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Tuesday, April 22, 2025

कथा-कहानी

पचीसवां साल लगते इस सदी में पढ़ी पसंद आई कहानियां, जिनकी याद सबसे पहले आए, जिन्हें बार-बार कभी-भी दुहरा लेना चाहता हूं, यहां सहेज रहा हूं। (प्रेमचंद, रेणु, देथा से ले कर चेखव, ओ. हेनरी, पिछली सदी के पढ़े, इसलिए सूची में नहीं हैं।)- 

1 - कैलाश में प्रतिदिन संध्या समय शिवजी साधु-संतों और देवताओं को प्रवचन सुनाते थे। एक दिन पार्वती ने कहा कि इन साधु-संतो को ठंडी हवा और ओस से बचाने के लिए एक हाल का निर्माण किया जावे। किंतु शिव का यह संकल्प नहीं था फिर भी पार्वती का आग्रह बना रहा। अतः ज्योतिषियों को बुलाकर मंडप निर्माण के लिए उनकी सलाह ली गई। उन्होंने कहा कि ग्रहों के अनुसार शनि की प्रतिकूलता के कारण यह भवन अग्नि के द्वारा भस्म हो जायगा। फिर भी मंडप का निर्माण किया गया। अब शिव-पार्वती के लिये यह एक समस्या थी। शिव ने विचार किया कि शनि से अपना कोप शांत करने की प्रार्थना की जाय, यद्यपि इसकी उन्हें आशा नहीं थी क्योंकि शनि का कोप प्रसिद्ध था। इससे पार्वती को बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने निश्चय किया कि उस नन्हें से दुष्ट ग्रह को वे अपने द्वारा निर्मित मंडप के नाश का कारण नहीं बनने देंगी। उन्होंने यह तय किया कि यदि शनि न माने और मंडप को नष्ट ही करना चाहे तो इससे पूर्व वे स्वयं ही उसे नष्ट कर देंगी। शिव ने शनि से की गई प्रार्थना का उत्तर पाने तक रुकने को कहा। शनि के पास वे स्वयं जाने को तैयार हुए और कहा कि यदि शनि मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं तो मैं वापस आकर ही यह शुभ समाचार तुम्हें दूँगा। किन्तु यदि वे न मानें तो मैं यह डंका (डमरू?) बजाऊंगा। तब तुम उसे सुनकर इस मंडप को आग लगा देना ताकि शनि को इसे जलाने का श्रेय न मिल सके। पार्वती मशाल जलाकर तत्पर थी कि डंका बजे तो वे तत्काल अपना कार्य करें। और उस दुष्ट ग्रह को अपनी दुष्ट योजना सफल बनाने का क्षणमात्र भी अवसर न दें। वहाँ शिव की प्रार्थना को शनि ने स्वीकार कर लिया। अतः जब शनि ने शिव से प्रार्थना की कि वे उसे अपने प्रसिद्ध तांडव नृत्य को दिखावें तो शिव इन्कार न कर सके। उसकी प्रार्थना के अनुसार शिव डंका बजाकर तांडव नृत्य करने लगे। इस डंके का शब्द सुनकर यहाँ पार्वती ने मंडप में आग लगा दी और वह शिव संकल्प के अनुसार जलकर राख हो गया। चाहे जो हो दैवी संकल्प पूरा होना ही चाहिये। शनि तो दैवी योजना में निमित्त मात्र था। 
(श्री सत्य सांई वचनामृत 17-10-61) 

2 - ‘अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ...‘ पितरों ने कहा- ब्राह्मण श्रेष्ठ! इसी विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, उसे सुनकर तुम्हें वैसा ही आचरण करना चाहिये। पहले की बात है, अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मज्ञ, सत्यवादी, महात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्रपर्यन्त इस पृथ्वी को जीतकर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम कर दिखाया था। इसके पश्चात् उनका मन सूक्ष्मतत्त्व की खोज में लगा। महामते! वे बड़े-बड़े कर्मों का आरम्भ त्यागकर एक वृक्ष के नीचे जा बैठे और सूक्ष्म तत्त्व की खोज के लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे। 

अलर्क कहने लगे- मुझे मन से ही बल प्राप्त हुआ है, अतः वही सबसे प्रबल है। मन को जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय प्राप्त हो सकती है। मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ, इसलिये बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण सभी मनुष्यों से तरह-तरह के कर्म कराता है, अतः अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा। मन बोला- अलर्क। तुम्हारे ये बाण मुझे किसी तरह नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे और मर्मस्थानों के चीरे जाने पर तुम्हारी ही मृत्यु होगी; अतः तुम अन्य प्रकार के बाणों का विचार करो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर थोड़ी देर तक विचार के बाद वे नासिका को लक्ष्य करके बोले। मेरी यह नासिका अनेक प्रकार की सुगन्धियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है, इसलिये इन तीखे बाणों को मैं इस नासिका पर ही छोड़ूंगा। जो मन ने बोला, वही बात नासिका ने कही- तुम दूसरे प्रकार के बाणों का अनुसंधान करो। 

अलर्क ने क्रमशः जिह्वा को लक्ष्य करके कहा- यह रसना स्वादिष्ट रसों का उपभोग करके फिर उन्हें ही पाना चाहती है। इसलिये अब इसी के ऊपर अपने तीखे सायकों का प्रहार करूँगा। ... वही जवाब पाकर त्वचा पर कुपित होकर बोले। यह त्वचा नाना प्रकार के स्पर्शाें का अनुभव करके फिर उन्हीं की अभिलाषा किया करती है, अतः नाना प्रकार के बाणों से मारकर इस त्वचा को ही विदीर्ण कर डालूँगा। उससे भी वही बात सुन कर श्रोत्र को सुनाते हुए कहा- यह श्रोत्र बारंबार नाना प्रकार के शब्दों को सुनकर उन्हीं की अभिलाषा करता है, इसलिये मैं इन तीखे बाणों को श्रोत्र-इन्द्रिय के ऊपर चलाऊँगा। पुनः वैसी ही बात श्रोत ने कहा। यह सुनकर अलर्क ने कुछ सोच-विचारकर नेत्र को सुनाते हुए कहा- यह आँख भी अनेकों बार विभिन्न रूपों का दर्शन करके पुनः उन्हीं को देखना चाहती है। अतः मैं इसे अपने तीखे तीरों से मार डालूँगा। आँख ने वैसा ही कहा। यह सुनकर अलर्क ने कुछ देर विचार करने के बाद बुद्धि को लक्ष्य करके यह बात कही- यह बुद्धि अपनी ज्ञानशक्ति से अनेक प्रकार का निश्चय करती है, अतः इस बुद्धि पर ही अपने तीक्ष्ण सायकों का प्रहार करूँगा। बुद्धि भी वही बोली। 

ब्राह्मण ने कहा- देवि! तदनन्तर अलर्क ने उसी पेड़ के नीचे बैठकर घोर तपस्या की, किंतु उससे मन-बुद्धिसहित पाँचों इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न चला। तब वे सामर्थ्यशाली राजा एकाग्रचित्त होकर विचार करने लगे। विप्रवर! बहुत दिनों तक निरन्तर सोचने-विचारने के बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा अलर्क को योग से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं प्रतीत हुआ। वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग का साधन करने लगे। इस ध्यानयोगरूप एक ही बाण से मारकर उन बलशाली नरेश ने समस्त इन्द्रियों को सहसा परास्त कर दिया। वे ध्यानयोग के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इस सफलता से राजर्षि अलर्क को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान किया- ‘अहो! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में ही लगा रहा और भोगों की तृष्णा से आबद्ध होकर राज्य की ही उपासना करता रहा। ध्यानयोग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है, यह बात तो मुझे बहुत पीछे मालूम हुई है‘। 

पितामहों ने कहा- बेटा परशुराम! इन सब बातों को अच्छी तरह समझकर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। घोर तपस्या में लग जाओ, उसी से तुम्हें कल्याण प्राप्त होगा। अपने पितामहों के इस प्रकार कहने पर महान् सौभाग्यशाली जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने कठोर तपस्या की और इससे उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि प्राप्त हुई। 
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता विषयक तीसवाँ अध्याय) 

3 - शिकारी का सिर था या नहीं? तीन शिकारियों को यह पता चला कि गांव से थोड़ी ही दूर दर में एक भेड़िया छिपा हुआ है। उन्होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया। कैसे उन्होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात सुनाते हैं। मुझे तो बचपन से यह क़िस्सा इस तरह याद है। 

शिकारियों से बचने के लिये भेड़िया गुफा में जा छिपा। उसमें जाते का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्ता था-सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं। शिकारी पत्थरों के पीछे छिप गये, अपनी बन्दूकें उन्होंने गुफा के मुंह की तरफ़ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इन्तजार करने लगे। मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था। वह आराम से वहां बैठा रहा। मतलब यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इन्तजार करते-करते पहले ऊब जायेगा। 

एक शिकारी ऊब गया। उसने किसी न किसी तरह गुफा में घुसने और वहां से भेड़िये को निकालने का फ़ैसला किया। गुफा के मुंह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया। बाक़ी दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ़ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्यों नहीं करता। आखिर वे भी इन्तजार करते-करते तंग आ गये। उन्होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि उसका सिर नहीं है। 

अब वे यह सोचने लगे गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं था। 

सिर के बिना धड़ को वे गांव में लाये, लोगों को घटना सुनायी। एक बुजुर्ग ने कहा- इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शिकारी भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहां तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था। बात को साफ़ करने के लिये वे उसकी विधवा हो गयी बीवी के पास गये। 

‘‘मैं क्या जानूं कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिये नयी टोपी का आर्डर देता था।‘‘ 
(रसूल हमज़ातोव मेरा दाग़िस्तान पेज-42) 

4 - शक्करपारे 
रोज़ की तरह, सात साल का गुट्टू मुन्ना अपनी हमउम्र पड़ोसिन चुनमुन के पास खेलने पहुँचा। चुनमुन उसे अपने मकान के दालान में खड़ी मिली। वह बड़े चाव से कुटुर-कुटुर शक्करपारे खा रही थी। गुट्टू मुन्ना उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया, मगर न जाने क्यों चुनमुन ऐसी बन गई, जैसे उसने उसे देखा ही न हो। गुट्टू मुन्ना फिर ठीक चुनमुन के सामने आकर खड़ा हो गया, मगर चुनमुन ने तब भी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। 

‘यह चुनमुन बड़ी शान ही में मरी जा रही है!‘ गुट्टू मुन्ना ने सोचा और कहा, मत बोलो तो मत बोलो, हम भी नहीं बोलेंगे। 

फिर उसका ध्यान शक्करपारों की ओर गया। नरम पड़ते हुए वह बोला, चुनमुन! ओ चुनमुन! मुझसे क्यों बोल रहा है? चुनमुन बोली, याद नहीं. कल शाम तेरी-मेरी कुट्टी हो गई थी। 

गुट्टू मुन्ना को याद आया, कल शाम उसका और चुनमुन का झगड़ा हो गया था। उस झगड़े में सारा दोष चुनमुन ही का था। हाँ, घोड़ा-घोड़ा खेलने में गिर ही जाते हैं, उसने चुनमुन को जानकर थोड़े ही गिराया था। और फिर स्वयं वह भी तो गिरा था, उसके भी तो घुटने छिल गए थे। अब चुनमुन बेकार में अगर इस झगड़े को बढ़ाए तो चुनमुन की ग़लती है। कुट्टी तो फिर कुट्टी ही सही! 

लेकिन इस तर्क से चुनमुन को पराजित करने के बजाय, गुट्टू मुन्ना ने शक्करपारों पर दृष्टि जमाकर प्रस्ताव रखा, अच्छा चुनमुन, अब तेरा-मेरा सल्ला, हैं भाई? चुनमुन कुछ नहीं बोली। उसके दाँत कुटुर-कुटुर करते रहे। गुट्टू मुन्ना ने उसकी चुप्पी को खामोशी-ए-नीम-रज़ा समझकर उत्साह से कहा, अच्छा, अब तेरा-मेरा सल्ला हो गया; है ना चुनमुन ? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई; है ना चुनमुन? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई। 

गुट्टू मुन्ना चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। 

कुटुर-कुटुर-कुटुर! चुनमुन ने उत्तर दिया। 

गुट्टू मुन्ना घोर आशावादी था, इस उत्तर से तनिक भी निराश न हो, उसने बड़े ही प्रसन्न स्वर में कहा, अब मेरा-तेरा सल्ला हो गया, है ना? अब मैं और तू खूब मिलकर खेलेंगे, है ना? संग बाज़ार घूमने जाएँगे, है ना? खूब चीजें खाएँगे, है ना? तू मुझे शक्करपारे खिलाएगी, है ना? 

मगर इन शांति-घोषणाओं का चुनमुन पर कोई असर न हुआ। वह मज़े से एक शक्करपारे को अँगुलियों में थामकर चूसती रही। उसके चेहरे का हर हिस्सा बतलाता रहा कि शक्करपारे गुट्टू मुन्ना के वायदों से कहीं ज़्यादा मीठे हैं। हारकर गुट्टू मुन्ना दालान की सीढ़ियों पर बैठ गया। उसे विचार आया कि क्यों न वह चुनमुन के शक्करपारे छीन ले। और उन्हें छीनना उसके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। वह चुनमुन से तगड़ा जो था। लेकिन चुनमुन से शक्करपारे छीनने का अर्थ था, चुनमुन का रोना और उसकी माँ का भीतर से निकलकर आना। और गुट्टू मुन्ना अगर किसी से डरता था तो चुनमुन की माँ से। संक्षेप में यह कि छीनकर शक्करपारे मिल तो सकते थे, पर बड़े ही महँगे दामों में। कुछ समझ में न आता देख गुट्टू मुन्ना ने चुनमुन की ओर देखा, इस आशा से कि शायद उसकी मनःस्थिति में इस बीच कोई परिवर्तन आ गया हो। लेकिन स्थिति पूर्ववत् थी। चुनमुन की जेब से एक के बाद एक निकलकर शक्करपारे उसके मुँह में गायब होते जा रहे थे। 

गुट्टू मुन्ना ने देखा कि मौक़ा कुछ कर दिखाने का है, खाली बैठने से काम नहीं चलेगा। 

बादशाह फ़ोट्टी थ्री फ़ोर फ़ोट्टी फोर। मुहल्ले के शराबी की नक़ल करते हुए वह ज़ोर से चीखा। 

चुनमुन ने पलटकर उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और उसे लगा जैसे शक्करपारे उसके मुँह में आ गए हों। फ़ोटी फ़ोटीरी फ़ोर काला आदमी! उसने अपना अभिनय जारी रखा। 

चुनमुन ने एक शक्करपारा अपने होंठों में दबा लिया और उसे होंठों से ऊपर-नीचे हिलाती रही। गुट्टू मुन्ना के अभिनय पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। गुट्टू मुन्ना के मुँह में आए हुए शक्करपारे गायब हो गए, वहाँ केवल लार बची रही। 

गुट्टू मुन्ना फिर यूँ ही बेमतलब ज़ोर से हँसा। लेकिन इस हँसी का चुनमुन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा। मगर गुट्टू मुन्ना चुनमुन की जिज्ञासा प्रबल होने पर आस लगाए रहा और अपनी हँसी को तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए कोई मज़ेदार बात सोचने लगा। परंतु उसका ज़रखेज दिमाग भी आज कोई मज़ेदार बात न उपजा सका। इस मज़ेदार बात की कमी से तनिक भी हतोत्साह न हो गुट्टू मुन्ना पुनः जी खोलकर हँसा। 

काफ़ी हँस चुकने के बाद उसने हँसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ओहो, बड़े मज़े की बात, ओ हो हो हो! और वह फिर हँसने लगा। 

चुनमुन उसकी ओर से मुँह फेरती हुई बोली, कोई भी बात नहीं है। 

बात है। गुट्टू मुन्ना ने तैश में आकर कहा, लेकिन चुनमुन ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की और बात वहीं रह गई। 

गुट्टू मुन्ना की इच्छा हुई कि जाकर चुनमुन की चोटी खींच दे। शक्करपारे के मामले में वह सरासर बेईमानी कर रही थी। चोटी खींचने से तो शक्करपारे मिल नहीं सकते थे। गुट्टू मुन्ना ने खींचकर एक कंकड़ उठाया और पास ही सोए हुए पिल्ले को दे मारा। पिल्ला किकियाता हुआ उठकर भागा। गुट्टू मुन्ना की आँखें भागते हुए पिल्ले को संतोष-भरी नज़र से देखती रहीं। पिल्ला एक फलवाले के खोंचे के क़रीब टाँगों में दुम दबाए खड़ा हो गया। 

फलवाला आवाज़ लगा रहा था, आम लो, लँगड़े आम! 

गुट्टू मुन्ना को एक मज़ाक सूझा, उसने ज़ोर से पुकारा, ए लँगड़े! 

चुनमुन उसकी इस बात पर हँस दी। गुट्टू मुन्ना तुनककर बोला, मेरी बात पर क्यों हँस रही है? 

चुनमुन चबाया हुआ शक्करपारा निगलती हुई बोली, कोई भी नहीं हँस रहा। गुट्टू मुन्ना कुछ देर चुप रहा, फिर उसने एलान किया, मुझे और भी बहुत-सी बातें आती हैं। और चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन चुनमुन ने उसकी हँसी की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इधर गणितज्ञ गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क ने उसे बताया, जिस रफ़्तार से ये शक्करपारे खाए जा रहे हैं, उससे वे शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। अगर उसने अभी कुछ नहीं किया तो फिर उसकी शक्करपारे खाने की आशाएँ मात्र आशाएँ ही रह जाएँगी। 

फिर गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क के भीतर कहीं एक लाल बत्ती जली और उसके विचारों ने आश्चर्यप्रद फुर्ती से काम करना शुरू किया। इतनी फुर्ती से कि पलक मारते ही उनका कार्य समाप्त भी हो गया। गुट्टू मुन्ना को अपनी सबसे ज़बर्दस्त तरक़ीब सूझ गई। वह छलाँगें भरता हुआ अहाते के दरवाज़े पर जा पहुँचा। 

अब मेरा हवाई जहाज़ चलेगा! उसने बुलंद स्वर में घोषणा की और लपककर दरवाज़े पर चढ़ गया। उसके भार से दरवाज़ा चरमराता हुआ आगे-पीछे घूमने लगा। 

घर घर घर ढर्र ढर्र ढर्र ऊँ ऊँ ऊँ! गुट्टू मुन्ना का हवाई जहाज़ चल पड़ा। धीरे-धीरे, जैसे बिना किसी विशेष मतलब के, टहलते हुए चुनमुन हवाई जहाज़ के पास आकर खड़ी हो गई। 

जो हवाई जहाज़ पर चढ़ना चाहे चढ़ सकता है, लेकिन उसे सल्ला करना होगा और शक्करपारे खिलाने होंगे। 

चालक ने आकाश में उड़ते-उड़ते ही एलान किया। 

चुनमुन चुप रही। हवाई जहाज़ फौरन ज़मीन पर उतर आया और चालक ने एक बार फिर से एलान किया, हवाई जहाज़ पर जिसे चढ़ना हो, आ जाए! 

घर्र घर्र घर्र। हवाई जहाज़ स्टार्ट हो चुकने पर काफी देर यात्री की प्रतीक्षा करता रहा। फिर यात्री न आता देख चालक ने हवाई जहाज़ बिना यात्री के उड़ा दिया। 

ऊँ ऊँ ऊँ ऽऽऽ हवाई जहाज़ वायु को चीरता हुआ तेज़ी से उड़ने लगा और चालक ने एक बार फिर एलान किया, जिसे हवाई जहाज़ में आना हो, आ जाए! फिर विज्ञापन के हथकडे प्रयोग करता हुआ बोला, बड़ा ही मज़ा आ रहा है हवाई जहाज़ में। ओ हो! ओ हो! अहा! ओ हो! अहा! ओ हो! जिसे आना हो, आ जाए! 

लेकिन शायद उस दिन गुट्ट मुन्ना बिल्ली का मुँह देखकर उठा था, वरना क्यों हवाई जहाज़ की बेहद शौकीन चुनमुन ने अपनी कल्पनाप्रियता को ताक पर रख एक रूखा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, बड़ा हो रहा है यह हवाई जहाज़ ऐसे हवाई जहाज़ में कौन बैठे? ये हवाई जहाज़ थोड़े है, यह तो दरवाज़ा है! 

हवाई जहाज़ की रफ्तार धीमी पड़ने लगी, फिर सहसा वह तेज़ चलने लगा और चालक चीखने लगा, ओ हो! बड़ा मज़ा! ‘ओ हो! बड़ा मज़ा! ओ हो‘ 

चुनमुन कुछ देर हवाई जहाज़ को देखती रही और फिर, दरवाज़ा टूट जाएगा! कहकर सीढ़ियों पर बैठ गई। 

उसके सीढ़ियों पर बैठते ही हवाई जहाज़ ज़मीन पर उतर आया। चालक उसमें से कूदकर उतरा और चुनमुन के पास आकर खड़ा हो गया। 

उसने चुनमुन को ‘देती है या नहीं‘ वाली खूँख्वार नज़र से देखा। चुनमुन ने झट से जेब से चार शक्करपारे निकाल मुँह में एक साथ ठूँस लिए और हथेलियाँ झाड़ती हुई बोली, अब हैं ही नहीं, खतम! अब हैं ही नहीं, खतम! 

इस बात ने जैसे गुट्टू मुन्ना के गालों पर दो करारे चाँटे जड़ दिए। 

गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठा और उसका मुँह निराशा की कड़वाहट से भर आया। उसने फिर आव देखा न ताव, धड़ाधड़ चुनमुन के दो-तीन घूँसे जड़ दिए। चुनमुन रोने लगी। उसके रोते ही गुट्टू मुन्ना को ध्यान आया कि वह कितनी बड़ी भूल कर बैठा। मत रो चुनमुन! उसने कहा, मत रो! फिर कुछ रुककर, मत रो! 

मगर चुनमुन थी कि ‘पैं-पैं‘ लगाती ही रही और फिर हुआ वही जो होना था। चुनमुन की माँ घर से निकलकर आई और अपनी पिसे मसाले से सनी हथेलियाँ गुट्टू मुन्ना और चुनमुन के गालों पर जमा गई। फिर उसने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया और चुनमुन को संबोधित कर चीखी, अब देख, कौन तुझे भीतर आने देता है। 

मार खाकर दोनों बच्चे सीढ़ियों पर बैठे रोते रहे, फिर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों ने एक-दूसरे के चेहरे देखे। डबडबाती हुई सूजी-सूजी आँखें, मसाले से पुते हुए गाल, बिखरे हुए बाल, फड़फड़ाती हुई नाक की नोकें। चेहरे देखकर हँसी रोकी नहीं जा सकती है। 

तो पहले चुनमुन हँसी। फिर गुट्टू मुन्ना हँसा। 

गुट्टू मुन्ना ने पूछा, क्यों हँस रही है? 

चुनमुन बोली, तू क्यों हँस रहा है? गुट्टू मुन्ना ने जवाब दिया, मैं तो तेरी शक्ल देखकर हँस रहा हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

चुनमुन बोली, मैं भी तेरी शक्ल देखकर हँस रही हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

गुट्टू मुन्ना ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया और फिर सहसा प्रेरणा पाकर बोला, हम दोनों की शक्ल बंदर-जैसी लग रही है। चल, पनवाड़ी के ऐने में जाकर देखें! 
(मनोहर श्याम जोशी) 

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Sunday, December 29, 2024

देव बलौदा में महाभारत प्रसंग

यहां प्रस्तुत लेख इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की शोध पत्रिका ‘कला-वैभव’ के अंक-17 (2007-08) में पृष्ठ 86-87 पर प्रकाशित हुआ है। श्री रायकवार के इस लेख का टेक्स्ट इस प्रकार है-

दक्षिण कोसल की शिल्पकला में महाभारत के प्रसंग 
- श्री जी. एल. रायकवार*
*दूरभाष नं. 0771/2429109 (निवास) 

दक्षिण कोसल की स्थापायकता में रूपायित महाकाव्यों के कालजयी कथानकों के अंकन की परम्परा अत्यन्त मनोरंजक तथा कौतूहलवर्धक है। ईसवी पूर्व तृतीय-द्वितीय सदी से दक्षिण कोसल का इतिहास पुरावशेषों के माध्यम से प्रकट होने लगता है। इस अंचल की शिल्पकला का विकसित स्वरूप छठवी-सातवीं सदी ईसवी के ताला, मल्हार, राजिम, सिरपुर एवं अन्य स्थापत्य संरचनाओं में प्रस्फुटित है। इस काल में शरभपुरीय एवं सोमवंशी शासकों के द्वारा पुष्पित पल्लवित कला-परम्परा मंदिर स्थापत्य, विहार, प्रतिमाएं, मृण्मयी कला एवं धातु प्रतिमाओं में असीम सौन्दर्य तथा कला के मान्य सिद्धान्तों के अनुसार रूपायित है। रतनपुर के कलचुरि, कवर्धा के फणिनाग एवं बस्तर के छिंदक नाग शासकों के काल में कला-संस्कृति का स्वरूप स्थिर होने लगता है। इस काल में रामायण तथा महाभारत के पात्रों के जीवन से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं को शिल्पियों ने वर्ण्य विषय के रूप में स्वीकार कर मूर्तरूप प्रदान किया है। 

भारतीय कला के आधार तल में दार्शनिक चिन्तन, पौराणिक कथा एवं लोक-जीवन का समुच्चय है। कठोर पाषाण, ईंट, मिट्टी, काष्ठ, धातु एवं अन्य माध्यमों पर अभिव्यक्त कला से हमें तत्कालीन धारणाओं तथा मान्यताओं के साथ-साथ कला-अभिरुचि एवं शिल्पीय मौलिकता के दर्शन होते हैं। भारतीय कला एवं संस्कृति को प्रभावित करने वाले घटकों में धर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय आर्ष ग्रन्थों के अंतर्गत रामायण, महाभारत, पुराण साहित्य तथा धर्मशास्त्रों का कला एवं संस्कृति के पल्लवन में अतिशय योगदान है। 

शिल्पकला में महाभारत के प्रसंगों के निरूपण में दक्षिण कोसल के शिल्पियों ने देवालयों में स्थान निर्धारण तथा अभिधेय को न्यूनतम लक्षणों सहित प्रदर्शन के लिये स्वतंत्र रहा है। एकमात्र राजीव लोचन मंदिर को छोड़कर सोमवंशी काल के समस्त मंदिरों के मंडप भग्न है। राजीव लोचन मंदिर के मंडप में महाभारत के अप्रतिम योद्धा कर्ण तथा अर्जुन का शिल्पांकन मंडप में प्रवेश क्रम के प्रथम भित्तिस्तंभ में आमने- सामने संयोजित हैं। कर्ण तथा अर्जुन की अर्धस्तंभ पर रूपायित मानवाकार प्रतिमाएं प्रथम पंक्ति के क्रमशः बायें तथा दायें ओर दृष्टव्य हैं। उनके आयुधों में लम्बवत् विशाल धनुष, कंधे पर तूणीर तथा कटि में कटार का अंकन है। इनमें से एक प्रतिमा के वक्ष पर, आवृत कवच से कर्ण का अभिज्ञान सुस्पष्ट है। साथ ही साथ अधिष्ठान पर अश्व रूपायित है। कर्ण के पहचान से सम्मुख स्थित प्रतिमा का अभिज्ञान अर्जुन सुनिश्चित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सिरपुर स्थित स्थानीय संग्रहालय में सिरपुर के भग्नावशेषों से संग्रहीत कर्ण और अर्जुन की खंडित प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। इन प्रतिमा खंडों के अधिष्ठान में रथ भी रूपायित है। प्राप्त अवशेषों से सोमवंशी काल के वैष्णव मंदिरों के मंडप पर कर्ण और अर्जुन के रूपांकन की सुदीर्घ परम्परा पुष्ट होती है। 

कलचुरि कालीन कर्ण और अर्जुन की प्रतिमाएँ मारो (दुर्ग जिला), विजयपुर (बिलासपुर जिला) तथा मल्हार (बिलासपुर) से प्राप्त हुई हैं। उपरोक्त प्रतिमायें द्वार-शाखा की भाग हैं। शहडोल जिले के अनूपपुर के सन्निकट ग्राम सामतपुर स्थित लगभग बारहवीं सदी ईसवी के एक मंदिर का प्रवेश द्वार परिपूर्ण है। प्रवेश द्वार के ऊपरी हिस्से में दायें ओर सूर्य सहित कर्णं तथा बायें ओर इन्द्र सहित अर्जुन का अंकन है। विषय वस्तु के निरूपण में सामतपुर से प्राप्त अवशेष सुदृढ़ परम्परा और शिल्पीय कौशल का सुन्दर उदाहरण है। कर्ण और अर्जुन युक्त द्वार शाखा सरगुजा जिले के महेशपुर में भी प्राप्त हुई हैं। महेशपुर से ज्ञात विवेच्य प्रतिमायें त्रिपुरी के कलचुरियों के काल, लगभग 11 वीं सदी ईसवी में निर्मित हैं। विवेच्य प्रतिमाओं के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि शिल्पियों ने कर्ण और अर्जुन के प्रतिमा लक्षण में आयुध क्रम के अंतर्गत धनुष-बाण, तूणीर और अधिष्ठान में अश्वों के अंकन को मान्य किया है। 

कर्ण और अर्जुन के युद्ध से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण दृश्य देवबलोदा के शिव मंदिर में प्रदर्शित है। महाभारत के कर्ण पर्व पर आधारित कर्ण-अर्जुन के मध्य युद्ध का यह सर्वोत्तम दृश्य है। इस शिल्पकृति में दायें ओर अर्जुन तथा बायें ओर कर्ण रथारूढ़ बाण प्रहार करते हुये प्रदर्शित हैं। अर्जुन के रथ पर कपिध्वज है। कर्ण के द्वारा संधारित बाण पर अश्वसेन नाग का अंकन है। कर्ण और अर्जुन के द्वैरथ संग्राम में अर्जुन का प्रबल शत्रु अश्वसेन नाग की भूमिका तथा उपस्थिति का विशद वर्णन कर्ण पर्व में प्राप्त होता है। अश्वसेन नाग तथा कर्ण के मध्य संवाद में कर्ण की युद्धनीति, शालीनता तथा पराक्रम का उज्ज्वल पक्ष ज्ञात होता है। 

महाभारत के युद्ध में क्रूरतम विभीषिका के अंतर्गत दुःशासन का वध नारी के अपमान के भयंकर प्रतिशोध का परिणाम माना जाता है। दक्षिण कोसल की शिल्प कला में फिंगेश्वर (रायपुर जिला) के फणिकेश्वर महादेव के मंदिर के जंघा भाग में यह कक्षा रूपावित है। फणिकेश्वर मंदिर लगभग 14 वीं सदी ईसवी में क्षेत्रीय कलचुरि शासकों के काल में निर्मित है। प्रतिमा फलक में बायें ओर युद्धरत एक योद्धा भूमि पर लुंठित है तथा दूसरा योद्धा उस पर हाथों से प्रहार कर रहा है। लुंठित पुरुष के समीप गदा भूमि पर पड़ा हुआ है। ऊपरी मध्य भाग में एक बाहु पृथक से दिखाई पड़ रही है और फलक के अंतिम बायें भाग में एक नारी खड़ी हुई है। इस दृश्य में भीम के द्वारा दुःशासन के भुजा को उखाड़कर फेंकने, उसके हृदय का रक्तपान और उसके रक्त से द्रौपदी के केश प्रक्षालन की समस्त घटनाक्रम की शिल्पकृति में जिस कौशल से प्रदर्शित किया गया है वह दक्षिण कोसल के शिल्पी के निरंतर साधना का प्रतिफल है। भारतीय शिल्प कला में दुःशासन वध का यह एक मात्र ज्ञात शिल्प कृति है। प्रतिमा फलक में सीमित दृश्यांकन से कौरव-पांडवों के मध्य आयोजित द्यूत प्रसंग, दुःशासन के द्वारा द्रौपदी के केश पकड़कर सभा के मध्य पसीटते हुये लाना तथा भीम के द्वारा भीषण प्रतिशोध की घटना कौंध जाती है। महाभारत के कथानक को मौलिक कल्पना से सीमित स्थल में सहज रूप से रूपायित करने में शिल्पी की साधना अपूर्व है। 

दक्षिण कोसल में महाभारत कालीन पुरावत्वीय स्थल तथा अवशेष चिन्हांकित नहीं है तथापि महाभारत से संबंधित कथा तथा पात्रों के चरित्र गायन की मौखिक परम्परा अद्यतन इस अंचल में जीवित है जो 'पंडवानी' के नाम से जानी जाती है। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मंचों में पंडवानी के अनेक प्रदर्शन हुये हैं तथा इस विधा के गायन और अभिनय प्रस्तुति से कला मर्मज्ञ रोमांचित हुये हैं। छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन के सुप्रसिद्ध कला साधक पद्म विभूषण सुश्री तीजनबाई, श्री पूनाराम निषाद, श्रीमती रितु वर्मा, श्रीमती ऊषा बारले आदि प्राण-प्रण से इस परम्परा को सुरक्षित रखने तथा भावी पीढ़ी को उत्तराधिकार में सौंपने के लिये निस्वार्थ भाव से सचेष्ट हैं। 

अंततोगत्वा यह सुनिश्चित रूप से मान्य किया जा सकता है कि दक्षिण कोसल के सोमवंशी काल के स्थापत्य कला में कर्ण और अर्जुन के रूपांकन की परम्परा मान्य रही है। दक्षिण कोसल के कलचुरियों की कला में कर्ण और अर्जुन को द्वारशाखा पर रूपायित कर महत्व प्रदान किया गया साथ ही अन्य प्रसंगों को भी मूर्त करने में शिल्पी सफल रहे हैं। दक्षिण कोसल में महाभारत के शिल्पीय अभिव्यक्ति में मौलिकता, सजगता और कल्पना अद्वितीय है।