूंगा, paper पढ़ने के समय आप वह भी प्रदर्शित कर सकते हैं या जिस तरह से आप उपयोगी मानें. </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">श्री नगायच जी व आपको संयुक्त दीपावली शुभकामना नगायच जी के पते पर ही भेज चुका हूँ मिला होगा, सूचनाएं एवं अभिवादन से नगायच जी को भी अवगत कराइयेगा. हमारी नयी findings (ताला की) संबंधी समाचार chronical में प्रकाशित होगा, cuttings नगायच जी को भेज दूंगा. </div><div><br /></div><div>सपरिवार कुशलता की कामना सहित रायकवार जी का अभिवादन भी ग्रहण करेंगे। </div><div><br /></div><div>राहुल </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">पुनश्चः बस्तर में (जगदलपुर) हो रहे परिषद के seminar के लिए मेरी कोई आवश्यकता समझें तो सेवा हेतु याद कीजिएगा. </div><div><br /></div><div>पत्र कार्यालय के पते पर भी भेज सकते हैं- </div><div>Office of the Registering Officer (Arch.) </div><div>Rajendra Nagar </div><div>Bilaspur (M.P.)
</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-43908182605011592272024-02-19T07:05:00.010+05:302024-02-23T06:11:36.474+05:30जेबकट जेलर और मेरी जेल-यात्रा<div style="text-align: justify;">यह उन दिनों की बात है, जब हमारा जेल आना-जाना लगा रहता था। खुलासा यों कि तब जेल विभाग के नाम में ‘सुधारात्मक सेवाएं‘ नहीं जुड़ा था, मगर उसकी पृष्ठभूमि बन रही थी। दहेज प्रताड़ना, बहू जलने-जलाने की घटनाओं के साथ बाल-बच्चेदार युवा ननद-जेठानियों का जेल जाना आम था। ऐसी महिलाओं के साथ उनके छोटे बव्वे भी होते थे, मां के साथ रहने के कारण इन मासूमों को जेल काटना होता था।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">बिलासपुर जेल के अधीक्षक और स्थानीय स्वयंसेवी संस्था ने जेल के साथ एक झूलाघर की योजना बनाई और यह सफलतापूर्वक संचालित होती रही, ऐसी गतिविधियों में रुचि होना पहला कारण बना। दूसरा कारण कि माखनलाल चतुर्वेदी और ‘पुष्प की अभिलाषा‘ कविता की रचना-भूमि के साथ बिलासपुर जेल में कैद रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जानकारी, प्राथमिक स्रोत से एकत्र करने की धुन लगी। इसी सिलसिले में तीसरी बात पता लगी कि बिलासपुर जेल-अमले में भी कोई जेबकट है। यह अधिकारी और कोई नहीं, स्वयं जेल-अधीक्षक डॉ. कृष्ण कुमार गुप्ता थे, जो मामूली जेबकट नहीं, इस विधा के पारंगत और डॉक्टरेट उपाधिधारी विद्वान थे।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">बाद में 8 जून 2010 को जेल प्रहरी प्रशिक्षण के एक सत्र में व्याख्यान के लिए मुझे रायपुर केन्द्रीय जेल का ‘आमंत्रण‘ मिला। इसके लिए जो कुछ बातें सोची-पढ़ी-कही थीं- आमतौर पर हम उसके बारे में नहीं सोचते, जिससे सीधा ताल्लुक न हो। आपकी यह संस्था ‘जेल’ मेरे लिए इसी तरह है। यों जेल से कुछ-कुछ नाता रहा है लेकिन बाहर-बाहर वाला। मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूं कि आमंत्रण पाकर मैं जेल के भीतर पहुंचने की बात के साथ, जेल के बारे में शायद ऐसा पहली बार सोचा और फिर क्या-क्या विचार आया यही आपसे बताना चाह रहा हूं।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">मैंने याद करने की कोशिश की कि बचपन में कब और क्या बदमाशी करने पर मुझे कमरे में बंद किया गया था और अब किस स्थिति में और क्यों मैं ऐसा बच्चों के साथ करने की सोचता हूं। कमरे में बंद किया गया- सजा पाया बच्चा अपराधी नहीं होता और अगर उसने गलती की है तो आशा की जाती है कि उसे कुछ देर कैद कर देने पर उसे अपनी गलती का अहसास होगा और आगे वह ऐसी गलती नहीं दुहराएगा।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पंडित सुंदरलाल शर्मा की हस्तलिखित जेल पत्रिका ‘श्री कृष्ण जन्म स्थान‘ और मेरी टायलर की पुस्तक सहित अन्य जेल साहित्य को भी याद किया। अण्डमान निकोबार का विश्वदाय स्मारक, काला पानी जेल याद आया। अस्थायी जेल, राजनैतिक बंदी, विचाराधीन और सजायाफ्ता। कोट लखपत, माण्डले। बंदी-प्रत्यक्षीकरण और मैग्ना कार्टा। निर्वासन, वन गमन, अज्ञातवास, नजरबंद, सामाजिक बहिष्कार, जात बाहर, जिला बदर। औरंगजेब-शाहजहां का आगरा कैद आदि के साथ कहीं पढ़ा हुआ कि बौद्ध धर्म में जेल के भी एक देवता हैं। राजिम के प्रसिद्ध कथावाचक संत कवि पवन दीवान राजनीति में ‘पवन नहीं यह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है‘ जैसे नारे के साथ राजनीति में आए, मध्यप्रदेश में मंत्री रहे। कहते मंत्री बन जाने पर लोग अपेक्षा ले कर आते, वे जवाब देते, जिसका मंत्री हूं, वही तो दे सकता हूं, उन्हें जेल विभाग मिला था।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">वापस जेबकट जेलर डॉ कृष्ण कुमार गुप्ता पर, जिनसे इस विधा के रहस्य सुनते-जानते समझ में आया कि जेबकटी या जेबकतरा कहने से बात पूरी नहीं बनती, क्योंकि इसमें कुछ कट करते हैं और कुछ पिक, इसलिए ‘पाकेटमार‘। उस्ताद या वस्ताज वे कहे जाते हैं, जो दोनों में माहिर होते हैं, गुप्ता जी ऐसे ही उस्ताद हैं। सागर, मध्यप्रदेश निवासी, वहीं अपराध शास्त्र में स्नातकोत्तर के बाद ‘पाकेटमारी‘ पर न सिर्फ शोध किया, पुस्तक Pickpockets - The Mysterious Species (1987) भी लिखी और शासकीय सेवा में आए।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">गुप्ता जी ने जेबकटी में ब्लेड के टुकड़े का इस्तेमाल, मुंह में ब्लेड छुपाकर रखना और मुश्किल आन पड़े तो चबाकर चूरा बना कर निगल जाना जैसे कई कमाल कर के दिखाए। मुंह में ब्लेड का टुकड़ा लिए, पानी पिया, साथ चाय-बिस्किट लिया, तब तक हम भूल चुके थे कि ब्लेड का टुकड़ा तो उन्होंने निकाला नहीं था, क्या निगल गए? पूछने पर सही-सलामत वापस मुंह से निकालकर टेबल पर रख दिया। बताया कि उस्ताद का दरजा यों ही नहीं मिल जाता, इसके लिए कई तरह के अभ्यास और उनमें माहिर होना पड़ता है, जिनमें से एक मार खाना है। दोनों हाथों से कान को ढकते हुए हाथ बांधकर सिर पर रख लेना और बैठ कर चेहरे को दोनों घुटनों के बीच छुपा लेना, इसके बाद कितने भी लात-घूंसे बरसे, सह लेना। इस विद्या के अपने कूट-शब्द हैं, जिनमें उंगलियों से जेब साफ करना ‘सलाई‘ है और ब्लेड का टुकड़ा ‘ताश‘। इन दोनों के इस्तेमाल- कट और पिक दोनों में समान महारत तो होनी ही चाहिए।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">जानना चाहा कि हम जो निशाने पर आ जाते हैं, उनके लिए क्या नसीहत होगी, बताया- लोग अक्सर बेखयाली में उस समय सब से अधिक गुम होते हैं, जब उनका ध्यान किसी अनावश्यक, निरर्थक दृश्य की ओर होता है। पाकेटमारों के लिए भीड़-भाड़, ट्रेन-बस, मेले-ठेले की भीड़ तो अच्छा मौका है ही, सबसे आसान शिकार वह होता है जो रेलवे स्टेशन के डिस्प्ले बोर्ड पर अपनी गाड़ी की स्थिति देख लेने के बाद भी गाड़ियों की सूचनाएं देखता रहता है। सावधानी क्या रखी जाए, के जवाब में बताया कि जिस जेब में पर्स है उसके साथ जेब में कुछ रेजगारी भी रखें, इसका अनुमान हो जाने पर कट की संभावना कम हो जाती है।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">जेल में एक कैदी से मुलाकात हुई, जिसके बारे में पता चला कि वह जेबकट है, पूछने पर कि क्या उसे मालूम है कि जेलर साहब भी तुम्हारे पेशे वाले हैं? उसने कहा कि सुना है, मगर उन्हें तो सरकार ने लाइसेंस दिया है। गुप्ता जी से लाइसेंस की बात पूछने पर असलियत मालूम हुई कि शोध के दौरान वे जेबकतरों की राजधानी बंबई गए। इसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालय से अपने शोधार्थी होने और फील्ड वर्क के लिए बंबई में रह कर अध्ययन करने का पत्र लिया था, जिसके आधार पर बंबई पुलिस ने उन्हें सहयोग करने का पत्र जारी किया था, इसलिए थानों में, पुलिस को या कभी अप्रिय स्थिति बनने पर यह पत्र-'लाइसेंस' दिखाना होता था।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">1997 का दौर। तब राज्य की राजधानी भोपाल के पत्रकारों से मेल-मुलाकात होती रहती थी। भोपाल जाने पर जनसंपर्क के बाबूदा‘ यानि नंदकिशोर तिवारी, राजकुमार केसवानी, रामअधीर, माध्यम के कमल तिवारी और अन्य साथियों में भरत देसाई होते, गोष्ठियां होतीं। भरत तब इंडिया टुडे में थे, मिसाल-बेमिसाल की योजना बनी और वे बिलासपुर आए। साथ एक उम्दा इंसान, फोटोग्राफर दिलीप बनर्जी भी थे, जिन्होंने बिलासपुर जेल में रह रही महिला, जिनके निरपराध बच्चे उनके साथ जेल में हैं, पर एक फोटो फीचर भी किया था। भरत देसाई की यह कहानी इंडिया टुडे के 27 अगस्त 1997 में छपी। इस कहानी के साथ, गुप्ता जी से ढेरों बातें हुईं, इस दौरान यहां लोगों की उपस्थिति में उन्हें ‘करतब‘ दिखाने का आग्रह किया गया, इस पर उन्होंने मुझे शिकार बनाया। मेरे बगल से गुजरे, दिलीप जी ने फोटो ले ली, वही पत्रिका में छपी। हम सब आश्वस्त कि सफल न हो सके, गुप्ता जी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, मगर फिर अगले मिनट मुस्कुराते हुए मेरा बटुआ मुझे लौटा दिया। आगे पत्रिका के पेज का चित्र और वह कहानी-</div><div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSBTgvZNeWeSAeQEmpcLMZVb565Bk6oYa5oavHQog4YK5Gj8jnBjjMXB93ibizhPIvFntOm9hV_bt23n6eW4dX6dUYqnvxy8h6IJux0owmN-s3Q5bw18m9Vd-xOLcvrykp6Xfjp3q0Vt1zod3eGTZxn8w9eOQc3iBBKR_dduUS85zfr0eVHuPor3p5ANMi/s706/post-pic.jpg"><img border="0" height="417" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSBTgvZNeWeSAeQEmpcLMZVb565Bk6oYa5oavHQog4YK5Gj8jnBjjMXB93ibizhPIvFntOm9hV_bt23n6eW4dX6dUYqnvxy8h6IJux0owmN-s3Q5bw18m9Vd-xOLcvrykp6Xfjp3q0Vt1zod3eGTZxn8w9eOQc3iBBKR_dduUS85zfr0eVHuPor3p5ANMi/w292-h417/post-pic.jpg" width="292" /></a></div><div><b><span><br /><div style="text-align: center;"><b><span>अभी भी खुजाती उंगलियां </span></b></div></span></b></div><div style="text-align: center;">बिलासपुर जेल के वर्तमान अधीक्षक एक समय ‘लाइसेंसधारी‘ पॉकेटमार हुआ करते थे </div><div style="text-align: center;"><br /></div><div><i>मध्य प्रदेश की बिलासपुर जेल के अधीक्षक डॉ कृष्ण कुमार गुप्ता जब आसपास हों तो सतर्क रहने की जरूरत है. आखिर वे सात साल तक पॉकेटमार रहे हैं और इस धंधे के गुरों से बखूबी वाकिफ हैं. वे कई दिनों तक, यहां तक की खाते हुए भी, मुंह में ब्लेड रख सकते हैं और फिर मिनटों में उसे दांतों से चकनाचूर कर सकते हैं. </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>गुप्ता की जिंदगी में यह खास मोड़ 1983 में आया जब सागर विश्वविद्यालय में अपराध-विज्ञान के छात्र के रूप में वे शोध का विषय नहीं तय कर पा रहे थे. तभी उनके संकाय अध्यक्ष की जेब कट गई. गुप्ता याद करते हैं, ‘‘पूरे परिसर में लोग जेबकतरों के बारे में किस्से गढ़कर सुनाते रहे लेकिन इस पेशे के बारे में प्रमाणिक जानकारी का अभाव देखकर मैं चकित रह गया.‘‘ बस, शोध का विषय तभी तय हो गया. </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>पर एक समस्या अभी बाकी थी. बकौल गुप्ता, ‘‘पॉकेटमारों का विश्वास जीतने का एक ही तरीका था कि मैं उन्हीं की जमात में शामिल हो जाऊं‘‘ सो वे कुख्यात पॉकेटमार मनोहर उस्ताद से मिले जिसने वादा किया, ‘‘जिस दिन तुम मुझे रंगे हाथ पकड़ लोगे, मैं तुम्हें शिष्य बनाने लायक समझूंगा‘‘ तीन महीने तक परछाई की तरह पीछा करने के बाद गुप्ता ने मनोहर को एक किसान की जेब साफ करते पकड़ ही लिया फिर बिलासपुर के इस शातिर जेबकतरे ने अपना वादा बखूबी निभाया. गुप्ता कहते हैं, ‘‘मैं गिरोह के लोगों के साथ ही उठता-बैठता और उन्हीं के साथ खाता-पीता.‘‘ इससे मध्य प्रदेश में सागर शहर के संपन्न तंबाकू व्यापारी उनके पिता बेहद परेशान हो गए. पर गुप्ता के शोध निदेशक समरेंद्र सराफ ने उन्हें भरोसा दिलाया कि उनके बेटे ने किसी खास उद्देश्य से ही असामाजिक रास्ता अख्तियार किया है. </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>धीरे-धीरे अभ्यास रंग लाया. गुप्ता गर्व से बताते है, ‘‘उन दिनों मध्य प्रदेश में उच्च श्रेणी के जेबकतरों में मनोहर उस्ताद के बाद मेरी गिनती होने लगी थी.‘‘ फिर दो साल तक मुंबई में सक्रिय रहने के दौरान उन्हें चौंका देने वाले अनुभव हुए. ‘‘सागर में रोजाना 200 से 500 रु. कमाई होती थी, पर मुंबई के जेबकतरे रोज 5,000 रु. तक कमाते थे.‘‘ पैसे से भी ज्यादा गुप्ता को जेबकतरों में आपसी संवाद के लिए प्रयुक्त भाषावली की समानता ने चकित किया. सागर और मुंबई दोनों जगह इस धंधे में ब्लेड को पान, रेलवे स्टेशन को चरखी, रेलवे टिकट निरीक्षक को मामा और सिपाही को ऊंचा कहा जाता है. उन्होंने जल्द ही ऐसे 1,000 कूट शब्दों को ढूंढ़ निकाला. </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>लेकिन यह आसान काम नहीं था. गुप्ता सागर में कई बार पकड़े गए और पिटे भी. पर शोध छात्र के रूप में पहचान के चलते वे गिरफ्तारी से बचते रहे. वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मैं एक तरह से लाइसेंसधारी पॉकेटमार था.‘‘ दर्जनों पॉकेटों से मारी गई रकम गिरोह के साथ मौज मस्ती में उड़ा दी जाती कभी-कभी वे पुलिस को खबर कर दिया करते थे कि आज वे फलां इलाके में सक्रिय हैं. फिर शाम को थाने जाकर कोई शिकायतकर्ता हुआ तो वे उसके पैसे लौटा दिया करते थे. </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>इस पेशे के गुर सीखते सीखते गुप्ता पॉकेटमारी में निपुण हो गए, उन्होंने सीखा कि सिक्के भरी जेब पर कभी हाथ साफ मत करो क्योंकि उनकी खनक से भंडाफोड़ हो सकता है. एक बार गुप्ता ने देखा कि चांदी की चार चूड़ियां खरीदकर निकले एक किसान के पीछे लगे मनोहर ने सफाई से दो चूड़ियां उड़ा लीं. बाद में मनोहर ने समझाया, ‘‘अगर मैं चारों चूड़ियां उड़ाता तो उसे अचानक वजन कम होने का एहसास हो जाता. यह सारे बेशकीमती सबक गुप्ता की थीसिस ‘डायनामिक्स ऑफ पिकपॉकेटिंग एज ए कैरियर क्राइम‘ में दर्ज हैं इसके लिए सबसे ऊपर आभार व्यक्त किए जाने वालों में मनोहर का नाम है. इस अध्ययन को देश भर में अपराध विज्ञान के अंतर्गत बेहतरीन शोधों में गिना जाता है और इसी के आधार पर गुप्ता को जेल अधीक्षक पद मिला. </i></div><div><i><br /></i></div><div><i>आज अपराधी उनके साथ सहज महसूस करते हैं. पॉकेटमार रमेश सोनकर का कहना है, ‘‘वे हमारी बिरादरी में से ही हैं‘‘ मनोहर उस्ताद को जब पता चला कि उससे धंधे के गुर धोखे से उगलवाए हैं तो शुरू उसे बड़ा गुस्सा आया, पर अब गुप्ता को उच्च पद पर देखकर उसे बेहद गर्व होता है. अपराध जगत से किनारा कर लेने के सात साल बाद गुप्ता मानते हैं कि उनकी उंगलियां अब भी जेब काटने को मचलती हैं. वे पूछते हैं, ‘‘क्या कोई बंदर उछल-कूद छोड़ सकता है?‘‘ और शरारत से मुस्कुराते हुए इस संवाददाता को उसका पर्स लौटा देते हैं.
</i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-2767345136020908732024-02-01T13:36:00.099+05:302024-03-04T09:43:44.122+05:30राजा की जान तोते में<div style="text-align: center;">अथवा </div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">शुक और मृतक स्मारकों का वृहत्तर परिप्रेक्ष्य</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कहानी में राजा की जान तोते में होती है, अक्सर ऐसा (राक्षस, दैत्यरूपी) राजा क्रूर और आततायी होता है मगर जालिम राजा की कोई कमजोरी होती है, जिसमें उसके ‘प्राण बसते हैं‘, यहां कहानी इससे अलग है। ऐसा राजा, जिसने अपने तोते के कारण, अपनी बात रखने के कारण अपनी जान दे दी। यह राजा प्रतापी, दयावान और लोकोपकारी भी था- गोवा का कदंबवंशी जयकेशी-प्रथम, जिसने अपनी जान दी प्रिय पालतू तोते के पीछे। जयकेशी की आकस्मिक मृत्यु की तिथि सन 1078, उनके पुत्र गुवालदेव के 1079 के अभिलेख के आधार पर अनुमानित है तथा प्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ में तोते वाली कहानी का उल्लेख है। वर्द्धमान, काठियावाड़ के आचार्य मेरुतुंग के 1306 में रचित संस्कृत ग्रंथ ‘प्रबन्धचिन्तामणि‘, जिसका हिन्दी अनुवाद 1932 में शांतिनिकेतन में रहते हुए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने, तथा सम्पादन जिन विजय मुनि ने किया। सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता द्वारा सन 1940 में प्रकाशित कराया गया। यद्यपि C H Tawney द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद ‘Wishing-Stone Of Narratives‘, 1901 में प्रकाशित हो चुका था।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">धारवाड़ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पुराशास्त्री शदाक्षरी सेत्तार ने मृत्यु के विभिन्न पक्षों- जैन-मृत्यु ‘सल्लेखना-कायोत्सर्ग-संथारा‘ और जैन ग्रंथ 'भगवती सूत्र' के 'मरण' जैसे विषयों पर गंभीर शोधपूर्ण लेखन किया है। विचारणीय कि जैन स्रोतों में विभिन्न प्रकार के मरण बताए गए हैं, यथा- अवीचिमरण, तद्भवमरण, अवधिमरण, आदिअंतिममरण, बालमरण, पंडितमरण, ओसण्णमरण, बालपडिण्तमरण, सशल्यमरण, बालाकामरण, वोसट्टमरण, विप्पाणसमरण, गिद्धपुट्ठमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, प्रायोपगमनमरण, इंगिनीमरण, केवलिमरण। सेत्तार की पुस्तकों का शीर्षक है- Inviting Death (1989) तथा Pursuing Death (1990)। इसी क्रम की आरंभिक पुस्तक 1982 में ‘Memorial Stones‘ उनके सह-संपादन में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में C V Rangaswami का लेख ‘Memorials for Pets, Animals and Heros‘ है, जिसके अंत में तोते और उससे किए गए वादे की स्मारक शिला स्थापित किए जाने का उल्लेख है। लेख के अंत में R N Gurav के शोध प्रबंध का संदर्भ दिया गया है। इसी संग्रह में R N Gurav का लेख ‘Hero-stones of the Kadambas of Goa‘ शीर्षक से है, किंतु इसमें जयकेशी-तोते वाले किसी स्मारक खंड- हीरो-स्टोन का उल्लेख नहीं है। R N Gurav का शोध, कर्नाटक विश्वविद्यालय में ‘The Kadambas of Goa and their inscriptions‘ पर 1969 में किया गया है, उनके शोध प्रबंध के अध्याय-5 में जयकेशी प्रथम की चर्चा है। यहां भी ‘प्रबंधचिंतामणि‘ का संदर्भ तो है, मगर तोते-जयकेशी के किसी स्मारक शिला का नहीं। इसी ‘Memorial Stones‘ पुस्तक में एक अन्य महत्वपूर्ण लेख On the Memorials to the Dead in the Tribal Area of Central India है, जिसमें बस्तर के मृतक-स्तंभों पर विस्तार से चर्चा है। बस्तर अंचल के मृतक स्तंभ, उरसगट्टा और उरसकल आम है साथ ही, छत्तीसगढ़ के मुख्यतः धमतरी-बालोद क्षेत्र के गांवों में बड़ी संख्या में और अन्य स्थलों में भी लौहयुग के महापाषाणीय शवाधान स्थल हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यहां एक कहानी, जो 3500 साल से भी अधिक पुरानी है, उसके बाद न जाने कब से कही जा रही है। पहली बार दर्ज हुई 1873-74 में, जब पुरातत्व सर्वेक्षण के जे.डी. बेगलर छत्तीसगढ़ आए। बेगलर ने बालोद से गुरूर-धमतरी के रास्ते में नवापारा से मुजगहन तक शिल्प और पाषाण खंडों का फैलाव देखा, जिसका हाल ‘सोरर‘ शीर्षक से बयान किया है। वहां उसने मद्य-विक्रेता कलाल और उसकी ज्यादतियों की कहानी सुनी। अवशेषों को किला होने की संभावना और सती-पाषाण खंड का उल्लेख किया। एक संरचना, संभवतः वही ‘बहादुर कलारिन की माची‘ कहा जाने लगा, का विवरण भी उन्होंने दिया है। 1933-34 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इन अवशेषों को 'स्टोन एज सिमिट्री?' कहा, इनके काल और प्रयोजन की जानकारी न होने तथा अब तक उत्खनन न होने की बात कही, इन्हें संरक्षित स्मारक घोषित करने का उल्लेख करते हुए स्थल पर कोई दंतकथा, लेख, उकेरन न होना भी बताया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1956-57 में डॉ. एम.जी. दीक्षित द्वारा धनोरा ग्राम में संक्षिप्त उत्खनन कराया गया था। इस क्रम में विभिन्न प्रकार के लगभग 500 महापाषाणीय स्मारक चिह्नित किए गए थे। उत्खनन से कंकाल अवशेष, मनके, कांच की चूड़ियां, खंडित ताम्रकलश आदि मिले थे। इस तरह स्थल की पहचान लौहयुगीन महापाषाणीय स्मारक स्थल के रूप में सुनिश्चित हुई और आगे काम की आवश्यकता रेखांकित हुई। अगले चरण में विस्तृत उत्खनन करकाभाट में ए.के. शर्मा ने 1990-91 में कराया। स्थल पर मेनहिर, कैर्न, पिट सर्किल, सिस्ट, डोलमेन, कैपस्टोन शवाधान पहचाने गए, जिनके उत्खनन से लौहयुगीन अवशेष पर्याप्त मात्रा में मिले। इस क्षेत्र में सोरर, धनोरा और करकाभाट के आसपास कुछ अन्य ग्रामों टेंगना, नवापारा, करहीभदर, चिरचारी, मुजगहन, कन्नेवाड़ा, बरही, बरपारा, कपरमेटा, धोबनपुरी, भरदा तक तथा धमतरी के लीलर और भंवरमाड़ा, बसना के पास बरतिया भांठा जैसे स्थलों में भी महापाषाणीय पुरावशेष होने की जानकारी मिलती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर‘ का चर्चित नाटक है ‘बहादुर कलारिन‘, 2004 में इसी शीर्षक से प्रकाशित नाटक-पुस्तक में उन्होंने बताया है कि 1975-76 में वे इस सोरर क्षेत्र में गए और बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘दुर्ग परिचय‘ (इस नाम की किसी पुस्तक का पता नहीं चलता, संभवतः दुर्ग दर्पण या छत्तीसगढ़ परिचय) में शामिल बहादुर कलारिन का मिथक पढ़ा, दुबारा गए, इलाके में फैले पुरावशेष देखे और लोगों द्वारा जमीन खोदते मूर्तियां और सोने के टुकड़े मिल जाने की बात सुनी तो यह नाटक लिखने और खेलने का मन बना लिया। नाटक बना, खेला गया, नाटक का अंत छत्तीसगढ़ी पारंपरिक सुआ गीत के तर्ज पर होता है- ‘जइसने तैं खाबे रे सुआ वइसने तोला देहूं रे, जीयत भर ले सुआ नाव ला तोर लेइहौं, नाव ल बताबे सोरर गांव के, जा जा रे सुआ कहि देबे पेड़ के संदेस ...‘।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यहां बात से निकली बात के बहाव की कुछ मौज और- दुर्ग जिला का पहला गजेटियर अंग्रेजी में 1910 में प्रकाशित हुआ, इसके आधार पर गोकुल प्रसाद द्वारा बनाया हिंदी ‘दुर्ग-दर्पण‘ 1921 में प्रकाशित हुआ। दुर्ग दर्पण का सोरर लगभग अंग्रेजी गजेटियर के सोरर का अनुवाद है, जिसमें कलारिन, राजा का शिकारी पक्षी-बाज, कलारिन महिला, उनके पुत्र छछान-छाड़ू, उसकी 160 पत्नियां, चावल कूटने के गड्ढे (खलबट्टे), छछान की लंपटता, मां द्वारा छछान को कुएं में ढकेल कर मार दिया जाना और स्वयं खंजर मारकर मर जाना, आया है। छछान छाड़ू की पूजा, सोरा-सोलह मुहल्लों या सरहरागढ़ के आधार पर सोरर नामकरण का उल्लेख है। स्वतंत्र भारत में दुर्ग जिला गजेटियर 1972 में प्रकाशित हुआ, इसमें आए सोरर का विवरण बेगलर रिपोर्ट पर आधारित है, जिसमें कलाल राजा, धान कूटने की ढेंकी के पत्थर पर बने छिद्र, वहां से गुजरने वाले प्रत्येक से बलपूर्वक ढेंकी में धान कूटने का बेगार कराने के साथ कलार जाति की महिला और राजपूत राजा की जनश्रुति का भी उल्लेख है, जो मुख्यतः 1910 के गजेटियर के अनुरूप है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1925 में प्रकाशित ‘रायपुर रश्मि‘ में एक किंवदंती का उल्लेख है, जिससे कलार-राजपूत की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है, इसमें बताया गया है कि कलचुरियों ने अपने वंशज भंडारी-कल्यपाल को सोरर का राज दे दिया, ये भंडारी राजप्रासाद में कल्य अर्थात् कलेऊ बना कर दिया करते थे, जो प्रचंड सैनिक निकले, कल्यपाल कलवार से कलार हो गया और दंड-सेना से डडसेना या डनसेना, जो इस अंचल में अब भी बड़ी संख्या में हैं। 1926 में राय बहादुर हीरालाल ने वाघराज के गुरूर शिलालेख के पाठ के साथ उल्लेख किया है कि गुरूर, कुछ समय पहले तक कांकेर राजाओं के अधीन था। इससे सोरर क्षेत्र के अवशेषों और जनश्रुतियों में सीमा-विवाद के युद्ध और उसके प्रभाव की संभावना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पुराने संस्कृत और बौद्ध साहित्य में भाण्डागारिक राजकीय पदनाम आता है, किरारी के काष्ठस्तंभ में भी यह शब्द आया है। ये राजकीय व्यवस्था में भंडार-कोष के प्रभारी होते थे। युद्ध के दौरान लाव-लश्कर वाली पूरी फौज के लिए खान-पान, भंडार का इंतजाम जरूरी होता था, इसके लिए सेना के साथ ऐसे भंडारी हुआ करते होंगे, जो सैनिक-योद्धा भी हों। पानीपत की दूसरी लड़ाई वाले हेमू का स्मरण करें, जो पहले नमक और रसद आपूर्ति करता था, भाण्डागारिक-कल्यपाल होते हुए (कलार भी शराब के अलावा नमक का व्यापार करते थे। यों हेमू की जाति को ले कर मतभेद है, कुछ इतिहासकार उसे ब्राह्मण तो कूुछ तेली मानते हैं, मगर उसका जन्मना नहीं तो कर्मणा इस तरह कलार वाला है।) दुर्घर्ष योद्धा-सेनापति बना, विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। बनिया-व्यापारी की तरह जाति-चरित्र बताने के लिए प्रचलित जोड़ा शब्द बनिया-बक्काल है। बक्काल यानि राशन विक्रेता और हेमू को मुस्लिम इतिहासकार-लेखक ‘हेमू बक्काल‘ लिखते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बस्तर में सुंडी-कलार समाज के लोग उपनाम ‘सेठिया‘ लिखते हैं। 2003 में प्रकाशित ‘बस्तर की प्राचीन राजधानी बड़े डोंगर‘ पुस्तिका के लेखक बस्तर लोक-इतिहास के अध्येता बहीगांव निवासी घनश्याम सिंह नाग स्वयं कलार हैं, लिखते हैं कि ग्राम पावड़ा के पास बारदा नदी बहती है। नदी की सात धाराएं हाड़ दरहा (अस्थि-विसर्जन स्थल) में आ कर मिल जाती हैं। किंवदंती का उल्लेख करते हैं कि यहां छचान चोढीन बहादुर कलारीन की शराब भट्ठी हुआ करती थी, इसलिए चट्टान को भाटी पखना कहते हैं। चट्टान में बने गोल-गोल गड्ढे बहादुर कलारीन की 'पांस-हांडी' है। शराब बनाने के पहले महुए को हांडी में डुबो कर रखा जाता है जब महुआ शराब बनाने योग्य हो जाना, 'पांस आना' है। बहादुर कलारीन सात आगर सात कोड़ी (एक सौ सैतालिस) हांडी पांस का मंद (शराब) बनाती थी, जिसे खरदूषण अकेला पी जाता था। यहीं खरदूसन रक्सा का आसन ‘खरदूषण पीढ़ा‘ और बहादुर कलारीन का खजाना ‘हांडा पखना‘ की किंवदंती भी है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">एक और कहानी की चर्चा कर लें, जिसका उल्लेख रसेल-हीरालाल 1916 में करते हैं। इस कहानी में एक कलार बालक, बालोद के राजपूत राजकुमार का महाप्रसाद (अनुष्ठानपूर्वक मित्र) था। राजा का लड़का, कलार की बहन के प्रति आकर्षित हो कर उस पर बुरी नजर रखता था। कलार अपने महाप्रसाद के पिता-फूलबबा, राजा के पास शिकायत ले कर गया कि एक कुत्ता हमारे घर को गंदा कर रहा है, उसका क्या करना चाहिए। राजा कहता है कुत्ते को मार देना चाहिए। राजा से जबान लेने के बाद कि इसके लिए उसे दंडित नहीं किया जाएगा, अगले दिन अपने ‘महाप्रसाद‘-प्रिय मित्र को मार डालता है। इसके बाद हुई लड़ाई की परिस्थितियों के चलते कलारों ने बालोद छोड़ दिया यह लड़ाई डंडे से लड़ने के कारण कलार, ‘डंड-सेना‘ कहलाए और आज भी डंडसेना-कलार, बालोद का पानी नहीं पीते। उल्लेखनीय कि यहां आए दो नाम दुर्ग-दर्पण वाले गोकुल प्रसाद, हीरालाल के अनुज, कलार थे। गोकुल प्रसाद की पुत्री श्रीमती पार्वती बाई राय अपने पूर्वजों के लिए लिखती हैं- ‘यद्यपि कलार हैहय वंशियों की शाखा कलचुरि से उत्पन्न है ...।‘</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हजारी प्रसाद द्विवेदी के गांव की बात भी याद की जा सकती है। वे अपने निबंध ‘मेरी जन्मभूमि‘ में लिखते हैं- ‘हमारे गांव से कलवार या प्राचीन ‘कल्यपाल‘ लोगों की बस्ती थी, जो एकदम भूल गए हैं कि उनके पूर्वज कभी राजपूत सैनिक थे और सेना के पिछले हिस्से में रह कर ‘कल्यवर्त‘ या ‘कलेऊ‘ की रक्षा करते थे।‘ माना जाता है कि इनमें जायस, अमेठी, उत्तरप्रदेश निवासी जायसवाल कहलाए, शिवहरे को सोम-हरे के व्युत्पन्न माना गया है। राय-कलार, राज-काज से संबंधित होने को रेखांकित करने के लिए कहे जाते हैं। मेरे गांव अकलतरा में कुछ उत्कृष्ट और भरोसेमंद हिसाब-किताब रखने वाले प्रशासकीय और वित्तीय नियंत्रण-कुशल मुनीम-मुख्तियार (जमीन-जायदाद का हिसाब किताब रखने वाले राजस्व-अमले के सदस्य भी) कलार-जायसवाल रहे हैं। दूर की कौड़ी सही, मगर क्या छछान छाड़ू का धान कुटवाना, भंडार और रसद के प्रबंध से संबंधित है? इस क्षेत्र और बालोद के बीच बहने वाली नदी तांदुला है। धान कूट कर चावल बनाना और नदी का नाम तांदुला (तंडुल-चावल) में कोई सूत्र-संकेत हो या महज संयोग, उल्लेखनीय अवश्य है। तथा कलार और छछान का संबंध उस श्येन-बाज पक्षी से भी हो सकता है जो वैदिक साहित्य में मुंजवत् पर्वत से सोम ले कर आता है। जनश्रुतियों की विविधता और यह विवरण, शोधार्थियों के लिए उपयोगी हो सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हबीब तनवीर इस दौर में सोरर क्षेत्र में हुए-हो रहे पुरावशेषों के नुकसान का उल्लेख तो करते हैं, मगर यहां कराए उत्खनन और राज्य शासन द्वारा संरक्षित स्मारक-स्थल करकाभाट, करहीभदर, धनोरा, कुलिया, मुजगहन साथ ही इनमें प्रमुख स्मारक चिरचारी स्थित ‘बहादुर कलारिन की माची‘, जो लगभग 15-16 वीं सदी ईस्वी में निर्मित किसी मंदिर का अवशिष्ट मंडप भाग जान पड़ता है, का उल्लेख नहीं करते। संभवतः वे इससे अवगत नहीं हुए या इसका जिक्र करना आवश्यक नहीं माना। उन्होंने बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘दुर्ग परिचय‘ का उल्लेख इस कथा के संदर्भ में किया है, संभव है उक्त पुस्तक में कथा भिन्न प्रकार से आई हो मगर बलदेव प्रसाद मिश्र की प्रचलित पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ के 1960 में प्रकाशित चौथे संस्करण में ‘सोरर‘ शीर्षक से कहानी है, जिसमें सोरर में कटार लिए हुए नारी मूर्ति (संभवतः योद्धा-सती स्मारक शिला) का उल्लेख है, यहां भी छछानछाड़ू है, जिसे उसकी माता ही धक्का मारकर कुंए में गिरा देती है और कटार से आत्महत्या (स्वेच्छा मृत्यु वरण) कर लेती है, मगर इसमें ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ जैसा कुछ नहीं है, जो हबीब तनवीर के नाटक में प्रमुखता से आया है। स्थानीय लोगों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में ऐसा संकेत-मात्र है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी कथा-गीत‘ में ग्राम सोरर के नागरिकों अंतूराम कान्डेय और पुनीत पटेल का दिनांक 25/07/2009 का साक्षात्कार प्रकाशित है, जिसमें जानकारी है कि अंतूराम जी ने भी बहादुर कलारिन की कथा पर नाटक लिखा है। इनके अलावा सोरर के गोस्वामी, कुंभज परिवार के सदस्य ‘बहादुर कलारिन‘ नाटक के इस संस्करण से जुड़े रहे हैं, बताते हैं कि हबीब तनवीर के नाटक के ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ से असहमति के कारण यह नाटक 1984 में तैयार किया गया, जिसकी 50 से अधिक प्रस्तुतियां दो-तीन साल में हुईं। इस नाटक में 160 या छै आगर छै कोरी यानि 126 के बजाय 147 यानि सात आगर सात कोरी ओखलियां बताई गई हैं। पुनीत राम बताते हैं कि ‘हमारी मान्यता है कि छछानपुत्र की माता को एक गलतफहमी हुई थी। बहादुर कलारिन बेटे से कहती है कि तुम इतनी स्त्रियों का अपहरण कर उन्हें ले आये हो तो जो पसंद है उससे शादी करो। बेटा कहता है कि तुम्हारी जैसी सुदर और गुणवती कोई नहीं- यही बात गलतफहमी का कारण बनती है।‘ तथा यहां छछानछाड़ू का मंदिर है, उसे देवता के रूप में पूजा जाता है और बहादुर कलारिन का भी मंदिर बन रहा है, ... आसपास के गांव के लोग भी उसे देवी मानते हैं। विभिन्न प्रसंगों में देखा जा सकता है कि मृत्यु का वीरोचित स्वैच्छिक वरण या ‘इहलीला समाप्त करना‘, समाधि लेना आदि महिमामंडित होकर सम्मानित और पूजित होने लगता है। इसे आत्महत्या की तरह कायराना नहीं माना जाता था। प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ में बहादुर कलारिन की तरह दसमत ओड़निन, बिलासा केंवटिन, राजिम तेलिन, न्यौता धोबनिन, गंगा-चंदा ग्वालिन, गुजरी गहिरिन और सुसकी, लोहारिन, कोहारिन जैसी विभिन्न नारियों के नाम और शौर्यगाथा/महिमा, त्याग और उत्सर्ग लोक की स्मृति में हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ के मल्हार (बिलासपुर), आतुरगांव (कांकेर) और छातागढ़ (दुर्ग) से ईसा की आरंभिक सदी के अभिलिखित पाषाण-खंड प्राप्त हुए हैं, जो स्मृति लेख हैं। इन्हें स्मरण-स्तंभ/शिला कहना उपयुक्त होगा, ‘स्मरण‘ में स्मृति भी है और मरण भी। दुर्ग-राजनांदगांव अंचल में योद्धा और सती-स्मारक पाषाण बड़ी संख्या में हैं। बालोद के कपिलेश्वर मंदिर समूह से संलग्न परिसर में ऐसे पुरावशेष एकत्रित कर प्रदर्शित किए गए हैं, इनमें से कुछ अभिलिखित हैं। यहां प्राप्त एक सती स्तंभ पर के तीन पंक्तियों वाले अभिलेख का काल प्रिंसेप ने दूसरी सदी ईस्वी ठहराया, ऐसा स्वीकृत हो तो यह सबसे पुराना सती-स्तंभलेख होगा। अन्य अभिलेख लिपि और उकेरन के आधार पर ये गोंडकालीन इतिहास से संबंधित अर्थात् सोलहवीं सदी ईस्वी तक प्राचीन, अनुमान होता है। ऐसे कुछ पाषाण खंड परवर्ती काल के भी हैं। </div><br /><div style="text-align: justify;"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3PUM8Xs2gBOvqgiiQNY7VVbecPZEn_AHWtxL4-vNOOPM4DSzfAlIQdavz8whzkhIXzXzHGEqkbHOqciAsXZtbyh8TiKPzy3u_0JQ-EvkzC9iXYInQ9cWixi3zzFm857peKSan4p7pY8MRq6voNwmsOuG_SxvvVxIDRY1j4Y9COjyz1ZBDattZY30d2oub/s1280/Gurha-Ajay.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="686" data-original-width="1280" height="172" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3PUM8Xs2gBOvqgiiQNY7VVbecPZEn_AHWtxL4-vNOOPM4DSzfAlIQdavz8whzkhIXzXzHGEqkbHOqciAsXZtbyh8TiKPzy3u_0JQ-EvkzC9iXYInQ9cWixi3zzFm857peKSan4p7pY8MRq6voNwmsOuG_SxvvVxIDRY1j4Y9COjyz1ZBDattZY30d2oub/s320/Gurha-Ajay.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><div style="background: white;"><b><span style="font-size: x-small;">कवर्धा से लगभग 25 किलोमीटर दूर <br />संकरी नदी के बाए तट के ग्राम गुढ़ा के <br />14-15 वीं सदी इस्वी के सती स्तम्भ <br />(चित्र सौजन्य- श्री अजय चंद्रवंशी)</span></b></div></td></tr></tbody></table></div><div style="text-align: justify;">प्रसंगवश, महाभारत, वनपर्व 190/67 में संभवतः बौद्ध स्तूपों और मृतक-समाधियों के लिए कहा गया है कि युगांतकाल में देवस्थानों, चैत्यों और नागस्थानों में हड्डी जड़ी दीवारों के चिह्न होंगे ...‘। एक अन्य उल्लेखनीय संदर्भ, हूणों से युद्ध में मारे गए गोपराज (जिसके नाना शरभ, संभवतः वही जो दक्षिण कोसल के प्रसिद्ध शरभपुरीय राजवंश के संस्थापक थे) की पत्नी के सती होना, आरंभिक ज्ञात अभिलिखित स्पष्ट उल्लेख 510 ईस्वी के भानुगुप्त के एरण (सागर, मध्यप्रदेश) शिलालेख में आया है। 1829 में सती प्रथा उन्मूलन के पश्चात नागपुर के अधीन छत्तीसगढ़ में सितंबर 1931 में सती प्रथा पर कानूनी रोक लगाए जाने की जानकारी मिलती है। नीचे छातागढ़ से प्राप्त, वर्तमान में महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में प्रदर्शित अभिलिखित दो शिलाओं के चित्र। स्थल का नाम ‘छातागढ़‘ ध्यातव्य है, क्योंकि छत्र, छाया, छाता आदि जैसे शब्द-भाव मृतक-शिलाओं के लिए प्रयुक्त होते थे।</div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0"><tbody><tr><td><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjBfJ55BQaqH-q-D1Uhb8QZLgAexXp9AdOeKJzie_PbDMUUXc8X9-EO0ZtsI9emNmOQtpuSgevR9PHPF40jpk7JpUfYq8YgWqjLiIy0ukuILtzAiNHHaaWCX-MkA7I3A_c5sLJSX-Q2OUo9ChEKBHHAxJL3Cfkx0TaSA1M_RFdQ0sCZl0OINmZ_GMdwi-q/s1313/Chhatagarh.png"><img border="0" height="121" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjBfJ55BQaqH-q-D1Uhb8QZLgAexXp9AdOeKJzie_PbDMUUXc8X9-EO0ZtsI9emNmOQtpuSgevR9PHPF40jpk7JpUfYq8YgWqjLiIy0ukuILtzAiNHHaaWCX-MkA7I3A_c5sLJSX-Q2OUo9ChEKBHHAxJL3Cfkx0TaSA1M_RFdQ0sCZl0OINmZ_GMdwi-q/w372-h121/Chhatagarh.png" width="372" /></a></td></tr><tr><td><span><b>निस छाया/सिधनेगमसरह घरनिय समि-निका छाया</b></span></td></tr></tbody></table><div><br /></div><div style="text-align: justify;">‘प्रबंधचिंतामणि‘ का परिचय मेरे लिए कुछ इस तरह का- बारहवीं सदी के ग्रंथ कल्हण की राजतरंगिणी इतिहास-दृष्टि से रचित आरंभिक कृति माना गया है, जिसमें प्राचीन अभिलेखों- शिलालेख, ताम्रपत्र, तालपत्र, भूर्जपत्र, दानपत्र, ग्रंथों, किवदंतियों, जनश्रुतियों जैसे सभी स्रोतों का इस्तेमाल है और इस ग्रंथ की तैयारी में देशाटन कर भूगोल की जानकारी सहित समकालीन परिस्थितियों से भी वे परिचित हुए। विक्रमांकदेवचरित, गौड़वहो, पृथ्वीराज दिग्विजय और कीर्तिकौमुदी जैसी कृतियों को इसी परंपरा का मान मिला है। इसके साथ इतिहास अध्ययन के तौर-तरीके और स्रोत-सामग्री पर विचार करते चलें। पुरातात्विक वस्तुएं व्याख्या निर्भर होती हैं। साहित्यिक स्रोतों में कल्पना, रूपक और प्रतीकों, लक्षणा-व्यंजना होती है। विश्वसनीय माने जाने वाले अभिलेखों में तिथि अंकित न होना, अतिशयोक्ति आदि के कारण उनकी भी तथ्यात्मक विश्वसनीयता कम हो जाती है। कई बार ऐसे भिन्न स्रोतों को मिलाने पर वंशक्रम, पूर्वज-वंशज, उत्तराधिकारियों की जानकारी में भी विसंगति होती है। ऐसी स्थिति में जिस काल से संबंधित राजवंशों, घटनाओं, समाज और लोगों के पर्याप्त इतिहास का अभाव हो, वहां कोई भी पूरक और समानांतर सूचना का स्रोत महत्वपूर्ण हो जाता है, बल्कि विश्वसनीय इतिहास-घटनाओं का परीक्षण और उससे जुड़ी स्थितियों की जानकारियों के लिए भी सहायक होता है। इस प्रकार का इतिहास लेखन-शोध कुछ-कुछ ललित निबंधों पूर्वज जैसा हो जाता है।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">आधुनिक इतिहास अध्ययन में कई विद्वान किसी स्थल, स्मारक अथवा पुरावशेष पर शोध-लेखन करते हुए, उससे संबंधित देश-काल, परिवेश और अन्य संबंधित रोचक संदर्भों की चर्चा को शामिल किया करते थे, जो न सिर्फ ऐसे अध्ययन के पूरे परिप्रेक्ष्य के लिए, बल्कि अन्य पक्षों की ओर खोज के लिए राह सुझाता है। यथा- हीरानंद शास्त्री का Brahmi Inscription on a Wooden Pillar from Kirari, राय बहादुर हीरालाल के The Birth Place of the Physician Sushena और Why Kewat Women are Black, पं. लोचन प्रसाद पांडेय के The Ramayana of Valmiki Mentions two Kosalas, Mahanadi - The Famous River of Mahakosala और Six Lacs and Ninety-Six Villages of Kosala जैसे लेख और बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ इसके उदाहरण हैं। इस दृष्टि से जैन आस्था के इस ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ को इतिहास-लेखन की पूर्वज शैली के महत्व सहित देखा जा सकता है।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">इसके ग्रंथकार मेरुतुंग सूरि स्वयं स्पष्ट करते हैं- ‘बार-बार सुनी जाने के कारण पुरानी कथाएं बुद्धिमानों के मन को वैसा प्रसन्न नहीं कर पातीं। इसलिए मैं निकटवर्ती सत्पुरुषों के वृत्तांत से इस ग्रंथ की रचना कर रहा हूं।‘ तथा वे यह भी कहते हैं कि ‘बहुश्रुत और गुणवान ऐसे वृद्धजनों की प्राप्ति प्रायः दुर्लभ हो रही है और शिष्यों में भी प्रतिभा का वैसा योग न होने से शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं। इस कारण से तथा भावी बुद्धिमानों को उपकारक हो ऐसी परम इच्छा से, सुधासत्र के जैसा, सत्पुरुषों के प्रबंधों का संघटन रूप यह ग्रंथ मैंने बनाया है।‘ और यह भी कि ‘यद्यपि विद्वानों द्वारा अपनी बुद्धि से कहे गए प्रबंध भिन्न भिन्न भावों वाले अवश्य होते हैं, तथापि इस ग्रंथ की रचना सुसंप्रदाय के आधार पर की गई है, इसलिए चतुर जनों को वैसी चर्चा न करनी चाहिए।‘</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">किसी कृति के सम्मान के साथ उसके सम्यक मूल्यांकन की जिम्मेदारी निर्वाह का एक उल्लेख इस ग्रंथ के संपादन संबंधी ‘प्रास्ताविक वक्तव्य‘ से स्पष्ट किया जा सकता है, जहां एक ओर इस ग्रंथ के महत्व पर जोर दिया गया है, वहीं कहा गया है- ‘... न मालूम मेरुतुंग सूरि ने किस आधार पर, ऐसा भ्रान्तिपूर्ण यह वर्णन अपने इस महत्व के ग्रन्थ में ग्रंथित कर डाला है, सो समझ में नहीं आता।' बहरहाल इस ग्रंथ में जैनधर्म, गुजरात के राष्ट्रीय इतिहास की कथाओं, श्लेष, रूपक-उपमा वाले अनमोल शब्दों और कहन के उदाहरण तथा उनका मोल बारंबार आया है।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">जयकेशी प्रसंग की पृष्ठभूमि में उनके पिता शुभकेशी और जयकेशी की पुत्री मयणल्ला देवी का उल्लेख आवश्यक है। ‘प्रबंधचिंतामणि‘ से पता चलता है कि- ‘इधर, शुभकेशी नामक कर्नाट देश का राजा घोड़े से (जिसको अपने काबू में न रख सकने के कारण) उड़ाया जाकर किसी घने जंगल में जा पड़ा। वहां पत्र फलों से भरे भरे किसी वृक्ष की छाया का उसने आश्रय लिया। उसके पास ही दावाग्नि लगी। जिस वृक्ष ने (अपनी छाया में) विश्राम देकर उपकार किया था उसे, कृतज्ञता के कारण छोड़कर चले जाने की उसकी इच्छा न हुई। और इसलिए, उसी के साथ दावानल में उसने अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसके बाद, मंत्रियों ने उसके पुत्र जयकेशी को राजपद पर अभिषिक्त किया। क्रमशः उसके एक मयणल्ला देवी नाम की पुत्री पैदा हुई। ... श्री कर्ण ने उससे विवाह कर लिया।‘</div><div><br /></div><div>इस क्रम में आगे ‘मयणल्लादेवी के पिता की मृत्युवार्ता‘ आती है, जिसमें कथा इस प्रकार आई है-</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">‘किसी समय, कर्णाट देश से आये हुए सन्धिविग्रहिक से मयणल्ला देवी ने अपने पिता जयकेशी का कुशल समाचार पूछा तो उसने अश्रुपूर्ण आंखों से कहा कि- ‘स्वामिनि, प्रख्यातनामा महाराज श्री जयकेशी भोजन के समय पिंजरे में तोते को बुला रहे थे। उसके ‘मार्जार‘ (बिल्ली) बैठी है, ऐसी आशंका व्यक्त करने पर, राजा ने चारों ओर देख कर-किंतु अपने भोजन के पात्र के (चौकी के), नीचे छिपे हुए मार्जारको न देख कर प्रतिज्ञा पूर्वक बोल उठे कि- ‘यदि बिल्ली के हाथ तुम्हारी मृत्यु होगी तो मैं भी तुम्हारे ही साथ मरूंगा‘। वह तोता ज्यों ही पिंजडे से उड़ कर उस सोने के थाल पर आ कर बैठा त्यों ही उस बिल्ली ने (लपक कर) भेड़िये जैसे दाँतों से उसे मार डाला। राजा ने उसे मरा देख कर भोजन का ग्रास छोड़ दिया, और उक्ति-प्रत्युक्ति जानने वाले राजपुरुषों के (बहुत कुछ) निषेध करने पर भी कहा- </div><div><br /></div><div>‘राज्यं यातु श्रियो यान्तु प्राणा अपि क्षणात्। </div><div>या मया स्वयमेवोक्ता वाचा मा यातु शाश्वती।।‘</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">‘राज्य चला जाय, श्री चली जाय, और क्षणभर में प्राण भी भले ही चले जांय, किन्तु जो बात मैंने स्वयं कही है वह शाश्वती वाणी न जाय।‘</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">इस प्रकार इष्ट देवता की भाँति इसी वाणी का जाप करता हुआ, काष्ठ की चिता बनवा कर, उस तोते को साथ ले, उसमें प्रवेश कर गया। इस वाक्य को सुन कर मयणल्ला देवी शोकसागर में डूब गई। विद्वज्जनों ने विशेष प्रकार के धर्मोपदेशरूपी हस्तावलंबन दे कर उसका उद्धार किया।‘</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">‘प्राण जाए पर वचन न जाई‘ और ‘तोता-राजा सहगमन‘ (सहगमन- सामान्यतः जीवनसाथी, पति के साथ पत्नी का सती हो कर 'परलोक गमन?' के लिए प्रयुक्त होता है।) के इस प्रसंग का विवरण कुछ अन्य स्रोतों में लगभग इन शब्दों में मिलता है-</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">गोवा कदंब राजवंश के राजा जयकेशी द्वारा एक तोते के लिए आत्मदाह का एक अनोखा उदाहरण मिलता है। जिन परिस्थितियों के कारण राजा की मृत्यु हुई वे इस प्रकार थीं- जब राजा जयकेशी भोजन करते थे तो तोते का प्रतिदिन उनके साथ देता था। एक दिन, तोते ने राज सिंहासन के नीचे एक बिल्ली को बैठे देखा। राजा के बार-बार पुकारने, स्नेह और धमकी के बावजूद, तोता खाने में साथ देने के लिए पिंजरे से बाहर नहीं आया और अपने आसन्न प्राण-संकट का संकेत देता रहा। अंत में, राजा ने कहा कि यदि तोते को किसी भी घातक स्थिति का सामना करना पड़ा तो वह अपनी जान भी जोखिम में डाल देगा। जाहिर तौर पर उन्होंने यह आश्वासन अपने आसन के नीचे बिल्ली की मौजूदगी को न जानते हुए दिया था। तोता राजा की बात पर, पिंजरे से बाहर आया, तो बिल्ली ने उस पर झपट्टा मारा और उसे मार डाला। दुखी राजा ने तोते के दुःख से, अपने वादे को पूरा करते हुए, तोते के साथ जलकर मर गया। किसी पालतू जीव से किए गए वादे की खातिर जान देने का यह एक दुर्लभ मामला है।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">और कुछ बातें तोता, सुआ या मिट्ठू पर- ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक सूत-रोमहर्षण या लोमहर्षण (अपनी वक्तृत्व शैली से मंत्रमुग्ध कर रोमांचित करने वाले) और कुशीलव कथा रचने-गढ़ने और सुनाने वाले जबकि शुकदेव, कथा वाचक यानि कथा बांचने-दुहराने वाले होते थे, इसी से 'तोता रटंत' कथन चल पड़ा। तोते को बोलना सिखाया जाता है, ‘तपत्कुरु‘, पं. दानेश्वर शर्मा का प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी गीत है- 'तपत कुरु भइ तपत कुरु, बोल रे मिट्ठू तपत कुरु‘। ऐसा जान पड़ता है कि गुरुकुल-आश्रमों में तोते रखे जाते थे, जिनको तपत्कुरु सिखाया जाता था कि वे दुहराते-रटते रहें ‘तप करो, तप करो‘। ऐसे ही तोता रटंत का प्रसंग मंडन मिश्र वाला है। मंडन मिश्र का शास्त्र-ज्ञान किताबी था, शंकराचार्य की तरह अनुभूत नहीं था फिर मंडन मिश्र की पत्नी भारती के सामने ‘अनुभूत‘ के सवाल पर ही शंकराचार्य लाजवाब होते हैं। ‘शुक सप्तति‘ बारहवीं सदी ईस्वी का ग्रंथ माना जाता है। जैन हेमचंद्र इस ग्रंथ के दो पाठों- एक संभवतः चिंतामणि भट्ट का और दूसरा श्वेतांबर जैन से परिचित थे। ए.बी कीथ के अनुसार भी इसका एक संस्करण, श्वेतांबर जैन की रचना प्रतीत होती है। इसकी कहानी अब भी किस्सा तोता-मैना प्रचलित और लोकप्रिय है। देह पिंजर (पसली) में जान (आत्मा) कैद होती है, जैसे पिंजरे में तोता, इंतकाल में प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं। एक कहावत में बन्दर, जोगी, अगिन, जल, सूजी जैसे दस में सुआ को भी गिना जाता है, जो कभी अपने नहीं होते। तोता-चश्म की तरह निरपेक्ष आत्मा, शरीर को छोड़कर प्रयाण कर जाती है। जयकेशी की मृत्यु-कथा, क्या ऐसा ही कोई रूपक है?</div><div><br /></div><div>चलते-चलते, ‘प्रबंधचिंतामणि‘ के कुछ रोचक उल्लेख और उद्धरण-</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">कालिदास, भारवि और दंडिन के साथ कहा जाता है- ‘माघे सन्ति त्रयो गुणाः‘ या 'माघे मेघे गतं वयः‘ या ‘काव्येषु माघः ...‘, ऐसे ‘उपमा, अर्थगौरव और पदलालित्य‘ संपन्न महाकवि माघ की भौतिक समृद्धि और ऐश्चर्य से भी भरपूर होने का भी ‘प्रबंध‘ यहां है, जिसमें बताया गया है कि माघ, किस तरह राजा भोज के वैभवपूर्ण आतिथ्य से संतुष्ट नहीं होते। दूसरी तरफ राजा भोज माघ का वैभव देखने श्रीमालनगर जाते हैं और माघ द्वारा की गई अगवानी और अप्रत्याशित समृद्ध सत्कार से चकित होते हैं।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">'तुम्हारे जीवित रहते बलि, कर्ण और दधीचि जीते हैं और हमारे जीवित रहते दारिद्र्य जीता है। हे जगदेव! हम नहीं जानते कि किसका हाथ थक जाएगा- दरिद्रों को रचते-रचते ब्रह्मा का या कृतार्थ करते करते तुम्हारा।'</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">'सौगत (बौद्ध) धर्म है सो तो सुनने लायक है (अर्थात् उसके सिद्धान्त सुनने में अच्छे हैं), और आर्हत (जैन) धर्म है सो करने लायक है। व्यवहार में वैदिक धर्म का अनुसरण करना योग्य है और परम पद की प्राप्ति के लिए शिव का ध्यान धरना उचित है।'</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">'यद्यपि कटे हुए ब्रह्मशिर को वह धारण करता है, यद्यपि प्रेतों से उसकी मित्रता है, यद्यपि रक्ताक्ष हो कर मातृकाओं के साथ वह क्रीड़ा करता है, यद्यपि स्मशान में वह प्रीति रखता है और यद्यपि सृष्टि करके वह उसका संहार कर देता है, तो भी, मैं उसमें मन लगा कर भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। क्योंकि त्रिलोक शून्य है और वह जगत का एकमात्र ईश्वर है।'</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div></div><div style="text-align: justify;">'जिसे विष्णु दो आँखों से, शिव तीन से, ब्रह्मा आठ से, कार्तिकेय बारह से, रावण बीस से, इंद्र दस सौ से ओर जनता असंख्य नेत्रों से भी नहीं देख पाती, बुद्धिमान पुरुष उसी को एक प्रज्ञा (बुद्धि) रूपी नेत्र से स्पष्ट देख लेता है।'</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">'ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।'</div><div><br /></div><div><b>टीप-</b></div><div><br /></div><div><div><i>*मेरे लिए विभिन्न संदर्भों में प्रवेश और उन तक पहुंच, सामान्यतः बरास्ते छत्तीसगढ़ होता है।</i></div><div><i><br /></i></div><div><i>*भारतीय चिंतन परंपरा पर विचार करें तो एक हिंदू या सनातन, दूसरा बौद्ध और तीसरा जैन, इन तीनों में शंकर के वेदांत के बाद दर्शन-चिंतन में टीका ही मिलती है, कुछ पुराणों का भी काल इसी दौर (आठवीं-नवीं सदी ईस्वी से अंगरेजों के आते तक) का ठहरता है, साहित्य में वीरगाथा, भक्ति, रीति हावी है। बौद्ध परंपरा में जेन आदि अन्य देशों में विकसित हुआ, भारतीय परंपरा में बौद्धों में सूनापन ही जान पड़ता है। जैनों में खासकर कर्नाटक और मरु-गुर्जर प्रदेश में रची और सहेजी जिन कृतियों की जानकारी मिलती है, उनसे लगता है कि भारत में जैन शास्त्रीय चिंतन परंपरा के अलग-अलग आयाम बराबर उद्घाटित होते रहे हैं, मगर धार्मिक या पंथ-विशेष से संबंधित मानकर नजरअंदाज हुए हैं।</i></div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><br />Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-3806143966365422892024-01-31T12:24:00.005+05:302024-02-02T07:52:51.756+05:30जंजगिरहा छत्तीसगढ़ी<div style="text-align: justify;">बहुतेरे मानते हैं कि महानदी-हसदेव-लीलागर के बीच, यानि लगभग वर्तमान जांजगीर जिला, में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी अनूठी-मीठी है। उन बहुतेरों में एक मैं, सब साथ छोड़ दें तब भी। खरौद-रहौद-रसौंटा, नंदेली-कोसा-कोनार, नरियरा-बनाहिल-सोनसरी, गांव के नाम सिर्फ इसलिए कि जिन गांवों के निवासियों की बोली याद आई, कान में गूंजी और इन सबके साथ कोटमी-अकलतरा-मुलमुला। </div><div><br /></div><div><br /></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxmbzZAYf6S9SJP_fiGvyNtgtY2UctezUCTsUqYme0TL9Npc46pN-9jg5rJblDUseKXOxpFGIWA9V8zDtsqvoOUCgB6N7uH92rfV5peE8yes9cn2Xfch0pbl2xsi3DwFtYRpsogHWX5UhWmYDdgV-camRbfmsJXe0nNMW0AvfGfRucLGvqIaH1qtylH4lW/s1280/Babusab.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="154" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxmbzZAYf6S9SJP_fiGvyNtgtY2UctezUCTsUqYme0TL9Npc46pN-9jg5rJblDUseKXOxpFGIWA9V8zDtsqvoOUCgB6N7uH92rfV5peE8yes9cn2Xfch0pbl2xsi3DwFtYRpsogHWX5UhWmYDdgV-camRbfmsJXe0nNMW0AvfGfRucLGvqIaH1qtylH4lW/w103-h154/Babusab.jpg" width="103" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b style="text-align: start;"><span style="font-size: x-small;">श्री रमाकांत सिंह</span><br /></b></td></tr></tbody></table><div style="text-align: justify;">इसी मुलमुला के हैं हमारे आदरणीय बड़े भाई साहब रमाकांत सिंह जी, हम सब के बाबू साहब। इन गांवों में बोली-बानी की जैसी अभिव्यक्ति है, उसका असल सुख तो सुनने में ही है, मगर कामचलाउ समझने के लिए उसकी एक बानगी बाबू साहब की यह पोस्ट, दुहराते हुए कि बोली का गुरतुरपन (गुड़तुल्यपन) मिठास तो बोलने-सुनने में ही है, लिखते हुए क्षय स्वाभाविक है और अनुवाद में कुछ और अधिक क्षय, यों भी अनुवाद का अभ्यास रहा नहीं, छत्तीसगढ़ी और हिंदी दोनों मेरे लिए सहज अवश्य है, इसी के चलते पहले ‘जसमा ओड़न‘ नाटक का छत्तीसगढ़ी अनुवाद फिर रेरा चिरई गीत और अकबर खान के किस्से का हिंदी, फिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लिए बच्चों की सात पुस्तिकाओं का नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए छत्तीसगढ़ी अनुवाद का काम किया। जरूरी मानकर पहले रमाकांत सिंह जी की फेसबुकपर आई छत्तीसगढ़ी पोस्ट की प्रति और उसके बाद मेरे द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद- </div><div><br /></div><div><i>नानी की अम्मा बड़े प्यार से बुलाती थी ‘रामाकन ...‘ </i></div><div><i>ममा दाई के दाई पीली दाई कहय बाबू ..... </i></div><div><i>लिम के पाके फर गुरतुर होके मीठा जाथे </i></div><div><i>फेर दाई ददा के पाके नई मिठाय बेटा </i></div><div><i>आजकाल कहाँ दाई ददा लईका संग रथें? </i></div><div><i>सकेले बर परथे नता ल, ऑंखि कस पुतरी राखे बर परथे </i></div><div><i>नई त बरी कस भूरिया आऊ फुसिया जाथे परे परे </i></div><div><i>नता घला ल पागे पर परथे या फेर अथान कस मरिसा म सुग्घर जचों के धर आउ टिपटिप ले भर सरसों तेल ... </i></div><div><i>बड़ मया पिरित लगाके पागे बर परथे खाजा कस। </i></div><div><i>जइसे पगाये रथें पपची चिकि गुर के चाशनी म। </i></div><div><i>फेर खा के ...दे ...दे जोरन म बड़ मिठाथे। </i></div><div><i>बस नता घलो ल चुरोये बर परथे मन लगाके कम आंच म </i></div><div><i>डेहरी आउ ओरी के छांव आय नता मन </i></div><div><i>फेर दाई आउ ददा, भाई बहिनी सब्बो लागमानी सरग के फर आय एकेच घ मिलथे नई मिलय दूसर घानी। </i></div><div><i>बड़ मरन हो जाथे </i></div><div><i>बड़ फदीयत आय बंटा जाथे बेटा घलो ह बहुरिया आय म </i></div><div><i>सब्बो नता बबा, दाई, कका, फूफा, के कहे म भाँवर परेहे </i></div><div><i>उढ़री होतिस त बात आन तान होतिस .... </i></div><div><i>20 ...22 बछर अपन घर बाढ़े, मऊरे आउ पऊढे बहुरिया </i></div><div><i>अपन आँखि म बड़कन सपना धर के आथे </i></div><div><i>फोकला घर मिलिस त फदकगे </i></div><div><i>भरे पूरे घर मिलिस त केंवटिन गौटिन </i></div><div><i>होगे
बड़ सासत हो जाथे राम हो </i></div><div><i>दाई ददा भरे पूरे घर म साझी के हो जाथे </i></div><div><i>माताराम कहै बेटा ‘साझी के सूजी सांगा म जाय‘ </i></div><div><i>चार बेटा होगे बंटागे दाई ददा </i></div><div><i>चैत ले जेठ रामलाल के पारी आय </i></div><div><i>अषाढ़ ले भादों बड़े मंझला ह देखहि </i></div><div><i>अगहन ले मांघ किशोर बुतरू के बाँहटा </i></div><div><i>पूस ले फागुन साध राम देहि खाय बर </i></div><div><i>आउ खर मास परगे त दाई ददा ढेंकी कुरिया म खाहिं </i></div><div><i>चाउर दार पारी पारी पहुंच गईस त ठीक नहीं त ... </i></div><div><i>चूल्हा म गईस सब नता मया पिरित </i></div><div><i>चार सियान कहिस त सुने म आईस एकादशी के दिन </i></div><div><i>अपन मन मजा करिन हमन जनम गयेन </i></div><div><i>एमा काय बड़े बुता होंगे राम जी </i></div><div><i>बाह रे जमाना सियान गियानी लईका घलो ल नवा बहुरिया एकेच रात म समझा डारथे रामायन। </i></div><div><i>जिनगी के बेरा ओहर जाथे जिनगी समझत म </i></div><div><i>ई सब म चुन्दी संग उमर खंटावत पाक जाथे नता </i></div><div><i>लिम के फर पाक के मीठ होगे आउ दाई ददा होगे करू </i></div><div><i>अगोरत देखे हावव आंसूं धरे महतारी ल </i></div><div><i>आउ डेहरी म हंफरत पेट ऐंठत सियान ल अपने घर म </i></div><div><i>फेर कोन कइथे दाई ददा म करगा (अपवाद) नई होवय </i></div><div><i>एक ठन हमरे तुंहर घर के गोठ </i></div><div><i>दाई गोंदा बाई बेटा बहोरन के सुरता आगे </i></div><div><i>बहोरन......गोंदा दाई तेँ हर जनम भर मोर घर रहिजा </i></div><div><i>जऊंन बनहि मिल बांट के खा लेबो </i></div><div><i>गोंदा बाई.... सुन न बहोरन तेँ हर मोला सोन के सीथा खवाबे तभी तोर करा नई रहौ...ग </i></div><div><i>बहोरन .... कस दाई मैं तो भूतियार मनसे आंव, मान ले काल तेँ हर सोन के लेंडी हाग देहे त मैं गरीब आदमी ओला</i></div><div><i>धरिहौ कोन कोठी म? </i></div><div><i>तभो ले सोच ले काकर संग रहिबे? </i></div><div><i>एहि लटर पटर म कब संझा ले बिहनियां होंगे पता नई चलिस हमरो चुन्दी पाकगे </i></div><div><i>बोयें होबो तेला काटबो काय संसो करना </i></div><div><i>राखिहैं राम लेजिहैं कोन, आउ लेजिहैं राम त राखिहैं कोन </i></div><div><i>बस अपनो की याद और मेरे अपनों को समर्पित </i></div><div><i>जनम दिस मोर महतारी फेर भरूहा धराइस मोर गुरु</i> </div><div><br /></div><div><b>अनुवाद </b></div><div><br /></div><div>नानी की अम्मा बड़े प्यार से बुलाती थी ‘रामाकन,, </div><div>नानी की मां पीली दाई कहतीं बाबू </div><div>नीम का पका फल मीठा हो कर स्वादिष्ट हो जाता है </div><div>मगर उम्र पके मां बाप नहीं सुहाते </div><div>आजकल बच्चों के साथ कहां रहते हैं मां-बाप </div><div>रिश्तेदारी को सहेज-समेट रखना होता है, आंख की पुतली की तरह (संभाले) रखना होता है </div><div>अन्यथा बड़ी की तरह फफूंद लगी, बासी हो जाती है पड़े-पड़े </div><div>रिश्तों को भी पागना होता है या फिर अचार की तरह घड़े में प्यार और जतन से भरा-पूरा हो सरसों तेल से </div><div>बहुत ममता-प्रीति के साथ पागना होता है खाजा की तरह </div><div>जैसे पगाया हो पपची (एक मिष्ठान्न) या चिकी गुड़ के साथ </div><div>खा कर और फिर दे दो जोरन (विदाई-भेंट) में बहुत स्वादिष्ट </div><div>बस रिश्तों (नात-गोत) को भी इसी तरह पकाना होता है, मन लगा कर धीमी आंच में </div><div>डेहरी और ओरी (घर-प्रवेश का मुख) की छांव है रिश्ते </div><div>मगर मां और पिता, भाई बहन सब रिश्ते-नाते स्वर्ग के फल हैं, एक बार ही मिलते हैं, नहीं मिलते दूसरी बार।</div><div>असमंजस (धर्मसंकट) हो जाता है </div><div>बड़ी फजीहत है कि बेटा भी बंट जाता है बहू आने पर </div><div>सभी रिश्ते बाबा, मां, चाचा, फूफा की सहमति से फेरे पड़े हैं </div><div>भगा कर लाई गई होती तो और बात होती </div><div>20-22 साल अपने घर पली-बढ़ी-सज्ञान बहू </div><div>अपनी आंखें में बहुत से सपने संजो कर आती है </div><div>खाली-निर्धन घर मिला तो बात बिगड़ी </div><div>भरा-पूरा घर मिला तो दरिद्र भी मालकिन हो गई </div><div>बहुत सांसत हो जाती है राम हो </div><div>मां-बाप भरे पूरे घर में साझे (सब) की हो जाती है </div><div>माताजी कहती थीं बेटा ‘साझे की सुई सांगा (भारी बोझ उठाने में प्रयुक्त दंड) में जाती है </div><div>चार बेटे हुए, बंट गए मां-बाप </div><div>चैत से जेठ तक रामलाल की बारी </div><div>आषाढ़ से भादों बड़े-भंझला देखेगा </div><div>अगहन से माघ किशोर बुतरू के हिस्से </div><div>पूस से फागुन साधराम देगा खाने को (खिलाना-पिलाना करेगा) </div><div>और खर मास पड़ा तो मां-बाप का खान-पान, घर के साझे हिस्से में </div><div>(तब) चावल-दाल बारी-बारी पहुंच जाए तो ठीक, वरन </div><div>चूल्हे में गए सब रिश्ते, ममता-प्रीति </div><div>चार बुजुर्गों का तो कहा सुनने मिला, एकादशी के दिन </div><div>आप मजा किए, हम पैदा हो गए </div><div>यह कौन सी बड़ी बात राम जी </div><div>वाह रे जमाना, समझदार लड़के को भी नई बहू एक ही रात में समझा डालती है रामायण। </div><div>जिंदगी का समय ढल जाता है जिंदगी को समझते </div><div>इसी सब में बाल के साथ उम्र पक जाती है खंटते </div><div>नीम का फल पक कर मीठा हो गया और मां-बाप हो गए कड़ुए </div><div>आंसू भरे इंतजार करते देखा है मां को </div><div>और सीढ़ी पर हाफते पेट ऐंठते बुजुर्ग को अपने घर में </div><div>फिर कौन कहता है मां-बाप में करगा (अपवाद) नहीं होता </div><div>एक हमारे-आपके घर की बात </div><div>मां गोंदाबाई बेटा बहोरन याद आए </div><div>बहोरन- गोंदादाई तुम आजन्म मेरे घर रह जाओ </div><div>जो भी होगा, मिल-बांट कर खा लेंगे </div><div>गोंदाबाई- सुनो बहोरन, तुम मुझे सोने का सीथा (भात का गिरा हुआ दाना) खिलाओगे तब भी तुम्हारे पास नहीं रहूंगी </div><div>बहोरन- क्यों मां, मैं तो मजदूर आदमी हूं, मान लो कल तुम सोने की लेड़ी हग दी तो मैं गरीब आदमी उसे किस कोठी में रखूंगा? </div><div>तब भी सोच लो किसके साथ रहोगी? </div><div>इसी लटर-पटर में कब शाम से सबेरा हो गया पता नहीं चला, हमारे बाल भी पक गए </div><div>बोया होगा वही काटेंगे, क्यों चिंता करना </div><div>रखेंगे राम ले जाएगा कौन और ले जाएंगे राम तो रखेगा कौन </div><div>बस अपनों की याद और मेरे अपनों को समर्पित </div><div>जन्म दिया मां ने मगर भरुहा (नरकुल-लेखनी) धराया मेरे गुरु ने।
</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-31684483843234371052024-01-19T08:42:00.015+05:302024-02-08T07:17:43.484+05:30चंदखुरी<div style="text-align: justify;">भरोसे पर संदेह हो और भरोसा सच्चा हो तो उस पर किया गया हर संदेह अंततः उसे मजबूती देता है, कमजोर नहीं करता इसलिए अपने संदेहों पर भरोसा रहे कि वे सत्य का मार्ग प्रशस्त करेंगे। सत्य, तथ्यों की तरह जड़ नहीं होता, जीवंत होता है और वह 'सच्चा-सच' है तो उस पर किया गया हर विचार, आपत्ति, उसके सारे पक्ष-कारक, अंततः उसकी चमक बनाए रखने में सहायक साबित होते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">परलोक में भरोसा करने वाले जन-मानस के लिए इहलोक में प्रत्यक्ष और प्रचलित का महत्व कम नहीं होता। कोसल, कौशल्या, भांचा राम, सुषेण पर इसी तरह संदेह-भरोसे से विचार करने का प्रयास है, रहेगा। ध्यान रहे कि रामकथा के ग्रंथों में उसका लोकप्रिय पाठ तुलसीकृत रामचरित मानस है तो शास्त्रीय मान्यता वाल्मीकि रामायण की है, किंतु पाठालोचन के विद्वान इसके कम से कम तीन भिन्न पाठों को मान्यता देते हैं, इन पाठों में भी आंशिक भेद है। माना जाता है कि इसका कारण आरंभ में रामकथा का मौखिक रूप ही प्रचलित रहा, बाद में अलग-अलग लिखित रूप दिया गया। इसके साथ रामकथा और उसकी आस्था के लोक-प्रचलन की बहुलता और विविधता को, उस पर विचार-चिंतन के अवसर की तरह सम्मान करना समीचीन है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामलला, अयोध्या के साथ छत्तीसगढ़ में ननिहाल, भांचा राम और इससे संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा फिर से हो रही है। इस क्रम में कुछ आवश्यक संदर्भों की ओर ध्यान दिया जाना प्रासंगिक होगा, इनमें मेरी जानकारी में चंदखुरी में कौशल्या मंदिर के सर्वप्रथम उल्लेख का संदर्भ इस प्रकार है-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">The Indian Antiqury, VOL- LVI,-1927 में (राय बहादुर) हीरालाल का शोध लेख 'The Birth Place of the Physician Sushena' प्रकाशित हुआ था। 9 फरवरी 1913 को चंदखुरी में ग्रामवासियों ने उन्हें जलसेना (जल-शयन) तरई के बीच टापू पर रखे कुछ पत्थर बताए, जिन्हें वे बैद सुखेन मान कर पूजते हैं। हीरालाल ने यह भी उल्लेख किया है कि समान नाम के अन्य ग्रामों से इसकी भिन्न पहचान के लिए इसे ‘बैद चंदखुरी‘ कहा जाता है। (एक अन्य चंदखुरी रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर है, जिसमें अब बैतलपुर ग्राम नाम से लुथेरन चर्च के अमेरिकन इवेंजेलिकल मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ-आश्रम है।) इस विषयक मुख्य लेख की पाद टिप्पणी में कौशल्या के मंदिर का नामोल्लेख है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रसंगवश, पुरातात्विक स्थलों के आरंभिक उल्लेख के लिए अलेक्जेंडर कनिंघम के सर्वे रिपोर्ट को खंगालना आवश्यक होता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक कनिंघम ने प्राचीन स्थलों के सर्वेक्षण के लिए 1881-82 में इस अंचल का दौरा किया था, जिसका प्रतिवेदन पुस्तक रूप में वाल्युम-17 में प्रकाशित है। इसमें देवबलौदा, राजिम, आरंग, सिरपुर आदि स्थलों के अलावा आरंग और रायपुर के बीच नवागांव का उल्लेख मिलता है, किंतु चंदखुरी का उल्लेख नहीं है। 1909 के रायपुर गजेटियर में तुरतुरिया के साथ लव-कुश और कोसल का उल्लेख है, किंतु चंदखुरी का नहीं। इसी प्रकार 1973 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर में चंदखुरी का उल्लेख वहां के डेयरी फार्म के संदर्भ में हुआ है, न कि सुषेण या कौशल्या माता के लिए। स्थानीय स्रोतों द्वारा बताया जाता है- ‘तालाब के बीच टापू पर स्थित मंदिर अत्यंत प्राचीन है, जिसके गर्भगृह में रामलला को गोद में लिए माता कौशल्या की मूर्ति है। इस मंदिर का पुनरुद्धार सन 1973 में कराया गया।‘
</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">चंदखुरी स्थित ‘शिव मंदिर‘ को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित करने की अधिसूचना तिथि 5.3.1986 दर्ज है। संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ के प्रकाशन में इस स्मारक का उल्लेख इस प्रकार है-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">'राष्ट्रीय मार्ग क्रमांक 06 नागपुर-सम्बलपुर रोड पर 16 कि. मी. पर स्थित मंदिर हसौद से 12 किलोमीटर दूर चंदखुरी गांव में बायें किनारे पर यह स्मारक अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण 10-11 वीं शती ईसवी में हुआ था किन्तु इस मंदिर का अलंकृत द्वार तोरण किसी दूसरे विनष्ट हुए सोमवंशी मंदिर (काल- 8वीं शती ईस्वी) का है। इसकी द्वार शाखाओं पर गंगा एवं यमुना नदी देवियों का अंकन है। सिरदल पर ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी बैठी हुई हैं जिसके एक ओर बालि-सुग्रीव के मल्लयुद्ध एवं मृत बालि का सिर गोद पर रखकर विलाप करती हुई तारा का करुण दृश्य प्रदर्शित है। नागर शैली में निर्मित यह पंचरथ मंदिर है। इसमें मण्डप नहीं है। कुल मिलाकर यह क्षेत्रीय मंदिर का अच्छा उदाहरण है।'</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAnyD8OmAsy1YElSB6K-xm7QV3EeNL1ySFvz24jO_IEtyQKnrr6s0I1Dftl5hiuDvKeMNCdbDU31IiOoA4cxRZ1clsY8M6F2ZlfoQ-09CBbkZIGHDbqQKQMr3vhekjHxVYJaO8bB7NBG3RotBdEMnEf-zy4BbGU5AoQEDwNks0zKPtK4frhspw9CZrTcub/s1281/pic-blog.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="436" data-original-width="1281" height="139" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAnyD8OmAsy1YElSB6K-xm7QV3EeNL1ySFvz24jO_IEtyQKnrr6s0I1Dftl5hiuDvKeMNCdbDU31IiOoA4cxRZ1clsY8M6F2ZlfoQ-09CBbkZIGHDbqQKQMr3vhekjHxVYJaO8bB7NBG3RotBdEMnEf-zy4BbGU5AoQEDwNks0zKPtK4frhspw9CZrTcub/w408-h139/pic-blog.png" width="408" /></a></div><br />इस विभागीय संरक्षित स्मारक का निरीक्षण 1993 में तत्कालीन प्र. उपसंचालक श्री जी. एल. रायकवार द्वारा किया गया था। श्री रायकवार ने इस स्मारक और स्थल के संबंध में जानकारी दी है कि- </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यह मंदिर मूल रूप से परवर्ती सोमवंशी शासकों के काल में निर्मित है, जिसका कलचुरि शासकों ने करवाया। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। प्रवेश द्वार पर गंगा तथा यमुना का अंकन है। सिरदल पर गजलक्ष्मी तथा धनुष बाण सहित राम लक्ष्मण, बालि सुग्रीव युद्ध, विलाप करती तारा, मिथुन आकृति एवं अंत में अस्पष्ट आकृति है। मंदिर के प्रांगण में पीपल के पेड़ के नीचे अस्पष्ट देव प्रतिमाएं, नंदी, अस्पष्ट देवी प्रतिमा, नागयुग्म, शैवाचार्य, भारवाहकगण तथा स्तंभ पर अंकित भारवाहक आदि की खंडित प्रतिमाएं तथा स्थापत्यखंड रखे हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">श्री रायकवार ने यह भी उल्लेख किया है कि इस ग्राम में अनेक प्राचीन सरोवर हैं। मंदिर के निकट के एक सरोवर के मेड़ पर पीपल के पेड़ के जड़ के बीच प्राचीन जलहरी लम्बी प्रणालिका सहित तथा एक आदमकद पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग, फंसी हुई रखी है। खंडित पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग संकलन योग्य है। ग्राम में एक स्थान पर परवर्ती काल के 11 वीं 12 वीं सदी ईसवी के भग्न मंदिर का अवशेष विमान है। इस भग्न मंदिर का अधिष्ठान क्षत-विक्षत होने पर भी आंशिक रूप से बच रहा है। यहाँ पर एक शिवलिंग तथा खंडित नंदी रखा हुआ है। ग्राम के एक घर में खंडित तीर्थंकर की प्रतिमा तथा अत्याधिक क्षरित प्रतिमा रखी हुई है जिसकी ये पूजा करते हैं। चन्दखुरी नाम संभवतः चन्द्रपुरी का अपभ्रंश है। सोमवंशी अथवा कलचुरियों के काल में निःसंदेह यह महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल रहा होगा।</div><div style="text-align: center;">-0-0- </div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यहां उपरोक्त जानकारियों की प्रस्तुति का उद्देश्य, कि मूल स्रोत, प्राथमिकी-आरंभिक उल्लेख का विशेष महत्व होता है। साथ ही किसी स्थल विशेष पर विचार करते हुए, वहां से संबंधित दस्तावेज, अभिलेख आदि के साथ उस स्थान की प्रचलित परंपरा, नाम-शब्द, लोकोक्तियां, दंतकथाएं, आस्था का भी न सिर्फ ध्यान रखना आवश्यक होता, बल्कि उनके संकेतों से खुलने वाली संभावनाओं को भी देखना-परखना होता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस दृष्टि से विचारणीय कि छत्तीसगढ़ में ग्राम देवताओं के रूप में सुखेन जैसे नामों में देगन गुरु और परउ बइगा, बहुव्यवहृत और प्रतिष्ठित-सम्मानित है। देगन या दइगन, मूलतः देवगण गुरु अर्थात् वृहस्पति हो सकते हैं। परउ के अलावा अन्य- सुनहर, बोधी, तिजउ, लतेल बइगा जैसे कई नाम लोक में प्रचलित हैं। ऐसा माना जा सकता है कि इन नामों के प्रभावी बइगा, गुनिया, देवार, सिरहा, ओझा हुए, जिनकी स्मृति में थान-चौंरा बना दिया गया, जिसके साथ मान्यता जुड़ गई कि उनका स्मरण-पूजन, उस स्थान की मिट्टी या आसपास की वनस्पति, औषधि का काम करती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पारंपरिक-आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र में माधव और वाग्भट्ट का नाम कम प्रचलित है, किंतु चरक, सुश्रुत नाम बहुश्रुत हैं। महाभारत में अश्विनीकुमार-द्वय से उत्पन्न वैद्य-चिकित्सक के रूप में जुड़वा नकुल-सहदेव का नाम आता है, उसी तरह रामकथा के संदर्भ में योद्धा, धर्म नामक वानर के पुत्र और वालि (बालि) के श्वसुर सुषेण की प्रतिष्ठा है, जिसने अमोघ शक्ति प्रहार से मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी (के साथ विशल्यकरिणी, सावर्ण्यकरिणी जैसे नाम भी मिलते हैं।) के लिए हनुमान को भेजा था। इस आधार पर संभव है कि चंदखुरी में कोई प्रसिद्ध वैद्य हुआ हो, वहां रामकथा-प्रसंग का शिल्पांकन है ही तो उस वैद्य को सम्मान सहित याद करने के लिए उसे रामकथा के वैद्य सुषेण जैसा मानते याद किया जाने लगा हो।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस प्रकार प्राचीन शिव मंदिर के शिल्पांकन में रामकथा के प्रसंगों के साथ एक अन्य स्थिति पर विचार भी आवश्यक है। कौशल्या के प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण सामान्यतः प्राप्त नहीं होते और कहीं हों तो सुस्थापित नहीं हैं। इसी तरह की स्थिति रामलला के साथ है। राम शिल्प में सामान्यतः द्विभुजी, धनुर्धारी दिखाए जाते हैं, मगर उनके बालरुप के लिए विशिष्ट प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण का अभाव है। अतएव किसी नारी प्रतिमा के साथ शिशु रुप की प्रतिमा की पहचान कौशल्या और राम के रूप में की जा सकती है, विशेषकर तब यदि वह शिशु लिए हो और अंबिका का रूप न हो साथ ही तब विशेषकर, जब ऐसा शिल्पांकन रामकथा के अन्य प्रसंगों के साथ उपलब्ध हो।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी तरह चंदखुरी स्थल के प्राचीन शिव मंदिर के सिरदल पर रामकथा का बालि-सुग्रीव प्रसंग संबंधी शिल्पांकन, राम की सेना के वानर योद्धा सुषेण, जो बालि के श्वसुर भी हैं और वैद्य भी, इसलिए मूर्तिशिल्प में वानरमुख आकृति की पहचान बालि, सुग्रीव, हनुमान की तरह सुषेण के रूप में की जा सकती है। तो इस स्थान को कौशल्या माता और वैद्य सुषेण से संबद्ध करने का मूर्त आधार इस तरह भी संभव है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">नाम साम्य की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के अन्य ग्रामों कोसला, कोसलनार, केसला, कोसिर, कोसा और मल्हार से प्राप्त ‘गामस कोसलिय‘ अंकित मृण-मुद्रांक और मल्हार से ही प्राप्त महाशिवगुप्त बालार्जुन के ताम्रपत्र में आए नाम कोसलनगर की चर्चा भी अप्रासंगिक न होगी। साथ ही चंदखुरी नाम पर विचार करते हुए, मरवाही के पड़खुरी, पथरिया के बेलखुरी, बसना के भैंसाखुरी के साथ इसी नाम के अन्य ग्रामों को भी संदर्भ में रखना होगा तथा यह भी उल्लेखनीय है कि जनगणना रिपोट में इस गांव का नाम Chandkhuri नहीं बल्कि Chandkhurai (चंदखुरई?) इस तरह दर्ज है। स्मरणीय कि महाभारत के वनपर्व में उल्लिखित (दक्षिण) कोसल के ऋषभतीर्थ की पहचान सक्ती के निकट स्थित स्थल गुंजी-दमउदहरा से निसंदेह की जाती है। इसी तरह वायु पुराण के मघ-मेघवंशी कोसल नरेशों के नाम वाले प्राचीन सिक्के मल्हार से प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध, प्रयाग-प्रशस्ति में दक्षिणापथ विजय क्रम में पहले जिन दो राज्यों का नाम आता है, वे कोसल और महाकांतार हैं।</div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2kyWNg0LtfHLBjZRa8lzF_GA9C9obV31kf5mfzecI05UcwKlU0qlkzjDrziYLTIv0ZlBAEpRQjpQShecf2bEO4JrYv0uDV1oF1HLKaOlU4OTkY3yl37uo6Jsjthgjj3l8drCcxfzymKf2nyTplqIfCAHkoOVwv8Jte69ibBuBTa4TqxVXmwb25fvCofO-/s1571/Kosaliya.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1571" data-original-width="1411" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2kyWNg0LtfHLBjZRa8lzF_GA9C9obV31kf5mfzecI05UcwKlU0qlkzjDrziYLTIv0ZlBAEpRQjpQShecf2bEO4JrYv0uDV1oF1HLKaOlU4OTkY3yl37uo6Jsjthgjj3l8drCcxfzymKf2nyTplqIfCAHkoOVwv8Jte69ibBuBTa4TqxVXmwb25fvCofO-/s320/Kosaliya.jpg" width="287" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: x-small;"><b>मल्हार से प्राप्त आरंभिक इस्वी सदी का <br />ब्राह्मी ‘गामस कोसलिया‘ अभिलिखित मृण-मुद्रांक</b></span></td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: justify;">इन कथा-मान्यताओं का आधार यहां शिल्प में तलाशने का प्रयास है, उसी तरह यहां ऐसे शिल्प की रचना किए जाने के आधार में, इस स्थल का रामकथाभूमि होने की संभावना को बल मिलता है। स्थानीय अन्य जानकारियों और पार्श्व-परिप्रेक्ष्य की संबंधित कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर आस्था सम्मत इतिहास की छवि के समग्र रूप को निखार सकने की प्रबल और व्यापक संभावना यहां है।</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-19566369929434454722023-10-22T06:56:00.004+05:302023-10-22T07:07:10.312+05:30संग्रहालय विज्ञान<i>संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्च, छत्तीसगढ़ की शोध पत्रिका ‘कोसल‘ की जिक्र पहले किया है। कोसल के अंक-10, वर्ष 2017 में पुस्तक समीक्षा- ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘ मेरी पुस्तिका संबंधी है। समीक्षा, वरिष्ठ संग्रहालय विज्ञानी अशोक तिवारी जी ने लिखी है,यहां प्रस्तुत है-</i><div><br /></div><div style="text-align: center;"><b>संग्रहालय विज्ञान का परिचय</b> </div><div><br /></div><div>लेखक - राहुल कुमार सिंह </div><div>प्रकाशक - छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी, रायपुर, 2017 </div><div>मुद्रक - महावीर ऑफसेट, रायपुर, छत्तीसगढ़ </div><div>पृष्ठ संख्या - 59 (श्वेत - श्याम चित्र-27) मूल्य-50 रूपये ISBN-978-93-82313-26-7 </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimE62_GuMtkrEWNudQg7Vk68jIzCndCpfJFxyoPIkxTR3kOBubredFxGrr2VHlww_eye2uD1_Qx0-ApfowBXM47q3-q1L-2m_pqqXCWl0p-87Pa2jqi6adsdYbTXWBftD4l-BSi65DRjnyvA4cKBufecSKvxY1a3juWhwk9G96JnBAYqX2L81dZKysrRZi/s413/Museum.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="413" data-original-width="255" height="461" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimE62_GuMtkrEWNudQg7Vk68jIzCndCpfJFxyoPIkxTR3kOBubredFxGrr2VHlww_eye2uD1_Qx0-ApfowBXM47q3-q1L-2m_pqqXCWl0p-87Pa2jqi6adsdYbTXWBftD4l-BSi65DRjnyvA4cKBufecSKvxY1a3juWhwk9G96JnBAYqX2L81dZKysrRZi/w285-h461/Museum.png" width="285" /></a></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">‘‘किसी देश अथवा काल की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक, जड़ या चेतन वस्तुओं का संग्रह, संग्रहालय में हो सकता है। ये वस्तुएं जहां भूत व वर्तमान संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं वहीं सांस्कृतिक अभिरूचि की परिचायक भी होती हैं। संग्रहालय एक आदर्श एवं सर्वांग संपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र होता है। संग्रहालय का प्रमुख कार्य व उद्देश्य संस्कृति की पहिचान है। संस्कृति जो मानव की अस्मिता, अस्तित्व व उपलब्धि का रेखांकन होती है।‘‘</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उपरोक्त वाक्य ‘‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘‘ शीर्षक पुस्तक के प्रथम अध्याय के अंश हैं, जिसमें संग्रहालयों से संबंधित तमाम किस्म की जानकारियों को समेट कर उपलब्ध कराने की उद्देश्यपूर्ण और सुन्दर कोशिश की गई है। संग्रहालय विज्ञान पर हिन्दी में बहुत सारी पुस्तकें तो नहीं लिखी गई है, और खासकार ऐसा हैण्डबुक जैसी छोटी पुस्तिका, का तो लगभग अभाव सा है। लेखक श्री राहुल कुमार सिंह ने इस पुस्तक में संग्रहालयों के उद्देश्य एवं कार्य, संग्रहण व अधिग्रहण, भवन, पंजीकरण, प्रदर्शन, संरक्षण, सुरक्षा आदि विविध अध्यायों में संग्रहालय प्रबंधन से संबंधित विविध आयामों को जिस तरह से वर्णित किया है, वह इस विषय को पढ़ने वाले विद्यार्थियों तथा संग्रहालयों में कार्य करने वाले कर्मियों के लिए संक्षेप में सभी बातों को दृष्टिगोचर करता है। संग्रहालय प्रबंधन की विधा यूं तो संग्रहालय में कार्य करने वाला व्यक्ति, खुद काम करते हुए अपने अनुभव से रचता है किन्तु यदि इस पुस्तक में लिखी गई बातों को भी संग्रहालय कर्मी संदर्भित करते हुए कार्य करे तो निश्चित ही उसके प्रबंधन में अधिक गुणवत्ता आयेगी। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी जिन्होंने इसका प्रकाशन किया है और श्री राहुल कुमार सिंह जिन्होंने इसे लिखा है, दोनों ही इस हेतु बधाई के पात्र हैं। यद्यपि इस पुस्तक में संग्रहालय विज्ञान के विविध आयामों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है एवं जो बातें कही गई हैं वे पुरातात्विक संग्रहालयों से अधिक संबंधित हैं, तथापि लेखक ने अन्य विशेषीकृत संग्रहालयों जिसमें मुक्ताकाश संग्रहालय भी सम्मिलित हैं, को भी स्पर्श की सार्थक कोशिश की है। लेखक ने जहां संग्रहालय को संस्कृति पर ज्ञान का भण्डार निरूपित किया है, वहीं इस ज्ञान को दर्शकों तक संप्रेषित करने के तरीकों का भी बखूबी उल्लेख किया है। हालाकि वर्चुअल म्यूजियम, इन्टरेक्टिव डिस्पले, रेडियो टूर, नव संग्रहालयवाद तथा संग्रहालय विज्ञान से संबंधित आधुनिक तकनीक नवाचार आदि पर विस्तारण नहीं किया गया है तथापि इस क्षेत्र में थोड़ा सा झरोखा को लेखक ने खोला ही है। अपेक्षा है जब इसका दूसरा संस्करण आएगा तो लेखक इन सभी के साथ संग्रहालय शिक्षा, संग्रहालय आऊटरीच तथा संस्कृतियों के ‘इन सीटू‘ परिरक्षण पर भी प्रकाश डालेंगे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पुस्तक के अंत में संलग्न परिशिष्ट छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित संग्रहालयों के बारे में परिचयात्मक जानकारी उपलब्ध कराता है। छत्तीसगढ़ के लिए यह गौरव की बात है कि यहां पर आज से 140 वर्ष से भी पहले एक संग्रहालय की स्थापना की गई थी, तब शायद पूरे देश में एक दर्जन संग्रहालय नहीं रहे होंगे। पुस्तक में ‘महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय‘ के नाम से इस संग्रहालय के बारे में पढ़ना एक सुखद अनुभूति है। छत्तीसगढ़ में पुरातात्त्विक उत्खनन स्थलों पर विकसित स्थल संग्रहालय तथा रायपुर शहर में लगभग 200 एकड़ में निर्मित किये जा रहे ‘पुरखौती मुक्तांगन‘ नामक मुक्ताकाश संग्रहालय के साथ ही राज्य के अनेक जिला मुख्यालयों और अन्य स्थानों पर स्थापित किये गये संग्रहालयों पर उपलब्ध कराई गई जानकारी इस पुस्तक की महत्ता में अभिवृद्धि करता है। अपेक्षा है कि पाठक इस पुस्तक से संग्रहालय विज्ञान पर संक्षिप्त किन्तु सटीक और समेकित जानकारी प्राप्त कर सकेंगे । </div><div><br /></div><div><b>-अशोक तिवारी, रायपुर</b> </div><div>(इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सेवानिवृत्त अधिकारी)
</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-7667385122427549372023-10-21T11:40:00.006+05:302023-10-23T08:53:22.666+05:30बेलदार सिवनी<i>छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ पुरातत्व, संस्कृति विभाग के अंतर्गत, संचालनालय सस्कृति एवं पुरातत्व के रूप में आया। संचालनालय द्वारा पत्रिका ‘बिहनिया‘ का प्रकाशन आरंभ हुआ, जो मुख्यतः संस्कृति से संबंधित थी, वहीं शोध पत्रिका ‘कोसल‘ का भी प्रकाशन किया जाने लगा, जो पुरातत्व की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका के रूप में स्थापित हुई। विभागीय दायित्वों के निर्वाह के क्रम में शोध पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक के रूप में मेरा नाम होता था, यह मुख्यतः विभागीय उत्तरदायित्व की दृष्टि से होता था। पत्रिका के संपादन में प्रो. ए.एल. श्रीवास्तव, प्रो. लक्ष्मीशंकर निगम और श्री जी.एल. रायकवार जैसे विद्वानों की मुख्य भूमिका होती थी।</i><div><i><br /></i><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCoZp1gDK9INh0kjtlZ5gghjGRMOkcTm6Qk3BKWtJtxcwpB-vfp-SnATdZhMf00WZekxDB5ZIgCoS7q8hoDSrFA_5VEtbNu2BpDauQO3UCiGELnGagR_Yp7awqVlJDBzOSUYSB4YzKWa_wDojCiZ65AHdGqBXjL1R4x_8D6lNWHWAcgx28NJld53raWyUf/s1368/kosal-1.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1368" data-original-width="1009" height="110" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCoZp1gDK9INh0kjtlZ5gghjGRMOkcTm6Qk3BKWtJtxcwpB-vfp-SnATdZhMf00WZekxDB5ZIgCoS7q8hoDSrFA_5VEtbNu2BpDauQO3UCiGELnGagR_Yp7awqVlJDBzOSUYSB4YzKWa_wDojCiZ65AHdGqBXjL1R4x_8D6lNWHWAcgx28NJld53raWyUf/w81-h110/kosal-1.jpg" width="81" /></a></div></div><div><i>यह भूमिका शोध पत्रिका ‘कोसल‘ के अंक-10, वर्ष 2017 में प्रकाशित दो प्रविष्टियों के संदर्भ में है। पत्रिका के इस अंक के संपादन में उक्तानुसार नाम हैं, जिसमें पुस्तक समीक्षा- ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘ मेरी पुस्तिका संबंधी है तथा इसी अंक में एक अन्य लेख मेरे द्वारा किए गए ग्राम बेलदार सिवनी के स्थल निरीक्षण से संबंधित है।
प्रसंगवश ‘बेलदार‘ में मेरी जिज्ञासा लंबे समय से रही है। कुछ गांवों में बेलदारपारा तो है, मगर वहां बेलदार समुदाय का कोई नहीं। यह भी जानकारी मिलती है कि बेलदार, तालाब निर्माण के विशेषज्ञ, राजमिस्त्री होते हैं और इन्हीं में एक वर्ग सैनिेक-योद्धा भी है। सिरपुर में बेलदार समाज के आराध्य मंदिर होने की भी जानकारी मिलती है। बहरहाल, यहां इस स्थल निरीक्षण का प्रतिवेदन, जिसके आधार पर लेख रूप में प्रस्तुति के लिए श्री रायकवार का सहयोग मिला-</i></div><div><br /></div><div style="text-align: center;"><b>बेलदार सिवनी (तिल्दा नेवरा) से ज्ञात प्रतिमाएं</b></div><div style="text-align: right;"><b><span style="font-size: x-small;">राहुल कुमार सिंह</span> </b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ में अनेक स्थलों से संयोग अथवा आकस्मिक रूप से प्राप्त होने वाले पुरावशेषों के वर्ग में आहत सिक्कों से लेकर विभिन्न राजवशों के सिक्के, मृणमयी मुद्रायें, ताम्रपत्र तथा प्रतिमायें आदि पुरावशेष गैर पुरातत्त्वीय स्थलों से प्राप्त हुये हैं। विगत वर्षों में छत्तीसगढ़ में सिरपुर, मल्हार, महेशपुर, लीलर, सिली पचराही, तरीघाट, मदकूद्वीप, डमरू, राजिम, आदि स्थलों से सम्पन्न उत्खनन कार्य से अज्ञात तथा दुर्लभ प्रकार के अनेकानेक पुरावशेषों की उपलब्धि हुई है जिनसे प्रदेश का सांस्कृतिक एवं राजनैतिक इतिहास समृद्ध हुआ है। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOjnJOb8LvTZJxZW2S0D4H3Pgp2SL18By1rbeNOc5R05JvGxphO3OsNgCnxgZS5LyVCIlzZklOoKKSwyl2v45d7FsIenbD0wq6miFLsl6GRvMrtgWMdHDpYzkjO7i0KF6nsN1NoflETQ6qU_jtpCzW40wV5kAcJxP5VNQjTWSRL6QfCb1k5NKtP7Bf7GaL/s1297/Beldar.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="628" data-original-width="1297" height="198" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOjnJOb8LvTZJxZW2S0D4H3Pgp2SL18By1rbeNOc5R05JvGxphO3OsNgCnxgZS5LyVCIlzZklOoKKSwyl2v45d7FsIenbD0wq6miFLsl6GRvMrtgWMdHDpYzkjO7i0KF6nsN1NoflETQ6qU_jtpCzW40wV5kAcJxP5VNQjTWSRL6QfCb1k5NKtP7Bf7GaL/w409-h198/Beldar.png" width="409" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुरास्थल मल्हार (बिलासपुर) से कृषकों को भू-सतह से आकस्मिक रूप से विभिन्न प्रकार के लघु पुरावशेष प्राप्त होते रहे हैं। इस ग्राम के एक कृषक श्री गुलाब सिंह ठाकुर द्वारा भू-सतह से संग्रहीत विविध प्रकार के लघु पुरावशेषों का अच्छा संग्रह किया गया है। इनमें से कुछ विशिष्ट अवशेषों का विद्वानों के द्वारा अध्ययन कर शोध ग्रंथों में प्रकाशन भी किया गया है। प्राचीन बसाहटों के भू-सतह से लघु पुरावशेषों का संग्रहण धैर्यपूर्ण तथा उबाऊ शौक के साथ-साथ एक कला भी है जिसके लिए रूचिसम्पन्न होना एक अनिवार्य गुण है। पुरावशेषों के महत्व से परिचित तथा खोज के क्षेत्र में समर्पित व्यक्ति अपने धैर्यपूर्ण परिश्रम तथा लगन से संकलित सिक्कों, अभिलिखित ठीकरों, पकी मिट्टी से निर्मित खिलौनों, मुहरों तथा प्रतिमा फलकों के माध्यम से संबंधित स्थल के विस्मृत वैभव को उजागर करने इतिहासकारों तथा पुराविदों को स्थल के अध्ययन, प्रकाशन तथा पुरातत्त्वीय कार्य के लिये उत्प्रेरित करते हैं। कालान्तर में मल्हार (बिलासपुर) में उत्खनन का सबसे ठोस आधार भू-सतह से विभिन्न प्रकार के प्रचुर पुरावशेषों की उपलब्धि रही है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">गैर पुरातत्त्वीय स्थलों में उपलब्ध होने वाले प्राचीन लघु प्रतिमाओं की दृष्टि से रायपुर जिले के ग्राम हीरापुर (रायपुर नगर का विस्तारित आवासीय क्षेत्र) तथा ग्राम बेलदार-सिवनी (तिल्दा नेवरा) उल्लेखनीय है। उपरोक्त दोनों स्थलों के प्रतिमाओं की कलाशैली तथा प्राप्त होने की स्थिति में पर्याप्त समानताएं है। वर्ष 2010 में हीरापुर में नाली निर्माण के लिए की जा रही खुदाई के समय एक कच्चे मकान से संलग्न भाग पर लगभग पांच फीट की गहराई में मजदूरों को लघु आकार की कुछ प्रतिमाएं दबी हुई स्थिति में प्राप्त हुई थीं। इन प्रतिमाओं में कार्तिकेय, एकमुख लिंग, लज्जागौरी तथा विष्णु प्रतिमा उल्लेखनीय हैं। ये प्रतिमाएं चारों ओर से कोर कर निर्मित की गई हैं। इन पुरावशेषों को कुछ समय तक एक स्थानीय मंदिर में पूजा उपासना हेतु संग्रह कर रखा गया था। स्थानीय प्रशासन के सहयोग से इन्हें संग्रहालय हेतु अवाप्त कर लिया गया है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ग्राम बेलदार सिवनी के चतुर्दिक दस किलोमीटर के क्षेत्र में ऐतिहासिक स्मारक स्थल नहीं है। तथापि ग्राम में स्थित आधुनिक शिव मंदिर में पूजित प्राचीन शिवलिंग तथा अन्य क्षरितप्राय प्रतिमाखंड रखे हुये हैं। ग्राम में प्रवेश करते ही बायीं ओर एक प्राचीन सरोवर है जिसके चारों ओर पक्का घाट निर्मित है। अनुमानतः यह सरोवर कलचुरि-मराठा काल में निर्मित है। विगत वर्ष स्थानीय सरपच श्री विजय वर्मा के माध्यम से आवासीय उद्देश्य से निर्माण कार्य के समय प्राचीन प्रतिभाए उपलब्ध होने की जानकारी प्राप्त होने पर विभाग के सेवानिवृत्त उप संचालक श्री जी. एल रायकवार, तकनीकी कर्मचारी सर्वश्री प्रभात कुमार सिंह, पर्यवेक्षक तथा प्रवीन तिर्की, उत्खनन सहायक के साथ स्थल निरीक्षण किया गया। विवेच्य प्रतिमाओं का प्राप्ति स्थल (चित्र क्र. 1) श्रीमती गीता वर्मा, पंच, वार्ड क्रमांक 9 के स्वामित्व का आवासीय मकान है। इस मकान से संलग्न बाड़ी में शौचालय निर्माण हेतु गड्ढा खोदने के दौरान भू-सतह से लगभग नौ फीट की गहराई में लघु आकार की प्रस्तर निर्मित 9 प्राचीन प्रतिमाएं व अन्य अवशेष उपलब्ध हुये (चित्र क्र. 2)। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIMKwie-7SPiAV7lCLcDuH0SGDNTnBYE0yCtKu5iNOJlw7g6QYjg5pnqztksBi9jxcN6d6vSNXI33MCk_pSz11Tma89vOOEdCnZ2ZuUuzpzxml9PS5yJ7nF6nPEEGp1BHoV308U-BrBGlNkFGKCm5JjW1y7zr2_omTX2JLsY9PKvYgIRfPVHD4qx27Ihkh/s3534/01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3534" data-original-width="2524" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIMKwie-7SPiAV7lCLcDuH0SGDNTnBYE0yCtKu5iNOJlw7g6QYjg5pnqztksBi9jxcN6d6vSNXI33MCk_pSz11Tma89vOOEdCnZ2ZuUuzpzxml9PS5yJ7nF6nPEEGp1BHoV308U-BrBGlNkFGKCm5JjW1y7zr2_omTX2JLsY9PKvYgIRfPVHD4qx27Ihkh/s320/01.jpg" width="229" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उपलब्ध पुरावस्तुओं के संबंध में संक्षिप्त जानकारी निम्नानुसार है- </div><div><br /></div><div>क्र. - पुरावशेष का नाम - सामग्री - आकार - चित्र संख्या</div><div><br /></div><div>1- एकमुख लिंग - प्रस्तर - 17.5X8X5 सेमी. - 3 </div><div>2- एकमुख लिंग - प्रस्तर - 20X7.5X6.5 सेमी. - 4 </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXtcXxzES4RYvjJfJFyjAe79ZJoRECntK59qtPPmeeywlNQhngPhYlKWpBjSDXMzugheB3Jit2SU0GzgFKFJvYRrsolcDcXU79tKe23ywLzlCsr9CX_rMaDzhyphenhyphenOYkS4WihpuNBDt00ckfPFHCEJ1RnxZmMaWxeyGOZdLEVMDl4KwhdD8TIXogwbU3olAjp/s3349/02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3349" data-original-width="2386" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXtcXxzES4RYvjJfJFyjAe79ZJoRECntK59qtPPmeeywlNQhngPhYlKWpBjSDXMzugheB3Jit2SU0GzgFKFJvYRrsolcDcXU79tKe23ywLzlCsr9CX_rMaDzhyphenhyphenOYkS4WihpuNBDt00ckfPFHCEJ1RnxZmMaWxeyGOZdLEVMDl4KwhdD8TIXogwbU3olAjp/s320/02.jpg" width="228" /></a></div><div><br /></div><div>3 - पार्वती - प्रस्तर - 10.5X5X3.5 सेमी - 5 </div><div>4 - कार्तिकेय - प्रस्तर - 15.5X8X3.5 सेमी. - 6</div><div>5 - कार्तिकेय - प्रस्तर - 17.5X7.5X3 सेमी.-7 </div><div>6 - मानवाकृति नंदी - प्रस्तर - 11.5X10X4.5 सेमी. - 8 </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimVnSMtLe_9gxFI1gICokYjMrp1CiONKW8t0ejzfC_rmWtg6RPydzaM1XSfeqvq28qv1eFvmIPk22mYPB2KVN1-lPx5heqyo5I5przzxkaEdPXYaJC-34sPgMi_HjdP6w1xDZNxfOlplMkYQdCCQcXxHTDTWZ3iTZjt_riWvn2Ob4M9FS1d0Z35deyxnoF/s3558/03.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3558" data-original-width="2462" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimVnSMtLe_9gxFI1gICokYjMrp1CiONKW8t0ejzfC_rmWtg6RPydzaM1XSfeqvq28qv1eFvmIPk22mYPB2KVN1-lPx5heqyo5I5przzxkaEdPXYaJC-34sPgMi_HjdP6w1xDZNxfOlplMkYQdCCQcXxHTDTWZ3iTZjt_riWvn2Ob4M9FS1d0Z35deyxnoF/s320/03.jpg" width="221" /></a></div><br /><div>7 - कुबेर -प्रस्तर - 13X9X6 सेमी. - 9 </div><div>8 - कुबेर -प्रस्तर - 12X9X3.5 सेमी. - 10 </div><div>9 - सिंह - प्रस्तर - 10.5X6.5X3.5 सेमी. - 11 </div><div>10 - पायेदार सिलबट्टा - प्रस्तर 17.5X145X13 सेमी. - - </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFCoKE7Fj4LPn_MdhyphenhyphenCEGyksFuHIF6ynCRMu8_v9QE7XZki5o5WxvDxUZLWTXqBHeNK5m8poc7FGSSFb7DkNMhwOu42F5Mosk-lSnp39aNSM9eN5gRf1_th6zdgBTtyRRup8Nvyk3WF_5y-VYQ91GrD5CNEPmkfKaviy4yuoqvCqfHwl9rs5LhgDYnCN12/s3228/04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3228" data-original-width="2288" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFCoKE7Fj4LPn_MdhyphenhyphenCEGyksFuHIF6ynCRMu8_v9QE7XZki5o5WxvDxUZLWTXqBHeNK5m8poc7FGSSFb7DkNMhwOu42F5Mosk-lSnp39aNSM9eN5gRf1_th6zdgBTtyRRup8Nvyk3WF_5y-VYQ91GrD5CNEPmkfKaviy4yuoqvCqfHwl9rs5LhgDYnCN12/s320/04.jpg" width="227" /></a></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">प्राप्त मूर्तियाँ शैव एवं शाक्त धर्म से संबंधित हैं तथा बलुआ प्रस्तर से खिलौनानुमा लघु आकार में निर्मित हैं। आकार की दृष्टि से विवेच्य प्रतिमाएं चल विग्रह हैं तथा मुख्यतः तीर्थ यात्रियों, दीर्घकाल तक यात्रा करने वाले व्यवसायियों तथा राजकीय शिविरों में प्रवास काल में अर्चना के लिये उपयोग में लायी जाती रही होंगी। लघु आकार की धातु तथा प्रस्तर प्रतिमाएं, गृहस्थों के पूजा घरों में भी उपयोग में लायी जाती थीं। छत्तीसगढ़ अंचल में घरो के आंगन में तुलसी चौरा पर शालग्राम अथवा शिवलिंग की पिंडी रखे जाने की परंपरा अद्यतन दिखाई पड़ती है। सूर्य को जल अर्पण, शिवलिंग का जलाभिषेक तथा तुलसी के बिरवा की पूजा एक साथ सम्पन्न करने की यह सुंदर और सरल देशज विधि है। एक ही जगह पर गहराई में हंडा (दफीने) के सदृश्य लघु आकार की प्रतिमाओं को दबा कर गुप्त रूप से रखे जाने की प्रथा के संबंध में यह भी अनुमान होता है कि संबंधित स्थल में प्रस्तर शिल्पकार निवास करते थे तथा व्यवसायिक प्रयोजन से प्रतिमाओं का निर्माण करते थे अथवा अन्यत्र स्थल के व्यवसायी विक्रय करने के लिए इन्हें लाया करते। किसी आकस्मिक दुर्घटनाजन्य परिस्थिति के कारण इन प्रतिमाओं को सुरक्षित रखने, अपवित्र अथवा दूषित होने से बचाने के उद्देश्य से अथवा अज्ञानतावश अमंगलजनक समझकर किसी निश्चित एकांत स्थल पर भूमि के भीतर गहराई में दबा दिये जाते रहे होंगे। गैर पुरातत्त्वीय स्थलों से क्षेत्रीय कला शैली से पृथक कला शैली की लघु प्रतिमाओं/सिक्कों/मृत्पात्रों, पकी मिट्टी की मुहरों आदि की उपलब्धि से सांस्कृतिक एकता, परस्पर प्रभाव तथा तद्युगीन यात्रा पथों का एक संकेत प्राप्त होता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">संक्षेप में पृथक कला शैली के लघु पुरावशेषों की उपलब्धियों के निम्न कारण हो सकते हैं- </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1. तीर्थयात्रियों के द्वारा पडाव स्थलों में नित्य पूजा आराधना के लिए लघु प्रतिमायें साथ में रखी जाती रही होंगी। </div><div style="text-align: justify;">2. तीर्थ स्थल अथवा किसी अन्य कला केन्द्रों प्रत्यावर्तन के समय यात्रियों के द्वारा अल्पमूल्य, अल्पभार, आकर्षक एवं लघु आकृति के कारण पूजा-आराधना अथवा स्मृति चिन्ह के रूप में क्रय कर नियत गन्तव्य तक ले जाया जाता रहा होगा। </div><div style="text-align: justify;">3. लघु प्रतिमाओं का निर्माण प्राप्ति स्थल में ही यायावर शिल्पी समुदाय द्वारा किया जाता रहा होगा। किसी दुर्घटना के कारण इन्हीं शिल्पियों के द्वारा निर्मित लघु कलाकृतियाँ बाद में दबी हुई स्थिति में प्राप्त होती हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">विवेचित कला शैली की लघु आकार की प्रतिमाएं छत्तीसगढ़ के मल्हार, हीरापुर तथा बेलदार सिवनी से उपलब्ध हुयी हैं। इन प्रतिमाओं के आकार, बनावट तथा कला शैली में समानताएं हैं। इनमें अलंकरण अत्यल्प हैं। रूपाकृति मूल विषयवस्तु पर केन्द्रित है। अतिरिक्त पौराणिक अथवा अलंकरणात्मक विस्तार का अभाव है। यक्ष आकृतियों के स्थूल सौंदर्य के सदृश्य प्रतिमालक्षण से परिपूर्ण हैं। इन कलाकृतियों में मूर्ति शिल्प के विकास, क्षेत्रीय परंपरा तथा तद्युगीन लुप्त प्रचलित संप्रदाय भी आभासित होता है। यक्ष परंपरा के संवाहक लघु आकार की देव आकृतियों की आराधना विशिष्ट साधना पथ का संकेतक है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बेलदार सिवनी से प्राप्त एकमुख लिंग प्रतिमाओं के बनावट में समरूपता नहीं है। मुख तथा शीर्ष के केश विन्यास में अंतर है तथापि दोनों प्रतिमाओं के ग्रीवा में ग्रैवेयक प्रदर्शित हैं। एक किंचित बड़े आकार के मुखलिंग में प्रौढ़ता तथा दूसरी प्रतिमा में सौम्यता प्रदर्शित है। कार्तिकेय की प्राप्त दोनों स्थानक प्रतिमायें दंडधर के सदृश्य दायें हाथ में शूल (शक्ति) धारण किये हैं। उनके शीर्ष में त्रिशिखी केश विन्यास है। ललितासन में आसनस्थ कुबेर के दायें हाथ में पात्र (चषक) तथा बायें हाथ में नकुली है। उनके शिरोभाग पर आकर्षक केश विन्यास है। पार्वती के दायें हाथ में स्थूल शूल है। मानव रूप में वज्रासन में बैठे हुये नंदी दोनों हाथ जोड़े हुये हैं। पिछले दोनों पैरों पर बैठे तथा अगले पैरों पर भार देकर उन्नत ग्रीव सिंह का मुख किंचित खंडित है। बेलदार सिवनी से प्राप्त लघु आकार की प्रतिमाओं में कला की प्रौढ़ता, सौष्ठव तथा सौंदर्य की अपेक्षा क्षेत्रीय प्रभाव अधिकतम प्रदर्शित है। इन प्रतिमाओं का काल लगभग 7वीं से 8वीं सदी ईसवी प्रतीत होता है। </div><div style="text-align: center;">---
</div></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-74362484872338698292023-10-16T17:01:00.006+05:302023-10-21T15:59:40.240+05:30रायपुर का गभरापारा<div style="text-align: justify;">रायपुर में गभरापारा का पता करने निकले, जल्दी और आसानी से कुछ हासिल होने की संभावना बहुत कम है, लेकिन लगे रहें तो कई दिशाएं, परतें खुल सकती हैं। मेरे लिए अपना-पराया का द्वंद्व है, रायपुर। अपना हो तो जाना पहचाना, पराया हो तो जान-पहचान के लिए मौन आग्रह, आपके लिए कोई न कोई भेद-रहस्य सामने आते रहेंगे और अपने-पराये इस शहर को जानने-पहचानने की रोमांचक-जिज्ञासा, इसलिए आकर्षण बना रहेगा। शहर आपको तभी अपनाता है, जब आप शहर को अपना लें। मुनीर की बात थोड़े फेर-बदल से ‘जिस शहर में भी रहना अपनाए (न कि उकताए) हुए रहना।‘</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बहरहाल, गभरापारा की तलाश क्यों? जवाब सीधा सा है, पता लगता है कि 1867 में रायपुर म्युनिसिपल बना, इसमें रायपुर के साथ चिरहुलडीह, डंगनिया और गभरापारा बस्ती शामिल थी। चिरहुलडीह और डंगनिया तो सारे बाशिंदों के लिए सहज है, मगर गभरापारा लगभग भुला दिया गया, इसलिए पहेली बन जाता हैै और बूझना जरूरी, क्योंकि यह रायपुर नगरपालिका की बुनियाद में है, अपनी जड़ों से कौन अनजान रहना चाहेगा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">टिकरापारा, मठपारा के लोग अपने इस पड़ोस के न सिर्फ नाम से परिचित हैं, उन पुरानी स्थितियों को भी याद करते हैं कि कुछ नीची-गहरी भूमि वाला क्षेत्र था, टिकरा के साथ तुक मिलाते, उसका युग्म शब्द- गभरा। टिकरा-गभरा जोड़े के साथ ध्यान रहे कि टिकरा की तरह का एक प्रकार है, थोड़ी ऊंचाई वाली कृषि भूमि टिकरा कहलाती है तो गभरा या गभार का आशय गहरी उपजाऊ भूमि होता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">गभरा या गभार, गर्भ से बना जान पड़ता है। रायपुर गजेटियर 1909 के अनुसार गभार का मतलब flat land (सपाट भूमि) है। अनुमान होता है कि आसपास की उच्च-असमतल भूमि की तुलना में यह अर्थ आया है। डॉ. पालेश्वर शर्मा के अनुसार ‘गर्भ धारण की क्षमता के कारण खेत गभार कहलाते हैं। इन खेतों का मूल्य अधिक होता है।‘ चन्द्रकुमार चन्द्राकर के शब्दकोश में ‘गभार‘ का अर्थ ‘खेत का गर्भ स्थल‘, ‘खेत का गहरा भाग‘ और ‘वह खेत जिसके गर्भ से अच्छी फसल हो, उपजाऊ भूमि‘ बताया गया है। इस मुहल्ले के आसपास के बाशिंदों की याद में भी यह ऐसी ही भूमि वाला क्षेत्र रहा है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">गभरा-गभार से जुड़े या इसके आसपास के शब्द, जो कभी सुना था याद आने लगे। सरगुजा कुसमी-सामरी में कन्हर के दाहिने तट पर प्राचीन स्मारक अवशेषों वाला गांव ‘डीपाडीह‘ स्थित है। डीह, पुरानी बसाहट के अवशेष वाली टीलानुमा भूमि और डीपा, संस्कृत का डीप्र या छत्तीसगढ़ी का डिपरा, जो खंचवा का विपरीतार्थी यानि उच्चतल भूमि का द्योतक है। कन्हर के बायें यानि डीपाडीह के दूसरी ओर गांव है गभारडीह, जिसका उच्चारण गम्भारडीह जैसा होता है। यहां कन्हर का दाहिना तट डीपा-ऊंचा है और बायां तट गभार-नीचा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी तरह टटोलते-खंगालते याद करते बगीचा का हर्राडीपा-गभारकोना मिला। जशपुर का डीपाटोली-गम्हरिया और जिले का ऊंच घाट-नीच/हेंठ घाट तो है ही। बिलाईगढ़ के जोगीडीपा का जोड़ा धनसीर बनाता है। धन, समृद्धि या धान ध्वनित करता है और सीर का एक अर्थ हल होता है, राजा जनक का एक नाम सीरध्वज भी है, जिनकी ध्वजा पर हल हो। सीर का एक अन्य अर्थ, गांव की सबसे उपजाऊ भूमि, जिस पर गौंटिया का ‘पोगरी‘ अधिकार होता था और जो गांव में खेती की जमीन के कुल रकबे का छठवां हिस्सा होता था। रायपुर के आसपास के जोगीडीपा की जोड़ी तरीघाट यानि डीपा-तरी बनती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इन सबके साथ एक सफर महासमुंद, बागबहरा का, जहां एक हिस्सा डांगाडिपरा है। बागबहरा का बाग, संभवतः ‘बाघ‘ है। छत्तीसगढ़ में बगदरा, बगदेवा, बगदेई जैसे नाम का बग, वस्तुतः बघ-बाघ ही है और बहरा, गहरी या बरसाती जल-प्रवाह के रास्ते वाली भूमि, जहां पानी ठहरता हो, धान की खेती के लिए उपयुक्त भूमि। बहरा का जोड़ा यहां डिपरा है और वह भी डांगा, यानि डांग- बांस की तरह, लंबा-ऊंचा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">डांग के साथ प्रचलित शब्द डंगनी, डांग कांदा या डंगचगहा को याद कर लें। उूंचाई तक पहुंचने के लिए बांस का डंडा डंगनी तो उूंची लता वाला कांदा, डांग कांदा है और बांस पर चढ़ कर करतब दिखाने वाले डंगचगहा। इसी से जुड़कर वापस रायपुर नगरपालिका के डंगनिया में, जो बांस की अधिकता वाला या ऊंचाई वाला क्षेत्र होगा। इसी तरह चिरहुलडीह में चिरहुल, सिलही चिड़िया, Lesser whistling Teal है। बात रह गई रायपुर के राय की, तो ‘राय‘, मुख्य, महत्वपूर्ण, खास, बड़ा आदि अर्थ देता है। जामुन के दो प्रकारों में एक चिरई जाम, छोटे आकार का, जिसकी गुठली, बमुश्किल चने के बराबर होती है और दूसरा बड़ा, राय जाम। राय-रइया रतनपुर या ‘राय-रतन दुनों भाई‘ के साथ रायपुर के संस्थापक माने गए ब्रह्मदेव, जैसा उन्हें रायपुर शिलालेख संवत 1458 में संबोधित किया गया है- ‘महाराजाधिराजश्रीमद्रायब्रह्मदेव‘, राय ब्रह्मदेव का तो रायपुर है ही।</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-60447621899820264112023-10-14T16:27:00.013+05:302024-02-23T16:07:01.209+05:30जाना-अनजाना रायपुर<div style="text-align: justify;">खारुन के मंथर प्रवाह के साथ मानव सभ्यता को कई ठौर ठिकाने मिले- कउही, परसुलीडीह, तरीघाट, खट्टी, खुड़मुड़ी, उफरा और जमरांव में सदियों की बसाहट के प्रमाण हैं। यह क्रम नदी के दाहिने तट पर मानों ठिठक गया, महादेव घाट-रायपुरा पहुंचते। हजार साल से भी अधिक पुराने अवशेष इतिहास को रोशन करते हैं। बसाहट को आकर्षित किया पूर्वी जल-थल ने। सपाट ठोस-मजबूत थल और उसके बीच जगह-जगह पर भरी-पूरी जलराशि। यही बसाहट- रायपुर, तीन सौ तालाबों का शहर बना। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मैदानी-मध्य छत्तीसगढ़, लगभग बीचों-बीच शिवनाथ से दो हिस्सों में बंटता है। छत्तीस गढ़ों के लिए कहा गया है, शिवनाथ नदी के उत्तर में अठारह और शिवनाथ नदी के दक्षिण में अठारह। ये सभी गढ़ राजस्व-प्रशासनिक केंद्र थे। कलचुरि शासकों के इन सभी छत्तीस गढ़ों का मुख्यालय रतनपुर था, किंतु अनुमान होता है कि शिवनाथ नदी के कारण और दक्षिणी अठारह गढ़ों की सीमा नागवंशियों से जुड़ी होने के कारण, इस अंचल में एक अन्य मुख्यालय आवश्यक हो गया। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कलचुरि शासक ब्रह्मदेव के दो शिलालेख पंद्रहवीं सदी के आरंभिक वर्षों के हैं, जिनसे ब्रह्मदेव के वंश में उसके पिता रामचंद्र के क्रम में सिंहण और लक्ष्मीदेव की जानकारी मिलती है। लक्ष्मीदेव को रायपुर शुभस्थान का राजा बताया गया है। शिलालेख से सिंहण द्वारा अठारह गढ़ जीतने और फिर उसके पुत्र रामदेव/रामचंद्र द्वारा नागवंशियों को आहत करने की जानकारी मिलती है। शिलालेख में रोचक उल्लेख है कि ‘नायक हाजिराजदेव ने हट्टकेश्वर मंदिर बनवाया ... रायपुर में रहने वाली सुंदर स्त्रियां जो कामदेव को जीवित करने के लिए स्वयं संजीवनी औषधियां हैं, यहां के सुखों के कारण कुबेर की नगरी को मन में तुच्छ समझती हैं।‘ कलचुरि शासकों के पुराने केंद्र रतनपुर की बुढ़ाती जड़ों के समानांतर रायपुर शाखा की नई पौध-रोपनी ताकतवर होती गई, और सन 1818 में छत्तीसगढ़ का मुख्यालय रतनपुर से रायपुर स्थानांतरित हो गया।</div><div><br /></div><div>बाबू रेवाराम की पंक्तियां हैं- </div><div>मोहम भये सुत जिनके, सूरदे नृप नायक तिनके। </div><div>ब्रह्मदेव तिनके अनुज, मति गुण रूप विशाल। </div><div>दायभाग लै रायपुर, विरच्यो बूढ़ा ताल। </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">मुख्य सड़क से जुड़े होने के कारण अब बूढ़ा तालाब और तेलीबांधा सामान्यतः जाने-पहचाने जाते हैं, मगर इनके साथ आमा तालाब, राजा तालाब, कंकाली तालाब, महाराजबंद सहित मठपारा के तालाब आदि कई जलाशयों का अस्तित्व अभी बचा हुआ है, जबकि पंडरीतरई, रजबंधा का नाम ही रह गया है और लेंडी तालाब अब शास्त्री बाजार है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उन्नीसवीं सदी में रायपुर के विकास के कुछ मुख्य कार्यों की जानकारी मिलती है, जिनमें 1804 में भोसलों और अंग्रेजों के मध्य संधि के फलस्वरूप डाक सेवा का आरंभ हुआ। 1820-25 के दौरान रायपुर-नागपुर सड़क निर्माण कराया गया। राजकुमार कालेज परिसर का लैंप पोस्ट, जिस पर ‘नागपुर 180 मील‘ अंकित है, अब भी सुरक्षित है। 1825 में सदर बाजार मार्ग निर्माण हुआ। 1825-30 के बीच मिडिल तथा नार्मल स्कूल और दो अस्पतालों का निर्माण हुआ। बाबू साधुचरणप्रसाद ने ‘भारत-भ्रमण में लिखा है- ‘सन 1830 में रायपुर का वर्तमान कसबा बसा। पुराना कसबा इससे दक्षिण और पश्चिम था।‘ 1860 में रायपुर से बिलासपुर और रायपुर से धमतरी के लिए सड़क बनी। रायपुर में म्युनिसिपल कमेटी का गठन 1867 में हुआ। 1868 में केंद्रीय जेल भवन, गोल बाजार तथा दो सार्वजनिक उद्यानों का निर्माण हुआ। 1875 में राजनांदगांव के महंत घासीदास के दान से संग्रहालय का निर्माण हुआ, जो जनभागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय है। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt3gKAPILPWwI6y0T1m4lc5OV7rC5sErwK0kGdBGoz5sDSoEzxnJb7hzkxpSoX4VxHsKe4XgSMSzbVr-vOlFubZ35e1N7X6ec-rz0yU81wczMv4Ql_BuJLESCqMqRRyrSFU11OwoIiEIr9fPqftnMAl1i08c2t5XT7oo_22oUOJyEtJWZlQc3gwpfeE81-/s1600/Raipur-1867-68.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1164" height="393" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt3gKAPILPWwI6y0T1m4lc5OV7rC5sErwK0kGdBGoz5sDSoEzxnJb7hzkxpSoX4VxHsKe4XgSMSzbVr-vOlFubZ35e1N7X6ec-rz0yU81wczMv4Ql_BuJLESCqMqRRyrSFU11OwoIiEIr9fPqftnMAl1i08c2t5XT7oo_22oUOJyEtJWZlQc3gwpfeE81-/w286-h393/Raipur-1867-68.jpg" width="286" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">1887 में टाउन हॉल, सर्किट हाउस, अस्पताल भवन बना तथा इसी दौरान लेडी डफरिन जनाना अस्पताल भी खुला। 1888 में रायपुर तक आई रेल की बड़ी लाइन, आगे खड़गपुर होते 1900 में कलकत्ता से जुड़ गई। 1890 में रायपुर-कलकत्ता सड़क, रायपुर-बलौदा बाजार सड़क और धमतरी रेल लाइन बनी। 1892 में ‘बलरामदास वाटर वर्क्स‘ नाम से खारुन से जल-प्रदाय आरंभ हुआ। सरकारी मिडिल स्कूल 1887 में गवर्नमेंट हाई स्कूल का दरजा पा गया, तब यह कलकत्ता विश्वविद्यालय से फिर 1894 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध हुआ। 1894 में राजकुमार कॉलेज जबलपुर से रायपुर आ गया, 1939 तक यहां सिर्फ राजकुमारों को प्रवेश दिया जाता था। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए 1938 में दाऊ कामता प्रसाद के दान, शिक्षाशास्त्री जे. योगानंदम की इच्छा-शक्ति और तत्कालीन नगर पालिका अध्यक्ष ठा. प्यारेलाल सिंह के सद्प्रयासों से रायपुर में छत्तीसगढ़ कॉलेज की स्थापना हुई।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1867 में म्युनिसिपल बना, जिसकी सीमा में रायपुर के साथ चिरहुलडीह, डंगनिया और गभरापारा बस्ती शामिल थी। टिकरापारा से संलग्न गभरापारा लगभग भुला दिया गया नाम हैै। गभरा शब्द भी सामान्य प्रचलन में अब नहीं है। टिकरा-गभरा जोड़े के साथ ध्यान रहे कि गभरा या गभार, टिकरा की तरह कृषि भूमि का एक प्रकार है, जिसका आशय गहरी उपजाऊ भूमि होता है। रायपुर की शान रहे, रजवाड़ों और जमींदारों के बाड़े- खैरागढ़, रायगढ़, खरियार, छुईखदान, छुरा, कवर्धा, फिंगेश्वर, बस्तर, कोमाखान आदि अधिकतर अब स्मृति-लोप हो रहे हैं। और बीसवीं सदी के आरंभ में सिंचाई विभाग की स्थापना और नहर निर्माण के साथ महानदी का पानी खेतों तक पहुंचने लगा। तब तक रायपुर की जनसंख्या 30000 पार कर चुकी थी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सबसे पुरानी कामर्शियल बैंक, 1912 में स्थापित इलाहाबाद बैंक है। को-ऑपरेटिव बैंक 1913 में और इंपीरियल बैंक 1925 में स्थापित हुआ। बिजली अक्टूबर 1928 में आई, मगर व्यवस्थित होने में समय लगा, जब 1939 में 240 किलोवॉट का पावर हाउस स्थापित हो गया। 1950-51 में ईस्टर्न ग्रिड सिस्टम के अंतर्गत रायपुर पायलट स्टेशन बना, तब रायपुर पावर हाउस का काम शासकीय विद्युत विभाग द्वारा किया जाने लगा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पुराने रायपुर को इन शब्द-दृश्यों में देखना रोचक है- 1790 में आए अंग्रेज यात्री डेनियल रॉबिन्सन लेकी बताते हैं- यहां बड़ी संख्या में व्यापारी और धनाढ्य लोग निवास करते हैं। यहां किला है, जिसके परकोटे का निचला भाग पत्थरों का और ऊपरी हिस्सा मिट्टी का है। किले में पांच प्रवेश द्वार हैं। पास ही रमणीय सरोवर है। पांच साल बाद आए कैप्टन जेम्स टीलियर? ब्लंट गिनती में बताते हैं कि नगर में 3000 मकान थे। नगर के उत्तर-पूर्व में बहुत बड़ा किला है, जो ढहने की स्थिति में है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सन 1893 का विवरण यायावर बाबू साधुचरण ने दिया है, जिसके अनुसार रेलवे स्टेशन से एक मील दूर पुरानी धर्मशाला से दक्षिण गोल नामक चौक (गोल बाजार) में छोटी-छोटी दुकानों के चार चौखूटे बाजार हैं। गोल चौक से दक्षिण दो मील लंबी एकपक्की सड़क है। जिसके बगलों में बहुतेरे बड़े मकान और कपड़े, बर्तन इत्यादि की दुकानें बनीं हैं। ... प्रधान सड़कों पर रात्रि में लालटेने जलती हैं। ... एक पुराना जर्जर किला देख पड़ता है, जिसको सन् 1460 ई. में राजा भुवनेश्वर देव ने बनवाया था। ... किले के दक्षिण आधा वर्ग मील में फैला महाराज तालाब है। तालाब के बांध के निकट श्रीरामचंद्र का मंदिर (दूधाधारी) खड़ा है। जिसको सन् 1775 में रायपुर के राजा भीमाजी (बिंबाजी) भोंसला ने बनवाया।‘ इस विवरण में कंकाली तालाब, आमा तालाब, तेलीबांधा, राजा तालाब का भी उल्लेख है। कोको तालाब के लिए बताया गया है कि इसमें गणेश चौथ के अंत में गणपति जी की मूर्तियां विसर्जित होती हैं, (ध्यान देने वाली बात कि इसी विवरण-वर्ष यानि 1893 में तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक उत्सव का स्वरूप दिया था।) व्यापार संबंधी जानकारी आई है कि गल्ले, कपास, लाह (लाख) और दूसरी पैदावार की सौदागरी बढ़ती पर है। साथ ही यह भी बताया गया है कि वर्तमान कस्बे के दक्षिण और पश्चिम छोटी नदी के किनारे महादेव घाट तक रायपुर का पुराना कस्बा बसा था। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रायपुर की जनांकिकी की दृष्टि से 2011 की जनगणना में 10 लाख आबादी का आंकड़ा पार यह बसाहट, यही कोई 500 साल बीते, खारुन नदी के किनारे का रायपुरा फैलकर पुरानी बस्ती के साथ रायपुर बनने लगा। कलचुरी आए और राजधानी की नींव पड़ी। अब तक सरयूपारी ब्राह्मण आ चुके थे। राजपूत, पहले कलचुरियों के साथ और बाद में गदर के आगे-पीछे आए। वैश्य, यहां रहते छत्तीसगढ़िया दाऊ बन चुके थे। राजधानी ने अन्य को भी आकर्षित किया। मठपारा, कुम्हारपारा, बढ़ईपारा, अवधियापारा, गॉस मेमोरियल, ढीमरपारा, मौदहापारा, यादवपारा, सोनकर बाड़ा, बूढ़ा तालाब, तेलीबांधा वाले इस शहर में चौबे कालोनी, शंकर नगर, सुंदर नगर और विवेकानंद नगर भी बसा। रजबंधा का शहीद स्मारक, प्रेस काम्प्लेक्स तक सफर तो पूरा अध्याय है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी दौरान अठारहवीं सदी के मध्य में भोंसलों के साथ मराठी परिवार आ गए। अन्य में मोटे तौर पर डॉक्टर, वकील पेशे में और रेलवे के काम में बंगाली आए। रेलवे ठेकेदारी, तेंदू पत्ते और लकड़ी के व्यवसाय के लिए गुजराती आए। बुंदेलखंडी जैनों की बड़ी खेप की आमद मारवाड़ियों के बाद हुई। स्वाधीनता-विभाजन के दौर में सिंधी, पंजाबी आए। रोटी, कपड़ा और मकान के मारे, इन्हीं का व्यवसाय यानि गल्ला-राशन, होटल-रेस्टोरेंट, कपड़े की दूकान और बिल्डर-रियल स्टेट का काम करते, दूसरों को मुहैया कराते, अपने लिए इसका पर्याप्त इंतजाम कर लिया। इस क्रम में टुरी हटरी पर गोल बाजार और सदर फिर इन सब पर मॉल हावी हो गया। शहर अब नवा रायपुर तक फैल कर अटलनगर अभिहित है। उसके आर्थिक परिदृश्य में, व्यवसायिक प्रभुत्व सिंधी-पंजाबी और जैनों का है तो कामगारों में उड़िया और तेलुगू पैठ न सिर्फ नगर, बल्कि घर-घर में बन गई है। नगर में सामान्यतः आपसी भाईचारा बना रहा है, छत्तीसगढ़ी सहज स्वीकार्यता का यह सबल उदाहरण है और इस दृष्टि से रायपुर, राज्य की राजधानी के साथ अपने स्वाभाविक औदार्य में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधि शहर भी है।</div><div><br /></div><div><b>पुनश्च-</b> <i>दैनिक भास्कर, रायपुर के 35 स्थापना दिवस पर रायपुर के लिए लिखना था। रायपुर के इतिहास से वर्तमान तक का सफर सीमित शब्दों में लिखना चुनौती जैसा था, यह भी कि अब तक जो लिखा जाता रहा है, उससे अलग और क्या हो सकता है। फिर भी प्रयास किया कि नये-पुराने रायपुर के लिए अपनी समझ को झकझोर कर देखा जाए कि क्या निकलता है, जो बना वह ऊपर है, जो समाचार पत्र में आया, वह आगे है-
</i></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiatXFqmIcxyxvtPi42xkTtjbf6xbWE7a-IfsOzJ83XzqZ5ixtwNpXrQfSnnhSxY1hCpQ7XAFRJagl3NbpQvGTHbxWaI0xq-4DXe1fB12NuTxAqzMzce16XNJitrGq6uhehRo05ReGqcvpTMb_PE8uudZfSev8AfYbdcNfD_cKbnbTFvI93oMjPk-H-1r3m/s1600/Bhaskar-35Years.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="367" height="1090" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiatXFqmIcxyxvtPi42xkTtjbf6xbWE7a-IfsOzJ83XzqZ5ixtwNpXrQfSnnhSxY1hCpQ7XAFRJagl3NbpQvGTHbxWaI0xq-4DXe1fB12NuTxAqzMzce16XNJitrGq6uhehRo05ReGqcvpTMb_PE8uudZfSev8AfYbdcNfD_cKbnbTFvI93oMjPk-H-1r3m/w249-h1090/Bhaskar-35Years.jpg" width="249" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><i><span style="font-size: x-small;">(यहां आए पुराने तथ्यों को एकाधिक और यथासंभव मूल-स्रोतों से लिया गया है। </span></i><span style="font-size: x-small;"><i>डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम जी ने उनके लेखन में आई जानकारियों के उपयोग की अनुमति दी तथा हरि ठाकुर जी की सामग्री से कुछ महत्वपूर्ण दुर्लभ जानकारियां, उनके पुत्र आशीष सिंह जी के माध्यम से मिलीं। </i></span><i><span style="font-size: x-small;">अपने दौर की जानकारी और उनकी व्याख्या मेरी है।)</span></i> </div><br /><i><br /></i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-71895654471449961162023-07-11T13:36:00.011+05:302024-02-03T21:01:33.266+05:30देव-द्यूत<div style="text-align: justify;">पिछले कुछ दिनों से जुए के फेर में पड़ गया हूं। मन ही मन पासे फेंकता, दांव-लगाता, जीत-हार का मनोराज्यं। वेद-पाठ, कला-रस और देव-आराधन का आनंद भी है इस मनोद्यूतं में। तिरी-पग्गा, तिरी-पच्चा, तिरी-पांचा, जैसे जाने कितने शब्द ‘जुआ-चित्ती‘ के लिए इस्तेमाल होते हैं। इनके करीबी है ‘तिया-पांचा‘ या ‘तीन-पांच‘, जो शायद जुए-पासे के खेल में छल-कपट के लिए ही प्रयुक्त होता है, ऐसे संकेत भी वैदिक साहित्य में मिल जाते हैं और गीता में कृष्ण ‘द्यूतं छलयतामस्मि‘ बताते हैं।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">वैदिक साहित्य में ‘अक्ष‘ शब्द, पासा या गोटी के अर्थ में आता है। अथर्ववेद में ‘सं-रुध्‘ और ‘सं-लिखित‘ शब्दों का प्रयोग पासे के संदर्भ में हुआ है। ऋग्वेद का संदर्भ मिलता है जहां ‘पासा फेंकने‘ की धनदायक या नाशक के रूप में देवों से तुलना की गई है। पासा खेलने वाले व्यक्ति का पूरी संपत्ति सहित पत्नी के हार जाने का संकेत भी पहले-पहल ऋग्वेद में आया है। वैदिक साहित्य में ‘त्रिपंचाश‘ शब्द भी आया है, जिसका सीधा मतलब तिरपन समझ में आता है, मगर विद्वान एकमत नहीं हैं और एक बड़ी संख्या का अभिव्यंजक भी माना है। याद कीजिए- ‘जाओ, तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं‘ वाली बात ‘... पचीसो देखे हैं‘ भी कहा जाता है। पौ-बारह, जैसे शब्द भी बाजी मार लेने के लिए आते हैं। फेंके गए पासों पर आई संख्या चार से विभाजित हो ऐसी संख्या ‘कृत‘, चार से विभाजित करने पर तीन शेष रहे तो ‘त्रेता‘, दो बचे तो ‘द्वापर और एक बच जाए तो ‘कलि‘ कहे जाने का भी उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद के शंकर भाष्य में रैक्व प्रसंग में कृत-विजय का और तीन, दो, एक- क्रमशः त्रेता, द्वापर और कलि को संबद्ध किया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">महाभारत के आरंभ में ही आदिपर्व के द्यूतपर्व में विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध किया जाता है। स्वयं को हारने के बाद युधिष्ठिर कहते हैं- यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान कष्ट हो रहा है, मगर विवेकशील धर्मराज द्रौपदी को दांव पर लगाते हैं, बड़े-बूढ़े धिक्कारते हैं। आगे चलकर वनपर्व के ‘नलोपाख्यान‘ आता है, जिसमें द्यूत प्रसंग को पिछले संदर्भ से जोड़ने का संकेत भी नहीं है मगर मानों पांडवों-युधिष्ठिर के बहाने पाठकों को बताया जाता है। कथा चलती है कि अवसर पा कर नल के शरीर में कलियुग प्रवेश करता है, इधर राजा नल का रिश्ते में भाई पुष्कर, कलियुग के ही उकसावे में उसे धर्मपूर्वक जुआ खेलने को बार-बार कह कर राजी कर लेता है। पुष्कर और नल के बीच कई महीनों तक जुआ चलता रहा। लगातार हारते नल से अंत में पुष्कर ने पत्नी-दमयंती को दांव पर लगाने के लिए कहा। किंतु कलियुग के प्रभाव में होने के बावजूद भी नल ने ऐसा नहीं किया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मनु ने द्यूत को बुरा खेल माना है। राजा के अधीन खेलने का उल्लेख और व्यवस्था मिलती है। कात्यायन ने लिखा है कि यदि द्यूत की छूट मिले तो वह खुले स्थान में द्वार के पास खिलाया जाना चाहिए, जिससे भले व्यक्ति धोखा न खाएं और राजा को कर मिले। नारद, बृहस्पति, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य जैसे विभिन्न ग्रंथों और महाभारत में भी द्यूत की निन्दा और व्यवस्था संबंधी उल्लेख मिलते हैं। चौदहवीं सदी ईस्वी के जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि' की रोवक उक्ति है- ‘ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।'</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ध्यान रहे कि शास्त्रीय ग्रंथों में द्यूत पर दी गई व्यवस्था, प्रतिद्वंन्दियों के बीच होने वाले खेल के लिए है, न कि पति-पत्नी के बीच के खेल के लिए। विवाह संस्कार पूरे हो जाने के बाद बारात वापस आने पर कंकण छुड़ाने की रस्म में नवदंपति के बीच जुआ-खेल खेला जाता है। एक कथा पासे या शतरंज जैसे खेल में विश्वामित्र का पत्नी से हारने पर पत्नी के हंसने से क्रुद्ध हो कर पासा तोड़ देने की भी है। वैष्णव परंपरा में कृष्ण लीला पुरुष हैं तो इधर शिव की लीलाएं भी कम नहीं। शिल्पशास्त्रीय या प्रतिमाविज्ञान का आधार नहीं मिलता मगर शिव-पार्वती के उमा-महेश विग्रह को शिल्प में चौसर खेलते दिखाया जाता हैै, ऐसी दुर्लभ शिल्प-कृतियां कलात्मक और रोचक कल्पनाशील हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उमा, पार्वती है, पर्वत-पुत्री, नगाधिराज-सुता, ऐश्वर्यशाली। उमा के पास दांव लगाने के लिए क्या कमी। मगर औघड़-फक्कड़ शिव के पास भांग-चिलम के अलावा उनके आयुध त्रिशूल, डमरू, नाग, खट्वांग ही हैं, वे सब उमा के लिए बेमतलब, किसी काम के नहीं, इसलिए जिनका दांव पर लगाया जाना, उमा को मंजूर न हुआ हो। नन्दी, कुछ काम के हो सकते थे, तो महेश की ओर से वही दांव के लिए प्रस्तुत और स्वीकृत हुए। शिल्प में नन्दी को हार जाना रूपायित किया जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ में अब तक ज्ञात मुख्यतः ताला-6 वीं सदी इस्वी, सिरपुर-8 वीं सदी इस्वी, भोरमदेव-11 वीं सदी इस्वी, मल्हार-12 वीं सदी इस्वी और डमरू-13 वीं सदी इस्वी की शिल्प-कृतियां हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrTjMpnDZEijzLjzlKL45MPTH13iqM6miaFfoaMHLt5I6u0qTzYFF21OSLUwyeIHAoBF0pALF2yd5IP5HDejp3snB8stvQdd0TJML9wuvY_jvAI5igiiUN1_NJfLR3w59vymEWEYaTiu_CY8gO7GSRG6DZRTnYiv2UOX6DV6Vcbbfc1JXJBI-fAMiI_OKD/s877/Pic-1.png" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="877" data-original-width="660" height="496" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrTjMpnDZEijzLjzlKL45MPTH13iqM6miaFfoaMHLt5I6u0qTzYFF21OSLUwyeIHAoBF0pALF2yd5IP5HDejp3snB8stvQdd0TJML9wuvY_jvAI5igiiUN1_NJfLR3w59vymEWEYaTiu_CY8gO7GSRG6DZRTnYiv2UOX6DV6Vcbbfc1JXJBI-fAMiI_OKD/w374-h496/Pic-1.png" width="374" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: justify;">ताला</span>एवं सिरपुर</td></tr></tbody></table><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ताला और मल्हार के ऐसे शिल्प खंडों के तीन कोष्ठों से पूरे कथानक को न सिर्फ समझा जा सकता हैै, बल्कि ध्यान देने पर, पूरे प्रसंग और पात्रों का हाव-भाव और वह क्षण भी जीवंत हो उठता है। मुख्य पात्र उमा और महेश हैं, नन्दी हैं और हैं शिवगण समूह और पार्वती परिचारिकाएं। ताला में देवरानी मंदिर के प्रवेश द्वार के अंतः-पार्श्व के शिल्पखंड के मध्य में उमा-महेश चौपड़ खेल रहे हैं। बायें कोष्ठ में शिवगण प्रदर्शित हैं और दायें कोष्ठ में पार्वती की परिचारिकाएं विजित नन्दी को खींच कर ले जाने का प्रयास कर रही हैं और अनिच्छुक नन्दी अड़ा हुआ है। सिरपुर की प्रतिमा में उपर चौपड़ के एक-एक ओर सम्मुख शिव-पार्वती को दिखाया गया है और नीचे नन्दी को हांक कर ले जाया जाना अंकित है।</div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFKUayyNFk8RJBk3ngZqnudN5-3UEd197_WgzJpNu3VvoVIXge93mcLzGeEtAvEKiMqTtXkY8htS960-FEFa7caxd3Vt6lH-oOrnfhW7p43bLgQA7rfFOA9O6HOog-DfySFzVaLnObV_oovF2jic3ruTJZXvUxs5xr_pg2TtGX3IPHoXHVlcU0q3Im5Ed7/s1029/pic-2.png" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="849" data-original-width="1029" height="324" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFKUayyNFk8RJBk3ngZqnudN5-3UEd197_WgzJpNu3VvoVIXge93mcLzGeEtAvEKiMqTtXkY8htS960-FEFa7caxd3Vt6lH-oOrnfhW7p43bLgQA7rfFOA9O6HOog-DfySFzVaLnObV_oovF2jic3ruTJZXvUxs5xr_pg2TtGX3IPHoXHVlcU0q3Im5Ed7/w393-h324/pic-2.png" width="393" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मल्हार, भोरमदेव एवं डमरू</td></tr></tbody></table><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मल्हार में कथानक तीन लंबवत कोष्ठों में है, जिनमें से प्रथम में चौपड़ खेलते उमा-महेश, दूसरे में शिवगण और पार्वती की परिचारिका के बीच नन्दी के लिए विवाद हो रहा है। तीसरे कोष्ठ के अंकन से स्पष्ट अनुमान होता है कि इस विवाद में दोनों उलझ जाते हैं और नन्दी बाबा मौका पा कर सरक जाते हैं। भोरमदेव मंदिर के पूर्वी मुख्य प्रवेश पर दक्षिणी शाखा पर शैव द्वारपाल और नदी देवी के ऊपर दो कोष्ठों में शिल्पांकन है। पहले में उमा-महेश को चौकोर चौपड़ और परिचारिका-गण के साथ दिखाया गया है। इसके पार्श्व खंड में पीछे की ओर सिर घुमाए प्रतिरोध करते नंदी, दंड लिए शिव गण और पार्वती-परिचारिका को दोनों हाथ उठा कर दंड-प्रहार को रोकने का प्रयास करते दिखाया गया है। डमरु की प्रतिमा में चौपड़ खेलते शिव-पार्वती और दाहिनी ओर गणेश को पहचाना जा सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">श्री जी. एल. रायकवार ने सागर-जबलपुर अंचल की ऐसी तीन प्रतिमाओं की पहचान पहले-पहल की थी और 1984 के <a href="https://akaltara.blogspot.com/2023/07/blog-post_4.html"><span style="color: #2b00fe;">‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ दीपावली विशेषांक</span></a> में इस पर रोचक लेख प्रकाशित कराया था। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी स्तुतियां हैं, जिनमें पार्वती और शिव के बीच द्यूत क्रीड़ा और पार्वती का गंगा के प्रति डाह उजागर होने का संवाद है। इसी प्रकार कुछ शिलालेखों की स्तुतियों में भी द्यूत-क्रीड़ारत शिव-पार्वती की वंदना की गई है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्षेपक की तरह एक कथा सुनने को मिली है कि जुए में नन्दी को हारने के बाद हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।</div><div><br /></div><div><b><i><span style="font-size: x-small;">इस नोट को तैयार करने में सर्वश्री रायकवार, डॉ. के पी. वर्मा, श्री हयग्रीव परिहार, श्री प्रभात सिंह, श्री अमित सिंह ठाकुर ने सहयोग किया है।
</span></i></b></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-60214989395567553182023-07-09T09:50:00.027+05:302024-02-26T07:57:38.485+05:30कंठी देवल बनाम मुकरबा<i>अगस्त-सितंबर 1990 में बिलासपुर के समाचार पत्रों में खास खबर होती थी, इन समाचार कतरनों के संदर्भ में स्पष्ट करना आवश्यक है कि तब राज्य शासन के बिलासपुर पुरातत्व कार्यालय में श्री जी. एल. रायकवार और राहुल कुमार सिंह यानि मैं पदस्थ थे। स्वाभाविक ही मीडिया के लिए इस ‘ऐतिहासिक सनसनी‘ के साथ पत्रकार बंधुओं का हमारे कार्यालय में लगातार आना-जाना हुआ। खबरों की भाषा-सामग्री और शिलालेख का पठन-व्याख्या से हमारे कार्यालय की भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है। शिलालेख का पाठ नीचे के समाचार के साथ आया है। वस्तुतः (संशोधन संभव) पाठ होगा- ऊ नमः सिवाय। महंत? द/सोवाय श्री भगवानां भी-/सन्यासी संतोसगीरि के करनी करता- देव स्(थ)/लः सुभःमस्तु समप...। इसी तारतम्य में मुकरबा-मकबरा, छतरी और समाधि पर कुछ बातें, तीन समाचार कतरन के बाद यहां लेख की गई हैं।</i><div><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;">छत्तीसगढ़ के अनमोल धरोहर की दुर्दशा खुले आसमान के नीचे बिखरी पड़ी है रतनपुर की संस्कृति</span> </b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">कण्ठीदेवल मंदिर में समाधिस्थ अवस्था में मानव हड्डियाँ मिली ...</span></b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">बिलासपुर ऐतिहासिक नगरी रतनपुर के कण्ठीदेवल मंदिर के गर्भगृह की खुदाई के दौरान मानव हड्डियां मिलने से इस बाात की संभावना बलवती हो गर्ह है कि वास्तव में यह शिवमंदिर न होकर वहां के शासक या किसी महन्त की समाधि है। यह मंदिर महामाया कुण्ड के सामने अवस्थित था, जो कि वर्तमान में विद्यमान नहीं है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निमाण के नाम से इसे पूरी तरह तोड़ दिया है। पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास निर्मित कण्ठीदेवल मंदिर इसलिए भी महत्व है, चूंकि मराठाकाल की स्थापत्य शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाला, मुगलिया शैली का सम्भवतः प्रथम दुमंजिला मंदिर है। जिस ढंग से, इसका निर्माण कार्य चल रहा है, लगता है कि भारतीय पुरातत्व विभाग, ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में विद्यमान छत्तीसगढ़ के इस अनमोल धरोहर के साक्ष्य मिटा कर रख देगा।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSEgJTKGJ-Fa-xBws7i1QYBoHCwSAjjKFGVEZ7bwmon6O890Cfowhe1QxED1tejgIwpJI4eK6g17LGgXxEZtlh0dJE4a3VtV-xnVOEVAQ6ay3x4-2aAleEYf-2wzmwlG5qI8uwMSirkpH5Oc8j3m3DYMm8-h5Y_dG0Y47IXHpDjVnRNrlM0YvcVTnrQubx/s917/1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="768" data-original-width="917" height="331" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSEgJTKGJ-Fa-xBws7i1QYBoHCwSAjjKFGVEZ7bwmon6O890Cfowhe1QxED1tejgIwpJI4eK6g17LGgXxEZtlh0dJE4a3VtV-xnVOEVAQ6ay3x4-2aAleEYf-2wzmwlG5qI8uwMSirkpH5Oc8j3m3DYMm8-h5Y_dG0Y47IXHpDjVnRNrlM0YvcVTnrQubx/w395-h331/1.jpg" width="395" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कण्ठीदेवल मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग के नीचे, खुदाई करने पर मात्र दो मीटर चालीस सेन्टीमीटर नीचे मानब हड्डियाँ उर्ध्वाधर समाधिस्थ अवस्था में प्राप्त हुई है। वैसे भी महामाया मंदिर को प्राचीन तांत्रिक सिद्ध शक्ति पीठ माना जाता है। शैव सम्प्रदाय के अन्तर्गत कौल कापालिक भी तंत्र मार्ग का अनुसरण करते है। अतः एक सम्भावना यह भी सम्भावित है, कि भैरव उपासकों के द्वारा इस स्थल का उपयोग तंत्रमंत्र साधना के लिए किया जाता हो। मानव हड्डियाँ जिस स्थान में समाधिस्थ अवस्था में मिली है, वहां शव के पास, सिंदूर, बंदन, अक्षत या सिक्के वगैरह नहीं मिले है, इससे स्पष्ट होता है कि वास्तव में वह किसी महान व्यक्ति की समाधि है। कण्ठी देवल का प्रचीन संस्कृत साहित्य के शाब्दिक अर्थ के अनुसार देवकुल होता है। देवकुल के बारे में यह बात पुरातत्व सर्वेक्षण में आती है, कि पूर्व में मृत राजाओं की पाषाण प्रतिमाओं को पूर्वजों को देखने के लिए प्रदर्शित किया जाता था। वास्तव में कण्ठी देवल मंदिर कोई मंदिर नहीं अपितु शासनाधिपति की याद के लिए इस तरह के स्मारक का निर्माण कराया गया था। इस बात का प्रमाण टीकमगढ़ जिले के ओरछा में बेतवा नदी के किनारे (देवकुल) परिपाटी के मंदिर में राजारानी की प्रतिमाएं स्थापित है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रतनपुर का कण्ठीदेवल मंदिर चार पांच सौ साल पुराना बताया जाता है। मराठा काल के मंदिर के बारे में पुरातत्वविद् यह मानते हैं, कि यह मंदिर प्राचीन भग्न मंदिरों से प्राप्त स्थापत्य खण्डों से निर्मित है। चूंकि पूर्व में मंदिरों की दीवारों में प्रस्तर की प्राचीन प्रतिमाएं जड़ी हुई थीं। इन प्रतिमाओं में शिशु सहित मातृत्व भाव महिला की बच्चे को स्तनपान कराते दिखाया गया है। इस मूर्ति के दोनो तरफ सिंह का किर्तीमुख बना है। दूसरी प्रस्तर की शालभंजिका की प्रतिमा है, जबकि तीसरी प्रतिमा लिगोद्भव शिव की तथा एक अन्य प्रस्तर की आसनस्थ कलचुरी शासक की प्रतिमा उत्किर्णीत है। जिसके कारण यह मान जाता है, कि यह मंदिर बाद में काल में निर्मात कराया गया है। कण्ठीदेवल मंदिर के समीप अनेक चौरानुमा, समाधियां है जो छोटे महन्त शिष्यों राज्य परिवार के शासको तथा सती नारी की भी हो सकती है। सम्भावना है चूंकि रतनपुर के समीप कोई नदी न होने के कारण, इसी स्थान में राजकुल का श्मशान था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मराठा काल के स्थापत्य कला एवं मुगलिया शैली का प्राचीन कण्ठीदेवल मंदिर वर्गाकार बूतरे पर निर्मित था। इस मंदिर के सम्मुख में प्रारंभ में मण्डप रहा होगा। तथापि अब निर्माण के कारण ४.७६ मीटर लम्बा ४.७६ मीटर चौडा चालीस फिट की ऊंचाई वाला मंदिर को तोड़ दिया गया है। नये निर्माण के कारण नीव की खुदाई कर, सीमेटकार्य पूर्ण कर लिया गया है। दूर से देखने पर इस समय सपाट मैदान दिखाई पड़ला है। मंदिर के पत्थरों को बाजू की जमीन में नम्बर डालकर रख दिया गया है, जिसे देखने पर एकबारगी ऐसा लगता है कि मानो पत्थरों के कब्रस्तान में पहुंच गये हो। एकदम खुले आसमान के नीचे रखे इन पत्थरों पर बारिश ठण्ड और कड़ी धूप की सीधी मार पड़ रही है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने सन् ८७ मे कण्ठीदेवल मंदिर को इसलिए तोड़ दिया चूंकि गिर रहा था। ऐतिहासिक महत्व के इस मंदिर को गिरने से बचाना जरूरी भी था अतएव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के छत्तीसगढ़ जोन के भुवनेश्वर मुख्यालय ने तोड़ने का आदेश दे दिया। बिलासपुर में भारतीय पुरातत्व विभाग का उप मण्डल छोटा सा कार्यालय है, जिसके अन्तर्गत सम्भाग के बीस पच्चीस पुराने और महत्वपूर्ण स्मारक संरक्षित है। इसका एक दुःखद पहलू यह है, कि चूंकि यहां न तो कोई योग्य अधिकारी नियुक्त है और न ही इस कार्यालय के पास पर्याप्त अधिकार ही है। इसलिए छोटे मोटे काम के लिए उड़ीसा के भुवनेश्वर कार्यालय का मुंह ताकना पड़ता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आधा तीतर आधा बटेर:- आश्चर्यजनक बात है, कि भुवनेश्वर (उड़ीसा) से संचालित, छतीसगढ़ के पुरातात्विक वैभव के बारे में कितना विरोधाभास है कि कुछ बड़े अधिकारियों को जिन्हें न तो छत्तीसगढ़ से मतलब है न तो यहां के पुराने स्मारको से भावनात्मक ढंग से जुड़े हैं न तो ठीक ढंग से हिन्दी जानते, और यहां के छोटे कर्मचारी जिन्हें उनकी भाषा समझ में नहीं आती, कुल मिलाकर आधा अधूरा, आधा तीतर आधा बटेर समझने वाले कुछ अधिकारी पुरातत्व सम्पदा को तुड़वाकर भुनेश्वर में बैठे हैं। पुरातत्व अधिकारी यदाकदा कुछ आते हैं, देख कर औपचारिकता निभाकर वापस चले जाते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">क्या ऐतिहासिक मंदिर पहले जैसे बनेगा:- पुरातत्वविदों का कथन है, कि कण्ठीदेवल मंदिर का हश्र, मल्हार के उस मंदिर की भांति होगा जो आठवीं शताब्दी का था। उस मंदिर को इसी तरह खो दिया है। आज के हालत यह है कि सन् ८० मे पुननिर्मित इस मंदिर के जो कागजात है, उनका संदिग्ध ढंग से गुम होना शुरू हो गया है। इसके बारे में यह भी कहा जा रहा है, कि वर्तमान में श्री एम. आर. चतुर्वेदी (संरक्षक सहायक) और बी.बी. सुखदेव फोरमेन काफी उत्साही है परन्तु यहां अभी किसी काफी बुजुर्ग और जानकार वरिष्ठ अधिकारी की आवश्यकता है ताकि पुराने स्मारक की रक्षा हो सके। नहीं तो बाद में बड़े अधिकारी अपनी गर्दन बचाने के लिए यहां से कागजात गुम करना शुरू कर देंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रस्तरखण्डों की चोरी- कण्ठीदेवल मंदिर की हिफजात के लिए हालांकि वहां तीन व्यक्ति रहते है, परन्तु इसके बावजूद मंदिर से प्रस्तर खण्डो को निकाल कर खुले मैदान में नम्बर डालकर रखे गये प्रस्तर खण्डों की चोरी जाने की जानकारियां मिल रही है।</div><div style="text-align: right;"><b>राजूतिवारी</b></div><div style="text-align: center;">*<span> *<span> *</span></span> </div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;">रतनपुर का ऐतिहासिक दस्तावेज कण्ठीदेवल</span> </b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">अवशेष सहित नरकंकाल की सुरक्षा आवश्यक</span></b> </div><div><br /></div><div style="text-align: center;">(कार्यालय प्रतिनिधि द्वारा) </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">बिलासपुर. ऐतिहासिक नगरी रतनपुर स्थित कण्ठी देवल मंदिर के गर्भगृह की खुदाई के दौरान मिली मानव हड्डियों की सुरक्षा आवश्यक हो गई है। मराठा काल की मुगलिया शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाले इस मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निर्माण के नाम तुड़वा दिया है। मंदिर के पत्थर खुले आसमान नीचे तथा मंदिर के भीतर और बाहर पत्थरों में उत्कीर्णित कलापूर्ण प्राचीन मूर्तियां एक साधारण झोपड़ी में पड़ी हुई है।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLcKRWVchgVMK5Ple7T9NVH-rMMl-4vWAK3Lfcpj3LdRlEmZErvMQVpp-agmzFNXe3A1X3r0GYvDIkBz2PLjatsCU_hlaEgTeASVzA2uee2pee99-R5Be3zDi0KAe0xPCttEkDrs0XyT3GGuwQKNW7CqQXALOar9AWxgUYOCMSEj6ASmVXKCKSvD2wPmgk/s887/2.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="768" data-original-width="887" height="357" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLcKRWVchgVMK5Ple7T9NVH-rMMl-4vWAK3Lfcpj3LdRlEmZErvMQVpp-agmzFNXe3A1X3r0GYvDIkBz2PLjatsCU_hlaEgTeASVzA2uee2pee99-R5Be3zDi0KAe0xPCttEkDrs0XyT3GGuwQKNW7CqQXALOar9AWxgUYOCMSEj6ASmVXKCKSvD2wPmgk/w413-h357/2.JPG" width="413" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">मराठा स्थापत्य काल की मुगलिया शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाले मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निर्माण के नाम से तुड़वा दिया है। मानव हड्डियों के मिलने से पुरातत्व विभाग के अधिकारियों का मानना है, कि उपरोक्त मानव कंकाल और कण्ठी देवल मंदिर का निर्माण वर्ष एक समय का है। अब पुरातत्व विभाग का सिरदर्द है, कि वह हड्डियों का परीक्षण करा कर मंदिर के निर्माण कर्ता का पता लगाये। वैसे इस मंदिर के बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि रतनपुर कलचुरियों के काल से ही राजधानी रही है। साथ ही वहां की भौगोलिक परिस्थितियां, मंदिर निर्माण तथा ऐतिहासिक संम्भावनाओं के आधार पर यह भी कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी के अलावा भी यह स्थान तीर्थस्थल के रूप में मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण के समकक्ष सम्भवतः विख्यात रहा होगा। ऐसा समझा जा रहा है कि पातालेश्वर, लक्ष्मणेश्वर के समान यह मंदिर नील कण्ठेश्वर के नाम से कलचुरि काल में प्रसिद्ध रहा होगा। चूंकि ख्याति प्राप्त होने के कारण भग्नोपरांत मराठा शासकों ने धरोहर को सुरक्षित रखने के लिये मुगल शैली में इसका निर्माण करा दिया होगा। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बाद में कलचुरियों एवं मराठा शासकों के पतन के पश्चात् रत्नपुर श्रीहीन हो गया और जनमानस में यह मंदिर केवल, कण्ठी देवल मंदिर भर रह गया। नर कंकाल के मिलने से लोगों में काफी उत्सुकता बढ़ गई है और इस बात की चर्चा सरगर्म हो गई है कि वास्तव में नरकंककाल की आयु क्या होगी? वैसे पुरातत्व विभाग के द्वारा खुदाई के दौरान मिलने वाले नर कंकाल पांच हजार तक सुरक्षित प्राप्त भी हुए हैं। भोपाल से लगभग तीस किलोमीटर दूर भीमबैठका शैलाश्रय में डा. वाकणकर एवं सागर विश्वविद्यालय के सहयोग से की गई खुदाई के दौरान मानव नर कंकाल प्राप्त हुआ जो कि सम्भवतः तीन से पांच हजार वर्ष प्राचीन है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कण्ठीदेवल मंदिर में प्राप्त पत्थर की शिशु सहित मातृका की ग्यारही एवं बारहवीं शताब्दी इस्वी की प्रतिमा है, जिसमें शिल्प खण्ड पर प्रकोष्ठ के मध्य गोद में, शिशु को दुलारते हुए माता का भावपूर्ण अंकन किया गया है। इसी प्रकार मंदिर में आठवीं नवीं सदी इस्वी की शालभंजिका मिली है। पाषाण में उत्कीर्णित यह प्रतिमा नारी सौंदर्य तथा अलंकरण में अद्वितीय है। उसके विविध आभूषण केश विन्यास तथा परिधान में सूक्ष्म अलंकरण तथा मौलिकता स्पंदित है। शालभंजिका के अतिरिक्त वृक्ष में फल खाते तथा उछलते कूदते वानर सहित फूल जुगते हुए पारम्परिक पक्षियों का भी अंकन है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी प्रकार कण्ठी देवल मंदिर के भिती में जड़ी शिल्प खण्ड में शिव की सर्वाेच्च सत्ता का मूर्तिमान किया गया है। लिंगोद्भव की यह कथा, शिवपुराण, वायु पुराण तथा शिल्प संहिताओं मे उपलब्ध है। कथा के अनुसार ब्रह्मा तथा विष्णु के बीच सर्वाेच्चता सिद्ध करने के लिये विवाद होने लगा। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी बीच उनके मध्य एक ज्योतिर्यम स्तम्भ प्रकट हुआ जिसका आदि और अन्त का पता लगाने में दोनों देव असफल हुये। अन्त में दोनों हारकर विनम्र स्तुति करने लगे। इससे यह सिद्ध हुआ कि सभी देवताओं में शिव ही सर्वश्रेष्ठ है। चित्र में ज्योति स्तम्ब विवादरत ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्त में आराधना करते विष्णु दृष्टव्य है। </div><div style="text-align: center;">*<span> *<span> *</span></span></div><div style="text-align: center;"><span><span><div><b><span style="font-size: x-small;">रतनपुर के ऐतिहासिक स्मारक की टूटी कड़ी का महत्वपूर्ण सूत्र मिला</span></b></div><div><b><span style="font-size: medium;">कण्ठीदेवल मंदिर का मानव कंकाल संतोष गिरि सन्यासी का ...</span></b></div><div><br /></div></span></span></div><div style="text-align: justify;">बिलासपुर. रतनपुर स्थित कण्ठीदेवल मंदिर में समाधिस्थ कंकाल श्री संतोष गिरी नामक किसी सन्यासी की है। यह बात, कंठी देवल मंदिर की पुर्नसंरचना के लिए, शिलाखण्डों को उपर से उतारते समय, पश्चिम दिशा में जंघा भाग पर प्राप्त एक शिलालेख से मालूम होती है। इस शिलालेख में, देवनागरी लिपि में कुल पांच पंक्तियां है। शिलालेख का आकार ५२ बाई २७ बाई १३ सेन्टीमीटर है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">शिलालेख में मिले पांच पंक्तियों के देवनागरी में अनुवाद किया गया है, उसका शब्दशः इस प्रकार है।
प्रथम पंक्ति - नमोः शिवाय
द्वितीय पंक्ति - श्री भगवानाः।
तीसरी पंक्ति - सन्यासी संतोष गिरि
चौथी पंक्ति - करनी
अंतिम पांचवीं पंक्ति - लः सुभःमस्तु सम।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">शिलालेख के बारे में ऐसा समझा जाता है, कि इसमें अधिक पंक्तियां रही होंगी जो प्रस्तर के घिसने से मिट गई होंगी या खोदी नहीं जा सकी होंगी। वैसे, शिलालेख का शुभारंभ स्तुतिमान से होता है। इस शिलालेख में, सन्यासी संतोष गिरी का नाम उल्लेखित है। लेख के आधार पर यह अधिकतम दो सौ वर्ष प्राचीन है। शिलालेख मिलने के पश्चात् इस बात की सम्भावना बलवती हो गई है मंदिर से प्राप्त अस्थि कंकाल, संन्यासी संतोष गिरी की है। सूत्रों का इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के बारे में मानना है कि चूंकि अस्थी कंकाल मूलतः सवाधान के रखा गया था तथा मृतक का सिर उत्तर में और पैर दक्षिण की ओर था। चूंकि खुदाई के दौरान अस्थियों के टुकड़ों में जबड़ा, बांह, पैर, घुटने तथा खोपड़ी आदि मिले है।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjNdfD_xGv2MgFqpLTxS9Zuu5tQHw14e5K39oLS42U8wz1HgTapw-nyQcDufQAP5e5ZLuLhb08eMlZV9oB0MSBRJL1VJdvCGqa9Y4wRNDtxc0shQG1SrVkrLXTYps1pyP4H273rAMBFhvYLh8-61omNYndwRbHQGi1vfGSKZM9Dl1rT2m2JXxa1b8Cfnzp/s1024/3.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="746" data-original-width="1024" height="306" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjNdfD_xGv2MgFqpLTxS9Zuu5tQHw14e5K39oLS42U8wz1HgTapw-nyQcDufQAP5e5ZLuLhb08eMlZV9oB0MSBRJL1VJdvCGqa9Y4wRNDtxc0shQG1SrVkrLXTYps1pyP4H273rAMBFhvYLh8-61omNYndwRbHQGi1vfGSKZM9Dl1rT2m2JXxa1b8Cfnzp/w421-h306/3.JPG" width="421" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मृत सन्यासी का आयु पैतालीस वर्ष से साठ वर्ष के बीचः:- प्राप्त अस्थि कंकाल के अवलोकन करने से एक बात यह भी सामने आयी है, कि चूंकि कंकाल के मिले जबड़े में पूरे दांत उपस्थित है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि मृतक सन्यासी की उम्र पैतालीस से लेकर साठ वर्ष के बीच की रही होगी। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अस्थियां क्षरित होने के बावजूद सुरक्षित:- सन्यासी संतोष गिरी की अस्थियों के बारे में विशेषज्ञों का कथन है कि हालांकि समय की मार से, समाधिस्थ हड्डियां क्षरित हो चुकी है परन्तु इसके बावजूद हड्डियाँ सुरक्षित है। वैसे छानबीन में एक बात यह भी आयी है, कि प्राप्त अस्थि कंकाल कण्ठीदेवल, मंदिर के गर्भगृह के नीचे केन्द्र से दो तीन फिट हट कर है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मंदिर निर्माण अनुमान:- रतनपुर के ऐतिहासिक कंठीदेवल मंदिर के बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि इस मंदिर में विभिन्न काल की कला शैली एवं धर्म सम्प्रदाय की प्रतिमाएं तथा स्थापत्य खण्ड सहज उपलब्धता की दृष्टि से इकत्रित कर उन्हें मंदिर में जड़ दिया गया जिससे यह पता लगाना उस समय तक कठिन काम है जब तक की किसी शिलालेख में इसका उद्धरण न हो। वैसे कण्ठी देवल मंदिर के पूर्व की ओर निर्मित इस मंदिर के बाजू में ईंट निर्मित स्मारक भी किसी महन्त या राजपरिवार की समाधि होने की आशंका व्याप्त की गयी है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भारतीय पुरातत्व विभाग की लापरवाही:- पुरातत्व विभाग का मुख्य मण्डल कार्यालय भुवनेश्वर में स्थित है। बिलासपुर में संरक्षण सहायक और पुरातत्व विभाग ने एक फोरमेन की नियुक्ति की है। जानकारी के अनुसार भारतीय पुरातत्व के बिलासपुर शाखा में अब कंठीदेवल मंदिर में पुनर्निमाण के लिए शिलाखण्डों को उतारा गया उस समय सर्किल कार्यालय भुवनेश्वर से सभी लोग उपस्थित थे। सभी कोनो से शिला उतारे गये, किन्तु जब इसका निर्माण प्रारंभ हुआ तब, इसका सारा सिर दर्द बिलासपुर कार्यालय पर थोप दिया गया और बलि का बकरा बनाने के लिए दोनों स्थानीय अधिकारियों पर ऐसी जिम्मेदारी सौप दी गई, जो साधनहीन है। जबकि जानकार अधिकारियों मानना है कि मंदिर का पुननिर्माण दुरुह कार्य है जबकि इसके लिए भारतीय पुरातत्व विभाग का भुवनेश्वर कार्यालय इसे एक अभियान के रूप में यहां स्थापत्य इंजीनियर, पुरातत्व मानचित्रकार, वरिष्ठ तकनिकी दल एवं रसायनिक परीक्षण विभाग का होना आवश्यक है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आश्चर्य की बात तो यह है कि बिलासपुर स्थित भारतीय पुरातत्व कार्यालय के अन्तर्गत २०-२५ महत्वपूर्ण पुरातत्व इमारत है परन्तु इन दो कनिष्ठ अधिकारियों के पास काम का इतना अधिक बोझ है कि सालों में बड़ी मुश्किल से दूर के स्मारको को देख पाते हैं।</div><div style="text-align: center;">*<span> *<span> *</span></span></div><div><i>इस परिप्रेक्ष में ऐसी संरचना और छत्तीसगढ़ की परंपरा पर कुछ बातें। रतनपुर थाना के पास कुंवरपार तालाब पर गोसाईपारा है, किंतु यहां अब गोसाई-गोस्वामी परिवार नहीं हैं, बल्कि करइहापारा में गोसाईं परिवार हैं, जिनका सौ वर्षों से अधिक का ज्ञात इतिहास है और परंपरानुसार इन परिवारों की जड़े और गहरी हैं। करइहापारा निवासी 55 वर्षीय सोमेश्वर गिरि गोस्वामी जी बताते हैं कि यहां नागा साधुओं का डेरा रहता था और भोग-भंडारा के लिए कड़ाहा (करइहा) चढ़ता था, इसी से इस पारा का नाम पड़ा। संभव है कि कंठी देउल मंदिर से प्राप्त शिलालेख से इसके सूत्र जुड़ते हों।<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8HPxEh9CywiMlZ_5_Zf6wK92iInGUgxZZmM-SFeT-AVoC0Br40UzVu95gcXRCoFZV4juZJ0v4fG4CY6eF53G6CKnPO2ggJehFwX_-N_tFIbPy2Pd46uOpM5koLOamcZG7JH5ci5BYfXCzHm1hBohb3TUSLE8xhNWb9jvT-lOmF2SOB0nOFoWAGy993ePY/s2572/post.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1486" data-original-width="2572" height="207" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8HPxEh9CywiMlZ_5_Zf6wK92iInGUgxZZmM-SFeT-AVoC0Br40UzVu95gcXRCoFZV4juZJ0v4fG4CY6eF53G6CKnPO2ggJehFwX_-N_tFIbPy2Pd46uOpM5koLOamcZG7JH5ci5BYfXCzHm1hBohb3TUSLE8xhNWb9jvT-lOmF2SOB0nOFoWAGy993ePY/w358-h207/post.jpg" width="358" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: x-small;"><b>संवत 1941 यानि सन 1884 की नागपुर से <br />जिला बिलासपुर, रतनपुर के करैहापारा में भेजी गई डाक,<br /> जिस पर ‘गुलाबगीर‘ और ‘गोसंई‘ लिखे होने का अनुमान होता है।</b></span></td></tr></tbody></table><br /></i><i>लीलागर नदी के दाहिने तट पर बलौदा-महुदा के देवरहा में भी इसी तरह का एक स्मारक मोतिया-कुकुरदेव मंदिर है, लीलागर नदी के बायें तट पर स्थित इस स्मारक के दूसरी ओर ग्राम कुगदा है, जहां पृथ्वीदेव द्वितीय का खंडित शिलालेख, कलचुरि संवत 893 (सन 1141-42) प्राप्त हुआ है, इसके पास ही बछौदगढ़ स्थित है। मोतिया मंदिर में कलचुरिकालीन शिलालेख के टुकड़े भी हैं, जो संभव है कि नदी के दूसरे तट के कुगदा शिलालेख से संबंधित हों। इस स्मारक के साथ नायक-बंजारा की कथा जुड़ी है। यों छत्तीसगढ़ में शवाधान के महापाषाणीय स्मारकों से ले कर बस्तर के उरसकल-उरसगट्टा तक की परंपरा है। दुर्ग जिले के छातागढ़, बिलासपुर जिले के मल्हार और कांकेर जिले के आतुरगांव से ईस्वी की आरंभिक सदी काल के स्मारक शिलालेख भी उल्लेखनीय हैं।</i></div><div><i><br /></i></div><div><i>बैरागी और कबीरपंथी जैसे समुदायों में मृतक संस्कार के साथ कब्र बनाने का प्रचलन है। कंठी देवल से प्राप्त शिलालेख के बाद कोई संदेह नहीं रहा कि यह समाधि स्थल-स्मारक है। संतोष नाम के साथ गिरि से यह अनुमान होता है कि वे दशनामी शैव संन्यासी संप्रदाय से संबंधित है। इस आधार पर कंठी देवल नाम को भी समझना आसान हो जाता है, देवल या देउल देवालय है और कंठी, बैरागियों द्वारा गले में धारण किये जाने वाली माला का परिचायक है। कई ऐसे हैं, जिनका निर्माण प्राचीन मंदिरों की प्रतिमाओं, स्थापत्य खंडों का इस्तेमाल कर बनाए गए हैं, जिनमें से एक यह कंठी देउल है।</i></div><div><i><br /></i></div><div><i>जानकारी मिलती है कि रायपुर के कंकाली तालाब को 17वीं शताब्दी में महंत कृपाल गिरी ने बनवाया था। इस परंपरा में क्रमशः रामगिरि, सुजानगिरि, अयोध्यागिरि, सुभानगिरि के बाद संतोषगिरि का नाम मिलता है। आगे इस क्रम में शंकरगिरि, सोमारगिरि, शंभुगिरि, रामेश्वरगिरि के बाद वर्तमान महंत हरभूषणगिरि गोस्वामी हैं। इनमें प्रत्येक की महंती का औसत काल 30-35 वर्ष मानें और कंकाली मठ के महंतों की सूची वाले और कंठी देवल वाले संतोषगिरि, एक ही हैं तो उनका काल उन्नीसवीं सदी का पहला चतुर्थांश निर्धारित किया जा सकता है। आसानी से माना जा सकता है कि ‘गिरी‘ और ‘कंकाली‘ मात्र संयोग नहीं। रायपुर के इसी कंकाली मठ में ‘जीवित समाधि‘ स्थल हैं, जिन पर शिवलिंग स्थापित किया गया है।</i></div><div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHbjpWu5cdAbB3QxeorWJLieN31kaH5R5cMtBKh6q6zEXspUkLRCAU-GQqy-YqMhMo57kiiDBPahL-Vtgl0zzJyiLILh9Ywj8Kx0-qBSPbdSeE1EG2y-lgfzcxCkUjraJOmRHMKjCPvzuI9sMZJizdhWQB5T9hSBS8b1eBeclQSPzG4ioITPw5CQS1c6kp/s1110/4.png" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="862" data-original-width="1110" height="322" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHbjpWu5cdAbB3QxeorWJLieN31kaH5R5cMtBKh6q6zEXspUkLRCAU-GQqy-YqMhMo57kiiDBPahL-Vtgl0zzJyiLILh9Ywj8Kx0-qBSPbdSeE1EG2y-lgfzcxCkUjraJOmRHMKjCPvzuI9sMZJizdhWQB5T9hSBS8b1eBeclQSPzG4ioITPw5CQS1c6kp/w413-h322/4.png" width="413" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;">कंठीदेवल वर्तमान स्वरूप और सूचना फलक</span></b></td></tr></tbody></table><i><br /></i></div><div><i>गुम्बद, मुस्लिम स्थापत्य से जुड़ा है। भारत में चौदहवीं से सोलहवीं सदी तक गुम्बददार इमारतें बनती रहीं, जिनमें मकबरे भी थे। सत्रहवीं सदी में बना आगरा का ताजमहल, दिल्ली का जामा मस्जिद और बीजापुर का गोल गुम्बद, स्थापत्य के खास नमूने हैं। इसके साथ ही गुम्बद, गैर-मुस्लिम भारतीय संरचनाओं में भी अपना लिया गया। गुम्बद वाले मंदिर भी बनने लगे। इनमें विशिष्ट है मुकरबे, यानि मकबरे, जो मुसलमानों के अलावा भारतीय-हिंदू मान्यताओं वाली संरचनाओं के लिए भी अपना लिए गए। मेरी देखी ऐसी संरचनाओं में से एक, प्राचीन सामग्री का इस्तेमाल कर निर्मित अत्यंत भव्य स्मारक, शहडोल के निकट स्थित पंचमठा है।</i></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiE9P0U25hhjQjET6W7jvmZLBlKs7F4N3UL5PePd7CWUx4MFSsilmLRuCuP1xF07LKY6Md_1iGdyFXSPE6i2Hn_VdBsGRFJvgf7R8c_t_y9XsSnfh9OcdzRLB_dAbXaB3GEn7BDfoA50n2Cxb-ri4cKGAE2nrj2dW6gvFHHEbGn5Oaz1HIIoK5yApkjBq1v/s1062/Pic-Final.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="596" data-original-width="1062" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiE9P0U25hhjQjET6W7jvmZLBlKs7F4N3UL5PePd7CWUx4MFSsilmLRuCuP1xF07LKY6Md_1iGdyFXSPE6i2Hn_VdBsGRFJvgf7R8c_t_y9XsSnfh9OcdzRLB_dAbXaB3GEn7BDfoA50n2Cxb-ri4cKGAE2nrj2dW6gvFHHEbGn5Oaz1HIIoK5yApkjBq1v/w416-h234/Pic-Final.jpg" width="416" /></a></div><i><br /></i></div><div><i>समाधियों, मृतक स्मारक-संरचनाओं के लिए छतरी और मुकरबा, शब्द अपना लिया गया। संभवतः मात्र संयोग मगर, गुम्बद का आकार, बौद्ध अवशेष को जतन से रखने के लिए बनाई जाने वाली संरचना, स्तूप से मिलता-जुलता है। महाभारत, वनपर्व 190/67 में संभवतः बौद्ध स्तूपों और मृतक-समाधियों के लिए कहा गया है कि युगांतकाल में देवस्थानों, चैत्यों और नागस्थानों में हड्डी जड़ी दीवारों के चिह्न होंगे ...‘। दिल्ली, मध्य भारत, बुंदेलखंड, बघेलखंड में मुकरबे देखे-सुने जाते हैं। ग्वालियर, इंदौर की छतरियां प्रसिद्ध हैं। शिवपुरी में सिंधिया परिवार की और ओरछा में बुंदेलों की छतरियां-समाधि स्थल दर्शनीय है। ऐसी संरचनाओं के साथ मंदिर वाली आस्था और उसकी पवित्रता का भाव भी जुड़ जाता है, जैसा कंठी देउल के साथ रहा है। इसके पूजित होने की जानकारी नहीं मिलती, किंतु गर्भगृह में शिवलिंग की स्थापना रही है। यहां गुलेरी जी के लेख ‘देवकुल‘ का अंश प्रासंगिक होगा, जिसमें बताया गया है कि- ‘मंदिर को राजपूताने में ‘देवल‘ कहते हैं। ... ‘देवकुल पद देवमंदिर का वाचक भी है, तथा मनुष्यों के स्मारक चिह्न का भी।‘ ...‘रजवाड़ों में राजाओं की छतरियां या समाधि-स्मारक बनते हैं। ... कहीं-कहीं उनमें शिवलिंग स्थापन कर दिया जाता है, ... परंतु कई यों ही छोड़ दी जाती हैं।‘ </i></div><div><i><br /></i></div><div><i> </i><i>एक अन्य ‘मंदिर‘- </i></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6bVWnhWG7Jkfh-W2PvgC3m0bEEZcvcnGuQdCp5EWBAU6hsNJCxFtwsiPaJ1bfJIA7Xii8nfXp5TBi2K3nexR5T4B8ilaaqQI1_JT9g79AKjGe6esowPiSppcH4FujcnK86WYpt72Vwzv4UmOfjndW982D5ruhrIHDGFkKkWaPDtk5wWudL-pJQSBkzU_5/s783/Sarangarh.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="783" data-original-width="532" height="407" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6bVWnhWG7Jkfh-W2PvgC3m0bEEZcvcnGuQdCp5EWBAU6hsNJCxFtwsiPaJ1bfJIA7Xii8nfXp5TBi2K3nexR5T4B8ilaaqQI1_JT9g79AKjGe6esowPiSppcH4FujcnK86WYpt72Vwzv4UmOfjndW982D5ruhrIHDGFkKkWaPDtk5wWudL-pJQSBkzU_5/w276-h407/Sarangarh.jpg" width="276" /></a></div><i>‘अंगरेज का मंदिर‘ कही जाने वाली अलेक्जेंडर कैनिनमंड इलियट की समाधि, ग्राम सेमरापाली, सारंगढ़। इतिहास में प्रथम दर्ज छत्तीसगढ़ आया अंगरेज यात्री, जिसकी मृत्यु कलकत्ता से नागपुर जाते हुए, 23 वर्ष की आयु में 12 सितंबर 1778 को हुई।</i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-13595098565902727382023-07-06T19:03:00.012+05:302023-07-07T09:11:04.696+05:30मल्हार का खजाना<i>नवभारत, बिलासपुर के फीचर पेज ‘इंद्रधनुष‘ पर ‘पुरातत्व‘ के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित</i><div><br></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">प्राचीन सिक्कों में छिपी है वैभव गाथा</span></b></div><div style="text-align: center;">- पी. एन. सुब्रमणियन</div><div><br></div><div style="text-align: justify;">मल्हार पुराने इतिहास और संबंधित सामग्री में दिलचस्पी लेने वालों के ‘मल्हार‘ का भौगोलिक परिचय अधिक जरूरी नहीं है क्योंकि यह स्थान न केवल छत्तीसगढ़ वरन् पूरे देश में इतिहासचेता लोगों में लगभग ५० वर्षों से बराबर चर्चा में रहा है। ईस्वी पूर्व की आठवीं सदी से प्रारंभ हो रही ढ़ाई हजार वर्षों से भी अधिक काल के इतिहास प्रमाण का निरंतर सिलसिला स्मारक, मूर्ति, मिट्टी के बर्तन, मनके, दैनिक जीवन में उपयोग की विभिन्न सामग्री और इतिहास के पक्के- अभिलेख व सिक्कों के रूप में पूरी समृद्धि और विविधता सहित, मानो यहाँ इकट्ठी हैं। इसलिए दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी हेतु मल्हार का ही अनुमान होता है और यह स्थान व्यापारिक एवं धार्मिक गतिविधियों का विख्यात केन्द्र तो अवश्य रहा है। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9RaE1_Q07CdGwtBT0RFXgFoUx6Bsl3quI-rBvS2eKejkd-Xg-YBxysTYBr5KJDTAwo3x5nneeQAjuXjhV5Rjdj74C6bIsiwSNgVCO2YnSMz1YK5vn-51mffqNDJ8TTL553Fe6YDqJINh-K7jX9ey0ysCfaIA4Og73BYUUhmxVSjR7wcyoHlQbkmJc5HCs/s1024/IMG_20230706_102038.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="481" height="605" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9RaE1_Q07CdGwtBT0RFXgFoUx6Bsl3quI-rBvS2eKejkd-Xg-YBxysTYBr5KJDTAwo3x5nneeQAjuXjhV5Rjdj74C6bIsiwSNgVCO2YnSMz1YK5vn-51mffqNDJ8TTL553Fe6YDqJINh-K7jX9ey0ysCfaIA4Og73BYUUhmxVSjR7wcyoHlQbkmJc5HCs/w283-h605/IMG_20230706_102038.jpg" width="283"></a></div><br><div style="text-align: justify;">वैसे तो मल्हार की पुरातात्विक सामाग्रियां चर्चा में रही है, किन्तु ऐसी चर्चाओं का प्रतिशत, प्राप्तियों की तुलना में नगण्य है, यही कारण है कि स्थल में समय समय पर आनेवाले पुरातत्व के मेहमानों का ऐसा स्वागत किया है कि वे स्तम्भित रह गये हैं। सर्वश्री वि. श्री. वाकणकर, के. डी. बाजपेयी ये सभी यहाँ के अप्रत्याशित उपहार से अभिभूत हुए हैं। ऐसे भी विद्वानों और तथाकथित इतिहास प्रेमियों की कमी नहीं है जिन्होंने मल्हार की सामाग्रियों का दोहन व्यक्तिगत संग्रह कर मिथ्याभिमान करने से अधिक उपयोगी नहीं समझा और शायद ऐसे इतिहास प्रेमी उन ग्रामीण किसानों से कहीं अधिक दोषी हैं, जिन्हें ये सामाग्री खेती-बाड़ी के काम के दौरान या मकान के लिए मिट्टी खोदते हुए या बरसात के कटाव में प्राप्त होती है तथा जिनकी जागरूकता सीमित है। वे बस यह जानते है कि व्यक्तिगत परिचय वाले इतिहास प्रेमी इसे पाकर खुश होंगे और यदि पुलिस या शासन को इसकी सूचना मिली तो हम जेल में डाल दिये जायेंगे। चूंकि अधिकांश प्राप्त सामाग्री किसी व्यवस्थित तकनीकी उत्खनन का नहीं बल्कि इन्हीं ग्रामीणों की ‘चान्स डिस्कवरी‘ का फल होता है, अतः यह या तो प्रकाश में ही नहीं आ पाता या सार्थक हाथों में नहीं पड़ता। इसी तरह की सामग्री विशेषकर सिक्के मुझे मल्हार के ठाकुर गुलाब सिंह एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय के सौजन्य से देखने को मिले या प्राप्त हुए और इन सिक्कों में से कुछ ऐसे निकल आये जो स्वयं में विशिष्ट श्रेणी के हैं ही, इनके माध्यम से तत्कालीन क्षेत्रीय इतिहास पर भी नया प्रकाश पड़ सकता है, इसी दृष्टि से उन कुछ विशिष्ट सिक्कों की चर्चा विषय का विशेषज्ञ न होने पर भी करना आवश्यक जान पड़ने लगा। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">इन सिक्कों में सबसे पहले कुछ आहत (Punch Marked coins) सिक्के हैं। इस प्रकार के सिक्के भारत में विनियम हेतु प्रयुक्त माध्यम ‘मुद्रा‘ का आदि स्वरूप है। इतिहास में वस्तु विनिमय की स्थिति के बाद ‘गौ‘ माध्यम से लेनदेन होता था। आवश्यकता और उपयोगिता के औचित्य से धातु पिण्डों को मानक और सुविधाजनक माना गया है और इनका प्रचलन बढ़ता ही गया। इस प्रकार अर्थशास्त्रीय दृष्टि से आहत सिक्के ही प्रथमतः प्रचलित हुए, जिन्हें ‘मुद्रा‘ की परिभाषिक संज्ञा के अनुक्रम में आरंभिक स्थान दिया जा सकता है। आहत सिक्के लगभग २७०० वर्ष पूर्व प्रचलन में आये और परवर्ती अन्य प्रकारों के साथ करीब १००० वर्ष तक प्रचलित रहे। सामान्यतः आहत सिक्कों के निर्माण में एक निश्चित वजन के चाँदी के टुकड़े पट्टी में से काटकर या ढालकर तैयार किये जाते थे जिन्हें आघात कर चिन्हांकित कर लिया जाता था। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">मल्हार से प्राप्त चांदी के दो आहत सिक्के अपने में विशिष्ट प्रकार के हैं। ये सिक्के ४ पण अर्थात ८ रत्ती (आज के संदर्भ में २५ पैसे) मूल्य के हैं। तत्कालीन मुद्रा प्रणाली में मानक कर्षापण था। आज के रूपये जैसा, जिसका वजन ३२ रत्ती होता था। एक कर्षापण सोलह पणों में विभाजित था। यह व्यवस्था ठीक रूपया आना की भांति से थी, अर्थात जहाँ १६ आने का १ रूपया होता था उसी तरह १६ पणों का कर्षापण। मुद्रा शास्त्रीय अध्ययन इतिहास में विशेषज्ञों ने हजारों आहत मुद्राओं के वजन, उन पर दृष्टिगोचर चिन्ह कृतियों का सूक्ष्म परीक्षण कर, वर्गीकरण तथा उसके आधार पर निर्माण तकनीक, मुद्रा मानक, प्रचलन क्षेत्र आदि का निष्कर्ष निकाला। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">आहत सिक्कों के चलन के क्षेत्र की पहचान का मुख्य आधार उन पर अंकित चिन्ह ही है। इस दृष्टि से मल्हार के क्षेत्र में ‘४‘ चिन्हांकित सिक्कों का प्रचलन रहा होगा, क्योंकि विवेच्य दोनों आहत सिक्कों पर यह चिन्ह अंकित है, किन्तु इन चिन्हों के कारण ये सिक्के भारतीय आहत सिक्कों के वर्गीकरण में एक अलग श्रेणी में रखे जा सकते हैं क्योंकि अब तक ज्ञात आहत,
सिक्कों पर इस प्रकार के चिन्हों का कोई उल्लेख नहीं हुआ है, साथ ही कर्षापण मूल्यमान के सिक्के भी भारतीय मुद्राशास्त्र में अल्पज्ञात है। इसीलिए इन्हें विशिष्ट प्रकार के सिक्के माना गया है, निश्चय ही यह चिन्ह इस क्षेत्र के आहत सिक्कों की अलग श्रेणी निर्धारित करता है। इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि यही चिन्ह मल्हार के विभिन्न राजवंशों के अलग-अलग काल के भिन्न-भिन्न सिक्कों पर उपयोग होता रहा है। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">इन सिक्कों का मल्हार में पाया जाना, इनके विशिष्ट प्रचलन क्षेत्र का आभास तो कराता ही है साथ ही मल्हार के प्राचीन सुविकसित अंतर्देशीय व्यावसायिक केन्द्र होने की पुष्टि भी करता है। एक अन्य रोचक एवं प्रासंगिक साम्य यह भी है कि बौद्ध साहित्य में लगभग २५०० वर्ष पूर्व श्रावस्ती के श्रेष्ठि अनाथपिंडक द्वारा कुमार जेत के जेतवन नामक आम्रवन को बुद्ध के एक दिवसीय प्रवास हेतु क्रय करने का उल्लेख है। कुमार जेत आम्रवन बेचने को तैयार नहीं थे किन्तु अनाथपिंडकं द्वारा मुहमांगे मूल्य का प्रस्ताव रखा गया। पूरे वनक्षेत्र को सिक्कों (निश्चय ही तत्कालीन प्रचलित आहत सिक्के) से ढंक कर मूल्य दिये जाने की लगभग असंभव शर्त रखी, जिसे अनाथपिंडक ने सहर्ष स्वीकार कर गाडियों से सिक्के मंगवाकर वनक्षेत्र में फैलाना आरंभ कर दिया। मल्हार के सिक्कों के संदर्भ में यह कथा मात्र संयोग की सीमा से अधिक रोचक हो जाता है क्योकि मल्हार का निकटवर्ती ग्राम जैतपुर है। स्थल पर बौद्ध धर्म के अवशेष तो विद्यमान हैं ही, साथ ही सिक्के भी विपुल संख्या में प्राप्त होते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">मल्हार से प्राप्त एक मिश्रधातु का सिक्का भारत पर विदेशी आक्रमणों के आरंभिक काल अर्थात २३०० साल पहले की याद दिलाता है। जब भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, इस काल भारतीय इतिहास का कुछ भाग ‘इण्डो-ग्रीक काल‘ के रूप में जाना जाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">संदर्भित सिक्के पर महान यूनानी योद्धा (सिकंदर) की मुख्यकृति अंकित है। लेखांकित सिक्के का लेख अस्पष्ट होने के बावजूद यह सिक्का यूनानियों का मल्हार तक संबंध इंगित करता है। सिक्के पर दो छिद्र बने है जो संभवतः बाद में किसी व्यक्ति द्वारा धारण करने के प्रयोजन से किये जान पड़ते है।</div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिक्के मल्हार से मिले हैं जो अधिकतर सीसे के हैं। इन सिक्कों पर गज चिन्ह के साथ साथ ब्राह्मी लिपि का लेख ‘राञो मघसिरिस’ ‘मघ‘ अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों की बहुलता को देखते हुए ऐसा लगता है कि मल्हार में दूसरी/तीसरी सदी में मघ वंश का शासन रहा होगा। यहाँ यह बताना समुचित होगा कि मघवंश का शासन कौसाँबी दूसरी/तीसरी सदी में (इलाहाबाद के पास वर्तमान कोसम), रीवां और बांधवगढ़ में वहाँ से प्राप्त सिक्कों का अध्ययन प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री श्री अजयमित्र शास्त्री द्वारा किया गया था। उन पर एक ग्रंथ ‘कौसाँबी होर्ड आफ मघ कॉयन्स‘ भी प्रकाशित हुई है। हमारे पुराणों में उल्लेख है कि मघ वंश का शासन दक्षिण कोसल में रहा परन्तु पुरातात्विक प्रमाणों के अभाव में श्री शास्त्री ने अपने निष्कर्षों में यह कहा है कि संभवतः दक्षिण कोसल की उत्तरी सीमा बांधवगढ़ तक रही होगी और इसी कारण मघ वंश के दक्षिण कोसल पर आधिपत्य का उल्लेख आ गया होगा। बड़ी मात्रा में मल्हार से प्राप्त हो रहे ‘मघ‘ सिक्कों से अब न केवल इस वंश के दक्षिण कोसल से उद्भव का पौराणिक उल्लेख प्रमाणित होता है, वरन् इस बात की संभावना भी बनती है कि मध वंश मूलतः मल्हार से अंकुरित होकर कौसाम्बी की ओर बढ़ा हो। लिखावट की शैली से यह तथ्य आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, बांधवगढ़, रीवां और कौसांबी मे मघ शासकों के शिलालेख पाये गये हैं परन्तु मल्हार में उनका न पाया जाना, सिक्कों के आधार पर उपरोक्त निष्कर्षाें को प्रभावित नहीं करते। शिलालेखों का अपने ही गृहनगर में उत्कीर्ण किया जाना किसी भी शासक के लिए अनिवार्य नहीं हुआ करता वह उनका उपयोग नये विजित क्षेत्रों में अपने अधिकार को जताने के लिये करता है। यह भी हो सकता है कि मल्हार में मघों के शिलालेख रहें हों और बाद के शासकों द्वारा नष्ट कर दिये गये हों अथवा संयोगवश अब तक प्राप्त न हो सके हों।</div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">अंत में मल्हार से प्राप्त कुछ अन्य सिक्कों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो लगभग ‘मघ‘ सिक्कों के ही समकालीन है। इन सिक्कों पर चिन्ह भी मघ सिक्कों से मिलते जुलते हैं किन्तु लेख अलग-अलग हैं। राजा और श्री के प्राकृत रूप ‘रा´ो‘ तथा ‘सिरिस‘ के सामान्य उपयोग के अतिरिक्त शासक का नाम ‘चंद‘, ‘भालीगस‘, ‘अचड‘, ‘धमगस‘, ‘सालुकस‘ आदि प्राप्त होते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के मिलते हैं, जिनका आकार मसूर के दाने से अधिक है। मुद्राशास्त्रियों द्वारा इनका परीक्षण तथा विस्तृत विवेचन कर भारतीय इतिहास के उन चार सौ वर्षों (ईसापूर्व और पश्चात के दो दो सौ वर्ष) की स्थितियों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसका अधिकांश ‘अधंकार युग‘ माना जाता है। साथ ही साथ मल्हार में यदि पुरातत्वीय उत्खनन किन्हीं कारणों से संभव न हो तो कम से कम संग्रह हेतु शासकीय प्रयास विभागीय तौर पर कराये जाने का उपाय आवश्यक है अन्यथा भारतीय इतिहास के न जाने कितने धरोहर अनजान रह जायेंगे और इतिहास के कितने ही पक्षों के उजागर हो सकने संभावना स्रोत सूख जायेंगे।</div><div style="text-align: center;">*<span> *<span> *</span></span></div><div><i>प्राचीन मुद्राओं और उनके अध्ययन पर कुछ बातें। अजयमित्र शास्त्री जी के अलावा डॉ. सुस्मिता बोस मजुमदार ने इन सिक्कों पर गंभीर शोध किया है। रुचि लेने वाले संग्राहकों और अध्येताओं में रोहिणी कुमार बाजपेयी जी, राजेश तिवारी जी भी रहे। </i></div><div><i><br></i></div><div><i>इस प्रकाशित मसौदे के लेखक, मूलतः केरल के, जिनकी स्कूली शिक्षा जगदलपुर में हुई, अपना नाम पा.ना. सुब्रमणियन लिखते हैं, मलयालम, दक्षिण भारतीय अन्य भाषाओं के साथ हल्बी, छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी पर अधिकार है, भारतीय स्टेट बैंक में स्केल-5 अधिकारी रहे, हिंदी पखवाड़ा और उसके बाद भी अपनी मेज पर लिखा रखते ‘मुझे अंगरेजी नहीं आती‘। ‘बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक‘, जिसका मुख्यालय बिलासपुर में होता था, में महाप्रबंधक पद पर रहे हैं।</i></div><div><i><br></i></div><div><i>कुछ और स्मृतियां। इस बैंक के साथ इसके शुरुआती दिनों को याद किया जाना आवश्यक है। </i><i>सिक्कों-मुद्रा के साथ बैंक का रिश्ता तो होता ही है।</i><i>अनोखी सूझ और दृष्टि के व्यक्ति इतिहास-पुरातत्व सजग एच.एम. शारदा जी हैं, जिन्होंने तब इस बैंक की शाखाएं खोलने के लिए युक्ति अपनाई, वह बेमिसाल थी। उनका सोचना था कि जिन गांवों में पुरातात्विक अवशेष प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जो ग्राम महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, निश्चय ही वह आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा होगा, इसलिए ग्रामीण बैंक की शाखाएं ऐसे ही गांवों में होनी चाहिए। यह उनकी इतिहास-पुरातत्व रुचि के अनुकूल था और हम पुरातत्व अधिकारियों के लिए अमूल्य मददगार। </i><i>तब, यानि 1985-90 के दौरान ग्रामीण बैंक में रामू महराज यानि रामप्रसाद शुक्ला जी, रंजन राय जी, परमानंद जी, महेशचंद्र पंत जी, विवेक जोगलेकर जी, उदय कुमार जी जैसे गुणी लोग रहे हैं।</i></div><div><i><br></i></div><div><i>वापस सुब्रमणियन जी पर। उनकी रुचि, सजगता और अध्ययन का प्रमाण यह लेख तो है ही। गोदान के प्रसंग वाले अभिलेख स्थल ऋषभतीर्थ-गुजी यानि दमउदहरा में बैंक की ओर से शिलालेख के परिचय वाला पट्ट लगवाया था। हमारा कार्यालय सीमित संसाधनों और स्टाफ वाला होता था, मगर ग्रामीण बैंक की शाखाएं दूरस्थ-दुर्गम अंचल में होने के कारण हमारी भागदौड़ भी कई बार सीमित हो जाती थी मगर बेहद महत्व की सूचनाएं, जानकारियां और कई बार कार्यवाही में मदद ग्रामीण बैंक के अधिकारियों के माध्यम से हो जाया करती थी।</i></div><div><i><br></i></div><div><i>सुब्रमणियन जी </i><i>का ब्लॉग <a href="https://mallar.wordpress.com/"><span style="color: #2b00fe;">मल्हार Malhar</span></a> गंभीर मगर रोचक रहा है और मेरी ब्लॉग यात्रा का पहला कदम उन्हीं के सहारे उठा था। हां, सुब्रमणियन जी संबंधी एक खास बात और, वे अमृता-प्रीतम के पिता हैं। जी हां, उनकी पुत्री का नाम अमृता और पुत्र प्रीतम नामधारी हैं।</i><i>सुब्रमणियन जी ने पुराने सिक्कों का संभवतः अपना सारा संग्रह देश के महत्वपूर्ण प्राचीन मुद्रा अध्ययन केंद्र आंजनेरी, नासिक को भेंट स्वरूप सौंप दिया है।</i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-42793036881777088322023-07-04T07:30:00.021+05:302023-07-09T09:51:39.374+05:30जुआ - गिरधारी<i>‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ पत्रिका के दीपावली विशेषांक, 28 अक्तूबर से 3 नवम्बर 1984, पेज-41 पर गिरधारीलाल रायकवार जी का प्रकाशित लेख-</i><div><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">जब शिव नन्दी को जुए में हारे</span></b></div><div style="text-align: center;">जी. एल. रायकवार </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">भारतीय मूर्तिकला विविधता तथा रोचकता का भण्डार बहुविध आयामों से परिपूर्ण है। भारतीय शिल्पियों ने शिल्पकला में पौराणिक आख्यानों को सजीवता से रूपायित किया है। इन प्रतिमाओं में शास्त्रीय विधानों का निर्वहन तथा आध्यात्मिकता का अपूर्व संयोग संचरित है। शास्त्रीय उपबन्धों का पालन करते हुए भाव साम्राज्य से निःश्रृत कल्पना का अपूर्व ओज, कलात्मकता तथा लावण्यता के साथ मौलिक परिवेश में प्रस्तुत करने में तत्कालीन शिल्पियों ने असाधारण सफलता प्राप्त की है। कल्पना के उद्दाम प्रवाह में शारीरिक सौन्दर्य, अद्भुत लोच, लावण्य, तथा भव्यता सहित शिल्पकार के प्रयास से शिल्प खण्डों में जीवन्त हो उठा है। इन्हीं विशेषताओं के फलस्वरूप भारतीय मूर्तिकला में लौकिक जीवन से सम्बन्धित विविध आयाम युद्ध, नृत्य, क्रीड़ा, मृगया आदि विषय उच्च आध्यात्मिकता से परिपूर्ण देव प्रतिमाओं के साथ देवालयों में प्रचुरता से निर्मित किए गए हैं। देवालयों में स्थित लौकिक प्रतिमाएं इसी सान्निध्यगुण से आछन्न होने के कारण कुत्सित मनोविकारों को उद्वेलित नहीं कर पाती हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पौराणिक आख्यानों में शिव से सम्बन्धित अत्यन्त मनोरंजक कथानक हैं। शिव का वेश आभूषण, परिवार, वाहन एवं अनुचर सब परस्पर विरोधी हैं। उनकी सहज उदारता अनेक अवसरों पर उनके लिए ही संकट के कारण बने हैं। ऐसे महेश्वर, महाकाल, महायोगी, नटराज विविध सद्गुणों से अलंकृत देवाधिदेव महादेव के परिहासमय सरस स्तुतियां तथा सूक्तियां संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के काव्यों में उपलब्ध हैं। शिव के उग्र, सौम्य, शान्त, वीर, श्रृंगारिक आदि विविध प्रतिमाओं का अंकन लोकजीवन में व्याप्त शिव के सर्वाधिक प्रभाव को सूचित करता है। स्मृतियों में द्यूत (जुआ) को निन्दनीय माना गया है परन्तु कुछ शिव प्रतिमाओं में उन्हें पार्वती के साथ द्यूत क्रीड़ा में संलग्न दिखाया गया है। शिल्पशास्त्रों में इस प्रकार के प्रतिमा निर्माण का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। मूर्तिविज्ञान विषय से सम्बन्धित प्रकाशनों में इस प्रकार की प्रतिमाओं का वर्णन नहीं है। सम्भवतः लोकजीवन में मान्य परम्पराओं को शिल्पियों की सृजनात्मक कल्पना शक्ति ने ग्रहण कर शिव प्रतिमा के अधिष्ठान भाग पर द्यूत क्रीड़ा अंकित कर एक अपूर्व मनोरंजक कथानक की सृष्टि कर दी है। इस प्रकार की प्रतिमाएं अत्यन्त दुर्लभ हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCp3KCj_77iU86yDn3z4Mdddctk0vmQSCEV8dXcX16HvFiqwj3KTNV-h12ymkM_ERtdnuBeBpNsaPG_qmCs5ib_wxmku3zP7w2a2KKaZFChvrJaXil5IZpQMccZTMPnWRWJqNgtBgWdWTNw9oKD0NwF_qt-Q1potrVMa8iWhvcjTdxYd8oyG5F-13X509K/s1003/pic.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1003" data-original-width="768" height="483" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCp3KCj_77iU86yDn3z4Mdddctk0vmQSCEV8dXcX16HvFiqwj3KTNV-h12ymkM_ERtdnuBeBpNsaPG_qmCs5ib_wxmku3zP7w2a2KKaZFChvrJaXil5IZpQMccZTMPnWRWJqNgtBgWdWTNw9oKD0NwF_qt-Q1potrVMa8iWhvcjTdxYd8oyG5F-13X509K/w370-h483/pic.jpg" width="370" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">द्यूत क्रीड़ारत उमा-महेश्वर प्रतिमाओं में विषय का अभिज्ञान लेखक ने विविध शिव प्रतिमाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के उपरान्त सिद्ध करने का प्रयास किया है। ऐसी प्रतिमाओं में कथा बिन्दु, दो दृश्यों में प्रदर्शित है। प्रथमतः चौसर खेलते हुए उमा महेश्वर तथा उनके चतुर्दिक स्थित शिव परिवार, तत्पश्चात जुए में जीत की परिणति। इस कथानक से सम्बन्धित मात्र तीन प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में लेखक को ज्ञात हुई हैं। एक प्रतिमा ८वीं-९वीं शती ईस्वी की है तथा गुर्जर प्रतिहार कला की देन है। यह प्रतिमा सागर जिले के एक प्राचीन भग्न मन्दिर में मूल रूप से स्थित है। द्वितीय प्रतिमा १०वीं-११वीं शती ईस्वी में त्रिपुरी के कलचुरी शासकों के काल में निर्मित है तथा रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर में प्रदर्शित है। तृतीय खण्डित प्रतिमा सागर जिले से ही प्राप्त हुई है तथा परमार शासकों के काल में लगभग ११वी-१२वीं शती ईस्वी में निर्मित है। इन तीनों प्रतिमाओं में विषय वस्तु समान है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस प्रतिमा में शिल्पकार ने शिव परिवार सहित सम्पूर्ण कथानक प्रारम्भ से अन्त तक स्पष्ट करने असाधारण कौशल का परिचय दिया है। उमा महेश्वर परस्पर सम्मुख ललितासन में बैठे हुए चौसर खेल रहे हैं। दोनों के मध्य चौसर रखा हुआ है। प्रभावली पर हंसारूढ़ ब्रह्मा तथा आकाशचारी विद्याधर युगल अंकित हैं। विष्णु खण्डित हैं। मध्य पार्श्व में भैरव, भृंगी, वीरभद्र, मयूरासीन कार्तिकेय तथा आराधक परिचारक प्रदर्शित हैं। शिव के शीर्ष भाग पर जटामुकुट, नाग तथा अर्धचन्द्र सुशोभित है। पार्वती के मस्तक पर अलंकृत केश विन्यास है तथा चक्रकुण्डल, चन्द्रहार, स्तनसूत्र, भुजबन्ध, कलाई भर चूड़ियां, कंगन, कटिसूत्र एवं लहरियादार साड़ी पहनी हुई हैं। चतुर्भुजी शिव ऊपरी दाएं हाथ में त्रिशूल पकड़े हैं तथा निचले हाथ की अंगुलियों से गोटियों का क्रम संकेत कर रहे हैं। ऊपरी बाएं हाथ की तीन अंगुलियों से गोटियों की संख्या संकेत कर रहे हैं। द्विभुजी पार्वती दाएं हाथ में पासा पकड़ी हुई हैं। चौसर खेलते शिव के मुख पर गहन चिन्तन के भाव हैं जबकि पार्वती मुख पर विजयोल्लास के भाव प्रदर्शित हैं। प्रतिमा के निचले भाग पर नन्दी मध्य में खड़े हुए प्रदर्शित हैं। उनके गले में रस्सा बंधा हुआ है जिसे पकड़ कर पार्वती की सखियां नन्दी को अपनी ओर खींच रही हैं। दाईं ओर स्थित एक शिव गण नन्दी का सींग पकड़ कर डण्डे से मार रहा है तथा दूसरा पीछे से डण्डा मार कर हांक रहा है। नन्दी के पीछे आसनस्थ द्विभुजी गणेश उल्लासित दृष्टि से नन्दी का पीटा जाना तथा पार्वती की सखियों द्वारा उसका हरण देख रहे हैं। इस दृश्य में में जुए में पार्वती के द्वारा शिव से नन्दी को जीता चित्रित है। ऐश्वर्यविहीन दिगम्बर शिवजी के पास कोई सम्पत्ति तो नहीं है। अतः उन्होंने अपने वाहन नन्दी को ही दांव में लगा दिया और उसे हार भी गए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी प्रकार की दूसरी प्रतिमा सागर जिले के एक प्राचीन भग्न मन्दिर में प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा अधिक प्राचीन है तथा गुर्जर प्रतिहार शासकों के काल में लगभग ८वीं-९वीं शती ईस्वी में निर्मित है। इस प्रतिमा में भी उमा महेश्वर चौसर खेलते हुए प्रदर्शित हैं। गणेश तथा कार्तिकेय उनके समीप खड़े हुए हैं। प्रतिमा अधिष्ठान पर पार्वती की सखियां नन्दी के गले में बंधी हुई रस्सी को पकड़ कर खींच रही हैं। इस प्रतिमा से यह सिद्ध होता है कि उमा महेश्वर के मध्य जुए में शिव के द्वारा नन्दी को हारने विषयक कथानक ८वीं-९वीं शती ईस्वी से प्रचलित है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">तृतीय तथा अन्तिम प्रतिमा भी सागर जिले में प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा का उर्ध्व भाग भग्न है तथापि यह प्रतिमा विशिष्ट प्रकार की है। इस प्रतिमा में पार्वती दाईं ओर तथा शिव बाईं ओर बैठे हुए हैं। भारतीय परम्परा में सामान्यतः नारी को बाएं ओर रूपायित किए जाने का विधान है। विपरीत क्रम गुण के कारण यह प्रतिमा असाधारण है। इस प्रतिमा में ऊपरी भाग पर शिव-पार्वती चौसर खेलते हुए प्रदर्शित हैं। अधिष्ठान भाग पर पार्वती की सखियां नन्दी के गले में बंधी रस्सी को पकड़ कर अपनी ओर (दाईं तरफ) खींच रही हैं। सबसे अन्त में गणेश तथा कार्तिकेय स्थित हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्राचीन स्मृतिकार यथा मनु, नारद तथा वृहस्पति ने द्यूत (जुआ) को वह खेल कहा है जो पास, चर्मखण्डों तथा हस्तिदन्त खण्डों से खेला जाता है तथा जिसमें कोई बाजी लगी रहती है। मूर्तिकला में देवताओं के द्वारा द्यूत (जुआ) का यही एक उदाहरण है जो शिव से सम्बन्धित है। इसी प्रकार शिवजी के द्वारा जुआ खेले जाने का यही एकमात्र उदाहरण है जिसमें वे नन्दी को हार गए थे। गनीमत यह रही कि शिव नन्दी को दांव में अपनी अर्धांगिनी से ही हारे। अतः बाद में उन्हें नन्दी वापस मिल गया। इस हार के बाद शिवजी ने फिर कभी द्यूतक्रीड़ा में भाग नहीं लिया।
</div><div style="text-align: center;">* * *</div><div style="text-align: left;"><b>टीप-</b> <i>छत्तीसगढ़ में इस कथानक की शिल्पकृति ताला के देवरानी मंदिर के द्वारशाख पर (अब तक ज्ञात ऐसी सबसे पुरानी), सिरपुर स्थानीय संग्रहालय में तथा मल्हार के पातालेश्वर मंदिर के द्वारशाख पर भी है।</i></div><div style="text-align: left;"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZclon0aLdIkJM6syQHQZbT7q9XPCo4Txx6fA8iPlZQsPbWRRwx4o3dZWabRvl0ik9dBSHJQKDzYWYYfC6W04yopZoEv8lVGXCAsL9ILsXAY9YPkXGsquJp7qpT-moPXislRaFkj2duIRNT0WFquDUpaL3reVngkQtmK7ql7P6S1Yattq9zpWKWEFw84Pa/s1471/TMS.png" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="661" data-original-width="1471" height="167" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZclon0aLdIkJM6syQHQZbT7q9XPCo4Txx6fA8iPlZQsPbWRRwx4o3dZWabRvl0ik9dBSHJQKDzYWYYfC6W04yopZoEv8lVGXCAsL9ILsXAY9YPkXGsquJp7qpT-moPXislRaFkj2duIRNT0WFquDUpaL3reVngkQtmK7ql7P6S1Yattq9zpWKWEFw84Pa/w372-h167/TMS.png" width="372" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;"> ताला मल्हार सिरपुर</span></b></td></tr></tbody></table></div><div style="text-align: left;"><i><b><br /></b></i></div><div style="text-align: left;"><i><b>पुनः </b>इस प्रसंग की चर्चा होने पर किसी कथावाचक ने इसे आगे बढ़ाया, क्षेपक की तरह- इससे हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।</i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-14214245529310950662023-07-03T08:57:00.000+05:302023-07-03T08:57:03.307+05:30गंगा - गिरधारी<i>‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ पत्रिका के पुस्तक विशेषांक, 3 से 9 मई 1987, पेज-15 पर गिरधारीलाल रायकवार जी का प्रकाशित लेख- </i><div><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">गंगावतरण का शिल्पांकन: देवरानी मन्दिर</span></b> </div><div style="text-align: center;">जी.एल. रायकवार </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">दक्षिण कोशल के ज्ञात मन्दिरों की शृंखला में ताला का देवरानी मंदिर सर्वाधिक प्राचीन है। बिलासपुर-रायपुर सड़क मार्ग पर मनिहारी नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर में गुप्तकालीन कला परम्परा की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ऊंचे आयताकार अधिष्ठान पर निर्मित यह पूर्वाभिमुखी शिव मन्दिर वास्तु-कला की विलक्षणता से परिपूर्ण है। इस मन्दिर की बाह्य संरचना तथा प्रवेश द्वार मूल रूप से अवशिष्ट हैं। प्रवेश द्वार पर बने विविध शिव-कथानक एवं अलंकरणात्मक कला के उत्कृष्टतम नमूने हैं। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSQS9jVDmNmqtVRGrDgzNUTuDcutyZ-peosTChHmQi4UsSnsygJzfSNK16ncy7VZ5K2j9f-rC_0lweNGdH02WKgflKbffkzHj9k7RoxHo-syYvj6ECfcXzMHJtxG4BgEXB_sh3ww8RUVgJlXmfmigtsJhFOuiHHvhUd2sTS7YHO_zgOToIPkTicujR-bgy/s972/pic.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="972" data-original-width="768" height="435" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSQS9jVDmNmqtVRGrDgzNUTuDcutyZ-peosTChHmQi4UsSnsygJzfSNK16ncy7VZ5K2j9f-rC_0lweNGdH02WKgflKbffkzHj9k7RoxHo-syYvj6ECfcXzMHJtxG4BgEXB_sh3ww8RUVgJlXmfmigtsJhFOuiHHvhUd2sTS7YHO_zgOToIPkTicujR-bgy/w344-h435/pic.jpg" width="344" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्थानीय लाल बलुआ प्रस्तर से निर्मित आयताकार यह मन्दिर अर्धमंडप, प्रवेश द्वार-अंतराल तथा गर्भगृह में विभक्त है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए चन्द्रशिला से संयुक्त ऊंची चौड़ी सीढ़ियां निर्मित हैं, जिसके दोनों ओर बौने आकृति के तुण्डिल शिवगण द्वारपाल के रूप में प्रदर्शित हैं। अर्धमंडप पर दो विशाल आकार के तोरण स्तंभ अवशिष्ट हैं, इनके शीर्ष भाग पर शिल्प पट्ट अथवा प्रतिमा प्रस्थापित रहे होंगे। इस मन्दिर की वास्तु-योजना में गंगा-यमुना मंडप की आंतरिक पार्श्वभित्तियों में ऊपर की ओर आमने-सामने प्रदर्शित हैं। गंगा-यमुना के सतत् प्रवाहिणी रूप को प्रदर्शित करने के लिए शिल्पियों ने द्विभंग-भंगिमा, तरंगवत पारदर्शी वस्त्र विन्यास तथा जलज पादपों को लहरों के साथ चित्रित कर सहज सौंदर्य को प्रस्फुटित किया है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मन्दिर का प्रमुख प्रवेश द्वार कला के इस माधुर्य से सम्पृक्त शृंगार तथा तप पूरित पौराणिक कथानकों एवं जटिलतम सूक्ष्म अलंकरणों से सम्पन्न है। द्वार-शाखा की अलंकरण योजना में केंद्र से निःसृत जालिकावत वृतों में शुक, सारिका, मयूर, नर आदि का कलात्मक अंकन है। प्रवेश द्वार की बाह्य शाखा विविध प्रकार की पुष्पीय आकृतियों से उत्खचित तथा शृंखलाबद्ध हारों की आवृति से बटी हुई रस्सी के समान गुंफित हैं। प्रवेश द्वार के सिरदल पर समुद्र मंथन से उद्भूत गजाभिषेकित पद्मासनस्थ लक्ष्मी तथा उसके दोनों ओर शूंड से कुंभ देते हुए गज, मानवीय रूप से अवतरित होती हुई नदी-देवियां तथा मूर्त रूप धारण किए हुए विभिन्न तीर्थ-सरोवर अभिषेक में तन्मय हैं । इस पट्ट में सरिताओं के प्रवाह रूप में धारा के मध्य मीन कच्छप आदि जलचरों को रूपायित कर शिल्पी ने दृश्य योजना में गति अवर्णनीय कौशल से संचरित किया है। प्रवेश द्वार पर अंत पार्श्व भित्तियों पर शिव से संबंधित कथा तथा अलंकरण प्रतीक भिन्न-भिन्न प्रकोष्ठों पर प्रदर्शित हैं। बायें तरफ आलिंगनरत उमा-महेश्वर, कीर्तिमुख, चौसर खेलते हुए उमा-महेश्वर तथा गंगावतरण प्रदर्शित हैं। इनमें से चौसर क्रीड़ा तथा गंगावतरण का शिल्पांकन भारतीय कला में सर्वप्रथम ताला में रूपायित हुआ है। इस प्रकार की प्रतिमाएं बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध हैं। चौसर खेलते हुए शिव दांव में नंदी को हार चुके हैं। शिव के समीप खड़े हुए गण अपने स्वामी के हारने से विचलित तथा चिन्तातुर हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस मन्दिर के गर्भगृह की मूल प्रतिमा अद्यावधि अप्राप्त है। गर्भगृह में विभिन्न खंडित प्रतिमाओं के अवशिष्ट भाग रखे हुए हैं। इनमें से एक अधिष्ठाननुमा पट्ट पर भावविभोर नृत्यरत तीन शिवगणों का अंकन अत्यंत कलात्मक है। अन्य प्रतिमाओं में से चतुर्मुखी दुर्गा तथा खंडित नवगृह पट्ट उल्लेखनीय हैं। मन्दिर की खोज के समय से प्राप्त अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य खंड परिसर में ही रखी हुई हैं। इनमें से सूर्य, चतुर्भुजी प्रतिमा (संभवतः शिव), नारी प्रतिमा का अधोभाग, आदि महत्वपूर्ण हैं। अत्यंत भग्न होने के कारण यहां पर रखी हुई कुछ प्रतिमाओं का अभिज्ञान नहीं किया जा सका है। इसके अतिरिक्त विविध पुष्पीय तथा ज्यामितीय आकृतियों से अलंकृत विशाल आकार के स्थापत्य खंड इस मन्दिर की भव्यता तथा स्वर्णिम गौरवपूर्ण अतीत को मुखरित करते हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दक्षिण कोशल (वर्तमान छत्तीसगढ़) का यह सर्वाधिक प्राचीन मन्दिर विशिष्ट वास्तु तथा मूर्तिशिल्प के कारण भारतीय कला में अद्वितीय है। तथापि समुचित प्रकाशन के अभाव में यह अल्प चर्चित है। इस मन्दिर की स्थापत्य योजना में तल-विन्यास, नदी-देवियों की पृथक आवृत्तियां, अलंकरण तथा शाखा योजना एवं मंडप के तोरण स्तंभ आदि विलक्षण हैं। मन्दिर के बाह्य भित्ति कोष्ठ पर प्रदर्शित प्रतिमाएं अब अवशिष्ट नहीं हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस मन्दिर के निर्माण काल के सम्बन्ध में निश्चित अभिलेखीय प्रमाण अनुपलब्ध हैं। देवरानी मन्दिर में स्थापत्य तथा मूर्तिकला का अत्यंत विकसित तथा परिष्कृत रूप प्राप्त होता है। प्रस्तर निर्मित इस मन्दिर की रचना में शिखर का भाग संभवतः ईंटों से निर्मित था। वास्तुगत तथ्यों से इस मन्दिर का निर्माणकाल पांचवीं शती ई. निश्चित होता है । </div><div><br /></div><div style="text-align: right;"> - राजेन्द्र नगर, बिलासपुर (म.प्र.)
</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-66979096271887285162023-07-02T10:21:00.010+05:302023-07-03T07:36:44.215+05:30लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह<i>04 फरवरी 2007 को लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह की 101 वीं जयंती समारोह के अवसर पर डॉ. इन्द्रजीत सिंह स्मृति न्यास, अकलतरा, जिला-जांजगीर-चांपा, छत्तीसगढ़ द्वारा फोल्डर वितरित किया गया, जिसका लेख उदय प्रताप सिंह जी चंदेल ने तैयार किया था। अकलतरा उच्चतर माध्यमिक शाला, जो अब राजेन्द्र कुमार सिंह उच्चतर माध्यमिक शाला है, के प्राचार्य होने के नाते उस दौर में ‘प्रिसिपल साहब‘ उनके नाम का पर्याय था। शालेय पत्रिका ‘सलिला‘ में प्रतिवर्ष उनकी ‘प्राचार्य की लेखनी से - उ. सि. चंदेल‘ हम सबकी प्रेरणा का स्रोत होता था। स्कूल के बाद वे हमारे कोसा वाले कक्का थे।</i><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGRWmQZQLPFsYJixDg5hCn3jv-M6f3NE36h9uubuBBSqkgGLgLSubjrw5I1Llqqj7oCgXWGmnZmFU7dy-ia_31nzDkD02AiYjGsIWLC3sNWgocjhLiJ-vm5g5FrPqw5a3-UUhDTRsiTFo8WQR9K-oEcVTbXuCrcAT9L63auLfOpRmtq0VAJMVnQIIFMa_j/s3564/pic-1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3564" data-original-width="2786" height="439" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGRWmQZQLPFsYJixDg5hCn3jv-M6f3NE36h9uubuBBSqkgGLgLSubjrw5I1Llqqj7oCgXWGmnZmFU7dy-ia_31nzDkD02AiYjGsIWLC3sNWgocjhLiJ-vm5g5FrPqw5a3-UUhDTRsiTFo8WQR9K-oEcVTbXuCrcAT9L63auLfOpRmtq0VAJMVnQIIFMa_j/w343-h439/pic-1.jpg" width="343" /></a></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी इन्द्रजीत सिंह जी का जन्म अकलतरा के सुप्रसिद्ध सिसौदिया परिवार में 5 फरवरी 1906 को हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा और बाल्यकाल पिता राजा मनमोहन सिंह और माता श्रीमती कीर्तिबाई की स्नेह छाया में अकलतरा में हुई। माता-पिता के प्यार-दुलार में पले-बढ़े इकलौते पुत्र होने के कारण किशोर वय में ही आप परिणय सूत्र में बंध गए। 15 जनवरी 1920 को आपका विवाह ग्राम ठठारी के प्रतिष्ठित परिवार के श्री जबर सिंह की पुत्री शान्ती देवी से हो गया। आपकी ऊंचाई 6 फीट से अधिक, काया चुस्त और सुदर्शन थी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1924 में आपने बिलासपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद गए और फिर कलकत्ता जाकर प्रतिष्ठित रिपन कॉलेज में प्रवेश लिया। बंगाल हॉस्टल में रहते हुए 1931-32 में छात्रावास के अध्यक्ष रहे। स्नातक परीक्षा 1934 में पास की। कलकत्ता रहते हुए आपने बांग्ला के साथ संस्कृत और लैटिन भाषाएं सीखीं। इन शास्त्रीय भाषाओं पर आपको अच्छा अधिकार था, जो आपके शोध-लेखन में परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ जनजातीय-लोक संस्कृति और आर्थिक व्यवस्थापन, आपकी विशेष रुचि का क्षेत्र था। कलकत्ता और फिर लखनऊ में अध्ययन करते हुए आपकी रुचि को मानों दिशा मिल गई। यही क्षेत्र आपकी उच्च शिक्षा का विषय बना।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">लखनऊ विश्वविद्यालय से आपने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और 1936 में वकालत की परीक्षा पास की। आगे पढ़ाई जारी रखते हुए ‘गोंड़ जनजाति के आर्थिक जीवन‘ को अपने शोध का विषय और गोंड़वाना पट्टी को, जिसके केन्द्र में ‘बस्तर’ था, अध्ययन क्षेत्र बनाया। आपका यह शोध कार्य देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. राधाकमल मुकर्जी व भारतीय मानव विज्ञान के पितामह डॉ. डी. एन. मजूमदार के मार्गदर्शन और सहयोग से पूर्ण हुआ तथा आपका शोध ‘द गोंडवाना एण्ड द गोंड्स‘ 1944 में प्रकाशित हुआ। गहरे और व्यापक शोध के निष्कर्ष अनुसार ‘जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति सहित समझ सकें।‘</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अपने प्रकाशन के समय से ही यह पुस्तक दक्षिण एशियाई मानविकी संदर्भ ग्रंथों में बस्तर-छत्तीसगढ़ तथा जनजातीय समाज के अध्ययन की दृष्टि से अत्यावश्यक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। शोध कार्य के दौरान क्षेत्र भ्रमण में अधिकतर फोटोग्राफी भी स्वयं करते थे। ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया‘ पत्रिका में इस ग्रन्थ की समीक्षा पूरे महत्व के साथ प्रकाशित हुई थी। चालीस के दशक में बस्तर अंचल में किया गया क्षेत्रीय कार्य न सिर्फ किसी छत्तीसगढ़ी, बल्कि किसी भारतीय द्वारा किया गया सबसे व्यापक कार्य माना गया है। इस दुरूह और महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको इग्लैण्ड की ‘रॉयल सोसाइटी‘ ने इकॉनॉमिक्स में ‘फेलोशिप‘ प्रदान किया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">वॉलीबाल, फुटबाल, हॉकी व टेनिस आपके पसंदीदा खेल थे। अवकाश के दिनों में अकलतरा में रहने के दौरान आप नियमित खेलों का अभ्यास करते थे, यही कारण था कि उस जमाने से अकलतरा जैसे कस्बे में खेल का माहौल रहा। आपका निशाना अचूक था और वन तथा वन्य प्राणियों के व्यवहार की सूक्ष्म समझ थी। हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से छुटकारा पाने के लिए पीड़ित ग्रामवासी शिकार के लिए आपको आमंत्रित करते रहते। आपने दर्जनों बाघ, तेन्दुआ, भालू, मगर जैसे खूंखार जानवरों का शिकार किया।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkwhMYJDROb1CPEW9-zt3OQ6X7HXBTHMr_kogH83t0Ku2LIblyPkDd-0t4NO185u0hxCEFBmPtdsORCozGAt1LO63wCwI40M3f7_LKY_3CcqAQ-qlQJ3Fycpo-UfjZtAbDZ-KQ2YYHEugSaK-uw31NYz9cv7Gv_907axpSZsKrGNA2R_Yqyv5ga5nl6yAx/s3512/pic-2.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3512" data-original-width="2751" height="460" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkwhMYJDROb1CPEW9-zt3OQ6X7HXBTHMr_kogH83t0Ku2LIblyPkDd-0t4NO185u0hxCEFBmPtdsORCozGAt1LO63wCwI40M3f7_LKY_3CcqAQ-qlQJ3Fycpo-UfjZtAbDZ-KQ2YYHEugSaK-uw31NYz9cv7Gv_907axpSZsKrGNA2R_Yqyv5ga5nl6yAx/w361-h460/pic-2.jpg" width="361" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">राजनैतिक क्षेत्र में भी आप छात्र जीवन से ही सक्रिय थे। श्री रफी अहमद किदवई, श्री उमाशंकर दीक्षित आदि आपके सहपाठी थे। 1931 में लोकल काउंसिल के चुनाव में प्रत्याशी पिता राजा मनमोहन सिंह मुख्य संचालक रहे, इस चुनाव में राजा साहब लैण्ड होल्डर्स चुनाव क्षेत्र से विजयी हुए। चुनाव के दौरान दाऊ कल्याण सिंह से सहयोग मिला और यह आपसी सौहार्द सदैव बना रहा। कांग्रेस की तत्कालीन युवा पीढ़ी के संपर्क में आए और कांग्रेस सदस्यता ग्रहण की। 1936 के लखनऊ अधिवेशन में आप तथा श्री भुवन भास्कर सिंह, युवा सदस्य के रूप में शामिल हुए और 28 मार्च 1936 को पं. नेहरू ने महात्मा गांधी से आपकी 15 मिनट की अंतरंग मुलाकात कराई, यही वह पल था जहां वे गांधी जी से गहरे रूप से प्रभावित हुए फलस्वरूप सविनय अवज्ञा आंदोलन में विदेशी कपड़ा जलवा कर खादी का वितरण कराया। सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए आप डॉ. ज्वालाप्रसाद, ठाकुर प्यारेलाल सिंह व डॉ. खूबचन्द बघेल के सम्पर्क में आए। आप राजनीतिक और निजी संबंधों में सदैव तालमेल रखते थे। ‘हमारे छेदीलाल बैरिस्टर‘ पुस्तक में उल्लेख है कि- रिश्ते में बैरिस्टर साहब के भतीजे लाल साहब 1937 के चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी थे, लेकिन बैरिस्टर साहब जब जेल में थे, तब वे बराबर घर आते, सबका कुशल-क्षेम पूछते, वक्त-बेवक्त दवा आदि देकर सहायता करते।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आपके शोध के दौरान ही पिता राजा मनमोहन सिंह का देहावसान 1942 में हो गया। पैतृक सम्पत्ति की देखरेख के साथ ही सार्वजनिक जीवन में आपकी गतिविधियां बढ़ती गईं। मालगुजारी के वन क्षेत्र का व्यवस्थापन में आपकी विशेष रुचि थी। 1943 में एस. बी. आर. कॉलेज, बिलासपुर के संस्थापक उपाध्यक्ष बने। आगे चलकर अकलतरा में हाई स्कूल और बिलासपुर में क्षत्रिय छात्रावास की स्थापना के लिए सक्रिय रहे। आपके प्रयासों से 1950 में छत्तीसगढ़ अंचल में प्रथम विशाल क्षत्रिय महासभा का आयोजन हुआ। छत्तीसगढ़ के सहकारिता आंदोलन में आपका योगदान अविस्मरणीय है। आप बिलासपुर ‘सेन्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंक‘ के आजीवन संचालक रहे। आपकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से अकलतरा में बैंक की शाखा खुली, जिसके आप आजीवन अध्यक्ष रहे। ‘मल्टी-परपज सोसाइटी‘, अनंत आश्रम, मुलमुला के संस्थापक सचिव रहे। उच्च प्रतिष्ठा, कानून की डिग्री और न्यायप्रियता के कारण ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट‘ मनोनीत होकर, कार्य करते हुए आपने पद की गरिमा बढ़ाई।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1947-48 में आपने इंग्लैण्ड सहित कई यूरोपीय देशों की यात्रा कर अनुभव का विशाल भण्डार साथ लाये। आपकी प्रतिभा और अनुभव को देखते हुए श्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा ने आपको जांजगीर जनपद सभा का अध्यक्ष मनोनीत किया, इस पद पर आप आजीवन निर्विवाद बने रहे। यह कुशल प्रबंधन का परिणाम था कि आपकी मृत्यु के समय लोक कल्याणकारी कार्यों में अग्रणी रहने के बावजूद जनपद सभा, जांजगीर की जमा राशि लगभग दो लाख रूपये थी और यह मध्यप्रान्त की सुदृढ़ सभा थी। कृषि संबंधी जानकारी और प्रशासनिक योग्यता को देखते हुए 1949 में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर खानखोजे की अध्यक्षता में गठित ‘एग्रीकल्चरल पॉलिसी कमेटी‘ के आप सदस्य मनोनीत हुए और इसे सार्थक बनाया। आल इण्डिया रेडियो, नागपुर से कृषि, आंचलिक और जनजातीय विषयों पर आपकी वार्ताएं प्रसारित होती थीं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ की पहचान, दिशा और अस्मिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी सदैव महसूस करते रहे। कलकत्ता और लखनऊ प्रवास के दौरान अंग्रेजी अखबार ‘हितवाद‘ का नागपुर संस्करण डाक से मंगाकर पढ़ते तथा समकालीन, आंचलिक घटनाक्रम पर बराबर नजर रखते। छत्तीसगढ़ी में बातचीत करने में आप गर्व अनुभव करते थे। आपने सहृदयतावश छात्र जीवन में भी गुप्त रूप से छात्रों की पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद पहुंचाई। जिसे आश्वासन दिया, उसे सदैव पूरा ही किया। स्पष्टवादी किन्तु सौम्य और संतुलित व्यवहार का ही प्रभाव था कि आपके निकट आये व्यक्ति सदैव आपके होकर रहे।
आपके पुत्रों ने 1954 से आपकी स्मृति में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रतिवर्ष मानव शास्त्र में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्र के लिए स्वर्ण पदक की व्यवस्था की है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आपके पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह, सत्येन्द्र कुमार सिंह तथा डॉ. बसंत कुमार सिंह ने अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सक्रिय रह कर ख्याति अर्जित की। वर्तमान में पुत्री बीना देवी का निवास नरियरा में है और कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार सिंह सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां आपके जीवन और कर्म के प्रमुख बिन्दु थे। प्रत्येक मंगलवार को व्रत और बरगवां के हनुमान जी की पूजा, आपका अटूट नियम रहा। अंचल के अनुष्ठानों में आपका योगदान अपूर्व रहता था। सांकर, कुटीघाट आदि स्थानों में आयोजित यज्ञों के प्रमुख व्यवस्थापक रहे। विक्रम संवत् 2000 समाप्त होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में नियोजित श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी में समिति के आप उपाध्यक्ष थे। आपके साथ अन्य उपाध्यक्ष पं. सखाराम पंत, सेठ मोतीचंद, पं. सदाशिव रामकृष्ण शेंडे, श्री होरीलाल गुप्त तथा पं. बापूसाहब शास्त्री थे। शिवरीनारायण मंदिर और मठ से आपका सम्पर्क बराबर बना रहा, जिसका आधार मंदिर परिसर में स्थित पारिवारिक राम-जानकी मंदिर था। मठ के लिए परिवार द्वारा धर्मशाला बनवाकर अर्पित की गई। महंत लालदास जी और व्यवस्थापक श्री कौशल प्रसाद तिवारी को मठ-मंदिर की सभी गतिविधियों के लिए उदार और सक्रिय सहयोग दिया करते थे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कार्य की व्यस्तता और लोक दायित्वों के प्रति गहरे समर्पण ने आपको शरीर के प्रति विरक्त बना दिया, इससे 1950 में हृदय रोग से पीड़ित हो गए। डाक्टरों द्वारा में विश्राम की सलाह के बावजूद निरन्तर जनकल्याण कार्यों में लगे रहे और प्रथम आम चुनाव के समय जिले का व्यापक दौरा किया। आपका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया और 26 जनवरी 1952 को बिलासपुर ‘ऑफिसर्स क्लब‘ में अंतिम सांस ली।
लाल साहब की पुण्य स्मृति को सादर नमन्।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b>पुनश्च-</b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><i>इस लेख के साथ ‘पूरक जानकारी‘ के रूप में हस्तलिखित मसौदा ‘अतिरिक्त जानकारी जिसे उक्त लेख यथास्थान समाहित किया जावे’ टीप सहित मिला है, जो इस प्रकार है-</i></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: left;">वे जितने लोकप्रिय- किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी आदि में थे, उतने ही लोकप्रिय अधिकारियों और व्यवसायियों के बीच भी थे। जिले के कलेक्टर, पुलिस कप्तान और अन्य बड़े अफसरों से भी उनके नजदीकी संबंध थे। उस समय के जिलाधीश श्री एम. एस. चौधरी (जो आगे चल पुराने म.प्र. के मुख्य सचिव हो कर अवकाश ग्रहण किये) श्री पी.जी. घाटे, पुलिस कप्तान (जो आगे चल कर महाराष्ट्र से आइ. जी., पुलिस हो कर अवकाश ग्रहण किये), बिलासपुर थे। प्रसिद्ध ठेकेदार श्री चुन्नीलाल मेहता, नगर के प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ बच्छराज बजाजआदि से उनके पारिवारिक संबंध रहे। सक्ती के राजा बहादुर लीलाधर सिंह और सारंगढ़ नरेश राजा जवाहिर सिंह तथा रायगढ़ नरेश राजा चक्रधर सिंह आदि, कई जमींदार (पंडरिया, कन्तेली, कोरबा आदि) उनके अभिन्न मित्रों में थे।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">उनके इसी प्रतिभा, योग्यता और मिलनसारिता के कारण उन्हें बिलासपुर ऑफिसर्स क्लब की आजीवन सदस्यता प्रदान की गई थी, जो उस समय एक दुर्लभ और प्रतिष्ठापूर्ण बात थी। बिलासपुर शहर और जिले के इने गिने लोगों को यह गौरवपूर्ण सदस्यता प्राप्त थी।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">वे बहुत अच्छे शिकारी भी थे। उनका निशाना अचूक हुआ करता था। परंतु यह उनका शौक था। उसे व्यवसाय नहीं बनाया वरन इसे लोक सेवा का माध्यम माना। उस समय बलौदा के आसपास घने जंगल हुआ करते थे। यहां सरकारी रिजर्व फारेस्ट हुआ करते थे। जैसे दल्हा, पहरिया, सोंठी, कटरा और आसपास की पहाड़ियां की पहाड़ियां भी जंगलों से आच्छादित रहते थे, जहां जंगली जानवर, शेर तेंदुआ, चीता, भालू, सुअर, हिरण आदि आदि काफी संख्या में रहते थे। ये जानवर कई बार जंगल के बीच के गांव आकर जान माल का नुकसान करते थे। पालतू जानवर और फसल का नुकसान आम करते या कभी-कभी ये खूंखार जानवर शेर, चीता, भालू आदि जन-धन की हानि उतारू हो जाते थे। ऐसे अवसर पर गांव वाले सम्मानपूर्वक उन्हें आमंत्रित कर ले जाते थे और वे वहां कैम्प कर खूंखार जानवरों के भय से उन्हें मुक्ति दिलाते थे। उनके रहते आसपास के जंगली गांव के लोग अपने को सुरक्षित पाते थे। कई बार सरकार की ओर से भी इन्हें खूंखार जानवरों के शिकार के लिए भेजा जाता था। इसी कारण बलौदा इलाके के अधिकांश बड़े गांवों के प्रमुख लोगों से मित्रता थी और कई लोगों से पारिवारिक संबंध थे।</div><div style="text-align: left;">(इसी तारतम्य में वैन इंजेन एंड वैन इंजेन का हवाला, जिसने घर में रखे जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए तैयार किया है।)</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJBELHiVFv4O1zwVFJvi5QjhnyBlHcO5mFKu-IZLByCHaHS2fHM66Fno862G62oSrmtmEZKaGJ6vkKU-eY0_aCRKkIZU5ApEFbTg4M7oo7HyQy_p2GBLKemPP2Bg9csLxldI7yr38k7nS21YXlFzWxE1HWbIjuur84KH-YBJPYe1SQsKk9g_JX7KzoSlGq/s919/pic-3.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="886" data-original-width="919" height="377" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJBELHiVFv4O1zwVFJvi5QjhnyBlHcO5mFKu-IZLByCHaHS2fHM66Fno862G62oSrmtmEZKaGJ6vkKU-eY0_aCRKkIZU5ApEFbTg4M7oo7HyQy_p2GBLKemPP2Bg9csLxldI7yr38k7nS21YXlFzWxE1HWbIjuur84KH-YBJPYe1SQsKk9g_JX7KzoSlGq/w391-h377/pic-3.png" width="391" /></a></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">उच्च शिक्षा और संस्कारित शिक्षा उनकी प्रथम प्राथमिकता थी और यही कारण रहा जब उनके ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह (आगे चल कर कुमार साहब के नाम से प्रसिद्ध हुये) बिलासपुर के प्रसिद्ध गव्हर्नमेंट हाई स्कूल से मेट्रिक पास किए तो उन्हें एनी बेसेंट कॉलेज, बनारस भेजा गया। उच्च शिक्षा के लिए साथ ही साथ उन्होंने इलाके के शिक्षानुरागी लोगों को अपने परिचितों को भी उच्च शिक्षा के लिए बनारस भेजने के लिए प्रेरित किया। तदनुसार अकलतरा के कई प्रतिष्ठित परिवारों के लड़के तो गए ही, जिले के प्रसिद्ध मालगुजार श्री सुधाराम जी साव ने भी अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा के लिये बनारस भेजा। यही नहीं सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह ने भी इनकी प्रेरणा से अपने कई नजदीकी लोगों को इनके माध्यम से बनारस पढ़ने के लिये भेजा।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">वे सही मायने में अर्थशास्त्री थे। वे केवल एम.ए. अर्थशास्त्र कर अर्थशास्त्र के शास्त्रीय ज्ञाता मात्र नहीं थे वरन उस ज्ञान को आपने व्यावहारिक जामा भी पहनाया था। वे अपने घरू आर्थिक स्थिति को चुस्त दुरुस्त तो किये ही, कई परिवारों को आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद और मार्गदर्शन दिया। क्षेत्र के अच्छे अच्छे व्यापारी, ठेकेदार, बड़े किसान इनके मार्गदर्शन से लाभान्वित हुये थे। बम्बई, कलकत्ता की कई व्यावसायिक घरानों में इनकी अच्छी पकड़ थी।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">जनपद सभा, जांजगीर के प्रथम अध्यक्ष तो थे ही। जनपद सभा वित्त समिति के अध्यक्ष भी थे। इन दोनों जिम्मेदारियों का निर्वहन आपने इतने लगन, निष्ठा और ईमानदारी से निर्वहन किया कि उस समय पूरे मध्यप्रदेश में जांजगीर जनपद सभा सबसे व्यवस्थित और मालदार, धनी संस्था थी। उनके निधन (1952) के समय जनपद सभा के खाते में 2 लाख रुपए जमा थे।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">जीवन के अंतिम दिन तक भी वे समाज हित की सोचते रहे थे जिस दिन निधन हुआ उसी दिन सुबह की गाड़ी से सक्ती गये थे। उद्देश्य था राजा साहब सक्ती लीलाधर सिंह से मिल कर प्रेस खोलना, जहां से जन साधारण के लिये अखबार निकाला जा सके। हमेशा की भांति अकलतरा से डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र, खास मित्र उनके साथ हो लिये थे। उन्हें शाम की गाड़ी से बिलासपुर लौटना था। जैसे इनकी सक्ती यात्रा और लौटने की जानकारी शहर (अकलतरा) में मिली, शाम को ट्रेन के समय अकलतरा रेल्वे स्टेशन में सैकड़ों कार्यकर्ता और शुभचिंतकों की भीड़ लग गई। जैसे गाड़ी सक्ती से आ कर प्लेटफार्म में रुकी, नारों से पूरा स्टेशन गूंज गया। लोगों की भीड़ देख कर उन्हें गाड़ी से उतरना पड़ा, सब लोगों से मिले। श्री सम्मत सिंह और ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह से अलग अलग कुछ मंत्रणा की और अगले दिन बिलासपुर से लौटने की बात कह फिर गाड़ी में सवार हो गये। इन्हीं सब कारणों से उस दिन पैसिंजर गाड़ी भी करीब 10 मिनट प्लेटफार्म में खड़ी रही। उस दिन की भीड़ में लेखक लेखक भी वहीं मौजूद था, परंतु वहां उपस्थित लोगों को क्या मालूम था कि यह उनका अंतिम दर्शन था।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">रात्रि के करीब 8-9 बजे बिलासपुर से टेलीफोन पर डाकखाने में (क्योंकि उस समय घरों में टेलीफोन की व्यवस्था नहीं थी) सूचना आई कि आफिसर्स क्लब में उन्हें दिल का दौरा आया। उस समय सिविल सर्जन डॉ. काले? भी उपस्थित थे पर उन्हें बचाया नहीं जा सका, उनका पार्थिव शरीर ठा. छेदीलाल बैरिस्टर के बिलासपुर स्थित बंगले में लाया जा रहा है। यह समाचार जंगल की आग की तरह पूरे अकलतरा शहर में फैल गया। जैसे ही मध्य रात्रि के बाद उनके मृत शरीर को अकलतरा लाया गया, सैकड़ों की संख्या में महिला पुरुष बच्चे उनके घर और उसके आसपास जमा थे। तिल रखने की जगह नहीं थी। जैसे तैसे उनके निष्प्राण शरीर को मोटर से उतारा गया। इसी दिन अंतिम विदा तथा क्षेत्र के सारे लोग अंतिम दर्शन व विदाई के लिए एकत्र हुये। और मृतक आत्मा को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।</div><div><br /></div><div><i>यहां आई जानकारियों और तथ्यों के मिलान के लिए पोस्ट <a href="http://akaltara.blogspot.com/2012/04/blog-post_28.html"><span style="color: #2b00fe;">अकलतरा के सितारे</span></a>, <a href="https://akaltara.blogspot.com/2023/05/blog-post_29.html"><span style="color: #2b00fe;">लाल साहब </span></a>और <a href="https://akaltara.blogspot.com/2023/05/blog-post_30.html"><span style="color: #2b00fe;">लाल साहब पुनः</span></a> भी देख लेना चाहिए।
</i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-18830682016901270042023-05-30T06:26:00.010+05:302023-06-30T20:16:03.618+05:30लाल साहब पुनः<i>शब्दों के अर्थ की ठीक समझ के लिए शब्दकोश से बाहर, आगे जाना होता है। भौतिक जगत के लिए जीव-वस्तुओं के साथ शब्दों का मेल-जोड़ बिठाना होता है तो मानवीय गुणों के लिए उसे व्यक्तियों के साथ जोड़ कर समझ बनती है। अपने बचपन की याद करते हुए मुझे लगता है कि पांडित्य, सदाचार और अनुशासन जैसे शब्द, पं. रामभरोसे शुक्ल जी और उनके परिवार के गोरेलाल जी, मुरारीलाल जी, मदनलाल जी, वेंकटेश जी के साथ मेरे लिए सार्थक होते हैं। डॉ. मदनलाल शुक्ला जी के साथ अन्यान्य कारणों से मेरा संपर्क उनके जीवन काल में बना रहा, उनका <a href="https://akaltara.blogspot.com/2023/05/blog-post_29.html"><span style="color: #2b00fe;">पिछला लेख</span></a> और यह, उनके लिए मेरी श्रद्धांजलि भी है।</i><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8gqOxFXRyR-W_0CVBGNKzNGHr8IiyGbjLQrjCfqcKjRJ8oyz8WNYKE6cA0gV_T6cKLMUZrkSWR4aheD3ZZSBk9yWb1GLQjrSYiuORTpemhceGMtrP5JD_GYDc9JNy5Gsw93ExrZ97byZXYKY5SNfcEQsU4p_OOlkMpJ-KjL9iFQO3UOsP7MbP4lf2tg/s1024/PtRBShukla.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="641" data-original-width="1024" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8gqOxFXRyR-W_0CVBGNKzNGHr8IiyGbjLQrjCfqcKjRJ8oyz8WNYKE6cA0gV_T6cKLMUZrkSWR4aheD3ZZSBk9yWb1GLQjrSYiuORTpemhceGMtrP5JD_GYDc9JNy5Gsw93ExrZ97byZXYKY5SNfcEQsU4p_OOlkMpJ-KjL9iFQO3UOsP7MbP4lf2tg/w425-h266/PtRBShukla.jpg" width="425" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;"><span style="text-align: left;">पं. रामभरोसे शुक्ल </span><span style="text-align: left;">जी </span><span style="text-align: left;">परिवार</span></span></b></td></tr></tbody></table><div style="text-align: center;"><b><br /></b></div><div style="text-align: center;"><b><br />अकलतरा वाले ठाकुर डॉ. इंद्रजीत सिंह (लाल साहब) का शतीय जन्म दिवस आज </b></div><div style="text-align: center;"><b><br /></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">डॉ. इंद्रजीत सिंह: अद्भुत व्यक्ति, अद्वितीय व्यक्तित्व</span></b></div><div><br /></div><div style="text-align: right;"><b><i>■डॉ. मदनलाल शुक्ला </i></b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">स्वर्गीय ठाकुर डा. इंद्रजीत सिंह का जन्म 5 फरवरी 1906 बिलासपुर जिले के जांजगीर तहसील में स्थित ग्राम अकलतरा में हुआ था. उनके स्वर्गीय पिताजी राजा मनमोहन सिंह पच्चीस गांव के मालगुजार थे. उन दिनों मालगुजारों के निवास स्थान को ‘बखरी‘ कहते थे. गांव में दो बखरी थे- बड़ी बखरी, छोटी बखरी. ये दोनों परिवार इलाके में अपने जनकल्याण कार्यों के लिये प्रसिद्ध थे. उनकी ‘बखरी‘ बड़ी बखरी कहलाती थी. डा. इंद्रजीत सिंह की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुयी थी. विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेने के उपरान्त इंद्रजीत सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय चले गये. वहां एन्थ्रोपालाजी के विभागाध्यक्ष डा. मजूमदार के मार्गदर्शन में इनने तत्कालीन छत्तीसगढ़ के बैगाओं, आदिवासियों की जीवन शैली, रहन सहन को अपना विषय बनाकर पी एच डी. की उपाधि प्राप्त की. </div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9Fk1ynO8mX5QFn57CggD5jjRaJQ_pPhMMexF8nQaqbbNr2Lf5WclodhTBmK4b1SILkKLx_S9btvxpcI5_Zd2yieWnll8z33Ol-RTUg37lukQOQ89BZHtV-dbToiyYKUFtEIeQ66Y6crKGKM0Pnp8U28ZVekRpyDs4foT3-oH10lM0RB957VM6Q8OYTQ/s1442/MLShukla.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="752" data-original-width="1442" height="223" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9Fk1ynO8mX5QFn57CggD5jjRaJQ_pPhMMexF8nQaqbbNr2Lf5WclodhTBmK4b1SILkKLx_S9btvxpcI5_Zd2yieWnll8z33Ol-RTUg37lukQOQ89BZHtV-dbToiyYKUFtEIeQ66Y6crKGKM0Pnp8U28ZVekRpyDs4foT3-oH10lM0RB957VM6Q8OYTQ/w428-h223/MLShukla.jpg" width="428" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: x-small;">दैनिक ‘नवभारत‘, 5 दिसंबर 2006, मंगलवार, संपादकीय पृष्ठ की कतरन </span></b></span></td></tr></tbody></table><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उनके व्यक्तित्व कृतित्व तथा उपलब्धियों का वर्णन निम्नानुसार है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उनका दैहिक व्यक्तित्व आकर्षक था. मृदुभाषी एवं सहृदयता के धनी ठाकुर साहेब पूरे क्षेत्र में अत्यंत लोकप्रिय थे. वे लाल साहेब के नाम से अपने परिवार जनों तथा जरुरतमंदों में जाने जाते थे. वे सहायता करने में इतने प्रवीण थे कि आम लोग उन्हें गरीबों का मसीहा कहते थे. स्वभाव से शालीन संवेदनशील तथा अहंकार विहीन व्यक्ति थे. उनकी व्यवहार कुशलता प्रसिद्ध थी. उनके चार पुत्र रत्न राजेंद्र कुमार (बड़े बाबू), संत कुमार, बसंत कुमार तथा धीरेंद्र कुमार एवं एक बहन बीना सिंह. इन चार भाइयों में से पहले तीन की मृत्यु हो चुकी है. अभी धीरेंद्र कुमार पूरे परिवार का भार सम्हाले हुए हैं. स्वर्गीय राजेंद्र कुमार के सुपुत्र भूतपूर्व डा. राकेश सिंह भूतपूर्व विधायक थे. अब वे अकलतरा में प्रेक्टिस करते हैं. लाल साहिब के मृदुभाषी होने का पारिवारिक गुण सब भाईयों में था. डा. राकेश भी सगाजसेवा और जन कल्याण के काम में लगे रहते हैं. धीरेंद्र कुमार सिंह बिलासपुर में रहते हैं तथा अपने स्व. पिता के नाम से ‘ठाकुर इंद्रजीत सिंह काम्पलेक्स‘ उच्च न्यायालय के सामने बनवाया है. उसमें शहर के वरिष्ठ अधिवक्तागण रह रहे है. स्व. संत कुमार सिंह के सुपुत्र राहुल सिंह उम्र 45 वर्ष स्थानीय पुरातत्व विभाग उप संचालक के पद पर कार्यरत है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgp2RCPrTYrSYWBAGqrMEVJMWbQJBJZomw-wrwb3B0F9IqHNj21kDYRafnaEOz-t2JH2_gnS0Qav_SDHh7Df5iaGYneCZ-B-OJZpZxGpi27xHGqujMjKEmMAkEWwvzffNOS0o35sHiUPBTcfusVlbMIThyON2qoX7Z2enTjDseypAhZCVsAn54VR2KLldq0/s523/VinayShukla.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="523" data-original-width="379" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgp2RCPrTYrSYWBAGqrMEVJMWbQJBJZomw-wrwb3B0F9IqHNj21kDYRafnaEOz-t2JH2_gnS0Qav_SDHh7Df5iaGYneCZ-B-OJZpZxGpi27xHGqujMjKEmMAkEWwvzffNOS0o35sHiUPBTcfusVlbMIThyON2qoX7Z2enTjDseypAhZCVsAn54VR2KLldq0/w145-h200/VinayShukla.jpg" width="145" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: x-small;"><b>मदनलाल शुक्ल जी के सुपुत्र <br />विनय शुक्ला जी <br />हमारे विभागीय संचालक रहे, <br />उनके हस्ताक्षर से जारी <br />मेरे परिचय पत्र की तस्वीर</b></span></td></tr></tbody></table><div style="text-align: justify;">स्व. लाल साहेब की आज भी उनके तीन प्रमुख उपलब्धियों के लिये स्मरण किया जाता है. प्रसिद्ध शिकारी, प्रथम श्रेणी के स्पोर्ट्समेन, तथा पर्यटन प्रेमी. अकलतरा गांव से तीन मील पर ‘कटघरी‘ गांव में उनके द्वारा एक बहुत बड़ा बगीचा बनवाया था. जिसमें देश के सभी प्रसिद्ध प्रकार के आम के वृक्ष लगे हुये हैं, दशहरी, चौसा, लंगड़ा आदि. अपने समय में लाल साहब उस बगीचे में ही अतिथिजनों का स्वागत करते थे. मनोरंजन के तौर पर कार-मिकेनिजम में वे माहिर थे, उस समय जर्मनी से मंगाया गया ‘हंसा‘ कार वे रखते थे तथा लोगों को उसमें बैठाकर क्षेत्र के रमणीय स्थानों पर ले जाते थे. पच्चीस गांव के मालगुजार होने के नाते वे ग्रामीण भाईयों को प्रेम करते थे, न्यायप्रिय थे तथा उनके पूरे इलाके में संतोष व्याप्त था. अकलतरा शहर के प्रसिद्ध हरिकीर्तनकर्ता पं. स्वर्गीय रामभरोसे शुक्ल से अत्यंत प्रभावित थे. उनके हरिकीर्तन सुनने के लिये हर जगह पहुंच जाते थे. श्रद्धा आस्था और निष्ठा के प्रेमी लाल साहिब सदैव स्मरण किये जायेंगे. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">लाल साहिब के गुण ग्राह्यता भी अपने किस्म की एक ही थी. स्व. पं. गोरेलाल शुक्ल पुत्र रामभरोसे शुक्ल ने सन् 1941 में नागपुर विश्वविद्यालय से बी.ए. आनर्स (अंग्रेजी) की डिग्री प्रथम श्रेणी में ली तथा उनकी प्रतिभा कितनी तीक्ष्ण थी कि एक वर्ष के ही अंदर वे असिस्टेंट प्रोफेसर अंग्रेजी हो गये. स्व. लाल साहिब इस अपूर्व सफलता से प्रभावित होकर गोरेलाल जी को स्वयं शाबासी देने आये थे तथा उनके सम्मान में उन्होंने एक भोज का भी आयोजन किया. हमारा शुक्ल परिवार सदैव उनका आभार मानेगा तथा शहर के पुराने लोग भी उनकी विशेषता को बताते रहते हैं. वैभव और शालीनता का अदभुत समन्वय. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्व. लाल साहिब राजनीति से दूर ही रहते थे. लेकिन संयोग की बात है कि सन् 1947 में हमारा देश स्वतंत्र हुआ. सन् 1950-51 में संविधान पारित हुआ और सन् 1952 में विधायिका के लिये प्रथम चुनाव ठा. लाल साहिब अकलतरा क्षेत्र के विधायक का चुनाव लड़े किंतु दुर्भाग्यवश वे उस चुनाव में पराजित हुये. इस पराजय को लाल साहिब बर्दाश्त नहीं कर पाये और सन् 52 में उनका 46 वर्ष में निधन हो गया. विनम्र श्रद्धांजलि.
से.नि. सिविल </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: right;"><b><span style="font-size: x-small;">सर्जन, पी- 38 क्रांति नगर, बिलासपुर.
</span></b></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-85386931508814700482023-05-29T08:51:00.009+05:302023-07-01T20:13:00.051+05:30लाल साहब<i>इंद्रजीत सिंह मेमोरियल ट्रस्ट, अकलतरा, जिला-जांजगीर चांपा की ‘स्मारिका‘ में प्रकाशित डॉ. मदन लाल शुक्ल का लेख यहां प्रस्तुत है, उनका एक <a href="https://akaltara.blogspot.com/2023/05/blog-post_30.html"><span style="color: #2b00fe;">अन्य लेख </span></a>नवभारत समाचार पत्र में भी प्रकाशित हुआ था।</i> <div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTcoPQVZeHBZp2REOpT4YOeUYZq9XNePPQ5_2UtVadMqsBhRN0tQTpRLEN_C4BhVAdJ5X1sJKj4SxoAo0LXKtbwlmy6gCJLhgedvr-sQK4TXfS9zHJgwWuOFrKbgxAcmrbZv8PgCKDl9aHRU7TXtszqLo_sMt81VnjsBOiqw58TUtq-1XWEugWr_tuRQ/s3714/IMG_20230529_075121.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3714" data-original-width="2767" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTcoPQVZeHBZp2REOpT4YOeUYZq9XNePPQ5_2UtVadMqsBhRN0tQTpRLEN_C4BhVAdJ5X1sJKj4SxoAo0LXKtbwlmy6gCJLhgedvr-sQK4TXfS9zHJgwWuOFrKbgxAcmrbZv8PgCKDl9aHRU7TXtszqLo_sMt81VnjsBOiqw58TUtq-1XWEugWr_tuRQ/w316-h424/IMG_20230529_075121.jpg" width="316" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><b>लाल साहब को विनम्र श्रद्धांजली </b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">पाँच दिसम्बर 2006 को अकलतरा में रा. कु. सिंह उ.मा.शाला के सभाभवन में लाल साहब के जन्म शती समारोह का आयोजन हुआ। डॉ. इन्द्रजीत सिंह के कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार के प्रयास स्वरुप यह आयोजन अत्यंत सफल रहा। आपस में सबका मेल जोल हुआ। अकलतरा गांव के सभी पुराने प्रबुद्ध वर्ग के लोग तथा डॉ. साहब के परिवार के उनके सभी बंधु बांधव उपस्थित हुये। समारोह की विशेषता यह थी कि छत्तीसगढ़ समाज के समस्त महिलाएँ भी उत्साह पूर्वक वहां पधारी तथा अनेक महिलाओं ने स्व. डॉ. साहब के व्यक्तित्व की प्रशंसा भी की तथा उन्हें उस जमाने के श्रेष्ठ मालगुजारों में गिनाया। मैं सन् 1933 में क्षेत्रीय मेरिट छात्रवृत्ति पाकर हाईस्कूल बिलासपुर चला गया था, सन् 1940 में प्रथम श्रेणी में मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की। मेरी उम्र 18 वर्ष थी तब तक लाल साहब कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होकर आ गये थे तथा उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि भी मिल चुकी थी। समारोह के दिन उनके जीवन की उपलब्धियों को लेकर एक संक्षिप्त विवरणिका भी वितरित की गयी थी, जिसमें उनके जीवन की समस्त सफलताओं का उल्लेख है। वह छोटी पुस्तक स्वयं में सम्पूर्ण है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjOXq6oizncMd-vzanVKMz-0oZwW7TBBOgs95mgOmIXBOecuhwfiHSuuKsxWRX7DXZj4sYTh-Rj6qjv7OUV4BL7IJerAaWJ_naFLQv34YDpWhD2jlw98dYr_UkAeqd3EEX24rfyQcvtLr4lsdkHOkuX_-BHZppgIafBM5HNkqW7dWiq7PUsy4PqCdIUbA/s1512/4-Lekh.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="712" data-original-width="1512" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjOXq6oizncMd-vzanVKMz-0oZwW7TBBOgs95mgOmIXBOecuhwfiHSuuKsxWRX7DXZj4sYTh-Rj6qjv7OUV4BL7IJerAaWJ_naFLQv34YDpWhD2jlw98dYr_UkAeqd3EEX24rfyQcvtLr4lsdkHOkuX_-BHZppgIafBM5HNkqW7dWiq7PUsy4PqCdIUbA/w451-h213/4-Lekh.png" width="451" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">मेरी मान्यता के अनुसार लाल साहब एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने जमाने के प्रसिद्ध फुटबाल तथा टेनिस, व्हालीबाल के खिलाड़ी थे। इसीलिए अच्छे खिलाड़ियों से मिलकर वे बहुत प्रसन्न रहते थे। अक्सर ग्रीष्मकालीन अवकाश में जब हम सब सायंकाल खेल के मैदान में मिलते थे तो वे कहा करते थे कि मदनलाल न केवल प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी है परन्तु अच्छे खिलाड़ी भी है, जो प्रायः नही होता। उनकी गुणग्राह्यता के कई उदाहरण है - सन् 1936 में मेरे अग्रज स्व. प्रोफेसर गोरेलाल शुक्ल ने मैट्रिक में पूरे प्रांत भर में हिन्दी विषय में विशिष्ट योग्यता प्राप्त थी। तत्कालीन कामता प्रसाद गुरु व्याकरणाचार्य ने गोरेलाल को पत्र लिखकर उन्हें शुभकामनाएं दी थी। लाल साहब को जब हमारे पिता जी ने यह पत्र दिखाया वे प्रसन्न हो गये और कहा कि गोरेलाल जी का भविष्य उज्जवल है। 1941 में गोरेलाल जी नागपुर विश्वविद्यालय के बी.ए. आनर्स अंग्रेजी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। एक वर्ष के अंदर प्रोफेसर आफ अंग्रेजी नियुक्त हुये। इस समाचार को सुनते ही लाल साहब हमारे घर पधारे तथा हमारे पिता जी से कहा कि गोरेलाल जी ने पूरे गांव को गौरवान्वित किया है। लाल साहब ने हम सबों को भोज भी दिया। लाल साहब जितने वैभवशाली थे उतने ही सहृदय तथा संवेदनशील भी थे। वे करुणा व दया के कायल थे। लाल साहब हमारे पिता जी पंडित रामभरोसे शुक्ल से भी प्रभावित थे। उनका हरिकीर्तन सुनने वे प्रायः पहुँच जाते थे। कहा करते थे कि शुक्ल जी का परिवार अनुकरणीय है। बड़ा लड़का प्रोफेसर है तथा दूसरा शीघ्र डॉ. होने वाला है। हम सब लोगों के लिये दुःख का विषय यह रहा कि मात्र 46 वर्ष की उम्र में सन् 51 में उनका निधन हुआ। वे एक व्यक्ति नही थे वरन स्वयं में संस्था स्वरुप थे। उनके द्वारा संचालित कई जनकल्याण के कार्य अभी भी उस इलाके में चल रहे है। बड़ी श्रद्धा से उन्हें याद किया जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">लाल साहब शिकार के बहुत शौकीन थे। बड़े शिकार करने में उन्हें बहुत आनंद मिलता था। उनकी बैठक कमरा शेर, चीता, हिरण के खाल तथा सींग से सुसज्जित है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पर्यटन प्रेमी इतने थे कि पूरे देश एवं विदेश का भ्रमण उन्होंने कर लिया था। एक बार शिमला में ग्रीष्म ऋतु व्यतीत करने के बाद जब वे आये तो उनने वहां के फूलों के बगीचे की तारीफ की। तत्कालीन वायसराय ने अपने भवन के सामने वह अद्भुत बगीचा बनवाया था देश विदेश के सभी प्रकार के फूलों के पौधे वहां अभी भी देखे जा सकते है। वहीं से लौटने के बाद उनके अपने गांव ‘कटघरी‘ में फलों का बगीचा लगाया जिसमें सब तरह के आम, केला, संतरा पाइनेपल तथा बीज रहित खरवानी के पपीते के वृक्ष भी लगे थे। उनके यहां जो भी अतिथि आते थे- उन्हें वे फलों का बगीचा दिखाने जरुर ले जाया करते थे। वह एक बहुत ही आकर्षक ‘पिकनिक स्पॉट‘ था। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उनकी दिनचर्या में प्रमुख हिस्सा था शाम को डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्रा के यहां बैठक जिसमें पं. रामभरोसे शुक्ल, श्री गजानंद प्रसाद गौरहा, मेऊ वाले तथा श्री कौशल प्रसाद तिवारी, शिवरीनारायण वाले रहते थे। उस बैठक में कभी कभी श्री पं. राधेश्याम वकील, लिमहा वाले भी आया करते थे। श्री राधेश्याम जी, विशेषर सिंह जी आदि कभी कभी संगीत की गोष्ठी किया करते थे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कहा जाता है कि जिसे तलवार नही जीत सकती उसे मधुर वाणी जीत लेती है। लाल साहब इस कथन की पुष्टि के प्रतीक थे। मीठी बोली, सरल, शालीन स्वभाव तथा विनम्रता उनके व्यक्तित्व के विशेष आकर्षण थे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ब्राम्हणों के प्रति श्रद्धा, धर्म में आस्था और निष्ठा के प्रेमी लाल साहब सदैव सबके हृदय में विराजित रहेंगे। विशेषकर अपने वृहद परिवार के सदस्यों के बीच। उनके इलाके में जितने भी किसान थे वे सदैव उनका गुणगान करते थे। उनकी निष्पक्षता, निर्भयता तथा न्यायप्रियता के सभी कायल थे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार भी अपने पूज्य पिताजी के पद चिन्ह पर चलते हुए अपने पूज्य पिताजी का पितृ ऋण चुकाते रहेंगे। </div><div><br /></div><div style="text-align: right;">■ <b>डॉ. मदन लाल शुक्ल,</b> </div><div style="text-align: right;">एम.बी.बी.एस., एम.एस. </div><div style="text-align: right;">सेवा निवृत्त सिविल सर्जन </div><div style="text-align: right;">क्रांतिनगर, बिलासपुर
</div></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-85667561751645676732023-05-28T07:10:00.006+05:302023-05-30T05:53:08.153+05:30फायर<i>दैनिक ‘नवभारत‘, 12-01-99 की कतरन -</i><div><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b>समलैंगिकता के बहाने महिलाओं की समस्याओं से मुंह मोड़ा जा रहा</b></span> </div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b>फायर पर एक सार्थक चर्चा </b></div><div style="text-align: center;"><b><br /></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKcg-W7HI7AyPssSRFjEm7Q-VlDGkPvLoVdIaMHyFgSixqILmpxsKN7EJY6gRCx5GtBIun8OyfusDhhuvnT3l1b7ZY4K5nVeoQP5ET7bzDFY8gTiW8id9y54CWOBpPIHifID3rS30Thx3e4FKmFCXRUrPtM_QX1k3dmUFhSL6YGnexqI582EAqQyYU7Q/s2961/clip.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="831" data-original-width="2961" height="121" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKcg-W7HI7AyPssSRFjEm7Q-VlDGkPvLoVdIaMHyFgSixqILmpxsKN7EJY6gRCx5GtBIun8OyfusDhhuvnT3l1b7ZY4K5nVeoQP5ET7bzDFY8gTiW8id9y54CWOBpPIHifID3rS30Thx3e4FKmFCXRUrPtM_QX1k3dmUFhSL6YGnexqI582EAqQyYU7Q/w432-h121/clip.jpg" width="432" /></a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बिलासपुर. ‘‘फिल्म ‘फायर‘ जानलेवा एकांत और महिलाओं के मनवोचित अधिकारों का प्रश्न उठाती है. उस से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये. अपने अपने ढंग से जीने की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है, उसे कोई दूसरा अपने विचार और आस्थाओं के बंधन में बांधने की कोशिश न करें. जो ‘फायर‘ पर समलैंगिकता के प्रचार का आरोप लगाकर मूल प्रश्नों को खारिज करने की कोशिश करते हैं वे शायद अपनी असहायता व हार की खीझ मिटाने का प्रयास कर रहे हैं.‘‘</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0hiqoyT53vNODrNE2tlKHxL8xzYlTmGEs_CfXwFNxcR-v5YMyUZNjiSudfH3MCVD4ALDQqqHfSkn_tGyM70KaEKW14BoWyMJxxvdsddSn8dFzm0RFIgkhEU2jQayPJ2V7uvACSqJvljx_Od_2tEzMysNXxlDknIE2g14r94ZvfNtuKNSHghb5Ya_WzQ/s482/Fire.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="301" data-original-width="482" height="255" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0hiqoyT53vNODrNE2tlKHxL8xzYlTmGEs_CfXwFNxcR-v5YMyUZNjiSudfH3MCVD4ALDQqqHfSkn_tGyM70KaEKW14BoWyMJxxvdsddSn8dFzm0RFIgkhEU2jQayPJ2V7uvACSqJvljx_Od_2tEzMysNXxlDknIE2g14r94ZvfNtuKNSHghb5Ya_WzQ/w408-h255/Fire.png" width="408" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘‘फायर के बहाने‘‘ परिचर्चा का प्रस्ताविक करते हुए नंदकुमार कश्यप ने कहा कि ‘‘फिल्म ‘फायर‘ ने सनसनाती परंपरा पर प्रहार किया है. इसी ने स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता का सवाल खड़ा किया है. हम उसे परंपरावादी रिश्तों में नहीं बांध सकते. जिनमें विचारों को समझाने की, सहने की शक्ति नहीं होती वे जनतांत्रिक मूल्यों को नहीं मानते और मूल्य विकास में बाधक होते हैं. इस फिल्म पर अश्लीलता का आरोप लगाने वालों से उन्होंने सवाल किया कि, ‘‘स्त्री को बाजार की वस्तु बनाने वाले अश्लील विज्ञापनों और अन्य फिल्मों में दिखाये जाने वाले भौंडे देह प्रदर्शन या अश्लीलता के विरोध में तथाकथित संस्कृति के ठेकेदार क्यों नहीं खड़े होते. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">श्री प्रदीप पाटील ने अपने आलेख में ‘फायर के बहाने‘ उत्पन्न हुए अनेक प्रश्नों व समस्याओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया. उनका कहना था, ‘‘मनुष्य जीवन की वास्तविक समस्याओं से रूबरू होने के बजाय उस पर मोहक कल्पना के रंग भरे जाते हैं या पारलौकिकता की धुंध पैदा की जाती है. फिल्म ‘फायर‘ इसी विडंबना को सीधे यथार्थ के धरातल पर लाकर खड़े करती है. संस्कार और संस्कृति के नाम पर प्रचलित सोच पर, पुरुष दंभ पर, उसके सत्ता केंद्र पर प्रहार करती है. सांस्कृतिक घपलेबाजी को उधेड़ने वाली सवालों की लपटें कहीं पारंपरिक सामाजिक सत्ता सूत्रों को भस्म न कर दे इसी डर के कारण शायद उसका विरोध हो रहा है.‘‘ प्रो. हेमलता महेश्वर ने अपने आलेख में तथाकथित संस्कृति संरक्षकों की खबर लेते हुए कहा कि, ‘‘जब भी कोई प्रताड़ित स्वतंत्रता की बात करता है, सुविधा भोगी तबका तिलमिला जाता है. स्त्री केवल हाड़मांस का लोथड़ा नहीं है वह एक पूर्ण मानव है जिसके कुछ सपने हैं, इच्छा-आकांक्षायें हैं. अतः विकृति कहने वालों को विकृति उत्पन्न करने वाली स्थिति की समीक्षा करनी चाहिये. स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये यह आवश्यक है.‘‘ </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">चर्चा में भाग लेते हुए श्री शशांक दुबे, श्रीमती इंदिरा रॉय तथा श्री भरतचंदानी ने कहा कि, ‘‘समलैंगिकता का प्रचलन पश्चिमी देशों में है और फिल्म ‘फायर‘ में समलैंगिकता दर्शाने का उद्देश्य केवल प्रसिद्धि पाना व पैसे कमाना है‘‘ इसका सार्थक चर्चा कड़ा प्रतिवाद श्री रंजन रॉय ने कहा कि ‘‘इस फिल्म की कथावस्तु समलैंगिकता नहीं है बल्कि वह स्त्री की घुटन को उजागर करती है. पुरूष वर्चस्व की बर्बरता से मुक्ति ही वास्तव में स्त्री मुक्ति है‘‘ फिल्म के कलापक्ष, श्लील-अश्लील की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘‘कला में कुछ अरोपित हो, सार्थक न हो वह अश्लील है‘‘ </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">श्रीमती जया जादवनी ने सवाल किया कि ‘‘पुरूष को क्यों आपत्ति है कि स्त्री किसे अपनाये? अहंकार आहत हुआ है. कोई आपको आईना दिखाता है तो अपको क्यों तकलीफ होती है?‘‘ आनंद मिश्रा का कहना थ कि, हमारा समाज विषमताओं का समाज है. समाज के इस यथार्थ से हम आंखे मूंद नहीं सकते. हम जो अन्याय करते हैं उसका अहसास हमें नहीं होता है.‘‘ रफीक अहमद का कहना था कि ‘‘स्त्री को पत्नी के रूप में उसके अधिकार मिलने चाहिये‘‘ डा. उर्मिला शुक्ला ने कहा कि ‘‘यदि फिल्म को समलैंगिकता नहीं जोड़ा जाता तो यह एक अच्छी फिल्म है.‘‘ </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">श्रीमती स्नेह मिश्र ने सवाल किया कि ‘‘चड्डी पहन कर मोर्चा निकालना व विरोध दर्ज कराना कौन सी संस्कृति है?‘‘ श्री नंदकिशोर तिवारी का कहना था कि, ‘‘सौंदर्य आस्था से जुड़ी चीज है. इसका ध्यान रखा जाना चाहिए‘‘ श्री राहुल सिंह ने फिल्म ‘फायर‘ की कलात्मकता की चर्चा करते हुए कहा कि ‘‘इस फिल्म पर दुराग्रहपूर्वक विवाद खड़े किये जा रहे हैं. यह समलैंगिकता की नहीं बल्कि हरेक के अपने-अपने अकेलेपन से उपजी प्रतिक्रिया की फिल्म है और जहां कहीं भी प्रतिक्रिया के उद्दीपक तत्व मौजूद होते हैं तभी प्रतिक्रिया व्यक्त होती है. </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">परिचर्चा के इस कार्यक्रम में काफी बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन मौजूद थे. ‘सम्यक विचार मंच‘ के संयोजक श्री कपूर वासनिक ने ‘फायर के बहाने‘ आयोजित परिचर्चा का उद्देश्य कथन कर स्वागत किया, तथा श्री का. रा. वालदेकर ने कार्यक्रम का संचालन और आभार प्रदर्शन किया.</div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgr0v6eeQjpoXcxnl64gppCduUKmyf5_0E3yMQcoXyhsgaIk3inWeFS4jpXlLUUdjv0nZFmJxcyONmNqaAhJwypvvEtCHb6-EIeHDLrRpS2WinQtg_MXPLilPUzgFMdsuuJpsuhkktyAobM45qiMYyra61ktIhiylM2StKJNEbjsMbSgKEa9iNjdBxXWw/s1080/PPatil.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="737" data-original-width="1080" height="291" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgr0v6eeQjpoXcxnl64gppCduUKmyf5_0E3yMQcoXyhsgaIk3inWeFS4jpXlLUUdjv0nZFmJxcyONmNqaAhJwypvvEtCHb6-EIeHDLrRpS2WinQtg_MXPLilPUzgFMdsuuJpsuhkktyAobM45qiMYyra61ktIhiylM2StKJNEbjsMbSgKEa9iNjdBxXWw/w427-h291/PPatil.jpg" width="427" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;">प्रदीप पाटिल जी ने अखबार की यह कतरन उपलब्ध करा दी है, <br />उनका आभार।</span></b></td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-88103585933383621412023-05-27T06:49:00.001+05:302023-05-27T06:49:24.506+05:30मड़वा महल सतीलेख<div style="text-align: justify;">मड़वा महल, कवर्धा फणिनाग वंश के शासकों के काल में निर्मित स्मारक हैं। भोरमदेव मंदिर, मड़वा महल तथा छेरकी महल, फणिनाग वंश के शासकों के काल के सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारक हैं। भोरमदेव के आसपास से अनेक प्रतिमायें, स्थापत्य खंड तथा सतीलेख भी मिले हैं। मड़वा महल का निर्माण नाग नरेश रामचन्द्र के शासनकाल में विक्रम संवत् 1406 (ईसवी 1349) में करवाया गया है। मड़वा महल से प्राप्त एक अभिलेख में इस वंश के राजाओं के वंशावली के साथ इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख भी प्राप्त होता है। मड़वा महल के स्थापत्य अलंकरण में वाममार्गी शैवाचार्यों के तांत्रिक साधना और उपासना परंपरा की झलक दिखाई देती है। इस मंदिर के बाह्य भित्तियों में विविध मैथुन दृश्यों का अंकन हैं। गर्भगृह में शिवलिंग प्रस्थापित है। मड़वा महल के जीर्ण-शीर्ण मंडप को अनुरक्षण कार्य से यथावत स्वरूप प्रदान किया गया है। इस मंदिर के सुरक्षा के लिए दीवार निर्माण करने के लिए फरवरी 2003 में नींव खोदते समय पश्चिम दिशा में एक खंडित शिलालेख प्राप्त हुआ है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdwZzMZxE6TNdEbylPTyPtDeP_VkMOv43BjsGNXzRDteVmizxTgFEGSPi0c1D9PU_u7e7gF3y745g3U3cQ32D6khWzzyTkCbEQ-X4DyfVWFjMZRbe0c4LLf45V79jXtMfJBzBlijfL6fRwKsz1GV5OOhlQH7tHIaGBrwvDje1utulyTVTV6bxGpp1Zhg/s1024/IMG_20230527_062503.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="717" height="510" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdwZzMZxE6TNdEbylPTyPtDeP_VkMOv43BjsGNXzRDteVmizxTgFEGSPi0c1D9PU_u7e7gF3y745g3U3cQ32D6khWzzyTkCbEQ-X4DyfVWFjMZRbe0c4LLf45V79jXtMfJBzBlijfL6fRwKsz1GV5OOhlQH7tHIaGBrwvDje1utulyTVTV6bxGpp1Zhg/w357-h510/IMG_20230527_062503.jpg" width="357" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">यह सतीलेख है तथा लगभग 3 फीट लंबा एवं 1 फीट चौड़ा है। भूरे बलुआ रंग के इस प्रस्तर लेख में कुल 7 पंक्तियां हैं। लेख का बांया बाजू टूटा हुआ है, जिससे पंक्तियां अपूर्ण हैं। साथ ही साथ इसका ऊपरी भाग भी खंडित है।
इस सती लेख की जानकारी श्री जी.एल. रायकवार, पुरातत्ववेत्ता, रायपुर को प्रथमतः ज्ञात हुई थी तथा उन्होंने इसका प्रारंभिक वाचन किया है। इस लेख में संवत 1407 का अंकन है, तदनुसार यह ईसवी सन् 1349-50 है। अभिलेख में मास तथा पक्ष का उल्लेख नहीं हैं, परन्तु 11वीं तिथि और दिवस सोम (वार) उल्लेखित है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस सती लेख में फणिवंश के राजा सरदा, मही (धर अथवा देव) एवं महाराज सतीम का नामोल्लेख मिलता है। लेख की अंतिम दो पंक्तियों में पितृकुल तथा पति के कुल के उद्धार के लिए राउत घाघम की पुत्री के सहगमन (सती होने) का उल्लेख है। फणिवंश के अज्ञात राजाओं के नाम तथा राउत जाति की नारी की सती होने की जानकारी के कारण यह सतीलेख विशेष महत्वपूर्ण है। तत्कालीन फणिनाग राजाओं की वंशावली तथा सामाजिक जातिगत प्रथा पर यह सतीलेख नवीन प्रकाश केन्द्रित करता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यह लेख देवनागरी लिपि में है तथा भाषा अशुद्ध संस्कृत है। इस लेख का छायाचित्र मुझे श्री जी.एल. रायकवार, पुरातत्ववेत्ता, रायपुर के द्वारा उपलब्ध कराये गए हैं, जिसके आधार पर मेरे द्वारा लेख का वाचन किया गया है। </div><div><br /></div><div><b>मूल पाठ</b> </div><div><br /></div><div>1. संवत 1407 वषे (वर्षे) घोरे ... ... ... </div><div>2. 11 सोमे सौ त (-) डग्रे ... ... </div><div>3. फणिवंस (श) राजो सरदा ... ... </div><div>4. ते गार्य (-) राजेन महि (धर) ... </div><div>5. पुत्रः श्री महराज सतीम ... </div><div>6. ग ग एनं राउत घाघम पुत्र (त्री) </div><div>7. दुई कुल उधरे (उद्धारे) सहगमन </div><div><br /></div><div><i>(इस शिलालेख का पाठ ‘उत्कीर्ण लेख‘, परिवर्धित संस्करण-2005 तथा इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ से प्रकाशित ‘कला-वैभव‘, अंक-12, 2002-03 में प्रकाशित है।)
</i></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-41656577045823273682023-05-26T19:35:00.006+05:302023-05-26T19:35:57.411+05:30भोरमदेव – 2006<i>छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य पुराविद डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर, सन 2006 में भोरमदेव पर पुस्तिका की तैयारी कर रहे थे, इसके पूर्ण होने या प्रकाशन की जानकारी मुझे नहीं है, मगर इस क्रम में उनके द्वारा तैयार नोट का यह हिस्सा मेरे पास सुरक्षित रहा, यथावत प्रस्तुत- </i><div><i><br /></i><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhNZyk8Fbplok4zA8sOJdMDmSilX345IBMMzu7We79aAjd6hRJey0_Q57SgtGM3yx7TbsXzPjROWAQqaPEOysDEgkaQdSC9LfFzhPul-MpNhVurWOvP09XgAviec4PBUnjWIAkipnUxxRBvu5-8q52283yPPuGWoJdgwx2czyr_mWPKphdrgvXjPPM9pw/s720/Bhoramdev_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="479" data-original-width="720" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhNZyk8Fbplok4zA8sOJdMDmSilX345IBMMzu7We79aAjd6hRJey0_Q57SgtGM3yx7TbsXzPjROWAQqaPEOysDEgkaQdSC9LfFzhPul-MpNhVurWOvP09XgAviec4PBUnjWIAkipnUxxRBvu5-8q52283yPPuGWoJdgwx2czyr_mWPKphdrgvXjPPM9pw/w401-h267/Bhoramdev_n.jpg" width="401" /></a></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">भोरमदेव महोत्सव 2006 के अवसर पर प्रकाशित विवरणिका में फणिनागवंश की उत्पत्ति पर आधारित ऐतिहासिक आख्यायिका का सांकेतिक उल्लेख प्रथम बार लिखित रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। समकालीन राजनीतिक इतिहास में फणिनाग वंष के स्थान एवं महत्व को रेखांकित करने वाले कुछ-एक सन्दर्भों का भी निर्देष विवरणिका में लेखक द्वारा प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। फणिनाग वंश के विभिन्न नरेशों के राजत्वकाल में राजधानी चउरापुर में किये गये निर्माण कार्यों का भी मात्र एक शिलालेख के आधार पर संक्षिप्त में उल्लेख है। पाठकों में सब कुछ सही-सही जानने की तीव्र उत्कण्ठा जगा रही है यह विवरणिका। सम्भवतः लेखक का यही उद्देश्य हो।
राजनीतिक इतिहास के ही समान फणिनागवंशीय शासन काल के मध्य ‘‘स्थापत्य एवं शिल्प कला’’ का भी सर्वांगपूर्ण प्रकाशन अपेक्षित है। राज्य तथा देश के इतिहासकार एवं कला अध्येता इन अपेक्षाओं को पूर्ण करने के लिए सामने आयेंगे इस आशा के साथ-प्रस्तुत है यह विवरणिका ... </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b>भोरमदेव </b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ के कबीरधाम (कवर्धा) जिले के मुख्यालय से उत्तर-पश्चिम दिशा में 17.6 कि.मी. की दूरी पर राजस्व ग्राम चौरा स्थित है। यह सम्पूर्ण ग्राम पुरातत्वीय महत्व के टीलों, तीन प्राचीन मन्दिरों, सतखण्डा महल नामक स्मारक के समाप्तप्राय भग्नावषेशों तथा प्राचीन दुर्ग के नष्टप्राय प्राचीन स्थापत्य अवशेष को अपने क्रोड़ में समेट गौरवशाली प्राचीन इतिहास का मूकसाक्षी बना आज भी अपनी भौतिक सत्ता बनाये हुए है। यहाँ के ऐतिहासिक वास्तुरूपों में निम्न मन्दिर विशेष उल्लेखनीय महत्व के हैं – </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(अ) मड़वा महल मन्दिर- इसका निर्माण फणिनागवंशी महाराज रामचन्द्र के शासन काल में चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। यह मन्दिर मड़वा महल अभिलेख के अनुसार राम के उपास्य पशुपति रामेश्वर शिव को समर्पित था। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(आ) छेरकी महल मन्दिर - फणिनागवंशी नरेश महाराज रामचन्द्र के द्वारा एक विष्णु मन्दिर के निर्माण किये जाने का उल्लेख मड़वामहल अभिलेख में हुआ है। छेरकी महल मन्दिर के प्रवेश द्वार के सिरदल पर तीन छद्म देवपीठ मूर्तांकित है। इनके मध्य में बायीं से दायीं दिशा की ओर क्रमशः अर्धपर्यंकासन में बैठे गणेश, मध्य में पद्मासन मुद्रा में बैठी दोनों हाथों पद्मपुष्प धारण की हुई श्री लक्ष्मी तथा दक्षिण में अर्धपर्यंकासन में वीणावादन करती सरस्वती का मूर्तांकान है। प्रवेश द्वार के मध्यवर्ती ललाट बिम्ब पर लक्ष्मी के मूर्ताकंन से इस मन्दिर को मूलतः विष्णु को समर्पित मन्दिर स्वीकार करना साक्ष्यसिद्ध कहा जा सकता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">(इ) भोरमदेव मन्दिर - चौरा में उपलब्ध ऐतिहासिक महत्व के मन्दिरों में स्थापत्य एवं शिल्प निदेशित शैलीगत वैशिष्ट्य की दृष्टि से भोरमदेव मन्दिर को चौरा के मुकुट का मूल्यवान मणि सम्बोधित किया जा सकता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस मन्दिर के महामण्डप के अन्तराल से संलग्न अर्धमण्डप के दाहिने ओर गर्भगृह की बाहरी भित्ति से सटाकर एक सम्मुखाभिमुख मूर्ति रखी हुई है। इस मूर्ति में राजपुरुष और राजमहिषी का करबद्ध मुद्रा में मूर्तांकन है। इस मूर्ति के पादपीठ पर ‘‘संवत् 840, राणक श्री गोपाल देव राज्ये’’ उत्कीर्ण है। संवत् 840 को समकालीन कोसल में प्रचलित कलचुरि संवत् की तिथि माना गया है। अर्थात् इस मन्दिर का निर्माण फणिनागवंशी महाराज श्री गोपाल देव, जो रत्नपुर के कलचुरि नरेश के अधीनस्थ सामन्त थे, द्वारा कलचुरि संवत् 840 अर्थात् ई.स. 840$248=1088-89 में किया गया। सामान्यतः इस मन्दिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जाता है। इस प्रकार की तुलना का प्रमुखतम कारण मन्दिर के बाह्य अंगो में बैठायी गई अथवा उकेरी गयी मूर्तियों में मैथुन मूर्तियों की उपस्थिति है। उल्लेखनीय है कि जो भी मन्दिर तांत्रिक उपासना से सम्बद्ध थे उनकी बाह्य भित्ति पर मैथुन मूर्तियाँ पाई जाती हैं। मात्र मैथुन मूर्तियों के कारण इसे खजुराहो कहना इसकी शिल्पगत वैशिष्ट्य पर पर्दा डालने जैसा है। इस मन्दिर के स्थापत्य शैली पर कोसलीय शैली के अतिरिक्त किसी बाहरी शैली का प्रभाव है तो वह है परमार मन्दिर स्थापत्य शैली। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भोरमदेव मन्दिर से लगभग 3 मी. दूरी पर ईंटों का एक भग्न मन्दिर विद्यमान है। इस मन्दिर में विमान तथा छोट सा मुख मण्डप दो अंग है। विमान का अधिष्ठान ताराकृति वाला है। यह मन्दिर 8-9 वीं शताब्दी ई. सन की निर्मिति है। भोरमदेव मन्दिर परिसर के बाहर उत्तर दिशा में लगभग 10 मी. की दूरी पर एक विशाल तालाब विद्यमान है। मड़वामहल अभिलेख में इसे ‘‘महास्तडागः’’ कहा गया है। चौरा गाँव के पुरा स्थल के दक्षिण दिशा में संकरी नामक नदी है। मड़वा महल अभिलेख में इसे ‘‘हरिशंकरी’’ कहा गया है। इस हरिशंकरी के दक्षिण तट में स्वयम्भू हटकेश्वर शिव प्रकट हुए है। हटकेश्वर शिव फणिनागवंश के आराध्य कुल देवता थे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">चौरा का भोरमदेव मन्दिर छत्तीसगढ़ अंचल में अपने ढंग की वास्तु योजना का एकाकी उदाहरण है। इस मन्दिर की वास्तु योजना का अनुकरण करते हुए 13 वीं 14 वीं शताब्दी में देव बलौदा के शिव मन्दिर का निर्माण फणिनागवंशी शासकों द्वारा कराया गया है। कालगत अन्तर का स्पष्ट प्रभाव वास्तु अंगों के प्रस्तुतीकरण में दिखाई पड़ता है।
तांत्रिक शैवोपासना का केन्द्र होते हुए भी भोरमदेव मन्दिर की देव प्रतिमाओं में सर्व समन्वयात्मक धार्मिक प्रवृत्ति की जीवन्तता देखने में आती है। यहाँ के शिल्पों का गहन अध्ययन तत्कालीन सांस्कृतिक दशा के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b>द्वादश महोत्सव</b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भोरमदेव महोत्सव का यह बारहवाँ वर्ष था। दिनांक 27 मार्च 2006 से दिनांक 28 मार्च 2006 को इस वर्ष दो दिवसीय महोत्सव आयोजित किया गया। छत्तीसगढ़ के महामहिम राज्यपाल माननीय के.एम. सेठ के कर कमलों द्वारा महोत्सव का विधिवत उदाघाटन किय गया। अपने उद्बोधन में महामहिम राज्यपाल ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा पुरातत्वीय महत्व के धरोहरों का संरक्षण और उससे सम्बद्ध परम्परागत विष्वासों तथा जन आस्था के पक्षों को अनुरक्षित करते हुए उसके लोकसम्मत संवर्धन की दिशा में राज्य शासन के प्रयासों का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी स्थान से जुड़ी परम्परागत आस्था-विश्वास को संरक्षित रखते हुए उसके सम्वर्धन की दिशा को गति प्रदान करने के लिए अध्येताओं, जिज्ञासुओं, शोधार्थियों, सुरूचि सम्पन्न पर्यटकों को इसकी ओर आकर्षित करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया से स्थान विशेष के इतिहास एवं संस्कृति के बहुआयामी स्वरूप का उद्घाटन कर पाना सम्भव हो जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उद्घाटन के पश्चात् देर रात तक सांस्कृतिक कार्यक्रम होता रहा। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दूसरे दिन 28 मार्च को समापन समारोह के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ शासन के मुख्यमंत्री माननीय रमन सिंह के मुख्य आतिथ्य में आरम्भ हुआ। माननीय मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह ने लोगों को बताया की भोरमदेव को पर्यटन केन्द्र के रूप में विकासित करने हेतु एक योजना राज्य शासन ने केन्द्र शासन को भेजा है। इस प्रस्तावित योजना पर 12 करोड़ रू. की लागत व्यय अनुमानित है। आगामी दो वर्षों में इसका परिणाम यहाँ दिखाई पड़ने लगेगा।
इस अवसर पर माननीय महेन्द्र कर्मा एवं माननीय प्रेमप्रकाश पाण्डेय ने भी अपने विचार रखे। अन्त में संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने आगामी वर्ष से महोत्सव को अधिक व्यापक बनाये जाने की बात कही। उपरान्त अतिथियों एवं उपस्थित लोगों ने अनुराधा पोडवाल के भजनों तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द उठाया। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b>लेखकीय</b> </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भोरमदेव नाम स्मरण के साथ ही कबीरधाम जिला मुख्यालय कवर्धा से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर लगभग 17.6 कि.मी. की दूरी पर हरिशंकरी (संकरी) नदी के उभय तटों पर फैले जनशून्य ग्राम चौरा की विस्तार सीमा अन्तर्गत पद्मसरोवर नामक महातडाग के दक्षिण में 30 मी. की दूरी पर स्थित ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरभारतीय नागर प्राकर की मन्दिर स्थापत्य शैली में प्रस्तर निर्मित जिस मन्दिर विशेष की ओर ध्यान केन्द्रित होता है, उसके निर्माण का श्रेय प्राचीन चउरापुर वर्तमान चौराग्राम को राजधानी बनाकर अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक पहिचान स्थापित करने वाले फणिनागवंशीय नरेशों के उत्तराधिकार क्रम में छठे क्रम पर राज्य करने वाले राजा श्री गोपालदेव को रहा है। वास्तु रूप की सर्वांगपूर्णता, विशालता, भव्यता, अलंकरणात्मक अभिकल्पों की अभिव्यंजना में गतिमयता, अभिरामता, चारूता, लयात्मकता तथा प्रतीकात्मक भावबोध, षिल्पों में निदेशित विषयगत विविधता, विराटता, समग्रता, भावाभिव्यंजना की प्रौढ़ता, सहजता, क्रमबद्धता के साथ-साथ अपरिमित सम्प्रेषणशीलता को अपने अंग-अंग में भास्वर करते इस मन्दिर का छत्तीसगढ़ के ‘प्राचीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प’ के इतिहास में अपना विषिष्ट स्थान एवं महत्व है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्राचीन चउरापुर वर्तमान चौरा का राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ समसामयिक सांस्कृतिक इतिहास के समस्त पक्षों पर महत्वपूर्ण साक्ष्यों को संरक्षित रखने वाले स्थान के रूप में अनुपेक्षणीय महत्व है।
प्रस्तुत लघु विवरणिका के आरम्भ में चउरापुर को केन्द्र स्थानीय मानते हुए यहाँ के मन्दिरों, ऐतिहासिक स्मारकों के उल्लेख के साथ-साथ सम्पूर्ण परिवेश का दृश्यांकन प्रस्तुत किया गया है। यहाँ के मड़वामहल मन्दिर से प्राप्त शिलालेख में दिये गये विवरण के आधार पर फणिनागवंश के इतिहास पर प्रसंगानुरूप प्रकाश डाला गया है।
विवरणिका में महोत्सव पर्व के उदघाटन तथा समापन सत्रों पर आधारित विवरण ही वर्तमान कृति के आलेखन का मुख्य प्रयोजनीय पक्ष रहा है। आशा है विवरणिका का वर्तमान प्रकाशन भावी अपेक्षाओं का पथ प्रदर्शक सिद्ध होगा।
माननीय संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन मन्त्री श्री बृजमोहन अग्रवाल जी मेरे अभिन्न हैं। उनके द्वारा व्यक्त विचार एवं भावना इस लघु विवरणिका के सृजन के कारक आधार रहे हैं। अगर शरीर साथ देता रहा तो भविष्य में फणिनाग वंश और उनका काल शीर्षक से राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पर स्वतन्त्र पुस्तक छत्तीसगढ़ को अर्पित करने की अभिलाषा है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस लघु विवरणिका को उसके प्रस्तुत स्वरूप देने में वैचारिक स्तर पर मुझे राज्य पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के अधिकारी वर्ग का पूर्ण सहयोग रहा है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनसे प्राप्त सहयोग की भरपाई नहीं की जा सकती। मैं उन सबका ऋणी रहूंगा। कम्प्यूटर टाइपिंग से लेकर इसके प्रस्तुत रूप सज्जा को समूर्त रूप देने में सर्वश्री पी.सी. पारख, श्री तापस बसक, श्री संजय सिंह, श्री रविराज शुक्ल का उल्लेखनीय सहयोग रहा है। मैं इन्हें अपना हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हॅू।
सुधि जनों को समर्पित है मेरा यह प्रयास ... </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: right;">भवदीय </div><div style="text-align: right;">विष्णु सिंह ठाकुर
</div></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-71941462774418363572023-01-14T07:57:00.006+05:302023-01-14T08:27:46.584+05:30भोरमदेव पुस्तिका<i>श्री अजय चंद्रवंशी ने ‘<a href="https://akaltara.blogspot.com/2023/01/blog-post.html" target="_blank"><span style="color: #2b00fe;">भोरमदेव क्षेत्र</span></a>‘ पुस्तक तैयार की है। किसी प्राचीन स्मारक, पुरातात्विक स्थल की बेहतर समझ के लिए स्थानीय मान्यताओं, लोक विश्वास मूल्यवान और सहायक होते हैं। इसी क्रम में स्थल-स्मारक से संबंधित परचे, पुस्तिकाओं का भी महत्व होता है। भोरमदेव के विभिन्न पक्षों पर चर्चा के दौरान अजय जी ने इस पुस्तिका की जानकारी और साफ्ट कापी उपलब्ध कराई, उसका अंश यहां प्रस्तुत-</i><div><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">भोरमदेव का संक्षिप्त इतिहास</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">(पद्यों में)</span></b> </div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रस्तुत अंश किसी कवि ने भोरमदेव के सिलालेखों को देख कर सं. १९५९ (बीसवीं सदी का आरंभिक सन) में लिखी है। उस पुस्तक का सारांश यहाँ प्रस्तुत है। संग्रहकर्ता के अथक प्रयास से सं. २००५ (सन 1948?) में इस लघु कृति का संकलन हो सका।</div><div><br /></div><div style="text-align: center;">संकलनकर्ता</div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">स्व. रामसहाय पुजारी (भोरमदेव मन्दिर)</span> </div><div style="text-align: left;"><b>मूल्य ५० पैसा) (द्वितीय वृत्ति १०००</b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9HoTsnQcRC2XBlH7IahMUwTWdlrQzgv6fqjoAPLP4KUC8BjkAZVPxW3pVP-wsWJVfFAfwHOnTPwOdmdJb-dG1oHRFSP4w9Ess4YtWcPOYy3UsMxJIkKsu_u5wVm4LyErAbJKfFR0YzeUHH7Qs2i5gGLAO4nASKd99n2_JNopCDMnSv6OPqVb599Fu0Q/s1260/pic.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="679" data-original-width="1260" height="243" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9HoTsnQcRC2XBlH7IahMUwTWdlrQzgv6fqjoAPLP4KUC8BjkAZVPxW3pVP-wsWJVfFAfwHOnTPwOdmdJb-dG1oHRFSP4w9Ess4YtWcPOYy3UsMxJIkKsu_u5wVm4LyErAbJKfFR0YzeUHH7Qs2i5gGLAO4nASKd99n2_JNopCDMnSv6OPqVb599Fu0Q/w452-h243/pic.jpg" width="452" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><span style="font-size: medium;">भोरमदेव मन्दिर का ऐतिहासिक चित्रण</span></b></div></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">भोरमदेव मन्दिर एक अविस्मरणीय अद्वितीय एवं दार्शनिक ऐतिहासिक परम पूज्य स्थल है। जो कवर्धा से पश्चिम दिशा में १६ कि. मी. और बोड़ला से दक्षिण दिशा में ९ कि.मी की दूरी पर स्थित है, पास ही में एक छोटा सा ग्राम छपरी है। भोरमदेव एक अद्वितीय स्थान है जिसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जा सकता है। भोरमदेव मन्दिर के कुछ स्थान - ‘मड़वा महल‘ यह पुराने जमाने का एक विचित्र महल है जिसमें उस युग के वैवाहिक जीवन का मनोरम चित्रणं शिल्प कलाओं द्वारा प्रदर्शित किया गया है। जिसे देखकर मनुष्य अति आनन्द विभोर हो जाता है। भोरमदेव के निवास स्थान अभी भी खडहर के रूप में मौजूद हैं। मन्दिर के पश्चिम दिशा में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर यह स्थान है यहां अभी भी एक तालाब है, तालाब के किनारे एक किला है। जिसकी दीवाल अभी भी खंडहर रूप में मौजूद है यह किला करीब १५ एकड़ के क्षेत्रफल में है। मन्दिर के दरवाजे पर कभी २ सफेद माग भी दिखाई देते हैं, मंदिर के अंदर जहां शिवलिंग स्थापित है, उसके नीचे भी शिवलिंग है, तालाब के अंदर मी मन्दिर है, उसमे पारस पत्थर भी है। कुछ समय पहले तालाब से खाना पकाने के लिये बर्तन निकलते थे, आज मी ८ बजे सुबह व रात्रि को मनोरम ध्वनि होती हैं जिसे सुनकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कई प्रकार के वाद्य यंत्रों से युक्त होती है, दो बार ऐसी आवाज भी हुई है मानो मन्दिर गिर गया मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं।</div><div><br /></div><div style="text-align: justify;">दक्षिण दिशा के द्वार पर कुंवार के महीने १५-२० दिन तक एक दो मुंह का नाग रहता है। वह नाग इतने दिन तक वहां से कहीं भी नहीं हटता।</div><div><br /></div><div><b>दोहा -</b> भोरमदेव प्रसिद्ध है शेषनाग को अंश।</div><div>यथा सुमरति सों बरनिहों, भयो जहां लों वंश।।</div><div><br /></div><div><b>छप्पै -</b> जातुकरन मुनि नाम रहत तेहि कानन माहि।</div><div>तेहके युगलकुमार एक कन्या छबि जाहीं।।</div><div>निरखत रूप लोभात उमर सुन्दर वारेशी।</div><div>रच विचार करतार मनहू सांचे ढारे सी।।</div><div>तेहि नाम कहत मिथला सुभगचन्द्र वदन गजगामिनी।</div><div>लोचन विशाल कंचन रचित चंवल छबि जनुदामिनी।।</div><div><br /></div><div><b>सोरठा -</b> तास बन्धू के नाम आदि सुसरमा जानिये।</div><div>दूसर शील सुभाव ताहिं देव सरमा कहत।। </div><div>दूनौं बंधु चले जांय गिरी कन्दर तप करन हित। </div><div>रहत कुटि के माह आपु अकेलो कन्य का। </div><div>ताहि कुटी के पाहि रहो एक जल के गड्डा। </div><div>निकसे कछु दिन मांहि तहां से सेवक शेष को।। </div><div>निकसत देखी कुंवरि रूप सोने सो झलकै। </div><div>बरत दीप से वदन लटक नागिन सो अलकै।।</div><div>... ... ...</div><div>... ... ...</div><div>... ... ...</div><div><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;">सोरठा</span></div><div>दुर्गावती के माहिं छोटे से पर्वत सुघर।</div><div>अति रमणीक सुहाहिं उपर से झिरना झिरत।।</div><div>चली बहुरि होई धीर नाम ताहि सुरही नदी पावन।</div><div>कारीवारि नग्र कवर्धा होइ गई सुहावन।</div><div><br /></div><h2 style="text-align: center;">समाप्त</h2><div style="text-align: center;"><b>प्रकाशक - राधेश्याम सोनी, ग्राम - चवरा</b></div><div style="text-align: center;"><b>मुद्रक - दीपक प्रिंटिंग प्रेस, कवर्धा</b></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-91352480508675290012023-01-04T07:45:00.002+05:302023-01-04T07:49:37.696+05:30किस्सा भोरमदेव<i>आस्था, विश्वास, मान्यता और उससे उपजी जिज्ञासा-पूर्ति कथाएं, इतिहास-पुरातत्व की पूरक हैं। पुरातात्विक-प्राप्तियों के साथ उनकी पृष्ठभूमि, परिवेश-संदर्भ जितना आवश्यक होता है, उतना ही आवश्यक किसी पुरातात्विक-ऐतिहासिक स्थल-स्मारक के साथ जुड़ी कथाओं को दर्ज किया जाना। इतिहास के ‘वैज्ञानिक‘ अध्ययन के साथ कथाएं, रिक्त स्थान की पूर्ति करती हैं और शोध के लिए अलग दृष्टि, नई संभावना का अवसर देती हैं।</i><div><i><br /></i></div><div><i>अजय चंद्रवंशी ने अपनी पुस्तक ‘भोरमदेव क्षेत्र‘ पेज-18 पर उल्लेख किया है कि- अपने अध्ययन के दौरान हमें भोरमदेव की एक वृद्ध निरक्षर महिला, जो छेरकी महल में बैठती है, ने लगभग यही कहानी (मिथिला-शेषनाग का पुत्र अहिराज, फणिनागवंश का संस्थापक प्रथम शासक) सुनाई और बताया कि मिथिला के दोनों भाइयों को गर्भ के प्रति जो भरम (भ्रम) था उसी के कारण मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा। अजय जी ने वह <a href="https://youtu.be/bYNPZTWebaA" target="_blank"><span style="color: #2b00fe;">किस्सा रिकॉर्ड </span></a>भी किया है।</i></div><div><i><br /></i></div><div><i>यहां भोरमदेव का वही किस्सा है, जिसे संस्कृति एवं पुरातत्व के विभागीय सहयोगी श्री रायकवार के साथ श्री जे.आर. भगत ने <a href="https://youtu.be/XTeKVozkhRchttps://youtu.be/XTeKVozkhRc" target="_blank"><span style="color: #2b00fe;">रिकॉर्ड किया </span></a>और मेरे द्वारा श्री प्रभात सिंह की मदद से इसका लेख तैयार किया गया, यथासंभव, यथावत-</i></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh21A1xYEIv0a8lld0fOgCi-EnJpfkl7SccAKENIyTwMUb8j0-ED-8P6NLGJQGX8g_pXAdGHurnF581CJlfe96-IM6pUQiw6_NrhVuwkMRbnkEbJCbYxDbTEvqdix6wsL6wgfbg41d8sBaRYnUUqumx-i80V-B4sduarJi2LW72UBklRZhGONfD_SEbsQ/s538/pic-story.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="516" data-original-width="538" height="189" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh21A1xYEIv0a8lld0fOgCi-EnJpfkl7SccAKENIyTwMUb8j0-ED-8P6NLGJQGX8g_pXAdGHurnF581CJlfe96-IM6pUQiw6_NrhVuwkMRbnkEbJCbYxDbTEvqdix6wsL6wgfbg41d8sBaRYnUUqumx-i80V-B4sduarJi2LW72UBklRZhGONfD_SEbsQ/w197-h189/pic-story.jpg" width="197" /></a></div>एखर ले बताहूं एही मेर ले - देवांसू राजा छेरिया राखे राहय ना त महल नई बनावय। बिना महल के राखय छेरिया ला देव ह, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरि-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आहि अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं, बिन महल के राखथस। अभी हमर देव-देव के पहर हे, कोई समय मा मनखे के पहर आही, तेन देखे-घुमे ल आहि अइसे कइके। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हिआय हे। त आघू छेरि के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भूईयां म भूईयां गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरि लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे। देव मन ह, दू भाई एक बहिनी राहय। त देव के बहिनी गरभती म रई गे। त कइसे गरभती में भगवान। गांव-गोठन अदमी के तदमी हमर देव-देव के पहर भगवान कही, बड़े देव सोचे रोज कन। सोचते-सोचते एकात महीना सोचिस त छोटे देव ला सक करे अपने बहनीच संग, बड़े देव हर। ओ कथे - तोरो बहिनी मोरो बहिनी ए। अउ एके म खाना पिना होके रात बसे बर बहिनी के कुटिया मड़वा महल अतका रहय, दूनो भाई के कुटी छेरकी महल रहय। त तैं बहिनी ल परसों ले के देखबे देव। मोला झगरा झन कर देव रात म दूरिहा ले (अइसे कहिस)। त बहिनी के कुटिया रात बसे बर मड़वा महल अतका रहय। दूनो भाई के कुटी छेरकी महल रहय। त पचमुखी सेसनाग हर दिनमान सेसनाग बनय रात म राजकुमार बम्हन-रासपूत लड़का बनके फेर बहिनी के कुटिया म जावय। त परसों लिस त हिसाब जमीस ओला। अब बिहना होइस त देव पूछते - कइसे नोनी, हमर देवता-देवता के पहर तोर कुटिया म बम्हन-रासपूत लईका देखे हन अउ दिनमान नई देखउल दे हमर। कइसे भई कहिके। त ओ पचमुखी सेसनाग ए भईया। दिनमान सेसनाग बनथे, रात म राजकुमार बम्हन- रासपूत लड़का बन जाथे भई, अइसे कहिस, तउने मेर ले सोच-विचार लिस, देख-ताक लिस। त भोरमदेव ला न भरमाभूति में बनाए हे। तेखर सेती भोरमदेव कथे। नई त बहिनी संग भाई संग सक कर लिस, बहिनी ल। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अब भोरमदेव ल बना के अपन मड़वा महल के सुरू करिस त देव के बहिनी फेर कथे - कइसे भईया अउ भउजी सब मंदिरे मूरति बनाथो। महूं जाहूं देखे-घूमे ला कहिके। त अनेक परकार के चीज बनाबो नोनी तोर भउजी संग, तोर जाय के नो हे। बन लिही त एके दारी भेजबो, हमन देखे बर तोला। तोर जाय के नो हे। मड़वा महल के सुरू करे हांव। तें आबेच झन कहे रहिस अउ आईच जाबे त बेगर घंटी बजाय मत खुसरबे, कहे रहिस देव ह। त देव के बहिनी, हरू करिन चुपे काल चल दिस, मड़वा महल देखे बर। ओमन ह जांवर-जोड़ी मूरति ल बनाय, बिना ओन्हा कपड़ा के। तो घंटी ला बजाय रतिस ओखर बहिनी, त ओमन कपड़ा पहिने रतिन। त देव रहाय तेन मूरति ल बनाते-बनाते रूख अन भाग गे। अउ बहिनी लजा गे, भाई लजा गे। त झन भाग भाई, झन भाग भाई, मोर से गलती होगे। भईया तैं झन आबे कहे रहे त आ पारें। भईया तैं घंटी बजाबे कहे त नइ बजाएं पाएं भईया लहुट जा भाई। लहुट कहिस त नइ लहुटिस। देव भागिस तेन ह त बहिनी लहुटाय ल गिस। तभो नइ लहुटिस। त भाई के कनिहा ला बहिनी पकड़े, भाई-बहिनी जंगल भाग गे। दूनो भाई-बहिनी तेन जाके पथरा लहुट गे, दूनो भाई-बहिन ह। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">देवता के मउर-मटुक, पर्रा-बिजना ओखर संग म भाग गे। सहसपुर ले आए रतिस मगरोहन मड़वा महल म। सुवासा-सुवासी मगरोहन बर रेंगे बर रेंग दिन, कुकरा ल नइ नेवतन पाइस। कुकरा ल नेवत दे रतिस आज राते के कि मगरोहन ल कुकरा ते झन पासबे न, त कुकरा नइ पासे रतिस। कुकरा राहय तेन भिनसरहा पहर रोज पासथों कहिके कुकरुस-कूं अइसे पास गे। त कुकरा के आवाज ल सुनके सुवासा-सुवासिन सहसपुर मनसफ होए हें। अउ देव मन के बनाय मगरोहन कुंदे-कुंदाय सहसपुर बांधा म पेनाय रतिस त मड़वा म सादी-बिहाव होय रतिस। त मगरोहन नइ आन पाय हे, सहसपुर बांधा ले। अइसे कहानी हे। ए चौरागांव ए अउ ए छेरकी कछार गांव ए, ए देवता सब चौरा खार ए, ओ चौरागांव ए, ओहिदे। अब अतके धुर ले कहानी ह।
</div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-9360013495548352672023-01-03T09:12:00.003+05:302023-01-06T11:20:17.695+05:30 भोरमदेव क्षेत्र<i>इंटैक INTACH रायपुर अध्याय द्वारा अजय चंद्रवंशी की पुस्तक ‘भोरमदेव क्षेत्र‘ का प्रकाशन किया गया है। अजय जी की समीक्षा दृष्टि से मैं प्रभावित रहा हूं और पुरातत्व-संस्कृति से जुड़े होने के कारण, इंटैक का सदस्य न होते हुए भी, उस परिवार का सदस्य रहा हूं। किसी विशेषज्ञ-दृष्टि और शास्त्रीय अध्ययन के साथ स्थानीय सूचना-संदर्भों का महत्व आवश्यक होता है, इसे यह पुस्तक भी प्रमाणित करने वाली है। इस पुस्तक के लिए अजय जी ने मुझे भूमिका लिखने को कहा, और समय की कुछ मोहलत भी दी, इसलिए इस संदर्भ में अपनी सोच-समझ को ‘भूमिका‘ के रूप में अभिव्यक्त करने का संयोग बना, वही यहां प्रस्तुत-</i><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitONb813f2UTCLbFFgEjm6yl_jq87qlWuVCjy7n5wrkPTpHaFMkkeR6PN8kNInUBeDx-iY2oD-rwMgttssqNm_tic8KbmiDQwcd0DiBxCfCCm2Mfeuf9EZNpdV78wGSB5BwUYEDTrNFcGCm8ks5LGUCk7khMxruMRDr_UXIkMwsWKNuzcSiScn-IG_vA/s1024/pic-cover.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="660" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitONb813f2UTCLbFFgEjm6yl_jq87qlWuVCjy7n5wrkPTpHaFMkkeR6PN8kNInUBeDx-iY2oD-rwMgttssqNm_tic8KbmiDQwcd0DiBxCfCCm2Mfeuf9EZNpdV78wGSB5BwUYEDTrNFcGCm8ks5LGUCk7khMxruMRDr_UXIkMwsWKNuzcSiScn-IG_vA/s320/pic-cover.jpg" width="206"></a></div><div><br></div><div style="text-align: justify;">माना जाता है कि भारतीय धार्मिेक क्रिया-कलाप और मान्यताओं में पूजा-उपासना वैदिक यज्ञ-याग की परंपरा में बलि-आडंबर, कर्मकांड बढ़ता गया और छठीं शताब्दी ईस्वी पूर्व का बौद्ध-जैन काल इसकी परिणिति थी, जब लोग अन्य आचार-विचार की ओर आकृष्ट होने लगे। इधर उपनिषदों के बाद पुराणों में वैदिक इंद्र-वरुण और रूद्र-आदित्य का महात्म्य ब्रह्मा-विष्णु-महेश में बदलने लगा और शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर और गाणपत्य संप्रदाय विकसित हुए। सनातन धर्म के मूल्य वही रहे, किंतु बदलती मान्यताओं के साथ वैदिक निर्गुण यज्ञ, सगुण मंदिर उपासना केंद्र का रूप लेने लगे। अवतार, स्वरूप, विग्रह और देवकुल की अवधारणा के विकास ने धर्म-आचरण को अलग रूप दे दिया। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">स्मरणीय कि वैदिक ब्रह्मोद्य यानि वाद-संवाद वाहक शास्त्रार्थ की ज्ञान परंपरा रही है। शंकराचार्य की तरह स्वामी दयानंद ने पूरे देश में शास्त्रार्थ किया था। वे शास्त्रार्थ के लिए चार वेद, चार उपवेद, छह वेदांग, छह उपांग और मनु स्मृति प्रामाणिक मानते थे, पुराणों के विरोधी थे, ‘पाखंड खंडन‘ जैसी पुस्तक उन्होंने प्रकाशित कराई थी। 16 नवंबर 1869 को आनंदबाग, काशी में मंदिर और मूर्ति-पूजा पर स्वामी दयानंद का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है, जिसमें प्रतिवादी स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती थे। इतिहास और परंपरा में इसे कालगत स्थितियों के विभिन्न पक्षों के रूप में देखा जाना समीचीन होता है। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">इसके साथ वास्तु इतिहास पर नजर डालें तो हड़प्पायुगीन सभ्यता के बाद संरचनात्मक वास्तु प्रमाणों का लगभग अभाव रहा है। मौर्य काल और गुप्त काल के बीच की सदियां, इस्वी-पूर्व और पश्चात के लगभग 500 वर्षों में संरचनात्मक के बजाय शिलोत्खात वास्तु का प्रचलन रहा। गुप्त काल से संरचनात्मक मंदिर वास्तु का स्पष्ट और क्रमिक विकास देखा जा सकता है। यह भी अनुमान होता है कि शिलोत्खात चैत्य वास्तु और संरचनात्मक स्तूप वास्तु में धरन, चूल, कोष्ठक आदि काष्ठ-कारीगरी तकनीक के अनुकरण के कारण है। क्रमिक विकास में संरचनात्मक पाषाण वास्तु, जिसमें भार-संतुलन से और बाद में लोहे के क्लैम्प का प्रयोग होने लगा। 8 वीं से 12 सदी ईस्वी, मंदिर वास्तु का उच्चतम विकसित काल है। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">छत्तीसगढ़ में मंदिर वास्तु के उदाहरणों में 11-12 वीं सदी ईस्वी में कलचुरि और नागवंशी शासकों के अधीन उत्कृष्ट उदाहरण ज्ञात हैं। रतनपुर कलचुरियों का क्षेत्र व्यापक रहा और त्रिपुरी कलचुरियों की शैली का स्पष्ट प्रभाव उत्तरी छत्तीसगढ़ के डीपाडीह और महेशपुर जैसे स्थलों में है। इसी प्रकार नागवंशियों में चक्रकोट के छि़दक नागों का बारसूर और नारायणपुर जैसे केन्द्र हैं। दक्षिण कोसल के इतिहास के इस कालखंड में पश्चिमी-मध्य छत्तीसगढ़ में फणिनागवंशी काल मेें वास्तु कला के प्रतिमान रचे गए, उनका उत्कृष्ट नमूना भोरमदेव है।
मालवा के परमारों की भूमिज शैली के अपवाद के रूप में भी आरंग के भांड देउल मंदिर के साथ भोरमदेव मंदिर का उल्लेख होता रहा है। भांड देउल, उंची जगती अर्थात चबूतरे पर निर्मित है, किंतु भोरमदेव का मंदिर पूरी तरह भूमिज शैली का उदाहरण है। आर्क्यालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, खंड 17, 1881-82 अलेक्जेंडर कनिंघम ने पर्याप्त विस्तार से इसका विवरण दिया है। यह भी एक अपवाद कहा जा सकता है कि कनिंघम रिपोर्ट में इसके पुरातात्विक और कलात्मक महत्व के बावजूद यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित नहीं हुआ था। संभवतः रियासत के अधीन क्षेत्र में होने अथवा अधिसूचना जारी होने के पूर्व आपत्ति किए जाने के कारण ऐसा हुआ। बाद के वर्षों में यह मंदिर राज्य शासन द्वारा संरक्षित किया गया। मिथुन मूर्तियों के कारण यह ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1984 में संचालनालय पुरातत्व एवं संग्रहालय, मध्यप्रदेश से विभागीय अधिकारी डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल की पुस्तक ‘भोरमदेव प्रदर्शिका‘ आई। 1989 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के डॉ. सीताराम शर्मा की पुस्तक ‘भोरमदेव‘ मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल से प्रकाशित हुई। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">मंदिर वास्तु के अध्ययन में पारिभाषिक शब्दों, अंग-प्रत्यंग का नामकरण और निर्देश वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में मिलते हैं। मोटे तौर पर दक्षिण भारतीय मंदिरों और उड़ीसा के मंदिरों के लिए प्रयुक्त शब्द उत्तर भारत के लिए भिन्न हो जाते हैं, जिसका उदाहरण मंडप के लिए उड़ीसा में प्रयुक्त शब्द ‘जगमोहन‘ है। इसी प्रकार भूमि-थर, अंग-रथ, अधिष्ठान-पीठ, अंतराल-कपिली, विमान-प्रासाद जैसे शब्दों का अर्थ और उपयुक्त प्रयोग के लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। यह भी उल्लेखनीय है कि वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों की पांडुलिपियों की प्राप्ति और अध्ययन के पश्चात, भारतीय मंदिर स्थापत्य की शैली और पारिभाषिक शब्दों में परिवर्तन होता रहा है। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि भारतीय मंदिर वास्तु के अध्ययन में पर्सी ब्राउन और स्टेला क्रैमरिश के प्रयासों को मूल स्रोत-ग्रंथों के आधार पर कृष्णदेव और मधुसूदन ढाकी जैसे मूर्धन्य विद्वानों ने परिष्कार किया। औैर उत्तर भारत के मंदिर निर्माण परंपरा में सोमपुरा कुल, पांडुलिपियों के अध्ययन, संपादन, प्रकाशन के द्वारा शास्त्र के साथ-साथ तकनीक और प्रयोग में भी सक्रिय है। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">प्राकृतिक परिवेश, उत्कृष्ट संरचना और धार्मिक आस्था का केंद्र होने के कारण भोरमदेव मंदिर पर्यटक आकर्षण के केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। किंतु इसका एक पक्ष यह भी है कि पर्यटक सुविधाओं, आवश्यकताओं की पूर्ति और आधुनिक साज-सज्जा का प्रयास किया जाता रहा है, जो मंदिर के संरक्षण, प्राचीन मूल स्वरूप और पूरे परिवेश पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे किसी भी प्राचीन स्थल-स्मारक का आकर्षण उसके मूल स्वरूप के कारण ही होता है अतः पर्यटक-सुविधाओं की दृकष्ट से किए जाने वाले कार्यों और कथित विकास के दबाव पर नियंत्रण आवश्यक है और इस दृष्टि से मंदिर और उसके परिवेश के मूल स्वरूप को संरक्षित-सुरक्षित रखते हुए, अनुशंसित सीमा की दूरी पर विकास कार्य किए जाएं। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">अंगरेज अधिकारियों के बाद भोरमदेव मंदिर पर डॉ. सीताराम शर्मा और डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल जैसे विद्वानों ने विस्तार से अध्ययन किया है। इस क्रम में अजय चंद्रवंशी न सिर्फ क्षेत्रीय इतिहास, बल्कि फिल्म, साहित्य आदि के भी सजग अध्येता हैं और तथ्यों की प्रस्नुति में रोचकता और विश्वसनीयता का संतुलन बनाए रखते हैं। उनकी यह पुस्तक भोरमदेव से संबंधित अब तक प्रकाशित लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रकाशन, स्रोत-सामग्री का उपयोग कर तैयार की गई है, जिसमें उनकी सजग मीमांसा-दृष्टि के भी दर्शन होते हैं। इसलिए यह प्रकाशन भोरमदेव, क्षेत्रीय इतिहास और कला परंपरा के दस्तावेज के रूप में उपयोगी प्रतिमान साबित होगी, मेरा ऐसा विश्वास और शुभकामनाएं हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br></div><div style="text-align: justify;">पुनः हमारी सनातन परंपरा में उपासना ने वैदिक यज्ञ ने मंदिर-मूर्तियों का रूप ले लिया। समय के साथ बदलती स्थितियों और मान्यताओं का संदर्भ लेते हुए '<span style="letter-spacing: 0.2px;">जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।' या </span><span style="letter-spacing: 0.2px;">मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती अंश में आया ‘आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ...‘ का यहां उल्लेख प्रासंगिक होगा, अर्थात् ‘मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन करना नहीं जानता तथा पूजा करने का ढंग भी नहीं जानता। क्षमा करो। मैंने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो।‘</span></div>Rahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.com3