''1906/07 जब मादा अंडों पर बैठी थी तब एक नर गौरैया सूराख के पास कील पर बैठा था। मैंने अस्तबल में खड़ी गाड़ी के पीछे से उस नर को मारा। ... ... ... अगले सात दिनों में मैंने उस स्थान पर आठ नर गौरैयों को मार गिराया'' अविश्वसनीय लग सकता है कि यह प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली की हरकत है और उन्हीं का बयान 'एक गौरैया का गिरना' से लिया गया है। इतना ही नहीं, आगे टिप्पणी है- ''मुझे इस नोट पर गर्व है। ... ... ... आज के व्यवहार संबंधी अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है।''
पुस्तक के 'बस्तरः1949'अध्याय में लिखा है- ''अपने लंबे जीवन में सरगुजा के महाराजा की अपनी प्रजा के प्रति भलाई करने वाली एकमात्र प्रतिबद्धता थी, बाघों की हत्या करना। ... उन्होंने 1170 से अधिक बाघ मारकर, निश्चय ही किसी प्रकार का रिकार्ड बनाया होगा तथा अपने अंतकरण में, यदि उनमें था, उसकी कचोट अनुभव की होगी।'' एक अन्य उद्धरण है- ''सरगुजा राज्य के एक पड़ोसी राज्य, कोरेआ (पूर्वी मध्य प्रदेश) के महाराज के शिकार में अपना नाम अमर कर लिया है। उन्होंने ... भारत के अंतिम तीन चीतों का शिकार कर इस जाति का भारतीय जमीन पर से हमेशा के लिए सफाया कर दिया।''
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जिम कार्बेट की हथेली पर चिडि़या |
सिद्धार्थ और देवदत्त की प्रसिद्ध कहानी की सीख है- मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, लेकिन प्राणी संरक्षण के लिए बात थोड़े अंतर से कही जा सकती है कि मारने वाला ही बचाने का काम बेहतर करता है (ज्यों डिसेक्शन करने वाले हाथ ही शल्य चिकित्सा कर जान बचाते हैं)। ऊपर आए उद्धरणों के साथ कुमाऊं और रूद्रप्रयाग के आदमखोरों के शिकारी जिम कार्बेट का उदाहरण, उनके एक हाथ में लिए अंडों को बचाते हुए दूसरे हाथ से गोली दागने वाले प्रसंग सहित, स्मरणीय है। यों कहें कि भक्षक ही रक्षक या संहारक ही संरक्षक बन जाए तो इससे बेहतर रक्षा, और क्या होगी। बेगूसराय, बिहार के चिडि़मार अली हुसैन को सालिम अली द्वारा अपना सहयोगी पक्षी संरक्षक बना देने की नजीर है ही।
वन-वन्यजीव संरक्षण के दो उद्धरण- पहला, मृदुला सिन्हा द्वारा लिपिबद्ध राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' से- ''अपने शौक के लिए ही क्यों न सही, वन्य-संपदाओं के संरक्षण के लिए इन राजा-महाराजाओं ने जितनी सतर्कता बरती थी, वैसी तो आज जंगलों की रक्षा और पर्यावरण के प्रहरी बनने का ढोल पीटने वाले आधुनिक लोग भी नहीं बरतते होंगे। ये राजा-महाराजा इस बात के लिए अत्यंत जागरूक रहा करते थे कि शेरों की संख्या निर्धारित सीमा के नीचे कभी न जाने पाए। इसीलिए उनके हाथों वन्य-जीवों का संगोपन और संवर्ध्दन हो सका। और दूसरा, थोरो के 'वाल्डन' से- ''शिकार के जानवरों का शायद सबसे बड़ा मित्र ('पशु-परोपकारी समाज' को मिलाकर भी) शिकारी ही होता है।''
सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।
सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।
छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी खरौद के खुशखत, कवि कपिलनाथ मिसिर, बड़े पुजेरी की विशिष्ट और महत्वपूर्ण रचना है 'खुसरा चिरई के बिहाव'। यह काव्य, पक्षी कोश के साथ जैव विविधता जैसे आधुनिक शास्त्रीय विषयों और सूक्ष्म अवलोकन की समर्थ लोक अभिव्यक्ति हैं। रचना में खुसरा चिड़िया के विवाह अवसर पर पूरी जमात को शामिल और पक्षियों को उनके व्यवहार के अनुसार भूमिका निभाते बताया गया है। गौरैया के लिए 'गुड़रिया धान कुटाती है' और एक बार 'गौरेलिया पाठ पढ़ाता है' कहा गया है। वाद्यों में निसान, ढोल, मांदर, तमूरा, करताल, खंजरी, मोहरी, दफड़ा, टिमटिमी, नफेरी के साथ उनकी ध्वनि को शब्दों में उसी तरह बांधा गया है जैसे परती परिकथा में रेणु जी ने ('खुसरा...' का प्रकाशन 1948-49 में बताया जाता है)। इस रचना में विवाह के नेग-चार के साथ अन्न और पेड़ों की नाम-सूची के अलावा शिव-स्तुति श्लोक भी हैं।
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धूल-स्नानःबाथ सीन |
'कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर।
चींटी ले अंडा चढ़ै, तो बरखा भरपूर।'
गौरैया का धूल-स्नान, आसन्न वर्षा का तो जल-स्नान, वर्षा न होने का संकेत माना जाता है।
माना गया है कि गौरैया, रोग-व्याधि मुक्त स्थान पर ही घोंसला बांधती है। वह ब्राह्मणों की तरह छुआ-छूत में सख्त भी मानी गयी है। मनुष्य द्वारा छू लिये जाने पर उस गौरैया को छूत मान कर, जात निकाला दे कर चोंच मारा जाता है लेकिन सूपे को किसी डंडी से तिरछा टिका कर या कमरा बंद कर गौरेया पकड़ना, फिर उसे लाल-काला रंग कर या धागा बांधकर, उड़ाने के अभियान से शायद ही कोई बचपन अछूता हो।
एक किस्से में गौरेया मनुष्य जाति के लिए संदेश लेकर आती है कि दिन में एक बार खाना और दो बार नहाना, लेकिन कहने में उससे हुई चूक से मनुष्य एक बार स्नान और दो बार भोजन करने लगा। इसकी सजा स्वरूप उसके पैरों में अदृश्य बेड़ी पड़ गई और उसे चम्पा (एक साथ दोनों पैर पर, फुदककर) चलना पड़ता है। किस्से में यह भी बताया जाता है कि प्रायश्चित स्वरूप उसे खुद बार-बार स्नान करना पड़ता है और भोजन के फिराक में लगे रहना होता है। साल में दो बार त्यौहारों पर बेड़ी छूटती भी है, तब यह ठुमक-ठुमक कर, इतराती चलती है और यह दुर्लभ दृश्य, शुभ माना जाता है, इसके विपरीत गौरैया का प्रजनन देखना निषेध किया जाता है। पक्षी मैथुन, खासकर काग-मैथुन देख लेने पर झूठी मृत्यु सूचना दी जाती है और प्रायश्चित होता है जब कोई स्वजन इस खबर पर रो ले। पक्षियों, विशेषतः सर्वाधिक घरू गौरैया, मैना और कौए की बोली की व्याख्या करने वालों के भी रोचक संस्मरण सुनाए जाते हैं। गौरैये को लोक व्यवहार में पुंसत्व का भी प्रतीक माना गया है, संभवतः इसका कारण इस प्रजाति का बारहमासी प्रजनन काल और बारम्बारता है।
आंचलिक भावों के कवि कैलाश गौतम के फागुनी दोहे, बड़की भौजी जैसी कविताएं खूब पसंद की जाती हैं, उनकी ऐसी ही एक कविता 'भाभी की चिट्ठी' का दोहा है-
गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
सिर दुखता है जी करता चूल्हे की माटी खाने को,
गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी।
एक किस्से में काम के दौरान व्यवधान की सजा बतौर गौरैया के पैरों में लुहार द्वारा बेड़ी डालने की बात कही जाती है। गौरेया के लिए प्रचलित एक अन्य कहानी में चियां-म्यांरी (चूजे-मां) कुदुरमाल (कबीरपंथियों का प्रमुख केन्द्र) मेला के बजाय भांटा बारी (बैगन की बाड़ी) पहुंच कर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और किस्से के साथ गीत में इसकी मार्मिकता बयान होती है। पंचतंत्र की गौरैया के अंडे मदमत्त जंगली हाथी के कारण गिर कर फूट जाते हैं, तब वह विलाप तो करती है, लेकिन कठफोड़वा, मक्खी और मेंढक की मदद से बदला भी लेती है।
गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए,
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गए।
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में,
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में।
हुकम हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं,
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएं।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को,
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को।
बताया जाता है कि 1958 में माओ त्से-तुंग, आजकल उच्चारण माओ जिदौंग है, ने गौरेयों से होने वाले फसल का नुकसान कम करने के लिए गौरैयों को ही कम कर देना चाहा, लेकिन इस चक्कर में गौरैयों के भोजन बनने से बच जाने से टिड्डे इतने बढ़े कि उनसे हुए नुकसान से अकाल की स्थिति भुगतनी पड़ी।
''गांवों में कहा जाता हैः जिस घर में गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती वह घर निर्वंश हो जाता है। एक तरह से घर के आंगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुगकर मुड़ेरी पर बैठना, हर सांझ, हर सुबह हर कहीं तिनके बिखेरना, और घूम-फिरकर फिर रात में घर ही में बस जाना, अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्थ के लिए बच्चों की किलकारी, मीठी शरारत और निर्भय उच्छलता का प्रतीक है।'' यह विद्यानिवास मिश्र के 'आंगन का पंछी' (और बनजारा मन) का उद्धरण है, जो निबंध, चीन में गौरैयों के साथ किए जा रहे उक्त सलूक के प्रति आक्रोश और व्यथा से उपजी रचना है। विश्वमोहन तिवारी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ''घोंसला बनाने के लिए इसकी दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने तो मौलाना अबुल कलाम आजाद भी हारे थे'' का आशय अब तक तलाश रहा हूं।
बीते माह उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति के जिक्र सहित समाचार आया कि फोन टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से मधुमक्खियां, तितलियां, कीट और गौरेया गायब हो गई हैं। वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में रायपुर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान 8 जनवरी को उन्होंने बातचीत में कहा कि हमने अपने घर के खिड़की-दरवाजों को जाली से इस तरह बंद कर लिया है कि मच्छर भी न घुस सके, फिर गौरैया कैसे घर में प्रवेश करे (पंछी भी पर न मार सके)।
25 अप्रैल 2003 को इंडियन हिस्टारिकल रेकार्ड्स कमीशन के 58वें सत्र के उद्घाटन अवसर पर छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री के उद्बोधन का समापन वाक्य था- 'देश का तीसरा गर्म शहर रायपुर में आपका गर्मजोशी से स्वागत करता हूं।' प्रदूषण में भी यह शहर अव्वल ही न हो, होड़ में तो जरूर होगा। इस गरम, प्रदूषित शहर के इतिहास में सन 1938 की एक रिपोर्ट में यहां संग्रहालय भवन में अपरिमित गौरैयों का प्रवेश परेशानी का सबब बताया गया है।
सन 1875 मे निर्मित संग्रहालय भवन |
चटका पर चटका (संस्कृत में चिडि़या या गौरैया के लिए यही शब्द है, रायगढ़ के उड़ीसा सीमावर्ती झारा इसे चोटिया कहते हैं) यानि गौरैया पर क्लिक करें और देखें गत वर्ष से तय 20 मार्च, गौरैया दिवस के बारे में। हरेली पर चतुर्दिक हरियाली और दीपावली पर दीपों की रोशनी होती है, धन-धान्य से घर भरा हो तो नवाखाई और छेरछेरा, रंगों से सराबोर होली। लेकिन दिवस मनाने की अनिवार्य शर्त की तरह कमी और संकट का सयापा करना औपचारिकता बन गया है इसलिए ये 'दिवस', त्यौहार से भिन्न विलाप पर्व बन जाते हैं। अब हम क्या करें, गौरैया कम होने का रोना कैसे रोएं, कैसे हो इस दिवस की ऐसी औपचारिकता का निर्वाह। ये देखिए, शिवमंगल सिंह सुमन के शब्दों में 'मेरे मटमैले आंगन में फुदक रही गौरैया' या बच्चन जी के 'नीड़ का निर्माण फिर', 'एक दूजे के लिए' और 'एक चिडि़या, अनेक चिडि़या' वाले मेरे इर्द-गिर्द के दृश्य।
इस शहर रायपुर में तो गौरैया बहुतायत थीं, हैं और मेरा विश्वास है कि रहेंगी। सो हम इस 'दिवस' को त्यौहार जैसा ही मान रहे हैं और क्यों न रायपुर को गौरैया नगर मान लिया जाए।
पोस्ट आपको पसंद आए तो श्रेय उन ढेरों (अब्लॉगर) लोगों का, जिनके पास ऐसी 'अनुत्पादक' सूचनाओं का खजाना होता है, इनमें कुछेक से मेरा संपर्क-संवाद बना रहता है। इनमें रायपुर निवासी और अब भोपालवासी अग्रज आदरणीय बाबूदा (श्री नंदकिशोर तिवारी) भी हैं, जिन्होंने तत्काल संवाद के इस युग में पत्र लिखकर आशीर्वाद-स्वरूप कुछ महत्वपूर्ण संदर्भ डाक से नहीं, बल्कि हस्ते भेजा। इनलोगों से मिलते रहने पर अपनी अल्पज्ञता के साथ वेब की सीमाओं का भान होता रहता है। यह भी लगता है कि सब हमारे ही जिम्मे नहीं, बड़े-बुजुर्ग भी हैं। ऐसे सुहृद, मेरी ललचाई नजर को पहचान लेते हैं और मुखर हो कर, घर-आंगन से दुनिया-जहान तक के किस्से सुनाने लगते हैं।