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Tuesday, March 29, 2022

युवा मीत - YuMetta

अपनी बातचीत में युवा पीढ़ी के प्रति न सिर्फ आश्वस्ति, बल्कि बेहतर भविष्य की संभावना व्यक्त करता रहता हूं। यह कोरा आशावाद नहीं है। ऐसा संयोग लगभग लगातार रहता है कि मेरा संपर्क ऐसे युवाओं से होता है।

पिछले सप्ताह युवाओं से बातचीत के एक कार्यक्रम में गया। YuMetta Foundation संस्था के Go To The People Camp CHHATTISGARH में Journey Outwards के अंतर्गत मेरे लिए Understanding-accepting-editing system of relationships पर बात करना निर्धारित किया गया था। बताया गया कि प्रतिभागियों के लिए एक कैम्प Journey Inwards हो चुका है।


सत्र में लगभग 30 युवा और 10 आयोजक सदस्य थे। मेरे लिए उपलब्धि की तरह था कि परिचय आदि के बाद सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक लगातार प्रतिभागियों का साथ रहा। भोजन और चाय अंतराल के दौरान भी सत्र से जुड़ी अनौपचारिक चर्चा होती रही। आठ घंटे लगातार एकल वक्ता की भूमिका में, आयोजक सदस्यों के सहयोग से, सत्र पूरा करना सहज संभव इसलिए हुआ कि प्रतिभागी पूरे मन से जुड़े रहे। सवाल, जिज्ञासा, संदेह, आपत्ति करते रहे और मेरी बातों के साथ इत्तिफाक-नाइत्तिफाकी रखते पूरक जानकारी जोड़ते रहे।

सत्र में मैंने मुख्यतः जो बातें कहीं-


* पहले कैम्प में आप अंतर्मुख यात्रा का कठिन रास्ता तय कर चुके हैं, आगे बहिर्मुख यात्रा का रास्ता उसकी तुलना में आसान है, मगर उसमें आने वाली कठिनाइयों को नजरअंदाज नहीं करना है, उन्हें तलाशना है, जिसमें स्थिति के साथ निदानात्मक सामंजस्य बना सकने का आत्मविश्वास हो, उसके लिए कठिनाई को देख पाना और उसे सुलझाने की नीयत और तैयारी के साथ निर्वाह संभव होता है।कहा गया है, दूसरों को समझ लेना ज्ञानी का काम है। स्वयं को समझना प्रदीप्त होना है।

* ध्यान रहे नायक, अगुवा वही होता है, जो पहल करता है और समावेशी होता है। Leadership> initiation+inclusion.

* अपनी पहचान, अपने अभ्यस्त संदर्भों से अलग हटकर संभव है तो अपने परिवेश की पहचान अपने असपास के सभी संदर्भों के अवलोकन से। 

* ‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो‘ का पालन करें, मगर तटस्थ अवलोकन के बाद बुरा-भला तय करें, सिर्फ इसलिए कि बुरा है मान कर आंख, कान, मुंह न बंद कर लें। न ही अच्छा है तय कर आकर्षण में पड़े।

* खुद को पसंद करना और खुद पर भरोसा जरूरी है, मगर आत्म-मुग्ध हो कर आत्मकेंद्रित होने से बचें।

* आप खुद को पसंद करते हैं, मां के हाथ बना खाना पसंद है। अपना परिवार, रिश्तेदार, मित्र प्रिय है तो आप में पसंदगी का गुण है फिर आप परिवेश की निर्जीव वस्तुओं, सजीव वस्तुओं- पेड़-पौधे, जीव-जंतु/ गांव, समाज, इर्द-गिर्द घटित हो रहे से ले कर देश-दुनिया और उसके आगे की भी हलचल पर नजर रखते अपनी पसंद विस्तारित कर सकते हैं।

* स्वभाव (nature) से कोई सही-गलत, अच्छा-बुरा नहीं होता, उसे बदलने की न सोचें, न प्रयास करें। प्रत्येक व्यक्ति अपने मूल स्वभाव के अनुरूप समाज में संतुलित व्यवहार करते हुए उपयोगी और आवश्यक है। व्यवहार (behaviour) भी सही या गलत नहीं होता, बदलता रहता है और परिस्थितियों के संदर्भ में उपयुक्त या अनुपयुक्त हो सकता है, अतएव लचीला हो।

* मन तो अंतरा ही होता है, उसे बार-बार स्थायी पर लाना होता है। अंतरा, मन के भाव हैं और स्थायी, आचरण। अंतरा, जिसमें आचरण से अलग अंतरंग मन की झलक हो। 

* अपनी खुशी के मालिक आप स्वयं बने। व्यक्ति में हंसने और रोने की क्षमता है, परिस्थिति के अनुरूप दोनों आवश्यक भी है। परिस्थितियों पर अवसर अनुरूप किंतु स्थायी निर्भरता अपनी क्षमता पर हो। दिव्यांग, अपने वांछित लक्ष्य प्राप्त कर सकता है फिर सर्वांग क्यों नहीं!

* आंख और कान, अक्रिय और सक्रिय अवलोकन के लिए मुख्य ज्ञानेन्द्रियां हैं। हमारी शारीरिक अनिवार्यता हमारी अनैच्छिक मांसपंशियों के जिम्मे है और ढेर सारी प्रतिक्रियाएं प्रत्युत्पन्न। ज्ञानेन्द्रियों से एकत्र सूचना, मन-मस्तिष्क-विवेक से कर्मेंन्द्रियों को संचालित करती है।

* लक्ष्य-सोच, अपने परिवेश से आरंभ कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक। जिस परिवेश-समाज के हम सदस्य हैं, वहां की विसंगति-समस्या, वहां जो कमजोर-लाचार है, वह हमारी प्राथमिकता है।

* तात्कालिक प्रतिक्रिया और निष्कर्ष, आवश्यक हो तभी अन्यथा स्थिति का आकलन - मूल कारण - तात्कालिक कारण तथा उसका तात्कालिक - दीर्घकालिक परिणाम का विचार करें।

* प्राकृतिक विज्ञान में कार्य-कारण संबंध होते हैं, मगर सामाजिक विज्ञान में स्थिति के विभिन्न कारक होते हैं। कई बार मुख्य कारक ओझल से होते हैं और गौण कारण उभरे दिखाई पड़ते हैं, उन्हें ठीक ठीक पहचानने का प्रयास होना चाहिए।

* सामान्यतः भूत कारक, भूगोल और इतिहास की पृष्ठभूमि में होते हैं। वर्तमान कारक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक होते हैं तथा भविष्यत कारक वैचारिक, धार्मिक, नैतिक, आस्था और विश्वासगत होते हैं।

* व्यक्ति-स्थिति के नकारात्मक को, स्थिति की समस्या को पहचानना, नकारात्मक दृष्टिकोण मान कर उपेक्षणीय नहीं, बल्कि आवश्यक है किन्तु सकारात्मक अंश को रेखांकित कर उभारने, सक्रिय करने का प्रयास श्रेयस्कर और आवश्यक होता है।

* प्राथमिकताओं का निर्धारण और निराकरण, सामाजिक व्यवस्थागत विसंगतियां। समस्या के लिए पूर्वानुमान, सावधानी, आवश्यक संसाधनों का आकलन, उपलब्धता तथा समस्या के निदान, उपचार और स्थायी निराकरण की समग्र दृष्टि आवश्यक है।

* ऐसी कई बातों की चर्चा के साथ छत्तीसगढ़ को उदाहरण बना कर, उसका इस समग्रता की दृष्टि से परिचय कि किस प्रकार किसी अंचल का भूगोल, मानविकी, शासन व्यवस्था, अर्थशास्त्र, राजनीति, प्रशासन और उसके भविष्य के स्वरूप को निर्धारित करने वाले कारक होते हैं।


सत्र के दौरान मैंने महसूस किया कि वर्तमान और भविष्य की चिंता इन युवाओं को हमसे अधिक है, लेकिन उसमें निदान और निराकरण की संभावना देखने और उद्यम कर सकने का सामर्थ्य है। वे अपने भविष्य/कैरियर की वैकल्पिक संभावना के लिए भी तैयार हैं। हमें तब तक परेशान होने की जरूरत नहीं है, जब तक हम उनके साथ हैं, वे हमारे साथ हैं और हम भी उनकी तरह, उनके नजरिए से समाज और दुनिया की हर ऐसी कमी और जरूरत को देख पा रहे हैं, जिससे मुकाबिल होने का उत्साह उनमें है साथ ही दुनिया को बेहतर कर सकने का जज्बा भी।